मनमानी से मुझे नुकसान पहुँचा

05 फ़रवरी, 2023

2012 के अंत में मैंने कलीसिया अगुआ के तौर पर सेवा शुरू की। मैंने देखा कि कलीसिया की सभी परियोजनाएँ बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही थीं और सिर्फ कुछ सदस्य ही अपना कर्तव्य ठीक से निभा पा रहे थे। यह जानकर कि मेरी आस्था कम समय की थी और कार्यकर्ता चुनने की मुझे ज्यादा समझ नहीं थी, मैं अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना में अपनी मुश्किलें बयान करती और संगत सिद्धांत खोजती। अगर कोई बात मुझे समझ नहीं आती, तो मैं सहकर्मियों के साथ मिलकर खोजती और संगति करती। धीरे-धीरे लोगों और हालात की मेरी परख सुधरने लगी, मैं लोगों को उनकी खूबियों के आधार पर कर्तव्य सौंपने में सक्षम हो गई, हमें कलीसिया के कार्य में थोड़ी तरक्की दिखाई देने लगी।

मुझे याद है कि एक बार कार्य-चर्चा में, मैंने बहन ली झी को समूह अगुआ के तौर पर विकसित करने का सुझाव दिया, लेकिन बहुत-से सहकर्मी मेरे नजरिए से सहमत नहीं हुए थे, और दलील दी थी कि परिवार से बँधी ली झी कर्तव्य की जिम्मेदारी नहीं लेती थी। वह नए सदस्यों का सिंचन भी समय से नहीं करती थी, और कई बार संगति के बाद भी उसमें सुधार नहीं हुआ था। कर्तव्य के प्रति उसके रवैये के चलते वह समूह अगुआ के तौर पर सेवा करने लायक नहीं थी। मैंने मन-ही-मन सोचा, "ली झी आस्था में नई है, परिवार के कारण उसकी लाचारी बस एक अस्थाई कमजोरी है। सिर्फ अस्थाई हालत के आधार पर हमें उसे विकसित होने लायक न मानकर सीमित नहीं करना चाहिए, हमें प्रेम से उसका साथ देकर मदद करनी चाहिए।" इसके बाद मैं अक्सर ली झी का साथ देने लगी, उससे परमेश्वर के इरादों और कर्तव्य निभाने के अर्थ पर संगति करने लगी। धीरे-धीरे ली झी की हालत सुधरने लगी—परिवार के कारण उसकी लाचारी खत्म हो गई और वह नियमित रूप से अपना कर्तव्य निभाने लगी। एक अच्छी काबिलियत वाला भाई भी था, जो सत्य पर स्पष्ट और सारगर्भित संगति करता था, और कर्तव्य निभाने में जिम्मेदार था, तो मैंने सुझाया कि उसे सिंचन कार्य की देखरेख के लिए प्रशिक्षित किया जाए। लेकिन मेरी सहयोगी बहन को संदेह था। उसे लगा कि उसका घमंडी स्वभाव दूसरों को परेशान करेगा, इसलिए वह फिलहाल प्रशिक्षित करने लायक नहीं था। मैंने याद किया कि एक सिद्धांत में कहा गया था : "जो स्वभाव से दंभी होते हैं, लेकिन सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, और साथ ही अच्छी योग्यता और प्रतिभा वाले होते हैं, वे पदोन्नत और विकसित किए जाने चाहिए। उन्हें कभी भी बहिष्कृत नहीं करना चाहिए" (सत्य का अभ्यास करने के 170 सिद्धांत, 135. विभिन्न तरह के दंभी स्वभाव वाले लोगों के साथ व्यवहार के सिद्धांत)। भाई का स्वभाव घमंडी था, मगर उसने सत्य स्वीकार किया, जब दूसरे उसकी समस्याएँ बताते, वह आलोचना स्वीकार कर बदलाव करता। तो मोटे तौर पर वह तरक्की पाने और विकसित होने के सिद्धांतों को पूरा करता था। मैंने इस सिद्धांत का संदर्भ देकर अपना तर्क समझाया, बहुत-से सहकर्मी मेरी बातें सुनने के बाद राजी हो गए। सिंचन कार्य का प्रभारी बनाए जाने के बाद, भाई ने कर्तव्य में बढ़िया नतीजे दिखाए, और काम में बहुत सक्षम साबित हुआ। जल्दी ही उसे तरक्की दी गई। इसके बाद मैं यह सोचकर खुद से बहुत संतुष्ट थी : "मैं आस्था में नई हो सकती हूँ, मगर मुझमें अच्छी काबिलियत है और सहकर्मियों के मुकाबले मैं लोगों और हालात की बेहतर पारखी हूँ। अगर कलीसिया में मुझ जैसी पारखी न होती, तो नई प्रतिभाओं को पहचानकर उन्हें कौन विकसित करता?" हर कलीसिया परियोजना के लिए मैंने समझदारी से सदस्यों को काम सौंपे थे, जो सदस्य अपने काम में सही नहीं थे, उन्हें बदला था और जल्दी ही कलीसिया का कार्य आगे बढ़ने लगा। समस्याएँ होने पर सारे भाई-बहन संगति के लिए मेरे पास आते, मेरी राय पूछते। कुछ ने तो मेरे मुँह पर यह कहकर प्रशंसा भी की : "पिछले कलीसिया अगुआ आस्था में अनुभवी थे, मगर वे कलीसिया कार्य ठीक से नहीं करवा पाते थे। आपकी आस्था पुरानी नहीं है, लेकिन आपके आते ही काम तेजी से आगे बढ़ने लगा है। आप जरूर अच्छी काबिलियत वाली, प्रतिभाशाली अगुआ होंगी।" यह सुनकर मैं अपने-आपसे और ज्यादा खुश हो गई, सोचने लगी कि मैं कलीसिया की एक सच्ची दुर्लभ प्रतिभा थी।

