परमेश्वर के न्याय ने मुझे बचा लिया

20 मार्च, 2022

सितंबर 2019 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। सभाओं के दौरान, बढ़िया संगति, तेज़ समझ और अच्छी क्षमता के लिए मुझे प्रशंसा मिली। फिर मुझे एक समूह अगुआ चुन लिया गया, जल्द ही, सुसमाचार के उपयाजक के तौर पर मेरा चयन हो गया। फिर, मैं और सक्रिय होकर अपना काम करने लगा। मैं सुसमाचार का प्रचार और सभाओं की मेज़बानी करने लगा। भा‌ई-बहन मेरी संगति पसंद करते और कलीसिया के अगुआ भी मेरी तारीफ करते। इससे मुझे बहुत खुशी हुई, मुझे लगा कि मेरी क्षमता सच में बहुत अच्छी है। अधिक लोगों की प्रशंसा पाने के लिए, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े, उसके घर की कई फिल्में देखीं और ईश-वचनों के वीडियो पाठ देखे, उस समय दिखावे के लिए थोड़ी-बहुत शाब्दिक समझ पाकर मैं संतुष्ट था, मैंने न परमेश्वर की इच्छा खोजी, न सत्य का अभ्यास किया। सभाओं में, मैं अपनी समझ के दिखावे के लिए विस्तार से संगति करता। दिखावे के लिए ही उन बातों पर भी संगति करता जिनकी मुझे कोई ज़्यादा समझ नहीं थी। अपने अगुआ के सामने अच्छी छवि बनाने के लिए, मैं मज़बूत होने का नाटक करता। जैसे शुरू में, मेरे मन में परमेश्वर के कार्य के बारे में धारणाएँ थीं, फिर लगा कि अगर मैंने किसी को बताया, तो अगुआ को लगेगा कि मैं सत्य नहीं समझता, इसलिए मैं अपने विचार अगुआ से छिपाता। मानो मैंने एक मुखौटा लगा रखा हो। लोगों से अपना असली चेहरा छिपा लिया।

कुछ महीनों बाद, मैं कलीसिया का अगुआ और सुसमाचार कार्य का प्रभारी बन गया। इस कार्य के लिए व्यक्ति में क्षमता, विवेक और काबिलियत होनी चाहिए। मुझे लगा कलीसिया में मेरे अलावा किसी में यह योग्यता नहीं है, इसीलिए इस काम के लिए परमेश्वर ने मुझे चुना। लगातार तरक्की पाकर लगा मैं दूसरों से अलग हूँ, सत्य की खोज में सबसे उत्साही हूँ, मुझे परमेश्वर चाहता और पसंद करता है। सुसमाचार कार्य के लिए जिम्मेदार होना परमेश्वर के घर का पहरेदार होने जैसा लगता, उसके घर में कौन प्रवेश करेगा, ये मैं तय करूंगा। धीरे-धीरे, मैं और अहंकारी होता चला गया, खुद को भा‌ई-बहनों से ऊपर समझने लगा, लगा मैं हुक्म चला सकता हूँ और उन्हें मेरी बात माननी पड़ेगी। कलीसिया में, मैं सब तय करना और अपनी बात मनवाना चाहता था, क्योंकि मुझे लगता था कि मुझमें योग्यता है, सिद्धांतों में महारत है, मुझे भा‌ई-बहनों के विचार या सलाह की ज़रूरत नहीं। मैं उन्हें हिकारत से देखता। औसत क्षमता की एक समूह अगुआ को मैं हटाना चाहता था, इसकी परवाह नहीं थी कि वह कैसा काम करती है। और तो और, मैं भा‌ई-बहनों को अपने अधीन समझता था, लगता था मैं उनसे जैसे चाहे निपट सकता हूँ। मिसाल के तौर पर, एक सभा में, भाई-बहन बता रहे थे कि कैसे उन्होंने सुसमाचार का प्रचार किया, मुझे लगा कि वे ठीक से नहीं कर रहे, तो मैंने उन्हें तुरंत डांटा और बताया कि उन्हें क्या करना चाहिए। एक बहन की अपने काम में अभ्यास का अपना तरीका था, पर मुझे लगा वह सही नहीं कर रही, तो सिद्धांतों पर संगति किए बिना ही, मैं सख्ती से निपटा। उस बहन ने कहा कि वो इतनी नकारात्मक हो गई कि मेरे साथ काम नहीं करना चाहती थी। फिर एक सभा में, अगुआ ने सबसे उनकी परेशानी पूछी, और इस बहन ने सीधे अगुआ को मेरी समस्या बता दी, कि मैं सत्य पर संगति नहीं करता, हमेशा निपटारा करता हूँ, कठोरता से निपटारा करता हूँ। और भी कई भा‌ई-बहनों ने बताया कि मैं लोगों से मनमाने ढंग से निपटता हूँ, परमेश्वर के वचन द्वारा मेरे अहंकार का खुलासा किया।

दरअसल, कुछ भाई-बहन पहले ही मुझसे मेरे अहंकारी व्यवहार का ज़िक्र कर चुके थे। काम की पूछताछ में मेरी सख्ती देख मुझे संदेश भेजकर कहा कि "भाई, इस तरह बोलना अच्छा नहीं। इससे भा‌ई-बहन नकारात्मक महसूस करेंगे।" कुछ ने कहा, "आप लोगों को हमेशा नीचा दिखाते हैं। आप खुद को भा‌ई-बहनों के बराबर रखकर व्यवहार नहीं करते, कुछ लोग तो आपसे बात ही नहीं करना चाहते, और कुछ इतना प्रताड़ित महसूस करते हैं कि काम नहीं करना चाहते।" बार-बार फटकारे और निपटाए जाने पर, मेरा अहम को चोट लगी। मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर का चहेता और पसंदीदा हूँ, लेकिन जब भा‌ई-बहनों ने मुझे उजागर कर ठुकरा दिया तो मैं बहुत नकारात्मक हो गया। छवि और प्रतिष्ठा छिन गई तो काम करने की प्रेरणा नहीं रही। मैं दिनभर अनमने भाव से काम करता, नोटिस भेजता, विस्तृत तरीके से काम न करता, न ये देखता कि भा‌ई-बहन कैसे काम कर रहे हैं, उनकी समस्या सुलझाने पर भी ध्यान देना बंद कर दिया। उनकी जरूरतों की मुझे परवाह नहीं रही।

फिर एक बहन ने मुझे खराब हालत में देख, परमेश्वर के वचन का अंश भेजा। परमेश्वर कहते हैं, "शैतान द्वारा मनुष्यों को भ्रष्ट किए जाने के बाद से उनकी प्रकृति बिगड़नी शुरू हो गई है और उन्होंने धीरे-धीरे सामान्य लोगों में रहने वाली विवेक की भावना खो दी है। मनुष्य होते हुए भी लोगों ने मनुष्य की तरह बरताव करना बंद कर दिया है; बल्कि, वे जंगली आकांक्षाओं से भरे हुए हैं; वे मनुष्य की स्थिति पार कर चुके हैं, फिर भी, वे और भी ऊँचे जाने की लालसा रखते हैं। यह 'और भी ऊँचे' क्या दर्शाता है? वे परमेश्वर से बढ़कर होना चाहते हैं, स्वर्ग से बढ़कर होना चाहते हैं, और बाकी सभी से बढ़कर होना चाहते हैं। लोग इस तरह क्यों हो गए हैं, इसका मूल कारण क्या है? कुल मिलाकर यही नतीजा निकलता है कि मनुष्य की प्रकृति बहुत अधिक अहंकारी है। 