निगरानी स्वीकार कर मुझे कैसे मदद मिली
मेरे पास दो टीमों के सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी थी। कुछ समय पहले, कुछ अन्य भाई-बहनों को व्यावहारिक काम न करने और हमेशा अपने कर्तव्य में लापरवाही के लिए बर्खास्त किया गया था। मुझे थोड़ी घबराहट हो रही थी। मैं सोच रही थी कि मुझे पक्के तौर पर वास्तविक काम करना और व्यावहारिक मसले हल करना था, नहीं तो मैं भी बर्खास्त कर दी जाऊँगी। एक बार सभा में अगुआ ने मुझसे पूछा, "क्या आपने उन भाई-बहनों के साथ सिद्धांतों पर संगति की है, जिनका हाल ही में दूसरी कलीसियाओं से तबादला किया गया था?" मैं भौचक्की रह गई। यह तो समस्या हो गई—मैंने उन्हें केवल काम के बारे में बताया था, सिद्धांतों के बारे में नहीं। मैं अगुआ से क्या कहूँ? अगर कहा कि मैंने संगति नहीं की है तो क्या वह सोचेगी कि मैंने वास्तविक काम नहीं किया? अगर कहा कि मैंने संगति की है तो यह सच नहीं होगा। मुझे थोड़ा अपराध बोध हुआ, मैंने हकलाते हुए कहा, "मैंने बस उनकी कमी के आधार पर थोड़ी सी संगति की।" अगुआ तुरंत बोली, "यदि आप उनके साथ सिद्धांत साझा नहीं करतीं, तो उन्हें अपने कर्तव्य में कोई दिशा नहीं मिलेगी। क्या वे इससे अच्छे नतीजे पा सकते हैं? हमें इन भाई-बहनों का पोषण करने पर ध्यान देना होगा।" जब अगुआ ने मेरी समस्या बताई, तो मेरा चेहरा तमतमा गया। मैं सोच रही थी कि इसके बाद वह मेरे बारे में क्या सोचेगी, अगर उसने सोचा कि मैंने इतना बुनियादी काम भी पूरा नहीं किया, तो मतलब यह कि मैंने व्यावहारिक कार्य नहीं किया।
जल्दी ही, मेरी जिम्मेदारी वाली टीमों में से एक की उत्पादकता गिरनी शुरू हो गई, तब मेरे काम में काफी समस्याएं आ रही थीं। अगुआ को लगा कि ऐसा होने पर हमारे काम की प्रभावशीलता कम हो सकती है, तो उसने मेरी जिम्मेदारी वाली दो टीमों में से एक कम कर दी। यह खबर सुनकर मैं बहुत परेशान हो गई। मुझे ताज्जुब हुआ क्या अगुआ सोचती है कि मैं ऐसी हूँ जो व्यावहारिक कार्य नहीं करती। वरना वह मेरी जिम्मेदारियों का दायरा कम न करती। कुछ समय से वह मेरे काम की काफी खोज-खबर ले रही थी। क्या उसे लगता था कि मैं अपने कर्तव्य में मेहनती नहीं थी, यानी मैं भरोसे के लायक नहीं थी? अगर उसे मेरी और गलतियाँ मिलीं तो क्या वह मुझे बर्खास्त कर देगी? उस दौरान जब भी मैं सुनती कि अगुआ हमारी सभा में आ रही है, तो मैं सोचने लगती कि वह कैसे सवाल पूछेगी, किस काम की खोज-खबर लेगी। मुझे हर बार यही लगता कि अगुआ पूछेगी कि भाई-बहन अपने कर्तव्य कैसे निभा रहे हैं, इसलिए मैं सभा से पहले ही इसका पता लगाने दौड़ पड़ती थी। कभी-कभी दूसरे मसलों को हल करना जरूरी होता था, पर अगले दिन अगुआ के सवालों का जवाब न दे पाने का खयाल आता तो मुझे डर लगता कि मैं व्यावहारिक काम न करने के कारण उजागर हो जाऊँगी। इसलिए मैं वो मुद्दे टाल देती, जिन पर तुरंत बात करनी होती थी और एक-एक करके दूसरे मुद्दों पर बात करती थी। कुछ समय बाद मैं केवल उन कामों को निपटाने पर लगातार जुट गई, जिन पर अगुआ का ज्यादा ध्यान था, रोज व्यस्त रहने के बावजूद मुझे अपने कर्तव्य में बेहतर परिणाम नहीं मिल रहे थे—असल में मैं गड़बड़ कर रही थी। एक बार अगुआ ने एक सभा में मुझसे पूछा, "पिछले महीने बहन लियू ने सुसमाचार