क्या यह कहना सही है “व्यक्ति को दूसरों से होने वाली हानि से हमेशा खुद को सुरक्षित रखना चाहिए”?
चेंग न्युओ, चीनजब मैं छोटी थी तो मेरी माँ अक्सर मुझसे कहा करती थी, “दूसरों के साथ बातचीत करते समय तुम्हें बहुत सतर्क रहना होगा; मूर्खों की...
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अपने कर्तव्य में मेरी यह धारणा हुआ करती थी : मुझे लगता था कि जब तक मेरे अच्छे इरादे हैं और मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती हूँ तो फिर अपने अच्छे इरादों के कारण मुझे परमेश्वर का अनुमोदन और स्वीकृति मिलेगी और वह मेरे कर्तव्य को अच्छे नतीजों की आशीष देगा। लेकिन जब अपने प्रयासों के बावजूद मेरी आलोचना हुई, मुझे डाँटा गया और यहाँ तक कि मेरी काट-छाँट भी की गई तो मैंने बहुत अन्याय महसूस किया। मैंने सोचा, “क्या परमेश्वर लोगों के अंतरतम की पड़ताल नहीं करता है? मेरे अच्छे इरादों पर पानी क्यों फिर रहा है?” इसके बाद मैं अपने कर्तव्य में नकारात्मक, निष्क्रिय और अतिसतर्क हो जाती थी। मैं अक्सर ऐसी स्थितियों को निराशा के साथ स्वीकार करती थी और मैं कभी इस बारे में स्पष्ट नहीं हो पाई कि इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने में मैं कहाँ गलती कर रही थी। मेरे दिल में एक गाँठ बन गई। जब मैंने प्रार्थना की और हाल के अनुभवों में खोजा तब जाकर मुझे इस मसले के बारे में कुछ समझ मिली।
मैं पिछले दो साल से कलीसिया में वीडियो निर्माण कार्य का पर्यवेक्षण करती आ रही हूँ, और मई 2024 में अगुआ ने पाया कि जो फुटेज एक भजन वीडियो में इस्तेमाल किया गया वह इसके मूल विषय से मेल नहीं खाता था और उसे दोबारा बनाने की जरूरत थी। बाद में मैंने वीडियो देखा। मैंने देखा कि निर्माण टीम द्वारा इस्तेमाल किया गया कुछ फुटेज काफी नया था, लेकिन यह उस भाव से मेल नहीं खाता था जिसे गीत व्यक्त करने की कोशिश कर रहा था। मुझे लगा कि शायद वे कुछ नया करना चाहते थे लेकिन सिद्धांतों को पकड़ने में नाकाम रहे। अगले दिन अगुआ ने वीडियो की समस्याओं के बारे में विस्तार से संगति की और उसने वीडियो निर्माण टीम की काट-छाँट भी की। उसने जिस एक मुख्य बिंदु का जिक्र किया उसने मुझे बहुत प्रभावित किया। अगुआ ने कहा कि उनके कर्तव्यों में कोई सिद्धांत नहीं है कि वे सत्य नहीं समझते हैं, वे स्पष्ट रूप से चीजों का भेद नहीं पहचान सकते और खोजते नहीं हैं। वे बस अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और अच्छे इरादों के आधार पर काम करते हैं और नतीजतन उन्होंने गड़बड़ी और बाधा पैदा की। जब मैंने यह सुना तो सोचा, “क्या यह वही गलती नहीं है जो मैं अक्सर अपने कर्तव्य में करती हूँ?” हाल ही में हमने जो वीडियो बनाए थे वे प्रस्तुतिकरण प्रारूप के मामले में काफी नीरस थे और बहुत से भाई-बहनों ने सुझाव दिया कि हमें कुछ नया करने की जरूरत है। मैंने सोचा, “यह सच है, हमारे वीडियो में वाकई यह समस्या है। तो चलो सीखते हैं और एक ठोस नयापन लाते हैं। चलो सबको दिखाते हैं कि हम रचनात्मक हैं और अतीत में नहीं अटके हैं।” इसलिए मैंने कुछ संदर्भ वीडियो खोजे, यह सोचा कि हम प्रारूप के मामले में कुछ नया कर सकते हैं। जब हमने कुछ भाई-बहनों को मसौदे दिखाए तो उन्होंने कहा कि यह काफी नया है। यह देखते हुए कि हमने इस बार कुछ नए प्रारूपों का इस्तेमाल किया था, मैंने सोचा, “शायद हमें यह अगुआ को दिखवा लेना और उससे जँचवा लेना चाहिए।” लेकिन फिर मुझे चिंता हुई, “अगर अगुआ को सिद्धांत के कुछ मसले दिख गए और वह इन प्रारूपों को खारिज कर दे तो क्या होगा? शायद हमें इसे अगुआ को नहीं दिखाना चाहिए और अगर हमें यह ठीक लगे तो इसे सीधे अपलोड कर देना चाहिए।” लेकिन मैं इसे लेकर सहज महसूस नहीं कर रही थी, इसलिए मैंने घबराते हुए वीडियो समीक्षा के लिए अगुआ को सौंप दिया। आखिरकार अगुआ ने ढेर सारे मसले बताए। उसने कहा कि कुछ प्रारूप विषय से मेल नहीं खाते और उसने यह भी कहा कि हमारे विचार बहुत साधारण-से हैं और हममें विवेकशीलता नहीं है। मैं काफी हताश महसूस कर रही थी। मुझे पता था कि वीडियो में अभी भी कुछ समस्याएँ हैं, लेकिन हमारे इरादे अच्छे थे और हम कुछ नया करना चाहते थे। जोश से भरे दिल के साथ मैं काम को अच्छी तरह से करना चाहती थी। अगुआ प्रोत्साहन के कुछ शब्द क्यों नहीं कह सकता था ताकि हमें इसके बारे में बेहतर महसूस होता?