'अहंकारी' एक अपमानजनक शब्द है, और कोई भी इसे अपने साथ जोड़ा जाना पसंद नहीं करता। पर तथ्य यह है कि हर कोई अहंकारी है, और सभी भ्रष्ट मनुष्यों का यही सार है। कुछ लोग कहते हैं, 'मैं जरा भी अहंकारी नहीं हूँ। मैंने कभी भी महादूत नहीं बनना चाहा, न ही मैंने कभी परमेश्वर से या दूसरों से ऊंचा उठना चाहा है। मैं हमेशा एक ऐसा व्यक्ति रहा हूँ जो शिष्ट और कर्तव्यनिष्ठ है।' कोई जरूरी नहीं है; ये शब्द गलत हैं। जब लोगों की प्रकृति और सार अहंकारी हो जाते हैं, तो वे परमेश्वर की अवज्ञा और विरोध करते हैं, उसके वचनों पर ध्यान नहीं देते, उसके बारे में धारणाएं उत्पन्न करते हैं, उसे धोखा देने वाले, अपना उत्कर्ष करने वाले और अपनी ही गवाही देने वाले काम करते हैं। तुम्हारा कहना है कि तुम अहंकारी नहीं हो, लेकिन मान लो कि तुम्हें कलीसिया चलाने और उसकी अगुआई करने की ज़िम्मेदारी दे दी जाती है; मान लो कि मैं तुम्हारे साथ नहीं निपटता हूँ, और परमेश्वर के परिवार के किसी सदस्य ने तुम्हारी काट-छाँट नहीं की है : कुछ समय तक उसकी अगुआई करने के बाद, तुम लोगों को अपने पैरों पर गिरा लोगे और अपने सामने समर्पण करवाने लगोगे। और तुम ऐसा क्यों करोगे? यह तुम्हारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होगा; यह स्वाभाविक प्रकटीकरण के अलावा और कुछ नहीं होगा। तुम्हें इसे दूसरों से सीखने की आवश्यकता नहीं है, और न ही दूसरों को तुम्हें यह सिखाने की आवश्यकता है। तुम्हें इनमें से कुछ भी जानबूझकर करने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें दूसरों की आवश्यकता नहीं है कि वे तुम्हें निर्देश दें या उसे करने के लिए तुम्हें विवश करें; इस तरह की स्थिति स्वाभाविक रूप से आती है। तुम जो भी करते हो वह इसलिए होता है कि लोग तुम्हारे सामने समर्पण करें, तुम्हारी आराधना करें, तुम्हारी प्रशंसा करें, तुम्हारी गवाही दें और हर बात में तुम्हारी सुनें। जब तुम अगुआ बनने की कोशिश करते हो, तो स्वभाविक रूप से इस तरह की स्थिति पैदा होती है और इसे बदला नहीं जा सकता। यह स्थिति कैसे पैदा होती है? ये मनुष्य की अहंकारी प्रकृति से निर्धारित होती है। अहंकार की अभिव्यक्ति परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह और उसका विरोध है। जब लोग अहंकारी, दंभी और आत्मतुष्ट होते हैं, तो उनकी अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने और इच्छानुसार चीज़ों को करने की प्रवृत्ति होती है। वे दूसरों को भी अपनी ओर खींचकर उन्हें अपने आलिंगन में ले लेते हैं। लोगों का ऐसी हरकतें करने का अर्थ है कि उनकी अहंकारी प्रकृति शैतान की है; महादूत की है। जब उनका अहंकार और दंभ एक निश्चित स्तर पर पहुँच जाता है, तो वे महादूत बन जाते हैं और परमेश्वर को दरकिनार कर देते हैं। यदि तुम्हारी प्रकृति ऐसी ही अहंकारी है, तो तुम्हारे हृदय में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अहंकारी स्वभाव ही परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ है')। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैंने अब तक के अपने व्यवहार पर विचार किया। विश्वास रखने के बाद से, भा‌ई-बहनों ने मुझे हमेशा सराहा और प्रोत्साहित किया। कहा कि मुझमें अच्छी क्षमता और संगति करने की योग्यता है। मुझे तरक्की भी मिली, तो मैं खुद को विशेष और दूसरों से बेहतर समझने लगा। मेरी अहंकारी प्रकृति ने मेरे दिमाग में यह बात डाल दी कि मैं परमेश्वर का चहेता और कृपापात्र हूँ। लगा मैं असाधारण और दूसरों से श्रेष्ठ हूँ, तो दूसरों को डांटकर बेबस करने के लिए पद का दुरुपयोग किया। लोगों को नियंत्रित कर उनसे अपनी बात मनवानी चाही। मैं महादूत जैसा व्यवहार कर रहा था! मैं खुद को ऊँचा समझता था। भा‌ई-बहनों द्वारा उजागर किए जाने और निपटाए जाने के बाद, मुझे लगा मैं उतना पूर्ण नहीं जितना सोचा करता था। बल्कि बहुत ही अहंकारी और भ्रष्ट हूँ। मेरा खुद को श्रेष्ठ और परमेश्वर का कृपापात्र समझना, पूरी तरह से मेरी कल्पना थी।

फिर मैंने मसीह-विरोधियों को उजागर करते परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अपनी हैसियत के लिए और अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए, कलीसिया को नियंत्रित करने और परमेश्वर बनने के अपने लक्ष्य के लिए मसीह-विरोधी कोई भी कीमत चुकाएँगे। वे अक्सर देर रात तक काम करते हैं और पौ फटते ही जाग जाते हैं, सवेरे-सवेरे अपने उपदेशों का पूर्वाभ्यास करते हैं, ताकि खुद को उस सिद्धांत से लैस कर सकें, जिसकी उन्हें ऊँचे-ऊँचे उपदेश देने के लिए आवश्यकता होती है। हर दिन, वे सोचते हैं कि अपने उत्कृष्ट उपदेश देते हुए उन्हें परमेश्वर के कौन-से वचन इस्तेमाल करने हैं, किन वचनों द्वारा चुने हुए लोगों से सराहना और प्रशंसा मिलेगी, फिर वे उन वचनों को रट लेते हैं। फिर, वे विचार करते हैं कि उन वचनों की व्याख्या इस तरह कैसे की जाए कि उनकी प्रतिभा और ज्ञान का प्रदर्शन हो, और इसमें वे उतना ही श्रम करते हैं, जितना छात्र कॉलेज में स्थान प्राप्त करने की होड़ में करते हैं। जब कोई अच्छा उपदेश देता है, कुछ रोशनी प्रदान करने वाला, या कुछ सिद्धांत प्रदान करने वाला उपदेश देता है, तो मसीह-विरोधी उसे एकत्र और संकलित कर लेगा और उसे अपने उपदेश में शामिल कर लेगा। मसीह-विरोधी के लिए श्रम की कोई भी मात्रा बहुत बड़ी नहीं होती। तो उनकी इस मेहनत के पीछे क्या मकसद और मंशा होती है? एक ही चीज उन्हें प्रेरित करती है : इन वचनों का प्रचार करने, उन्हें स्पष्ट रूप से और आसानी से कहने, उन पर धाराप्रवाह नियंत्रण रखने में सक्षम होना, ताकि अन्य लोग देख सकें कि मसीह-विरोधी उनसे अधिक आध्यात्मिक है, परमेश्वर के वचनों को अधिक सँजोने वाला है, परमेश्वर से अधिक प्रेम करने वाला है। इस तरह, मसीह-विरोधी अपने आस-पास के कुछ लोगों से अपनी आराधना करवा लेता है। मसीह-विरोधी को लगता है कि यह करने योग्य बात है और किसी भी प्रयास, कीमत या कठिनाई के लायक है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे सत्य से घृणा करते हैं, सिद्धांतों की खुले आम धज्जियाँ उड़ाते हैं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की उपेक्षा करते हैं (भाग सात)')। "मसीह-विरोधियों के व्यवहार का सार यह है कि वे लगातार ऐसे बहुत-से साधनों और तरीकों का इस्तेमाल करते रहते हैं, जिनसे वे रुतबा हासिल करने और लोगों को जीतने के अपने लक्ष्य को पूरा कर सकें, ताकि लोग उनका अनुसरण करें और उनका स्तुतिगान करें। संभव है कि अपने दिल की गहराइयों में वे जानबूझकर मानवता को लेकर परमेश्वर से होड़ न कर रहे हों, पर एक बात तो पक्की है, अगर मनुष्यों को लेकर वे परमेश्वर के साथ होड़ न भी कर रहे हों तो भी वे मनुष्यों के बीच रुतबा और शक्ति पाना चाहते हैं। अगर वह दिन आ भी जाए जब उन्हें यह अहसास होने लगे कि वे परमेश्वर के साथ होड़ कर रहे हैं, और वे अपने-आप पर लगाम लगा लें, तो भी वे यह विश्वास करते हुए कि दूसरों की