देहधारण और उसका सार क्या है

16 मार्च, 2018

परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :

"देहधारण" परमेश्वर का देह में प्रकट होना है; परमेश्वर सृष्टि के मनुष्यों के मध्य देह की छवि में कार्य करता है। इसलिए, परमेश्वर को देहधारी होने के लिए, सबसे पहले देह बनना होता है, सामान्य मानवता वाला देह; यह सबसे मौलिक आवश्यकता है। वास्तव में, परमेश्वर के देहधारण का निहितार्थ यह है कि परमेश्वर देह में रह कर कार्य करता है, परमेश्वर अपने वास्तविक सार में देहधारी बन जाता है, वह मनुष्य बन जाता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

देहधारण का अर्थ है कि परमेश्वर का आत्मा देह बन जाता है, अर्थात्, परमेश्वर देह बन जाता है; देह के द्वारा किया जाने वाला कार्य पवित्रात्मा का कार्य है, जो देह में साकार होता है, देह द्वारा अभिव्यक्त होता है। परमेश्वर के देह को छोड़कर अन्य कोई भी देहधारी परमेश्वर की सेवकाई को पूरा नहीं कर सकता; अर्थात्, केवल परमेश्वर का देहधारी देह, यह सामान्य मानवता—अन्य कोई नहीं—दिव्य कार्य को व्यक्त कर सकता है। यदि, परमेश्वर के पहले आगमन के दौरान, उनतीस वर्ष की उम्र से पहले उसमें सामान्य मानवता नहीं होती—यदि जन्म लेते ही वह चमत्कार करने लगता, बोलना आरंभ करते ही वह स्वर्ग की भाषा बोलने लगता, यदि पृथ्वी पर कदम रखते ही सभी सांसारिक मामलों को समझने लगता, हर व्यक्ति के विचारों और इरादों को समझने लगता—तो ऐसे इंसान को सामान्य मनुष्य नहीं कहा जा सकता था, और ऐसे देह को मानवीय देह नहीं कहा जा सकता था। यदि मसीह के साथ ऐसा ही होता, तो परमेश्वर के देहधारण का कोई अर्थ और सार ही नहीं रह जाता। उसका सामान्य मानवता से युक्त होना इस बात को सिद्ध करता है कि वह शरीर में देहधारी हुआ परमेश्वर है; उसका सामान्य मानव विकास प्रक्रिया से गुज़रना दिखाता है कि वह एक सामान्य देह है; इसके अलावा, उसका कार्य इस बात का पर्याप्त सबूत है कि वह परमेश्वर का वचन है, परमेश्वर का आत्मा है जिसने देहधारण किया है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

देहधारी परमेश्वर मसीह कहलाता है और मसीह परमेश्वर के आत्मा द्वारा धारण की गई देह है। यह देह किसी भी मनुष्य की देह से भिन्न है। यह भिन्नता इसलिए है क्योंकि मसीह मांस तथा खून से बना हुआ नहीं है; वह आत्मा का देहधारण है। उसके पास सामान्य मानवता तथा पूर्ण दिव्यता दोनों हैं। उसकी दिव्यता किसी भी मनुष्य द्वारा धारण नहीं की जाती। उसकी सामान्य मानवता देह में उसकी समस्त सामान्य गतिविधियां बनाए रखती है, जबकि उसकी दिव्यता स्वयं परमेश्वर के कार्य अभ्यास में लाती है। चाहे यह उसकी मानवता हो या दिव्यता, दोनों स्वर्गिक परमपिता की इच्छा को समर्पित हैं। मसीह का सार पवित्र आत्मा, यानी दिव्यता है। इसलिए, उसका सार स्वयं परमेश्वर का है; यह सार उसके स्वयं के कार्य में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा और वह संभवतः कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता, जो उसके स्वयं के कार्य को नष्ट करता हो, न ही वह ऐसे वचन कहेगा, जो उसकी स्वयं की इच्छा के विरुद्ध जाते हों। इसलिए, देहधारी परमेश्वर कभी भी कोई ऐसा कार्य बिल्कुल नहीं करेगा, जो उसके अपने प्रबंधन में बाधा उत्पन्न करता हो। यह वह बात है, जिसे सभी मनुष्यों को समझना चाहिए। पवित्र आत्मा के कार्य का सार मनुष्य को बचाना और परमेश्वर के अपने प्रबंधन के वास्ते है। इसी प्रकार, मसीह का कार्य भी मनुष्य को बचाना है तथा परमेश्वर की इच्छा के वास्ते है। यह देखते हुए कि परमेश्वर देह बन जाता है, वह अपने देह में अपने सार का, इस प्रकार अहसास करता है कि उसकी देह उसके कार्य का भार उठाने के लिए पर्याप्त है। इसलिए देहधारण के समय परमेश्वर के आत्मा का संपूर्ण कार्य मसीह के कार्य द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया जाता है और देहधारण के पूरे समय के दौरान संपूर्ण कार्य के केंद्र में मसीह का कार्य होता है। इसे किसी भी अन्य युग के कार्य के साथ मिलाया नहीं जा सकता। और चूँकि परमेश्वर देहधारी हो जाता है, वह अपनी देह की पहचान में कार्य करता है; चूँकि वह देह में आता है, वह अपनी देह में वह कार्य पूरा करता है, जो उसे करना चाहिए। चाहे वह परमेश्वर का आत्मा हो या चाहे वह मसीह हो, दोनों स्वयं परमेश्वर हैं और वह उस कार्य को करता है, जो उसे करना चाहिए और उस सेवकाई को करता है, जो उसे करनी चाहिए।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है

