जब मैंने अपना डर दूर किया
कुछ समय पहले, कलीसिया के फिल्मांकन कार्य के लिए हमें कुछ चित्र बनाने थे। मेरे सहयोगी भाई साइमन ने एक चित्र बनाकर समीक्षा के लिए दिया। अगुआ ने चित्र को काफी कच्चा बताकर उसमें कमियाँ निकालीं और इसके लिए साफ तौर पर साइमन के अनमने और लापरवाह रवैये को दोष दिया। बाद में मैंने इस बारे में साइमन से पूछा। उसने कहा कि बहुत ज्यादा काम होने के कारण उसे बारीकी में जाने का समय नहीं मिला। कोई जवाब दिए बिना मैंने इतना ही कहा कि भविष्य में और अधिक सावधान रहे और फिल्म बनाने का काम इतना महत्वपूर्ण है कि हम लापरवाह होकर संशोधनों में समय नहीं गँवा सकते। कुछ समय बाद, साइमन के दूसरों चित्रों में भी सैद्धांतिक गलतियाँ दिखने लगीं। इतने लंबे प्रशिक्षण के बाद भी ऐसी बुनियादी गलतियाँ और लापरवाही होने पर अगुआ पहले उससे निपटा और अंत में उसे काम से बर्खास्त कर दिया। उसके अंजाम ने मुझे आतंकित कर दिया। यह बात पूरी तरह मेरे गले नहीं उतरी। सिर्फ दो गलतियाँ करने पर अगुआ ने साइमन को बर्खास्त कर दिया, क्या यह कुछ ज्यादा ही सख्ती नहीं थी? इससे पहले कि समझ पाती, मुझे नासमझी और डर ने घेर लिया। मुझे लगा, मेरे काम में कोई बड़ी गलती नहीं चलेगी, छोटी गलतियों के लिए मुझसे निपटा जाएगा और शायद बड़ी के लिए बर्खास्त कर दी जाऊं और अपना कर्तव्य पूरा न कर पाई तो बचा लिए जाने की सारी उम्मीद खो बैठूँगी। मुझे और भी सजग होने की जरूरत थी।
कुछ ही समय बाद, मैं अपने चित्र जाँचने के लिए अगुआ को भेजने से डरने लगी। सोचा कि सिर्फ दो गलतियाँ करने पर कैसे साइमन को बर्खास्त कर दिया गया, अगर मेरे चित्र में भी सैद्धांतिक त्रुटियाँ निकलीं तो शायद अगुआ कह दे कि ठीक से काम न करने के कारण मुझे समूह अगुआ नहीं बने रहना चाहिए। क्या मुझे साइमन की तरह बर्खास्त कर दिया जाएगा? इस बारे में जितना ज्यादा सोचा, उतनी ही परेशान हो गई। मैं असहज हो गई और जो काम हाथ में था उसे पूरा करने का मन भी नहीं किया। अपनी हालत ठीक न देखकर, मैंने फौरन प्रार्थना की और समस्या हल करने के लिए परमेश्वर से मार्गदर्शन माँगा। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, “कभी-कभी, परमेश्वर तुम्हें उजागर करने या तुम्हें अनुशासित करने के लिए किसी निश्चित मामले का उपयोग करता है। क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हें निकाल दिया गया है? क्या इसका मतलब यह है कि तुम्हारा अंत आ गया है? नहीं। इसका मतलब यह है कि जैसे किसी बच्चे ने अवज्ञा की है और उसने गलती की है; उसके माता-पिता उसे डांट और दंडित कर सकते हैं, लेकिन अगर वह अपने माता-पिता के इरादे न भाँप पाए या यह न समझ पाए कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, तो वह उनके इरादे को गलत समझ लेगा। उदाहरण के लिए, माता-पिता बच्चे से कह सकते हैं, ‘घर से अकेले मत निकलना और अकेले बाहर मत जाना,’ लेकिन वह ध्यान नहीं देता और अकेले ही बाहर निकल जाता है। जब माता-पिता को पता चलता है, तो वे अपने बच्चे को डांटते हैं और सजा के तौर पर उसे अपने व्यवहार पर विचार करने के लिए एक कोने में खड़ा कर देते हैं। बच्चा अपने माता-पिता के इरादों को न समझकर संदेह करना शुरू कर देता है : ‘क्या मेरे माता-पिता अब मुझे नहीं चाहते? क्या मैं सच में उनकी संतान हूँ? कहीं उन्होंने मुझे गोद तो नहीं लिया है?’ वह इन सब बातों पर विचार करता है। जबकि माता-पिता के वास्तविक इरादे क्या हैं? माता-पिता ने कहा कि ऐसा करना बहुत खतरनाक है और उन्होंने अपने बच्चे से ऐसा नहीं करने को कहा। लेकिन बच्चे ने बात नहीं मानी और उनकी बात को अनसुना कर दिया। इसलिए माता-पिता को अपने बच्चे को सही शिक्षा देने और उसे इससे सीखने के लिए सजा देनी पड़ी। ऐसा करके माता-पिता क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या सिर्फ इतना कि बच्चे को सीख मिले? नहीं, उनका मकसद उसे केवल सीख देना नहीं है। माता-पिता का उद्देश्य है कि बच्चा वैसा ही करे जैसा उससे करने को कहा जाए, उनकी सलाह के अनुसार व्यवहार करे, वह ऐसा कुछ न करे जिससे उनकी अवज्ञा हो या उन्हें चिंता हो, इसके जरिए वे यह परिणाम हासिल करना चाहते हैं। यदि बच्चा अपने माता-पिता की बात सुनता है, तो इससे यह जाहिर होता है कि बच्चा बातों को समझता है जिससे उसके माता-पिता चिंतामुक्त हो सकते हैं। क्या तब वे उससे संतुष्ट नहीं होंगे? क्या उन्हें अब भी उसे इस तरह से दंडित करने की आवश्यकता होगी? नहीं, आवश्यकता नहीं होगी। परमेश्वर में विश्वास करना ऐसा ही होता है। लोगों को परमेश्वर के वचनों पर ध्यान देना और उसके हृदय को समझना सीखना चाहिए। उन्हें परमेश्वर को गलत नहीं समझना चाहिए। दरअसल, कई मामलों में लोगों की चिंता अपने हितों से ही उपजती है। आम तौर पर, यह भय होता है कि उनका कोई परिणाम नहीं होगा। वह मन ही मन सोचता है, ‘अगर परमेश्वर मुझे उजागर कर देता है, निकाल देता है और नकार देता है, तो क्या फर्क पड़ता है?’ यह तुम्हारे द्वारा परमेश्वर को गलत समझना है; ये केवल तुम्हारे अपने विचार हैं। तुम्हें पता लगाना होगा कि परमेश्वर का इरादा क्या है। परमेश्वर लोगों को निकालने के लिए उजागर नहीं करता। लोगों को इसलिए उजागर किया जाता है ताकि उन्हें अपनी कमियों का, गलतियों का और अपनी प्रकृति के सार का पता चले, ताकि वे खुद को जानकर सच्चा पश्चात्ताप करने में समर्थ हो सकें; इस तरह, लोगों को उजागर इसलिए किया जाता है ताकि उनका जीवन विकसित हो सके। अच्छी समझ के बिना, लोग परमेश्वर की गलत व्याख्या करके नकारात्मक और कमजोर हो सकते हैं। वे बुरी तरह निराश भी हो सकते हैं। वास्तव में, परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने का अर्थ यह नहीं है कि लोगों को निकाल ही दिया जाएगा। यह इसलिए है ताकि तुम अपनी भ्रष्टता को जान सको और यह तुमसे पश्चात्ताप करवाने के लिए है। अक्सर ऐसा होता है कि लोग विद्रोही हो जाते हैं, और जब वे भ्रष्टता दिखाते हैं तो समाधान ढूँढ़ने के लिए सत्य की खोज नहीं करते, ऐसे में परमेश्वर को उन्हें अनुशासित करना पड़ता है। और इसलिए कभी-कभी, वह लोगों को उजागर कर उनकी कुरूपता और दयनीयता को प्रकट कर देता है, ताकि वे खुद जानें, इससे उनके जीवन में विकास होता है। लोगों को उजागर करने के दो अलग-अलग निहितार्थ हैं : दुष्ट लोगों के लिए, उजागर किए जाने का अर्थ है उन्हें निकाला जाना। जो लोग सत्य स्वीकार लेते हैं, उनके लिए यह एक अनुस्मारक और एक चेतावनी है; उन्हें आत्मचिंतन करने और अपनी वास्तविक स्थिति को देखने के लिए मजबूर किया जाता है ताकि वे पथभ्रष्ट और लापरवाह न रहें, क्योंकि अगर उनका रवैया वैसा ही रहा, तो यह खतरनाक होगा। इस तरह से लोगों को उजागर करना उन्हें चेताना है, ताकि वे अपने कर्तव्य निर्वहन में भ्रमित और लापरवाह न हों, अपने कार्य को हल्के में न लें, थोड़े-बहुत प्रभावी होकर ही संतुष्ट न हो जाएँ, यह न सोचने लगें कि उन्होंने अपना काम एक स्वीकार्य मानक तक पूरा कर लिया है—जबकि सच्चाई यह है कि परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार मापने पर वे मानक से बहुत दूर होते हैं, फिर भी उनमें आत्मसंतुष्टि का भाव होता है और सोचते हैं कि वे ठीक-ठाक कर रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में, परमेश्वर लोगों को अनुशासित करता है, उन्हें सावधान कर चेतावनी देता है। कभी-कभी, परमेश्वर उनकी कुरूपता उजागर करता है—जो कि स्पष्ट रूप से उनके लिए एक चेतावनी होती है। ऐसे में तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए : इस तरह से अपने कर्तव्य का पालन करना ठीक नहीं है, इसमें विद्रोह शामिल होता है, बहुत अधिक नकारात्मकता होती है, बिल्कुल अनमना होता है। यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करते हो, तो तुम्हें दंडित किया जाएगा। परमेश्वर जब तुम्हें अनुशासित कर उजागर करता है, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि तुम्हें निकाल दिया जाएगा। इस बात को सही ढंग से समझा जाना चाहिए। यहाँ तक कि अगर तुम्हें निकाल भी दिया जाए, तो तुम्हें इसे स्वीकारना चाहिए और इसके प्रति समर्पित होना चाहिए, और जल्दी से आत्मचिंतन करके पश्चात्ताप करना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य का अभ्यास करके और परमेश्वर की आज्ञा मानकर ही व्यक्ति अपने स्वभाव में बदलाव हासिल कर सकता है)। उसके बाद, मैंने जाना कि उजागर होने का मतलब यह नहीं है कि आपको बहिष्कृत किया जा रहा है। जैसे, जब बच्चे कोई गलती करते हैं, तो माता-पिता उन्हें डाँटते हैं ताकि वे बात सुनें, सबक लें और उद्दंड न बनें। अगर बच्चा आज्ञाकारी हो तो माता-पिता चैन से रहते हैं और जाहिर है, वे बच्चे को सजा नहीं देंगे। हम सत्य नहीं समझते और बिना सिद्धांत के काम करते हैं, हमारा स्वभाव भी भ्रष्ट होता है, इसलिए अपने काम में गलतियों से बचना मुश्किल है। कभी-कभी, हम काबिलियत की कमी और सत्य न समझने के कारण चीजों को साफ-साफ नहीं देख पाते; तो कभी हम जिद और मनमानी करते हैं और अपने अहंकारी स्वभाव के कारण सिद्धांतों का उल्लंघन कर कलीसिया के काम में खलल डाल देते हैं; कभी हमारे अनमने और लापरवाह रवैये के कारण काम ठीक से नहीं होता है; इत्यादि। उजागर किए जाने के बाद ही हम अपनी भ्रष्टता और कमियों को देख सकते हैं, सत्य खोज कर अपनी भरपाई कर सकते हैं और चीजों को सिद्धांत के अनुरूप संभाल सकते हैं। इसके पीछे परमेश्वर के नेक इरादे होते हैं। मैं परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझती थी। साइमन के बर्खास्त होने से मैं परेशान और भयभीत हो गई। डरने लगी कि छोटी-सी चूक के लिए भी बर्खास्त कर दी जाऊँगी और अगर कोई बड़ी गलती की तो बहिष्कृत कर दी जाऊँगी और मुझे बचाया नहीं जा सकेगा। परमेश्वर से डरकर मैं उसे गलत समझने लगी। इससे मुझे बहुत ग्लानि हुई। मैं साइमन की बर्खास्तगी के कारणों के बारे में सोचने लगी। मुझे याद आया कि अगुआ ने दो बार उसकी गलतियाँ बताई थीं। पहली बार, अगुआ ने कहा था कि उसके विचार घिसे-पिटे और डिजाइन भी बहुत कच्चे हैं, उसने कई बुनियादी तकनीकी मसलों का ख्याल नहीं रखा है, और इसका स्पष्ट कारण साइमन का अनमना रवैया था। अगुआ ने यह बात इस उम्मीद के साथ कही कि साइमन ज्यादा सावधानी बरतकर ध्यान देगा और काम अच्छा करेगा। लेकिन साइमन ने गंभीरता नहीं बरती, समय सीमा के बहाने बनाता रहा और उसके बाद भी इस मामले में सोच-विचार या समीक्षा नहीं की। दूसरी बार भी डिजाइन में गड़बड़ी उसी की असावधानी और लापरवाही के कारण हुई। उसने न तो अपने काम की जाँच ठीक से की, न हमें दिखाया, उसे जाँच के लिए सीधे अगुआ के पास भेज दिया। लिहाजा, सिद्धांतों के स्पष्ट उल्लंघन की गलतियाँ रह गईं और बाद में उन्हें सुधारना पड़ा जिससे इस महत्वपूर्ण काम में देरी हुई। इन सारी नाकामियों का कारण यही था कि साइमन गंभीरता बरतने की बजाय अपना काम बेमन से करता रहा। अगुआ ने साइमन से निपटने और बर्खास्त करने में इतनी सख्ती इसीलिए दिखाई ताकि वह अपने रवैये पर आत्मचिंतन कर फौरन काम में सुधार कर ले, अपना काम सावधानी से और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप करे। अगर निपटे जाने और बर्खास्त होने से उसे आत्मचिंतन करने और सबक सीखने में मदद मिली तो यह उसके कर्तव्य और जीवन प्रवेश के लिए शुभ रहेगा! यह बात समझ में आने के बाद मुझे काफी शांति मिली।