इसके बाद मैं कुछ और कलीसियाओं के कार्य की अध्यक्षता करने लगी। कभी-कभी चयन करते समय उच्च अगुआ मुझसे सलाह माँगते थे। मुझे और ज्यादा यकीन हो गया कि मुझमें अगुआ बनने के तमाम गुण हैं : मुझमें अच्छी काबिलियत थी, प्रतिभाओं के चयन में अच्छी थी और सिद्धांत के अनुसार मसले सुलझा सकती थी। मेरा आत्मविश्वास बहुत बढ़ गया। इसके बाद मुझे जब भी लगता कि किसी स्थिति का मेरा आकलन सही था, तो मैं दूसरे सहकर्मियों से सलाह लिए बिना, खुद ही फैसले कर लेती। लगता कि मुझे सिद्धांतों की उनसे बेहतर समझ थी, मेरी दृष्टि गहरी थी। मैं अगर उनसे चर्चा करती भी तो यकीनन हम मेरी योजना पर ही चलते, तो फिर चर्चा करना बेकार था। जब सहकर्मी सुझाव देते, तो मुझे लगता कि उनके सुझाव मेरे विचारों जैसे अच्छे नहीं थे, सीधे उन्हें ठुकराकर मैं अपनी ही योजना पर काम करती।

एक बार कलीसिया को हमारी किताबें रखने के लिए कोई सदस्य चाहिए था, तो मैंने एक नए सदस्य झेंग यी को सौंपने का सुझाव दिया क्योंकि मुझे पता था कि उसकी मानवता अच्छी थी। एक सहकर्मी ने मुझे याद दिलाया : "झेंग यी आस्था में नया है और उसकी पत्नी गैर-विश्वासी है। अगर एकाएक कोई स्थिति पैदा हुई, तो मुझे भरोसा नहीं है कि वह किताबों की रक्षा कर पाएगा।" तब मुझे लगा कि मेरा सुझाव ठुकरा दिया गया था, मुझे थोड़ी बेचैनी हुई। मैंने सोचा : "मैं अगुआ हूँ—क्या मैं इस लायक भी नहीं कि किताबें रखनेवाला सदस्य ढूँढ सकूँ? आखिर हम कोई अगुआ तो चुन नहीं रहे थे, तो फिर इतनी कड़ाई क्यों?" मैंने सहकर्मी की सलाह नहीं मानी और झेंग यी को किताबें रखने का काम सौंप दिया। जब एक बहन को पता चला, तो उसने यह कहकर मेरा निपटान किया : "किस सिद्धांत के आधार पर आपने झेंग यी को काम सौंपा? हमें किताबें रखने के लिए एक सुरक्षित घर चाहिए। भाई झेंग यी आस्था में नया है, उसकी बुनियाद पक्की नहीं है, और उसकी पत्नी उसकी आस्था की विरोधी है। अगर कुछ हो गया, तो क्या यह कलीसिया कार्य के लिए हानिकारक नहीं होगा?" मैं सहमत नहीं हुई, सोचा : "सिद्धांत के आधार पर झेंग यी शायद इस लायक न हो, लेकिन उसमें अच्छी मानवता है, और वह यह काम करने को तैयार है। क्या आप लोग कुछ ज्यादा ही नहीं सोच रहे हैं? क्या यह इतना गंभीर है?" तो मैंने कहा : "मैं उससे संगति कर चुकी हूँ—आपको कोई और योग्य व्यक्ति मिल जाए, तो हम आपका चयन मान लेंगे।" यह देखकर कि मैं उसके विचार को मान ही नहीं रही थी, उसने और कुछ नहीं कहा। इसके बाद जल्दी ही, झेंग यी का अपनी पत्नी से झगड़ा हो गया, पत्नी ने सारी किताबें बाहर फेंक दीं, कुछ किताबों को नुकसान पहुँचा। हमें देर रात तक जगकर किताबें दूसरी जगह पहुँचानी पड़ीं। इसके बाद, मेरे सहकर्मियों ने सिद्धांत के बजाय अपने विश्वास पर मनमानी करने से, किताबों को हुए नुकसान पर मेरा निपटान किया। उन्होंने मुझसे कहा कि इस घटना पर मुझे गहरा आत्म-चिंतन करना चाहिए। मैं अनमने ढंग से राजी हो गई, मगर मैंने सोचा : "यह बस एक गलती थी। मैंने कलीसिया की तब की असली हालत देखकर उसे यह काम सौंपा था। किसे पता था कि ऐसा कुछ हो जाएगा।" इसके बाद भी मैं अपने कर्तव्य में मनमानी करती रही। काम की चर्चा करते समय मैं सहकर्मियों की सलाह सीधे ठुकरा देती और चीजें अपनी तरह से सँभालती थी। धीरे-धीरे मेरे सहकर्मी मेरे आगे मजबूर होने लगे, जो फैसले मैं कर लेती उन पर वो राय देने की हिम्मत नहीं करते थे।

