अहंकारी स्वभाव बदलना
अगस्त 2019 में मुझे वीडियो प्रोडक्शन कार्यों का प्रभारी बना दिया गया। उस समय मेरे पास वीडियो बनाने का अनुभव टीम में सबसे कम था। मेरा प्रभारी चुना जाना परमेश्वर द्वारा मेरा उत्कर्ष करना था, इसलिए मैंने तय किया कि मैं इस काम को बेहतरीन ढंग से करूँगी। शुरू में मैंने देखा कि टीम में सीखने और महारत हासिल करने के लिए बहुत-कुछ है, और मेरे अंदर बहुत कमियाँ हैं। उस दौरान मैं अकसर अपनी सहकर्मियों से सवाल करती, और विनम्रता से उनके सुझाव मान लेती। लेकिन जल्दी ही मैंने काम सीख लिया और पेशेवर ज्ञान में महारत हासिल कर ली। वीडियो का संपादन करते समय मुझे समस्याओं का पता चल जाता। भाई-बहनों को कोई तकनीकी दिक्कत होती, तो मैं उसका भी समाधान कर देती। अगर सहकर्मी कोई समस्या हल न कर पाते, तो वे मुझसे सलाह माँगते। मैं अपनी गहरी समझ से उनकी समस्याओं का समाधान कर देती। बहनों का कहना था कि मैंने इतनी जल्दी सीखा है कि यकीन नहीं होता कि मैं नौसिखिया हूँ। मैं ये सब सुनती तो मुझे खुद पर बहुत गर्व होता। मैं सोचती, "मैं टीम में सबसे नई हूँ, जबकि दूसरे मुझसे काफी पहले से यह काम कर रहे हैं, मैं नई होकर भी उनका मार्गदर्शन करती हूँ। यानी मेरे अंदर उनसे बेहतर क्षमता और इस काम के लिए हुनर है।" जब कभी भाई-बहनों की हालत खराब होती, तो मैं उनसे संगति कर उनकी स्थितियाँ सुधारती। कभी-कभी तो वो कहते, "तुम्हारी संगति के बिना, हम समझ न पाते कि ये समस्या कैसे सुलझाएँ।" टीम में शामिल हुए मुझे महीना भर ही हुआ था, लेकिन मैंने पेशेवर पहलुओं में प्रगति कर अच्छे परिणाम दिए थे। जितना ज्यादा मैंने इस बारे में सोचा, उतना ज्यादा मैंने खुद को अद्वितीय पाया।
धीरे-धीरे मेरा रवैया बदलने लगा। मैं पहले जैसी विनम्र नहीं रही, अनजाने में ही मैं खुद को टीम की धुरी समझने लगी। खुद को दूसरों से अधिक योग्य और सक्षम मानने लगी। पहले जब भाई-बहन मुझसे कोई तकनीकी सवाल पूछते, तो मैं अपने सहकर्मियों से चर्चा और संवाद करती थी, लेकिन अब मैं उनसे सलाह किए बिना सीधे ही परामर्श देने लगी। जब हम काम पर चर्चा कर रहे थे, तो बहनों ने कोई परस्पर-विरोधी राय रखी। मैंने सबकी बातें खारिज कर दीं और कहा कि वे मेरे तरीके से ही काम करें। मैंने उनसे सलाह किए बिना सबको अपनी मर्जी से काम भी सौंप दिए। मैंने सोचा, चूँकि मेरे पास अगुआ होने का अनुभव है, इसलिए मैं सीधे ही कार्यों की व्यवस्था कर सकती हूँ। कभी-कभी तो मेरी कार्य-व्यवस्था हो जाने के बाद ही बहनों को पता चल पाता था। एक बार एक बहन ने मुझसे निपटते हुए कहा कि मैं बहुत अहंकारी हूँ, मैं उनसे किसी काम पर चर्चा किए बिना मनचाहा व्यवहार करती हूँ, और इस तरह काम करने से गलतियाँ हो जाया करती हैं। मैंने सहमत होने का दिखावा किया, पर मन में सोचा, "अगर मैं तुमसे चर्चा नहीं करती तो इसमें कुछ गलत नहीं है। मेरे विचार तुमसे बेहतर हैं, और अगर मैं चर्चा कर भी लूँ, तो भी काम तो तुम्हें मेरे तरीके से ही करना होगा। इस प्रक्रिया में समय क्यों बरबाद किया जाए?" और इस तरह मैंने बहन की सलाह और मदद से इनकार कर मनमर्जी से काम करना जारी रखा। ऐसे ही समय बीतता रहा, और चूँकि मैं लगातार सहकर्मियों के सुझाव ठुकरा रही थी, इसलिए मैं सारी कार्य-व्यवस्थाएँ अपने तरीके से ही करती रही, और जब हमने दूसरे कार्य पर चर्चा की, तो किसी ने अपनी राय व्यक्त नहीं की। यहाँ तक कि उन्हें लगने लगा कि वे वो काम नहीं कर सकते और नकारात्मक हो गए, और उन्होंने कई बार जाहिर किया कि वे मेरे साथ काम नहीं करना चाहते। बहुत बार वे सभाओं से लौटकर कहते, "काश, मुझे उस टीम में वापस न जाना पड़े। वहाँ होना बहुत थकाऊ है। ..." उस समय तो मैं ज्यादा नहीं सोचती थी। मैं मजाक में कह देती, "तुम दोनों बहुत कमजोर हो। बहुत नाजुक