देहधारी हुए परमेश्वर को मसीह कहा जाता है, और इसलिए वह मसीह जो लोगों को सत्य दे सकता है परमेश्वर कहलाता है। इसमें कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है, क्योंकि वह परमेश्वर का सार धारण करता है, और अपने कार्य में परमेश्वर का स्वभाव और बुद्धि धारण करता है, जो मनुष्य के लिए अप्राप्य हैं। वे जो अपने आप को मसीह कहते हैं, परंतु परमेश्वर का कार्य नहीं कर सकते हैं, धोखेबाज हैं। मसीह पृथ्वी पर परमेश्वर की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, बल्कि वह विशेष देह भी है जिसे धारण करके परमेश्वर मनुष्य के बीच रहकर अपना कार्य करता और पूरा करता है। यह देह किसी भी आम मनुष्य द्वारा उसके बदले धारण नहीं की जा सकती है, बल्कि यह वह देह है जो पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य पर्याप्त रूप से संभाल सकती है और परमेश्वर का स्वभाव व्यक्त कर सकती है, और परमेश्वर का अच्छी तरह प्रतिनिधित्व कर सकती है, और मनुष्य को जीवन प्रदान कर सकती है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है

जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर का सार होगा और जो देहधारी परमेश्वर है, उसके पास परमेश्वर की अभिव्यक्ति होगी। चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उस कार्य को सामने लाएगा, जो वह करना चाहता है, और चूँकि परमेश्वर ने देह धारण किया है, इसलिए वह उसे अभिव्यक्त करेगा जो वह है और वह मनुष्य के लिए सत्य को लाने, उसे जीवन प्रदान करने और उसे मार्ग दिखाने में सक्षम होगा। जिस देह में परमेश्वर का सार नहीं है, वह निश्चित रूप से देहधारी परमेश्वर नहीं है; इसमें कोई संदेह नहीं। अगर मनुष्य यह पता करना चाहता है कि क्या यह देहधारी परमेश्वर है, तो इसकी पुष्टि उसे उसके द्वारा अभिव्यक्त स्वभाव और उसके द्वारा बोले गए वचनों से करनी चाहिए। इसे ऐसे कहें, व्यक्ति को इस बात का निश्चय कि यह देहधारी परमेश्वर है या नहीं और कि यह सही मार्ग है या नहीं, उसके सार से करना चाहिए। और इसलिए, यह निर्धारित करने की कुंजी कि यह देहधारी परमेश्वर की देह है या नहीं, उसके बाहरी स्वरूप के बजाय उसके सार (उसका कार्य, उसके कथन, उसका स्वभाव और कई अन्य पहलू) में निहित है। यदि मनुष्य केवल उसके बाहरी स्वरूप की ही जाँच करता है, और परिणामस्वरूप उसके सार की अनदेखी करता है, तो इससे उसके अनाड़ी और अज्ञानी होने का पता चलता है।