उस समय मेरे मन में एक और गाँठ पड़ चुकी थी। मुझे लगता था कि अगुआ ने साइमन को बर्खास्त करके बहुत ज्यादती की क्योंकि उसके डिजाइन में दो ही गलतियाँ निकली थीं। मैं सोचने लगी कि ऐसी ही चूक होने पर कहीं मुझे भी तो बर्खास्त नहीं कर दिया जाएगा। मुझे पता था कि इस मामले में मैं अब भी नासमझ और डरी हुई हूँ, इसलिए मैंने परमेश्वर के कुछ प्रासंगिक वचन खोजे। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “सतही तौर पर कुछ लोगों में अपने कर्तव्य-निष्पादन की पूरी अवधि के दौरान कोई गंभीर समस्या प्रतीत नहीं होती। वे खुले आम कोई बुराई नहीं करते; वे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं करते, या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर नहीं चलते। अपने कर्तव्य-निर्वहन में उनके सामने कोई बड़ी त्रुटि या सिद्धांत की समस्याएँ भी नहीं आतीं, फिर भी, उन्हें एहसास भी नहीं होता और कुछ ही वर्षों में वे सत्य को बिलकुल भी स्वीकार न करने वाले के रूप में, एक गैर-विश्वासी के रूप में उजागर हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? दूसरों को कोई समस्या नहीं दिखती, लेकिन परमेश्वर इन लोगों के अंतरतम हृदय की जाँच करके समस्या देख लेता है। वे अपने कर्तव्य के प्रदर्शन में हमेशा लापरवाह रहते हैं और प्रायश्चित नहीं करते। जैसे-जैसे समय बीतता है, वे स्वाभाविक रूप से उजागर हो जाते हैं। प्रायश्चित न करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हालाँकि उन्होंने पूरी अवधि में अपना कर्तव्य निभाया है, लेकिन उसके प्रति उनका रवैया हमेशा गलत रहा है, लापरवाही से भरा होता है, अनमना होता है, चीजों को हल्के में लेने वाला रवैया होता है, वे कर्तव्यनिष्ठ भी नहीं होते, समर्पित होने की तो बात ही छोड़ दो। वे शायद थोड़ा-बहुत प्रयास करते हों, लेकिन वे बेमन से काम करते हैं। वे पूरे दिल से काम नहीं करते और उनके अपराधों का कोई अंत नहीं होता। परमेश्वर की दृष्टि में, उन्होंने कभी प्रायश्चित नहीं किया; वे हमेशा लापरवाह रहे हैं, और उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया है—अर्थात, वे अपने हाथों की बुराई को छोड़कर परमेश्वर के आगे पश्चाताप नहीं करते। परमेश्वर उनमें पश्चाताप की मनोवृत्ति नहीं देखता और वह उनकी मनोवृत्ति में कोई बदलाव भी नहीं देखता। वे इसी मनोवृत्ति और पद्धति से अपने कर्तव्य और परमेश्वर के आदेश के संबंध में अड़ियल बने रहते हैं। उनके इस जिद्दी और दुराग्रही स्वभाव में कभी कोई बदलाव नहीं आता। इससे भी बढ़कर, वे कभी भी परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस नहीं करते, उन्हें कभी नहीं लगता कि उनकी लापरवाही और बेमन से किया गया काम अपराध और दुष्टता है। उनके मन में न तो कोई कृतज्ञता का भाव होता है, न वे खुद को दोषी महसूस करते हैं, न उनमें कोई खेद का भाव आता है, अपराध-बोध आने की तो बात ही छोड़ दो। जैसे-जैसे समय बीतता है, परमेश्वर देखता है कि यह व्यक्ति लाइलाज है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन बताते हैं, यदि कोई व्यक्ति अपने काम को हमेशा हल्के में लेता है, उसमें कभी सत्य के सिद्धांत नहीं खोजता, सावधान और मेहनती नहीं है, आधे-अधूरे मन से काम करता है, तो ऐसे लोग निपट लापरवाह होते हैं। भले ही ऐसा लगे कि वे विघ्न-बाधा नहीं डालते, या मसीह-विरोधी रास्ते पर नहीं चलते, लेकिन, अगर वे अपने अनमने रवैये के लिए पछताते नहीं, काम में हमेशा चूक करते हैं तो वे अंत में परमेश्वर द्वारा उजागर और बहिष्कृत होकर रहेंगे। परमेश्वर के वचनों पर मनन करके, मैं साइमन के बर्ताव को फिर से याद करने लगी। वह लंबे अरसे से समूह में काम कर रहा था और सभी तकनीकी पहलुओं में पारंगत था, पर अक्सर बुनियादी गलतियाँ कर बैठता था। कभी-कभी तो उसके आसान डिजाइन भी कई बार सुधारने पड़ते थे। फाइलों का बैक-अप बनाने और उन पर चिप्पी लगाने में भी वह अक्सर गलतियाँ करता था। मैंने कई बार उसे इस बारे में बताया, दूसरों ने भी उसे चेताया, लेकिन उसने न तो गंभीरता बरती, न अपनी समस्याओं और काम के रवैये पर आत्मचिंतन किया। जब अगुआ पहली बार उससे निपटा, वह आत्मचिंतन करने के बजाय अपना बचाव करता रहा, समय सीमा को दोष देता रहा, इसलिए वह कभी बदला ही नहीं और गलतियाँ करता रहा। मैंने समझ गई कि साइमन कैसा जिद्दी था। यूँ तो मैं पहले से साइमन के