एक मसीह-विरोधी को पहचानना सीखना

20 मार्च, 2022

सु शान, जापान

जब मैं कलीसिया अगुआ बनी तो कलीसिया के काम की जिम्मेदारी चेन पर थी। हमउम्र होने की वजह से हमारी अच्छी बनती थी। हम अपनी भावनाओं के बारे में अक्सर बातें किया करते थे, काम में कोई परेशानी होने पर वो स्नेह से मेरी मदद करती थी, सहारा देती थी। कुछ समय बाद, मुझे चेन के काम पर नज़र रखने की जिम्मेदारी मिली, तब लगा जैसे वो बदल गई है। वो मुझे अनदेखा करती, मुझसे बात भी नहीं करना चाहती थी, उसके चेहरे पर हमेशा उखड़े भाव होते। सोचा शायद काम का ज़्यादा दबाव होने के कारण उसका मूड ठीक न हो, तो इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। बाद में, एक सभा में उसने कहा, "मेरे काम की जिम्मेदारी तुम्हें मिलने पर मुझे तुमसे ईर्ष्या हो गई है। मैं भी तो अच्छा काम करती हूँ, मुझे क्यों नहीं चुना गया? सबको लगेगा मैं उस काम के लायक नहीं। अहमियत और सम्मान न मिलने की सोचकर इतनी निराश हूँ कि कोई काम नहीं करना चाहती।" तब मुझे समझ आया, ईर्ष्या की वजह से वो उखड़ी रहती है। बाद में, मेरी साथी बहन ने बताया चेन का स्वभाव स्थिर नहीं है, वो रुतबे की बहुत परवाह करती है, थोड़ी दुराग्रही भी है। उसकी बुरी हालत से काम पर असर पड़ता है। वो चाहती थी मैं सहभागिता करके उसकी मदद करूं। मैं सोचने लगी, उसे रुतबे की परवाह तो है, पर वो सरल और सच्ची इंसान है, सहभागिता में चिंतन करके खुद को समझ सकती है। ये कोई गंभीर समस्या नहीं हो सकती। इसके अलावा, वो युवा है, थोड़ी ईर्ष्या महसूस होना, होड़ करना तो सामान्य बात है। पर कुछ समय बाद समझ आया, उसे वाकई रुतबे की बहुत परवाह है, जो सम्मान उसे चाहिए था वो नहीं मिलने पर, वो निराश हो जाती। जैसे कि जब मैंने और मेरी साथी ने उसके काम में कुछ कमियां निकाली और उसे वो सब बताया, तो चेन को लगा कि हम उसे दूसरों के सामने नीचा दिखाना चाहते हैं, उसके बाद उसने हमारी हर बात सुनने से इनकार कर दिया। उसके बजाय किसी और को काम सौंप दिया जाता, तो वो खफा हो जाती, उसे लगता जैसे उसकी अहमियत नहीं है। कभी उसे लगता उसके साथ इतना गलत हुआ है कि सभी को सब कुछ छोड़कर उसके साथ सहभागिता करनी पड़ती। सभी उसके साथ मिलकर सहभागिता करते, तो वो खुशी से खुलकर बात करती। कभी-कभी अपनी गलती समझ आती, तो पछतावे में रोते हुए कहती, उसे पता था वो रुतबे की परवाह करती है और बदलना चाहती है, पर खुद को रोक नहीं पाती। ये सब सुनकर लगा, वो बस अपने भ्रष्ट स्वभाव के काबू में है, उस पर इसका जूनून सवार है, तो इसे तुरंत नहीं बदला जा सकता। लगा उसे और मदद की ज़रूरत है।

बाद में उसे एक अगुआ के पद पर चुन लिया गया, हम फिर से पार्टनर बन गए। एक बार, एक बहन को उसी दिन गिरफ्तार कर लिया गया, जब मैं उससे मिली थी। हमें पता चला कि कई दिनों से पुलिस उस पर नज़र रखे थी, ये पक्का था कि वो जिनके संपर्क में थी, उन पर भी नज़र होगी। उन्हें फौरन बताना था कि वे सावधानी बरतें, अपनी जगह बदलें। पर मैं उससे अभी-अभी मिली थी, तो शायद पुलिस मुझ पर भी नज़र रख रही होगी, इसलिए मैं ये सब नहीं कर सकती थी। मैंने अगले कदमों पर चर्चा के लिए चेन और दूसरे सहकर्मियों को लिखा। चेन ने न केवल कोई हल नहीं दिया, बल्कि मेरे और उस सहकर्मी के बीच दरार भी पैदा कर दी। उसने कहा, वो बहन इसलिए गिरफ्तार हुई क्योंकि मैं सिद्धांतों के अनुसार काम नहीं करती। सहकर्मी ने मुझे गलत समझा, कड़ाई से काट-छाँट और निपटान किया। बाद में उसे पता चला कि चीज़ें वैसी नहीं थीं जैसा चेन ने कहा था, तो उसे बहुत बुरा लगा। फिर उसने इस बारे में खुलकर बताया और कहा कि चेन के साथ भी सहभागिता करके समझाएगी कि कैसे यह दूसरों को कमजोर कर मतभेद पैदा करता है। पर चेन ने इसे मानने से इनकार कर दिया और बहस करने लगी। ये सुनकर मैं हैरान रह गई। चेन ऐसी कैसे हो सकती है? मुझे नीचा दिखाने और काम बिगाड़ने पर आलोचना की गई, तो उसने मानने से इनकार कर दिया। ये तो सत्य को ठुकराना है। मैं सोच रही थी चेन और मैंने काफी समय साथ मिलकर काम किया, मेरे बारे में अपनी राय या पक्षपात का जिक्र नहीं किया था, कोई सुझाव भी नहीं दिया था। मैंने सोचा, क्या मैंने कुछ गलत किया है जिससे वो बेबस महसूस करती है, इसलिए ही उसने वो सब कहा। अगर ऐसा है, तो वाकई मुझे सावधानी से आत्मचिंतन करना होगा। फिर मैं चेन से मिली, उसे बताया कि उस घटना पर मेरी प्रतिक्रिया क्या थी। मैंने उसे ये भी बताया कि नीचा दिखाना और बाधा डालना कुकर्म है। चेन ने जवाब देते हुए कहा, "हमारे सहकर्मी के सामने ऐसी आलोचना करना ठीक नहीं था मैंने आत्मचिंतन किया है। कुछ दिनों से मैं नाम और रुतबे के पीछे भाग रही थी। तुम अगुआ बनकर आगे बढ़कर बहुत सारा काम संभालती हो, हर कोई तुम्हारा साथ देता है। तुम चाहे जो भी कहो, जो सुझाव दो, सभी उसे सुनना चाहते हैं, पर मुझे अनदेखा करते हैं। ये मुझे अच्छा नहीं लगता, मेरी भ्रष्टता मन पर हावी हो गई है।" ये सब कहते हुए वो रोती जा रही थी। उसे इतना दुखी देखकर मैं बहुत परेशान हो गई, थोड़ा अपराध बोध भी हुआ। लगा कि मैंने ही उसकी भावनाओं पर ध्यान नहीं दिया, और वो भ्रष्टता से जूझती रही। मेरे बारे में वो सब कहते समय उसे खुद पर काबू नहीं था, अब वो चिंतन करके खुद को जान सकती है, खुलकर बातें कर सकती है, यानी वो पश्चाताप करके बदलना चाहती है। पर उसके बाद, पता चला कि वो बिल्कुल नहीं बदली, उसका बर्ताव और भी बुरा हो गया है।

