भागीदार प्रतिस्पर्धी नहीं होता
परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद जल्दी ही मैं नए सदस्यों के सिंचन का अभ्यास करने लगी। जोशीली और आगे बढ़कर काम करने वाली होने के कारण नतीजे भी अच्छे मिले, और मुझे एक समूह अगुआ चुन लिया गया। बाद में, मैं एक सुसमाचार उपयाजिका बन गई। भाई-बहन कहते थे कि कम उम्र की होने के बावजूद मैं भरोसेमंद थी, अपने कर्तव्य में बोझ उठाना पसंद करती थी और जिम्मेदार थी। यह सब मेरे अहं को संतुष्ट करने वाला था। अक्तूबर 2020 में मैं एक कलीसिया अगुआ बन गई, जिससे मैं और भी ज्यादा महसूस करने लगी कि भाई-बहनों के दिलों में मैं सत्य का अनुसरण करने वाली एक योग्य इंसान हूँ। कुछ समय बाद, एक बड़े अगुआ ने बहन लियू को मेरे साथ काम करने के लिए कहा। उसे काम समझाते हुए अगुआ ने हमारी कलीसिया की कुछ समस्याओं की चर्चा की। यह सुनकर बहन लियू ने कहा, "हमें समस्या की जड़ का पता लगाकर इसे जल्दी से हल करना होगा। नहीं तो कलीसिया के काम में रुकावट आएगी।" उसकी यह बात सुनकर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई, क्योंकि मुझे चिंता थी कि मेरे काम की इन समस्याओं के कारण बहन लियू मुझे छोटा समझेगी। अगले कुछ दिनों में, बहन लियू ने कलीसिया की असली स्थिति की छानबीन की। फिर उसने बहुत-से सहयोगियों और भाई-बहनों के सामने ही कहा, "पिछले दो दिनों में मुझसे मिले सुसमाचार उपयाजक और बहुत-से समूह अगुआ कोई बोझ नहीं उठा रहे हैं। जब नए सदस्यों की कुछ धारणाएँ और मुश्किलें होती हैं, तो समूह अगुआ इन्हें नहीं सुलझाते या सत्य नहीं खोजते, बल्कि खुद भी इनमें उलझ जाते हैं। इस तरह वे नए सदस्यों का अच्छे से सिंचन नहीं कर सकते।" उसके मुंह से यह बात सुनकर मुझे थोड़ा अखरा। उसने कहा कि मैं कुछ समूह अगुआओं के पोषण पर ज्यादा ध्यान दे रही थी, पर उनमें से कोई भी अच्छा काम नहीं कर रहा था, तो मुझे लगा कि उसे शायद कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं थीं। मैंने सोचा, "अभी कल ही आई हो और यहाँ के बारे में कुछ जानती नहीं हो, फिर भी नुक्स निकालने लगी हो। क्या तुम दिखाना चाहती हो कि तुम बोझ उठा सकती हो और समस्याओं का पता लगा सकती हो? क्या नई होने की वजह से तुम यहाँ अपना प्रभाव जमाने की कोशिश कर रही हो? अगर तुम मेरे काम की समस्याओं को कुरेदती रही तो भाई-बहनों की नजरों में मेरी छवि खराब कर दोगी।" मैंने अपने गुस्से पर काबू पाते हुए कहा, "तुम्हारी ये बातें सही हैं, लेकिन समूह अगुआ और सुसमाचार उपयाजक दोनों ही व्यवहारिक मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, इसलिए कभी-कभी खोज-खबर लेने का काम ठीक-से नहीं हो पाता, और हमें यह बात समझनी चाहिए।" यह सुनकर उसने कहा, "इन मुश्किलों को सत्य पर संगति करके हल किया जा सकता है। अगर वे सत्य स्वीकार सकते हैं और परमेश्वर की इच्छा समझ सकते हैं, तो वे बोझ उठा सकेंगे