परमेश्वर के वचन राह दिखाते हैं

23 जनवरी, 2021

परमेश्वर के वचन कहते हैं: "लोगों को उजागर करने में परमेश्वर का इरादा उन्हें हटाना नहीं, बल्कि उन्हें उन्नत बनाना है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्‍वर के वचनों पर अमल कर के ही स्‍वभाव में बदलाव हो सकता है')। अतीत में, चूँकि मैं लोगों को उजागर करने की परमेश्वर की मंशा को गलत समझती थी, इसलिए अपने कर्तव्य को पूरा करने में जब भी मैं कोई गलतियाँ करती थी या मेरे सामने कोई कठिनाई आती थी, या जब मैं असफल होती थी या मुझे पीछे हटना पड़ता था, तो मैं नकारात्मकता और गलतफ़हमी की अवस्‍था में चली जाती थी: निष्क्रियता के साथ अपने काम में ढीली पड़ जाती थी, परमेश्वर की इच्छा जानने की कोशिश नहीं करती थी और ख़ुद को जानने के लिए आत्‍म मंथन नहीं करती थी। इसके कारण मैंने सत्य को प्राप्त करने के अनेक अवसर खो दिए। परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित परिवेश, और साथ ही उसके वचनों की प्रबुद्धता तथा मार्गदर्शन के कारण, बाद में मैंने स्वयं अपने अनुभव में विचलनों को जान लिया और मुझे यह एहसास हुआ कि परमेश्वर हमें समाप्त करने के लिए उजागर नहीं करता, बल्कि हमारे जीवन को विकसित होने देने के लिए करता है। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, मैं नकारात्मक नहीं रही और न ही परमेश्वर को गलत समझा, और मुझे ऐसी राह मिल गई जिस पर चलकर मैं सत्य तक पहुंच सकती थी और उसका अभ्यास कर सकती थी।

कलीसिया में, मैं कागज़ात को व्यवस्थित करने का काम करती हूँ। कुछ समय तक, परमेश्वर के मार्गदर्शन के कारण, मैंने अपना कर्तव्य पूरा करते हुए कुछ परिणाम हासिल किए थे। अपने भाई-बहनों द्वारा जाँच करने के लिए सुसमाचार सामग्रियों को संशोधित करने और क्रमवार लगाने के बाद, उन्हें कोई समस्याएँ नहींदिखाई दीं, परंतु जब उनके ही द्वारा संकलित सुसमाचार सामग्रियों की बात आई, तो न केवल मैं कुछ समस्याओं का पता लगा सकी, बल्कि मैं उनके लिए इन समस्याओं को संशोधित करके उनका समाधान भी कर पाई। मेरे भाई और बहन अच्छी स्थिति में नहीं थे, लेकिन मैं अपने अनुभव का उपयोग करके परमेश्वर के वचनों के आधार पर उनसे संवाद कर सकी, और इस प्रकार मैंने उन्हें उनकी त्रुटिपूर्ण स्थिति से बाहर आने में सक्षम बनाया। जैसे ही मुझे इसका एहसास हुआ, मुझे बड़ा गर्व महसूस हुआ। मुझे ऐसा अनुभव हुआ जैसे मैंने अपना कर्तव्य काफी अच्छी तरह पूरा किया था, और वास्तव में कुछ प्रगति की थी। लेकिन मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि पिछले इन दो दिनों में मैंने जो सुसमाचार सामग्रियाँ क्रमवार लगाई थीं, उनमें बार-बार समस्याएँ आ रही हैं। एक दिन मेरी एक बहन ने मुझसे कहा, "तुम अपनी सुसमाचार सामग्रियों में जो वाक्य लिखते थे वे हमेशा अधिक परिष्कृत होते थे। इस दस्तावेज़ में इतनी सारी गलतियाँ कैसे हो गयी हैं?" मुझे इसे स्वीकारने में थोड़ी कठिनाई हुई क्योंकि मैं वाक्यों को संशोधित करने में निपुण रही हूँ। मैंने सोचा, "मैंने इस सुसमाचार सामग्री को संशोधित करने में कड़ी मेहनत की है, फिर भी इसके वाक्यों में समस्याएँ कैसे छूट सकती हैं?" इस बहन द्वारा दस्तावेज़ में की गई शुद्धियों को देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। हालाँकि, मैंने परमेश्वर की इच्छा जानने की कोशिश नहीं की; मैंने