रवैये से कुछ वाकिफ थी लेकिन काम पर कभी बुरा असर न पड़ने से बेफिक्र थी। पर इस बार उसके अनमने रवैये से अहम काम अटक गया; अगुआ का उसे बर्खास्त करना बिल्कुल भी ज्यादती नहीं थी, बल्कि यह सिद्धांतों के अनुरूप था। मैंने परमेश्वर के वचनों से जाना कि अनमना होना कोई छोटी समस्या नहीं है। अगर कोई अपने काम में हमेशा लापरवाह रवैया अपनाए रखेगा तो वह देर-सबेर कलीसिया के काम में खलल डालेगा और उजागर होकर रहेगा। साइमन के बारे में लगा कि उसने दो ही गलतियाँ तो की हैं लेकिन गहराई में गई तो काम को लेकर उसका लापरवाह रवैया बर्खास्तगी का मुख्य कारण बना। इतना अहम काम भी अनमना होकर करके उसने इसमें देर कर दी—उसकी बर्खास्तगी से परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव उजागर हुआ!
फिर, मैंने सोचा, जब दूसरे बर्खास्त किए जा रहे थे तो सत्य न खोजने, डरने और परमेश्वर को गलत समझने का कारण क्या था। भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। “अच्छा बताओ, अगर कोई गलती करने वाला व्यक्ति सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कार्य हैं जिन्हें पूरा करना है। लेकिन अगर लोगों में अंतरात्मा और विवेक न हो तथा वे अपने काम में लापरवाही बरतते हैं, अगर उन्हें कार्य करने का अवसर मिलता है, लेकिन वे उसे संजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय हाथ से निकल जाने देते हैं, तो वे उजागर किए जाएँगे। अगर तुम अपने काम में लगातार लापरवाही बरतोगे, बेमन से काम करोगे, काट-छांट और निपटारे के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखोगे, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कार्य के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही सभी चीजों पर शासन करता है। क्या सही है और क्या गलत, इसमें तुम्हारे विश्लेषण की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हारा काम सिर्फ सुनना और पालन करना भर है। जब तुम्हारी काट-छांट और निपटारा किया जाए, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का दर्जा नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा त्याग दिए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और यह कि तर्क का तुम पर कोई असर नहीं होता, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुम्हारे खिलाफ कार्रवाई करने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, तुम्हें उजागर होने और त्याग दिए जाने का भय बना रहता है, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। इंसान में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए। तुम्हें अपने डर के साथ-साथ परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियाँ दूर करने से शुरुआत करनी चाहिए। परमेश्वर के बारे में किसी व्यक्ति में गलतफहमियाँ कैसे उत्पन्न होती हैं? जब किसी व्यक्ति के साथ सब-कुछ ठीक चल रहा हो, तब तो वह परमेश्वर को बिल्कुल गलत नहीं समझता। उसे लगता है कि परमेश्वर नेक है, परमेश्वर श्रद्धायोग्य है, परमेश्वर धार्मिक है, परमेश्वर दयालु और प्रेममय है, परमेश्वर जो कुछ भी करता है उसमें सही होता है। लेकिन अगर कुछ ऐसा हो जाए जो उस व्यक्ति की धारणाओं के अनुरूप न हो, तो वह सोचता है, ‘लगता है परमेश्वर बहुत धार्मिक नहीं है, कम से कम इस मामले में तो नहीं है।’ क्या यह गलतफहमी है? ऐसा कैसे हुआ कि परमेश्वर अब धार्मिक नहीं रहा? वह क्या चीज है जिसने तुम्हारे अंदर इस गलतफहमी को जन्म दिया? वह क्या चीज है जिसकी वजह से तुम्हारी राय और समझ यह बन गई कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है? क्या तुम यकीनी तौर पर कह सकते हो कि वह क्या है? वह कौन सा वाक्य था? कौन-सा मामला? कौन-सी परिस्थिति? कहो, ताकि सभी लोग समझ और जान सकें कि तुम अपनी बात साबित कर पाते हो या नहीं। अगर कोई व्यक्ति परमेश्वर को गलत समझता है या किसी ऐसी स्थिति का सामना करता है जो उसकी धारणाओं के अनुरूप न हो, तो उसका रवैया कैसा होना चाहिए? (सत्य और आज्ञाकारिता की खोज करने का।) उसे पहले आज्ञाकारी होकर विचार करना चाहिए : ‘मुझे समझ नहीं है, लेकिन मैं आज्ञा मानूंगा क्योंकि यह परमेश्वर ने किया है, इसका विश्लेषण इंसान को नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, मैं परमेश्वर के वचनों या उसके कार्य पर संदेह नहीं कर सकता क्योंकि परमेश्वर के वचन सत्य हैं।’ क्या किसी इंसान का रवैया ऐसा नहीं होना चाहिए? अगर ऐसा रवैया हो, तो क्या तुम्हारी गलतफहमी फिर भी कोई समस्या पैदा करेगी? (नहीं करेगी।) यह तुम्हारे काम को न तो नुकसान पहुँचाएगी और न ही कोई परेशानी पैदा करेगी। क्या तुम लोगों को लगता है कि जो व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन के दौरान गलतफहमियाँ पालता है, वह वफादार हो सकता है? या वह व्यक्ति वफादार हो सकता है जो गलतफहमियाँ नहीं पालता? (जो व्यक्ति अपने कर्तव्य पालन में गलतफहमियाँ नहीं पालता, वह वफादार हो सकता है।) इसका अर्थ है कि सबसे पहले, तुम्हारा रवैया आज्ञाकारी होना चाहिए। इसके अलावा, तुम्हें कम से कम यह विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सत्य है, धार्मिक है और वह जो कुछ भी करता है सही होता है। यह वह पूर्वशर्त है जो यह निर्धारित करती है कि तुम अपना कर्तव्य निभाने में वफादार हो सकते हो या नहीं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर चीजें स्पष्ट हो गईं। मैं परमेश्वर को लेकर नासमझ और डरी हुई थी क्योंकि मुझे न तो उसमें सच्चा विश्वास था, न उसकी धार्मिकता की समझ थी। गलतियाँ करने पर साइमन की बर्खास्तगी ने मुझे परमेश्वर के बारे में शंकालु और डरपोक बना दिया। मैं सोचती थी कि अगर कोई गलती की तो मुझे हटा या बहिष्कृत कर दिया जाएगा। मुझे लगता था कि परमेश्वर का घर भी बाहरी दुनिया जैसा है और जो गलती करेगा उसे बर्खास्त और बहिष्कृत कर दिया जाएगा, मानो परमेश्वर सिर्फ बहिष्कृत करने के लिए ही लोगों को उजागर करता हो। कलीसिया लोगों को कैसे बर्खास्त और बहिष्कृत करती है, इसके सिद्धांत हैं। लोगों का समग्र मूल्यांकन कर्तव्य के प्रति उनके रवैये के आधार पर किया जाता है तो उनकी इंसानियत, काबिलियत, सत्य को स्वीकार करना, इत्यादि भी देखा जाता है। उन्हें कभी-कभार के अपराधों या मामूली भ्रष्टता प्रकट होने पर बर्खास्त या बहिष्कृत नहीं किया जाता। मेरे दायरे के जो अगुआ और कार्यकर्ता बर्खास्त हुए, उनमें से कुछ खास काबिल नहीं थे और वे व्यावहारिक कार्य नहीं कर पाए, कुछ विशेषज्ञता की कमी के कारण अपने काम के लायक नहीं थे, तो कुछ का स्वभाव बहुत भ्रष्ट था और सत्य खोजकर उन्होंने समाधान भी नहीं ढूँढ़ा। लेकिन जब तक वे कोई बुरे काम नहीं करते, बाधाएं नहीं डालते, परमेश्वर का घर उन्हें बहिष्कृत या निष्कासित नहीं करता। बल्कि, उनकी काबिलियत और खूबियों के अनुरूप काम सौंपकर आत्मचिंतन और पश्चात्ताप का मौका दिया जाता है। अगर बर्खास्तगी के बाद वे सत्य स्वीकार कर आत्मचिंतन कर सकें और सच में पश्चात्ताप करके बदल जाएं तो कलीसिया तरक्की देकर उनसे दुबारा काम लेगी। कलीसिया केवल उन मसीह-विरोधियों और दुष्टों को निष्कासित करती है जो सत्य को जरा भी स्वीकार नहीं करते, बर्खास्त या उजागर किए जाने पर आत्मचिंतन नहीं करते, बुराइयाँ और बाधाएँ पैदा करते रहते हैं। मैंने देखा कि परमेश्वर के घर में सबके साथ निष्पक्ष रहकर धार्मिकतापूर्ण व्यवहार किया जाता है और यहाँ बेशक सत्य का शासन है। जैसे, साइमन को बर्खास्त इसलिए किया गया कि वह काम में बहुत लापरवाह था और अनमना होकर इसमें हमेशा देरी करता था। यह परमेश्वर की धार्मिकता का असर था। अगर वह सही ढंग से काम करता, सत्य खोजकर आत्मचिंतन करता तो यह खुद को जानने, पश्चात्ताप करने और बदलने का अच्छा मौका था। साइमन की बर्खास्तगी मेरे लिए भी चेतावनी की घंटी थी। मेरी भी वही