दूसरी सहकर्मी, जो हमेशा ज़रूरी काम करने वालों से मिला करती थी, उस पर पुलिस ने चुपके से नज़र रखकर गिरफ्तार कर लिया। इसमें कोई शक नहीं था कि पुलिस अपनी निगरानी की वजह से ही उसे ढूंढ पाई। ये सब बहुत अप्रत्याशित था। इस समस्या से निबटने के लिए हमने तत्काल बैठक की, ताकि सबकी सुरक्षा हो सके। फिर भी चेन ने कुछ नहीं कहा, वो थोड़ी नाखुश दिखी। जब साथ मिलकर चर्चा करनी होती, तो वो एक बात भी कहने में बहुत देर लगा देती। रणनीति बनाने पर भी इसका असर हुआ। मुझे याद आया, पहले जब अन्य लोग उसकी सोच से सहमत नहीं होते, या लगता उसे अहमियत नहीं दी गई, तो वो मुँह फुलाकर चर्चाओं में हिस्सा लेने से मना कर देती थी। पता नहीं इस बार किस बात से वो इतना ज्यादा चिढ़ गई। इस स्थिति में फौरन कदम उठाना था। भाई-बहन कभी भी गिरफ्तार हो सकते थे, परमेश्वर के घर के हितों का नुकसान हो सकता था, पर लगा उसे कोई परवाह ही नहीं। गुस्से में, मैंने उसे अनदेखा कर दिया और दूसरों के साथ चर्चाएं करने लगी। जो खतरे में थे, हमने उन्हें फौरन दूसरी जगह जाने को कहा। उस वक्त रात के 11 बज चुके थे, पर अभी भी कुछ काम करना बाकी था। चेन अभी भी मुँह लटकाये बैठी थी, पूरी तरह बेपरवाह थी। उसने कुछ भी नहीं कहा, साथ मिलकर चर्चा करनी होती, तब यूं ही बस एक-दो शब्द कह देती। इससे हमारे काम में देरी हो गई। जो काम तुरंत पूरा हो जाना था, उसे करने में सुबह के 3-4 बज गये। ये केवल दुराग्रही या तुनकमिजाज़ होना नहीं बल्कि काम बिगाड़ना और रुकावट डालना भी था। उसके बाद, मैंने उसके स्वार्थी और घिनौने बर्ताव को उजागर कर उसका विश्लेषण किया, उसने कलीसिया के काम की परवाह न करके सिर्फ अपने नाम और रुतबे की सोची। यह दरअसल बड़े लाल अजगर की मदद करने वाली प्रकृति थी, जिससे परमेश्वर के घर के काम में रुकावट आई। कुछ और सहकर्मियों ने भी उसकी समस्याओं पर सहभागिता की। हैरानी की बात थी कि उसने सबकी उपेक्षा कर कहा, "आप सबको लगता है मैं ये काम नहीं कर सकती, तो निकाल दीजिए। वैसे भी, लगता है मैं ये काम नहीं कर सकती।" उसने आगे कहा, "ऐसा नहीं है कि मैं शामिल नहीं होना चाहती, पर मैं जो कहती हूँ सब उसे ठुकरा देते हैं। हालत ऐसी है कि मेरा आत्मविश्वास ही खत्म हो गया है। मैं क्या कहूँ? हर बार समस्याओं में मदद करना चाहती हूँ, पर दूसरे लोग इससे निबटना चाहते हैं, तो मैं क्या कर सकती हूँ? वैसे भी हर कोई मुझे एक बेकार अगुआ ही समझता है। जब आप लोग मुझे तुच्छ समझते हैं, तो मैं भी आपसे जुड़ना नहीं चाहती।" उसकी बात सुनकर हम सब हैरान थे। वो अब भी सत्य नहीं स्वीकार रही थी। आलोचना होने पर, उसने अपना काम ही छोड़ दिया, हमें दोषी ठहराया, इसकी जिम्मेदारी हम पर डाल दी। ऐसे ज़रूरी काम के वक्त भी, वो बस नाम और रुतबे के लिए लड़ रही थी। उसमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं थी। फिर मैंने सोचा, क्या मैं ज़्यादा ज़ोर डाल रही हूँ, हर चीज़ पर एकाधिकार कर, उस पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दे रही। जब उसके नाम या रुतबे को कोई खतरा न होता, तो वो अच्छे से शामिल होती थी, हमारे काम में समस्याएं ढूंढने में अच्छी थी। इस चर्चा में, जब मैंने देखा वो हिस्सा नहीं ले रही है, तो उसे अनदेखा कर दिया। अगर मैं सचमुच उसकी रुकावट का कारण हूँ, तो ये कुकर्म होगा। यह बात समझ आने पर मैंने और कुछ नहीं कहा।

बाद में विचार किया तो पाया कि चेन बार-बार ऐसा ही करती थी। जब भी उसके नाम और रुतबे पर बात आती, वो निराश होकर ढीली पड़ जाती, काम की परवाह न करती, कलीसिया के काम को बिल्कुल भी कायम नहीं रखती। असली समस्या क्या थी? फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। "चाहे वे बाहर से कितने भी व्यस्त दिखें, सड़कों पर दौड़-भाग करने में कितना भी समय बिताएँ, कितना भी त्याग करें, छोड़ें और खपें, क्या इस प्रकार के लोग, जो केवल हैसियत के लिए बोलते और कार्य करते हैं, सत्य का अनुसरण करने वाले माने जा सकते हैं? (नहीं।) बिल्कुल नहीं। हैसियत के लिए वे कोई भी कीमत चुकाएँगे। हैसियत के लिए वे कोई भी कठिनाई सहेंगे। हैसियत के लिए वे हर प्रयास करेंगे। और हैसियत के लिए वे दूसरों से लड़ेंगे और वाद-विवाद करेंगे। वे दंड और प्रतिफल के जोखिम से भी नहीं डरते; वे परिणामों के बारे में सोचे बिना हैसियत की खातिर कार्य करते हैं। ऐसे लोग किस चीज के पीछे दौड़ते हैं? (वे हैसियत के पीछे दौड़ते हैं।) किस तरह वे पौलुस के समान हैं? (मुकुट के पीछे दौड़ने में।) वे धार्मिकता के मुकुट के पीछे दौड़ते हैं, वे हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ते हैं, और सत्य का अनुसरण करने के बजाय, हैसियत और प्रतिष्ठा के पीछे दौड़ने को वैध खोज समझते हैं। ऐसे लोगों की सबसे बड़ी विशेषता क्या होती है? यह कि वे हर तरह से हैसियत और प्रतिष्ठा की खातिर कार्य करते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य के अनुसरण में ही होता है जीवन-प्रवेश')। मैंने परमेश्वर के वचनों से चेन के उस समय के बर्ताव