बुजुर्गों को भी सत्य का अनुसरण करने का प्रयास करना चाहिए
जिस वर्ष मैं 46 की हुई, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। परमेश्वर के वचनों से मैंने सीखा कि लोगों को बचाने के लिए परमेश्वर के कार्य का यह अंतिम चरण है, अंत में परमेश्वर उन लोगों को एक नए युग में ले जाएगा, जिन्हें उसने बचाया है। मैं बहुत उत्साहित थी और मैंने खुद को त्यागा और खपाया और सौ गुना अधिक आस्था के साथ अपना कर्तव्य निभाया। तब मैं काफी युवा थी, मेरे पास बहुत सी ऊर्जा थी और जब मैं युवा भाई-बहनों के साथ अपना काम करती थी, तो मैं खुद को जरा भी बूढ़ी नहीं मानती थी। मैं नाचती-गाती थी, जिंदादिल थी और कभी-कभी तो मैं सुसमाचार फैलाने के लिए साइकिल से लगभग साठ मील चली जाती थी और थकती भी नहीं थी। मुझे लगता था कि परमेश्वर के लिए खुद को खपाने और इस तरह अपना कर्तव्य निभाने से परमेश्वर का कार्य समाप्त होने पर निश्चित रूप से मुझे बचा लिया जाएगा। जब मैं 65 वर्ष की थी तो मेरे एक कान में टिनिटस हो गया और उस कान में अक्सर गुनगुनाहट होती थी। जब ऐसा पहली बार हुआ तो मैंने ज्यादा परवाह नहीं की और सोचा कि कुछ समय बाद यह ठीक हो जाएगा। लेकिन बाद में यह और भी गंभीर होता गया; कभी-कभी मैं दूसरे लोगों की बातें साफ-साफ नहीं सुन पाती थी और जब यह गंभीर हो जाता तो मुझे चक्कर आने लगते थे। जब मैं इसे दिखाने के लिए अस्पताल गई तो डॉक्टर ने कहा कि मेरा कान पहले ही खराब हो चुका है और इसका कोई इलाज नहीं है। उस समय मैं बहुत निराश होकर सोचने लगी “मेरा अंत हो गया है। यह कान बहरा है और मैं दूसरे लोगों को साफ-साफ नहीं सुन सकती, जिससे मेरे काम करने पर असर पड़ेगा। फिर मैं परमेश्वर के घर में किस काम की रहूँगी? अगर मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती तो क्या मुझे उद्धार पाने की कोई उम्मीद होगी? क्या मुझ जैसी किसी बहरी और कम देख पाने वाली इंसान की अब भी राज्य में जरूरत होगी?” जितना मैं इसके बारे में सोचती, मैं उतनी ही नकारात्मक होती जाती। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और मुझे मेरी नकारात्मक अवस्था से बाहर निकालने के लिए कहा।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “उन सभी लोगों के पास पूर्ण बनाए जाने का अवसर है, जो पूर्ण बनाए जाने की इच्छा रखते हैं, इसलिए हर किसी को शांत हो जाना चाहिए : भविष्य में तुम सभी मंज़िल में प्रवेश करोगे। किंतु यदि तुम पूर्ण बनाए जाने की इच्छा नहीं रखते, और अद्भुत क्षेत्र में प्रवेश करना नहीं चाहते, तो यह तुम्हारी अपनी समस्या है। ... प्रत्येक व्यक्ति के पास पूर्ण बनाए जाने का एक अवसर है : बशर्ते तुम तैयार हो, बशर्ते तुम खोज करते हो, अंत में तुम इस परिणाम को प्राप्त करने में समर्थ होगे, और तुममें से किसी एक को भी त्यागा नहीं जाएगा। यदि तुम निम्न क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निम्न क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम उच्च क्षमता वाले हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उच्च क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम अज्ञानी और निरक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी निरक्षरता के अनुसार होंगी; यदि तुम साक्षर हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस तथ्य के अनुसार होंगी कि तुम साक्षर हो; यदि तुम बुज़ुर्ग हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ तुम्हारी उम्र के अनुसार होंगी; यदि तुम आतिथ्य प्रदान करने में सक्षम हो, तो तुमसे मेरी अपेक्षाएँ इस क्षमता के अनुसार होंगी; यदि तुम कहते हो कि तुम आतिथ्य प्रदान नहीं कर सकते और केवल कुछ निश्चित कार्य ही कर सकते हो, चाहे वह सुसमाचार फैलाने का कार्य हो या कलीसिया की देखरेख करने का कार्य या अन्य सामान्य मामलों में शामिल होने का