एक बार मैं झांग फैन नामक अगुआ को बर्खास्त करने दूसरी कलीसिया में गई। उसे बर्खास्त करने से पहले, मुझे उसके पूरे कामकाज का विश्लेषण कर उस पर संगति करनी चाहिए थी, और तब बर्खास्त करना चाहिए था। फिर मैंने सोचा कि पहले जब मैंने उसके कामकाज पर संगति की थी, तो उसने मेरी बातें नहीं मानी थीं और बारीकियों पर झगड़ा भी किया था। इसलिए मुझे लगा कि उससे संगति करना बेकार था, मुझे बस उसे सीधे बर्खास्त कर देना चाहिए। बाद में मैंने झांग फैन और कुछ दूसरे उपयाजकों की बैठक बुलाई, और संक्षेप में बताया कि उसे क्यों बर्खास्त करना चाहिए। मगर झांग फैन अड़ी रही, मुझसे बहस कर यह सवाल करती रही : "मुझे साफतौर पर बताएँ—आपने मुझे किस सिद्धांत के आधार पर बर्खास्त किया?" मैंने मन-ही-मन सोचा : "मैं पहले ही तुम्हारे कामकाज की समस्याएँ तुम्हें बता चुकी हूँ, मगर तुम नुक्ताचीनी और विवाद कर मेरी कमियाँ ढूँढने की कोशिश कर रही हो। तुम खुद को बिल्कुल नहीं जानतीं और तुमसे संगति का झमेला उठाने की मुझे जरूरत नहीं।" तो मैंने उसकी अनदेखी की। बहन वांग चेन ने मुझे यह कहकर याद दिलाया : "झांग फैन बहुत मीन-मेख निकाल सकती है—आपको अब भी उससे सिद्धांतों पर संगति करनी चाहिए और उसे साफ तौर पर बर्खास्तगी का कारण बता देना चाहिए।" यह जानकर भी कि वांग चेन सही थी, मैंने सोचा कि झांग फैन कलीसिया अगुआ होने के नाते इन सिद्धांतों को बखूबी जानती थी, इसलिए इस विषय पर उसके साथ समय गँवाना जरूरी नहीं था। इसलिए, मैंने बस अगुआ का कार्य कैसे सँभालें, इस बारे में परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, मगर पढ़ते समय मैंने थोड़ा दोषी महसूस किया। मैं परमेश्वर के वचन उसे दबाने के लिए प्रयोग कर रही थी, उसकी समस्या सुलझा नहीं रही थी—यह सही नहीं था। फिर मैंने सोचा कि अगर मैंने यह नहीं पढ़ा तो मैं उसे काबू में नहीं रख पाऊँगी। अंश पूरा हो जाने पर कमरे में निस्तब्धता थी, झांग फैन गुस्से से उबलते हुए चुपचाप बैठी हुई थी। मैंने सोचा कि मामला खत्म हो गया था, लेकिन हैरानी हुई जब एक सभा में झांग फैन ने कहा कि कुछ अगुआ और कार्यकर्ता सिद्धांत का पालन नहीं कर रहे थे, जिससे दूसरे अगुआ और कार्यकर्ता बेबस महसूस कर कलीसिया कार्य को बाधित कर रहे थे। मुझे थोड़ा डर लगा। यह सब मेरी मनमानी और सिद्धांतों पर न चलने का नतीजा था, लेकिन मैंने मामले पर गंभीरता से सोचे-विचारे बिना, मान लिया कि यह गलत था।

बाद में एक और अगुआ को बर्खास्त करते समय, मैंने फिर से भाई-बहनों को बर्खास्तगी के निश्चित कारण नहीं बताए। कुछ भाई-बहन इस अगुआ को जानते-समझते नहीं थे, वे सभाओं में अक्सर बहस करते कि अगुआ को बर्खास्त करते समय मैंने सिद्धांतों का पालन नहीं किया था। इससे कलीसिया में एक अराजक स्थिति पैदा हो गई। इस स्थिति के बारे में जानकर एक बहन ने मुझे याद दिलाया : "बेहतर होगा कि आप तुरंत जाकर उनसे संगति करें, वरना कलीसिया में स्थिति और भी ज्यादा अराजक हो जाएगी।" मैं यह सोचकर उससे सहमत नहीं हुई : "झूठे अगुआओं को बर्खास्त किया जाना चाहिए, मैं किसी को दंड देने की कोशिश नहीं कर रही थी, तो वे लोग बात का बतंगड़ क्यों बना रहे हैं?" सिद्धांत के अनुसार काम न करने और आत्म-चिंतन कर खुद को न जानने के कारण, धीरे-धीरे मुझे अपना कर्तव्य बेहद भारी लगने लगा। मुझे अब परमेश्वर से प्रबुद्धता और मार्गदर्शन नहीं मिल रहा था, और कलीसिया का कार्य संभालते समय मैं अक्सर असमंजस में पड़ जाती थी। दैनिक प्रार्थना में मुझे समझ नहीं आता था कि परमेश्वर से क्या कहूँ, मैं जिन कलीसियाओं की प्रभारी थी उनके कामकाज के अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे। मुझे समझ आने लगा कि शायद मैं अब यह कर्तव्य नहीं सँभाल सकती।