बाद में मैंने विचार किया, “ऐसा क्यों है कि जब अपने कर्तव्य में मुझे अगुआ द्वारा डाँटा गया और मेरी काट-छाँट की गई तो मुझे अन्याय महसूस हुआ और यहाँ तक लगा कि अगुआ मुझे नहीं समझता है?” मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, यह समझने का प्रयास किया कि अपने कर्तव्य में मुझसे कहाँ गलती हुई है। मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के वचन पढ़े : “अपना कर्तव्य निभाने में तुम अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के अनुसार बिल्कुल नहीं जा सकते या तुम जो चाहे वही नहीं कर सकते, जिसे भी करने में तुम खुश हो, वह नहीं कर सकते या ऐसा काम नहीं कर सकते, जो तुम्हें सम्माननीय व्यक्ति के रूप में दिखाए। यह अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना है। अगर तुम अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में यह सोचते हुए अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं पर भरोसा करते हो कि परमेश्वर यही अपेक्षा करता है और यही है जो परमेश्वर को खुश करेगा और यदि तुम परमेश्वर पर अपनी व्यक्तिगत प्राथमिकताओं को बलपूर्वक लागू करते हो या उनका अभ्यास ऐसे करते हो मानो कि वे सत्य हों, उनका ऐसे पालन करते हो मानो वे सत्य सिद्धांत हों, तो क्या यह गलती नहीं है? यह कर्तव्य निभाना नहीं है और इस तरह से तुम्हारा कर्तव्य निभाना परमेश्वर द्वारा याद नहीं रखा जाएगा। कुछ लोग सत्य को नहीं समझते हैं, और वे नहीं जानते कि अपने कर्तव्यों को ठीक से पूरा करने का क्या अर्थ है। उन्हें लगता है कि उन्होंने अपना प्रयास और अपना दिल इसमें लगाया है, अपनी देह के विरुद्ध विद्रोह किया है और कष्ट उठाया है, लेकिन फिर वे अपने कर्तव्य कभी भी मानक स्तर से पूरे क्यों नहीं कर पाते हैं? परमेश्वर हमेशा असंतुष्ट क्यों रहता है? इन लोगों ने कहाँ भूल की है? उनकी भूल यह थी कि उन्होंने परमेश्वर की अपेक्षाओं की तलाश नहीं की थी, बल्कि अपने ही विचारों के अनुसार काम किया था—यही कारण है। उन्होंने अपनी ही इच्छाओं, प्राथमिकताओं और स्वार्थी उद्देश्यों को सत्य मान लिया था और उन्होंने इनको वो मान लिया जिससे परमेश्वर प्रेम करता है, मानो कि वे परमेश्वर के मानक और अपेक्षाएँ हों। जिन बातों को वे सही, अच्छी और सुन्दर मानते थे, उन्हें सत्य के रूप में देखते थे; यह गलत है। वास्तव में, भले ही लोगों को कभी कोई बात सही लगे, लगे कि यह सत्य के अनुरूप है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह आवश्यक रूप से परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है। लोग जितना अधिक यह सोचते हैं कि कोई बात सही है, उन्हें उतना ही अधिक सावधान होना चाहिए और उतना ही अधिक सत्य को खोजना चाहिए और यह देखना चाहिए कि उनकी सोच परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है या नहीं। यदि यह ठीक उसकी अपेक्षाओं और उसके वचनों के विरुद्ध है तो भले ही तुम इसे सही मानो यह स्वीकार्य नहीं है, और यह बस एक मानवीय विचार है और तुम इसे चाहे कितना ही सही मानो यह सत्य के अनुरूप नहीं होगा। कोई चीज सही है या गलत, यह निर्णय परमेश्वर के वचनों पर आधारित होना चाहिए। तुम्हें कोई बात चाहे जितनी भी सही लगे, जब तक इसका आधार परमेश्वर के वचनों में न हो, यह गलत है और तुम्हें इसे हटा देना चाहिए। यह तभी स्वीकार्य है जब यह सत्य के अनुरूप हो, और इस तरीके से सत्य सिद्धांतों का मान रखकर ही तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन मानक पर खरा उतर सकता है। कर्तव्य आखिर है क्या? यह परमेश्वर द्वारा लोगों को सौंपा गया आदेश होता है, यह परमेश्वर के घर के कार्य का हिस्सा होता है, यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है जिसे परमेश्वर के चुने हुए प्रत्येक व्यक्ति को वहन करना चाहिए। क्या कर्तव्य तुम्हारा पेशा है? क्या यह व्यक्तिगत पारिवारिक मामला होता है? क्या यह कहना उचित है कि जब तुम्हें कोई कर्तव्य दे दिया जाता है, तो वह कर्तव्य तुम्हारा व्यक्तिगत व्यवसाय बन जाता है? ऐसा बिल्कुल नहीं है। तो तुम्हें अपना कर्तव्य कैसे निभाना चाहिए? परमेश्वर की अपेक्षाओं, वचनों और मानकों के अनुसार कार्य करके, अपने व्यवहार को मानवीय व्यक्तिपरक इच्छाओं के बजाय सत्य सिद्धांतों पर आधारित करके। कुछ लोग कहते हैं, ‘जब मुझे कोई कर्तव्य दे दिया गया है, तो क्या वह मेरा अपना व्यवसाय नहीं बन गया है? मेरा कर्तव्य मेरा प्रभार है, और जिसका प्रभार मुझे दिया गया है, क्या वह मेरा निजी व्यवसाय नहीं है? यदि मैं अपने कर्तव्य को अपने व्यवसाय की तरह करता हूँ, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं उसे ठीक से करूँगा? अगर मैं उसे अपना व्यवसाय न समझूँ, तो क्या मैं उसे अच्छी तरह से करूँगा?’ ये बातें सही हैं या गलत? ये गलत हैं; ये सत्य के विपरीत हैं। कर्तव्य तुम्हारा निजी काम नहीं है, वह परमेश्वर से संबंधित है, यह परमेश्वर के कार्य का हिस्सा है, और तुम्हें परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार ही काम करना चाहिए; केवल परमेश्वर के प्रति समर्पण वाले हृदय के साथ अपना कर्तव्य निर्वहन करके ही तुम मानक पर खरे उतर सकते हो। यदि तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार और अपनी प्रवृत्ति के अनुसार कर्तव्य का निर्वहन करते हो, तो तुम कभी भी इसे मानक स्तर पर नहीं कर पाओगे। हमेशा अपनी इच्छा के अनुसार कार्य करना कर्तव्य-निर्वहन नहीं कहलाता, क्योंकि तुम जो कर रहे हो वह परमेश्वर के प्रबंधन के दायरे में नहीं आता, यह परमेश्वर के घर का कार्य नहीं हुआ; बल्कि तुम अपना उद्यम चला रहे हो, अपने काम कर रहे हो और परमेश्वर इन्हें याद नहीं रखता” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य सिद्धांत खोजकर ही कोई अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा सकता है)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मैं समझ गई कि मेरी मानसिकता बिल्कुल वैसी ही थी जैसा परमेश्वर ने उजागर किया। मुझे लगता था कि अगर मैं प्रयास और विचार झोंकती हूँ और चीजों को समझने के लिए कीमत चुकाती हूँ तो मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभा रही हूँगी और तब परमेश्वर को संतुष्ट होना चाहिए। लेकिन मैंने इस पर विचार नहीं किया कि क्या मेरे “अच्छे इरादे” सिद्धांतों के अनुरूप हैं। कभी-कभी जोश में आकर मुझे लगता था कि कोई चीज उपयुक्त या अच्छी है और मैं बस आगे बढ़ती थी और इसे कर देती थी, मैं गंभीरता से सिद्धांत नहीं खोजती थी या जानकारी ढूँढ़ने, अध्ययन करने या सारांश निकालने के लिए खुद को शांत नहीं करती थी। इसलिए नतीजतन मैं जो काम करती थी वह अक्सर सिद्धांतों के अनुरूप नहीं होता था। उदाहरण के लिए, भजन के वीडियो बनाते समय अविश्वासी लोगों का ध्यान खींचने और क्लिक-थ्रू रेट बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और वे वीडियो को ज्यादा आकर्षक बनाने के लिए प्रचुर दृश्य बदलाव और उन्नत संपादन तकनीकों का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन वीडियो बनाने में हमारा मूल उद्देश्य खुद को शांत करने और परमेश्वर के वचन सुनने में लोगों की मदद मदद करना है। यह परमेश्वर के वचनों का प्रसार करने और उसकी गवाही देने के लिए है। अगर हम अपने कर्तव्य निभाने के लिए व्यक्तिगत पसंदगियों या अविश्वासियों के मानदंडों को सिद्धांतों के रूप में लेते हैं तो अक्सर विचलन होते हैं और नतीजा परमेश्वर की गवाही देने में नाकाम रहता है। इसके अलावा, मेरी काबिलियत सीमित है, और मुझमें भेद पहचानने की क्षमता की कमी है। यूँ तो मैं अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने की इच्छुक हूँ, काम करने में सिद्धांतों का पालन करना चाहती हूँ और मैं नवोन्मेष करना और दोहराव से बचना चाहती हूँ, लेकिन चूँकि मैं सत्य को नहीं समझती और चीजों की असलियत नहीं देख पाती हूँ, इसलिए सिद्धांतों की समझ में मुझसे अक्सर विचलन होते हैं और मेरे काम के नतीजे अच्छे नहीं होते। उदाहरण के लिए, इस बार हम वीडियो के प्रारूप में कुछ नया करना चाहते थे, लेकिन जब मैंने कुछ नए तत्व सीखे तो मैंने उन्हें वीडियो में लागू करने की हड़बड़ी की जबकि असल में मैंने जो सीखा था उसकी बस बुनियादी बातें ही पकड़ पाई थी और मैं यह विचार भी नहीं करती थी कि क्या दृश्य प्रस्तुति का प्रारूप वीडियो के विषय से मेल खाता है या क्या कुछ तकनीकों को सिद्धांतों के अनुसार इस्तेमाल किया गया है। नतीजतन, वीडियो का प्रभावीपन कमजोर था और इसमें बुनियादी गलतियाँ तक थीं। अगुआ ने मेरी समस्याओं की ओर इशारा करते हुए कहा कि मेरी सोच साधारण है और मुझमें विवेकशीलता की कमी है। मुझे यहाँ तक लगा कि मेरे साथ अन्याय हुआ है और अगुआ मेरे प्रति विचारशील नहीं है। मुझे लगा कि मेरे इरादे अच्छे थे, इसलिए भले ही कुछ विचलन या मसले थे, तो भी मेरे अच्छे इरादों के लिए अगुआ को प्रोत्साहन के कुछ शब्द कहने चाहिए थे। इस मुकाम पर मैंने मन में सोचा, “क्या मेरी ऐसी माँग सिद्धांतों के अनुरूप है?” परमेश्वर