— "वचन देह में प्रकट होता है" की 'प्रस्तावना' से उद्धृत

परमेश्वर के देहधारण का निहितार्थ यह है कि परमेश्वर देह में रह कर कार्य करता है, परमेश्वर अपने वास्तविक सार में देहधारी बन जाता है, वह मनुष्य बन जाता है। उसके देहधारी जीवन और कार्य को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला वह जीवन है जो वह सेवकाई प्रारम्भ करने से पहले जीता है। वह एकदम सामान्य मानवता में रहता है, सामान्य मानवीय परिवार में रहकर, जीवन की सामान्य नैतिकताओं और व्यवस्थाओं का पालन करता है, उसकी सामान्य मानवीय आवश्यकताएँ होती हैं, (भोजन, कपड़ा, आवास, निद्रा), उसमें सामान्य मानवीय कमज़ोरियाँ और सामान्य मानवीय भावनाएँ होती हैं। दूसरे शब्दों में, इस पहले चरण में वह सभी मानवीय क्रियाकलापों में शामिल होते हुए, बिना दिव्यता के, पूरी तरह से सामान्य मानवता में रहता है। दूसरा चरण वह जीवन है जो वह अपनी सेवकाई को आरंभ करने के बाद जीता है। वह इस अवधि में भी, सामान्य मानव-आवरण के साथ, सामान्य मानवता में रहता है, और किसी तरह की अलौकिकता का कोई संकेत नहीं देता। फिर भी वह पूरी तरह से अपनी सेवकाई के लिए ही जीता है, और इस दौरान उसकी सामान्य मानवता पूरी तरह से उसकी दिव्यता के सामान्य कार्य को करने में लगी रहती है, क्योंकि तब तक उसकी सामान्य मानवता उसकी सेवकाई के कार्य को करने में सक्षम होने की स्थिति तक परिपक्व हो चुकी होती है। तो उसके जीवन का दूसरा चरण सामान्य मानवता में अपनी सेवकाई को करना है, जब यह सामान्य मानवता और पूर्ण दिव्यता दोनों का जीवन होता है। अपने जीवन के प्रथम चरण में वह पूरी तरह से साधारण मानवता का जीवन क्यों जीता है, उसका कारण यह है कि उसकी मानवता अभी तक दिव्य कार्य की समग्रता को संभालने लायक नहीं हो पायी है, अभी तक वह परिपक्व नहीं हुई है; जब उसकी मानवता परिपक्व हो जाती है, उसकी सेवकाई को सहारा प्रदान करने के योग्य बन जाती है, तभी वह जो सेवकाई उसे करनी चाहिए, उसकी शुरूआत कर सकता है। चूँकि उसे देह के रूप में विकसित होकर परिपक्व होने की आवश्यकता होती है, इसलिए उसके जीवन का पहला चरण सामान्य मानवता का जीवन होता है, जबकि दूसरे चरण में, क्योंकि उसकी मानवता उसके कार्य का दायित्व लेने और उसकी सेवकाई को करने में सक्षम होती है, अपनी सेवकाई के दौरान देहधारी परमेश्वर जिस जीवन को जीता है वह मानवता और पूर्ण दिव्यता दोनों का जीवन होता है। यदि अपने जन्म के समय से ही देहधारी परमेश्वर, अलौकिक संकेतों और चमत्कारों को दिखाते हुए, गंभीरता से अपनी सेवकाई आरंभ कर देता, तो उसमें कोई भी दैहिक सार नहीं होता। इसलिए, उसकी मानवता उसके दैहिक सार के लिए अस्तित्व में है; मानवता के बिना कोई देह नहीं हो सकता, और मानवता के बिना कोई व्यक्ति मानव नहीं होता। इस तरह, परमेश्वर के देह की मानवता, परमेश्वर के देहधारण की अंतर्भूत सम्पत्ति है। ऐसा कहना कि "जब परमेश्वर देहधारण करता है तो वह पूरी तरह से दिव्य होता है, मानव बिल्कुल नहीं होता," ईशनिंदा है, क्योंकि इस वक्तव्य का कोई अस्तित्व ही नहीं है, और यह देहधारण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है। अपनी सेवकाई आरंभ करने के बाद भी, अपना कार्य करते हुए वह बाह्य मानवीय आवरण के साथ ही अपनी दिव्यता में रहता है; बात सिर्फ़ इतनी ही है कि उस समय, उसकी मानवता उसकी दिव्यता को सामान्य देह में कार्य करने देने के एकमात्र प्रयोजन को पूरा करती है। इसलिए कार्य की अभिकर्ता उसकी मानवता में रहने वाली दिव्यता है। कार्य उसकी दिव्यता करती है, न कि उसकी मानवता, मगर यह दिव्यता उसकी मानवता में छिपी रहती है; सार रूप में, उसका कार्य उसकी संपूर्ण दिव्यता द्वारा ही किया जाता है, न कि उसकी मानवता द्वारा। परन्तु कार्य को करने वाला उसका देह है। कह सकते हैं कि वह मनुष्य भी है और परमेश्वर भी, क्योंकि परमेश्वर, मानवीय आवरण और मानवीय सार के साथ, देह में रहने वाला परमेश्वर बन जाता है, लेकिन उसमें परमेश्वर का सार भी होता है। चूँकि वह परमेश्वर के सार वाला मनुष्य है इसलिए वह सभी सृजित मानवों से ऊपर है, ऐसे किसी भी मनुष्य से ऊपर है जो परमेश्वर का कार्य कर सकता है। तो, उसके समान मानवीय आवरण वाले सभी लोगों में, सभी मानवता धारियों में, एकमात्र वही देहधारी स्वयं परमेश्वर है—अन्य सभी सृजित मानव हैं। यद्यपि उन सभी में मानवता है, किन्तु सृजित मानव में केवल मानवता ही है, जबकि देहधारी परमेश्वर भिन्न है : उसके देह में न केवल मानवता है, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उसमें दिव्यता भी है। उसकी मानवता उसके देह के बाहरी रूप-रंग में और उसके दिन-प्रतिदिन के जीवन में देखी जा सकती है, किन्तु उसकी दिव्यता को देख पाना मुश्किल है। क्योंकि उसकी दिव्यता केवल तभी व्यक्त होती है जब उसमें मानवता होती है, और यह वैसी अलौकिक नहीं होती जैसी लोग कल्पना करते हैं, इसलिए लोगों के लिए इसे देख पाना बहुत कठिन होता है। आज भी, लोगों के लिए देहधारी परमेश्वर के सच्चे सार की थाह पाना बहुत कठिन है। इसके बारे में इतने विस्तार से बताने के बाद भी, मुझे लगता है कि तुम लोगों में से अधिकांश के लिए यह एक रहस्य ही है। वास्तव में, यह मामला बहुत सरल है : चूँकि परमेश्वर देहधारी बन जाता है, इसलिए उसका सार मानवता और दिव्यता का संयोजन है। यह संयोजन स्वयं परमेश्वर, पृथ्वी पर स्वयं परमेश्वर कहलाता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