जल्दी ही कुछ भाई-बहनों ने पत्र लिखकर मेरी शिकायत कर दी, मुझ पर लापरवाही से काम करने और बिल्कुल भी सत्य स्वीकार न करने का आरोप लगाया। एक उच्च अगुआ को मेरी स्थिति का पता चलने पर उसने मुझे उजागर कर मेरा निपटान किया : "एक कलीसिया अगुआ के रूप में, लोगों के चयन और बर्खास्तगी जैसे अहम काम करते समय, आपने सहकर्मियों से सलाह नहीं ली, सिद्धांत नहीं खोजे, बल्कि अपनी ही योजना पर चलकर मनमानी की। भाई-बहनों के याद दिलाने पर भी आप झुकी नहीं। आप बहुत ज्यादा घमंडी और आत्मतुष्ट हैं। नाकाम होने पर जब आपको उजागर किया गया, तो भी आपने आत्म-चिंतन नहीं किया और मनमानी करती रहीं। आपके इस मनमाने बर्ताव से कलीसिया जीवन अराजकता में डूब गया, और भाई-बहनों के जीवन को नुकसान पहुँचा। आपके कामकाज को देखा जाए, तो आप अब अगुआ के रूप में सेवा करने लायक नहीं रहीं। इस ओहदे पर आपको नियुक्त करने से लाभ की अपेक्षा हानि ज्यादा है।" अगुआ ने जिस तरह मुझे उजागर कर मेरा निपटान किया था, उससे मैंने बहुत दुखी और बुरा महसूस किया और मैं फूट-फूट कर रोने लगी। मैंने खुद से पूछा : "मैंने कलीसिया कार्य में इतनी तबाही कैसे मचाई? न सिर्फ मैंने एक अगुआ की तरह अपना कर्तव्य नहीं निभाया था, कलीसिया कार्य को बाधित भी किया था। मैं बस कहीं जाकर छिप जाना चाहती थी।" घर लौटते समय मैं सदमे में थी। मैंने सोचा कि कर्तव्य में मनमानी करने, लापरवाह होने, और कलीसिया कार्य को बाधित करने के कारण, परमेश्वर मुझसे जरूर घृणा करेगा। क्या परमेश्वर मुझ जैसे इंसान को बचाएगा? मैंने जितना सोचा उतना ही बदतर लगा, मुझे पता ही नहीं चला कि मैं घर कैसे पहुँची। बिस्तर पर घुटनों पर बैठ मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! मुझे नहीं पता मैं इस मुकाम पर कैसे पहुँची। मुझे असली आत्म-बोध नहीं है। हे परमेश्वर! मैं जानती हूँ कि बर्खास्त होने पर कुछ सबक सीखने होते हैं, मगर मैं बहुत सुन्न हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो, मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं खुद को जान सकूँ, तुम्हारे इरादे समझ सकूँ।"

अपनी भक्तिसभा में, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक भजन याद आया जो मैं अक्सर गाती थी : "तुम लोगों को जो भी प्राप्त होता है, वह ताड़ना, न्याय और निर्दय मार है, लेकिन यह जान लो : इस निर्मम मार में थोड़ा-सा भी दंड नहीं है। मेरे वचन कितने भी कठोर हों, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे कुछ वचन ही हैं, जो तुम लोगों को अत्यंत निर्दय प्रतीत हो सकते हैं, और मैं कितना भी क्रोधित क्यों न हूँ, तुम लोगों पर जो पड़ता है, वे फिर भी कुछ शिक्षाप्रद वचन ही हैं, और मेरा आशय तुम लोगों को नुकसान पहुँचाना या तुम लोगों को मार डालना नहीं है। क्या यह सब तथ्य नहीं है?

"धार्मिक न्याय मनुष्य को शुद्ध करने के उद्देश्य से लाया जाता है, और निर्मम शुद्धिकरण उन्हें निर्मल बनाने के लिए किया जाता है; कठोर वचन या ताड़ना, दोनों शुद्ध करने के लिए किए जाते हैं और वे उद्धार के लिए हैं। ऐसी ताड़ना और न्याय का सामना होने पर तुम लोगों को क्या कहना है? क्या तुम लोगों ने शुरू से अंत तक उद्धार का आनंद नहीं लिया है? तुम लोगों ने देहधारी परमेश्वर को देखा है और उसकी सर्वशक्तिमत्ता और बुद्धि का एहसास किया है; इसके अलावा, तुमने बार-बार मार और अनुशासन का अनुभव किया है। लेकिन क्या तुम लोगों को सर्वोच्च अनुग्रह भी प्राप्त नहीं हुआ है?" (मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ, परमेश्वर का न्याय और ताड़ना इंसान को बचाने के लिये है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे हिला दिया। सही कहा। परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य न्याय और ताड़ना के लिए है। ताड़ना, अनुशासन, निपटान या उजागर करना हो, वह यह सब मानवजाति को शुद्ध कर बचाने के लिए करता है। बर्खास्त होने के बाद मैंने बहुत बुरा महसूस किया होता, लेकिन यह आत्म-चिंतन कर खुद को जानने का बहुत बढ़िया मौका था। यह परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था। मैं परमेश्वर के इरादे को गलत नहीं समझ सकती थी। इसका एहसास होने पर मुझे थोड़ी शांति मिली। मैं बस सत्य खोजना चाहती थी, आत्म-चिंतन कर खुद को जानना चाहती थी और जल्द-से-जल्द प्रायश्चित्त करना चाहती थी।