स्वीकृति और सहमति प्राप्त करके वे वैधता प्राप्त कर लेंगे, कलीसिया में रुतबा प्राप्त करने के लिए दूसरे तरीकों का इस्तेमाल करते रहते हैं। संक्षेप में, भले ही मसीह-विरोधी जो कुछ भी करते हैं उससे वे अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करते प्रतीत होते हैं, और परमेश्वर के सच्चे अनुयायी लगते हैं, पर लोगों को नियंत्रित करने और उनके बीच रुतबा और शक्ति हासिल करने की उनकी महत्वाकांक्षा कभी नहीं बदलेगी। चाहे परमेश्वर कुछ भी कहे या करे, चाहे वह लोगों से कुछ भी चाहता हो, वे वह नहीं करते जो उन्हें करना चाहिए, या अपने कर्तव्य उस तरह से नहीं निभाते कि वे परमेश्वर के वचनों और जरूरतों के अनुरूप हों, न ही वे उसके कथनों और सत्य को समझते हुए शक्ति और रुतबे का मोह ही त्यागते हैं। पूरे समय उनकी महत्वाकांक्षा उन पर सवार रहती है, उनके व्यवहार और विचारों को नियंत्रित और निर्देशित करती है, और उस रास्ते को तय करती है जिस पर वे चलते हैं। यह एक मसीह-विरोधी का सार-संक्षेप है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों को भ्रमित करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं')। परमेश्वर कहता है कि मसीह विरोधी अपनी प्रशंसा और पूजा करवाने की खातिर, बाहर से कष्ट उठाकर लोगों को धोखा देते हैं। इसे देखकर मैंने सोचा, क्या ये मैं नहीं हूँ? मैं भी तो शोहरत और रुतबे के पीछे भाग रहा था, सब-कुछ सम्मान के लिए कर रहा था। रात-रातभर जागकर, बहुत समय देकर परमेश्वर के वचन पढ़ता था। मकसद यह था कि ज़्यादा से ज़्यादा सिद्धांत समझकर लोगों पर रौब जमा सकूँ। मुझे एहसास हुआ कि मेरे अंदर भी परमेश्वर के वचनों द्वारा प्रकट किए गए मसीह-विरोधी भाव हैं। मुझे लगा परमेश्वर ने मेरी निंदा की है, मैं बहुत बेचैन हो गया। लेकिन उस समय, मैंने भा‌ई-बहनों को अपनी असली स्थिति बताने की हिम्मत नहीं की, डर था कि वे मुझे मसीह-विरोधी कहकर निकाल देंगे। इसी दौरान, कलीसिया में मसीह-विरोधी का पता चला तो उसे निकाल दिया गया। वह परमेश्वर के लिए खुद को खपाती और संगति के लिए उसके वचन खोजती दिखती थी, लेकिन खुद उन वचनों का पालन नहीं करती थी, चीज़ें उसकी धारणाओं से अलग होतीं, तो वह नकारात्मकता फैलाती, उसने तो अंत के दिनों में परमेश्वर के कार्य को नकारते हुए सच्चे मार्ग की जाँच करने वालों को भी परेशान किया। मुझे उसमें और खुद में कुछ बातें समान लगीं। जैसे, मैं अक्सर भा‌ई-बहनों के साथ संगति के लिए परमेश्वर के वचन खोजता, पर खुद उन वचनों का अभ्यास नहीं करता था। समस्या सुलझाने के लिए अपने दिमाग और काबिलियत पर भरोसा करता, लेकिन परमेश्वर की इच्छा खोजने या सत्य के अभ्यास पर ध्यान नहीं दिया। मेरी अभिव्यक्तियाँ भी मसीह-विरोधी जैसी ही थीं, और परमेश्वर के वचनों ने मसीह-विरोधी होने की जो बातें प्रकट की थीं, वो सब मुझमें थीं। मुझे डर था कि मैं मसीह-विरोधी बन जाऊंगा, निकाल दिया जाऊंगा। उस समय, मैंने अपनी बेचैनी छिपाने की पूरी कोशिश की, लेकिन मेरी हालत खराब थी, ऐसा लगता था मानो मुझे मौत की सज़ा सुना दी गई हो। धीरे-धीरे मेरा खुद को बचाने और संदेह करने का मामला गंभीर होता गया। लगा कि अपनी खराब प्रकृति के कारण मैं भा‌ई-बहनों को धोखा देकर उन पर काबू कर सकता हूँ, फिर देर-सबेर उस मसीह-विरोधी की तरह, मैं भी परमेश्वर के घर के काम में बाधा डालूँगा। यह सोचकर मैं और भी डर गया। उस समय, मैं मसीह-विरोधी के स्वभाव और सार में अंतर नहीं कर पाया, न ही यह समझ पाया कि इस परिवेश में परमेश्वर की इच्छा क्या है। मुझे लगा मसीह-विरोधी की तरह मुझे भी परमेश्वर हटा देगा, आशीष पाने की आशा नज़र नहीं आती, फिर मैं शिकायतें करने लगा, "परिवार की न सुनकर मैंने परमेश्वर में विश्वास किया, अपना कर्तव्य निभाया। सुसमाचार का प्रचार करने के लिए अपना भविष्य और शहर भी छोड़ दिया। इतनी बड़ी कीमत चुकाकर भी दंड भुगतने के लिए नरक जाऊंगा। पता होता कि मेरा अंत ऐसा होगा, तो खुद को इतना न खपाता। कम से कम कुछ भौतिक-सुख ही भोग लेता।" उस समय तो, मैं केवल अपनी मंज़िल की सोच रहा था, परमेश्वर की इच्छा खोजने पर ध्यान नहीं था, हमेशा परमेश्वर से सतर्क रहता था और उसे गलत समझता था। आखिर में, अगुआ पद से इस्तीफा दे दिया, क्योंकि मुझे लगा अगर मैं इतना महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाता रहा, तो यकीनन निकाल दिया जाऊँगा। खुलकर बातचीत करना भी बंद कर दिया, मुझे डर था कि सब मेरा असली चेहरा देखकर मेरी आलोचना करेंगे और मेरे साथ निपटेंगे। मैंने काम में भी किसी को सहयोगी नहीं बनाया, और इस तरह भा‌ई-बहनों से मेरी दूरी बढ़ती ही गई। फिर सुसमाचार के प्रचार का बहाना बनाकर अपने अविश्‍वासी परिवार के पास लौट आया। परिवार द्वारा उत्पीड़न और आलोचना के चलते, और भी नकारात्मक हो गया। मैं सभाओं में भी अनमने भाव से भाग लेता था। मैं बहुत कमज़ोर था, मुझे लगा मैं अपनी आस्था के अंत पर पहुँच गया हूँ, तो मैंने परमेश्वर का घर छोड़ने का तय किया।

कलीसिया छोड़कर मेरे मन में एक खालीपन आ गया। मैं दिनभर अपने कमरे में बंद रहता, कुछ करने का मन न करता। हालाँकि परिवार ने अब सताना बंद कर दिया था, शरीर को भी आराम था, लेकिन मैं हमेशा भयभीत और दोषी महसूस करता था। मुझे डर लगा रहता कि विश्वासघात के कारण परमेश्वर मुझे दंड देगा, मुझे नरक और मृत्यु का डर सताता रहता था, तो मुझे अपनी चिंता कम करने का एक उपाय सूझा। मैंने सामाजिक विज्ञान की बहुत सारी किताबें पढ़ीं, मुझे उम्मीद थी कि इन्हें पढ़ने से सुकून मिलेगा, लेकिन यह प्रयास बेकार रहा। मुझे अंदरूनी पीड़ा से राहत नहीं मिली। लगा अब बस बैठकर मौत का इंतज़ार करना है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की कि वह मुझे इस दुर्दशा से बाहर निकाले, मैंने भक्तिगीत सुने और परमेश्वर के वचन पढ़े। तभी उसके वचनों ने मेरे दिल को जगा दिया। उसके वचनों में मैंने पढ़ा, "कुछ लोगों के पास एक मसीह-विरोधी के कुछ लक्षण होते हैं, और एक मसीह-विरोधी के स्वभाव के कुछ उद्गार, लेकिन साथ ही ऐसे उद्गार होने पर वे सत्य को भी स्वीकार करते और मानते हैं, और सत्य से प्रेम करते हैं। वे उद्धार पाने के संभावित पात्र हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना उन्नयन करते हैं और अपने बारे में गवाही देते हैं')। "परमेश्वर के एक कथन के कारण बहुत-से लोग अक्सर कमजोर और नकारात्मक महसूस करते हैं, और सोचते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें त्याग दिया है—और इसके परिणामस्वरूप, वे परमेश्वर का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ने को तैयार नहीं होते। वास्तव में, तुम्हें समझ ही नहीं है कि त्यागना क्या होता है; तुम्हारा अपने देह-सुखों का त्याग करना ही असली त्याग है। कभी-कभी परमेश्वर तुम्हें जिन वचनों से परिभाषित करता है, वे मात्र गुस्से में बोले गए होते हैं; वह न तो तुम्हारे बारे में कोई निष्कर्ष निकाल रहा होता है और न ही तुम्हारी निंदा कर रहा होता है, इसका तुम्हारे अंतिम गंतव्य से, या परमेश्वर अंततः तुम्हें जो प्रदान करता है उससे, कोई लेना-देना नहीं है, यह उसकी अंतिम सजा तो बिल्कुल नहीं होती। ये मात्र ऐसे वचन होते हैं जो तुम्हारा न्याय करते हैं और तुमसे निपटते हैं। ये तुम्हारे लिए परमेश्वर की उत्कट आशाओं की बात करते हैं, ये तुम्हें याद दिलाने और चेतावनी देने वाले वचन होते हैं और ये परमेश्वर के हृदय से निकले वचन होते हैं। फिर भी कुछ लोग ऐसे होते हैं जो न्याय के इन वचनों के कारण पतित होकर परमेश्वर को त्याग देते हैं। ... कभी-कभी ऐसा भी होता है जब लोग मानते हैं कि परमेश्वर ने उन्हें छोड़ दिया है—लेकिन वास्तव में, परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ा नहीं है, वह तुम्हें बस एक तरफ रख देता है, तुमसे घृणा करता है और तुम पर ध्यान नहीं देना चाहता। लेकिन उसने सच में तुम्हें छोड़ा नहीं है। ऐसे लोग भी होते हैं जो परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य का निर्वहन करने का प्रयास करते हैं, लेकिन उनके सार और उनमें प्रकट होने वाली विभिन्न चीजों के कारण, परमेश्वर वास्तव में उनका त्याग कर देता है; वे वास्तव में चुने नहीं गए थे, बल्कि उन्होंने कुछ समय के लिए सेवा प्रदान की थी। जबकि कुछ ऐसे भी होते हैं, जिन्हें परमेश्वर अनुशासित करने, ताड़ना देने और उनका न्याय करने की पूरी कोशिश करता है; वह उन लोगों से पेश आने के ऐसे विभिन्न तरीके आजमाता है जो मनुष्य की अवधारणाओं से मेल नहीं खाते। कुछ लोग परमेश्वर के वचनों को नहीं समझते और सोचते हैं कि परमेश्वर उन्हें निशाना बनाकर आहत कर रहा है। वे सोचते हैं कि परमेश्वर के सामने जीने की कोई गरिमा नहीं है, वे परमेश्वर को किसी भी तरह से और दुखी नहीं करना चाहते, और कलीसिया छोड़ देते हैं। उन्हें यह भी लगता है कि ऐसा करने में समझदारी है, और इसलिए वे परमेश्वर से मुँह मोड़ लेते हैं—लेकिन वास्तव में, परमेश्वर ने उन्हें छोड़ा नहीं था। ऐसे लोगों में परमेश्वर की इच्छा के प्रति कोई भाव नहीं होता। वे लोग कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील होते हैं, परमेश्वर का उद्धार छोड़ने के लिए इस हद तक चले जाते हैं। क्या उनके अंदर वास्तव में विवेक होता है? कभी-कभी परमेश्वर लोगों को छोड़ देता है, उन्हें दर-किनार कर देता है ताकि वे आत्म-चिंतन कर सकें, लेकिन परमेश्वर ने उन्हें वास्तव में नहीं छोड़ा नहीं होता है; वह उन्हें केवल पश्चाताप करने का अवसर दे रहा है, उनका सचमुच त्याग नहीं कर रहा है। परमेश्वर सही मायने में केवल मसीह-विरोधियों और दुष्टों का ही त्याग करता है जो अनेक बुरे कामों में लिप्त रहते हैं। कुछ लोग कहते हैं, 'मैं पवित्र आत्मा के कार्य से वंचित महसूस करता हूँ और मैं लंबे समय से पवित्र आत्मा के प्रबोधन से भी वंचित हूँ। क्या परमेश्वर ने मुझे छोड़ दिया है?' यह एक गलत धारणा है। तुम कहते हो कि परमेश्वर ने तुम्हें छोड़ दिया है, वह तुम्हें नहीं बचाएगा, तो क्या उसने तुम्हारा अंत तय कर दिया है? कई बार ऐसा होता जब तुम पवित्र आत्मा के कार्य को महसूस नहीं कर पाते, लेकिन परमेश्वर ने तुम्हें अपने वचन पढ़ने के अधिकार से वंचित नहीं किया है, न ही उसने तुम्हारा अंत निर्धारित किया है, तुम्हारे उद्धार का मार्ग बंद नहीं हुआ है—तो फिर तुम किस बारे में इतने परेशान हो? तुम एक खराब स्थिति में हो, तुम्हारे उद्देश्यों के साथ समस्या है, तुम्हारे वैचारिक दृष्टिकोण के साथ समस्याएँ हैं, तुम्हारी मनःस्थिति विकृत है—और अगर तुम सत्य की खोज करके इन चीजों को ठीक करने का प्रयास नहीं करते, और लगातार परमेश्वर को गलत समझते और दोष देते रहते हो, और जिम्मेदारी परमेश्वर पर डाल देते हो, और यहाँ तक कहते हो, 'परमेश्वर मुझे नहीं चाहता, इसलिए मैं अब उस पर विश्वास नहीं करता,' तो क्या तुम बेतुके नहीं हो? क्या तुम अनुचित नहीं हो रहे?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपनी धारणाओं का समाधान करके ही कोई परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश कर सकता है (1)')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल से बात की। मै समझ गया कि उसने मुझे हटाया नहीं था, न मेरी निंदा की, न ही मेरा परिणाम तय किया। दरअसल, परमेश्वर को मेरी भ्रष्टता का शुरू से पता था। उसने सही समय पर भा‌ई-बहनों द्वारा मुझे उजागर किया और अपने वचनों से मेरे भ्रष्ट स्वभाव और मेरे गलत रास्ते को प्रकट किया, क्योंकि इसी तरीके से मैं खुद को जान सकता था। खुद को बदलने का यह एक सुनहरा मौका था! परमेश्वर का न्याय, ताड़ना, काट-छाँट और निपटारा सब मुझे बचाने के लिए लिए थे! अपनी धारणाओं के कारण मैंने उसकी इच्छा को गलत समझा, उसके न्याय और ताड़ना को दंड समझा, और सोचा कि मुझे हटा दिया जाएगा। मैंने गलत समझा कि मेरी मसीह-विरोधी अभिव्यक्तियों के कारण परमेश्वर मुझे नहीं चाहता और मेरा विनाश निश्चित है। लेकिन उजागर हुईं मेरी सभी अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर के लिए सामान्य थीं। हालाँकि मेरा स्वभाव मसीह-विरोधी था, लेकिन मैं मसीह-विरोधी ठहरा दिए जाने की हद तक नहीं पहुँचा था। परमेश्वर मसीह-विरोधी सार वालों को हटाकर दंडित करना चाहता है। वे कभी पश्चाताप नहीं कर सकते, क्योंकि उनकी प्रकृति और सार बुरा होता है, उन्हें सत्य से घृणा और चिढ़ होती है। वे अपनी गलतियां स्वीकार नहीं करते, अपनी प्रतिष्ठा तथा रुतबे के लिए