की तुलना की। वो कष्ट उठाने और कीमत चुकाने को तैयार दिखती थी, पर वो सब कुछ केवल नाम और रुतबे के लिए किया था। जब मैं उसके काम की प्रभारी बनी, तो वो ये सोचकर मेरे प्रति उदासीन हो गई कि वो मेरे अधीन काम करती थी। वो इतनी निराश हो गई कि अपना काम भी नहीं करना चाहती थी। हमने मदद करने के लिए उसके काम में मौजूद समस्याएं बताईं, कभी-कभी हमने उसके बजाय दूसरे लोगों को काम दिया। ये तो बिल्कुल सामान्य बात है। उसे लगा ऐसा करने से उसकी इज़्ज़त चली गई, वो उपेक्षा करने लगी, रूठकर बात करने से मना कर देती, इंतज़ार करती कि सब लोग उसके आसपास रहें, उसी पर ध्यान दें। अगुआ के तौर पर, उसे पता था कि गिरफ़्तारियों के बाद के इंतजाम बेहद ज़रूरी हैं, पर वो अब भी नाम और रुतबे के लिए लड़ना, चीज़ों को कमज़ोर करना चाहती थी, चर्चा में हिस्सा भी नहीं लिया। उसने भाई-बहनों की सुरक्षा की ज़रा भी परवाह नहीं की, परमेश्वर के घर के काम को कायम नहीं रखा। इससे मुझे लगा उसका मन सही जगह नहीं था, वो सिर्फ नाम और रुतबे की चाह रखती थी, सत्य की नहीं। वो परमेश्वर के ख़िलाफ़ जा रही थी। हमने कई बार मदद और सहभागिता करने की कोशिश की, पर वो प्रतिरोधी बन गई, उसे स्वीकार नहीं किया। वो सत्य को स्वीकारने वाली इंसान नहीं है। अगुआ चुनने का सबसे बुनियादी सिद्धांत है कि वे सत्य की खोज करें और उसे स्वीकारें। उस शर्त को पूरा किये बिना, क्या वो अगुआ के तौर पर काम कर सकती थी?

उसके बाद, हम लोगों ने चर्चा की, चेन को अगुआ बनाये रखा जाये या नहीं। कुछ ने कहा, वो दुराग्रही है, नाम और रुतबे की उसकी इच्छा पूरी नहीं होती है तो काम पर असर पड़ता है, पर नाम और रुतबे की बात न होने पर, वो थोड़े काम कर सकती थी। उसमें अच्छी काबिलियत और क्षमता थी, आगे बढ़कर समस्याएँ हल करती थी। रुतबे पर ध्यान देने की प्रवृत्ति फौरन नहीं बदल सकती, तो शायद उसे हमारी थोड़ी और मदद की ज़रूरत हो। दूसरी सहकर्मी ने कहा, जब चेन नाम और रुतबे के लिए लड़ती है तो हम बेबस महसूस करते थे, रुतबे पर कोई खतरा न होने पर वो हमारे साथ अच्छे से मिल-जुलकर रहती थी, कोई बात होने पर रोती थी और खुद के बारे में जानने में सक्षम थी, उसे लगा चेन पश्चाताप करके बदलना चाहती है। इस बार हमने उसकी समस्याओं को उजागर किया, तो वह पहले की तरह कई दिनों तक निराशा में नहीं रही, अगले ही दिन काम पर लौट आई। ये सहकर्मी चाहती थी कि हम थोड़ा इंतज़ार करें, अगर चेन फिर भी नहीं बदली, तो उसे बर्खास्त किया जा सकता है। ये सुनकर मैं असमंजस में पड़ गई। लगा जैसे ये सारी बातें सही थीं। जब हमने उसे उसकी समस्याएँ बताईं, वो रोने लगी, अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बताने लगी, फिर पहले की तरह काम पर लौट आयी। वो वाकई पश्चाताप करना चाहती थी, क्या वो बदल नहीं सकती? शायद हमें इंतज़ार करना चाहिए, अगर वो कलीसिया का काम बिगाड़ती रही, रुकावट डालती रही, तो हम उसे बर्खास्त कर सकते हैं। इस तरह मैंने चेन की समस्या को टाल दिया।

इसके बावजूद चेन समय-समय पर चिढ़ती और नाराज़ होती रही, कभी-कभी जब हम उसकी राय से सहमत नहीं होते, तो उसे लगता उसका अनादर हो रहा है। कोई सहकर्मी मुझसे ज़्यादा बात कर लेती, तो वो ये सोचकर परेशान हो जाती कि हमारा रिश्ता बेहतर था, जबकि वो हमारे लिए अहम नहीं थी। कभी-कभी वो अचानक बेवजह ही परेशान हो जाती। हम सब उसके आगे बेबस महसूस करते। हमें कोई अंदाज़ा नहीं था वो किस बात से इतनी परेशान हो रही है। कभी-कभी मैं काम से घर भी नहीं लौटना चाहती थी, क्योंकि उसके साथ होने से बहुत परेशानी और दबाव रहता था। एक बार वो अगुआ की जिम्मेदारी में बदलावों के लिए एक कलीसिया गई। हमने पहले ही चर्चा कर ली थी कि उसे झूठे अगुआओं और कर्मियों को बर्खास्त करना है जो काम के लिए ठीक नहीं थे, फिर अच्छे अगुआओं को चुनना था। कुछ हफ़्तों बाद वो वापस आई और बेसब्री से हमें बताया, कैसे उसने हर बात पर गौर करके पता लगाया कि एक अगुआ, यांग चेन कुकर्मियों और मसीह-विरोधियों को बचा रही थी, जिससे कलीसिया में बखेड़ा हो गया था, फिर उसने पता लगाया यांग चेन रुतबे का फायदा लेते हुए वास्तविक काम नहीं कर रही थी, जिससे कलीसिया का काम पूरी तरह रुक गया था। उसने ये भी कहा कि यांग चेन बहुत स्वार्थी और मक्कार थी, कोई सच्ची बात नहीं करती थी, दूसरों में उतनी समझ नहीं थी, वे झांसे में आकर उसकी तारीफ किया करते थे। जब उसने ये सब यांग चेन को बताया, जो न सत्य स्वीकारती, न खुद को जानती थी, तो उसे अपने किये पर कोई पछतावा नहीं हुआ। चेन ने जो भी कहा, उससे पता चला वो एक झूठी अगुआ थी। हमने चेन से पूछा, क्या उसे बर्खास्त कर दिया। तो वो बिल्कुल चुप हो गई, एक पल सोचा, फिर कहा, "ये सिर्फ मेरी सोच थी, यकीन से उसकी समस्याएं नहीं बता सकती, तो मैंने उसे बर्खास्त नहीं किया।" उसके ऐसा कहने पर मुझे गुस्सा आ गया। मैंने सोचा, उसने साफ-साफ देखा यांग चेन झूठी अगुआ है, पर उसे बर्खास्त नहीं किया, पद पर बने रहने दिया। क्या ये भाई-बहनों को नुकसान पहुंचाना नहीं है? वो एक झूठे अगुआ का बचाव करके परमेश्वर के घर के काम में रुकावट डाल रही थी! इन बातों के आधार पर हमने चेन की आलोचना की, तो उस वक्त उसे बहुत बुरा लगा। वो बोलती रही कि वो