परमेश्वर की सेवा करते हुए धोखेबाजी में क्यों संलिप्त होना?

20 दिसम्बर, 2017

हू किंग सुज़ोउ शहह, अन्हुई प्रांत

जब मैंने परमेश्वर के वचनों को यह कहते हुए देखा: "जो अगुवाओं के रूप में सेवा करते हैं वे हमेशा अधिक चतुरता प्राप्त करना चाहते हैं, बाकी सब से श्रेष्ठ बनना चाहते हैं, नई तरकीबें पाना चाहते हैं ताकि परमेश्वर देख सके कि वे वास्तव में कितने सक्षम हैं। हालाँकि, वे सत्य को समझने और परमेश्वर के वचन की वास्तविकता में प्रवेश करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते हैं। वे हमेशा दिखावा करना चाहते हैं; क्या यह निश्चित रूप से एक अहंकारी प्रकृति का प्रकटन नहीं है?" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य से रहित होकर कोई परमेश्वर को नाराज़ करने का भागी होता है')। तो मैंने खुद से सोचा: चतुर नई चालें ढूँढने की कोशिश करने का ऐसा उत्साह किसके पास है? कौन नहीं जानता है कि परमेश्वर का स्वभाव मनुष्य के अपमान को बर्दाश्त नहीं करता है? मैं निश्चित रूप से हिम्मत नहीं करूँगी! मैं व्यक्तिगत रूप से मानती थी कि मेरे पास परमेश्वर के लिए श्रद्धा से भरा दिल है, और अपने काम में, मैंने चालें ढूँढने की कोशिश करने की हिम्मत नहीं की। हालाँकि, केवल तथ्यों के बारे में परमेश्वर के प्रकाशन से ही मुझे एहसास हुआ कि नई चालें ढूँढ़ने की कोशिश करना वह नहीं है जिसे करने की हिम्मत कोई करता है या नहीं करता है—यह पूरी तरह से एक अहंकारी प्रकृति द्वारा निर्धारित होता है।