इस सुसमाचार सामग्री पर बस एक सरसरी निगाह दौड़ाकर ही काम ख़त्म कर दिया। अगले दिन, मेरे द्वारा संशोधित सुसमाचार सामग्री के एक अन्य भाग पर निगाह दौड़ाते हुए उसी बहन ने अचानक कहा कि संशोधित करते समय मेरी विचार-दृष्टि स्पष्ट नहीं थी और मैं इसके समग्र तर्क को ठीक से रखने में असफल रही हूँ। उसने यह भी कहा कि प्रभारी ने भी इस सामग्री को देखा था और वे उससे सहमत हैं। इसे सुनकर, मेरा दिल बैठ गया। मैंने सोचा, "ऐसा कैसे हो सकता है? मैं अपने वाक्यों में स्पष्ट विचार-दृष्टि लाने में असफल कैसे हो सकती हूँ, या सामग्री का समग्र अर्थ व्यक्त करने में चूक कैसे कर सकती हूँ? अब, न सिर्फ ये बहन सोचती है कि मेरा काम अच्छा नहीं है बल्कि प्रभारी भी ऐसा ही सोचते हैं। क्या यह इस बात को नहीं दर्शाता कि इस पूरे दस्तावेज़ में मेरी विचार-दृष्टि बहुत अधिक त्रुटिपूर्ण थी? क्योंकि मैं ऐसे सुस्पष्ट मसलों को भी नहीं पकड़ पा रही हूँ, क्या मैं पवित्र आत्मा के कार्य को खो चुकी हूँ? क्या मेरी क्षमता में कोई समस्या है? क्या मैं इस दायित्व को पूरा करने के लिए उपयुक्त नहीं हूँ?..." जितना अधिक मैं इस बारे में सोचती थी, खुद को उतना ही निर्बल महसूस करती थी; मैंने परमेश्वर को पूरी तरह गलत समझा था, और मुझे लगा कि अब मुझ पर परमेश्वर काम नहीं कर रहा और वह मेरी ओर से उदासीन हो गया है। दोपहर के भोजन के समय, मैंने अपनी बहनों को आपस में बात करते और हँसते देखा, परंतु मैं खुश नहीं हो पायी।

बस तभी, मैंने परमेश्वर की एक उक्ति का स्मरण किया: "जब लोग सत्य को नहीं समझते हैं या उसका अभ्यास नहीं करते हैं, तो वे अक्सर शैतान के भ्रष्ट स्वभाव के बीच जीवन जीते हैं। वे विभिन्न प्रकार के शैतानी फंदों में रहते हैं, वे अपना दिमाग अपने भविष्य, नाम, रुतबे और दूसरे स्वार्थों के लिये दौड़ाते हैं। लेकिन अगर तुम अपने कर्तव्य में, सत्य की खोज और अनुसरण करने में, यही रवैया अपनाते हो, तो तुम सत्य को हासिल कर पाओगे" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना कर्तव्‍य करते हुए गैरज़िम्‍मेदार और असावधान होने की समस्‍या का समाधान कैसे करें')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे झकझोर कर जगा दिया। मैं शांत हो गयी और चीज़ों पर सोचना शुरू किया। मैंने पिछले कुछ दिनों में जिन दस्तावेज़ों को संशोधित किया था, उनमें एक के बाद दूसरी समस्या निकल रही थी, लेकिन इस प्रकाशन के सामने आने के बाद भी मैंने परमेश्वर की इच्छा को बिल्कुल भी जानना नहीं चाहा। मैंने इस पर गहराई से सोचने का प्रयास भी नहीं किया कि मेरे दायित्व की पूर्ति में इन समस्याओं के आने का क्या कारण हो सकता है, क्या समस्याएं इसलिए आई हैं क्योंकि मेरे स्वभाव और मंशा में खोट थी या इसलिए क्योंकि मैंने अपने कार्य में निपुणता हासिल नहीं की है और कुछ निश्चित सिद्धांतों को अच्छे से नहीं समझा है, या इसका पता लगाने का प्रयास नहीं किया कि मैं भविष्य में ऐसी त्रुटियों को आने से कैसे रोक सकती हूँ ताकि अपने दायित्व की पूर्ति में मैं बेहतर परिणाम हासिल कर सकूं। मैंने इन व्यवहारिक प्रश्नों पर ज़रा भी ध्यान नहीं दिया था; इसके बजाय, मेरे दिमाग में बस यही चलता रहा कि अन्य लोग मेरे बारे में क्या सोचते होंगे, और क्या परमेश्वर मुझे उजागर करना और मुझे खत्म कर देना चाहता है। मैंने अपना सारा समय इन