के घर में सिद्धांतों पर सावधानीपूर्वक ध्यान देकर चीजों को करने की जरूरत होती है और सही सही होता है और गलत गलत होता है। अगर मेरे द्वारा तैयार की गईं कृतियाँ सिद्धांतों के अनुरूप हैं और अच्छे नतीजे देती हैं तो कलीसिया स्वाभाविक रूप से उन्हें अपनाएगी। लेकिन अगर वे सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं और परमेश्वर की गवाही नहीं दे सकतीं तो अगुआ उनका इस्तेमाल नहीं करेगा और वह मेरे मसलों को भी साफ-साफ इंगित करेगा। इस तरह का सीधा इशारा मेरी कमजोरियों को उजागर करने या मुझ पर हमला करने के लिए नहीं है, बल्कि मुझे अपनी कमियों और खामियों को साफ-साफ देखने में मदद करने के लिए है, ताकि मैं भविष्य में और अधिक सिद्धांत खोज सकूँ और अपने पेशेवर कौशल को बेहतर बनाने में और अधिक प्रयास कर सकूँ। इस तरह से मैं बेहतर वीडियो बना पाऊँगी। ऐसे इशारे और काट-छाँट लोगों को अपना कर्तव्य निभाने में मदद करने के सबसे अच्छे तरीके हैं। लेकिन मैं सही और गलत में भेद नहीं कर पा रही थी, मुझे दिलासा देने वाले और अनुकूल शब्द सुनना पसंद था और जब अगुआ मुझसे थोड़ा भी सख्ती से बात करता था तो मेरे मन में प्रतिरोध उठता था। मानो, जब तक मेरे इरादे अच्छे हैं तो भले ही मैंने कोई गलती की हो, मेरी आलोचना नहीं की जानी चाहिए और मुझे शर्मसार होने से बचने देना चाहिए। क्या यह सांसारिक आचरण का शैतान का फलसफा नहीं है? इस बारे में सोचती हूँ तो ऐसी माँगें सचमुच अविवेकपूर्ण हैं और यह सत्य को स्वीकार करने वाले किसी व्यक्ति का व्यवहार नहीं है। हमारे कर्तव्य निजी मामले नहीं हैं। हर कर्तव्य परमेश्वर के घर के कार्य और परमेश्वर की गवाही देने से संबंधित है, इसलिए हमें इसे सावधानी और देखभाल के साथ, और परमेश्वर का भय मानने वाले दिल से सँभालना चाहिए, और हमें और अधिक खोजना चाहिए और दूसरों से अधिक सलाह लेनी चाहिए ताकि हम अपनी धारणाओं या कल्पनाओं के आधार पर परमेश्वर को शर्मिंदा करने वाले काम करने से बच सकें। सिद्धांत खोजे बिना सिर्फ अच्छे इरादों और उत्साह पर निर्भर रहना किसी व्यक्ति को अपने कर्तव्यों में गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करा सकता है।
बाद में मैंने चिंतन किया, “मैं जानती आ रही हूँ कि अपने कर्तव्यों में मामलों का सामना करते समय मुझे सिद्धांत खोजने चाहिए, लेकिन कभी-कभी मुझे कोई चीज अच्छी लगती है और फिर मैं सिद्धांत खोजना चाहे बगैर तुरंत उसे कर देती हूँ। मैं इतनी स्वेच्छाचारी क्यों हूँ?” मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा और अपने कर्तव्यों में अपने इरादों की कुछ समझ हासिल की। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “क्या परमेश्वर के घर में लगातार अपनी विशेषज्ञता प्रदर्शित करने और अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने की चाहत सही शुरुआत है? (नहीं, सही नहीं है।) यह किस प्रकार गलत है? इसका कारण समझाओ। (उनका इरादा दिखावा करना और खुद को अलग दिखाना है—वे अपने करियर के पीछे भाग रहे हैं। वे इस बारे में नहीं सोच रहे हैं कि वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हैं या इस तरह से कार्य कैसे करें जिससे परमेश्वर के घर के कार्य को फायदा हो। इसके बजाय, वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा किए बिना या सत्य सिद्धांतों को खोजे बिना अपनी पसंद के अनुसार कार्य करना चाहते हैं।) अन्य लोग इस मामले को कैसे देखते हैं? (कुछ भी होने पर हमेशा दिखावा करना एक शैतानी स्वभाव है। वे यह नहीं सोचते कि अपने कर्तव्य कैसे निभाएँ और परमेश्वर की गवाही कैसे दें; वे हमेशा खुद की गवाही देना चाहते हैं, और यह रास्ता सरासर गलत है।) यह शुरुआत सरासर गलत है, इसमें कोई शक नहीं। तो, यह किस प्रकार गलत है? यह ऐसी समस्या है जिसका खंडन करने में तुम सभी असमर्थ हो। ऐसा लगता है कि तुम सभी दमित महसूस कर रहे हो, और तुम सभी अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने के लिए अपनी विशेषज्ञता प्रदर्शित करना चाहते हो—क्या यह सही नहीं है? अविश्वासियों के बीच एक कहावत है, और यह क्या है? ‘एक बुजुर्ग औरत तुम्हें दिखाने के लिए लिपस्टिक लगाती है।’ क्या ‘अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने’ का यही मतलब नहीं है? (हाँ।) अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने का अर्थ है अपनी काबिलियत को प्रदर्शित करने और दिखावा करने, दूसरों के बीच प्रतिष्ठा और रुतबा हासिल करने और उच्च सम्मान पाने की चाह रखना। और कुछ नहीं तो यह अपनी क्षमताओं को प्रदर्शित करने के अवसर का उपयोग करने की चाह रखना है ताकि दूसरों को बताया और सूचित किया जा सके कि : ‘मेरे पास कुछ असल कौशल हैं, मैं एक साधारण व्यक्ति नहीं हूँ, मुझे नीची नजरों से मत देखो, मैं एक प्रतिभाशाली व्यक्ति हूँ।’ इसके पीछे कम से कम इतना अर्थ तो है ही। तो, जब किसी के ऐसे इरादे हों और वह हमेशा अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करना चाहता हो, तो इसकी प्रकृति क्या है? वे अपना करियर बनाना चाहते हैं, अपना रुतबा बढ़ाना चाहते हैं, अन्य लोगों के बीच पाँव जमाना और प्रतिष्ठा हासिल करना चाहते हैं। यह इतनी सरल बात है। वे इसे अपना कर्तव्य निभाने के लिए या परमेश्वर के घर की खातिर नहीं कर रहे हैं, और न वे सत्य खोज रहे हैं और न ही परमेश्वर के घर के सिद्धांतों और आवश्यकताओं के अनुसार कार्य कर रहे हैं। वे इसे अपने लिए कर रहे हैं, ताकि खुद को अधिक व्यापक रूप से पहचान दिला सकें, अपनी अहमियत और प्रतिष्ठा बढ़ा सकें; वे ऐसा इसलिए कर रहे हैं ताकि लोग उन्हें सुपरवाइजर या अगुआ के रूप में चुनें। एक बार जब वे अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में चुन लिए जाएँगे, तो क्या फिर उनके पास रुतबा नहीं होगा? क्या तब वे सुर्खियों में नहीं रहेंगे? यही उनका मकसद है, उनका शुरुआती बिंदु इतना सरल है—यह रुतबे के पीछे भागने से अधिक कुछ नहीं है। वे जानबूझकर रुतबे के पीछे भाग रहे हैं, और वे परमेश्वर के घर के कार्य या उसके हितों की रक्षा नहीं कर रहे हैं” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचनों से मैंने देखा कि अपने कर्तव्यों में किसी व्यक्ति के इरादे और मंशाएँ बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। अगर कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य का इस्तेमाल दिखावा करने के साधन के रूप में करता है, सराहना पाने और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए अपनी प्रतिभा दिखाता है तो वह हड़बड़ी में कार्य करेगा और उसके विचार अपनी ही प्रतिष्ठा और रुतबे पर केंद्रित होंगे। इस तरह से अपना कर्तव्य करना असल में अपना ही उद्यम चलाना है। मैंने चिंतन भी किया, “जब मैं अपना कर्तव्य करती हूँ तो इतनी सारी समस्याएँ क्यों खड़ी हो जाती हैं?” ऐसा इसलिए था क्योंकि मेरे इरादे समस्याजनक थे। मैं अपने कर्तव्य में यह नहीं सोच रही थी कि परमेश्वर की गवाही कैसे दूँ या बेहतर नतीजे कैसे हासिल करूँ। इसके बजाय मैं अपने काम का इस्तेमाल यह साबित करने के लिए करना चाहती थी कि मैं विचारों और रचनात्मकता वाली व्यक्ति हूँ और मैं उन्हीं पुराने विचारों से चिपकी हुई नहीं हूँ। यह सब दूसरों से तारीफ पाने के लिए था। उदाहरण के लिए, हाल ही में कुछ भाई-बहनों ने हमें कुछ सुझाव दिए थे, उन्होंने कहा कि हम जो वीडियो बना रहे हैं उनके प्रारूप में विविधता की कमी है। मैंने मन में सोचा, “अगर मैं अब भी नया नहीं करती हूँ तो क्या वे सोचेंगे कि मैं रचनात्मक नहीं हूँ?” उन पर ऐसी छाप छोड़ने से बचने के लिए मैंने वीडियो का अध्ययन करना शुरू कर दिया, ऐसी शैलियाँ अपनाने लगी जो लोकप्रिय लगती थीं और जिन्हें ज्यादा लोग क्लिक करते थे और मैंने अपने अगले वीडियो में कुछ नया करने का प्रयास करने के बारे में सोचा ताकि लोग मुझे एक नई रोशनी में देखें। जब हमने कुछ भाई-बहनों को वीडियो के नमूने दिखाए, उन्होंने कहा कि यह काफी नया है, इसलिए मैं मन ही मन बहुत खुश हुई और इस बात के लिए उत्सुक थी कि वीडियो को जल्द से जल्द ज्यादा से ज्यादा लोग देख लें। मैं तो इसे समीक्षा के लिए अगुआ को सौंपना भी नहीं चाहती थी, क्योंकि मुझे डर था कि वह इसे देखने के बाद सिद्धांत के कुछ मुद्दे बता सकता है और वीडियो अपलोड होने से रुक सकता है। मैंने बस उससे खोजना ही नहीं चाहती थी। इस सब पर विचार करके मुझे एक तरह का खौफ महसूस हुआ। मुझे एहसास हुआ कि अपने कर्तव्य में मेरे इरादे गलत थे और मैं बहुत ही ज्यादा स्वेच्छाचारी थी। मैंने एक समस्याग्रस्त वीडियो लगभग अपलोड कर ही दिया था और यह न केवल परमेश्वर की गवाही नहीं देता, बल्कि उसे अपमानित भी कर देता। इसके नतीजे अकल्पनीय होते।