समस्या थी। मैं भी अक्सर अपने काम को अनमने ढंग से करती थी। कभी-कभी मैं अपने डिजाइनों की कमियाँ बखूबी जानती थी लेकिन तब उन्हें दूर करने के लिए मैं समय और मेहनत के बारे में सोचने लगती थी और यह सोचकर उन्हें जाँच के लिए अगुआ के पास भेज देती कि समस्या उतनी बड़ी नहीं है और अगर उसे कुछ समस्याएं दिखेंगी भी तो मैं उन्हें एक साथ सुधार लूँगी। लिहाजा, जो काम एक बार में हो जाना चाहिए था उसे संशोधित करना पड़ता था जिससे काम की गति रुक जाती थी। कभी-कभी यह भी पता होता था कि मेरे डिजाइन घिसे-पिटे हैं लेकिन नयापन लाने के लिए बहुत संसाधन, सोच और शोध चाहिए, मैं सोचती थी कि यह तो भारी मुश्किल है और कामचलाऊ काम करना काफी रहेगा, इसलिए बरसों तक मेरे डिजाइन जस के तस रहे। साइमन की विफलता ने मुझे एक गंभीर सबक सिखाया। मैं न तो सत्य को खोज रही थी न ही इस मामले से सबक सीख रही थी, मैंने परमेश्वर की इच्छा को नहीं समझा, उसे लेकर नासमझ और डरपोक बनी रही। मैं इतनी कपटी थी। इस विचार ने मुझे पछतावे और ग्लानि से भर दिया। मुझे ठीक से सत्य खोजना था, अभ्यास का सही मार्ग पाना था और परमेश्वर को लेकर नासमझी और डर छोड़ना था।
फिर मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े। “यदि कोई खुले दिल का है, तो वह एक ईमानदार व्यक्ति है। इसका मतलब है कि उसने अपना दिल और आत्मा पूरी तरह से परमेश्वर के लिए खोल दिए हैं, उसके पास ऐसा कुछ नहीं है जिसे वह उससे छिपाए। उसने पूरी तरह से अपना दिल परमेश्वर को सौंप दिया है, उसे दिखा दिया है, यानी उसने अपना सर्वस्व उसे दे दिया है। क्या वह अब भी परमेश्वर से दूर रहेगा? नहीं, नहीं रहेगा। इस प्रकार उसके लिए परमेश्वर के प्रति समर्पण करना आसान हो जाता है। यदि परमेश्वर कहता है कि वह कपटी है, तो वह मान लेगा। यदि परमेश्वर कहता है कि वह अहंकारी और आत्मतुष्ट है, तो वह उसे भी स्वीकार लेगा। वह न केवल इन बातों को स्वीकार कर उन्हें दूर करेगा—बल्कि पश्चाताप करेगा, सत्य के सिद्धांतों पर चलने का प्रयास करेगा, अपनी त्रुटियों को पहचानकर उनमें सुधार लाएगा। इससे पहले कि वह इसे जाने, उसे पता भी नहीं चलेगा कि उसने अपने गलत तौर-तरीके कब सुधार लिए, उसका कपट, चालाकियाँ, लापरवाही और अनमनापन कम होते चले जाएँगे। वह इस तरह जितने लंबे समय तक जीवन जिएगा, उतना ही खुलता जाएगा, सम्माननीय होता जाएगा और एक ईमानदार व्यक्ति बनने के लक्ष्य के उतने ही करीब पहुँच जाएगा। प्रकाश में रहने का यही अर्थ है। यह सारी महिमा परमेश्वर को जाती है! जब लोग प्रकाश में रहते हैं तो यह परमेश्वर का कार्य है—उसके लिए शेखी बघारने का विषय नहीं है। जब वह प्रकाश में रहता है, तो विभिन्न सत्य समझने लगता है, उसमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय होता है, उसके सामने जो भी मुद्दा आता है, वह उसमें सत्य खोजना और उसका अभ्यास करना जानता है, वह अंतरात्मा और विवेक के साथ जीता है। यद्यपि उसे धार्मिक व्यक्ति नहीं कहा जा सकता, फिर भी परमेश्वर की दृष्टि में उसमें थोड़ी-बहुत मानवीय समानता होती है, कम से कम वह अपनी बातों या कर्मों में परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा नहीं करता, जब कोई मुसीबत आती है तो वह सत्य खोजता है और परमेश्वर के आगे समर्पण कर देता है। इस तरह वह अपेक्षाकृत सुरक्षित होता है और संभव है कि वह परमेश्वर के साथ विश्वासघात न करे। भले ही उसमें सत्य की बहुत गहरी समझ न हो, फिर भी वह परमेश्वर का आज्ञापालन कर उसके आगे समर्पण कर देता है और मन ही मन परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहता है। जब उसे कोई कार्य या ड्यूटी दी जाती है, तो वह उसका निर्वहन पूरे दिलो-दिमाग और अपनी पूरी काबिलियत से करता है। ऐसा व्यक्ति भरोसेमंद होता है और परमेश्वर को उस पर विश्वास होता है—ऐसे लोग रोशनी में जीते हैं। क्या प्रकाश में रहने वाले लोग परमेश्वर की जाँच को स्वीकारते