मनमानी और लापरवाही दिखाने पर अगुआ द्वारा मुझे उजागर कर निपटान किए जाने के बारे में सोचकर, मैंने खान-पान और सोच-विचार के लिए परमेश्वर के वचनों के संगत अंश खोजे। मैंने परमेश्वर के कुछ वचन देखे, जो कहते हैं : "कुछ लोग बिना किसी से बात किए या बिना किसी को बताए, चीजें अकेले करना पसंद करते हैं। वे बस उन्हें वैसे ही करते हैं, जैसा वे करना चाहते हैं, चाहे दूसरे उन्हें कैसे भी देखें। वे सोचते हैं, 'मैं अगुआ हूँ, और तुम लोग परमेश्वर के चुने हुए लोग हो, इसलिए तुम लोगों को मैं जो करता हूँ, उसका अनुसरण करने की आवश्यकता है। जैसा मैं कहता हूँ, ठीक वैसा ही करो—यह ऐसे ही होना चाहिए।' जब वे कार्य करते हैं, तो दूसरों को सूचित नहीं करते; उनके कार्यों में पारदर्शिता नहीं होती। वे हमेशा निजी तौर पर कुछ करने का प्रयास करते रहते हैं और गुप्त रूप से कार्य करते हैं। बड़े लाल अजगर की तरह ही, जो सत्ता पर अपना एक-पक्षीय एकाधिकार बनाए रखता है, वे हमेशा दूसरों को धोखा देकर नियंत्रित करना चाहते हैं, जिन्हें वे महत्वहीन और बेकार समझते हैं। वे हमेशा दूसरों से चर्चा या संवाद किए बिना मामलों में अपनी ही चलाना चाहते हैं, और वे कभी दूसरे लोगों की राय नहीं लेते। तुम इस दृष्टिकोण के बारे में क्या सोचते हो? क्या इसमें सामान्य मानवता है? (नहीं है।) क्या यह बड़े लाल अजगर की प्रकृति नहीं है? बड़ा लाल अजगर तानाशाह और स्वेच्छाचारी है। क्या इस तरह के भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग बड़े लाल अजगर की संतान नहीं हैं?" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सामंजस्‍यपूर्ण सहयोग के बारे में)। "अपने कर्तव्य को पर्याप्त रूप से निभाने के लिए, चाहे तुमने कितने ही वर्ष परमेश्वर पर विश्वास किया हो, तुमने अपने कर्तव्य के निर्वहन में कितना ही काम किया हो और चाहे तुमने परमेश्वर के घर में कितना ही योगदान दिया हो, तुम अपने कार्य में कितने अनुभवी हो। परमेश्वर मुख्यत: यह देखता है उस व्यक्ति ने किस मार्ग का अनुसरण किया है। दूसरे शब्दों में, वह किसी भी व्यक्ति के कार्यों के पीछे सत्य, सिद्धांतों, दिशा और मूल के प्रति उसका रवैया देखता है। परमेश्वर इन बातों पर ध्यान देता है; यही बातें तुम्हारे मार्ग का निर्धारण करती हैं। तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन की प्रक्रिया में, यदि तुम्हारे अंदर ये सकारात्मक बातें बिल्कुल न दिखाई दें और तुम्हारे कार्य के सिद्धांत, मार्ग और आधार तुम्हारे ही विचार, उद्देश्य और योजनाएँ हों, तुम्हारा सारा ध्यान अपने ही हितों की रक्षा करना, अपनी प्रतिष्ठा और ओहदे की रक्षा करना हो, तुम्हारी कार्य-प्रणाली निर्णय लेना, अकेले काम करना और अपनी बात को ही सर्वोपरि मानना हो, कभी दूसरों के साथ किसी चीज़ पर विचार-विमर्श करना या सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग न करना हो, और गलती करने पर कभी सलाह न मानना हो, सत्य की तलाश करने की तो बात ही छोड़ दो, तो परमेश्वर तुम्हें कैसे देखेगा? अगर तुम अपना कर्तव्य इस ढंग से निभाते हो तो तुम अभी तक उस मानक तक नहीं पहुँचे हो; तुमने सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर कदम नहीं रखा है, क्योंकि काम करते समय तुम सत्य के सिद्धांत की तलाश नहीं करते, हमेशा अपनी इच्छानुसार ही कार्य करते हो, जो चाहते हो वही करते हो। यही कारण है कि ज़्यादातर लोग अपने कर्तव्यों का संतोषजनक ढंग से पालन क्यों नहीं कर पाते" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, कर्तव्‍य का समुचित निर्वहन क्‍या है?)। इन अंशों पर सोच-विचार करने पर परमेश्वर के वचनों ने दिल को चीर दिया। उन्होंने उजागर किया कि किस प्रकार बड़े लाल अजगर की प्रकृति घमंडी, अहंकारी और मनमानी करने की है। ऐसे लोगों के अनुसरण का नजरिया, और उनके चलने की राह परमेश्वर के विरुद्ध होती है। कलीसिया ने मुझे अगुआ के रूप में सेवा करने का मौका दिया था न कि एक नौकरशाह की तरह। उन्होंने मुझे जिम्मेदारी दी थी, वे चाहते थे कि मैं परमेश्वर की इच्छा का पालन करूँ, कलीसिया का कार्य ठीक से करने के लिए सबके साथ मिल-जुलकर काम करूँ, और अपना कर्तव्य निभाऊँ। मगर इसके बजाय मैंने कलीसिया कार्य को अपना निजी कारोबार मान लिया। जब मेरे काम के कुछ नतीजे आने लगे, और मैंने प्रतिभाओं के चयन में थोड़ा अनुभव हासिल कर लिया, तो मुझे लगा कि मुझमें अच्छी काबिलियत और असाधारण कार्य-कौशल था, मैं हालात और लोगों की अच्छी पारखी थी। खासतौर से जब भाई-बहन अपने सवाल लेकर मेरे पास आने लगे, तो मैंने खुद को ऊँचे आसन पर बिठा लिया और मान लिया कि सत्य को मैं उनसे बेहतर समझती थी। मैं उस ऊँचे आसन से उतर नहीं सकी, और मान लिया कि कलीसिया कार्य की तरक्की मेरे ही कारण हुई थी, सारे भाई-बहन मुझसे हीन थे और उन्हें अपनी राय बताने का कोई हक नहीं था। चर्चा-योग्य हर काम में मेरी ही राय सबसे ऊपर होनी चाहिए थी। तो जब भाई-बहनों ने बताया कि मैं किस तरह अपने काम में भटक गई थी, मैंने उन पर कोई ध्यान नहीं दिया और अपने ही ढंग से काम करती रही। कभी-कभी जब वे अलग राय देते, तो उन पर विचार किए बिना ही मैं उन्हें ठुकरा देती। मैं अड़ जाती कि वे मेरी योजना पर चलें, कभी-कभी तो मैं सहकर्मियों से सलाह लिए बिना ही योजनाओं पर काम शुरू कर देती। चूँकि मैं ऐसे व्यक्ति को चुनने पर अड़ गई थी जो किताबें रखने के सिद्धांत के अनुरूप नहीं था, और सहकर्मियों के याद दिलाने और चेताने पर भी मैंने उनकी नहीं सुनी थी, इस कारण किताबों को नुकसान पहुँचा। फिर भी मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। कारण बताए बिना, मसलों पर संगति किए बिना मैंने झांग फैन को बर्खास्त कर दिया, इससे वह चिढ़ गई, असम्मत हो गई और गलतियाँ ढूँढने लगी। इससे बहुत गड़बड़ी हुई, कलीसिया जीवन में अराजकता फैल गई। कर्तव्य के दौरान मैंने सत्य खोजने को आगे नहीं रखा, सत्य की वास्तविकता में प्रवेश के लिए दूसरों को रास्ता नहीं दिखाया। इसके बजाय मैंने सिद्धांत तोड़ने में अगुआई की, सबको अपने आदेश मानने पर मजबूर किया, उन्हें अलग राय नहीं देने दी, हर चीज में अपनी ही बात मनवानी चाही। क्या मैं तानाशाह की तरह काम नहीं कर रही थी? कलीसिया अगुआ के रूप में मुझे स्पष्ट समझ थी कि हमें सिद्धांतों के अनुसार काम करना चाहिए, लेकिन मैंने उनकी अनदेखी की, मनमानी की और हमेशा अपनी बात मनवानी चाही। क्या मैं परमेश्वर के विरुद्ध खड़ी नहीं हो रही थी? मेरा हर कर्म मसीह-विरोधी स्वभाव दर्शा रहा था। अपने कर्मों पर आत्म-चिंतन कर मैं समझ गई कि मेरा बर्ताव परमेश्वर के लिए घिनौना था। अगर मैंने प्रायश्चित्त कर अपना बर्ताव नहीं सुधारा तो क्या मेरा भी हश्र मसीह-विरोधियों जैसा नहीं होगा?