कार्य, तो मेरे द्वारा तुम्हारी पूर्णता भी उस कार्य के अनुसार होगी, जो तुम करते हो। वफ़ादार होना, बिल्कुल अंत तक समर्पण करना, और परमेश्वर के प्रति सर्वोच्च प्रेम रखने की कोशिश करना—यह तुम्हें अवश्य करना चाहिए, और इन तीन चीज़ों से बेहतर कोई अभ्यास नहीं है। अंततः, मनुष्य से अपेक्षा की जाती है कि वह इन तीन चीज़ों को प्राप्त करे, और यदि वह इन्हें प्राप्त कर सकता है, तो उसे पूर्ण बनाया जाएगा। किंतु, इन सबसे ऊपर, तुम्हें सच में खोज करनी होगी, तुम्हें सक्रियता से आगे और ऊपर की ओर बढ़ते जाना होगा, और इसके संबंध में निष्क्रिय नहीं होना होगा” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के सामान्य जीवन को बहाल करना और उसे एक अद्भुत मंज़िल पर ले जाना)। परमेश्वर के वचनों के भीतर मैंने परमेश्वर की धार्मिकता देखी। परमेश्वर हर किसी को उद्धार पाने और पूर्ण बनाए जाने का अवसर देता है। वह लोगों को उनकी उम्र के आधार पर नहीं बचाता, न ही वह लोगों को इस आधार पर पूर्ण बनाता है कि उन्होंने कितने ज्यादा कर्तव्य अच्छे से निभाए हैं; बल्कि वह लोगों से यह अपेक्षा करता है कि वे अपनी योग्यताओं के आधार पर कर्तव्य निभाएँ, सत्य का अनुसरण करें और उसके प्रति वफादारी और समर्पण हासिल करें और परमेश्वर-प्रेमी हृदय रखें—यही वह चीज है जो परमेश्वर की स्वीकृति पाती है। चाहे किसी की उम्र कुछ भी हो या वह कोई भी कर्तव्य करता हो, परमेश्वर उसकी निष्ठा और समर्पण चाहता है। मैंने परमेश्वर के इरादे को नहीं समझा और यह मान लिया कि चूँकि मैं बूढ़ी और आधी बहरी हूँ और मैं कोई कर्तव्य नहीं निभा पाती हूँ इसलिए मैं उद्धार पाने की आशा गँवा दूँगी—ये मेरी धारणाएँ और कल्पनाएँ थीं। परमेश्वर कहता है कि बूढ़े लोगों को बूढ़ों की अपेक्षाओं के अनुसार होना चाहिए। हालाँकि मैं बूढ़ी और आधी बहरी हूँ, फिर भी मेरा एक कान परमेश्वर के वचन सुन सकता है; अगर मैं कोई बड़ा कार्य नहीं कर सकती, तो मैं छोटा काम कर सकती हूँ, जिसके लिए मैं सक्षम हूँ। बाद में, मैंने कलीसिया के भाई-बहनों के साथ मिलकर सुसमाचार का प्रचार किया और मुझे बहुत खुशी हुई।
मार्च 2023 में, एक कार दुर्घटना में मेरी बाईं टाँग टूट गई। जब मैं घर पर ठीक हो रही थी तो मैं लगातार चिंता की अवस्था में रहती थी : अब मैं 70 साल की हो चुकी थी और मेरा स्वास्थ्य पहले से ही खराब था, मेरी सुनने की शक्ति चली गई थी, मेरी नजर खराब हो रही थी। अब टूटी टाँग के साथ मैं भविष्य में क्या कर सकती थी? मैं मूल रूप से सुसमाचार फैलाना और अपनी वफादारी दिखाना चाहती थी और कुछ अच्छे कर्म करने की तैयारी कर रही थी। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी टाँग टूट जाएगी और न जाने यह कब ठीक होगी। अगर मैं भविष्य में अपना कर्तव्य नहीं निभा पाई तो क्या तब भी मेरे पास उद्धार की कोई उम्मीद होगी? मैंने इस बारे में जितना ज्यादा सोचा, उतनी ही दुखी होती गई और न चाहते हुए भी मैं शिकायत करने लगी : “जब से मैंने प्रभु पर आस्था रखी है, मैंने पूरी लगन से खुद को खपाया है। परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद मैंने अपना रेस्टोरेंट भी बंद कर दिया था ताकि मैं अपना कर्तव्य निभा सकूँ। मुझे कई बार लगभग गिरफ्तार कर लिया गया था और मैं अपने घर वापस नहीं जा सकी थी। 