सत्य का अभ्यास करने का अनुभव
बहुत पहले की बात नहीं है, मैं ने "जीवन में प्रवेश के विषय में संगति और प्रचार" सुना, जिसने यह समझने हेतु मेरी अगुवाई की कि केवल ऐसे लोग जो सत्य का अभ्यास करते हैं वे ही उस सत्य को प्राप्त कर सकते हैं और अन्ततः ऐसे मनुष्य बन सकते हैं जो सत्य एवं मानवता को धारण करते हैं और इस प्रकार परमेश्वर की स्वीकृति हासिल करते हैं। तब से, मैं ने अपने दैनिक जीवन में अपने शरीर को त्यागने और सच्चाई का अभ्यास करने के लिए एक सचेत प्रयास किया। कुछ समय पश्चात्, मुझे प्रसन्नता से पता लगा कि मैं कुछ सच्चाई का अभ्यास कर सकती हूँ। उदाहरण के लिए, अतीत में मैं दूसरों को अपना अंधकारमय पहलू दिखाने से डरती थी। अब मैं जानबूझकर अपने भाइयों एवं बहनों के साथ खुल गई थी, और अपने भ्रष्ट स्वभाव का विश्लेषण करती थी। इससे पहले, जब मुझे कांटा-छांटा गया और निपटाया गया था, तब मैं बहाने बनाती और ज़िम्मेदारी से भागती। अब मैं अपने बुरे व्यवहार को सही ठहराने की कोशिश करने के बजाय स्वयं का परित्याग करने के लिए सचेत प्रयास करती थी। अतीत में, जब मैं ने अपने साथ काम कर रहे सहभागियों के साथ टकराव का अनुभव किया, तब मैं संकीर्ण-सोचवाली, क्षुद्र और रूठ जाने वाली थी। अब जब मैं उन स्थितियों का सामना करती थी तो मैं अपने शरीर को त्यागती और दूसरों के साथ सहनशीलता एवं धैर्य का अभ्यास करती। हर बार जब मैं सत्य के अभ्यास में अपनी प्रगति के विषय में सोचती थी, तो में अत्यंत प्रसन्नता का एहसास करती थी। मैं ने सोचा कि कुछ सच्चाई का अभ्यास करने हेतु मेरी क्षमता का अर्थ था कि मैं असल में सत्य का अभ्यास करने वाली हूँ। इस रीति से, मैं अनजाने में अहंकारी और स्वयं को बधाई देने वाली बन गई।
एक दिन, मुझे संयोग से परमेश्वर के निम्नलिखित वचन मिले: "कुछ लोग कहते हैं, 'मुझे लगता है अब मैं कुछ सत्यों को व्यवहार में शामिल करने में सक्षम हूँ, ऐसा नहीं है कि मैं सत्य को व्यवहार में ला ही नहीं सकता हूँ। कुछ परिवेशों में, मैं चीजों को सत्य के अनुसार कर सकता हूँ, इसका मतलब है कि मेरी गिनती ऐसे व्यक्तियों में है जो सत्य को व्यवहार में लाते हैं और मेरी गिनती ऐसे व्यक्तियों में हैं जिनके पास सत्य है।' वास्तव में, पहले की में, या जब तुमने पहली बार परमेश्वर में विश्वास करना शुरू किया उसकी तुलना में, इस तरह की परिस्थिति में तुमने थोड़े-बहुत बदलाव का प्रदर्शन किया है। अतीत में, तुम कुछ नहीं समझते थे, न ही तुम जानते थे कि सत्य क्या है या भ्रष्ट स्वभाव क्या है। अब तुम कुछ-कुछ जानने लगे हो और कुछ बढ़िया अभ्यास के तरीके पाने में सक्षम हो गए हो, लेकिन यह बदलाव का बहुत छोटा हिस्सा है; यह में तुम्हारे स्वभाव का सच्चा रुपांतरण नहीं है क्योंकि तुम अपनी प्रकृति से संबंधित उन्नत और गहन सत्यों को अभ्यास में लाने में असमर्थ हो। तुम्हारे अतीत के विपरीत, तुममें निश्चय ही कुछ बदलाव हुआ है, लेकिन यह रूपान्तरण तुम्हारी मानवता में केवल एक छोटा बदलाव है; जब इसकी तुलना सत्य की सर्वोच्च अवस्था से की जाती है, तो तुम लक्ष्य से बहुत दूर नजर आते हो। अर्थात तुम सत्य को व्यवहार में शामिल करने के मामले में लक्ष्य से दूर हो" ("मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी प्रकृति को समझना और सत्य को व्यवहार में लाना')। इन वचनों को पढ़ने के पश्चात्, मैं अचम्भित होने से अपने आपको रोक नहीं सकी। वह सब जिसे मैं पूरा किया था वे कुछ अच्छे व्यवहार थे? मैं सही मायने में सच्चाई का अभ्यास करने से अभी भी दूर हूँ? तो ठीक है, मैं ने सोचा, सही मायने में सच्चाई का अभ्यास करने का क्या अर्थ है? मैं ने इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर खोजना आरम्भ कर दिया। बाद में, मैंने एक उपदेश पढ़ा जिसमें लिखा था: "ऐसे लोग जो स्वेच्छा से सच्चाई का अभ्यास करते हैं वे उस कीमत का वहन कर सकते हैं और वे उन कठिनाईयों को स्वीकार करने के लिए तैयार होते हैं जो उसमें शामिल है। स्पष्ट रूप से, उनके हृदय प्रसन्नता एवं आनंद से भरे हुए हैं। जो सच्चाई का अभ्यास करने के लिए तैयार हैं वे बस यों ही बिना रूचि के कभी