चीज़ों को ठीक से समझ नहीं पाती। जब उसे लगा कि साफ दिख रहा है कि वो खुद को बचा रही है तो उसने फिर से आत्मचिंतन का दिखावा किया। कहा, यांग चेन के बारे में उसकी समझ में कोई कमी नहीं थी, बस वो अपना रुतबा बचाना चाहती थी, इस डर से कि हम ये न कहें उसने देरी कर दी, वो काबिल नहीं है, वो भागकर वापस आ गई, और यांग चेन को समय पर बर्खास्त नहीं किया। बाद में भी, झूठे अगुआ को फौरन बर्खास्त न करने पर चेन को कोई पछतावा नहीं था, इसकी समझ नहीं थी। जल्दी ही, वो दूसरी कलीसिया में अगुआ की भूमिका में कुछ बदलाव करने गई। उसे अच्छी तरह पता था वहां एक अगुआ व्यावहारिक काम करने के बजाय, हमेशा सिद्धांत की बातें करता था, वो एक झूठा अगुआ था। वहां दो उपयाजक भी थीं। एक हमेशा अपने पद का इस्तेमाल कर लोगों को फटकारती, दबाती और अनुशासित करती थी, दूसरी व्यावहारिक काम करने के काबिल नहीं थी। सिद्धांतों के अनुसार उन्हें बर्खास्त कर देना था। चेन ने सिर्फ उस कलीसिया अगुआ को बर्खास्त किया, तो मैंने पूछा कि दोनों उपयाजकों को बर्खास्त क्यों नहीं किया। उसने कहा, उसे डर था अगुआ और उपयाजक कहेंगे कि वो स्नेही नहीं है, सब कहेंगे वो अहंकारी और दुष्ट है, लोगों को मौका नहीं देती है। उसके पास ऐसे बहुत से बहाने थे। बाद में जब भी इसकी बात निकलती, चेन को फर्क नहीं पड़ता; उन्हें समय पर बर्खास्त न करने का चेन को ज़रा भी पछतावा नहीं था। हमने इस तरह के काम की अहमियत पर कई बार सहभागिता की थी। चेन कई सालों से अगुआ थी, उसे पता था कि झूठे अगुआ और कर्मी कलीसिया को कितना नुकसान पहुंचा सकते हैं, पर अपने नाम और रुतबे को बचाने के लिए, उसने बार-बार झूठे अगुआओं की तरफदारी की, उन्हें बचाया। यह कलीसिया के काम में गंभीर रुकावट थी। जब हमने उसके काम की प्रकृति पर सहभागिता की, तो उसके पास सिर्फ बहाने थे, खुद की समझ नहीं, पछतावा या अपराध बोध तो था ही नहीं। वो कैसी इंसान थी? मन में यह सवाल लेकर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, उसके बाद सहकर्मियों से सहभागिता की।

फिर परमेश्वर के वचनों में ये अंश पढ़ा : "व्यवहार और काट-छाँट के प्रति मसीह-विरोधियों का ठेठ रवैया उन्हें स्वीकार करने या मानने से सख्ती से इनकार करने का होता है। चाहे उन्होंने कितनी भी बुराई की हो, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश और परमेश्वर के घर को कितना भी नुकसान पहुँचाया हो, उन्हें इसका जरा भी पछतावा नहीं होता और न ही वे कोई एहसान मानते हैं। इस दृष्टिकोण से, क्या मसीह-विरोधियों में मानवता होती है? (नहीं।) उन्होंने परमेश्वर के चुने हुए लोगों को हर तरह की क्षति पहुँचाई है, परमेश्वर के घर के सभी प्रकार के कार्यों को ऐसी क्षति पहुँचाई है—परमेश्वर के चुने हुए लोग इसे एकदम स्पष्ट देख सकते हैं, और उन्होंने एक के बाद एक, मसीह-विरोधियों के कुकर्म देखे हैं। और फिर भी मसीह-विरोधी इस तथ्य को मानते या स्वीकार नहीं करते, वे हठपूर्वक कोई गलती स्वीकार नहीं करते, यह स्वीकार नहीं करते कि वे गलती पर हैं, कि वे जिम्मेदार हैं। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि वे सत्य से परेशान हैं? मसीह-विरोधी सत्य से इस हद तक परेशान रहते हैं, और वे अंत तक अड़े रहते हैं। यह साबित करता है कि मसीह-विरोधियों ने परमेश्वर के वचनों, परमेश्वर द्वारा व्यक्त किए गए सत्यों और परमेश्वर द्वारा किए गए कार्य को कभी गंभीरता से नहीं लिया है। वे परमेश्वर में विश्वास रखने के लिए नहीं आए हैं—वे शैतान के अनुचर हैं, जो परमेश्वर के घर के कार्य को अव्यवस्थित और बाधित करने के लिए आए हैं। उनके दिलों में सिर्फ नाम और हैसियत रहती है। उनका मानना है कि अगर उन्होंने अपनी गलती मानी, तो उन्हें जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, और तब उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा गंभीर संकट में पड़ जाएगी। इसलिए वे इसे स्वीकार करने से दृढ़ता से इनकार कर देते हैं, वे इसे बिलकुल भी स्वीकार नहीं करते, और अगर वे इसे अपने दिलों में स्वीकार करते भी हैं, तब भी वे यह मानते हुए बाहर से ऐसा नहीं करेंगे कि अगर उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया, तो उनके लिए सब-कुछ समाप्त हो जाएगा। चाहे उनका इनकार जानबूझकर किया गया हो या नहीं, संक्षेप में, एक ओर यह मसीह-विरोधियों की सत्य से परेशान होने और उससे घृणा करने वाली प्रकृति और सार से संबंधित है। दूसरी ओर, यह क्या दिखाता है? यह दिखाता है कि मसीह-विरोधी अपने हितों को कितना सँजोते हैं। इस बीच, परमेश्वर के घर, और कलीसिया के हितों के प्रति उनका क्या रवैया रहता है? यह अवमानना और जिम्मेदारी से इनकार करने का होता है। उनमें मानवता नहीं है। क्या मसीह-विरोधियों का जिम्मेदारी से बचना इन मुद्दों को प्रदर्शित करता है? (हाँ।) एक ओर, जिम्मेदारी से बचना सत्य के प्रति उनके शत्रुतापूर्ण रवैये को दर्शाता है; तो दूसरी ओर, यह उनमें मानवता की कमी दर्शाता है। उनके कारण दूसरों के हितों को कितना भी नुकसान क्यों न हो जाए, उन्हें कोई अपराध-बोध नहीं होता और वे इससे कभी परेशान नहीं हो सकते। यह किस प्रकार का प्राणी है? अगर वे यह सोचते हुए अपने हृदय में सिर्फ स्वीकार ही कर