20 से अधिक वर्षों से मैं बहुत मेहनत कर रही हूँ, बहुत कुछ कर रही हूँ। मैंने सोचा था कि अगर मैं इसी तरह आगे बढ़ती रही तो मुझे उद्धार मिलेगा, लेकिन मुझे उम्मीद नहीं थी कि मैं अपना कर्तव्य भी नहीं निभा पाऊँगी, जबकि परमेश्वर का कार्य लगभग समाप्त होने वाला है। क्या मुझे अभी भी उद्धार की आशा है? अगर मैं दस या बीस साल छोटी होती तो मैं अपना कर्तव्य लंबे समय तक निभा पाती और मुझे उद्धार की कुछ आशा होती। मैं अपने समय में क्यों पैदा हुई? अब मैं हर साल बूढ़ी होती जा रही हूँ, मेरा शरीर और हिलना-डुलना नहीं चाहता। भविष्य में मुझे किस तरह की आशा होगी?” जब मैंने वीडियो में युवा भाई-बहनों को नाचते-गाते देखा तो मुझे विशेष रूप से ईर्ष्या हुई : “ये भाई-बहन वास्तव में एक अच्छे दशक में पैदा हुए थे, वे युवा हैं, उनकी ताकत बढ़ रही है और उनकी याददाश्त अच्छी है, वे तेजी से चीजें सीखते हैं और बहुत सारे कर्तव्य निभा सकते हैं। अब परमेश्वर के लिए लोगों को पूर्ण बनाने का महत्वपूर्ण समय है और जब परमेश्वर का कार्य समाप्त हो जाएगा तो ये युवा लोग निश्चित रूप से उद्धार पाने और बचे रहने में सक्षम होंगे। अगर मैं 80 या 90 के दशक में पैदा हुई होती तो सही समय होता। मुझे 50 के दशक में क्यों पैदा होना पड़ा? परमेश्वर का कार्य समाप्त होने वाला है लेकिन मैं बूढ़ी हो गई हूँ और मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती। मेरे उद्धार की उम्मीद क्या है? मैं शायद किसी भी दिन मर जाऊँगी।” उस दौरान मैं बहुत ही निराश रहा करती थी, जब मैं इस बारे में सोचती थी तो मेरा दिल टूट जाता था और आँसू निकल जाते थे। मैंने अपने परिवार के अविश्वासियों को खाने-पीने और मनोरंजन में व्यस्त देखा; उन्होंने मुझे खुश करने की कोशिश की, लेकिन मैं खुद को जरा भी खुश नहीं कर पाई। मुझे लगा कि मेरे जीवन में कोई उम्मीद नहीं है। हालाँकि मैं हर दिन परमेश्वर के वचन पढ़ती थी, लेकिन मैं सिर्फ औपचारिकताएँ निभा रही थी और मेरी प्रार्थना भी रस्मी थी, इसलिए मुझे लगा कि मेरा दिल परमेश्वर से बहुत दूर हो गया है। मुझे एहसास हुआ कि मेरी अपनी अवस्था गलत थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और मुझे इस नकारात्मक अवस्था से बाहर निकालने के लिए कहा।
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों में एक अंश पढ़ा, जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “भाई-बहनों के बीच 60 से लेकर 80 या 90 वर्ष तक की उम्र के बड़े-बूढ़े भी हैं, जो अपनी बढ़ी हुई उम्र के कारण भी कुछ मुश्किलों का अनुभव करते हैं। ज्यादा उम्र होने पर भी जरूरी नहीं कि उनकी सोच सही या तार्किक ही हो, और उनके विचार और नजरिये सत्य के अनुरूप हों। इन बड़े-बूढ़ों को भी वही समस्याएँ होती हैं, और वे हमेशा चिंता करते हैं, ‘अब मेरी सेहत उतनी अच्छी नहीं रही, और मैं कौन-से कर्तव्य निभा पाऊँगा वे भी सीमित हो गए हैं। अगर मैं बस यह छोटा-सा कर्तव्य निभाऊँगा तो क्या परमेश्वर मुझे याद रखेगा? कभी-कभी मैं बीमार पड़ जाता हूँ, और मुझे अपनी देखभाल के लिए किसी की जरूरत पड़ती है। जब मेरी देखभाल के लिए कोई नहीं होता, तो मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, तो मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बूढ़ा हूँ, परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे याद नहीं रहते, और सत्य को समझना मेरे लिए कठिन होता है। सत्य पर संगति करते समय मैं उलझे हुए और अतार्किक ढंग से बोलता हूँ, और मेरे पास साझा करने लायक कोई अनुभव नहीं होते। मैं बूढ़ा हूँ, मुझमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं है, मेरी दृष्टि बहुत स्पष्ट नहीं है, और मैं अब शक्तिशाली नहीं हूँ। मेरे लिए सब कुछ मुश्किल होता है। न सिर्फ मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा पाता, बल्कि मैं आसानी से चीजें भूल जाता हूँ, गलत समझ लेता हूँ। कभी-कभी मैं भ्रमित हो जाता हूँ, और कलीसिया और अपने भाई-बहनों के लिए समस्याएँ खड़ी कर देता हूँ। मैं उद्धार प्राप्त करना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण करना चाहता हूँ, मगर यह बहुत कठिन है। मैं क्या कर सकता हूँ?’ जब वे इन चीजों के बारे में सोचते हैं, तो यह सोचकर झुँझलाने लगते हैं, ‘मैंने आखिर इतनी बड़ी उम्र में ही परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू क्यों किया? मैं उन लोगों जैसा क्यों नहीं हूँ, जो 20-30 वर्ष के हैं, या जो 40-50 वर्ष के हैं? इतना बूढ़ा हो जाने के बाद ही क्यों मुझे परमेश्वर के कार्य का पता चला? ऐसा नहीं है कि मेरा भाग्य खराब है; कम-से-कम अब तो परमेश्वर के कार्य से मेरा सामना हो चुका है। मेरा भाग्य अच्छा है, और परमेश्वर मेरे प्रति दयालु है! बस सिर्फ एक चीज है जिसे लेकर मैं खुश नहीं हूँ, और वह यह है कि मैं बहुत बूढ़ा हूँ। मेरी याददाश्त बहुत अच्छी नहीं है, और मेरी सेहत उतनी बढ़िया नहीं है, मगर मैं अंदर से बहुत शक्तिशाली हूँ। बात बस इतनी है कि मेरा शरीर मेरी आज्ञा नहीं मानता, और सभाओं में थोड़ी देर सुनने के बाद मेरी आँख लग जाती है। कभी-कभी मैं प्रार्थना के लिए आँखें बंद कर लेता हूँ और सो जाता हूँ, और परमेश्वर के वचन पढ़ते समय मेरा मन भटकता है। थोड़ी देर पढ़ने के बाद मैं उनींदा हो जाता हूँ और सो जाता हूँ, और वचन मेरे दिमाग में नहीं उतरते। मैं क्या करूँ? ऐसी व्यावहारिक दिक्कतों के साथ भी क्या मैं सत्य का अनुसरण कर उसे समझने में समर्थ हूँ? अगर नहीं, और अगर मैं सत्य-सिद्धांतों के अनुरूप अभ्यास न कर पाऊँ, तो कहीं मेरी पूरी आस्था बेकार न हो जाए? कहीं मैं उद्धार प्राप्त करने में विफल न हो जाऊँ? मैं क्या कर सकता हूँ? मैं बहुत चिंतित हूँ! ...’ ... वे युवाओं को खाने-पीने, दौड़ने-कूदने में समर्थ देखते हैं, और उनसे ईर्ष्या करते हैं। वे युवाओं को ऐसे काम करते हुए जितना ज्यादा देखते हैं, यह सोचकर उतना ही संतप्त अनुभव करते हैं, ‘मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढँग से निभाना चाहता हूँ, सत्य का अनुसरण कर उसे समझना चाहता हूँ, सत्य का अभ्यास भी करना चाहता हूँ, तो फिर यह इतना कठिन क्यों है? मैं बहुत बूढ़ा और बेकार हूँ! क्या परमेश्वर को बूढ़े लोग नहीं चाहिए? क्या बूढ़े लोग सचमुच बेकार होते हैं? क्या हम उद्धार प्राप्त नहीं कर सकेंगे?’ चाहे वे जैसे सोचें वे दुखी रहते हैं, उन्हें खुशी नहीं मिलती। वे ऐसा अद्भुत समय और ऐसा बढ़िया मौका नहीं चूकना नहीं चाहते, फिर भी वे युवाओं की तरह तन-मन से खुद को खपाकर अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा नहीं पाते। ये बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण संताप, व्याकुलता और चिंता में डूब जाते हैं। हर बार जब वे किसी दिक्कत, रुकावट, कठिनाई या बाधा का सामना करते हैं, वे अपनी उम्र को दोष देते हैं, यहाँ तक कि खुद से घृणा करते हैं और खुद को पसंद नहीं करते। लेकिन किसी भी स्थिति में इसका कोई फायदा नहीं होता, कोई समाधान नहीं मिलता, और उन्हें आगे का रास्ता नहीं मिलता। कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके लिए सचमुच आगे का रास्ता नहीं है? क्या कोई समाधान है? (बूढ़े लोगों को भी अपने बूते के कर्तव्य निभाने चाहिए।) बूढ़े लोगों के लिए उनके बूते के कर्तव्य निभाना स्वीकार्य है, है न? क्या बूढ़े लोग अपनी उम्र के कारण अब सत्य का अनुसरण नहीं कर सकते? क्या वे सत्य को समझने में सक्षम नहीं हैं? (हाँ, जरूर हैं।) क्या बूढ़े लोग सत्य को समझ सकते हैं? वे कुछ सत्य समझ सकते हैं, वैसे युवा लोग भी सभी सत्य नहीं समझ पाते। बूढ़े लोगों को हमेशा भ्रांति होती है, वे मानते हैं कि वे भ्रमित हैं, उनकी याददाश्त कमजोर है, और इसलिए वे सत्य को नहीं समझ सकते। क्या वे सही हैं? (नहीं।) हालाँकि युवा बूढ़ों से ज्यादा ऊर्जावान और शारीरिक रूप से सशक्त होते हैं, मगर वास्तव में उनकी समझने, बूझने और जानने की क्षमता बूढ़ों के बराबर ही होती है। क्या बूढ़े लोग भी कभी युवा नहीं थे? वे बूढ़े पैदा नहीं हुए थे, और सभी युवा भी किसी-न-किसी दिन बूढ़े हो जाएँगे। बूढ़े लोगों को हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि वे बूढ़े, शारीरिक रूप से कमजोर, बीमार और कमजोर याददाश्त वाले हैं, इसलिए वे युवाओं से अलग हैं। असल में कोई