कार्य में सचमुच अच्छा किया था, तो इन दिनों उसका प्रदर्शन खराब क्यों रहा? क्या आप कारण जानती हैं?" मैं दंग रह गई। ये क्या हो गया! मेरा ध्यान पूरी तरह दूसरे मुद्दों से निपटने पर था। मुझे नहीं पता कि बहन लियू ने अपने सुसमाचार कार्य में अच्छा क्यों नहीं किया। अगुआ ने मुझसे आगे पूछा, "क्या आपने देखा कि सुसमाचार साझा करते हुए बहन लियू किन सत्यों पर संगति कर रही है, और क्या वह लोगों की धारणाएं सुलझा रही है?" इस सवाल पर मैं और भी घबरा गई। मैंने इस बारे में नहीं पूछा था—मैं क्या करूँ? अगर मैं नहीं बता पाई, तो अगुआ को लगेगा कि मैं बहन लियू के काम की खोज-खबर नहीं ले रही थी, मैं उसके मुद्दों को समय पर खोजकर उनका समाधान नहीं कर रही थी, और इसीलिए उसकी उत्पादकता गिर रही थी। मैंने तुरंत बहन लियू को संदेश भेजा, पर उसने नहीं देखा। मैं इतनी चिंतित थी कि मेरी हथेलियों से पसीना आने लगा। फिर अचानक याद आया बहन लियू ने मुझे बताया था कि वह किस बात पर संगति कर रही थी, तो मैंने तुरंत अगुआ को बता दिया। उसने और कुछ नहीं कहा और मेरी चिंता आखिर शांत हो गई। एक समय तो मैं अगुआ के संदेश पाने से डरने लगी थी, और कभी-कभी मैं सभा से पहली वाली रात को ठीक से सो भी नहीं पाती थी। मैं सोचती रही : अगुआ मुझसे क्या पूछने वाली है? मुझे क्या बताना चाहिए? जब सभा का समय आता, तो मैं और ज्यादा घबरा जाती, मुझे चिंता होती थी कि अगर मेरे काम में और समस्याएँ आईं, तो मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। मैं हर सभा में किसी न किसी तरह बात करती, पर अंदर से दुखी महसूस करती, यह मेरे लिए थकाऊ था। मेरे अंदर कर्तव्य निभाने का जोश नहीं था, जब दूसरों के काम में समस्याएँ आतीं और उनकी उत्पादकता कम होती, तो मुझे उस पर काम करने का मन नहीं करता था। उस वक्त मुझे एहसास हुआ कि मेरी हालत ठीक नहीं थी। मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की और कहा : "परमेश्वर, कुछ समय से मुझे काम की निगरानी करने वाली अगुआ से डर लगने लगा है। मुझे चिंता है कि अगर समस्याएँ आईं तो मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। मुझे पता है कि यह सही सोच नहीं है। मैं आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहती हूँ—कृपया मेरा मार्गदर्शन करो।"
फिर मैंने अपनी भक्ति में एक अंश पढ़ा। "कुछ लोग यह नहीं मानते कि परमेश्वर का घर लोगों के साथ उचित व्यवहार कर सकता है। वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर के घर में परमेश्वर का और सत्य का शासन चलता है। उनका मानना है कि व्यक्ति कोई भी कार्य करे, अगर उसमें कोई समस्या आती है, तो परमेश्वर का घर तुरंत उस व्यक्ति से निपटेगा, उससे उस कार्य को करने का दर्जा छीनकर उसे दूर भेज देगा या फिर उसे कलीसिया से ही निकाल देगा। क्या वाकई इस ढंग से काम होता है? निश्चित रूप से नहीं। परमेश्वर का घर हर व्यक्ति के साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करता है। परमेश्वर सभी के साथ धार्मिकता से व्यवहार करता है। वह केवल यह नहीं देखता कि व्यक्ति ने किसी परिस्थिति-विशेष में कैसा व्यवहार किया है; वह उस व्यक्ति की प्रकृति और सार, उसके इरादे, उसका रवैया देखता है, खास तौर से वह यह देखता है कि क्या