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश देखा, जिसमें कहा गया था : "सत्य के बिना, बुरे काम करना आसान है और तुम यह अपनी मर्जी के बिना करोगे। उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, उनके कारण तुम खुद को ऊँचा उठाओगे, निरंतर खुद का दिखावा करोगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हारे दिल से परमेश्वर का स्थान छीन लेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुमसे अपने ही विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजा करवाएँगे। लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन इतनी बुराई करते हैं!" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि मेरी अपनी योजना पर चलने और मनमानी करने का मूल कारण, मेरी प्रकृति का अहंकारी होना था। मैं खुद को बहुत ऊँचा समझती थी, मानती थी कि मैं दूसरों से बेहतर थी, लोगों और हालात की बेहतर पारखी थी। मेरे मन में किसी के लिए सम्मान नहीं था। सहकर्मियों के साथ काम पर चर्चा करते समय मैं हमेशा खुद को सही समझती, और मुझसे सहमत न होनेवाला कोई भी हो, मैं कभी नहीं सुनती थी। घमंड और आत्मतुष्टता के कारण जब मैं कलीसिया में गड़बड़ी और अराजक हालात का कारण बनी, तो भी मैं झुकने को तैयार नहीं हुई, इसे बस एक बार की गलती मानती रही। किसी बहन के बार-बार याद दिलाने पर भी मैं आत्म-चिंतन कर खुद को जानने में नाकाम रही, क्योंकि मुझे लगा कि दूसरे बात का बतंगड़ बना रहे थे। मुझे एहसास हुआ कि मैं सचमुच घमंडी थी। मेरी तर्क-शक्ति कहाँ थी? काम में मिले नतीजे और मेरे द्वारा किए गए अच्छे चयन, परमेश्वर के मार्गदर्शन और उसके वचनों के मुझ पर असर का नतीजा थे। अगर मुझे परमेश्वर की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन और परमेश्वर के घर के सिद्धांत नहीं मिले होते, तो मैं किसी काम में सक्षम नहीं होती। फिर भी मैंने सारा श्रेय ले लिया, इन नतीजों को अपने घमंड और आत्मतुष्टि के लिए पूंजी की तरह इस्तेमाल किया। मैं बिल्कुल बेशर्म थी। अगर अगुआ ने मुझे सख्त रूप से उजागर कर बर्खास्त न किया होता, तो मैंने कभी आत्म-चिंतन न किया होता। सिर्फ तब मैं जान सकी कि मेरा उजागर और बर्खास्त होना, मेरी सुरक्षा का परमेश्वर का तरीका था। वरना कौन जाने अपने घमंडी स्वभाव से, मैंने न जाने कौन-सी दूसरी बुराई की होती? इन सबका एहसास कर मैंने सचमुच भयभीत और शर्मिंदा महसूस किया, और परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर! मैं अब अपने घमंडी स्वभाव के साथ नहीं जीना चाहती, न ही मनमानी और लापरवाही से काम करना चाहती हूँ। अभ्यास का मार्ग पाने में मेरा मार्गदर्शन करो।"