लें, 'मेरा इससे कुछ संबंध था, लेकिन यह सारी गलती मेरी नहीं थी,' तो इस थोड़ी-सी स्वीकृति को भी कुछ मानवता, कुछ विवेक, एक नैतिक आधार-रेखा माना जा सकता है—लेकिन मसीह-विरोधियों में इतनी थोड़ी-सी भी मानवता नहीं होती। तो तुम लोग क्या कहोगे कि वे क्या हैं? (शैतान।) ऐसे लोगों का सार शैतान का होता है। वे स्वयं द्वारा परमेश्वर के घर के हितों को पहुँचाई गई जबरदस्त क्षति नहीं देखते, वे अपने दिल में जरा भी परेशान नहीं होते, और न ही वे खुद को धिक्कारते हैं, एहसानमंद तो वे बिलकुल भी महसूस नहीं करते। क्या उनके दिल भी मांस और खून से बने होते हैं? क्या वे मनुष्य भी हैं? यह वह बिलकुल नहीं है, जो सामान्य लोगों में दिखना चाहिए। यह शैतान है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मसीह-विरोधी सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारते, उनकी प्रकृति सत्य से नफ़रत की होती है। वे काट-छाँट और निपटान को नहीं स्वीकारते और बहाने बनाते हैं। उनके कर्मों से भाई-बहनों को या परमेश्वर के घर के काम को कितना भी नुकसान पहुँचता हो, उन्हें कभी बुरा नहीं लगता, वे न पश्चाताप करते हैं, न उन्हें अपराध बोध होता है। जब कोई उनके कुकर्म उजागर करता है, तो अपनी छवि बचाने के लिए, उसे बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते। वे काम और परमेश्वर के घर के हितों को लेकर बेहद लापरवाह और गैर-जिम्मेदार होते हैं, अपने नाम और रुतबे के लिए वे परमेश्वर के घर और भाई-बहनों के हितों की बलि देने को तैयार रहते हैं। उनमें समझ, विवेक और इंसानियत तो ज़रा-भी नहीं होती। वे राक्षस हैं, शैतान हैं। मैंने देखा चेन का बर्ताव वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने मसीह-विरोधियों के बारे में बताया है। उसने जो किया, अपने नाम और रुतबे को बचाने के लिए किया। जब गिरफ्तारी के बाद काम पर तत्काल चर्चा करना ज़रूरी था, उस समय उसके सुझाव न स्वीकारने पर, उसे लगा जैसे हम उसे गंभीरता से नहीं लेते, तो उसने मुँह फुलाकर चर्चाओं में हिस्सा नहीं लिया, और काम रुक गया। उसे पता था कि यांग चेन झूठी अगुआ है जो वास्तविक काम नहीं करती, फिर भी उसे बर्खास्त नहीं किया, कलीसिया के सदस्यों का नुकसान करने दिया। जब दूसरी कलीसिया की उपयाजकें काम के ठीक नहीं थीं, तो अपने रुतबे को बचाने के लिए, उन्हें बर्खास्त नहीं किया, भाई-बहनों को लगातार नुकसान पहुंचाने दिया। जब उसकी आलोचना की गई, तो वह मानने को तैयार नहीं थी, उसने बहाने बनाये, बेशर्मी से झूठ बोले। बाद में उन दोनों कलीसियाओं के अगुआओं को मसीह-विरोधी पाया गया। उन्होंने बहुत से कुकर्म किये और नाराज़गी पैदा की। फिर भी, चेन को मसीह-विरोधियों का पक्ष लेने और उन्हें बचाने पर कोई अफ़सोस नहीं था। उसके चेहरे पर मुस्कान ही रहती थी। इससे पता चला कि उसकी प्रकृति सत्य से नफ़रत करने की थी, उसमें बुरी इंसानियत थी। वो एक राक्षस, शैतान थी, मसीह-विरोधियों में से एक थी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव और सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करता है, उसमें उनका पहला विचार अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होती हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : 'मेरी हैसियत का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरी हैसियत बढ़ेगी?' यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; अन्यथा वे इस प्रकार प्रयास नहीं करते। यह कहा जा सकता है कि मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा कोई अतिरिक्त आवश्यकता नहीं है, कोई बाहरी चीज तो बिलकुल भी नहीं है जिसके बिना उनका काम चल सकता हो। ये मसीह-विरोधियों की प्रकृति का हिस्सा हैं, ये उनकी हड्डियों में हैं, उनके खून में हैं, ये उनमें जन्मजात हैं। मसीह-विरोधी इस बात के प्रति उदासीन नहीं होते कि उनके पास हैसियत और प्रतिष्ठा है या नहीं; यह उनका रवैया नहीं होता। फिर उनका रवैया क्या होता है? हैसियत और प्रतिष्ठा उनके दैनिक जीवन से, उनकी दैनिक स्थिति से, जिस चीज के लिए वे दैनिक आधार पर प्रयास करते हैं उससे, घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती हैं। और इसलिए मसीह-विरोधियों के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन हैं। चाहे वे कैसे भी जीते हों, चाहे वे किसी भी वातावरण में रहते हों, चाहे वे कोई भी काम करते हों, चाहे वे किसी भी चीज के लिए प्रयास करते हों, उनके कोई भी लक्ष्य हों, उनके जीवन की कोई भी दिशा हो, यह सब अच्छी प्रतिष्ठा और उच्च पद पाने के इर्द-गिर्द घूमता है। और यह लक्ष्य बदलता नहीं; वे इसे कभी दरकिनार नहीं कर सकते। यह मसीह-विरोधियों का असली चेहरा और उनका सार है। तुम उन्हें पहाड़ों की गहराई में किसी प्राचीन जंगल में छोड़ दो, फिर भी वे हैसियत और प्रतिष्ठा को नहीं छोड़ेंगे; तुम उन्हें सामान्य लोगों के समूह में रख दो, फिर भी वे हैसियत और प्रतिष्ठा के बारे में ही सोचेंगे। जब वे विश्वास प्राप्त कर लेते हैं, तो वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को परमेश्वर में विश्वास के अनुसरण के समान मानते हैं; कहने का तात्पर्य यह है कि जब वे परमेश्वर