टेढ़े-मेढ़े तरीकों पर विचार करने में ही लगा दिया और सही दिशा में बिल्कुल भी विचार नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप, जितना अधिक मैं विचार करती, मैं उतना ही अधिक नकारात्मक और खिन्नचित्त हो जाती थी जिससे, अपने कर्तव्य की पूर्ति में मेरी रुचि नहीं रही। केवल तभी मुझे अपने अनुभव में विचलन दिखाई दिए। परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने के बाद, मैंने सत्य की खोज करने और अपनी समस्याओं का समाधान करने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया, बल्कि इसके बजाय अपनी प्रतिष्ठा और पद, और साथ ही, अपने भविष्य और भाग्य के बारे में सोचा। मैं शैतान के हाथों मूर्ख बन गयी थी, जिसके कारण मैं जीवन में प्रवेश प्राप्त किए बिना वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास करता रही थी। मैं ऐसी पस्त नहीं हो सकती थी। मुझे इस तरह के परिवेश में परमेश्वर की इच्छा जानने की आवश्यकता थी, खुद को जानने के लिए अपने अंदर झांकना था और परमेश्वर के वचनों के वास्तविक अर्थ में प्रवेश करना था।

मैं अपने बारे में चिंतन करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आयी: मैं हमेशा उजागर किए गए तथ्यों को स्वीकार करने में असमर्थ क्यों रहती थी? क्यों, हर बार जब मेरे कर्तव्य की पूर्ति में कोई समस्या आई, तो मुझे ऐसे ही पीड़ा होती थी? इसका वास्तव में क्या कारण था? प्रार्थना और खोज के माध्यम से, मैंने परमेश्वर के वचनों को याद किया: "मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव में एक व्यावहारिक समस्या है जिसके बारे में तुम नहीं जानते; यह एक सबसे गंभीर समस्या है, और यह हर एक व्यक्ति की मानवता में एक आम समस्या है। यह मनुष्यों का सबसे कमजोर बिंदु है। साथ ही, यह मनुष्य की प्रकृति के सार का एक तत्व है जिसका खुलासा करना और जिसे बदलना सबसे मुश्किल है। लोग स्वयं सृष्टि की वस्तु हैं। क्या सृष्टि की वस्तुएं सर्वशक्तिमान हो सकती हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकती हैं? क्या वे हर चीज़ में दक्षता हासिल कर सकती हैं, हर चीज़ को समझ सकती हैं, और हर चीज़ को पूरा कर सकती हैं? वे ऐसा नहीं कर सकतीं। हालांकि, मनुष्यों में एक कमजोरी है। जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे और हैसियत वाले लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे खुद को कितना 'सक्षम' समझते हैं, वे सभी अपने तुमको एक आकर्षक रूप में पेश करना चाहते हैं, अपने तुमको बड़े व्यक्तित्वों के छद्म वेश में छिपा लेते हैं, दिखने में पूर्ण और निष्कलंक लगते हैं, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नज़रों में, वे महान, शक्तिशाली, पूरी तरह से सक्षम, और कुछ भी कर सकने वाला समझा जाना चाहते हैं। ... जहां तक कमजोरी, कमियों, अज्ञानता, मूर्खता, या सामान्य मानवता की समझ न होने की बात है, वे इन चीज़ों को ढँक देते हैं, इनको अच्छे से लपेट देते हैं, दूसरे लोगों को इसे देखने नहीं देते, और फिर खुद को छद्म वेश में छिपाये रखते हैं। इस तरह के लोग आसमान में उड़ते रहते हैं, है कि नहीं? क्या वे सपने नहीं देख रहे हैं? वे यह नहीं जानते कि वे स्वयं क्या हैं, न ही वे सामान्य मनुष्य की तरह जिंदगी जीने का तरीका जानते हैं। उन्होंने एक बार भी व्यवहारिक मनुष्यों की तरह काम नहीं