कुछ समय पहले, मुझे पता चला था कि एक ऐसी कलीसिया थी जिसके पास ऐसा अगुआ थी जो योग्य नहीं थी। वह सम्मेलनों के दौरान सो जाती थी और उसकी प्रकृति दयालु नहीं थी, जबकि उसके साथी के पास कई जिम्मेदारियाँ थीं। इसलिए, मैं इस कलीसिया के अगुआ को बदलना चाहती थी और उसके साथी को कलीसिया के अगुआ का काम करने की अनुमति देना चाहती थी। हालाँकि, मुझे इस बात की चिंता थी कि इससे कलीसिया की अगुआ नकारात्मक, कमज़ोर हो जाएगी और अपनी निष्ठा को रोक देगी, या कलीसिया में चीजों को बाधित करेगी। बहुत विचार करने के बाद, मैंने "चतुर योजना" के बारे में सोचा। मैं चुपचाप उसके साथी को पूरे काम करने में लगा दूँगी; कलीसिया द्वारा व्यवस्थित हर चीज़ की देखभाल उसके साथी द्वारा की जाएगी, और कलीसिया की अगुआ नाममात्र की प्रमुख से ज्यादा कुछ नहीं होगी। इसलिए मैंने न तो परमेश्वर की खोज की और न ही कार्य व्यवस्थाओं और कार्य के सिद्धांतों पर विचार किया। मैंने केवल जिला अगुआ के साथी और जिला उपदेशक को सूचित करने के बाद यह कर दिया था। उसके बाद, यह विश्वास करते हुए कि मैं बहुत चतुर हूँ और मैंने काम में असल में बुद्धिमत्ता दिखाई है, मैं आत्म-अभिनंदन करने लगी थी। मैं सोचती थी कि: अगर अगुआ को इस बारे में पता चला, तो वह निश्चित रूप से कहेगा कि मैं अपने काम में सक्षम हूँ, और हो सकता है कि वह मुझे अंत में प्रोन्नत भी कर देगा। लेकिन मैंने यह कल्पना नहीं की थी कि जब मैं इस बारे में अगुआ से बताऊँगी, तो वह कहेगा कि: "यह तो तुम नई तरकीबें ढूँढ़ने की कोशिश कर रही हो। कार्य व्यवस्थाओं में कहाँ कहा गया कि तुम ऐसा कर सकती हो? एक अयोग्य अगुआ को बदला जा सकता है, लेकिन हम अपनी खुद की इच्छा के अनुसार कार्य नहीं कर सकते हैं और कलीसिया के सिद्धांतों को एक ओर नहीं रख सकते हैं। यह परमेश्वर के विरुद्ध गंभीर प्रतिरोध है। ..." अगुआ से यह संवाद सुनने के बाद, मैं भौंचक्का रह गई थी। मैंने कभी भी ऐसी कल्पना नहीं की थी कि मैं अनजाने में नई तरकीबें ढूँढ़ने की कोशिश करूँगी। जिसे मैं एक "चतुर योजना" समझ रही थी, वह वास्तव में परमेश्वर के विरुद्ध गंभीर प्रतिरोध था, और जब मैंने तथ्यों का सामना किया तो मैं वाकई शर्मिंदा हो गई थी। उस समय, मैं परमेश्वर के कथनों के बारे में सोचने के अलावा और कुछ नहीं कर सकी थी: "उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारे भीतर अहंकार और दंभ मौजूद हुआ, तो तुम परमेश्वर की अवहेलना करने से खुद को रोकना असंभव पाओगे; तुम्हें महसूस होगा कि तुम उसकी अवहेलना करने के लिए मज़बूर किये गये हो। तुम ऐसा जानबूझ कर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे और अंततः परमेश्वर के स्थान पर बैठाएंगे और स्वयं के लिए गवाही दिलवाएंगे। अंत में तुम आराधना किए जाने हेतु सत्य में अपने स्वयं के विचार, अपनी सोच, और अपनी स्वयं की धारणाएँ बदल लोगे। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। यह सच था। इस समस्या का सामना करते समय, मैंने परमेश्वर की खोज नहीं की थी, न ही मैंने कलीसिया के सिद्धांतों के माध्यम से इस पर विचार किया था। मैंने बस अपनी इच्छा के अनुसार कार्य किया था। मैंने अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति को देखा, कि मेरे पास परमेश्वर के लिए आदर वाला दिल नहीं था, और मेरे दिल में परमेश्वर के लिए कोई स्थान नहीं था। केवल उस समय ही मुझे एहसास हुआ था कि नई तरकीबें खोजना ऐसा कुछ नहीं था जिसे करने की मैंने हिम्मत की थी या नहीं की थी, बल्कि यह ऐसा कुछ था जो मेरी खुद की अहंकारी प्रकृति द्वारा निर्धारित किया गया था। अगर मैं अपनी खुद की अहंकारी प्रकृति को नहीं पहचानती, तो मैं कभी भी खुद को नहीं रोक पाती। मैं शायद किसी दिन परमेश्वर का विरोध करने के लिए ऐसा कुछ भी कर देती, जिससे उसे घृणा और नफ़रत महसूस हो जाती। केवल उस समय ही मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर की सेवा करना एक सरल बात नहीं है। यदि मुझमें सत्य नहीं है, अगर स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं है, अगर मैं अपनी स्वयं की अहंकारी प्रकृति को नहीं पहचानती हूँ, तो मैं अनजाने में परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर सकती हूँ। यह वास्तव में बहुत खतरनाक है! परमेश्वर की प्रबुद्धता के कारण, मैं इस घटना से समझ गई कि क्यों परमेश्वर के घर ने कार्य व्यवस्थाओं और सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना हमारे लिए बार-बार आवश्यक बनाया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने सत्य नहीं पाया है और हम निश्चित नहीं हो सकते कि हमारे सारे दृष्टिकोण सही हैं और जो कलीसिया और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए लाभकारी है या नहीं, लेकिन हमारी प्रकृति हमेशा अहंकारी होती है और हम सभी दिखावा करने की, परमेश्वर को दिखाने के लिए अपनी क्षमताओं को "प्रकाश में लाने" की कोशिश करते हैं। इसलिए, केवल कार्य व्यवस्था के अनुसार ईमानदारी से काम करके ही हम स्वयं की रक्षा कर सकते हैं।

हे परमेश्वर! मेरी अहंकारी और दंभी प्रकृति को प्रकट करने के लिए तेरा धन्यवाद। आज के दिन से आगे, मैं इसे निश्चित रूप से एक चेतावनी के रूप में लूँगी और अपनी स्वयं की प्रकृति को जानने का अधिक प्रयास करूँगी। मैं सख़्ती से कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार कार्य करूँगी। मैं सच में ऐसी व्यक्ति बनूँगी जिसके पास तर्क हो, जो सिद्धांतों के मुताबिक चलती हो, और जिसके पास तेरे लिए आदर का दिल हो।

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