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “क्या तुम लोगों को पता है कि परमेश्वर की सेवा में इंसान की सबसे बड़ी वर्जना क्या है? कुछ अगुआ और कार्यकर्ता हमेशा अलग दिखना चाहते हैं, बाकी लोगों से आगे रहना और दिखावा करना चाहते हैं और नई-नई तरकीबें ढूँढ़ने में लगे रहना चाहते हैं, ताकि परमेश्वर को दिखा सकें कि वास्तव में वे कितने सक्षम हैं। लेकिन, वे सत्य को समझने और परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। यह काम करने का सबसे मूर्खतापूर्ण तरीका है। क्या यह असल में घमंडी स्वभाव को नहीं दिखाता है? ... इस प्रकार कभी भी आवेग में आकर अपनी मनमर्जी नहीं करनी चाहिए। तुम परिणाम पर क्यों विचार नहीं कर पाते? परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करके उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन करने के कारण जब तुम्हें हटा दिया जाएगा, तो तुम्हारे पास कहने के लिए कुछ नहीं बचेगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर कहता है कि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य में जो सबसे वर्जित चीज कर सकता है वह है हमेशा भिन्न होने और दिखावा करने की चाह। लोग यह दिखाने के लिए कि वे कितने काबिल और कुशल हैं, अक्सर अपनी ही मर्जी के आधार पर बिना सोचे-समझे और आवेगपूर्ण ढंग से कार्य करते हैं। यह एक घमंडी स्वभाव का प्रकाशन है। ठीक वैसे ही जैसे इस बार जब हमने वीडियो बनाया, मैं सत्य को नहीं समझती थी और मुझे इससे संबंधित पेशेवर कौशल का केवल सतही ज्ञान था, मैंने बहुत सारे कार्यक्रम प्रारूपों और प्रस्तुतिकरण के तरीकों के बारे में पूरी तरह शोध नहीं किया और जो मुझे अच्छा लगा, बस उसी के आधार पर विचार अपना लिए। खासकर जब वीडियो के लिए मेरे पास कुछ ऐसे विचार होते थे जिन्हें मैं रचनात्मक या प्रेरक समझती थी तो मैं खुद से काफी खुश हो जाती थी और मुझे खुद पर बहुत भरोसा होता था और मुझे लगता था कि यह वीडियो निर्माण निश्चित रूप से लोगों को मुझे एक नई रोशनी में दिखाएगा। अगर मैं और अधिक विवेकवान होती और यह पहचान लेती कि मुझमें सत्य को समझने की कमी है और चीजों की असलियत स्पष्ट रूप से देखने की क्षमता नहीं है तो एक नया प्रारूप आजमाने से पहले मैं सावधानी से शोध करती और दूसरों से सलाह लेती और वीडियो बनाने के बाद उसकी बार-बार समीक्षा करती और ज्यादा खोज करती ताकि यह पक्का हो जाए कि अपलोड करने से पहले कोई मसला नहीं है। लेकिन मुझे खुद पर अंधा विश्वास था, जो मूर्खता और अज्ञानता की निशानी है। मैं सचमुच घमंडी और अज्ञानी थी! मुझे अपनी क्षमताओं की समझ नहीं थी और मैं कार्य करते हुए खोजती नहीं थी। अपनी पसंदगियों के आधार पर कर्तव्य निभाकर मैं आसानी से गड़बड़ियाँ पैदा कर सकती थी। इस तरह से अपना कर्तव्य करना वाकई खतरनाक था!
मैंने भक्ति के दौरान परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े जिन्होंने मेरे लिए अभ्यास का मार्ग और स्पष्ट कर दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “अगर तुम सत्य सिद्धांतों के आधार पर कार्य नहीं करते, और इसके बजाय गैर-विश्वासियों के गलत विचारों और नजरियों की ओर झुक जाते हो, इन चीजों के आधार पर कार्य करते हो, तो तुम्हारे प्रयास बेकार हो जाएँगे। भले ही तुमने बड़ी कीमत चुकाई हो और बहुत अधिक प्रयास किए हों, फिर भी तुम्हारा अंतिम परिणाम बेकार ही होगा। परमेश्वर इस मामले को किस दृष्टि से देखता है? वह इसे कैसे निरूपित करता है? वह इससे कैसे निपटता है? कम-से-कम यह होगा कि तुम्हारे कृत्य अच्छे नहीं हैं, वे परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही उसका महिमामंडन करते हैं, और तुमने जो कीमत चुकाई और जो मानसिक प्रयास किए उन्हें याद नहीं रखा जाएगा; ये सब बेकार हैं। तुम समझ रहे हो? (हाँ।) तुम कुछ भी करने से पहले समय निकाल कर सावधानी से सोचो, दूसरों से ज्यादा संगति करो, कार्य करने से पहले सिद्धांतों पर स्पष्टता खोजो, और अपने स्वार्थ या आकांक्षाओं के फेर में गर्ममिजाजी से या आवेग में कार्य मत करो। परिणाम चाहे जो भी हो, अंत में तुम्हें ही झेलना होगा, परिणाम चाहे जो भी हो, परमेश्वर का एक फैसला आएगा। अगर तुम यह आशा करते हो कि तुम्हारे कार्य बेकार नहीं जाएँगे, परमेश्वर उन्हें याद रखेगा, या उससे भी बेहतर वे ऐसे अच्छे कर्म बन जाएँगे जिनसे परमेश्वर प्रसन्न होगा, तो तुम्हें सिद्धांतों को बार-बार खोजना चाहिए। अगर तुम्हें इन चीजों की परवाह नहीं है, तुम्हें इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम्हारे कार्य नेक हैं या नहीं, परमेश्वर उनसे प्रसन्न है या नहीं, तुम्हें दंड पाने की परवाह नहीं है, मगर तुम सोचते हो, ‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, वैसे भी ये मुझे अभी न तो दिखेंगे, न ही महसूस होंगे,’ अगर तुम्हारे मन में ये विचार