वह व्यक्ति गलती करने पर आत्मचिंतन कर सकता है, क्या वह पश्चात्ताप करता है और क्या वह उसके वचनों के अनुसार समस्या के मूल तक पहुँच सकता है ताकि वह सत्य समझ ले और अपने आपसे घृणा करने लगे और सच में पश्चात्ताप करे। ... अच्छा बताओ, अगर कोई गलती करने वाला व्यक्ति सच्ची समझ हासिल कर पश्चात्ताप करने को तैयार हो, तो क्या परमेश्वर का घर उसे अवसर नहीं देगा? जैसे-जैसे परमेश्वर की छह-हजार-वर्षीय प्रबंधन योजना समापन की ओर बढ़ रही है, ऐसे बहुत-से कार्य हैं जिन्हें पूरा करना है। चिंता तब होती है जब लोग अपनी अंतरात्मा और विवेक गँवा बैठते हैं तथा अपने काम में लापरवाही बरतते हैं, जब उन्हें कार्य करने का अवसर मिलता है, लेकिन वे उसे संजोकर रखना नहीं जानते, सत्य का जरा भी अनुसरण नहीं करते और सबसे अनुकूल समय हाथ से निकल जाने देते हैं। यह है लोगों की हकीकत। अगर तुम अपने काम में लगातार लापरवाही बरतोगे, बेमन से काम करोगे, काट-छांट और निपटारे के समय जरा भी समर्पण-भाव नहीं रखोगे, तो क्या परमेश्वर का घर तब भी किसी कार्य के लिए तुम्हारा उपयोग करेगा? परमेश्वर के घर में सत्य का शासन चलता है, शैतान का नहीं। हर चीज में परमेश्वर की बात ही अंतिम होती है। वही इंसानों को बचाने का कार्य कर रहा है, वही समस्याएँ हल कर रहा है। क्या सही है और क्या गलत, इसमें तुम्हारे विश्लेषण की कोई जरूरत नहीं है; तुम्हारा काम सिर्फ सुनना और उसका पालन करना भर है और जब तुम्हारी काट-छांट और निपटारा किया जाए, तो तुम्हें सत्य स्वीकार कर अपनी गलतियाँ सुधारनी चाहिए। अगर तुम ऐसा करोगे, तो परमेश्वर का घर तुमसे तुम्हारे कर्तव्य-निर्वहन का दर्जा नहीं छीनेगा। अगर तुम हमेशा त्याग दिए जाने से डरते रहोगे, बहानेबाजी करते रहोगे, खुद को सही ठहराते रहोगे, तो फिर समस्या पैदा होगी। अगर तुम लोगों को यह दिखाओगे कि तुम जरा भी सत्य नहीं स्वीकारते, और सभी यह देख सकते हैं कि तुम तर्क से अप्रभावित हो, तो तुम मुसीबत में हो। कलीसिया तुम्हारे खिलाफ कार्रवाई करने को बाध्य हो जाएगी। अगर तुम अपने कर्तव्य पालन में थोड़ा भी सत्य नहीं स्वीकारते, तुम्हें उजागर होने और त्याग दिए जाने का भय बना रहता है, तो तुम्हारा यह भय मानवीय इरादे, भ्रष्ट शैतानी स्वभाव, संदेह, सतर्कता और गलतफहमी से दूषित है। इंसान में इनमें से कोई भी रवैया नहीं होना चाहिए। तुम्हें अपने डर के साथ-साथ परमेश्वर के बारे में अपनी गलतफहमियाँ दूर करने से शुरुआत करनी चाहिए" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन)। परमेश्वर के वचनों से लगा कि मुझे बर्खास्त होने का डर था क्योंकि मैं परमेश्वर के स्वभाव को या उसके घर में लोगों की बर्खास्तगी के सिद्धांत नहीं समझती थी। जब मैंने कुछ लोगों को व्यावहारिक कार्य न करने के कारण बर्खास्त होते देखा, और मेरे काम में कई समस्याएँ बिल्कुल साफ दिखीं, तो मुझे चिंता होने लगी कि अगर और ज्यादा समस्याएँ आईं तो अगुआ सोचेगी कि मैं व्यावहारिक कार्य नहीं कर रही हूँ और मुझे भी बर्खास्त कर देगी। इसलिए मैं अपना काम देखने वाली अगुआ से डरते हुए गलतफहमी और सतर्कता की हालत में जी रही थी। हालांकि वास्तव में मेरे काम में दिक्कतें और कमियां दिखना कोई बुरी बात नहीं है। इससे समस्याएँ जल्दी खोजने और हल करने