किया है। अपने व्यवहार में, अगर लोग इस तरह के मार्ग को चुनते हैं—अपने पैरों को ज़मीन पर रखने के बजाय हमेशा आसमान में उड़ते रहते हैं—तो वे निश्चित ही समस्याओं का सामना करेंगे। ईमानदारी से कहा जाये तो, अगर तुम ऐसा करते हो, फिर तुम चाहे जैसे भी परमेश्वर में विश्वास करते हो, तुम सत्य को नहीं समझ पाओगे, न ही तुम सत्य को हासिल करने में सक्षम होगे, क्योंकि जीवन में जिस तरह का मार्ग तुमने चुना है वो सही नहीं है, तुम्हारा प्रारंभिक बिंदु ही गलत है। तुम्हें ज़मीन पर चलने का तरीका सीखना होगा, और तुम्हें स्थिरता से, एक बार में एक क़दम उठाकर चलना सीखना होगा। अगर तुम चल सकते हो, तो चलो; दौड़ने का तरीका सीखने की कोशिश मत करो। अगर तुम एक बार में एक ही क़दम चल सकते हो, तो एक बार में दो क़दम चलने की कोशिश मत करो। तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनना चाहिये जिसके पैर मजबूती से ज़मीन पर टिके हों। अलौकिक, महान, या अभिमानी बनने की कोशिश मत करो।

शैतानी स्वभाव के प्रभुत्व के तहत मनुष्य, अपने अंदर कुछ महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को आश्रय देता है, जो उसकी मानवता के भीतर छिपी होती हैं। अर्थात्, मनुष्य कभी भी जमीन पर नहीं रहना चाहते हैं; वे हवा में ऊपर जाते रहना चाहते हैं। और हवा किसके रहने की जगह है? वह शैतान के लिए है, मनुष्यों के लिए नहीं। मनुष्यों को बनाते समय, परमेश्वर ने उन्हें जमीन पर रखा ताकि तेरा दैनिक जीवन पूरी तरह से सामान्य हो सके और तेरी जीवनशैली अनुशासित हो, और ताकि तू सामान्य ज्ञान सीख सके कि कैसे इंसान बना जाए, और सीख सके कि अपना जीवन कैसे जीना है और परमेश्वर की आराधना कैसे करनी है। परमेश्वर ने तुझे पंख नहीं दिए; उसने तुझे हवा में रहने की अनुमति नहीं दी। जिनके पंख हैं वे परिंदे हैं, और जो हवा में इधर-उधर भटक रहे हैं वे शैतान और दुष्ट आत्माएँ और गंदे हैवान हैं। वे इंसान नहीं हैं! अगर लोग लगातार इस तरह की महत्वाकांक्षाएं रखते हैं, हमेशा अपने आपको असाधारण और उत्कृष्ट, दूसरों से अलग और खास बनाना चाहते हैं, तो यह एक समस्या है! सबसे पहले, तुम्हारी सोच का स्रोत गलत है। 'असाधारण और उत्कृष्ट'—यह किस तरह की सोच है? 'दूसरों से श्रेष्ठ होना,' 'सभी तुलनाओं को चुनौती देना,' 'दोषरहित और निष्कलंक होना' ..." ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। "सामान्य परिस्थितियों में, कोई भी हर मामले में अच्छा नहीं होता, कोई भी 'हर काम में माहिर' नहीं होता। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हारा मस्तिष्क कितना विकसित है, तुम्हारी अंतर्दृष्टि कितनी व्यापक है, ऐसी चीज़ें हमेशा होंगी जिन्हें तुम नहीं समझते हो या जिनके बारे में तुम नहीं जानते, व्यापार या कौशल जिन्हें तुम नहीं जानते; हर कारोबार या नौकरी के हर मामले में, तुम्हारे अपने ज्ञान में हमेशा कोई न कोई खामी होगी जिसके बारे में तुम नहीं जानते, ऐसी चीज़ें हमेशा होंगी जिन्हें करने में तुम सक्षम नहीं हो, या जो तुम्हारी क्षमता से परे हैं" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्‍वर के वचनों पर अमल कर के ही स्‍वभाव में बदलाव हो सकता है')। केवल परमेश्वर के वचनों पर विचार करने और मेरी स्थिति के साथ उनकी तुलना करने के बाद ही मुझे पता चला कि मैं कभी उसके द्वारा उजागर किए जाने को