कुछ भी कर गुज़रते हैं। मुझे अभी भी लगता था कि मैं बेहद गहराई तक भ्रष्ट हूँ, और गलत हूँ, इसलिए मेरे पास अब भी पश्‍चाताप का मौका था। मेरा तो बस स्वभाव ही मसीह-विरोधी था, लेकिन मैं सत्य नकारने वाला मसीह-विरोधी नहीं था। मैं उस समय परमेश्वर की इच्छा नहीं समझा, न ही परमेश्वर के प्रेम या धार्मिक स्वभाव को जानता था। मुझे लगा जब परमेश्वर मुझे नहीं चाहता, तो मेरे सारे प्रयास व्यर्थ हैं। अगर भौतिक सुखों का भी आनंद नहीं लिया, तो कुछ नहीं बचेगा। अपनी करनी पर मुझे बहुत शर्मिंदगी हो रही थी। मैंने परमेश्वर के सामने जीवनभर अनुसरण करने की कसमें खाई थीं, पर न्याय से गुज़रने और उजागर होने के बाद, मैं निष्क्रिय हो गया, परमेश्वर के उद्धार को नकारकर उसमें विश्वास गँवा बैठा, और बेझिझक दुनिया में लौटकर देह के सुखों के पीछे भागने का विकल्प चुना। मैं कैसे कह सकता था कि मेरे अंदर विवेक है? परमेश्वर की इच्छा समझने पर मेरे अंदर फिर से आशा जगी। लगा जैसे मरकर वापस आया हूँ। मैंने जीवन में सब-कुछ त्याग दिया, परमेश्वर के वचनों पर मनन और भजन करने लगा, उसके वचनों के पाठ सुनने और उसकी इच्छा खोजने लगा। यह परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर फिर से चलना शुरू करने जैसा था। मैंने एक बार फिर परमेश्वर की कृपा पाई और उसकी उपस्थिति महसूस की। मुझे धीरे-धीरे आंतरिक शांति और आनंद मिला, और मन में कलीसिया लौटने की इच्छा हुई। लेकिन मुझे नहीं पता था कि परमेश्वर का घर मुझे स्वीकारेगा या नहीं। मैंने परमेश्वर से दया दिखाने और मुझे बचाने की प्रार्थना की।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा जिससे मैं उसकी इच्छा को थोड़ा और समझ पाया। परमेश्वर कहते हैं, "अतीत में, कोई था जिसे बुरे काम करने के कारण कलीसिया से निकाल दिया गया था, और उसके भाई-बहनों ने उसे ठुकरा दिया था। कुछ वर्ष इधर-उधर भटकने के बाद अब वह वापस आ गया है। यह अच्छी बात है कि उसके हृदय ने परमेश्वर को पूरी तरह से नहीं छोड़ा; उसके पास अभी भी बचाए जाने का एक अवसर और आशा है। अगर वह भाग खड़ा होता और विश्वास करना छोड़ देता, अविश्वासियों जैसा बन जाता, तो वह पूरी तरह से खत्म हो जाता। अगर वह अपने-आपको बदल सकता है, तो उसके लिए अब भी उम्मीद है; यह एक दुर्लभ और अनमोल बात है। चाहे परमेश्वर कैसा भी कदम उठाए, और चाहे वह लोगों के साथ कैसा भी व्यवहार करे, या उनसे घृणा करे या उन्हें नापसंद करे, अगर कोई ऐसा दिन आता है कि लोग खुद को बदल सकते हैं, तो मुझे बहुत खुशी होगी; क्योंकि इसका मतलब यह होगा कि लोगों के मन में अभी भी परमेश्वर के लिए थोड़ा-सा स्थान तो है, कि उन्होंने अपनी मानवीय समझ या अपनी मानवता पूरी तरह से नहीं खोई है, कि वे अभी भी परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हैं, और उसके अस्तित्व को स्वीकार करके उसके सम्मुख लौटने का कम-से-कम थोड़ा-बहुत इरादा रखते हैं। जिन लोगों के दिल में वास्तव में परमेश्वर है, चाहे उन्होंने कभी भी परमेश्वर का घर छोड़ा हो, यदि वे वापस आते हैं, और अभी भी इस परिवार को प्रिय मानते हैं, तो मैं भावनात्मक रूप से जुड़कर कुछ सुकून पाऊँगा। लेकिन अगर वे कभी वापस नहीं लौटते, तो मैं इसे दयनीय समझूँगा। यदि वे वापस आकर वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हैं, तो मेरा दिल विशेष रूप से संतुष्टि और सुकून से भर जाएगा। जब तुम दूर चले गए, तो तुम निश्चित रूप से काफी नकारात्मक थे, और तुम खराब अवस्था में थे; पर अगर तुम अब वापस आ सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम्हें अभी भी परमेश्वर में आस्था है। लेकिन, तुम इसी तरह आगे भी चलते रह सकते हो या नहीं, यह अज्ञात है, क्योंकि लोग बहुत जल्दी बदल जाते हैं। अनुग्रह के युग में, यीशु में लोगों के लिए रहम और अनुग्रह था। यदि सौ में से एक भेड़ खो जाए, तो वह निन्यानबे को छोड़कर एक को खोजता था। यह पंक्ति किसी यांत्रिक विधि को नहीं दर्शाती है, न ही यह कोई नियम है, बल्कि यह मानव जाति के उद्धार को लेकर परमेश्वर के गहरे इरादे, और मानव जाति के लिए परमेश्वर के गहरे प्रेम को दर्शाता है। यह कोई काम करने का तरीका नहीं है, बल्कि यह उसका स्वभाव है और उसकी मानसिकता है। इसलिए, कुछ लोग छह महीने या साल भर के लिए चले जाते हैं, या बहुत-सी कमजोरियों या गलत धारणाओं के शिकार हैं, और फिर भी बाद में वास्तविकता के प्रति जागृत होने, ज्ञान प्राप्त करने, अपने-आपको बदलने और सही मार्ग पर लौटने की उनकी क्षमता मुझे खासतौर से सुकून देती है, और मुझे थोड़ा-सा आनंद देती है। आज के इस मौज-मस्ती और वैभवता के संसार में, और बुराई के इस युग में दृढ़ता से खड़े रहने के लिए सक्षम हो पाना, परमेश्वर को स्वीकार करने में सक्षम हो पाना, और सही रास्ते पर वापस लौट पाने में सक्षम हो पाना ऐसी चीजें हैं जो खुशी और रोमांच प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए बच्चों का पालन-पोषण करने को लो : चाहे तुम्हारे प्रति उनका व्यवहार संतानोचित हो या न हो, अगर वे तुम्हारा कोई संज्ञान लिए बिना घर छोड़कर चले जाएँ और कभी न लौटें, तो तुम्हें कैसा महसूस होगा? अपने दिल की गहराई में तुम तब भी उनकी चिंता करते रहोगे, और तुम हमेशा यह सोचोगे, 'मेरा बेटा कब लौटेगा? मैं उसे देखना चाहता हूँ। आखिर वह मेरा बेटा है, और मैंने उसे यूं ही नहीं पाला-पोसा और प्यार किया।' तुम हमेशा इसी तरह सोचते रहे हो; तुम हमेशा उस दिन की बाट जोहते रहे हो। इस संबंध में हर कोई ऐसा ही महसूस करता है, परमेश्वर तो और भी ऐसा महसूस करता है—क्या वह और अधिक यह आशा नहीं करता कि भटकने के बाद मनुष्य अपनी वापसी का रास्ता खोज ले, कि उड़ाऊ पुत्र वापस आ जाए? आजकल लोगों की आध्यात्मिक कद-काठी बहुत छोटी है, पर वह दिन आएगा जब वे परमेश्वर की इच्छा को समझ जाएंगे, लेकिन अगर उनका सच्चे विश्वास की ओर कोई झुकाव न हो, वे अविश्वासी हों, तो वे परमेश्वर की चिंता के लायक नहीं हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर से लगातार माँगते रहने वाले लोग सबसे कम विवेकशील होते हैं')। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं बहुत प्रभावित हुआ। लगा जैसे वो मुझसे रूबरू होकर बात कर रहा है, जैसे एक माँ अपने बच्चे से बात करती है। उसने मेरे हताश मन को दिलासा दी, एक आशा दी, दिखाया कि लोगों के लिए उसका प्रेम सच्चा है! मैं समझ गया कि परमेश्वर इच्छानुसार लोगों की निंदा या हत्या नहीं करता। उसने इंसान को बचाने के लिए अंत के दिनों में देहधारण किया। परमेश्वर ने मुझे नहीं छोड़ा था, जैसा कि मुझे लगा था। वह तो सिर्फ मेरे भ्रष्ट स्वभाव और गलत रास्ते पर चलने के कारण मेरा न्याय कर मुझे ताड़ना दे रहा था, ये उसकी धार्मिकता और पवित्रता थी, मुझे बदलने का तरीका था। परमेश्वर को मेरे पश्‍चाताप की प्रतीक्षा थी, लेकिन मेरे मन में उसके बारे में बहुत-सी धारणाएँ और गलतफहमियाँ थीं। मैंने उसके न्याय और उद्धार को हटाया जाना और दंड समझा, मैंने परमेश्वर की इच्छा नहीं समझी, मुझमें आज्ञाकारिता नहीं थी। व्यक्तिगत दृष्टिकोण पर अड़कर अपनी राय को सच मानता रहा। हालाँकि मैं बहुत विद्रोही था, लेकिन परमेश्वर जानता था मुझमें क्या कमी है, मैं कहाँ गिरकर नाकाम होऊँगा। परमेश्वर ने मार्गदर्शन कर मुझे जगाया और फिर से होश में लाया। लोगों को बचाने का परमेश्वर का इरादा नेक है। अगर लोग उसके नाम में निष्ठा रखकर उसके मार्ग पर चलते रहेंगे, तो वह उद्धार का हाथ बढ़ाता रहेगा। हमारे लिए उसका प्रेम मेरी सोच से कहीं अधिक है। परमेश्वर सभी के जीवन के लिए उत्तरदायी है। मुझे पता था कि अभी देर नहीं हुई, अगर मैं ईमानदारी से प्रायश्चित करूँ तो मेरे पास अभी भी अपने भ्रष्ट स्वभाव को बदलने और बचने का मौका है। परमेश्वर की इच्छा समझने पर, मेरी नकारात्मकता और गलतफहमी दूर हो गई।

फिर मैंने उसके वचनों का एक और अंश पढ़ा जिसने मुझे उसके न्याय-कार्य की महत्ता समझाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। यदि तुम केवल यह जानते हो कि तुम निम्न हैसियत के हो, कि तुम भ्रष्ट और अवज्ञाकारी हो, परंतु यह नहीं जानते कि परमेश्वर आज तुममें जो न्याय और ताड़ना का कार्य कर रहा है, उसके माध्यम से वह अपने उद्धार के कार्य को स्पष्ट करना चाहता है, तो तुम्हारे पास अनुभव प्राप्त करने का कोई मार्ग नहीं है, और तुम आगे जारी रखने में सक्षम तो बिल्कुल भी नहीं हो। परमेश्वर मारने या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, शाप देने, ताड़ना देने और बचाने के लिए आया है। उसकी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना के समापन से पहले—इससे पहले कि वह मनुष्य की प्रत्येक श्रेणी का परिणाम स्पष्ट करे—पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य उद्धार के लिए होगा; इसका प्रयोजन विशुद्ध रूप से उन लोगों को पूर्ण बनाना—पूरी तरह से—और उन्हें अपने प्रभुत्व की अधीनता में लाना है, जो उससे प्रेम करते हैं। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि परमेश्वर लोगों को कैसे बचाता है, यह सब उन्हें उनके पुराने शैतानी स्वभाव से अलग करके किया जाता है; अर्थात्, वह उनसे जीवन की तलाश करवाकर उन्हें बचाता है। यदि वे ऐसा नहीं करते, तो उनके पास परमेश्वर के उद्धार को स्वीकार करने का कोई रास्ता नहीं होगा। उद्धार स्वयं परमेश्वर का कार्य है, और जीवन की तलाश करना ऐसी चीज़ है, जिसे उद्धार स्वीकार करने के लिए मनुष्य को करना ही चाहिए। मनुष्य की निगाह में, उद्धार परमेश्वर का प्रेम है, और परमेश्वर का प्रेम ताड़ना, न्याय और शाप नहीं हो सकता; उद्धार में प्रेम, करुणा और, इनके अलावा, सांत्वना के वचनों के साथ-साथ परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए असीम आशीष समाविष्ट होने चाहिए। लोगों का मानना है कि जब परमेश्वर मनुष्य को बचाता है, तो ऐसा वह उन्हें अपने आशीषों और अनुग्रह से प्रेरित करके करता है, ताकि वे अपने हृदय परमेश्वर को दे सकें। दूसरे शब्दों में, उसका मनुष्य को स्पर्श करना उसे बचाना है। इस तरह का उद्धार एक सौदा करके किया जाता है। केवल जब परमेश्वर मनुष्य को सौ गुना प्रदान करता है, तभी मनुष्य परमेश्वर के नाम के प्रति समर्पित होता है और उसके लिए अच्छा करने और उसे महिमामंडित करने का प्रयत्न करता है। यह मानवजाति के लिए परमेश्वर की अभिलाषा नहीं है। परमेश्वर पृथ्वी पर भ्रष्ट मानवता को बचाने के लिए कार्य करने आया है—इसमें कोई झूठ नहीं है। यदि होता, तो वह अपना कार्य करने के लिए व्यक्तिगत रूप से निश्चित ही नहीं आता। अतीत में, उद्धार के उसके साधन में परम प्रेम और करुणा दिखाना शामिल था, यहाँ तक कि उसने संपूर्ण मानवजाति के बदले में अपना सर्वस्व शैतान को दे दिया। वर्तमान अतीत जैसा नहीं है : आज तुम लोगों को दिया गया उद्धार अंतिम दिनों के समय में प्रत्येक व्यक्ति का उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकरण किए जाने के दौरान घटित होता है; तुम लोगों के उद्धार का साधन प्रेम या करुणा नहीं है, बल्कि ताड़ना और न्याय है, ताकि मनुष्य को अधिक अच्छी तरह से बचाया जा सके। इस प्रकार, तुम लोगों को जो भी प्राप्त होता है, वह ताड़ना, न्याय और निर्दय मार है, लेकिन यह जान लो : इस निर्मम मार में थोड़ा-सा भी दंड नहीं है। मेरे वचन कितने भी कठोर हों, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे कुछ वचन ही हैं, जो तुम लोगों को अत्यंत निर्दय प्रतीत हो सकते हैं, और मैं कितना भी क्रोधित क्यों न हूँ, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे फिर भी कुछ शिक्षाप्रद वचन ही हैं, और मेरा आशय तुम लोगों को नुकसान पहुँचाना या तुम लोगों को मार डालना नहीं है। क्या यह सब तथ्य नहीं है? जान लो कि आजकल हर चीज़ उद्धार के लिए है, चाहे वह धार्मिक न्याय हो या निर्मम शुद्धिकरण और ताड़ना। भले ही आज प्रत्येक व्यक्ति का उसके प्रकार के अनुसार वर्गीकरण किया जा रहा हो या मनुष्य की श्रेणियाँ प्रकट की जा रही हों, परमेश्वर के समस्त वचनों और कार्य का प्रयोजन उन लोगों को बचाना है, जो परमेश्वर से सचमुच प्यार करते हैं। धार्मिक न्याय मनुष्य को शुद्ध करने के उद्देश्य से लाया जाता है, और निर्मम शुद्धिकरण उन्हें निर्मल बनाने के लिए किया जाता है; कठोर वचन या ताड़ना, दोनों शुद्ध करने के लिए किए जाते हैं और वे उद्धार के लिए हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना कि मैं उसके न्याय के