में मदद मिल सकती है, और कर्तव्य में मेरी प्रभावशीलता भी सुधर सकती है। मगर जहाँ तक मेरी बात है, मेरी सोच छोटी और संकीर्ण थी। अगुआ ने जब मेरे काम की निगरानी की, तो मैं सतर्क होकर उसकी आलोचना करने लगी, सोचने लगी क्या उसे लगता था कि मैंने व्यावहारिक कार्य नहीं किया या मैं भरोसे के लायक नहीं थी। मुझे लगा कि वह मुझ पर नजर रख रही है और किसी दिन मुझे बर्खास्त कर देगी। मैं उससे निबटने की तरकीबें और चालें सोच रही थी। परमेश्वर के घर में सत्य का बोलबाला है और लोगों की बर्खास्तगी के कुछ सिद्धांत हैं। थोड़ी सी चूक और कर्तव्य में गलती के कारण कोई बर्खास्त नहीं किया जाता। लोगों को पश्चात्ताप के लिए अधिक से अधिक मौका मिलता है, यदि वे फिर भी नहीं बदलते और काम पर नकारात्मक रूप से असर डालते हैं, तो उन्हें बर्खास्त करना जरूरी होता है। मैं देख सकती थी कि कुछ अन्य भाई-बहनों के काम में चूक और दिक्कतें थीं, पर अगुआ ने उन्हें बर्खास्त नहीं किया था। उसने उनका पूरी तरह समर्थन किया और मदद की और सिद्धांतों पर उनके साथ संगति की। फिर लगातार विश्लेषण और बदलाव के जरिए उन्होंने अपने कर्तव्यों में और बेहतर प्रदर्शन किया। कुछ भाई-बहनों की काबिलियत काम के अनुरूप नहीं होती, तो कलीसिया उनके लिए उनकी क्षमता के अनुसार कर्तव्य की व्यवस्था करती है। बर्खास्तगी मनमाने ढंग से नहीं होती। हालाँकि कुछ लोग व्यावहारिक कार्य न करने के कारण बर्खास्त किए जाते हैं, आत्मचिंतन करने और कुछ समय तक अपने बारे में सीखने और सच्चा पश्चात्ताप करने के बाद कलीसिया उन्हें पदोन्नत कर फिर से उनका उपयोग करेगी। आपके कर्तव्य में आने वाली समस्याएँ बिल्कुल डरावनी नहीं हैं। सबसे अहम बात सत्य को स्वीकारना, अपनी समस्याओं पर विचार करने में सक्षम होना, और फिर सचमुच पश्चात्ताप करके बदलाव लाना है। मैंने देखा कि अगुआ ने मेरे भटकावों और गलतियों के कारण मुझे बर्खास्त नहीं किया, इसलिए मुझे उससे सतर्क रहना या उसे गलत समझना नहीं चाहिए था। मुझे संक्षेप में अपनी परेशानी बताकर उन पर आत्मचिंतन और कुछ बदलाव करने थे। उसके बाद मैं प्रार्थना के लिए परमेश्वर के सामने गई, बर्खास्तगी की चिंता किए बिना मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने, और ईमानदारी से कर्तव्य निभाने को तैयार थी, प्रार्थना के बाद मुझे बहुत सुकून मिला।
बाद में मैंने एक बहन के साथ संगति में अपनी हालत पर खुलकर बात की। उसने निगरानी स्वीकार करने के बारे में परमेश्वर के कुछ वचन पढ़ने का सुझाव दिया। मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : "अगर तुम परमेश्वर के घर को अपना अवलोकन, निरीक्षण और जाँच करने दे सको, तो यह एक अद्भुत बात है। यह तुम्हें अपना कर्तव्य निभाने, अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभा पाने और परमेश्वर की इच्छा पूरी करने में तुम्हारी मदद के लिए है। यह बिना किसी नुकसान के लोगों को लाभ पहुँचाता है और उनकी मदद करता है। जब व्यक्ति इस संबंध में सिद्धांतों को समझ लेता है, तो क्या फिर उसे अगुआओं, कार्यकर्ताओं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के निरीक्षण के खिलाफ प्रतिरोध या बचाव की भावना रखनी चाहिए, या नहीं रखनी चाहिए? कभी-कभी तुम्हारी जाँच और निरीक्षण