और नजरिये हैं, तो फिर कार्य करते समय तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं होगा। तुम दबंग, निरंकुश और लापरवाह होगे, तुम्हें किसी भी चीज की चिंता नहीं रहेगी, प्रतिबंध नहीं होगा। परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के बगैर कार्य करते समय तुम जिस दिशा में जाओगे, उसमें भटकाव बहुत संभव है। मानव प्रकृति और सहजवृत्तियों के अनुसार संभवतः अंतिम परिणाम यह होगा कि तुम्हारे कार्यों से परमेश्वर न तो प्रसन्न होगा, न ही इन्हें याद रखेगा, बल्कि वे बाधाएँ, गड़बड़ियाँ और बुरे कर्म बन जाएँगे। तो यह बिल्कुल स्पष्ट है कि तुम्हारा अंतिम परिणाम क्या होगा, और परमेश्वर इसके साथ कैसे पेश आएगा और इसे कैसे संभालेगा। इसलिए कुछ भी करने से पहले, कोई भी मामला सँभालने से पहले, तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए कि तुम्हें क्या चाहिए, अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए कि इस मामले का अंतिम परिणाम क्या होगा, और तभी आगे बढ़ना चाहिए। तो इस मसले में कौन-सी बातें शामिल हैं? इसमें वह रवैया और सिद्धांत शामिल हैं जिनका पालन तुम कोई कार्य करते हुए करते हो। सबसे बढ़िया रवैया है कि सिद्धांतों को बार-बार खोजना और अपना फैसला अपने बोध, पसंद, इरादों, आकांक्षाओं या तत्काल हितों के आधार पर न लेना; इसके बजाय तुम्हें बार-बार सिद्धांत खोजने चाहिए, परमेश्वर से प्रार्थना और खोज करनी चाहिए, बार-बार भाई-बहनों के समक्ष मामले लाने चाहिए और कर्तव्य निभाने में अपने साथ काम कर रहे भाई-बहनों के साथ संगति और खोज करनी चाहिए। कार्य करने से पहले सिद्धांतों को सही-सही समझो; आवेग में कार्य मत करो, भ्रमित मत रहो। तुम परमेश्वर में विश्वास क्यों रखते हो? तुम यह भोजन पाने, वक्त काटने, फैशन के चलन से जुड़े रहने, या अपनी आध्यात्मिक जरूरतें पूरी करने के लिए नहीं करते। तुम यह बचाए जाने के लिए करते हो। तो तुम कैसे बचाए जा सकोगे? तुम जब कोई भी काम करो, तो उसे उद्धार, परमेश्वर की अपेक्षाओं और सत्य से जुड़ा होना चाहिए, है कि नहीं?” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (15))। “क्योंकि यह परमेश्वर का घर है, इसलिए लोगों के लिए यही सही और उचित है कि वे उन कर्तव्यों को निभाएँ जो उन्हें यहाँ निभाने चाहिए। लेकिन लोग ऐसा अपने लिए, अपने दैनिक अस्तित्व, जीवन, परिवार या करियर के लिए नहीं कर रहे हैं। तो फिर वे यह किसलिए कर रहे हैं? परमेश्वर के कार्य के लिए, और परमेश्वर के प्रबंधन के लिए। चाहे इसमें कोई भी विशिष्ट पेशा या किसी भी प्रकार का कार्य शामिल हो, चाहे वह विराम चिह्न या प्रारूपण शैली जितना छोटा हो, या कार्य की किसी विशिष्ट वस्तु जितना महत्वपूर्ण हो, यह सब परमेश्वर के कार्य के दायरे में आता है। इसलिए, यदि तुम्हारे पास विवेक है, तो तुम्हें पहले अपने आप से पूछना चाहिए, ‘मुझे यह कार्य कैसे करना चाहिए? परमेश्वर की आवश्यकताएँ क्या हैं? परमेश्वर के घर ने कौन-से सिद्धांत निर्धारित किए हैं?’ फिर, उन प्रासंगिक सिद्धांतों को एक-एक करके सूचीबद्ध करो और सख्ती से प्रत्येक नियम और सिद्धांत के अनुसार कार्य करो। अगर यह सिद्धांतों के अनुरूप है और उनके दायरे में रहता है, तो तुम जो भी करोगे वह उचित होगा, और परमेश्वर इसे तुम्हारे द्वारा कर्तव्य निभाना मानेगा और इसी रूप में वर्गीकृत करेगा। क्या लोगों को यह समझना नहीं चाहिए? (हाँ।) यदि तुम इसे समझते हो, तो तुम्हें हमेशा इस बात पर विचार नहीं करना चाहिए कि तुम चीजों को कैसे करना चाहते हो या तुम क्या करना चाहते हो। इस प्रकार सोचने और कार्य करने में विवेक का अभाव होता है। क्या जिन कार्यों में विवेक का अभाव हो उन्हें करना चाहिए? नहीं, उन्हें नहीं करना चाहिए। यदि तुम उन्हें करना चाहते हो, तो फिर तुम्हें क्या करना चाहिए? (खुद से विद्रोह।) तुम्हें खुद से विद्रोह कर अपनी इच्छाएँ त्याग देनी चाहिए और अपने कर्तव्य और परमेश्वर के घर की आश्यकताओं और सिद्धांतों को पहले रखना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (6))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मेरा दिल रोशन हो गया और मैं समझ गई कि अच्छा कर्म क्या होता है। यानी, चीजों को सिद्धांतों और परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार करना, फलस्वरूप परमेश्वर की गवाही देना और उसे महिमान्वित करना। जब ये सकारात्मक नतीजे हासिल होते हैं, तभी किसी काम को अच्छा कर्म कहा जा सकता है और केवल तभी परमेश्वर उसे स्वीकृति