इसके बाद मैंने अपनी समस्या को लेकर खोजा, तो मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश मिला : "तब तुम अपने स्वेच्‍छाचार और अविवेक का समाधान कैसे करते हो? उदाहरण के तौर पर, मान लो, तुम्हारे साथ कुछ हो जाता है और तुम्हारे अपने विचार और योजनाएँ हैं; तो यह तय करने से पहले कि क्या करना है, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और तुम्हें कम से कम इस बारे में तुम क्या सोचते और मानते हो, इसके संबंध में सभी के साथ संगति करनी चाहिए, और सभी से कहना चाहिए कि वे तुम्हें बताएँ कि तुम्हारे विचार और योजनाएँ सही और सत्य के अनुरूप हैं या नहीं, और सभी से अंतिम बार जाँच लेने को कहना चाहिए। मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने का यह सबसे अच्छा तरीका है। सबसे पहले, तुम अपने दृष्टिकोण पर रोशनी डाल सकते हो और सत्‍य को जानने की कोशिश कर सकते हो; मनमानी और उतावलेपन का समाधान करने के लिए यह पहला क़दम है जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए। दूसरा क़दम तब होता है जब दूसरे लोग अपनी असहमतियों को व्‍यक्‍त करते हैं—ऐसे में स्‍वेच्‍छाचारी और अविवेकी होने से बचने के लिए तुम किस तरह का अभ्यास कर सकते हो? पहले तुम्हारा रवैया विनम्र होना चाहिए, जिसे तुम सही समझते हो उसे बगल में रख दो, और हर किसी को संगति करने दो। भले ही तुम अपने तरीके को सही मानो, तुम्‍हें उस पर ज़ोर नहीं देते रहना चाहिए। यह एक तरह की प्रगति है; यह सत्‍य की खोज करने, स्‍वयं को नकारने और परमेश्‍वर की इच्‍छा पूरी करने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। जैसे ही तुम्‍हारे भीतर यह प्रवृत्ति पैदा होती है, उस समय तुम अपनी धारणा से चिपके नहीं रहते, तुम्हें प्रार्थना करनी चाहिए, परमेश्वर से सत्य जानना चाहिए, और फिर परमेश्वर के वचनों में आधार ढूँढ़ना चाहिए—परमेश्वर के वचनों के आधार पर तय करो कि काम कैसे करना है। यही सबसे उपयुक्त और सटीक अभ्यास है। जब लोग सत्य की तलाश करते हैं और सभी के लिए एक-साथ संगति करने हेतु कोई समस्या रखते हैं और उसका उत्तर ढूँढ़ते हैं, तो ऐसा तब होता है जब पवित्र आत्मा प्रबुद्धता प्रदान करता है। परमेश्वर लोगों को सिद्धांत के अनुसार प्रबुद्ध करता है। वह तुम्हारे रवैये का जायजा लेता है। अगर तुम हठपूर्वक अपनी बात पर अड़े रहते हो, फिर चाहे तुम्हारा दृष्टिकोण सही हो या गलत, तो परमेश्वर तुमसे अपना मुँह छिपा लेगा और तुम्हारी उपेक्षा करेगा; वह तुम्हें दीवार से टकराने देगा, तुम्हें उजागर करेगा और तुम्हारी बदसूरत हालत जाहिर करेगा। दूसरी ओर, यदि तुम्हारा रवैया सही है, अपने तरीके पर अड़े रहने वाला नहीं है, न ही वह दंभी, मनमाना और अंधाधुंध रवैया है, बल्कि सत्य की खोज और उसे स्वीकार करने का रवैया है, अगर तुम इसकी सभी के साथ संगति करते हो, तो पवित्र आत्मा तुम्हारे बीच कार्य आरंभ करेगा और संभवतः वह तुम्हें किसी के वचनों के माध्यम से समझ की ओर ले जाएगा। कभी-कभी जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है, तो वह सिर्फ कुछ शब्दों या वाक्यांशों में ही, या तुम्हें समझ देकर, मामले की तह तक ले जाता है। तुम एक ही क्षण में समझ जाते हो कि जिस बात से तुम चिपके रहे हो वह गलत है, और उसी क्षण तुम यह भी समझ जाते हो कि इस काम को सबसे अच्छे तरीके से कैसे किया जा सकता है। इस स्तर तक पहुँचने के बाद, क्या तुम बुराई करने और गलती का परिणाम भुगतने से सफलतापूर्वक बच जाते हो? इस तरह की चीज को कैसे हासिल किया जाता है? वह तभी प्राप्त होती है, जब तुम्हारे पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, और जब तुम आज्ञाकारी हृदय से सत्य की खोज करते हो। जब तुम पवित्र आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हो और अभ्यास के सिद्धांत निर्धारित कर लेते हो, तो तुम्हारा अभ्यास सत्य के अनुरूप होगा, और तुम परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में सक्षम हो जाओगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों ने अभ्यास का मार्ग दिखाया। घमंड, आत्मतुष्टि और लापरवाही से छुटकारे के लिए, सबसे जरूरी बात परमेश्वर से डरनेवाला दिल, सत्य-खोजी रवैया रखना और दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग करना है। समस्याओं से सामना होने पर हमें आगे बढ़ने से पहले दूसरों के साथ चर्चा कर सहमति बनानी चाहिए। अगर दूसरे अलग राय दें तो हमें झुकना, और दूसरों के साथ मिलकर सत्य और सिद्धांत खोजना चाहिए। कोई भी पूर्ण नहीं है—कलीसिया की कोई भी परियोजना एक अकेला इंसान पूरा नहीं कर सकता, सही ढंग से करने के लिए सबको सहयोग और चर्चा की जरूरत होती है। इस नाकामी ने मुझे सही मायनों में यह समझाया कि अपने कर्तव्य में सत्य को खोजना और सिद्धांत के अनुसार काम करना कितना अहम है। इस तरह काम करने से मैं रुकावट और बाधा डालने से बच सकूँगी। अगर कोई घमंडी, आत्मतुष्ट, मनमाना और लापरवाह हो, तो कोई कितना भी चतुर क्यों न हो, अच्छे नतीजे हासिल नहीं कर सकता, और कलीसिया कार्य में रुकावटें और बाधाएँ ही डालता रहेगा। कुछ समय बाद, जब भाई-बहनों ने देखा कि मैं प्रायश्चित्त कर काम करते वक्त थोड़ा बदल चुकी थी, तो उन्होंने फिर एक बार मुझे कलीसिया अगुआ चुन लिया। यह सोचकर कि अपने कर्तव्य में मैं कैसे हमेशा अपनी मनवाती थी, जो दूसरों के लिए बहुत हानिकर था और इससे मुझे बहुत पछतावा हुआ था, मैंने परमेश्वर से वादा किया : मैं मनमानी और दूसरों को समर्पण के लिए मजबूर नहीं करूँगी, दूसरों के साथ मिल-जुलकर सहयोग करूँगी।