किया जा सकता है, और तुम्हारे कार्य की निगरानी की जा सकती है, लेकिन यह व्यक्तिगत रूप से लेने वाली बात नहीं है। ऐसा क्यों है? क्योंकि जो कार्य अब तुम्हारे हैं, जो कर्तव्य तुम निभाते हो, और कोई भी कार्य जो तुम करते हो, वे किसी एक व्यक्ति के निजी मामले या व्यक्तिगत कार्य नहीं हैं; वे परमेश्वर के घर के कार्य को स्पर्श करते हैं और उस कार्य के एक भाग से संबंध रखते हैं। इसलिए, जब कोई तुम्हारी निगरानी या निरीक्षण करने में थोड़ा समय लगाता है या तुमसे गहन प्रश्न पूछता है, तुम्हारे साथ खुले दिल से बातचीत करने और यह पता लगाने की की कोशिश करता है कि इस दौरान तुम्हारी स्थिति कैसी रही है, यहाँ तक कि कभी-कभी जब उनका रवैया थोड़ा कठोर होता है, और वे तुमसे थोड़ा निपटते हैं और तुम्हारी थोड़ी काट-छाँट करते हैं, और तुम्हें अनुशासित करते और धिक्कारते हैं, तो वे यह सब इसलिए करते हैं क्योंकि उनका परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति एक ईमानदार और जिम्मेदारी भरा रवैया होता है। तुम्हें इसके प्रति नकारात्मक विचार या भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। परमेश्वर के वचन पढ़ना मेरे लिए एक तरह से प्रबोधक था। हमें सौंपे गए काम निजी मामले नहीं होते। वे अहम मामले होते हैं, जिनमें कलीसिया का कार्य और हमारे भाई-बहनों का जीवन प्रवेश शामिल होता है। जब अगुआ और कर्मी हमारे कर्तव्यों की निगरानी और जाँच करते हैं, तो वे वही कर रहे होते हैं जो उन्हें करना चाहिए। यह हमारे कर्तव्यों और परमेश्वर के घर के कार्य के हित में है। हर किसी में भ्रष्ट स्वभाव होता है। सत्य प्राप्त करने से पहले, जीवन स्वभाव बदलने से पहले, हम भरोसेमंद या विश्वसनीय नहीं होते। अगर हम पर नजर न रखी जाए, तो हम किसी भी समय अपने मन की कर सकते हैं। हम अपने कार्य में मनमाने और धोखेबाज होंगे, और कलीसिया के कार्य में बाधा डालने का काम करेंगे। इसलिए हमारे कार्य की निगरानी करने वाले अगुआ हमारे कर्तव्य में और कलीसिया के कार्य की प्रगति में मदद करते हैं। मुझे याद है पहले जब अगुआ ने जिक्र किया था कि मैंने टीम के नए सदस्यों के साथ सुसमाचार प्रचार के सिद्धांत साझा नहीं किए थे, तो वह सचमुच मेरा कर्तव्य से भटकना था। मैं अपने कर्तव्य में प्रगति के बारे में न सोचकर यथास्थिति से संतुष्ट थी, मैंने सोचा कि जो भाई-बहन काम के बारे में नहीं जानते, उन्हें समय के साथ सिखाया जा सकता है, और इससे काम में हमारी प्रभावशीलता कम नहीं होगी। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा रवैया असल में परमेश्वर के लिए घृणित था, और अगर मैंने इसे न बदला होता, तो समय के साथ इससे न केवल कलीसिया के काम में बाधा आती, बल्कि मेरे जीवन प्रवेश को भी नुकसान होता। जब अगुआ ने इस मुद्दे पर ध्यान दिया और इसके बारे में मुझे बताया, तो मुझे अपनी गलतियां सुधारने को तुरंत आत्मचिंतन करने का मौका मिला। यह मेरे लिए बहुत ही मददगार था। और जब भी अगुआ ने मेरे काम की जाँच की, उसने कुछ ऐसी समस्याएँ बताईं जो मुझे आम तौर पर नहीं दिखती थीं। इस तरह मेरे काम में कई मुद्दे बिना देरी के हल हो पाए और मेरे पास अभ्यास का मार्ग था, मेरे कर्तव्य में एक दिशा थी। यह सब जानकर मुझे लगा कि मैं कितनी मूर्ख हूँ और मैं पछतावे से भर गई। यदि मैं स्वेच्छा से अपने काम की गलतियों को अगुआ के साथ साझा कर पाती, तो ये मुद्दे बहुत पहले सुलझाए जा सकते थे, और हमारे सुसमाचार के कार्य को नुकसान न होता।