देगा और स्वीकार करेगा। अगर हम सत्य सिद्धांत खोजे बिना अपनी मर्जी या जोश के आधार पर आँख मूँदकर कार्य करते हैं तो चाहे कितना भी प्रयास किया जाए और हम कितनी भी कीमत चुकाएँ, यह सब व्यर्थ रहता है और परमेश्वर के इरादों के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं होता है। यह सिद्धांतों के खिलाफ भी जा सकता है और गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा कर सकता है। मुझे एहसास हुआ कि चीजों को करने में व्यक्ति के इरादे बहुत महत्वपूर्ण होते हैं और व्यक्ति जिस मार्ग पर चलता है वह भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। साथ ही, परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाना अपने निजी मामलों को सँभालने का मसला नहीं है और मैं बस अपनी इच्छानुसार काम नहीं कर सकती। ठीक वैसे ही जैसा परमेश्वर कहता है, किसी विराम चिह्न या प्रारूप जैसी छोटी-सी चीज के लिए भी व्यक्ति को प्रासंगिक सिद्धांत खोजने चाहिए। इसका संबंध अपने कर्तव्य के प्रति व्यक्ति के रवैये से और इस बात से है कि क्या उसके पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल है। इसलिए कोई भी चीज करने से पहले हमें पहले यह चिंतन करना चाहिए कि इसमें कौन-से सिद्धांत शामिल हैं, परमेश्वर क्या अपेक्षा करता है, काम कैसे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए किया जा सकता है और कैसे सकारात्मक नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। इन मसलों पर और अधिक चिंतन करके हम प्रार्थना करने और खोजने की और अधिक प्रबल इच्छा के साथ सावधानी से कार्य कर सकते हैं और हम सचेत रूप से संबंधित सिद्धांतों को भी खोजेंगे। भले ही फिलहाल कोई स्पष्ट सिद्धांत न मिले, हम उन लोगों से और अधिक संगति कर सकते हैं जो सत्य को समझते हैं या इन कौशलों में विशेषज्ञता रखते हैं और एक अपेक्षाकृत उपयुक्त मार्ग खोज सकते हैं जिसके अनुसार कार्य किया जाए। अगर किसी मामले को ज्यादातर लोग साफ-साफ न देख सकते हों तो फिर हम ऊपरवाले से खोज सकते हैं और हमें अपनी काबिलियत की सीमाओं के भीतर अपना सर्वश्रेष्ठ करना चाहिए और अगर बाद में विचलन पाए जाते हैं तो हमें उनका सारांश निकालना चाहिए और उन्हें ठीक करना चाहिए। इस ढंग से हमारा कर्तव्य निर्वहन अपेक्षाकृत सटीक होगा। बाद में अपना कर्तव्य निभाते समय मैंने सचेत रूप से परमेश्वर से प्रार्थना की और मैंने यह खोजा कि सकारात्मक नतीजे कैसे हासिल किए जाएँ। खासकर जिन चीजों को लेकर मैं काफी संतुष्ट और अच्छा महसूस करती थी उनके संबंध में मैं खुद पर कम भरोसा करने लगी और मैं पुष्टि के लिए कई अन्य लोगों से राय लेती थी। अगर ज्यादातर लोग इस बात पर सहमत होते थे कि कोई चीज उपयुक्त है तो मैं उसी अनुसार आगे बढ़ती। इस तरीके से अपना कर्तव्य निभाकर मुझे और अधिक सुकून महसूस हुआ। उदाहरण के लिए, हाल ही में हमने एक नया पोस्टर प्रारूप आजमाया और हमने कुछ नए तत्व शामिल किए। मैंने पहले कई खाके तैयार करने के लिए भाई-बहनों से हर पहलू पर चर्चा की। हम पक्के तौर पर नहीं जानते थे कि हम जिस दिशा में जा रहे हैं वह उपयुक्त है या नहीं, इसलिए हमने अगुआ से मार्गदर्शन खोजा। निर्माण प्रक्रिया के दौरान कुछ लोगों ने सवाल उठाए और जिन मसलों पर हम स्पष्ट नहीं थे उन्हें लेकर खोज करते रहे। इस खोज में अगुआ ने हमारे पोस्टरों में कुछ समस्याओं की ओर इशारा किया, इसलिए हमने इस क्षेत्र से संबंधित पेशेवर कौशलों और ज्ञान का अध्ययन किया और आखिरकार हमारे बनाए पोस्टर कुछ अधिक उपयुक्त हो गए।
इस अनुभव के माध्यम से मुझे एहसास हुआ कि अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया सत्य सिद्धांत खोजने की प्रक्रिया है और व्यक्ति के पास परमेश्वर का भय मानने वाला दिल होना चाहिए और उसे अपना कर्तव्य निभाते समय सही सिद्धांत खोजने चाहिए। केवल ऐसा करने से ही वे परमेश्वर के इरादों के अनुरूप कार्य कर सकते हैं। इससे न केवल मन को शांति मिलती है, बल्कि इससे व्यक्ति अपने पेशेवर कौशल में प्रगति भी कर पाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि खोजने के माध्यम से व्यक्ति परमेश्वर के सामने शांत रहकर अधिक समय बिताता है, अपने उचित कार्य पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है और परमेश्वर के साथ उसका रिश्ता और भी निकट का हो जाता है। ये सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने के फल हैं। परमेश्वर का धन्यवाद!
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