देहधारी परमेश्वर की मानवता देह में सामान्य दिव्य कार्य को बनाए रखने के लिए मौजूद रहती है; उसकी सामान्य मानवीय सोच उसकी सामान्य मानवता को और उसकी समस्त सामान्य दैहिक गतिविधियों को बनाए रखती है। ऐसा कहा जा सकता है कि उसकी सामान्य मानवीय सोच देह में परमेश्वर के समस्त कार्य को बनाए रखने के उद्देश्य से विद्यमान रहती है। यदि इस देह में सामान्य मानवीय मन न होता, तो परमेश्वर देह में कार्य न कर पाता और जो उसे देह में करना था, वह कभी न कर पाता। यद्यपि देहधारी परमेश्वर में एक सामान्य मानवीय मन होता है, किन्तु उसके कार्य में मानवीय विचारों की मिलावट नहीं होती; वह सामान्य मन के साथ मानवता में कार्य करता है जिसमें मन-युक्त मानवता के होने की पूर्वशर्त रहती है, न कि सामान्य मानवीय विचारों को प्रयोग में लाने की। उसके देह के विचार कितने भी उत्कृष्ट क्यों न हों, लेकिन उसका कार्य तर्क या सोच से कलंकित नहीं होता। दूसरे शब्दों में, उसके कार्य की कल्पना उसके देह के मन के द्वारा नहीं की जाती, बल्कि वह उसकी मानवता में दिव्य कार्य की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। उसका समस्त कार्य उसकी वह सेवकाई है जिसे उसे पूरा करना है, उसमें से कुछ भी उसके मस्तिष्क की कल्पना नहीं होता। उदाहरण के लिए, बीमार को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना, और क्रूसीकरण उसके मानवीय मन की उपज नहीं थे, उन्हें किसी भी मानवीय मन वाले मनुष्य द्वारा नहीं किया जा सकता था। उसी तरह, आज का विजय-कार्य ऐसी सेवकाई है जिसे देहधारी परमेश्वर द्वारा किया जाना चाहिए, किन्तु यह किसी मानवीय इच्छा का कार्य नहीं है, यह ऐसा कार्य है जो उसकी दिव्यता को करना चाहिए, ऐसा कार्य जिसे करने में कोई भी दैहिक मानव सक्षम नहीं है। इसलिए देहधारी परमेश्वर में सामान्य मानव मन होना चाहिए, सामान्य मानवता से संपन्न होना चाहिए, क्योंकि उसे एक सामान्य मन के साथ मानवता में कार्य करना चाहिए। यही देहधारी परमेश्वर के कार्य का सार है, देहधारी परमेश्वर के कार्य का वास्तविक सार है।