हो!" चूँकि अंतिम निर्णय मेरा ही होता था और मैं काम को लेकर बहनों से कोई चर्चा नहीं करती थी, इसलिए जल्दी ही दोनों बहनें इतनी नकारात्मक हो गईं कि त्यागपत्र देने की सोचने लगीं। मेरे काम में दिक्कतें बढ़ने लगीं। मैं अपने वीडियोज में समस्याएँ न देख पाती, और दूसरों के बताने पर मुझे फिर से संपादन करना पड़ता। कई बार मैं गलत पेशेवर मार्गदर्शन दे देती, जिसकी वजह से एक ही काम बार-बार करना पड़ता। मेरी कार्य-व्यवस्थाओं में भी बहुत चूकें होने लगीं, टीम का काम कम से कम प्रभावी होता गया, पूरी कोशिश करके भी मैं उसे ठीक न कर पाती। अपनी इस हालत से मैं इस हद तक परेशान हो गई कि त्यागपत्र देने का मन चाहा। लेकिन तभी मुझ पर परमेश्वर का न्याय और ताड़ना आई।
मेरी अगुआ ने मेरा निष्पादन जानने के बाद मुझे उजागर करने और मुझसे निपटने के लिए एक कड़ा पत्र लिखा, "तुम्हारे अधिकतर भाई-बहनों ने रिपोर्ट की है कि तुम अपने काम में अहंकारी और दंभी हो, अपने सहकर्मियों से सहयोग नहीं करती, भाई-बहनों के सुझाव नहीं मानती, सारे फैसले खुद लेती हो और टीम के सारे अधिकार अपनी मुट्ठी में रखती हो। इससे तुम्हारा मसीह-विरोधी वर्चस्व और मनमानी जाहिर होती है। अगर जल्दी ही तुमने इस पर विचार नहीं किया, तो गंभीर नतीजे होंगे। ..." अगुआ का पत्र पढ़कर मेरा सिर चकरा गया, मानो किसी ने तमाचा जड़ दिया हो। पत्र में परमेश्वर के वचन का एक अंश भी था। "इस बात का पहला प्रकटीकरण कि कैसे मसीह-विरोधी माँग करते हैं कि लोग सत्य और परमेश्वर के बजाय केवल उनकी आज्ञा का पालन करें—यह है कि वे किसी और के साथ काम करने में असमर्थ होते हैं; वे अपने आपमें एक कानून होते हैं। ... ऐसा लग सकता है कि कुछ मसीह-विरोधियों के पास सहायक या साथी हैं, लेकिन जब वास्तव में कुछ होता है, तो क्या वे सुनते हैं कि दूसरे लोगों का क्या कहना है? न केवल वे नहीं सुनते, बल्कि वे इसका ध्यान भी नहीं रखते, चर्चा तो करते ही नहीं; वे जरा-भी ध्यान नहीं देते, जैसे वे लोग वहाँ हों ही नहीं। जब अन्य लोग बोल चुके होते हैं, तो मसीह-विरोधी का अंतिम निर्णय ही होता है, जिसका पालन किया जाना चाहिए—किसी और के शब्द व्यर्थ हैं। उदाहरण के लिए, जब दो लोग किसी काम के लिए ज़िम्मेदार होते हैं, और उनमें से एक में मसीह-विरोधी सार होता है, तो उस व्यक्ति में क्या प्रदर्शित होता है? चाहे कुछ भी काम हो, वह काम हर स्थिति में उसी को करना है, उसी को सवाल पूछने होते हैं, उसी को समस्याएँ सुलझानी होती हैं, उसी को समाधान ढूँढ़ना होता है। और ज्यादातर समय वे अपने साथी को कुछ बताते नहीं। उनकी नजर में उनका साथी क्या होता है? उनका सहायक नहीं, बल्कि वह सिर्फ दिखावे के लिए होता है। मसीह-विरोधी की नजर में, वह उनका साथी होता ही नहीं है। जब भी कोई समस्या आती है, तो मसीह-विरोधी अपने मन में उस पर विचार करते हैं, उस पर चिन्तन करते हैं, और एक बार जब वे इस बारे में निर्णय कर लेते हैं कि कार्य कैसे करना है, तो बाकी लोगों को सूचित कर देते हैं कि यह इस तरह से किया जाएगा, उस पर किसी को सवाल उठाने का हक नहीं होता। दूसरों के साथ उनके सहयोग का सार क्या होता है? सच यह है कि सारे अधिकार उन्हीं के पास होते हैं। वे अकेले ही काम करते हैं, बोलना-चालना, समस्या सुलझाना और अपने ऊपर दायित्व लेना, सब खुद ही करते हैं, उनके साथी तो सिर्फ दिखावे के लिए होते हैं। किसी के साथ काम करने योग्य नहीं होने पर क्या वे अपने काम पर दूसरों के साथ संगति करेंगे? नहीं। कई मामलों में, बाकी लोगों को तभी पता चलता है जब वे उस काम को पूरा कर चुके होते हैं या उसे सुलझा चुके होते हैं। दूसरे लोग उनसे कहते हैं, 'आपको हर समस्या पर हमारे साथ चर्चा करनी चाहिए। आप उस व्यक्ति से कब निपटे? आपने उसे कैसे संभाला? इस बारे में हमें कैसे