काम नहीं करेंगे, क्योंकि वे इसे बस यों ही दिखावे के लिए नहीं कर रहे हैं बल्कि इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उनके पास सामान्य मानवता का विवेक एवं तर्क है, और वे परमेश्वर की रचनाओं के रुप में अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। उनके लिए, सच्चाई का अभ्यास करना मानव होने का आधार है; यह ऐसा गुण है जिसे किसी मनुष्य को धारण करना चाहिए जिसके पास सामान्य मनुष्यत्व है" (ऊपर से संगति)। इसे पढ़ने के बाद, मैं आखिरकार समझ गई: सच्चाई का असल में अभ्यास करनेवाले ही सच्चाई का अभ्यास कर सकते हैं क्योंकि वे ऐसा करने के उद्देश्य को समझते हैं। वे जानते हैं कि सच्चाई का अभ्यास करना ही वह बात है जिसका आशय मानव होना है, ऐसा गुण जो मनुष्यों के पास होना चाहिए। इसलिए, वे इसे दिखावे के लिए नहीं करते हैं; वे इसे अपने कर्तव्य के रूप में देखते हैं। वे कठिनाईयों को सहने और कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं; वे व्यक्तिगत इरादों और इच्छाओं से रहित हैं। परन्तु मैं ने सच्चाई का अभ्यास कैसे किया था? अपने भ्रष्ट स्वभावों को प्रकट करते समय, शायद मैं स्पष्टवादी रही हूँ और उन्हें अपने भाइयों और बहनों पर प्रकट किया है, परन्तु अपने हृदय में मैं सोच रही थी, "देखो मैं किस प्रकार सच्चाई का अभ्यास करती हूँ? मैं अपने भ्रष्ट स्वभावों को व्यक्त करने में सक्षम हूँ। यह मुझे आप लोगों से बेहतर बनाता है, है ना?" जब मेरी कांट-छांट की गई और मुझे निपटाया गया, तब शायद मैं ने जोरदार बहाना नहीं बनाया, परन्तु भीतर से मैं कह रही थी "देखो? मैं अब आगे से बहाने नहीं बनाती हूँ। मैं ने बहुत अधिक सुधार किया है। मैं कदाचित् किसी ऐसे व्यक्ति के रूप में योग्य (पास) हुई हूँ जो अब सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार है, है ना?" ... जब अपने साथ काम कर रहे सहभागियों के साथ मेरा टकराव हुआ, तो शायद मैं ने स्वयं को रोकने और किसी आवेग को टालने के लिए जानबूझकर प्रयास किया हो, परन्तु अपने हृदय में मैं सोच रही थी, "देखो? मैं वैसी नहीं हूँ जैसी पहले थी, क्षुद्र और संकीर्ण-सोचवाली। मैं बदल चुकी हूँ, है ना?" जब मैं ने सोचा कि किस प्रकार मैं सच्चाई का अभ्यास कर रही थी, तो मुझे अन्ततः एहसास हुआ कि मैं वास्तव में सच्चाई का अभ्यास कर ही नहीं रही थी। मैं अपने स्वयं के उद्देश्यों और इच्छाओं से भरी हुई थी। मैं इसे दिखावे के लिए कर रही थी। मैं चाहती थी कि अन्य लोग मेरी प्रशंसा करें और मुझे शुभकामनाएं दें। मैं कैसे कह सकती थी कि मैं सच्चाई का अभ्यास कर रही थी क्योंकि मैं ने उसके महत्व समझ लिया था? मैं अपने परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए यह कैसे कर रही थी? मैं इसे स्वयं को संतुष्ट करने के लिए और दूसरों को दिखाने के लिए कर रही थी। मैं परमेश्वर के साथ चालाकी और धोखा कर रही थी। वास्तव में, मैं सच्चाई से विश्वासघात कर रही थी। मेरा तथाकथित "सच्चाई का अभ्यास" बस नियमों का पालन करना था। यह संयम का एक अभ्यास, और कुछ बुरे बर्तावों की समाप्ति थी। यह केवल एक बाहरी परिवर्तन था। मैं उन मानकों को पूरा करने से काफी दूर थी और अभी भी दूर हूँ जो सच्चाई का अभ्यास करने वाले के लिए अपेक्षित हैं। फिर भी, न केवल मैं ने निर्लज्जता से सोचा था कि मैं सच्चाई का अभ्यास करनेवाली हूँ, बल्कि इसके परिणामस्वरूप मैं स्वयं-बधाई देनेवाली भी बन गई थी। मेरा व्यवहार वाकई में सीमा से बाहर था!
परमेश्वर, आपके अद्भुत प्रकाशन और मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद। मुझे यह दिखाने के लिए धन्यवाद कि मैं सत्य का सच्चा अभ्यास करनेवाली नहीं थी और यह कि सत्य के विषय में मेरा क्रियान्वयन आपके मानकों को पूरा नहीं करता था। इस दिन के आगे से, मैं अपने स्वयं के इरादों की जांच करने के लिए और उन मानकों तक अपने आपको रोके रखने के लिए तैयार हूँ जो सच्चाई का अभ्यास करने के लिए अपेक्षित हैं। मैं स्वयं की अशुद्धियों से छुटाकारा पाऊँगी और असल में सच्चाई का अभ्यास करने वाली बनूंगी।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?