बाद में मैंने आत्मचिंतन किया। मैं हमेशा अगुआ की निगरानी से और बर्खास्त होने से क्यों डरती थी? समस्या की जड़ क्या थी? मैंने अपनी भक्ति में परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। "अगर तुम लोग किसी भी स्तर के कोई अगुआ, कार्यकर्ता या निरीक्षक हो, तो क्या तुम परमेश्वर के घर के द्वारा तुम लोगों के काम पर सवाल उठाए जाने से डरते हो? क्या तुम डरते हो कि परमेश्वर का घर तुम लोगों के काम में खामियों और गलतियों का पता लगाएगा और तुम लोगों से निपटेगा? क्या तुम डरते हो कि उच्च को तुम्हारी वास्तविक क्षमता और आध्यात्मिक कद का पता चलने के बाद वह तुम लोगों को अलग तरह से देखेगा और पदोन्नति के लिए तुम पर विचार नहीं करेगा? ... तुम्हारे दिलों में यह डर यह साबित करता है कि कम से कम तुम्हारा स्वभाव मसीह-विरोधी का है, और डर लगने पर तुम चीजें छिपाना और दूसरों को धोखा देना चाहते हो। क्या यही मामला है? (हाँ।) तुम किससे डरते हो? तुम मामले से ईमानदारी और स्पष्टता से पेश आते हुए यह क्यों नहीं कह पाते, 'अगर मेरी कोई हैसियत नहीं रहती, तो न सही। भले ही यह मामला उजागर हो जाए और उच्च को पता चल जाए, और फिर चाहे वह मेरा इस्तेमाल न करे, फिर भी मुझे स्थिति स्पष्ट रूप से बतानी होगी'? तुम्हारा डर यह साबित करता है कि तुम सत्य से ज्यादा अपनी हैसियत से प्यार करते हो। क्या यह मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? (है।) हैसियत को सबसे अधिक सँजोना मसीह-विरोधी का स्वभाव है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग दो))। परमेश्वर के वचनों ने उजागर कर दिया कि मैं काम की निगरानी करने वाले अगुआ से क्यों डरती थी। मुझे अपने रुतबे का बहुत अधिक मोह था। मुझे डर था कि अगुआ मेरे कर्तव्य में समस्याएँ खोजेगी, फिर सोचेगी कि मैंने व्यावहारिक काम नहीं किया और मुझे बर्खास्त कर देगी। तो अपना रुतबा बनाए रखने के लिए मैंने कर्तव्य में केवल दिखावे के लिए सतही काम किए, अहम और जरूरी काम नहीं किए जो मुझे करने थे। नतीजा यह हुआ कि सुसमाचार कार्य की उत्पादकता कम हो गई। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी! असल में जो परमेश्वर के प्रति सच्चे मन से श्रद्धा रखते हैं, वे अपने कर्तव्य में कलीसिया के कार्यों को सबसे ऊपर रखते हैं। चाहे अपने नाम और रुतबे को धक्का पहुँचे, पर वो कलीसिया के कार्य को ऊपर रखेंगे। अपने कर्तव्य में वे परमेश्वर की जाँच और भाई-बहनों की देखरेख स्वीकार सकते हैं। वे दिल से सरल और ईमानदार होते हैं। लेकिन मेरे मामले में, मैं केवल अपना नाम और रुतबा बचाने के बारे में सोचती थी, और मैं अपना ओहदा बचाने के लिए कलीसिया के काम का नुकसान होते देखने को भी तैयार थी। मैंने सोचा कि कैसे मसीह-विरोधी रुतबे को सबसे ऊपर रखते हैं, और इसे पाने के लिए किसी भी हद तक चले जाते हैं। मेरा व्यवहार ठीक मसीह विरोधी का स्वभाव प्रकट कर रहा था। मैंने जितना इस बारे में सोचा, उतना ही लगा कि मैं जो दिखा रही थी, वह घटियापन था, जिसमें कोई ईमानदारी या