पता नहीं चला?' वे न तो इन बातों का कोई स्पष्टीकरण देते हैं और न ही उस पर कोई ध्यान देते हैं; उनके लिए, उनके साथी का कोई फायदा नहीं है। जब कुछ होता है, तो वे उस बारे में सोचकर अपना मन बना लेते हैं और जैसा ठीक समझते हैं वैसा ही करते हैं। उनके आस-पास चाहे कितने भी लोग हों, उनके लिए मानो उनका कोई अस्तित्व ही नहीं होता। मसीह विरोधी के लिए, वे हवा की तरह होते हैं। इस तरह, उनके सहयोग से क्या कुछ वास्तविक निकलकर आता है? नहीं, वे सिर्फ लापरवाही से काम कर रहे होते हैं, एक भूमिका निभा रहे होते हैं। लोग उनसे कहते हैं, 'जब कोई समस्या आती है तो तुम सबके साथ संगति क्यों नहीं करते?' जिस पर वे उत्तर देते हैं, 'वे क्या जानते हैं? मैं टीम अगुआ हूँ, यह तय करना मेरा काम है।' दूसरे कहते हैं, 'और तुमने अपने साथी के साथ संगति क्यों नहीं की?' वे उत्तर देते हैं, 'मैंने उसे बताया था, लेकिन उसकी कोई राय ही नहीं है।' वे अपने साथी के राय न होने या खुद से सोचने के काबिल न होने को एक बहाने की तरह इस्तेमाल करते हैं ताकि इस तथ्य को गोलमोल कर दें कि वे खुद ही कानून बने बैठे हैं। वे इस पर जरा-सा भी आत्मनिरीक्षण नहीं करते, सत्य की स्वीकृति की तो बात ही छोड़ दो—वह तो असंभव ही है। यह मसीह विरोधी की प्रकृति की समस्या है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। परमेश्वर द्वारा मसीह-विरोधियों का प्रकाशन बेधक और पीड़ादायी लगा। मैंने उस अवधि के दौरान अपने व्यवहार पर विचार किया, कि कैसे काम में कुछ प्रगति होने पर मुझे लगने लगा कि मुझमें क्षमता और योग्यता है, और मैं अपनी दोनों सहकर्मियों से बेहतर हूँ। कहने को तो वो दोनों बहनें मेरी सहकर्मी थीं, लेकिन असल में वो कठपुतलियाँ थीं। काम की व्यवस्था करते समय मैं कभी उनसे चर्चा नहीं करती थी। मैं वही करती जो मुझे अच्छा लगता, और समझती कि उनकी राय बकवास है और विचारणीय नहीं हैं। कुछ मामलों पर मैं उनसे चर्चा करती भी थी, तो बेमन से करती थी, क्योंकि बात करने से पहले ही मैं सब तय कर चुकी होती थी। मेरी सहकर्मी जब भी मेरी राय से अलग कोई सुझाव देतीं, तो उस पर विचार किए बिना ही मैं उसे तुरंत नकार देती और वही करती जो मैं चाहती थी। कलीसिया ने व्यवस्था की थी कि हम मिलकर काम करें, लेकिन मैं निरंकुश की तरह काम करती थी, हर चीज में अपनी चलाती थी, बहनों को एकदम बाहर कर दिया था, और सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए थे। क्या यह बड़े लाल अजगर की तानाशाही जैसा ही नहीं था? मैंने सोचा कि किस तरह मैंने बहनों को बेबस कर दिया था, जिससे वे नकारात्मक महसूस कर त्यागपत्र देने की सोचने लगी थीं, और टीम का पूरा काम गलतियों से भर गया था। मैं अपना काम नहीं कर रही थी, बल्कि परमेश्वर के घर के काम में बाधा डाल रही थी। इस बात का एहसास होने पर मैं भयभीत हो गई। मैंने परमेश्वर के घर का काम बाधित और अव्यवस्थित किया था, और भाई-बहनों के दुख और परेशानी का कारण बन गई थी। क्या मुझे अपने किए की सजा मिलेगी और मैं हटा दी जाऊँगी? तो मैं नकारात्मकता और गलतफहमी में जीने लगी।
एक दिन संयोगवश मुझे परमेश्वर के वचनों का यह अंश दिखा, "चूँकि मनुष्य का स्वभाव भ्रष्ट है, और उसके समस्त कर्म और व्यवहार और जो कुछ वह प्रकट करता है, वह परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है, इसलिए वह परमेश्वर के प्यार के योग्य नहीं है। हालाँकि, परमेश्वर अभी भी मनुष्य के लिए बहुत परवाह और चिंता करता है, और वह मनुष्य के लिए एक ऐसे परिवेश की व्यवस्था करता है जिसमें वह उसका व्यक्तिगत रूप से परीक्षण और शुद्धिकरण करे, जिससे वह परिवर्तन से गुज़रने में सक्षम हो सके; वह मनुष्य को इस परिवेश के माध्यम से सत्य से सुसज्जित होने और सत्य को प्राप्त करने देता है। परमेश्वर