अंतर नहीं है। कोई अंतर नहीं है कहने का मेरा अर्थ क्या है? कोई बूढ़ा हो या युवा, उनके भ्रष्ट स्वभाव एक-समान होते हैं, हर तरह की चीज को लेकर उनके रवैये और सोच एक सामान होते हैं, और हर तरह की चीज को लेकर उनके परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण एक-समान होते हैं। ... तो ऐसा नहीं है कि बड़े-बूढ़ों के पास करने को कुछ नहीं है, न ही वे अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ हैं, उनके सत्य का अनुसरण करने में असमर्थ होने की तो बात ही नहीं उठती—उनके लिए करने को बहुत कुछ है। अपने जीवन में जो विविध मतांतर और भ्रांतियाँ तुमने पाल रखी हैं, साथ ही जो विविध पारंपरिक विचार और धारणाएँ, अज्ञानी, जिद्दी, दकियानूसी, अतार्किक और विकृत चीजें तुमने इकट्ठा कर रखी हैं, वे सब तुम्हारे दिल में जमा हो गई हैं, और तुम्हें युवाओं से भी ज्यादा वक्त इन चीजों को खोद निकालने, विश्लेषित करने और पहचानने में लगाना चाहिए। ऐसी बात नहीं है कि तुम्हारे पास कुछ करने को नहीं है, या कोई काम न होने पर तुम्हें संतप्त, व्याकुल और चिंतित अनुभव करना चाहिए—यह न तो तुम्हारा कार्य है न ही तुम्हारी जिम्मेदारी। अव्वल तो बड़े-बूढ़ों की मनःस्थिति सही होनी चाहिए। भले ही तुम्हारी उम्र बढ़ रही हो और शारीरिक रूप से तुम अपेक्षाकृत बूढ़े हो, फिर भी तुम्हें युवा मनःस्थिति रखनी चाहिए। भले ही तुम बूढ़े हो रहे हो, तुम्हारी सोचने की शक्ति धीमी हो गई है, तुम्हारी याददाश्त कमजोर है, फिर भी अगर तुम खुद को जान पाते हो, मेरी बातें समझ सकते हो, और सत्य को समझ सकते हो, तो इससे साबित होता है कि तुम बूढ़े नहीं हो, और तुम्हारी काबिलियत कम नहीं है। अगर कोई 70 की उम्र में होकर भी सत्य को नहीं समझ पाता, तो यह दिखाता है कि उसका आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है, और कामकाज के लायक नहीं है। इसलिए सत्य की बात आने पर उम्र असंगत होती है” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर जानता है कि हम बूढ़े लोग खुद को इस अवस्था में पाएँगे, इसलिए वह हमें अभ्यास का मार्ग दिखाने के लिए इन वचनों को व्यक्त करता है। इससे पता चलता है कि परमेश्वर को हमसे बहुत प्रेम है। परमेश्वर मानव हृदय की जांच करता है और परमेश्वर के ये वचन मेरी सच्ची दशा बताते हैं। जब मैंने देखा कि युवा भाई-बहनों के दिमाग कितने चुस्त हैं, उनकी ताकत कितनी निखर गई है, वे परमेश्वर के घर में हर कर्तव्य निभाने में सक्षम हैं तो मुझे अंदर से ईर्ष्या महसूस हुई और मैंने सोचा कि परमेश्वर द्वारा लोगों को पूर्ण बनाने के लिए वे सही समय पर पैदा हुए हैं, जबकि मेरी उम्र ऐसी है कि कमजोर नजर और याददाश्त के चलते मुझे यह भी याद नहीं रहता कि परमेश्वर के वचनों में मैंने क्या पढ़ा। खासकर अब जब मेरी टाँग टूट गई है और मैं अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती हूँ तो मुझे लगा कि मेरे जीवन में कोई उम्मीद नहीं बची है और मेरे बचने की संभावना कम होती जा रही है। इसलिए मैं अक्सर नकारात्मक अवस्था में रहती थी, निराशावादी और आशाहीन महसूस करती थी। परमेश्वर के वचनों ने मेरे लिए अभ्यास का मार्ग दिखाया : ऐसा नहीं है कि जब लोग बूढ़े हो जाते हैं और अपने कर्तव्य नहीं निभा पाते हैं तो उनके पास चलने के लिए कोई रास्ता नहीं होता। अगर वे बूढ़े हैं और बाहर जाकर अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते हैं तो वे अभी भी सत्य का अनुसरण कर सकते हैं और अपने भ्रष्ट स्वभाव को हल कर सकते हैं। यह ऐसा है जैसे मैंने बुढ़ापे के आगे समर्पण नहीं किया, बल्कि खुद को युवा लोगों से होड़ लेने को बाध्य किया—यह मेरा अहंकारी स्वभाव था। मुझे हमेशा लगता था कि बूढ़ी होने पर मैं महत्वपूर्ण कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी, इसलिए मुझे चिंता थी कि मैं बच नहीं पाऊँगी। मैं