में विश्वास के मार्ग पर चलते हैं, तो वे अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का अनुसरण भी करते हैं। यह कहा जा सकता है कि अपने दिलों में वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास और सत्य की खोज हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज है; हैसियत और प्रतिष्ठा की खोज सत्य की खोज भी है, और हैसियत और प्रतिष्ठा प्राप्त करना सत्य और जीवन प्राप्त करना है। अगर उन्हें लगता है कि उनके पास कोई प्रतिष्ठा या हैसियत नहीं है, कि कोई उनकी प्रशंसा या आराधना या उनका अनुसरण नहीं करता, तो वे बहुत निराश हो जाते हैं, वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास करने का कोई मतलब नहीं है, इसका कोई मूल्य नहीं है, और वे मन ही मन कहते हैं, 'क्या परमेश्वर में ऐसा विश्वास समय की बरबादी है? क्या यह निराशाजनक है?' वे अक्सर अपने दिलों में ऐसी बातों पर सोच-विचार करते हैं, वे सोचते हैं कि कैसे वे परमेश्वर के घर में अपने लिए जगह बना सकते हैं, कैसे वे कलीसिया में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकते हैं, ताकि जब वे बात करें तो लोग उन्हें सुनें, और जब वे कार्य करें तो लोग उनका समर्थन करें, और जहाँ कहीं वे जाएँ, लोग उनका अनुसरण करें; ताकि कलीसिया में उनके पास शक्ति हो, प्रतिष्ठा हो, ताकि वे लाभ और हैसियत प्राप्त कर सकें—वे अक्सर ऐसी बातों पर विचार करते हैं। ऐसे लोग इन्हीं सब के पीछे दौड़ते हैं। वे हमेशा ऐसी बातों के बारे में ही क्यों सोचते रहते हैं? परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, प्रवचन सुनने के बाद, क्या वे वाकई यह सब नहीं समझते, क्या वे वाकई यह सब नहीं जान पाते? क्या परमेश्वर के वचन और सत्य वास्तव में उनकी धारणाएँ, विचार और मत बदलने में सक्षम नहीं हैं? मामला ऐसा बिलकुल नहीं है। समस्या उनके साथ शुरू होती है, यह पूरी तरह से इसलिए है क्योंकि वे सत्य से प्रेम नहीं करते, क्योंकि अपने दिल में वे सत्य से घृणा करते हैं, और परिणामस्वरूप, वे सत्य के प्रति बिल्कुल भी ग्रहणशील नहीं होते—जो उनके स्वभाव और सार से निर्धारित होता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग तीन)')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना मसीह-विरोधी खास तौर पर नाम और रुतबे की चाह रखते हैं। वे जहां भी हों, जो भी करें, उनकी सोच हमेशा दूसरों से प्रशंसा और अहमियत पाने की ही होती है, वे फैसले लेने का अधिकार चाहते हैं। अगर उन्हें ये नहीं मिल सकता, तो वे बेहद निराश हो जाते हैं, काम और आस्था में भी रुचि खो देते हैं। उनके दिलों में इज़्ज़त और रुतबा सबसे ऊपर होता है। आसपास चाहे जो हो रहा हो, वो परमेश्वर के कितने ही वचन सुने लें, इनके पीछे भागना नहीं छोड़ेंगे। अपनी छवि और हितों की खातिर, वे परमेश्वर और सत्य से भी अंत तक लड़ेंगे। मैंने चेन के बर्ताव पर फिर से सोचा। उसने अपने नाम और रुतबे को सबसे ऊपर रखा, यहां तक कि ये उसका जीवन बन गये। वो हमेशा आखिरी फैसला खुद करने का अधिकार पाने के लिए लड़ती थी, न मिलने पर वो द्वेषी और नाराज हो जाती। उसने दूसरों को कमज़ोर किया और समस्याएं खड़ी की। उसने अपनी सारी इंसानी समझ खो दी। जहाँ कलीसिया के हित शामिल होते, वहां भी अपने नाम और रुतबे को आगे रखती थी। परमेश्वर के घर का काम चाहे कितना भी ज़रूरी हो या चाहे दूसरे खतरे में हों, उसे कोई परवाह नहीं थी। कभी-कभी उसे अच्छी तरह मालूम होता कि वो काम बिगाड़ रही है, फिर भी अपने रुतबे को बचाना चाहती थी। चेन कई सालों से अगुआ थी। उसे पता था झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को फौरन बर्खास्त करना चाहिए, पर वो बस अपने रुतबे को बचाना चाहती थी, इसलिए झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को कुकर्म करते और कलीसिया का काम बिगाड़ते देखकर भी उनका बचाव करने में हमेशा लगी रही। इससे कलीसिया के काम को और इसके सदस्यों के जीवन प्रवेश को भारी क्षति पहुंची। बुराई का साथ देकर, वो परमेश्वर के ख़िलाफ़ काम कर रही थी। मुझे ये परमेश्वर के वचन याद आए : "शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली पैशाचिक शैतान हैं। उनके आचरण से परमेश्वर के कार्य में बाधा पहुंचती है; उनके सभी कृत्य भाई-बहनों को अपने जीवन में प्रवेश करने में व्यवधान उपस्थित करते हैं और कलीसिया के सामान्य कार्यकलापों को क्षति पहुंचाते हैं। आज नहीं तो कल, भेड़ की खाल में छिपे इन भेड़ियों का सफाया किया जाना चाहिए, और शैतान के इन अनुचरों के प्रति एक सख्त और अस्वीकृति का रवैया अपनाया जाना चाहिए। केवल ऐसा करना ही परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना है; और जो ऐसा करने में विफल हैं वे शैतान के साथ कीचड़ में लोट रहे हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। अगुआ होकर भी उसने परमेश्वर के घर के हित कायम नहीं रखे। बात जितनी अहम होती, वो उतनी ही बड़ी रुकावट बन जाती। वो हमेशा से ऐसी ही थी। ये बस कुछ पल की भ्रष्टता दिखाना या समझ की कमी होना नहीं था। वो जानबूझकर परमेश्वर के घर के काम में रुकावट डालकर उसे कमज़ोर कर रही थी। परमेश्वर ने ऐसे ही लोगों को "असली पैशाचिक शैतान" कहा