हैं? क्या वे अब भी परमेश्वर से अपना हृदय छिपाते हैं? क्या उनके पास अभी भी ऐसे राज होते हैं जिन्हें वे परमेश्वर को नहीं बता सकते? क्या उनमें अभी भी कोई छल-कपट, चालाकियाँ होती हैं? नहीं होतीं। वे पूरी तरह से परमेश्वर के लिए अपना हृदय खोल चुके होते हैं और कुछ भी नहीं छिपाते। वे परमेश्वर में विश्वास रख सकते हैं, किसी भी चीज पर उसके साथ संगति कर सकते हैं, वह जो कुछ भी जानना चाहे, उसे बता सकते हैं। ऐसा कुछ भी नहीं होता जो वे परमेश्वर को नहीं बता सकते या नहीं दिखा सकते। जब लोग इस स्तर का खुलापन हासिल कर लेते हैं, तो उनका जीवन आसान, स्वतंत्र और मुक्त हो जाता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मेरा दिल रोशन हो गया। परमेश्वर चाहता है कि हम ईमानदार और उसके प्रति निष्कपट बन बनें। परमेश्वर भले ही हमें उजागर करे, हमारी काट-छांट करे, हमारा निपटान या हमें बर्खास्त करे, पहले हमें समर्पण करना चाहिए, परमेश्वर का विरोध करने के बजाय उस पर विश्वास रखना चाहिए कि वह सब कुछ अच्छा करता है, फिर आत्मचिंतन कर सत्य के सिद्धांत खोजने चाहिए। जब परमेश्वर के लिए हमारे दिल के द्वार खुलते हैं, हम सत्य से प्रेम करते हैं और उसके प्रति समर्पण करते हैं, तो पवित्र आत्मा का प्रबोधन और रोशनी हासिल करने से लेकर सत्य की सही समझ पाना, अपनी समस्याएं जानना, गलतियाँ सुधारना, पश्चात्ताप कर खुद को बदलना और परमेश्वर के वचनों और अपेक्षाओं के अनुरूप अपने कर्तव्य निभाना आसान हो जाता है। साथ ही, हमें परमेश्वर की धार्मिकता पर विश्वास रहना चाहिए। लोग दिखते कैसे हैं, परमेश्वर उन्हें इस आधार पर नहीं आंकता, बल्कि वह देखता है कि क्या उनके इरादे उसे संतुष्ट करने वाले और सत्य के सिद्धांत खोजने वाले हैं। अगर हम अपना रवैया सुधार कर अपना भरसक दे सकें, तब भले ही हम अपेक्षाओं पर खरे न उतरें, हम इसे दुरुस्त कर सकते हैं, अपनी नाकामियों से सीख सकते हैं, भटकावों की जाँच कर सकते हैं। जब मैंने अपना रवैया ठीक कर लिया तो मेरी चिंताएँ अपने आप मिट गईं।
उसके बाद, मैंने अपने चित्र अगुआ को जाँच के लिए भेजे तो मैं न उतनी डरी, न हिचकिचाई। मैं अपने इरादे ठीक करने, सिद्धांत खोजने और समर्पित होकर काम करने को तैयार थी। आगे, मैंने खुद जुटकर तकनीकें और अच्छी संदर्भ सामग्री खोजी ताकि इनका अध्ययन करके अपने चित्रों में अगुआ की बताई कमियाँ दूर कर सकूँ। मैं परमेश्वर के घर के सिद्धांतों के अनुसार काम करते हुए लगातार प्रयोग करने लगी। कुछ समय बाद, मेरा तकनीकी कौशल सुधर गया और चित्रों की गुणवत्ता भी खूब बढ़ गई। मैं बिल्कुल सहज हो गई। कुछ दिनों बाद, मैंने चित्र बनाकर अगुआ के पास भेजा, तो मैं यह सुनकर चकित रह गई : “यह डिजाइन वाकई अच्छा है, हम इसे इस्तेमाल कर सकते हैं!” यह सुनकर मैं इतनी गदगद और भावुक हो गई जिसे शब्दों में बयाँ नहीं कर सकती। बाद में, साइमन को अपने भ्रष्ट स्वभाव की समझ हासिल हुई तो उसने पश्चात्ताप कर खुद को बदलना चाहा, इसलिए कलीसिया ने उसे काम सौंपना जारी रखा। साइमन की बर्खास्तगी ने मुझे अपने काम के प्रति अनमना रवैया बदलने की राह दिखाई। अब मैं ज्यादा ध्यान देती हूँ, अनमनापन भी घट चुका है। इस अनुभव से, मैंने जाना कि परमेश्वर लोगों की काट-छाँट करने, निपटे जाने या बर्खास्त करने की छूट उन्हें बहिष्कृत करने के लिए नहीं देता है। अगर हम समर्पण कर सत्य खोज सकें तो इस तरह के अनुभव से हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को जान सकते हैं, अपने काम के तरीके में समस्याएं और भटकाव खोज सकते हैं, ताकि हम इन्हें फौरन बदल और सुधार कर अपने जीवन प्रवेश और कर्तव्य में तरक्की कर सकें। यह कितनी बड़ी बात है! परमेश्वर को लेकर नासमझी और डर छोड़कर, अपने काम के प्रति सावधानी और ध्यान लगाकर, सभी चीजों में अपनी जिम्मेदारी निभाकर मुझे शांति और सहजता का एहसास हुआ।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?