हमेशा परमेश्वर से माँग करती रहती थी और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण नहीं कर पाती थी—यह भी मेरा भ्रष्ट स्वभाव था। साथ ही, अपना कर्तव्य निभाते हुए मैं लगातार प्रतिष्ठा और रुतबे की तलाश में रहती थी और चाहती थी कि लोग मेरी प्रशंसा करें। ये सारे मेरे भ्रष्ट स्वभाव थे और मुझे चिंतन कर इन्हें जानने और इनका समाधान करने के लिए सत्य खोजने की जरूरत थी। साथ ही, इतने सालों तक परमेश्वर पर विश्वास करने के बाद मुझे परमेश्वर के वचनों का कुछ अनुभव और ज्ञान था। भले ही मैं बाहर जाकर अपना कर्तव्य नहीं निभा सकती थी, फिर भी घर में रहकर परमेश्वर की गवाही देने के लिए अनुभवजन्य लेख लिख सकती थी। क्या यह भी कुछ कर्तव्य निभाना नहीं होता? फिर, भले ही युवा लोगों की याददाश्त अच्छी होती है और उनके दिमाग, सजगता और कार्य तेज होते हैं, इसका यह मतलब तो नहीं है कि उनमें कोई भ्रष्ट स्वभाव नहीं है। उम्रदराज लोगों की तरह उन्हें भी परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने की जरूरत होती है। हालाँकि मैं अब बूढ़ी हो गई थी, फिर भी मेरे बहुत सारे भ्रष्ट स्वभाव थे जिन्हें हल करने के लिए मुझे सत्य खोजने की जरूरत थी। बस यही मुझे करना चाहिए था।
मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “मैं प्रत्येक व्यक्ति की मंजिल उसकी आयु, वरिष्ठता और उसके द्वारा सही गई पीड़ा की मात्रा के आधार पर तय नहीं करता, और जिस सीमा तक वे दया के पात्र होते हैं, उसके आधार पर तो बिलकुल भी तय नहीं करता, बल्कि इस बात के अनुसार तय करता हूँ कि उनके पास सत्य है या नहीं। इसके अतिरक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। तुम लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग परमेश्वर की इच्छा का अनुसरण नहीं करते, वे सब दंडित किए जाएँगे। यह एक अडिग तथ्य है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपनी मंजिल के लिए पर्याप्त अच्छे कर्म तैयार करो)। “वर्तमान धारा में उन सभी के पास, जो सच में परमेश्वर से प्रेम करते हैं, उसके द्वारा पूर्ण किए जाने का अवसर है। चाहे वे युवा हों या वृद्ध, अगर उनके पास परमेश्वर के प्रति समर्पित होने और उसका भय मानने वाला हृदय है, तो वे उसके द्वारा पूर्ण किए जा सकते हैं। परमेश्वर लोगों को उनके भिन्न-भिन्न कार्यों के अनुसार पूर्ण करता है। जब तक तुम अपनी पूरी शक्ति लगाते हो और परमेश्वर के कार्य के लिए प्रस्तुत रहते हो, तुम उसके द्वारा पूर्ण किए जा सकते हो। वर्तमान में तुम लोगों में से कोई भी पूर्ण नहीं है। कभी तुम एक प्रकार का कार्य करने में सक्षम होते हो, और कभी तुम दो कार्य कर सकते हो। जब तक तुम अपने आपको परमेश्वर के लिए खपाने की पूरी कोशिश करते हो, तब तक तुम अंततः परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाओगे” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सभी के द्वारा अपना कार्य करने के बारे में)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि परमेश्वर लोगों को इस आधार पर पूर्ण नहीं बनाता कि उनकी उम्र क्या है या उन्होंने कितना कष्ट सहा है, बल्कि वह यह देखता है कि उनके पास सत्य है या नहीं और क्या उनके जीवन स्वभाव में बदलाव आया है। पहले मैं हमेशा यही मानती थी कि युवा लोगों में बड़ी ताकत होती है और उनके दिमाग तेज होते हैं, वे नई चीजों को तेजी से स्वीकारते हैं और परमेश्वर के घर में कई कर्तव्य निभा सकते हैं—इस तरह के व्यक्ति को बचाया जा सकता है। खासकर जब मैंने बहुत से युवा लोगों को पदोन्नत होते देखा तो मैंने सोचा कि बूढ़े लोग परमेश्वर के घर में उपयोगी नहीं होते, परमेश्वर को उनकी जरूरत नहीं है और उनके पास उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। मैंने परमेश्वर के घर को अविश्वासियों की दुनिया के लिए एक कारखाने के रूप में देखा और माना