है। सिद्धांतों के अनुसार, ऐसे इंसान को कलीसिया से निकाल देना चाहिए। परमेश्वर के वचनों पर सोचने से ये साफ हो गया। समझ गई कि मैं कितनी अंधी और बेवकूफ़ थी। इस कुकर्मी, मसीह-विरोधी को बर्दाश्त कर रही थी, अपनी बहन मान रही थी। लगता था वो छोटी और नासमझ है, उसमें काबिलियत और खूबियाँ हैं, वो योग्य है, मैं स्नेह से उसकी मदद और सहयोग करती रही, मौके देती रही। मैं भी एक झूठी अगुआ, एक मसीह-विरोधी को बचा रही थी, परमेश्वर के घर के काम को नुकसान पहुँचने दे रही थी। पीड़ा और अपराध-बोध के साथ मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "परमेश्वर, मुझमें विवेक नहीं था। मैंने एक झूठी अगुआ, मसीह-विरोधी की ढाल बनकर, तुम्हारे सामने गंभीर अपराध किया है। मैं पश्चाताप करना चाहती हूँ। चेन के कुकर्म को उजागर करने और कलीसिया के काम की रक्षा करने की राह दिखाओ।"

उसके बाद, मैंने कुछ अन्य सहकर्मियों के साथ मिलकर चेन की रिपोर्ट कर दी, फिर उससे मिलकर उसके कुकर्मों को उजागर किया, उनका विश्लेषण किया। उसे लगा उसके साथ गलत हुआ है, उसे अपने बर्ताव की ज़रा सी भी समझ नहीं थी। मुझे याद आया परमेश्वर के वचन कहते हैं, दुष्ट के शब्दकोष में "पश्चाताप" शब्द नहीं होता। मुझे और भी पक्का हो गया कि चेन की प्रकृति सत्य से नफ़रत करने वाली है। उसने चाहे कितने भी कुकर्म किए या विफलताओं का अनुभव किया, वो सच में पश्चाताप नहीं कर सकती। सिद्धांत के अनुसार हमने उसे बर्खास्त कर दिया। पद से बर्खास्त किये जाने के बाद, उसने ज़रा भी आत्मचिंतन नहीं किया। उसने आलोचना में कहा कि परमेश्वर के घर में स्नेह की कमी है, आखिर में अपनी आस्था छोड़ दी। इससे मैंने जाना कि चेन परमेश्वर के कार्य के ज़रिए उजागर की गई एक मसीह-विरोधी, गैर-विश्वासी थी। उसे विधिवत कलीसिया से निकाल दिया गया।

उसके बाद, मैं आत्मचिंतन करने लगी। मैंने अपने सामने मौजूद मसीह-विरोधी को कैसे नहीं पहचाना? मुझमें क्या कमी थी, क्या मुझे समझ नहीं थी? इस चिंतन से समझ आया कि अपनी छवि की खातिर लड़ने के बाद, हर बार उसने अपने बर्ताव और विचारों को खुलकर ज़ाहिर किया, कभी-कभी आंसू भी बहाये। मुझे लगा वो रुतबे की चाह में परेशान थी, पर सत्य को स्वीकार कर पश्चाताप करना चाहती है। शायद वो इसलिए अनुचित चीज़ें करती या काम बिगाड़ती है क्योंकि वो छोटी और नासमझ है, अपनी भ्रष्टता के काबू में है, उसे रोक नहीं पाती। इसलिए मैं अक्सर सहभागिता करके उसकी मदद करती, चिंतन करके खुद को समझने की कोशिश करती। जब उसके नाम और रुतबे की बात नहीं होती, तब वो दूसरों के साथ मिलजुलकर अपने काम की जिम्मेदारी उठाती। मैं उसकी बनाई झूठी छवि के झांसे में आ गई। फिर मैंने परमेश्वर के वचन-पाठ का एक वीडियो देखा जिससे मैं ये सब समझ पाई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधी चाहे किसी भी तरह से लोगों को धोखा दें और फँसाने की कोशिश करें, एक बात निश्चित है : अपने सामर्थ्य और हैसियत के लिए वे अपना दिमाग दौड़ाएँगे और अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपने पास उपलब्ध हर साधन का उपयोग करेंगे। कुछ और भी निश्चित है : चाहे वे कुछ भी कर रहे हों, वे अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे होते, उनका काम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं होता, बल्कि कलीसिया के भीतर सत्ता पाने का अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए होता है। इतना ही नहीं, वे चाहे कुछ भी कर रहे हों, वे परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान कभी नहीं रखते, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों पर ध्यान तो वे बिल्कुल भी नहीं देते। तुम इनमें से कोई भी चीज मसीह-विरोधी के शब्दकोश में कभी नहीं पाओगे; दोनों जन्म से ही उनमें अनुपस्थित रहती हैं। चाहे वे किसी भी स्तर के अगुआ हों, वे परमेश्वर के घर और चुने हुए लोगों के हितों के प्रति पूरी तरह से उदासीन रहते हैं। उनके विचार से परमेश्वर के घर के हितों और कार्यों का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। वे दोनों का तिरस्कार करते हैं; वे केवल अपनी हैसियत और हितों पर विचार करते हैं। ... कभी-कभी, अगर बहुत अधिक दुष्कर्म करने के लिए उनकी रिपोर्ट की जाती है और ऊपर वाले को इसका पता चल जाता है, तो उन्हें लगेगा कि वे अपनी हैसियत खोने वाले हैं, इसलिए वे फूट-फूटकर रोएँगे, और बाहरी तौर पर पश्चात्ताप करते और परमेश्वर की ओर मुड़ते प्रतीत होंगे; लेकिन उनके आँसुओं का असली कारण क्या होता है? वे पछतावा क्यों महसूस करते हैं? उनका दुःख और दर्द इस तथ्य से उपजता है कि अब लोगों के दिलों में उनकी कोई जगह नहीं है, और अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा खो चुके हैं। यही उनके आँसुओं का कारण होता है। साथ ही, वे अपनी हैसियत मजबूत करने और अपनी विफलता से सीखने के लिए अगले कदमों पर विचार कर रहे होते हैं। जो कुछ मसीह-विरोधियों में प्रकट होता है, उसे देखते हुए, वे अपने अपराधों और खुद में प्रकट होने वाले भ्रष्ट स्वभावों के लिए कभी खेद महसूस नहीं करते या कष्ट नहीं झेलते, इन चीजों की सच्ची समझ और पश्चात्ताप तो उनमें हो ही नहीं सकता। यहाँ तक कि अगर वे आँसुओं से भरा चेहरा लेकर, आत्मचिंतन करते हुए और खुद को कोसते हुए परमेश्वर के सामने घुटने भी टेकें, तो भी यह एक छलावा होता है—जिसे कुछ लोग वास्तविक मान लेते हैं। हो सकता है कि ऐसे समय उनकी भावनाएँ वास्तविक होती हों, लेकिन याद रखो कि मसीह-विरोधी कभी वास्तव में पश्चात्ताप नहीं कर सकते। यहाँ तक कि अगर एक दिन ऐसा भी आ जाए, जब उन्हें उजागर कर बाहर निकाल दिया जाए, तो भी वे कभी वास्तव में पश्चात्ताप नहीं करेंगे, वे बस यह स्वीकार करेंगे कि वे असफल रहे, कि चाल काम नहीं आई। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? यह मसीह-विरोधियों की प्रकृति पर आधारित है : वे कभी सत्य स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए उनका आत्मज्ञान सदा मिथ्या होता है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों को भ्रमित करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं')। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि मसीह-विरोधी प्रकृति से दुष्ट और मक्कार होते हैं, उनके पास धोखा देने की धूर्त तरकीबें होती हैं। कभी-कभी वे दूसरों के प्रति स्नेही, धैर्यवान और सहनशील होते हैं, पर जहां उनके हित शामिल होते हैं, वे दूसरों की निंदा करने और ठुकराने में किसी भी हद तक जाते हैं। इस तरह आप कह सकते हैं कि उनका सारा स्नेह, धीरज और सहनशीलता नकली है। कभी-कभी वे बुरी तरह रोते हैं, खुद को जानकर धिक्कारते हैं, पर ये सच्चा पश्चाताप नहीं होता। यह दूसरों को गुमराह कर काबू करने और अपनी स्थिति मजबूत के लिए होता है। मैंने चेन के साथ अपनी बातचीत पर सावधानी से विचार किया। जब उसके नाम और रुतबे की बात नहीं होती, वो हमारे साथ अच्छे से पेश आती थी, पर नाम और रुतबे की बात होते ही फौरन अपना दूसरा पहलू दिखा देती। जब वो मेरे काम की प्रभारी थी, वो मदद और सहयोग करती थी, पर जब मैं उसके काम की प्रभारी बनी, तो वो मेरे प्रति एकदम उदासीन हो गई, ईर्ष्या के कारण मुझे कमज़ोर किया। जब हमने उसकी समस्याएं बताईं, तो उसने नहीं माना, बहाने भी बनाये। हमले करते हुए सारी जिम्मेदारी हम पर डाल दी। बाद में, उसने अपनी भ्रष्टता के बारे में खुलकर बात की, रोते हुए कहा कि वो बदलना और पश्चाताप करना चाहती है, पर उसमें कोई बदलाव नहीं आया। खुद की पहचान होने और खुलकर बात करने के पीछे शैतान की चालें थीं। वो इनका इस्तेमाल कर हमें गुमराह करना चाहती थी, ताकि हमें लगे कि वो खुद को समझती है और हम उसका असली चेहरा न देख पाएं। इस तरह वो अपने पद को बचा रही थी। वो चाहती थी कि हम उसका पक्ष लें, हमदर्दी से उसकी बात समझें। उसकी खुद की समझ लोगों की आँखों में धूल झोंकने के लिए थी। ये तो कपटी और दुष्ट होना है। वे बस घड़ियाली आंसू थे, चौकस नहीं रहने पर उसके झांसे में आना और गुमराह होना आसान था। जिनके पास सचमुच ज़मीर और समझ होती है, इंसानियत होती है, उन्हें परमेश्वर के घर का बुरा करने या इसके काम में रुकावट डालने पर खुद से नफ़रत होती है, बहुत पछतावा होता है। सच जानकर, वे इसकी भरपाई करने की पूरी कोशिश करते हैं, दिल की गहराइयों से पश्चाताप करके बदलना चाहते हैं। चेन इसके ठीक उलट थी। परमेश्वर के घर के काम का बहुत नुकसान करके भी, उसे कभी बुरा नहीं लगा, कभी पश्चाताप नहीं किया, वो इसलिए नहीं रो रही थी कि उसे अपने बुरे कर्म से नफ़रत थी। जब हमने उसके बुरे कर्मों को उजागर किया, उसने कोई पश्चाताप नहीं किया। उसने परमेश्वर के घर में स्नेह की कमी का झूठा आरोप मढ़ दिया। इससे पता चला वो सत्य को बिल्कुल नहीं स्वीकारती। उसकी प्रकृति सत्य से नफ़रत करने की है, वो दुराग्रही और दुष्ट है। कोई संदेह नहीं कि उसमेंएक मसीह-विरोधी की प्रकृति और सार है। आखिर में मैंने जाना कि मसीह-विरोधियों की प्रकृति, लक्षण और धोखा देने वाली चालों को नहीं पहचानने से मसीह-विरोधी सार वाले इंसान को मसीह-विरोधी स्वभाव वाला इंसान समझा जा सकता है, फिर हम शैतान के प्रति अंधाधुंध उदारता दिखाकर अनजाने में परमेश्वर के ख़िलाफ़ काम कर देते हैं।

इन सबके बाद मुझे एहसास हुआ कि झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों की पहचान करना सीखना कितना अहम है। मैंने कभी विवेक से जुड़े तथ्य सीखने पर ध्यान नहीं दिया था। मुझे बस झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के आचरण का बुनियादी अंदाज़ा और सामान्य समझ थी, इसलिए मैं सामने मौजूद मसीह-विरोधी को नहीं पहचान पाई। अनजाने में, उसकी ढाल बन गई, इसका मुझे बहुत पछतावा और अपराध बोध हुआ। मैंने यह भी अनुभव किया कि सत्य सीखना और विवेकपूर्ण होना ही अहम पलों में परमेश्वर की इच्छा पर चलने, झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों को उजागर कर परमेश्वर के घर की रक्षा का रास्ता है। मेरे लिए वास्तविक जीवन की ऐसी स्थिति पैदा करने और वचनों के मार्गदर्शन के लिए मैं परमेश्वर की आभारी हूँ, इससे मुझे मसीह-विरोधियों की समझ के साथ-साथ अपनी कमियों की भी कुछ समझ हासिल हुई। अब मेरे पास सत्य खोजने के महत्व का गहरा अनुभव है। यह सब मैंने परमेश्वर के मार्गदर्शन और आशीषों की वजह से सीखा। परमेश्वर का धन्यवाद!

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