मनुष्य को इतना प्रेम करता है, और उसका प्रेम इतना वास्तविक है, और परमेश्वर वफ़ादार होने के अलावा कुछ नहीं है। तुम इसे महसूस करोगे। अगर परमेश्वर ने ये काम न किए होते, तो कोई भी नहीं कह सकता कि मनुष्य कितना नीचे गिर गया होता! मनुष्य अपनी हैसियत, अपनी प्रसिद्धि और संपत्ति का प्रबंधन करने की कोशिश करता है, और अंत में, यह सब कर लेने के बाद, वह दूसरों को जीतकर अपने पक्ष में कर लेता है और उन्हें अपने सामने लाता है—क्या यह परमेश्वर के विरोध में नहीं है? इस तरह से जारी रखने के परिणामों की कल्पना करना कठिन नहीं है! परमेश्वर समय पर इस सब पर रोक लगाकर उत्कृष्ट कार्य करता है! हालाँकि परमेश्वर जो करता है, उससे मनुष्य उजागर होता है और वह उसका न्याय करता है, लेकिन यह कार्य उसे बचाता भी है। यह असली प्यार है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'परमेश्वर में विश्वास करने का सबसे महत्वपूर्ण भाग सत्य को व्यवहार में लाना है')। यह अंश पढ़कर मेरे दिल को ठंडक मिली, मानो परमेश्वर ठीक मेरी बगल में खड़ा होकर मुझे दिलासा और हौसला दे रहा हो। मैं समझ गई कि मेरी काट-छाँट और निपटारे का अनुभव मुझे उजागर और मेरा न्याय तो कर रहा है, पर यह परमेश्वर का प्रेम है। परमेश्वर ने मुझे दुष्टता से रोकने के लिए मेरा न्याय और खुलासा किया था। इसने मुझे मेरे भ्रष्ट स्वभाव और गलत मार्ग से भी अवगत कराया। अगर मैं इसी तरह चलती रहती, तो इसके नतीजे भयानक होते। मैंने बाइबल में नीनवे के लोगों के लिए योना की घोषणा के बारे में सोचा, "अब से चालीस दिन के बीतने पर नीनवे उलट दिया जाएगा" (योना 3:4)। परमेश्वर ने योना को उन्हें नष्ट करने की अपनी मंशा बताने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें चेताने और पश्चात्ताप का मौका देने के लिए भेजा था। परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और प्रतापी है, लेकिन प्रेमपूर्ण और दयालु भी है। यह परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव है। मैं यह साफ़ तौर पर समझ गई कि परमेश्वर ने मुझे चेताने के लिए मेरा न्याय कर मुझे उजागर किया, और चीजों आदि का आयोजन भी किया। परमेश्वर का इरादा मुझे दंडित करने का नहीं था। उसने मुझे जगाने और पश्चात्ताप करवाने के लिए इसका इस्तेमाल किया। इन बातों का एहसास होने पर मेरा दिल रोशन हो गया, और मैं उतनी दुखी नहीं रही। अगर मैं पश्चात्ताप न करती, तो खतरे में पड़ जाती। मैंने परमेश्वर से बार-बार प्रार्थना की कि वह आत्म-चिंतन और आत्म-ज्ञान प्राप्त करने में मेरा मार्गदर्शन करे।
एक दिन भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा। "अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ही ज़्यादा अहंकारी होते हैं, उतनी ही अधिक संभावना होती है कि वे परमेश्वर का प्रतिरोध करेंगे। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं। भले ही कुछ लोग, बाहरी तौर पर, परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसको परमेश्वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्ता स्थापित करने की ख़ातिर परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं। यदि लोग परमेश्वर का आदर करने की स्थिति में पहुँचना चाहते हैं, तो पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभावों का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, उतना अधिक आदर तुम्हारे भीतर परमेश्वर के लिए होगा, और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित हो सकते हो, सत्य को प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो" (परमेश्वर की संगति)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैं समझ गई कि अपनी अहंकारी प्रकृति के कारण मैंने मनमाने ढंग से काम