गरिमा नहीं थी। मुझे असल में खुद से घृणा हो गई। मैं दिल की गहराई से ईमानदार और सम्मानित इंसान बनना चाहती थी। मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : "जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं, वे सत्य का अभ्यास करना, ईमानदार व्यक्ति बनना चुनते हैं। यह सही मार्ग है, और परमेश्वर इसे आशीष देता है। जो सत्य से प्रेम नहीं करते, वे क्या करना चुनते हैं? वे अपनी प्रतिष्ठा, हैसियत, गरिमा और चरित्र की रक्षा के लिए झूठ बोलते हैं। ऐसे लोग धोखेबाज होना और परमेश्वर से घृणा पाना और ठुकराया जाना अधिक पसंद करेंगे। वे सत्य या परमेश्वर को नहीं चाहते। वे अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत चुनते हैं। वे धोखेबाज लोग बनना चाहते हैं, और इस बात की परवाह नहीं करते कि इससे परमेश्वर प्रसन्न होता है या नहीं वह उन्हें बचाता है या नहीं, तो क्या ऐसे लोगों को अभी भी परमेश्वर द्वारा बचाया जा सकता है? निश्चित रूप से नहीं, क्योंकि वे गलत रास्ता अपनाते हैं। वे केवल झूठ बोलकर और धोखा देकर ही जी सकते हैं, और वे केवल झूठ बोलने और उन्हें छिपाने, और रोजाना अपना बचाव करने के लिए अपना दिमाग चलाने का दर्दनाक जीवन ही जी सकते हैं। तुम्हें लग सकता है कि झूठ बोलने से तुम्हारी वांछित प्रतिष्ठा, हैसियत और अभिमान की रक्षा हो सकती है, लेकिन यह एक बड़ी गलती है। झूठ से न केवल तुम्हारे अभिमान और व्यक्तिगत गरिमा की रक्षा नहीं होती, बल्कि इससे भी गंभीर बात यह है कि तुम सत्य का अभ्यास करने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने के अवसरों से भी वंचित हो जाते हो। यहाँ तक कि अगर तुम उस समय अपनी प्रतिष्ठा और घमंड की रक्षा कर भी लेते हो, तो भी तुम सत्य खो देते हो और परमेश्वर से विश्वासघात कर बैठते हो, जिसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने और पूर्ण बनाए जाने का अवसर पूरी तरह से खो देते हो। यह सबसे बड़ी क्षति और शाश्वत खेद है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, ईमानदार होकर ही व्यक्ति सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है)। परमेश्वर के वचनों पर सोचकर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई। ऊपर से अपना नाम और रुतबा बचाने के लिए झूठ पर भरोसा करके, मैंने सोचा था कि मैं बहुत चालाक हूँ, पर मैं ईमानदार बनने का और इससे भी ज्यादा उद्धार और सत्य पाने का मौका गँवा रही थी। इस नुकसान की भरपाई नहीं हो सकती। मैंने नाम और रुतबे को बचाने के लिए समय-समय पर झूठ बोला और चालें चलीं, पर परमेश्वर सब कुछ देखता है। मैं कुछ समय लोगों को मूर्ख बना सकती थी, पर परमेश्वर की जाँच से कभी नहीं बच सकती थी। तथ्य यह है कि मैं वास्तविक काम नहीं कर रही थी और चीजों को टालते रहना देर-सबेर सामने आ ही जाता। परमेश्वर का स्वभाव किसी अपमान को सहन नहीं करता। अगर मैंने पश्चात्ताप न किया, झूठ बोलना और अपना रुतबा बचाना जारी रखा, तो बर्खास्त किया जाना तय था। मैंने उन झूठे अगुआओं और मसीह-विरोधियों के बारे में सोचा। वे सिर्फ नाम और रुतबे के लिए काम करते हैं, व्यावहारिक काम नहीं करते। उनमें से कुछ तो अपने नाम और रुतबे के लिए कलीसिया के काम को तहस-नहस करने से भी नहीं रुके, आखिर