कार्य आरंभ करने से पहले, यीशु सामान्य मानवता में रहता था। कोई नहीं कह सकता था कि वह परमेश्वर है, किसी को भी पता नहीं चला कि वह देहधारी परमेश्वर है; लोग उसे पूरी तरह से एक साधारण व्यक्ति ही समझते थे। उसकी सर्वथा सामान्य, साधारण मानवता इस बात का प्रमाण थी कि परमेश्वर ने देहधारण किया है, और अनुग्रह का युग देहधारी परमेश्वर के कार्य का युग है, न कि पवित्रात्मा के कार्य का युग। यह इस बात का प्रमाण था कि परमेश्वर का आत्मा पूरी तरह से देह में साकार हुआ है और परमेश्वर के देहधारण के युग में उसका देह पवित्रात्मा का समस्त कार्य करेगा। सामान्य मानवता वाला मसीह ऐसा देह है जिसमें आत्मा साकार हुआ है, जिसमें सामान्य मानवता है, सामान्य बोध है और मानवीय विचार हैं। "साकार होने" का अर्थ है परमेश्वर का मानव बनना, आत्मा का देह बनना; इसे और स्पष्ट रूप से कहें, तो यह तब होता है जब स्वयं परमेश्वर सामान्य मानवता वाले देह में वास करके उसके माध्यम से अपने दिव्य कार्य को व्यक्त करता है—यही साकार होने या देहधारी होने का अर्थ है। अपने पहले देहधारण के दौरान, परमेश्वर के लिए बीमारों को चंगा करना और दुष्टात्माओं को निकालना आवश्यक था, क्योंकि उसका कार्य छुटकारा दिलाना था। पूरी मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए, उसका दयालु और क्षमाशील होना आवश्यक था। सलीब पर चढ़ाए जाने से पहले उसने बीमार को चंगा करने और दुष्टात्माओं को निकालने का कार्य किया, जो उसके द्वारा मनुष्य के पाप और मलिनता से उद्धार के पूर्वलक्षण थे। चूँकि वह अनुग्रह का युग था, इसलिए बीमारों को चंगा करके संकेत और चमत्कार दिखाना परमेश्वर के लिए आवश्यक था, जो उस युग में अनुग्रह के प्रतिनिधि थे—क्योंकि अनुग्रह का युग अनुग्रह प्रदान करने के आस-पास केन्द्रित था, जिसका प्रतीक शान्ति, आनंद और भौतिक आशीष थे, जो कि सभी यीशु में लोगों के विश्वास की निशानियाँ थीं। अर्थात् बीमार को चंगा करना, दुष्टात्माओं को निकालना, और अनुग्रह प्रदान करना, अनुग्रह के युग में यीशु के देह की सहज क्षमताएँ थीं, ये देह में साकार हुए पवित्रात्मा के कार्य थे। किन्तु जब वह ऐसे कार्य कर रहा था, तब वह देह में रह रहा था, देह से परे नहीं गया था। उसने चंगाई का चाहे कैसा भी कार्य क्यों न किया हो, तब भी उसमें सामान्य मानवता ही थी, तब भी वह एक सामान्य मानव जीवन ही जी रहा था। परमेश्वर के देहधारण के युग में देह ने पवित्रात्मा के सभी कार्य किए, मेरा ऐसा कहने का कारण यह है कि चाहे उसने कोई भी कार्य किया हो, उसने वह कार्य देह में रहकर ही किया था। किन्तु उसके कार्य की वजह से, लोगों ने उसके देह को पूरी तरह से दैहिक सार धारण करने वाला नहीं माना, क्योंकि वह देह चमत्कार कर सकता था, और किसी विशेष समय में ऐसे कार्य कर सकता था जो देह से परे के होते थे। बेशक, ये सारी घटनाएँ उसकी सेवकाई आरंभ करने के बाद हुईं, जैसे कि उसका चालीस दिनों तक उसकी परीक्षा लिया जाना या पहाड़ पर रूपान्तरित होना। तो यीशु के साथ, परमेश्वर के देहधारण का अर्थ पूर्ण नहीं हुआ था, बल्कि केवल आंशिक तौर पर पूर्ण हुआ था। अपना कार्य आरंभ करने से पहले उसने देह में जो जीवन जिया वह हर तरह से एकदम सामान्य था। कार्य आरंभ करने के बाद, उसने केवल अपने देह के बाहरी आवरण को बनाए रखा। क्योंकि उसका कार्य दिव्यता की अभिव्यक्ति था, इसलिए यह देह के सामान्य कार्यों से बढ़कर था। आख़िरकार, परमेश्वर का देहधारी देह मांस-और-रक्त वाले मानव से भिन्न था। बेशक, अपने दैनिक जीवन में, उसे भोजन, कपड़ों, नींद और आश्रय की आवश्यकता पड़ती थी, उसे सभी आम ज़रूरत की चीज़ों की आवश्यकता होती थी, उसमें सामान्य मानवीय बोध था, और वह एक आम इंसान की तरह ही सोचता था। उसके अलौकिक कार्य को छोड़कर, लोग अभी भी उसे एक सामान्य मनुष्य ही मान रहे थे। वास्तव में, प्रत्येक कार्य करते हुए वह एक साधारण और सामान्य मानवता में ही जी रहा था और जहाँ तक उसने जो कार्य किया, उसकी बात है, उसकी समझ विशेष रूप से सामान्य थी, उसके विचार, किसी भी अन्य सामान्य मनुष्य की अपेक्षा, विशेष रूप से अधिक सुस्पष्ट थे। इस प्रकार की सोच और समझ एक देहधारी परमेश्वर के लिए आवश्यक थी, क्योंकि दिव्य कार्य को ऐसे देह के द्वारा व्यक्त किए जाने की आवश्यकता थी जिसकी समझ बहुत ही सामान्य हो और विचार बहुत ही सुस्पष्ट हों—केवल इसी प्रकार से उसका देह दिव्य कार्य को व्यक्त कर सकता था। यीशु ने इस पृथ्वी पर अपने पूरे साढ़े तैतीस साल के वास में, अपनी सामान्य मानवता बनाए रखी, किन्तु उसकी इन साढ़े तैतीस साल की सेवकाई के दौरान, लोगों ने सोचा कि वह सर्वश्रेष्ठ है, पहले की अपेक्षा बहुत ही अलौकिक है। जबकि असलियत में, यीशु की सामान्य मानवता सेवकाई आरंभ करने से पहले और बाद में अपरिवर्तित रही; पूरे समय उसकी मानवता एक-सी थी, किन्तु जब उसने अपनी सेवकाई आरंभ की उससे पहले और उसके बाद के अंतर के कारण, उसके देह को लेकर, दो भिन्न-भिन्न मत उभरे। लोगों की राय कुछ भी रही हो, लेकिन देहधारी परमेश्वर ने पूरी अवधि में, अपनी सामान्य मानवता बनाए रखी, क्योंकि जबसे परमेश्वर देहधारी हुआ था, तब से वह देह में ही रहा, ऐसे देह में जिसमें सामान्य मानवता थी। चाहे वह अपनी सेवकाई कर रहा हो या न कर रहा हो, उसके देह की सामान्य मानवता को मिटाया नहीं जा सकता था, क्योंकि मानवता देह का मूल सार है। अपनी सेवकाई से पहले, सभी सामान्य मानवीय क्रियाकलापों में संलग्न रहते हुए यीशु का देह पूरी तरह से सामान्य रहा; वह जरा-सा भी अलौकिक नज़र नहीं आया, उसने कोई भी चमत्कारी संकेत नहीं दिखाए। उस समय, वह केवल एक आम इंसान था जो परमेश्वर की आराधना करता था, भले ही उसका लक्ष्य अधिक ईमानदार था, किसी भी किसी भी व्यक्ति से अधिक निष्ठापूर्ण था। इस प्रकार उसकी सर्वथा सामान्य मानवता ने स्वयं को अभिव्यक्त किया। चूँकि सेवकाई का कार्य शुरू करने से पहले, उसने कोई कार्य नहीं किया था, इसलिए कोई उसे पहचानता नहीं था, कोई नहीं कह सकता था कि उसका देह बाकी लोगों से अलग है, क्योंकि उसने एक भी चमत्कार नहीं किया था, स्वयं परमेश्वर का ज़रा-सा भी कार्य नहीं किया था। लेकिन, सेवकाई का कार्य प्रारंभ करने के बाद, उसने सामान्य मानवता का बाहरी आवरण बनाए रखा और तब भी सामान्य मानवीय सूझबूझ के साथ ही जीता रहा, लेकिन क्योंकि उसने स्वयं परमेश्वर का कार्य करना, मसीह की सेवकाई अपनाना और उन कार्यों को करना आरंभ कर दिया था जिन्हें करने में नश्वर प्राणी, मांस-और-रक्त से बने प्राणी अक्षम थे, इसलिए लोगों ने मान लिया कि उसकी सामान्य मानवता नहीं है, उसका देह पूरी तरह से सामान्य नहीं है बल्कि अपूर्ण देह है। उसके द्वारा किए गए कार्य की वजह से, लोगों ने कहा कि वह देह में परमेश्वर है जिसके पास सामान्य मानवता नहीं है। ऐसी समझ गलत है, क्योंकि लोगों ने देहधारी परमेश्वर की महत्ता को नहीं समझा। यह गलतफहमी इस तथ्य से पैदा हुई थी कि परमेश्वर द्वारा देह में व्यक्त कार्य दिव्य कार्य है, जो ऐसे देह में व्यक्त किया जाता है जिसकी एक सामान्य मानवता है। परमेश्वर देह के आवरण में था, उसका वास देह में था, परमेश्वर की मानवता में उसके कार्य ने उसकी मानवता की सामान्यता को धुँधला कर दिया था। इसी कारण से लोगों ने विश्वास कर लिया कि परमेश्वर में मानवता नहीं है केवल दिव्यता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर द्वारा धारण किये गए देह का सार