किया और दूसरों के साथ कोई सहयोग नहीं किया। मैंने देखा कि चूँकि मैं प्रभारी चुन ली गई थी, मैंने काफी पेशेवर ज्ञान हासिल कर लिया था, अपने काम में कुछ परिणाम दे दिए थे और कुछ समस्याएँ सुलझा ली थीं, इसलिए मैं संतुलन खोकर खुद को बहुत ऊँचा समझने लगी थी। मुझे लगा कि मैं बहुत प्रतिभाशाली हूँ और अद्वितीय है, मानो किसी के पास इतनी क्षमता या काबिलियत न हो, इसलिए खुद को दूसरों से ऊपर रखकर मैं उन पर हावी हो गई थी। मैं जैसा चाहती वैसा करती, दूसरों से न तो चर्चा करती और न ही उन्हें कुछ बताती। मैं अपनी सहकर्मियों के सुझाव तक नहीं सुनती थी। वो चाहे कुछ भी कहतीं, मैं अपनी राय को ही सर्वश्रेष्ठ मानती थी। मैं मन में उनसे घृणा करती थी और उन्हें सिर्फ कठपुतली समझती थी। मेरे साथी मुझे बार-बार याद दिलाते कि मैं उनसे चीजों पर चर्चा करूँ। ये परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्थाएँ थीं। मैं हमेशा गलतियाँ करती और अटक जाती, यह परमेश्वर का मुझसे निपटना और अनुशासित करना था। लेकिन जब यह सब मेरे साथ हुआ, तो मैंने खोज या चिंतन नहीं किया। क्या मुझमें परमेश्वर की आज्ञाकारिता या भय था? मुझे महादूत का अहंकार याद आ गया। उसमें परमेश्वर का कोई भय नहीं था। इंसान परमेश्वर ने बनाए, पर महादूत ने उन पर काबू करना चाहा, वह परमेश्वर के समकक्ष होना चाहता था। अहंकार और दंभ विशिष्ट शैतानी स्वभाव हैं। अपनी ऐसी शैतानी प्रकृति के कारण मैं परमेश्वर का भय या आज्ञा कैसे मानती? मैं सत्य का अभ्यास कैसे करती, सामान्य मानवता कैसे जी पाती? तब मुझे एहसास हुआ कि अपने अहंकारी स्वभाव से छुटकारा पाना ही स्वभाव में बदलाव लाने की कुंजी है! मेरे अपनी सहयोगियों के साथ सहयोग न कर पाने का कारण भी यही था।
बाद में मुझे परमेश्वर के वचनों का एक और अंश याद आया। "परमेश्वर लोगों से यह अपेक्षा नहीं करता कि उनमें एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने की क्षमता हो या वे कोई महान उपक्रम संपन्न करें, न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का प्रवर्तन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या माननीय बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने देखा है उसे याद रखो और सही समय आने पर परमेश्वर के कहे अनुसार अभ्यास करो, ताकि परमेश्वर के वचन तुम्हारी जीवन-शैली और तुम्हारा जीवन बन जाएँ। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। तुम हमेशा महानता, कुलीनता और प्रतिष्ठा ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और इसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीज़ों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चाताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुम्हें तुच्छ समझकर त्याग देगा। सुनिश्चित करो कि तुम ऐसे व्यक्ति न बनो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? सत्य को व्यावहारिक तरीके से ग्रहण करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, एक ईमानदार व्यक्ति होने के लिए परमेश्वर के वचन पर दृढ़ता से भरोसा करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन करके और एक सच्चे की इंसान की तरह जीवन जी कर" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग')। परमेश्वर के वचनों से मुझे समझ आया कि परमेश्वर हमारी उपलब्धि या काम की मात्रा नहीं देखता, न ही वह हमारे हुनर और क्षमता देखता है। वह देखता है कि हम उसके वचन सुन सकते, उसकी आज्ञा मान सकते, सामान्य मानवता को जी सकते, लोगों से सहयोग कर सकते और अपने कर्तव्य निभा सकते हैं या नहीं। परमेश्वर यही सब देखकर अपनी स्वीकृति देता है। पर मैंने परमेश्वर की अपेक्षाओं को नहीं समझा। मैं कुछ काम कर पाई और मुझमें कुछ क्षमता और हुनर