में वे बहुत बुराई करते हैं और बेनकाब करके त्याग दिए जाते हैं। मुझे यह भी लगा कि परमेश्वर के घर का सबसे जरूरी कार्य अब उसके राज्य के सुसमाचार का विस्तार करना है। लेकिन सुसमाचार कार्य के प्रभारी के रूप में न केवल मैं इसके लिए प्रेरक शक्ति नहीं थी, बल्कि अपना नाम और रुतबा बचाने की कोशिश में लगी थी, जिससे सुसमाचार कार्य में देर हो रही थी। मेरे व्यवहार के आधार पर मुझे बदल देना चाहिए था। अपना कर्तव्य जारी रखने लायक होना मेरे लिए परमेश्वर की बड़ी सहनशीलता थी। यह सब जानकर मैं प्रार्थना और पश्चात्ताप के लिए परमेश्वर के सामने आई, मैं अपनी गलत सोच बदलने, अगुआ की निगरानी स्वीकारने और कर्तव्य में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने को तैयार थी।
बाद में अपनी भक्ति के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का अंश पढ़ा जिसने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "जो लोग दूसरों की निगरानी, जाँच और निरीक्षण को स्वीकार कर सकते हैं, वे सबसे समझदार लोग होते हैं, उनमें सहिष्णुता और सामान्य मानवता होती है। जब तुम्हें पता चलता है कि तुम कुछ गलत कर रहे हो, या भ्रष्ट स्वभाव दिखा रहे हो, तो अगर तुम दूसरे लोगों के साथ खुलकर बात करने में सक्षम होते हो, तो इससे तुम्हारे आसपास के लोगों को तुम पर नजर रखने में आसानी होगी। पर्यवेक्षण को स्वीकार करना निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन मुख्य बात है परमेश्वर से प्रार्थना करना, उस पर भरोसा करना और निरंतर आत्मचिंतन करना। खासकर जब तुम गलत मार्ग पर चले पड़े हो, कुछ गलत कर दिया हो या जब तुम तानाशाही तरीके से कोई एकतरफा कार्रवाई करने वाले हो और आस-पास का कोई व्यक्ति इस बात का उल्लेख कर तुम्हें सचेत कर दे, तो तुम्हें इसे स्वीकार कर तुरंत आत्मचिंतन करना चाहिए और अपनी गलती को स्वीकार कर उसे सुधारना चाहिए। इससे तुम मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने से बच जाओगे। अगर कोई इस तरह तुम्हारी मदद कर तुम्हें सचेत कर रहा है, तो क्या अनजाने में ही तुम्हें संरक्षित नहीं किया जा रहा है? किया जा रहा है—यही तुम्हारा संरक्षण है" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग)। परमेश्वर का धन्यवाद! अभ्यास का मार्ग मिलने के बाद मुझे मुक्ति का एहसास हुआ, अब मैं अगुआ की निगरानी और पूछताछ को लेकर सतर्क नहीं थी। साथ ही मैंने अपनी समस्याएँ छिपानी बंद कर दीं, व्यावहारिक काम करने और व्यावहारिक मुद्दे हल करने पर ध्यान देने लगी। जब अगुआ ने मेरे काम के बारे में पूछा तो मैं इतनी बेबस नहीं लगी, परमेश्वर की जाँच स्वीकारने और एक ईमानदार इंसान बनने का अभ्यास करने में सक्षम हो पाई। कोई काम ठीक से नहीं होने पर, मैं उसे स्वीकार कर पाती थी, मैंने रुतबे और शोहरत की रक्षा करना बंद कर दिया। जब अगुआ को मेरे काम में समस्याएँ मिलीं, तो मैंने यह सोचना बंद कर दिया कि वह मेरे बारे में क्या सोचेगी या वह मुझे बर्खास्त कर देगी, बस यह सोचती थी कि कैसे जल्द से जल्द बदलूँ, और अपना काम ठीक से करूँ। यह सब अभ्यास में लाने के बाद से मैंने खुद को सहज पाया, खुले दिल से कर्तव्य निभाना बहुत शानदार है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?