मसीह की मानवता उसकी दिव्यता द्वारा संचालित होती है। यद्यपि वह देह में है, किंतु उसकी मानवता पूर्ण रूप से देह वाले एक मनुष्य के समान नहीं है। उसका अपना अनूठा चरित्र है और यह भी उसकी दिव्यता द्वारा संचालित होता है। उसकी दिव्यता में कोई निर्बलता नहीं है; मसीह की निर्बलता उसकी मानवता से संबंधित है। एक निश्चित सीमा तक, यह निर्बलता उसकी दिव्यता को विवश करती है, पर इस प्रकार की सीमाएं एक निश्चित दायरे और समय के भीतर होती हैं और असीम नहीं हैं। जब उसकी दिव्यता का कार्य क्रियान्वित करने का समय आता है, तो वह उसकी मानवता की परवाह किए बिना किया जाता है। मसीह की मानवता पूर्णतः उसकी दिव्यता द्वारा निर्देशित होती है। उसके मानवता के साधारण जीवन से अलग, उसकी मानवता के अन्य सभी काम उसकी दिव्यता द्वारा प्रेरित, प्रभावित और निर्देशित होते हैं। यद्यपि मसीह में मानवता है, पर इससे उसकी दिव्यता का कार्य बाधित नहीं होता और ऐसा ठीक इसलिए है क्योंकि मसीह की मानवता उसकी दिव्यता द्वारा निर्देशित है; हालांकि उसकी मानवता दूसरों के साथ आचरण में परिपक्व नहीं है, इससे उसकी दिव्यता का सामान्य कार्य प्रभावित नहीं होता। जब मैं यह कहता हूँ कि उसकी मानवता भ्रष्ट नहीं हुई है, तब मेरा मतलब है कि मसीह की मानवता उसकी दिव्यता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्देशित की जा सकती है और यह कि वह साधारण मनुष्य की तुलना में उच्चतर समझ से संपन्न है। उसकी मानवता उसके कार्य में दिव्यता द्वारा निर्देशित होने के लिए सबसे अनुकूल है; उसकी मानवता दिव्यता के कार्य को अभिव्यक्त करने के लिए सबसे अनुकूल है और साथ ही ऐसे कार्य के प्रति समर्पण करने के सबसे योग्य है। जब परमेश्वर देह में कार्य करता है, वह कभी उस कर्तव्य से नज़र नहीं हटाता, जिसे मनुष्य को देह में होते हुए पूरा करना चाहिए; वह सच्चे हृदय से स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है। उसमें परमेश्वर का सार है और उसकी पहचान स्वयं परमेश्वर की पहचान है। केवल इतना है कि वह पृथ्वी पर आया है और एक सृजित किया प्राणी बन गया है, जिसका बाहरी आवरण सृजन किए प्राणी का है और अब ऐसी मानवता से संपन्न है, जो पहले उसके पास नहीं थी; वह स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करने में सक्षम है; यह स्वयं परमेश्वर का अस्तित्व है तथा मनुष्य उसका अनुकरण नहीं कर सकता। उसकी पहचान स्वयं परमेश्वर है। देह के परिप्रेक्ष्य से वह परमेश्वर की आराधना करता है; इसलिए, ये वचन "मसीह स्वर्ग में परमेश्वर की आराधना करता है" त्रुटिपूर्ण नहीं हैं। वह मनुष्य से जो माँगता है, वह ठीक-ठीक उसका स्वयं का अस्तित्व है; मनुष्य से कुछ भी माँगने से पहले वह उसे पहले ही प्राप्त कर चुका होता है। वह कभी भी दूसरों से माँग नहीं करता जबकि वह स्वयं उनसे मुक्त है, क्योंकि इन सबसे उसका अस्तित्व गठित होता है। इस बात की परवाह किए बिना कि वह कैसे अपना कार्य क्रियान्वित करता है, वह इस प्रकार कार्य नहीं करेगा, जिससे परमेश्वर की अवज्ञा हो। चाहे वह मनुष्य से कुछ भी माँगे, कोई भी माँग मनुष्य द्वारा प्राप्य से बढ़कर नहीं होती। वह जो कुछ करता है, वह परमेश्वर की इच्छा पर चलता है और उसके प्रबंधन के वास्ते है। मसीह की दिव्यता सभी मनुष्यों से ऊपर है; इसलिए सभी सृजित प्राणियों में वह सर्वोच्च अधिकारी है। यह अधिकार उसकी दिव्यता है, यानी परमेश्वर का स्वयं का अस्तित्व और स्वभाव उसकी पहचान निर्धारित करता है। इसलिए, चाहे उसकी मानवता कितनी ही साधारण हो, इससे इनकार नहीं हो सकता कि उसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान है; चाहे वह किसी भी दृष्टिकोण से बोले और किसी भी तरह परमेश्वर की इच्छा का आज्ञा पालन करे, यह नहीं कहा जा सकता है कि वह स्वयं परमेश्वर नहीं है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है