कि युवा लोग तो रहेंगे, लेकिन बूढ़े और बेकार लोगों की जरूरत नहीं होगी—यह परमेश्वर के बारे में मेरी गलतफहमी थी और यह उसके खिलाफ ईशनिंदा थी। वास्तव में, परमेश्वर का घर सुसमाचार के कार्य की जरूरतों के कारण लोगों को बढ़ावा देता है और हर काम में सहयोग करने के लिए सभी तरह के विशेषज्ञ लोगों की जरूरत होती है, लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि परमेश्वर लोगों को बूढ़ा होने के बाद नहीं चाहता और इसका यह मतलब तो बिल्कुल भी नहीं है कि उनके उद्धार की कोई उम्मीद नहीं है। परमेश्वर की दृष्टि में इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई युवा है या बूढ़ा, वे सभी समान हैं—यह सिर्फ इतना है कि लोगों की उम्र अलग-अलग होती है और उनकी शारीरिक स्थितियाँ एक जैसी नहीं होतीं, लेकिन परमेश्वर चाहता है कि सभी लोग सत्य में एक समान प्रवेश करें। मैंने देखा कि परमेश्वर धार्मिक है, वह लोगों का मूल्यांकन उनकी उम्र के आधार पर नहीं करता, बल्कि इस आधार पर करता है कि वे सत्य का अनुसरण कर सकते हैं या नहीं और सत्य प्राप्त कर सकते हैं या नहीं। अगर व्यक्ति सत्य का अनुसरण नहीं करता और यह नहीं जानता कि मामलों को किन सिद्धांतों के आधार पर संभालना है तो भले ही वे युवा हों, उनमें काबिलियत हो और वे कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य निभाते हों, फिर भी वे परमेश्वर का प्रतिरोध कर रहे होते हैं। हालाँकि मैं बूढ़ी हूँ और मैं कोई महत्वपूर्ण कर्तव्य नहीं कर सकती, फिर भी मैं परमेश्वर के वचनों को समझ सकती हूँ और मेरा मन और विवेक अभी भी सामान्य हैं, इसलिए मुझे सत्य का अनुसरण करना चाहिए और यह मानकर हर दिन को संजोना चाहिए कि मैं जीवित हूँ, ताकि मैं फल दे सकूँ।
बाद में, मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश मिला : “परमेश्वर के घर में तुममें ऐसा कौन है जो इस समय संयोग से अपना कर्तव्य निभा रहा है? तुम अपना कर्तव्य निभाने के लिए चाहे जिस भी पृष्ठभूमि से आए, इसमें कुछ भी संयोग से नहीं हुआ है। इस कर्तव्य को बिना सोचे समझे सिर्फ कुछ विश्वासियों को खोज लेने से नहीं निभाया जा सकता; यह परमेश्वर ने युगों पहले से निर्धारित कर रखा था। किसी चीज के पहले से निर्धारित होने का क्या मतलब है? विशेषतः इसका मतलब क्या है? इसका मतलब यह है कि अपनी पूरी प्रबंधन योजना में, परमेश्वर ने बहुत पहले ही योजना बना ली थी कि तुम धरती पर कितनी बार आओगे, अंत के दिनों के दौरान तुम किस वंश और किस परिवार में पैदा होगे, इस परिवार की परिस्थितियाँ क्या होंगी, तुम मर्द होगे या औरत, तुम्हारी ताकत क्या होगी, तुम्हारी शिक्षा किस स्तर की होगी, तुम कितना साफ-साफ बोलने वाले होगे, तुम्हारी क्षमता कितनी होगी और तुम कैसे दिखोगे। उसी ने यह तय किया कि तुम किस उम्र में परमेश्वर के घर में आकर अपना कर्तव्य निभाना शुरू करोगे और कब कौन-सा कर्तव्य निभाओगे। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए हर कदम पहले से निर्धारित कर दिया था। जब तुम पैदा भी नहीं हुए थे और जब तुम अपने पिछले कई जीवनों में धरती पर आए थे तो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए पहले से ही व्यवस्था की थी कि कार्य के इस आखिरी चरण में तुम क्या कर्तव्य निभाओगे। यह बिल्कुल भी कोई मजाक नहीं है! सच्चाई यह है कि तुम्हें यहाँ धर्मोपदेश सुनने का मौका मिल रहा है, यह भी परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित था। इसे हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए!” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि परमेश्वर ने तय कर दिया था कि मैं किस वर्ष में जन्म लूँगी और कब मैं उस पर विश्वास करने लगूँगी। जहाँ तक यह सवाल है कि मैं बाद में अपना कर्तव्य निभा पाऊँगी या नहीं और मेरा गंतव्य और भाग्य कैसा होगा, ये सब परमेश्वर के हाथ में है। मुझे हमेशा यह शिकायत रही कि मैं एक अच्छे दशक में पैदा नहीं हुई—मुझमें बिल्कुल भी समर्पण भाव नहीं था, और मैं बहुत ही घमंडी और नासमझ थी। मैं 50 के दशक में पैदा हुई थी, फिर भी यह तथ्य कि परमेश्वर के प्रकट होने और अंत के दिनों का कार्य करने के लिए मैं समय पर पहुँच गई, परमेश्वर के वचन सुनने और उनकी अभिव्यक्ति देखने का सौभाग्य प्राप्त पाया और उसके सिंचन और चरवाही को स्वीकारा, आज तक इतने वर्षों तक परमेश्वर का अनुसरण किया—यह पहले ही मेरे प्रति परमेश्वर के महान अनुग्रह और उत्कर्ष को दर्शाता है। जहाँ तक उन अविश्वासियों की बात है जो मेरी ही उम्र के हैं : उन्होंने अपना पूरा जीवन बिना यह जाने बिताया कि वे इस धरती पर क्यों आए या लोगों को क्यों जीना चाहिए। वे जीवन भर केवल पैसा कमाना, दूसरे लोगों से प्रतिस्पर्धा करना और देह का आनन्द लेना जानते थे—वे अपने पाप में संघर्ष करते रहे। लेकिन मैं परमेश्वर के सामने आकर कुछ सत्यों को समझने में सफल रही, मैं जान पाई कि लोग क्यों जीते हैं और किस तरह का जीवन मूल्यवान है, और मैं यह भी जान पाई कि लोगों का भाग्य परमेश्वर के नियंत्रण में है, लोगों को जो कर्तव्य निभाना चाहिए वह, मानवता का गंतव्य, आदि भी परमेश्वर के नियंत्रण में है। मैंने परमेश्वर के इतने अधिक अनुग्रह और आशीष का आनन्द लिया, फिर भी मैं संतुष्ट नहीं थी और मुझे यह शिकायत भी थी कि क्यों नहीं परमेश्वर ने मुझे 80 या 90 के दशक में पैदा होने दिया। मैंने परमेश्वर के साथ तर्क-वितर्क किया। मुझमें वास्तव में कोई मानवता नहीं थी! परमेश्वर ने मुझमें बहुत कार्य किया, उसने लोगों, घटनाओं और चीजों को मेरे अनुभव के लिए व्यवस्थित किया और जब भी मैं नकारात्मक होती थी तो परमेश्वर ने भाई-बहनों से मेरे साथ संगति कराई और बार-बार उसने अपने वचनों के माध्यम से मेरा प्रबोधन और मार्गदर्शन किया और मुझे परमेश्वर के इरादे समझने और नकारात्मकता से बाहर निकलने में मदद की—क्या यह सब परमेश्वर का प्रेम नहीं है? जब मैंने इन चीजों के बारे में सोचा तो मुझे अपराध बोध हुआ और मुझे विश्वास हो गया कि मेरे पास वास्तव में अंतरात्मा नहीं है। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं तुम्हारी दयालुता की सराहना करने में विफल रही हूँ। तुमने मेरे साथ दयालुता से व्यवहार किया, फिर भी मैंने हमेशा तुम्हें गलत समझा। अब जब मेरी टाँग टूट गई तो मैंने आखिरकार चिंतन किया; वरना, मैं अब भी यही सोचती थी कि मैं इधर-उधर भागकर और सुसमाचार का प्रचार करके, अपनी धारणाओं में जीकर और अनजाने में तुम्हारा विरोध करके आशीष पा कर सकती हूँ। भविष्य में तुम जो भी करो, मेरा परिणाम जो भी हो, वह तुम्हारी धार्मिकता है—मैं तुम्हारी संप्रभुता के आगे समर्पण करती हूँ।” जब मैंने परमेश्वर के इरादों को समझा तो मेरी दशा कुछ सुधर गई। बाद में, मैंने घर पर लेख लिखने का अभ्यास किया और आत्म-चिंतन का अभ्यास करते हुए परमेश्वर के सामने अपने दिल को शांत किया।
कुछ महीनों बाद मेरी टाँग धीरे-धीरे ठीक हो गई, मैं फिर से चलने और अपना कर्तव्य निभाने में सक्षम हो गई। जब मैं अपना कर्तव्य निभा रही थी, मैंने सत्य की खोज करने और अपने स्वयं के भ्रष्ट स्वभावों को हल करने पर भी जोर दिया और मैं अपनी उम्र के सामने बेबस या बाध्य नहीं रही। मैं इन चीजों को सही दृष्टिकोण से ले सकती थी। पिछले कुछ साल से मैं अपनी उम्र के सामने हमेशा बेबस रहती थी। अगर परमेश्वर के वचनों का मार्गदर्शन न मिला होता तो मैं इस स्थिति से बाहर बिल्कुल नहीं निकल पाती। यह परमेश्वर के वचन ही थे जिन्होंने मेरे दिल के भारी बोझ को हटा दिया, ताकि मुझे अब यह चिंता या बेचैनी न हो कि मैं बच नहीं पाऊँगी या अपने बुढ़ापे के कारण अच्छा परिणाम नहीं पाऊँगी। मेरे हृदय को स्वतंत्रता और मुक्ति मिल गई।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?