स्वीकार नहीं कर पायी थी। इसका कारण यह था कि मेरा अभिमानी शैतानी स्वभाव मुझ पर हावी हो गया था; मैंने हमेशा एक पूर्ण, दोषरहित, उच्च, साहसी व्यक्ति बनने की कोशिश की थी। मैं चाहे जहाँ जाऊँ या चाहे जहाँ मैं अपना कर्तव्य पूरा कर रही होऊँ, मैं हमेशा सबसे उत्कृष्ट, सर्वोच्च व्यक्ति बनना चाहती थी। मुझे ऐसा लगता था कि सफल होने के लिए मुझे इसी तरह का व्यक्ति बनना होगा, नहीं तो मैं बेकार और असफल हो जाऊँगी। इसलिए, हर बार जब कर्तव्य को पूरा करते समय कोई समस्या पैदा हुई, तो मैंने शांति से इसका सामना नहीं किया, परमेश्वर द्वारा इस तरह से उजागर किए जाने को स्वीकार नहीं किया, और खुद की कमियों को कबूल नहीं किया। इसके बजाय, मैं हककी-बक्की हो गयी और सोचा कि मुझे कोई गलती नहीं करनी चाहिए थी, मैं सोचती रही कि ऐसा कैसे हो गया—यहाँ तक कि मैं नकारात्मकता और गलतफ़हमी की स्थिति में रहने लगी थी, और अपने साथ उचित व्यवहार करने में असमर्थ थी। मैं वास्तव में अपने आप को बहुत अच्छी तरह से नहीं जानती थी, और अपने बारे में कुछ ज़्यादा ही ऊँची राय रखती थी! परमेश्वर के वचनों से यह स्पष्ट हो गया कि मैंने हमेशा एक पूर्ण, दोषरहित, उच्च व्यक्ति बनने की कोशिश की थी; यह पूरी तरह शैतान की महत्वाकांक्षा और इच्छाओं के कारण हुआ था। शैतान मुझे परेशान कर रहा था और मुझे भ्रष्ट बना रहा था, जबकि वास्तव में मैं सिर्फ सृजन की एक वस्तु थी, जो कभी भी पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकती थी। परमेश्वर ने हमसे कभी भी ऊंचा या पूर्ण होने की अपेक्षा नहीं की है; वह चाहता है कि हम ज़मीन से जुड़े रहें, स्थिर प्रगति करें और पूरी ईमानदारी के साथ आचरण करें। अपने स्तर और हैसियत को बुनियाद के रूप में उपयोग करते हुए, मुझे अपना कार्य करना चाहिए, परमेश्वर के काम के प्रति समर्पित होना सीखना चाहिए, और अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए अपने सर्वश्रेष्ठ प्रयास करने चाहिए; केवल तभी मुझमें ऐसी तर्कसंगतता आएगी जो सृजन की वस्तु के अनुरूप होगी। कोई भी पूर्ण या सिद्ध नहीं होता है; सभी साधारण लोगों के अपने दोष और ऐसे ढंग होते हैं जिनमें वे मानक स्तर के नहीं होते। वे विचलन या समस्याएँ जो मेरे कर्तव्य की पूर्ति में सामने आई थीं, वे बिल्कुल सामान्य थीं, और वास्तव में उजागर किए जाने से, मुझे अपनी कमियों का पता चल गया था। केवल निरंतर सुधार लाने और उन कमियों को दूर करने से ही मैं आगे बढ़ पाऊंगी और अपना कर्तव्य और बेहतर ढंग से पूरा कर सकूंगी। अगर मैं अपनी समस्याओं और कमियों से ठीक से नहीं निपट सकी, और उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश नहीं की, तो भला मैं कैसे प्रगति कर सकती थी? केवल तभी मुझे अहसास हुआ कि इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ मुझ पर कितनी हावी थीं। मैं इतनी दंभी हो गयी थी कि मुझे बिल्‍कुल आत्म-ज्ञान नहीं था; एक पूर्ण व्यक्ति बनने की मेरी खोज पूरी तरह परमेश्वर की इच्छा के विपरीत थी और इस तरह, मैं संभवतः उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन प्राप्त नहीं कर सकती थी।