एक बार सहकर्मियों के साथ एक कलीसिया के सिंचन कार्य पर चर्चा करते समय, मुझे लगा कि वांग चेन अपने काम में जिम्मेदार और प्रतिभाशाली थी, उसे सिंचन उपयाजिका के रूप में विकसित किया जा सकता था। लेकिन दोनों सहयोगी सहमत नहीं थे : उन्हें लगा कि जिम्मेदार और प्रतिभाशाली कार्यकर्ता होने के बावजूद वांग चेन का जीवन अनुभव ज्यादा नहीं था और वह मसलों से सामना होने पर सत्य के सिद्धांत खोजने का काम आगे नहीं रखती थी, इसलिए वह सिंचन कार्य की देखरेख के लिए ठीक नहीं थी। यह सुनकर मेरे भीतर गुस्सा उफनने लगा : "यहाँ अगुआ मैं हूँ—क्या आप सबको लगता है कि आप मुझसे बेहतर पारखी हैं?" जैसे ही मैं अपना नजरिया रखने को थी, एकाएक मुझे एहसास हुआ कि एक बार फिर मैं अपना घमंडी स्वभाव दिखा रही थी और मनमानी करना चाहती थी। अपनी पुरानी नाकामी को याद कर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, विनम्रता से सिद्धांत के अनुसार आगे बढ़ने में मदद की विनती की। प्रार्थना के बाद मुझे एहसास हुआ कि अगर हमने सिंचन पद के लिए गलत व्यक्ति को चुन लिया, तो इससे भाई-बहनों के जीवन-प्रवेश को बहुत नुकसान होगा, इसलिए मुझे सावधानी से आगे बढ़ना होगा। इसके बाद मैंने दूसरों के साथ मिलकर लोगों को तरक्की देने और प्रशिक्षित करने के सिद्धांत खोजे, और बहन वांग चेन के साथ सभा और संगति कर जाना कि उसमें जीवन के अनुभव की सच में कमी थी, मसले आने पर वह आत्म-चिंतन कर खुद को नहीं जानती थी, उन्हें सुलझाने के लिए सत्य नहीं खोजती थी, और सिंचन कार्य के लायक नहीं थी। आखिरकार मैं दूसरों की राय से सहमत हो गई। इस तरह अभ्यास कर मुझे बहुत सुकून मिला। मनमानी करने के नतीजे सहने के अपने अनुभव को याद कर, मुझे बहुत भावनात्मक पीड़ा, पछतावा और घृणा महसूस हुई। इसने मुझे अपने घमंडी स्वभाव को पहचानने का मौका दिया, यह एहसास कराया कि कर्तव्य में सिर्फ अपने विचारों के भरोसे नहीं चलना चाहिए, मुझे परमेश्वर के इरादों को और खोजना चाहिए, सिद्धांत के अनुसार काम करना चाहिए और सबसे पहले परमेश्वर का उत्कर्ष करना चाहिए। इसी से मुझे परमेश्वर का मार्गदर्शन मिलेगा, मैं राह नहीं भटकूँगी। परमेश्वर का धन्यवाद!

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