थे, इसलिए मैं अहंकारी हो गई थी, खुद को प्रतिभाशाली और दूसरों से बेहतर समझती थी, मैं खुद को सबसे ऊपर रखकर उन पर अपनी राय थोपने लगी थी। मुझमें विवेक नहीं रहा था। मुझे अनुग्रह के युग के पौलुस का खयाल आया। उसके पास क्षमता और प्रतिभा थी, उसने सुसमाचार का प्रचार करते हुए बहुत सहा, बहुत काम किया, और दूसरों से अपनी प्रशंसा और सम्मान करवाया, लेकिन बरसों काम करके भी उसके जीवन-स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया, उसने अपना ही उत्कर्ष और दिखावा किया, और अंतत: उसने अपने सबसे अहंकारी शब्द बोले, "क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है" (फिलिप्पियों 1:21)। इस सबके कारण पौलुस अंततः परमेश्वर की स्वीकृति नहीं पा सका और परमेश्वर द्वारा हमेशा के लिए दंडित किया गया। कोई कितना भी हुनरमंद या सक्षम हो या लोगों में उसका कैसा भी रुतबा या ताकत हो, अगर वह सत्य का अनुसरण या स्वभाव में बदलाव नहीं करता, तो सब बेकार है। ये चीजें न तो सत्य हैं और न ही लोगों के उद्धार की पूँजी हैं। परमेश्वर लोगों को इनके आधार पर नहीं बचाता या पूर्ण नहीं करता। मुझे लगा, मेरे अंदर क्षमता और प्रतिभा है, लेकिन मैं बुनियादी सामान्य मानवता भी नहीं जी सकी, मुझमें भाई-बहनों के लिए बुनियादी सम्मान नहीं था, और मैं सही सलाह भी नहीं मानती थी। मेरे स्वभाव में जरा भी बदलाव नहीं आया था। भाई-बहनों ने मुझे कई बार चेताया, मेरी मदद की, परमेश्वर ने मुझे दंडित और अनुशासित किया, लेकिन मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। गंभीर काट-छाँट और निपटारे से ही मैं आत्मचिंतन कर पाई। मैं बहुत सुन्न थी! मेरे अंदर बुरी काबिलियत थी! अच्छी काबिलियत वाला इंसान चीजें घटित होने पर सत्य खोजेगा, परमेश्वर की इच्छा समझने में सक्षम होगा और उसके द्वारा व्यवस्थित परिवेश से सबक सीखेगा। आत्मचिंतन करके मैंने पाया कि मैं बेहद अहंकारी थी। मुझमें जरा भी विवेक नहीं था और मैं इंसान की तरह नहीं जी रही थी, फिर मुझे परमेश्वर की स्वीकृति कैसे मिल सकती थी? मेरी दोनों साथिनों ने मुझसे ज्यादा समय तक यह काम किया था, लेकिन मैंने उन्हें कभी घमंड करते नहीं देखा। वे अभी भी समस्या आने पर मुझसे चर्चा करती थीं, और जब मैं उन्हें नीचा दिखाती और तुच्छ समझती, तो वे हमेशा सहिष्णु और धैर्यवान बनी रहकर प्यार से मेरी मदद करती थीं। उन्हें इंसान की तरह जीते देखकर मुझे खुद पर शर्म आने लगी। मैंने देखा कि मेरा विवेक और मानवता खराब थी। मुझमें आत्म-जागरूकता नहीं थी! मैंने वीडियो-टीम के काम को बहुत नुकसान पहुँचाया और उसमें बाधा डाली, और अपनी सहकर्मियों को भी हानि पहुँचाई। मेरी करतूतें देखी जाएँ, तो मैं इतने महत्वपूर्ण काम के योग्य नहीं थी। इस बात का एहसास होने पर मैंने खुद को धिक्कारा। मैंने कसम खाई कि भले ही मुझे बरखास्त कर दिया जाए या मुझे कोई भी नतीजे भुगतने पड़ें, मैं सत्य का अनुसरण करूँगी, अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करूँगी और अब अहंकारी बनकर मनमानी नहीं करूँगी।
बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश देखा, जो मेरी ही समस्या से जुड़ा था। "सामँजस्यपूर्ण सहयोग का मतलब होता है दूसरों को अपनी बात कहने देना और उन्हें वैकल्पिक सुझाव प्रस्तुत करने का अवसर देना, इसका अर्थ होता है कि दूसरों की मदद और सलाह को स्वीकारना सीखना। कभी-कभी लोग कुछ नहीं कहते, तो तुम्हें उन्हें अपनी राय देने के लिए प्रेरित करना चाहिए। किसी भी समस्या में सत्य-सिद्धांतों की तलाश कर एक आम राय बनानी चाहिए। इस तरह से काम करके तुम एक सामँजस्यपूर्ण सहयोग का वातावरण बना सकते हो। एक अगुआ के तौर पर अगर तुम हर समय अपने आपको दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी अधिकारी की तरह