मनुष्य के देहधारी पुत्र ने अपनी मानवता के माध्यम से परमेश्वर की दिव्यता व्यक्त की और परमेश्वर की इच्छा को मानवजाति तक पहुँचाया। और परमेश्वर की इच्छा और स्वभाव की अभिव्यक्ति के माध्यम से उसने लोगों के सामने उस परमेश्वर को भी प्रकट किया, जिसे देखा और छुआ नहीं जा सकता और जो आध्यात्मिक क्षेत्र में रहता है। लोगों ने स्वयं परमेश्वर को मूर्त रूप में, माँस और रक्त से निर्मित देखा। तो मनुष्य के देहधारी पुत्र ने स्वयं परमेश्वर की पहचान, हैसियत, छवि, स्वभाव और उसके स्वरूप जैसी चीज़ों को ठोस और मानवीय बना दिया। भले ही परमेश्वर की छवि के संबंध में मनुष्य के पुत्र के बाहरी रूप-रंग की कुछ सीमाएँ थीं, किंतु उसका सार और स्वरूप स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत दर्शाने में पूर्णतः समर्थ थे—केवल अभिव्यक्ति के रूप में कुछ भिन्नताएँ थीं। हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि मनुष्य के पुत्र ने अपनी मानवता और दिव्यता, दोनों रूपों में स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत दर्शाई। हालाँकि इस दौरान परमेश्वर ने देह के माध्यम से कार्य किया, देह के परिप्रेक्ष्य से बात की और मानवजाति के सामने मनुष्य के पुत्र की पहचान और हैसियत के साथ खड़ा हुआ, और इसने लोगों को मानवजाति के बीच परमेश्वर के सच्चे वचनों और कार्य को देखने-सुनने और अनुभव करने का अवसर दिया। इसने लोगों को विनम्रता के बीच उसकी दिव्यता और महानता के संबंध में अंतर्दृष्टि और साथ ही परमेश्वर की प्रामाणिकता और वास्तविकता की एक प्रारंभिक समझ और परिभाषा भी प्रदान की। भले ही प्रभु यीशु द्वारा पूर्ण किया गया कार्य, कार्य करने के उसके तरीके और उसके बोलने का परिप्रेक्ष्य आध्यात्मिक क्षेत्र में परमेश्वर के वास्तविक व्यक्तित्व से भिन्न थे, फिर भी उसकी हर चीज़ वास्तव में स्वयं परमेश्वर को दर्शाती थी, जिसे मानवजाति ने पहले कभी नहीं देखा था—इससे इनकार नहीं किया जा सकता! अर्थात्, परमेश्वर चाहे किसी भी रूप में प्रकट हो, वह चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य में बात करे, या किसी भी छवि में वह मानवजाति के सामने आए, वह अपने सिवाय किसी को नहीं दर्शाता। वह न तो किसी मनुष्य को दर्शा सकता है, न ही भ्रष्ट मानवजाति को दर्शा सकता है। परमेश्वर स्वयं परमेश्वर है, और इससे इनकार नहीं किया जा सकता।