कार्य को समझ नहीं पाया। परमेश्वर के कार्य को स्वीकारकर, मैंने उसके प्रेम, दया और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता का भरपूर आनंद उठाया। अनुग्रह का आनंद लेकर मैं संतुष्ट था। मुझे लगा कि मैं एक छोटा बच्चा हूँ, जिसे परमेश्वर के हाथों में लेकर संजोता है, लगा मैं विशेष हूँ, पूर्ण हूँ, परमेश्वर कठोरता से मेरा न्याय नहीं करेगा। तो जब उसका कठोर न्याय और ताड़ना मुझ पर पड़ी, जब उसके वचनों ने मेरे विद्रोह, प्रतिरोध और मसीह-विरोधी स्वभाव को उजागर किया, तो मुझे लगा कि परमेश्वर मुझे हटा देगा, लगा जैसे मेरे सारे प्रयास व्यर्थ हुए, इसलिए मैंने कलीसिया छोड़ने का फैसला किया। आशीष की इच्छा, व्यर्थ महत्वाकांक्षाओं और अज्ञानता के कारण मैंने परमेश्वर को धोखा दिया। अपने स्वार्थ के कारण मैंने केवल परमेश्वर की निंदा देखी, मैं लोगों को बचाने की उसकी इच्छा को नहीं समझ पाया। अनुग्रह के युग में, परमेश्वर में लोगों के लिए अनंत दया और सहनशीलता थी, उसने पूरी मानवजाति को पाप से छुटकारा दिलाया। लेकिन शैतान इंसान को बुरी तरह भ्रष्ट कर चुका था। केवल परमेश्वर का कठोर न्याय और ताड़ना ही लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को बदलकर हमें शैतान की अधीनता से बचा सकते थे। मैं इतना भ्रष्ट था कि मैं शैतान का मूर्त रूप बन गया, मुझे जगाने के लिए परमेश्वर के कठोर न्याय और ताड़ना की आवश्यकता थी। क्योंकि केवल यही मुझे शैतान द्वारा मेरी भ्रष्टता की कुरूपता दिखा सकता था और तभी मैं खुद से घृणा कर शैतान को त्याग सकता था। इसके बिना, मुझे यही लगता कि मैं पूर्ण हूँ और परमेश्वर मुझे चाहता है, फिर मैं कभी सत्य खोजकर आत्म-चिंतन न करता। मैं मरते दम तक मसीह-विरोधी के गलत मार्ग पर ही चलता रहता। परमेश्वर में विश्वास करके भी मैं कष्ट नहीं उठाना चाहता था, उसके हाथों बिगड़ना चाहता था, मैं हमेशा बच्चे की तरह परमेश्वर की दया और आशीर्वाद चाहता था। इस तरह वो मुझे कैसे शुद्ध करता? अपनी अज्ञानता और स्वार्थ के कारण मैं परमेश्वर के न्याय के कार्य में प्रेम और आशीष नहीं देख पा रहा था, जिस कारण मैं उसे गलत समझकर उससे दूर हो गया, उसे धोखा दिया। मैंने अपनी अज्ञानता और स्वार्थ की भारी कीमत चुकाई। परमेश्वर के न्याय-कार्य की विशाल महत्ता समझकर, मेरे अंदर फिर से उसका अनुसरण और उसके कार्य का अनुभव करने का विश्वास जागा, क्योंकि मैं समझ गया था, भले ही परमेश्वर का कार्य मेरी धारणाओं के अनुरूप न हो, लेकिन यह मुझे शुद्ध करने और मेरे भ्रष्ट स्वभाव को बदलने के लिए था। यह मुझे शैतान की अधीनता से बचाने के लिए था।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के ज़रिए आत्म-चिंतन किया। मैंने उसके वचनों का अंश पढ़ा। "अहंकारी प्रकृति के लोग परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं, उसका प्रतिरोध करते हैं, ऐसे कार्य करते हैं जिनसे परमेश्वर की आलोचना होती है, वे उसे धोखा देते हैं, अपना उत्कर्ष करने और अपना राज्य स्थापित करने का प्रयत्न करने वाले काम करते हैं। मान लो, किसी देश में परमेश्वर का कार्य स्वीकारने वाले हजारों लोग हों, और परमेश्वर का घर तुम्हें वहाँ परमेश्वर के चुने हुए लोगों की अगुआई और चरवाही करने के लिए भेजे। और मान लो, परमेश्वर का घर तुम्हें अधिकार सौंप दे और तुम्हें मेरी या किसी और की निगरानी के बिना खुद से काम करने की इजाजत दे दे। कई महीनों बाद तुम एक संप्रभु शासक जैसे बन जाओगे, सारी शक्ति तुम्हारे हाथों में होगी, तुम्हीं सारे निर्णय लोगे, सभी चुने हुए लोग श्रद्धानत हो जाएँगे, तुम्हारी आराधना करेंगे, तुम्हारी आज्ञा का पालन करेंगे मानो तुम परमेश्वर हो; अधिकतर लोग तो तुम्हारे सामने घुटने तक टेक देंगे, उनका प्रत्येक शब्द तुम्हारी प्रशंसा में होगा, कहेंगे कि तुम्हारे उपदेशों में अंतर्दृष्टि है, और लगातार इस बात का दावा करेंगे कि हमें तुम्हारे कथनों की ही आवश्यकता थी, तुमने 'परमेश्वर' शब्द बोले बिना ही हमारी अपेक्षाएँ पूरी कर दी। तुमने यह कार्य कैसे किया होगा? उन लोगों की ऐसी प्रतिक्रिया से सिद्ध होता है कि तुम जो काम कर रहे थे, उसमें परमेश्वर के लिए गवाही देना शामिल नहीं था; बल्कि तुम्हारी अपनी गवाही और तुम्हारा अपना दिखावा शामिल था। तुम ऐसा परिणाम कैसे प्राप्त कर पाए? कुछ लोग कहते हैं, 'मैं सत्य की संगति करता हूँ; मैंने अपनी गवाही बिल्कुल नहीं दी!' तुम्हारा रवैया, तुम्हारा अंदाज़, परमेश्वर के स्थान से लोगों के साथ संगति करने का प्रयास करने जैसा है, न कि एक भ्रष्ट इंसान के स्थान पर खड़े होने जैसा। तुम्हारी हर बात में बड़बोलापन है और तुम लोगों से अपेक्षाएँ करते हो; इसका तुमसे कुछ लेना-देना नहीं। इसलिए, तुम जो परिणाम हासिल करोगे, वो लोगों से अपनी पूजा करवाना होगा, लोग तुमसे ईर्ष्या करेंगे, तुम्हारी प्रशंसा करेंगे, और ऐसा तब तब चलेगा जब तक लोग तुम्हारे बारे में जान नहीं लेते, तुम्हारी गवाही नहीं दे देते, तुम्हें ऊँचा नहीं उठा देते, तुम्हारी चटुकारिता कर-करके तुम्हें आसमान पर नहीं बैठा देते। और जब ऐसा होगा, तो तुम खत्म हो जाओगे; तुम असफल हो चुके होगे! क्या तुम लोग फिलहाल इसी रास्ते पर नहीं चल रहे हो? अगर तुम्हें कुछ हज़ार या हज़ारों लोगों की अगुआई करने के लिए कह दिया जाए, तो तुम गर्व से फूल जाते हो। तुम्हारे अंदर अहंकार आ जाता है, तुम परमेश्वर का स्थान हथियाने का प्रयास करने लगते हो, बतियाने और भाव-भंगिमाएँ दिखाने लगते हो, तुम्हें पता नहीं होता कि क्या पहनना है, क्या खाना है और कैसे चलना है। तुम जीवन की सुख-सुविधाओं में आनंदित होगे और अपने आप को ऊँचा रखोगे, सामान्य भाई-बहनों से मिलने के इच्छुक नहीं होगे। तुम पूरी तरह से पतित हो जाओगे—और उजागर कर दिए जाओगे और हटा दिए जाओगे, महादूत की तरह मार गिराए जाओगे। तुम लोग ऐसा कर सकते हो, है न?