पेश आओगे, अपने पद के नशे में रहोगे, हमेशा योजनाएँ बनाते रहोगे, अपने तरीके से संचालन करते रहोगे, सफलता और तरक्की के लिए संघर्ष करते रहोगे, तो फिर यह परेशानी वाली बात है : इस तरह से किसी सरकारी अधिकारी की तरह व्यवहार करना बेहद जोखिम भरा है। अगर तुम हमेशा इसी तरह से कार्य करते हो, और तुम किसी और के साथ सहयोग नहीं करना चाहते, जिससे तुम्हारा अधिकार दूसरों में बिखर जाता है, तुम्हारी चमक चोरी हो जाती है, तुम्हारे सिर से प्रभामंडल छिन जाता है—अगर तुम सारी चीजें अपने तक ही रखना चाहते हो, तो तुम मसीह-विरोधी हो। लेकिन अगर तुम अकसर सत्य की तलाश करते हो, यदि तुम आत्म-प्रेरणाओं और युक्तियों से दैहिक सुखों से विमुख हो जाते हो, और अगर तुम दूसरों के साथ सहयोग करने की पहल कर सकते हो, अकसर अपना दिल खोलकर दूसरों से परामर्श करते हो और उनकी सलाह लेते हो, और अगर तुम दूसरों के सुझाव अपना सकते हो और उनके विचार और शब्द ध्यान से सुन सकते हो, तो तुम सही रास्ते पर, सही दिशा में जा रहे हो। अपने को दूसरों से बेहतर समझना बंद करो और अपना खिताब एक तरफ रख दो। इन चीजों पर ध्यान मत दो, इन्हें जरा भी महत्वपूर्ण मत समझो, और इन्हें हैसियत के निशान के रूप में, प्रतिष्ठा के रूप में मत देखो। अपने दिल में विश्वास करो कि तुम और अन्य समान हैं; अपने आप को दूसरों के साथ बराबरी पर रखना सीखो, यहाँ तक कि दूसरों से उनकी राय माँगने के लिए झुकने में भी सक्षम हो जाओ। दूसरों की बातें गंभीरता से, सावधानी से और ध्यानपूर्वक सुनने में सक्षम हो जाओ। इस तरह तुम अपने और दूसरों के बीच शांतिपूर्ण सहयोग उत्पन्न कर लोगे। तो शांतिपूर्ण सहयोग कौन-सा काम करता है? यह वास्तव में बहुत बड़ा काम करता है। इससे तुम ऐसी चीजें पा लोगे जो तुम्हारे पास कभी नहीं थीं, तुम नई चीजें, उच्च क्षेत्रों की चीजें पा लोगे; तुम दूसरों के गुण जान लोगे और उनकी क्षमताओं से सीख लोगे। और एक बात और भी है : तुम्हारी धारणाओं में मौजूद पहलू, जहाँ तुम दूसरों को मंदबुद्धि, मूर्ख, मूढ़, अपने से कमतर समझते हो—जब तुम दूसरों के सुझाव सुनते हो, या जब दूसरे तुमसे बात करने के लिए अपना दिल खोलते हैं, तो तुम अनजाने ही यह महसूस करने लगते हो कि कोई भी भोंदू नहीं है, कि हर किसी के पास, चाहे वह कोई भी हो, कुछ महत्वपूर्ण विचार होते हैं। और इस तरह, तुम हरफनमौला बनना छोड़ दोगे, फिर तुम अपने आपको दूसरों से ज्यादा चतुर और बेहतर समझना छोड़ दोगे। यह तुम्हें हमेशा एक आत्म-मुग्धता, आत्म-प्रशंसा की स्थिति में रहने से रोकता है। यह तुम्हारी रक्षा करता है, है ना? दूसरों के साथ काम करने के ये नतीजे और फायदे होते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ गई कि कोई भी पूर्ण नहीं है, कोई भी समस्याओं को स्पष्ट नहीं देख सकता। हमारे कार्यों में गलतियाँ और भटकाव अपरिहार्य है, लेकिन अगर हम दूसरों से सहयोग करें और एक-दूसरे की खूबियों से सीखें, तो हम समस्याओं से बच सकते हैं और तभी हमारे कार्य सुधर सकते हैं। अपने सहकर्मियों के साथ अधिक से अधिक सहयोग करके हम दूसरों की काबिलियत जान सकते हैं, सबके साथ उचित और न्यायपूर्ण व्यवहार कर सकते हैं, दूसरों को हीन समझकर नीची नजर से नहीं देखते। यह हमें अहंकार और दंभ की स्थिति में जीने, तानाशाह की तरह काम करने, मनमानी करने या मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से भी रोकता है। लेकिन मैं अपने काम में अहंकारी हो गई और उन्हें अपने से हीन समझने लगी। मैं हमेशा अपनी ही बात मनवाना चाहती थी, मैंने भाई-बहनों के साथ सहयोग नहीं किया, और आखिरकार, मैंने खुद को ही नुकसान नहीं पहुँचाया, उन्हें भी बहुत कष्ट दिया, और परमेश्वर के घर के काम में देरी की। तभी जाकर मैंने भाई-बहनों के साथ सहयोग करने का महत्व जाना!