मैंने फिर से परमेश्वर के वचनों को पढ़ा: "लोगों को उजागर करने में परमेश्वर का इरादा उन्हें हटाना नहीं, बल्कि उन्हें उन्नत बनाना है। इतना ही नहीं, कभी-कभी तुम सोचते हो कि तुम्हें उजागर किया जा रहा है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होता। अक्सर, क्योंकि लोगों की क्षमता कम है और वे सत्य को नहीं समझते हैं, साथ ही, उनका स्वभाव अभिमानी है, वे खुद का दिखावा करना पसंद करते हैं, उनके पास एक विद्रोही स्वभाव है, वे बेईमान, लापरवाह, और उदासीन हैं, वे अपना काम खराब तरीके से करते हैं, और अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभाते। दूसरी ओर, कभी-कभी तुम उन सिद्धांतों को याद नहीं रखते हो जो तुम्हें सिखाये गये हैं, तुम उन्हें एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकल जाने देते हो। तुम वही काम करते हो जिससे तुम्हें खुशी मिलती है, दूसरों के साथ ज़्यादा संगति करने से पहले काम कर देते हो और अपने तुम एक कानून बन जाते हो। तुम जो करते हो उसका कोई बड़ा असर नहीं पड़ने वाला और यह सिद्धांत के विपरीत जाता है। इस मामले में, तुम्हें अनुशासित होना चाहिये—लेकिन यह कैसे कहा जा सकता है कि तुम्हें हटा दिया गया है। तुम्हें इसे सही तरीके से देखना चाहिए। इसे देखने का सही तरीका क्या है? उन मामलों में, जहां तुम सत्य को नहीं समझते, तुम्हें इसकी खोज करनी चाहिये। यह सिर्फ़ एक सिद्धांत की समझ की खोज करना नहीं है। तुम्हें परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिये, और परमेश्वर का परिवार कोई काम कैसे करता है इसके पीछे का सिद्धांत तुम्हें समझना चाहिए। सिद्धांत क्या है? सिद्धांत कोई मत नहीं है। इसके कई मानदंड हैं, और तुम्हें ऐसे मामलों के लिए कार्य की व्यवस्थाओं पर किये गये आख़िरी फैसले को जानना चाहिये, ऐसे काम को करने के संबंध में ऊपर से क्या आदेश दिया गया है, इस तरह के कर्तव्य को पूरा करने के बारे में परमेश्वर के वचन क्या कहते हैं, और परमेश्वर की इच्छा को कैसे संतुष्ट किया जाये। परमेश्वर की इच्छा को संतुष्ट करने के क्या मानदंड हैं? सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना। व्यापक निर्देश परमेश्वर के परिवार के हितों को और परमेश्वर के परिवार के कार्य को सबसे पहले रखना है। इससे भी स्पष्ट बात यह है कि सभी पहलुओं में, कोई बड़ी समस्या नहीं होनी चाहिये, और परमेश्वर पर कोई शर्मिंदगी की बात पड़ने नहीं देनी चाहिये। अगर लोग इन सिद्धांतों में महारत हासिल कर लेते हैं, तो क्या उनकी चिंताएं धीरे-धीरे कम हो जाएंगी? और क्या उनकी गलतफहमियां भी कम हो जाएंगी? एक बार जब तुम अपनी गलतफहमियों को दूर कर लेते हो और परमेश्वर के बारे में कोई अनुचित विचार नहीं रखते हो, तो नकारात्मक चीज़ें धीरे-धीरे तुम्हारे अंदर प्रभुत्व की स्थिति में नहीं रह जाएंगी, और तुम ऐसे मामलों पर सही तरीके से गौर करोगे। इस प्रकार, सत्य की खोज करना और परमेश्वर की इच्छा को समझने की कोशिश करना महत्वपूर्ण है" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'परमेश्‍वर के वचनों पर अमल कर के ही स्‍वभाव में बदलाव हो सकता है')। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आ गया कि उसने मुझे खत्म करने के लिए मुझे उजागर नहीं किया था, बल्कि इसलिए किया था ताकि मैं अपने कर्तव्य की पूर्ति में कमियों का पता लगा सकूँ और यह जान सकूँ कि मेरे भ्रष्ट स्वभाव के कौन से हिस्से अभी भी मुझे मेरे कर्तव्य को पूरा करने से रोक रहे हैं, ताकि मैं इन मुद्दों को समय से हल कर सकूँ, अपने काम के परिणामों को लगातार ऊँचा उठाने में सक्षम बन सकूँ, और जल्द से जल्द अपने जीवन स्वभाव को बदल सकूँ। परमेश्वर की इच्छा को समझने के बाद, मैंने अपने आप को शांत किया और हाल में सुसमाचार सामग्री के मेरे दोनों संशोधनों में आई समस्याओं के कारण को खोजा। इसके बारे में बहुत सावधानी से सोचने पर, मुझे अहसास हुआ कि जब भी मैंने अपने दस्तावेज़ों की व्यवस्था में कुछ सुधार देखा, मैं आत्म-प्रशंसा और आत्म-संतुष्टि में डूब गयी। मैं अब प्रगति करने के लिए प्रयास नहीं कर रही थी, और बाद में सामग्रियों को सँभालने में मैंने बहुत लापरवाही की थी, बिल्कुल अनिच्छा से काम किया था। सामगियों में शामिल सत्य के विवरण के संबंध में, उन्हें समझ न पाने पर भी मैंने उनके पीछे के सिद्धांतों की खोज नहीं की थी; मुझे उनके अर्थ के बारे में बस मोटा-मोटी समझ थी, और मैं अपनी भ्रम की स्थिति में काम करती रही। ऐसे में, क्या यह कोई हैरानी की बात थी कि मेरे कर्तव्य की पूर्ति में समस्याएँ उभर आई थीं? इस पर सोच-विचार करते हुए, मुझे अहसास हुआ कि अगर मैं अपने स्वयं के भ्रष्टाचार को हल करने के लिए सत्य की खोज करूँ और अपने कार्यों को सावधानी से पूरा करने के लिए अधिक प्रयास करूँ, तब वास्तव में इन समस्याओं से बचा जा सकता है। तथ्यों को उजागर करके, परमेश्वर ने मुझे मेरे भ्रष्ट स्वभाव और कर्तव्य पूर्ति करने में मेरे दृष्टिकोण को पहचानने का अवसर दिया था, ताकि मैं इन समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज कर सकूँ। क्या यही बात परमेश्वर का मेरे प्रति प्रेम नहीं थी? इस अहसास ने मेरे हृदय को उज्ज्वल कर दिया: मैंने समझ लिया कि मुझे परमेश्वर को गलत समझना बंद करना चाहिए और मुझे अपने कर्तव्य को पूरा करने में अपने हृदय को समर्पित करने के लिए जल्दी से अपनी स्थिति में बदलाव लाना चाहिए। उसके बाद, मैंने उस सुसमाचार सामग्री में तर्क का पता लगाने और सिद्धांतों के आधार पर, उसके संशोधन की दिशा को निर्धारित करने के लिए प्रभारी व्यक्ति के साथ मिलकर काम किया। अगले दिन, उस पर फिर से नज़र दौड़ाते हुए, मुझे आश्चर्य हुआ कि कुछ हाइलाइट्स जोड़े गए थे, और जब मैंने उसे संशोधित कर लिया, तब तक मैं पहले से काफी अधिक आश्वस्त और सहज महसूस कर रही थी।

इस अनुभव ने मुझे एहसास दिलाया कि यदि मेरे कर्तव्य की पूर्ति में विचलन या समस्याएँ मौजूद हैं, तो मुझे डरना नहीं चाहिए, अगर परमेश्वर मुझे उजागर करता है तो भी मुझे नहीं डरना चाहिए। भयावह यह होगा कि, उजागर होने पर, अगर मैं अपनी समस्याओं को हल करने के लिए सत्य की खोज नहीं करती हूँ, और फिर लगातार खुद को सीमित करते हुए नकारात्मकता की स्थिति में रहती हूँ, और इस वजह से सत्य को प्राप्त करने के अनेक अवसर गँवा देती हूँ और जीवन में प्रगति को विलंबित कर देती हूँ। अब से, चाहे मुझे जिन भी बाधाओं या असफलताओं का सामना करना पड़े, मैं हमेशा परमेश्वर के समक्ष सत्य की खोज करना, खुद को जानने के लिए आत्म-चिंतन में संलग्न होना, अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल करने के लिए परमेश्वर के वचनों का उपयोग करना, सत्य में प्रवेश का मार्ग तलाश करना चाहती हूँ। केवल इस तरीके से अभ्यास करने से ही मैं जीवन में अधिक से अधिक प्रगति कर सकूँगी और अपने कर्तव्य को अधिक से अधिक दक्षता से पूरा कर सकूँगी।

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