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अहंकारी स्वभाव ही परमेश्वर के प्रति मनुष्य के प्रतिरोध की जड़ है')। वचनों पर विचार करते हुए मैंने अपने व्यवहार को याद किया। जब से काम शुरू किया, मैं अनजाने ही मसीह-विरोधी मार्ग पर चल पड़ा था। भा‌ई-बहनों के दिल में जगह बनाने के लिए, उच्च प्रतिष्ठा और अधिक ताकत हासिल करने के लिए, भा‌ई-बहनों का सम्मान पाने को हर तरह का वेश धारण किया। इसके अलावा, लगातार पदोन्नति पाने से मुझे लगा कि मैं भा‌ई-बहनों से ऊपर हूँ, परमेश्वर का प्रिय हूँ, उसने मुझे दूसरों के प्रबंधन के लिए नियुक्त किया है, इसलिए मैं अहंकारी हो गया, दूसरों को नीचा दिखाता था, चाहता था कि सब मेरी आज्ञा मानें, मेरे अधीन रहें, और उन्हें अपने सामने ले आया। अपने काम में सत्य के सिद्धांतों की खोज नहीं की, न ही भा‌ई-बहनों के विचार और सुझाव मांगे, क्योंकि मैं उन्हें अपने समान नहीं समझता था। सभाओं में, मैं मनमाने ढंग से उनकी आलोचना कर सबके सामने उन्हें फटकारता, काम में उनकी कमियाँ और गलतियाँ उजागर करता, उन्हें इतना नकारात्मक महसूस कराता कि वे मेरे साथ काम ही नहीं करना चाहते थे। मैंने दूसरों से भी वही करने को कहा जो मैं करता हूँ, मेरे तरीके से काम करने को कहा, किसी को सत्य के सिद्धांतों की खोज की राह नहीं दिखाई। परमेश्वर के वचनों के प्रकटन के बिना, मुझे नहीं लगता कि मैं अहंकारी हूँ, रुतबा हासिल करने की इच्छा और महत्वाकांक्षा में कोई गंभीर समस्या नज़र नहीं आती, न ही मुझे यह लगता कि मैं मसीह-विरोधी मार्ग पर चल रहा हूँ। परमेश्वर के वचनों ने मेरी असलियत उजागर न की होती, तो मैं अब भी मसीह-विरोधी मार्ग पर चलता रहता, अक्षम्य हरकतें करता और अंत में परमेश्वर मुझे नष्ट कर देता।

फिर मैंने उसके वचनों का एक और अंश पढ़ा। परमेश्वर कहते हैं, "जीवधारियों में से एक होने के नाते, मनुष्य को अपनी स्थिति को बना कर रखना होगा और शुद्ध अंतःकरण से व्यवहार करना होगा। सृष्टिकर्ता के द्वारा तुम्हें जो कुछ सौंपा गया है, कर्तव्यनिष्ठा के साथ उसकी सुरक्षा करो। अनुचित ढंग से आचरण मत करो, या ऐसे काम न करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की चेष्टा मत करो, दूसरों से श्रेष्ठ होने की कोशिश मत करो, न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना और भी अधिक लज्जाजनक है; यह घृणित है और नीचता भरा है। जो काम तारीफ़ के काबिल है और जिसे प्राणियों को सब चीजो से ऊपर मानना चाहिए, वह है एक सच्चा जीवधारी बनना; यही वह एकमात्र लक्ष्य है जिसे पूरा करने का निरंतर प्रयास सब लोगों को करना चाहिए" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। वचन पढ़कर, मैंने खुद को समझने की कोशिश की। मैं खुद को सबसे अलग मानने लगा था, खासकर जब मैंने अगुआ बनकर रुतबा हासिल कर लिया, तो मेरी शैतानी प्रकृति और भी अधिक उजागर हो गई। मैं अहंकारी और आडंबरी बन गया था। मैं चाहता था कि भाई-बहन मुझे पूजें और मेरी बात मानें। परमेश्वर द्वारा दिये हुनर और रुतबे से मैं सत्ता पर काबिज़ होना चाहता था। मैं बहुत बेशर्म और अज्ञानी था! परमेश्वर चाहता था कि मैं सच्चा सृजित प्राणी बनकर उसकी संप्रभुता और प्रावधान को स्वीकारूँ, अपना कर्तव्य निभाऊँ, उसे जानूँ, उसकी गवाही दूँ। लेकिन शैतान ने मुझे इतना भ्रष्ट कर दिया कि मुझमें सामान्य व्यक्ति जितना विवेक नहीं बचा, मैं एक सृजित प्राणी की जगह भूल चुका था। मैं एक सामान्य व्यक्ति की तरह रहना नहीं चाहता था, एक ऐसा महामानव बनना चाहता था जिसका लोग सम्मान और प्रशंसा करें। दरअसल, मेरी हैसियत भाई-बहनों जितनी ही थी। सिर्फ इसलिए कि परमेश्वर ने मुझे खास हुनर या प्रतिभा दी है या मुझे अगुआ के पद पर बैठाया है, मेरी हैसियत भा‌ई-बहनों से ऊंची नहीं हो जाती। मैं सृजित प्राणी ही रहूँगा। ये हुनर और प्रतिभा परमेश्वर से मिली थी, मुझे दिखावा नहीं करना चाहिए था। मुझे बेहतर ढंग से अपने काम पर ध्यान देकर एक अच्छा सृजित प्राणी बनना चाहिए था।

इन बातों का एहसास होने पर, मुझे अभ्यास का मार्ग मिला, और मुझे राहत की अनुभूति हुई। अब मैं जल्दी से कलीसिया लौटकर फिर से अपने काम में लग जाना चाहता था। अबकी बार मैंने परमेश्वर का अनुसरण कर कर्तव्य निभाने का दृढ़-संकल्प लिया। मैंने अपने कंप्यूटर और फोन से वह सब हटा दिया जो परमेश्वर में विश्वास से संबंधित नहीं था, सबकुछ दरकिनार करके परमेश्वर का अनुसरण करने का निश्चय किया। कुछ दिनों बाद, मैं कलीसिया लौट गया। जल्दी ही अपने काम पर लौटकर सुसमाचार का प्रचार करने लगा। परमेश्वर का धन्यवाद! इस बार, मैंने नई शुरुआत की और भा‌ई-बहनों के साथ पूरा सहयोग किया। जब भी कोई समस्या आती, मैं भा‌ई-बहनों की राय और सुझाव माँगता और उन्हें शामिल करता। अब मैं खुद निर्णय नहीं लेता था, अपने विचार भा‌ई-बहनों पर नहीं थोपता था। बल्कि, मैं उन्हें सलाह देता और अभ्यास का अच्छा मार्ग खोजने के लिए उनके साथ काम करता। इसके अलावा, सम्मान पाने के लिए दिखावा भी नहीं करता था न ही उन्हें नियंत्रित करता था। अब मुझे सत्ता नहीं चाहिए थी। मैंने सबके साथ मिलकर सत्य के सिद्धांतों की खोज करना सीखा। इस तरह अभ्यास करके मुझे गहरी शांति का अनुभव हुआ। ऐसा मुझे पहले कभी महसूस नहीं हुआ था। अब भा‌ई-बहनों के साथ मेरा रिश्ता बहुत सहज है, वे मेरे साथ सहयोग करने को तैयार हैं। नई शुरुआत का मौका देने के लिए मैं परमेश्वर का आभारी हूँ। मुझे लगता है कि मात्र परमेश्वर के वचन ही मेरे अहंकारी स्वभाव और रुतबे के पीछे भागने की प्रवृत्ति को बदल सकते हैं। मुझे एक सृजित प्राणी की जगह बने रहने दे सकते हैं, सहयोग करते हुए अच्छे से कर्तव्य निभाने, और इंसान जैसे जीने की योग्यता दे सकते हैं।

इस कठोर न्याय, ताड़ना, काट-छाँट और निपटारे के ज़रिए, मैंने परमेश्वर के प्रेम का अनुभव किया, अपने भ्रष्ट स्वभाव की समझ प्राप्त की, परमेश्वर के कार्य के बारे में अब मेरा दृष्टिकोण स्पष्ट है, और आस्था दृढ़ है। मुझे यकीन हो गया है कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना लोगों की निंदा कर उन्हें नष्ट करने के लिए नहीं है, जैसा परमेश्वर के वचन कहते हैं, "परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। मेरी प्रकृति बहुत अहंकारी थी, मेरी महत्वाकांक्षा अधिक थी और शैतानी स्वभाव गंभीर था, इसलिए परमेश्वर को मुझे शुद्ध करने, बदलने और सही मार्ग दिखाने के लिए ऐसे कठोर न्याय और ताड़ना का उपयोग करना पड़ा। मुझे बचाने के लिए मैं परमेश्वर का आभारी हूँ!

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