बाद में मुझे अपनी सहकर्मियों से खुलकर बात करने का अवसर मिला। मैंने उन्हें बताया कि मैं कितनी अहंकारी और दंभी हो गई थी और मैंने उन्हें कितना नुकसान पहुँचाया, और आत्मचिंतन करने पर कैसे मैंने समस्याओं को पहचाना। मैंने उनसे माफी भी माँगी और उनसे निगरानी रखने को कहा। अगर वो देखें कि मैं अहंकारी या दंभी हो रही हूँ, या उनके सुझाव नहीं मान रही, तो वो इस ओर इशारा करें, मेरी काट-छाँट और निपटारा करें या मैं इसे स्वीकार न करूँ तो मेरी रिपोर्ट कर दें। मुझ जैसी अहंकारी और दंभी को ऐसे ही खास इलाज की जरूरत थी। इस तरह अभ्यास करने से मुझे दृढ़ता का एहसास हुआ, जैसे किसी कैंसर-रोगी को आखिरकार इलाज मिल गया हो। हर दिन मैं अपनी समस्याएँ परमेश्वर के सामने लाकर उससे प्रार्थना करती, उससे सुरक्षा और अनुशासन की विनती करती, ताकि फिर कभी इस तरह के अनुचित काम न करूँ। अनजाने में ही मैं धर्मनिष्ठ होती चली गई। किसी भी काम से पहले मैं अपने सहयोगियों से चर्चा और संवाद करती, और अगर उनकी राय अलग होती, तो उन्हें आँख मूँदकर नकारने के बजाय खोज और चिंतन करके यह देखती कि क्या उनके विचार सिद्धांत के अनुरूप और लाभदायक हैं, इससे मेरे अपनी ही बात मनवाने पर भी लगाम लगी।
मुझे याद है, एक बार हम कार्मिकों के तबादलों पर चर्चा कर रहे थे। मैंने एक बहन को दूसरे समूह में भेजने का सुझाव दिया, लेकिन मेरी सहयोगियों ने लोगों को बहुत अधिक स्थानांतरित करने की सलाह नहीं दी। उन्होंने कहा कि हमें नए लोगों को चुनना और प्रशिक्षित करना है। जब मैंने अपने सहयोगियों की अलग राय सुनी, तो मैंने कहना चाहा कि मेरा विचार सही है, लेकिन मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर अहंकारी स्वभाव दिखाने जा रही हूँ। मैंने तुरंत मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना की, कि वह मुझे खुद को नकारने और त्यागने में मेरी मदद करे। उस समय अचानक मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए, "मतभेद को हल्के में नहीं लेना चाहिए; अपने काम से जुडी हर बात को तुम्हें बहुत गंभीरता से लेना चाहिए। उन्हें बस नजरअंदाज करते हुए यह न कहो, 'इसके बारे में तुम जानते हो या मैं? मैं इसे लंबे समय से कर रहा हूँ—मैं तुमसे ज्यादा कैसे नहीं जान सकता? तुम क्या जानते हो? कुछ नहीं!' यह एक बुरा स्वभाव है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अगर तुम हमेशा परमेश्वर के समक्ष नहीं रह सकते तो तुम अविश्वासी हो')। हाँ। मेरे सहयोगियों ने आपत्ति जताई थी, तो मुझे उस पर सोचना था, न कि अपने विचार पर अड़े रहना था। अगर इस मामले पर मेरे विचार सही नहीं हुए तो? उनके सुझाव में क्या अच्छा है और परमेश्वर के घर के कार्य को उससे क्या लाभ होगा? जब मैंने इस तरह सोचा, तो मुझे उनका सुझाव ज्यादा लाभकारी लगा। नई प्रतिभाओं को विकसित करने से कर्मियों की कमी की समस्या जड़ से खत्म हो जाती है। उनके मुकाबले मेरा नजरिया थोड़ा एकतरफा था। अंत में हमने उनके सुझाव पर अमल किया। मुझे शांति महसूस हुई। मुझे लगा कि आखिर एक बार तो मैं सही इंसान बन ही गई, मैंने खुद को नकारकर सत्य का पालन किया है। ऐसा करके मुझे बहुत अच्छा लगा।
सहकर्मियों के साथ कुछ समय तक सहयोग करने के बाद, मैंने पाया कि मेरी दोनों बहनें मेरे मुकाबले समस्याओं पर व्यापक रूप से विचार करती हैं। मेरे कई सुझाव सच में अनुचित थे, लेकिन उनकी सलाह से मेरी कमियाँ दूर हो गईं। अपने सहकर्मियों से सहयोग करते समय हमें एक-दूसरे की खूबियों से सीखना चाहिए और एक-दूसरे की मदद, निगरानी, नियंत्रण करना चाहिए, इस तरह हम अपने कार्यों में बेहतर होते जाते हैं। मैंने महसूस किया कि हममें से कोई भी दूसरे से बेहतर नहीं होता। हरेक की अपनी खूबियाँ और कमजोरियाँ होती हैं, और कोई भी अपने दम पर अपने कार्य अच्छे से नहीं कर सकता। हमें अपने सहकर्मियों के साथ सहयोग करना और एक-दूसरे का पूरक होना चाहिए। अपने कार्य बेहतर करने और गलत रास्ते पर न जाने का यही एकमात्र तरीका है। परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, काट-छाँट और निपटारे के बिना मैं अभी भी अपने अहंकारी स्वभावों से कार्य करते हुए मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रही होती, और अंत में परमेश्वर द्वारा हटा दी जाती और दंडित की जाती। आज मुझमें जो यह समझ और बदलाव आया है, यह परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का परिणाम है, और मुझे बचाने के लिए मैं परमेश्वर की आभारी हूँ!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?