—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III

परमेश्वर का सार ही अधिकार को काम में लाता है, लेकिन वह पूर्ण रूप से उस अधिकार के प्रति समर्पित हो पाता है, जो उसकी ओर से आता है। चाहे वह पवित्र आत्मा का कार्य हो या देह का, दोनों का एक दूसरे से टकराव नहीं होता। परमेश्वर का आत्मा संपूर्ण सृष्टि पर अधिकार रखता है। परमेश्वर के सार वाली देह भी अधिकार संपन्न है, पर देह में परमेश्वर वह सब कार्य कर सकता है, जिससे स्वर्गिक पिता की इच्छा का आज्ञा पालन होता है। इसे किसी मनुष्य द्वारा प्राप्त किया या समझा नहीं जा सकता। परमेश्वर स्वयं अधिकार है, पर उसकी देह उसके अधिकार के प्रति समर्पित हो सकती है। जब यह कहा जाता है तो इसमें निहित होता हैः "मसीह परमपिता परमेश्वर की इच्छा का आज्ञापालन करता है।" परमेश्वर आत्मा है और उद्धार का कार्य कर सकता है, जैसे परमेश्वर मनुष्य बन सकता है। किसी भी क़ीमत पर, परमेश्वर स्वयं अपना कार्य करता है; वह न तो बाधा उत्पन्न करता है न दखल देता है, ऐसे कार्य का अभ्यास तो नहीं ही करता, जो परस्पर विपरीत हो क्योंकि आत्मा और देह द्वारा किए गए कार्य का सार एक समान है। चाहे आत्मा हो या देह, दोनों एक इच्छा को पूरा करने और उसी कार्य को प्रबंधित करने के लिए कार्य करते हैं। यद्यपि आत्मा और देह की दो भिन्न विशेषताएं हैं, किंतु उनके सार एक ही हैं; दोनों में स्वयं परमेश्वर का सार है और स्वयं परमेश्वर की पहचान है। स्वयं परमेश्वर में अवज्ञा के तत्व नहीं होते; उसका सार अच्छा है। वह समस्त सुंदरता और अच्छाई की और साथ ही समस्त प्रेम की अभिव्यक्ति है। यहाँ तक कि देह में भी परमेश्वर ऐसा कुछ नहीं करता, जिससे परमपिता परमेश्वर की अवज्ञा होती हो। यहाँ तक कि अपने जीवन का बलिदान करने की क़ीमत पर भी वह ऐसा करने को पूरे मन से तैयार रहेगा और कोई विकल्प नहीं बनाएगा। परमेश्वर में आत्मतुष्टि और ख़ुदगर्ज़ी के या दंभ या घमंड के तत्व नहीं हैं; उसमें कुटिलता के कोई तत्व नहीं हैं। जो कोई भी परमेश्वर की अवज्ञा करता है, वह शैतान से आता है; शैतान समस्त कुरूपता तथा दुष्टता का स्रोत है। मनुष्य में शैतान के सदृश विशेषताएं होने का कारण यह है कि मनुष्य को शैतान द्वारा भ्रष्ट और संसाधित किया गया है। मसीह को शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया गया है, अतः उसके पास केवल परमेश्वर की विशेषताएं हैं तथा शैतान की एक भी विशेषता नहीं है। इस बात की परवाह किए बिना कि कार्य कितना कठिन है या देह कितनी निर्बल, परमेश्वर जब वह देह में रहता है, कभी भी ऐसा कुछ नहीं करेगा, जिससे स्वयं परमेश्वर का कार्य बाधित होता हो, अवज्ञा में परमपिता परमेश्वर की इच्छा का त्याग तो बिल्कुल नहीं करेगा। वह देह में पीड़ा सह लेगा, मगर परमपिता परमेश्वर की इच्छा के विपरीत नहीं जाएगा; यह वैसा है, जैसा यीशु ने प्रार्थना में कहा, "पिता, यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए, तौभी जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।" लोग अपने चुनाव करते हैं, किंतु मसीह नहीं करता। यद्यपि उसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान है, फिर भी वह परमपिता परमेश्वर की इच्छा की तलाश करता है और देह के दृष्टिकोण से वह पूरा करता है, जो उसे परमपिता परमेश्वर द्वारा सौंपा गया है। यह कुछ ऐसा है, जो मनुष्य हासिल नहीं कर सकता। जो कुछ शैतान से आता है, उसमें परमेश्वर का सार नहीं हो सकता; उसमें केवल परमेश्वर की अवज्ञा और उसका विरोध हो सकता है। वह पूर्ण रूप से परमेश्वर का आज्ञापालन नहीं कर सकता, स्वेच्छा से परमेश्वर की इच्छा का पालन तो दूर की बात है। मसीह के अलावा सभी पुरुष ऐसा कर सकते हैं, जिससे परमेश्वर का विरोध होता हो, और एक भी व्यक्ति परमेश्वर द्वारा सौंपे गए कार्य को सीधे नहीं कर सकता; एक भी परमेश्वर के प्रबंधन को अपने कर्तव्य के रूप में मानने में सक्षम नहीं है। मसीह का सार परमपिता परमेश्वर की इच्छा के प्रति समर्पण करना है; परमेश्वर की अवज्ञा शैतान की विशेषता है। ये दोनों विशेषताएं असंगत हैं और कोई भी जिसमें शैतान के गुण हैं, मसीह नहीं कहलाया जा सकता। मनुष्य परमेश्वर के बदले उसका कार्य नहीं कर सकता, इसका कारण है कि मनुष्य में परमेश्वर का कोई भी सार नहीं है। मनुष्य परमेश्वर का कार्य मनुष्य के व्यक्तिगत हितों और भविष्य की संभावनाओं के वास्ते करता है, किंतु मसीह परमपिता परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए कार्य करता है।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, स्वर्गिक परमपिता की इच्छा के प्रति आज्ञाकारिता ही मसीह का सार है

परमेश्वर के आत्मा द्वारा धारण की हुई देह परमेश्वर की अपनी देह है। परमेश्वर का आत्मा सर्वोच्च है; वह सर्वशक्तिमान, पवित्र और धार्मिक है। इसी तरह, उसकी देह भी सर्वोच्च, सर्वशक्तिमान, पवित्र और धार्मिक है। इस तरह की देह केवल वह करने में सक्षम है जो मानवजाति के लिए धार्मिक और लाभकारी है, वह जो पवित्र, महिमामयी और प्रतापी है; वह ऐसी किसी भी चीज को करने में असमर्थ है जो सत्य, नैतिकता और न्याय का उल्लंघन करती हो, वह ऐसी किसी चीज को करने में तो बिल्कुल भी समर्थ नहीं है जो परमेश्वर के आत्मा के साथ विश्वासघात करती हो। परमेश्वर का आत्मा पवित्र है, और इसलिए उसका शरीर शैतान द्वारा भ्रष्ट नहीं किया जा सकता; उसका शरीर मनुष्य के शरीर की तुलना में भिन्न सार का है। क्योंकि यह परमेश्‍वर नहीं बल्कि मनुष्य है, जो शैतान द्वारा भ्रष्ट किया गया है; यह संभव नहीं कि शैतान परमेश्वर के शरीर को भ्रष्ट कर सके। इस प्रकार, इस तथ्य के बावजूद कि मनुष्य और मसीह एक ही स्थान के भीतर रहते हैं, यह केवल मनुष्य है, जो शैतान द्वारा काबू और उपयोग किया जाता है और जाल में फँसाया जाता है। इसके विपरीत, मसीह शैतान की भ्रष्टता के लिए शाश्वत रूप से अभेद्य है, क्योंकि शैतान कभी भी उच्चतम स्थान तक आरोहण करने में सक्षम नहीं होगा, और कभी भी परमेश्वर के निकट नहीं पहुँच पाएगा। आज, तुम सभी लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि यह केवल शैतान द्वारा भ्रष्ट मानवजाति है, जो मेरे साथ विश्वासघात करती है। मसीह के लिए विश्वासघात की समस्या हमेशा अप्रासंगिक रहेगी।

—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2)

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