और अपने कर्तव्य में जिम्मेदार होंगे। सबसे अहम बात यह है कि क्या इन समस्याओं को सुलझाने के लिए हम सत्य पर संगति करते हैं।" पर मैंने उसकी बात को सही तरीके से नहीं लिया, और गुस्से से सुलगती रही। मैंने सोचा, "तुम यही कह रही हो न कि मैं सत्य पर संगति नहीं कर सकती?" बहन लियू के बारे में मेरी धारणा बिल्कुल बदल गई। अब मैं उसे अपनी भागीदार और सहयोगी के बजाय अपनी विरोधी समझने लगी। मैंने सोचा, अगर यह इसी तरह करती रही तो देर-सवेर मेरे काम की कमान अपने हाथ में ले लेगी। पर अगुआ मैं थी और वह सिर्फ मेरे साथ सहयोग करने आई थी। वह हर मामले में मुझसे बेहतर थी, और हमेशा मुझे शर्मिंदा करती रहती थी। इस तरह मेरी गरिमा कैसे बची रह सकती थी? भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचते होंगे? इसके बाद, मैं उसके साथ काम करना नहीं चाहती थी, उससे बात भी नहीं करना चाहती थी। एक बार, सहकर्मियों की एक सभा में, हमने परमेश्वर के वचन पढ़े, जिनमें झूठे अगुआओं के व्यवहारिक काम न करने का खुलासा किया गया था। बहन लियू ने इन पर चिंतन करके खुद को समझा, और कहा कि कलीसिया में आए उसे कुछ समय हो गया था, पर व्यवहारिक काम न करने के कारण नए सदस्यों की समस्याएँ हल नहीं हो रही थीं, इसलिए वे मुश्किलों में फंसे थे, और सत्य का अभ्यास करना नहीं जानते थे। इससे जीवन में की प्रगति में देर हो रही थी। हालांकि अपनी समझ की बात कर रही थी, पर व्यवहारिक काम न करने के कारण उसकी बातें मुझे उजागर करती हुई लग रही थीं। उसकी बातों के अर्थ का अंदाज़ा लगाया, "तुम दूसरों को मेरे काम की समस्याएँ बताने के लिए जानबूझकर ऐसी बातें कर रही हो? इससे पहले भाई-बहनों पर मेरा कितना अच्छा प्रभाव था, पर अब तुमने मुझे इस तरह उजागर कर दिया है, क्या मेरी छवि खराब नहीं होगी? अब वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?" मैं उसका प्रतिरोध करते हुए वहाँ से चली जाना चाहती थी, पर ऐसा करना बहुत अटपटा लगता, तो मैं बेमन से आखिर तक बैठी रही।
उस शाम, बहन लियू नए उपयाजकों के चुनाव की चर्चा के लिए मेरे पास आई, और पूछने लगी कि यहाँ बोझ उठाने वाला कौन है जिसे आगे बढ़ाया जा सके। मेरे मन में प्रतिरोध की भावना उभर आई, और मैं सोचने लगी, "क्या कोई अच्छा उम्मीदवार बचा है? तुमने सभी अच्छे लोगों को ठुकरा दिया है। हमारी कलीसिया में समस्याएँ हैं, पर तुम उनके बारे में न सिर्फ यहाँ खुलकर बात करती हो, बल्कि दूसरी कलीसियाओं के भाई-बहनों के सामने भी उनकी चर्चा करती रहती हो। अब वे लोग जानते हैं कि मैं व्यवहारिक काम नहीं करती। तुम बात करते हुए मेरी भावनाओं का ख्याल क्यों नहीं रखती? मुझे लगता है तुम जान-बूझकर मुझे निशाना बना रही हो!" मैंने सख्ती से कहा, "जबसे तुम आई हो किसी और ने तो कोई बोझ उठाया ही नहीं है।" उसने जवाब में धीमे स्वर में कहा, "तो तुम्हारा ख्याल है कि मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था?" मैं बहुत तुनकमिजाज थी, मुझे लगा मैंने गलत बात कह दी थी, तो मैंने झट से कहा, "नहीं-नहीं।" कुछ देर हम दोनों ही चुप रहीं, फिर वापस चर्चा होने लगी। बाद में, अपनी उस बात के बारे में सोचते हुए मुझे अपराध-बोध हुआ। मुझे उससे ऐसा नहीं कहना चाहिए था। चर्चा खत्म होने के बाद मैं उससे माफी मांगना चाहती थी, पर काम में व्यस्त होने के बाद मैं इसे भूल गई।
बाद में, जब मैंने बड़े अगुआ को हर मामले में बहन लियू से सलाह करते देखा, तो मुझे बहुत बेचैनी हुई। "मैं भी एक अगुआ हूँ। मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे मैं एक बेकार की अगुआ हूँ, मेरी कोई जरूरत नहीं है?" मुझे लगता था बहन लियू मेरी लोकप्रियता छीन रही है। मुझे उससे जलन होने लगी थी। मैं सोचती थी, "अगर वह यहाँ न आती तो अगुआ मेरे साथ काम की चर्चा करती।" मैं यह भी सोचती थी कि अब सारे काम पर बहन लियू का दबदबा था, वह लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करती रही थी और उसे सत्य की ज्यादा समझ थी। उसने भाई-बहनों के सामने ही मेरे काम की समस्याओं पर उंगली उठाई थी, मुझे नहीं पता कि भाई-बहन अब मेरे बारे में क्या सोचते थे। इन बातों के बारे में सोचते हुए मुझे संकट की घड़ी का आभास हुआ। मुझे चिंता होने लगी कि बहन लियू अगुआ के मेरे ओहदे पर भी कब्जा कर लेगी। मैं इस बारे में जितना ज्यादा सोचती, उतनी ही असंतुष्ट महसूस करती, मेरे मन में उससे बदला लेने की भावना पनपने लगी। "तुम्हें मेरी भावनाओं की परवाह नहीं है, आज के बाद मैं भी चीजों को तुम्हारे लिए इतनी आसान नहीं रहने दूँगी।" मुझे याद है एक बार हम काम की चर्चा कर रहे थे, तो बहन लियू ने अपनी राय बताते हुए मेरी सलाह जाननी चाही। मैंने उसे नजरअंदाज करते हुए उसकी कामकाज की व्यवस्था में दोष निकालने शुरू कर दिए, कि यह ठीक नहीं है, वह ठीक नहीं है, ताकि उसे अपना काम आसान न लगे। एक बार हम एक ऐसे काम की चर्चा कर रहे थे जिसकी मुख्य जिम्मेदारी बहन लियू पर थी। उस समय, मुझे पता था कि समस्या को कैसे हल करना है, पर मैं उसे कोई सुझाव देना नहीं चाहती थी। मैंने यह भी सोचा, "अच्छा होगा अगर तुम्हारी व्यवस्थाएँ विफल हो जाएँ। फिर हरेक को पता चल जाएगा कि तुम चीजों को नहीं संभाल सकती, और अगुआ को भी लगेगा कि मेरे बजाय हर बार तुम्हीं से बात करना गलत है।" इसके बाद उसने बहुत-से सुझाव दिए और मैंने सब-के-सब ठुकरा दिए। जब मैंने देखा कि उसे नहीं पता इसे हल कैसे करें, और वह मेरी सलाह मांग रही है, तो मुझे खुद पर गर्व होने लगा। मैंने सोचा, "तुम कामकाज की व्यवस्था तक ठीक-से नहीं कर सकती, फिर भी मेरे काम पर उंगली उठाने की हिम्मत करती हो।" उस समय, मेरी अगुआ ने देखा कि मेरी हालत ठीक नहीं थी, उसने मुझे याद दिलाया कि मुझे बहन लियू के साथ मिल-जुलकर काम करना चाहिए, वरना कलीसिया के काम में देर होगी। अपनी अगुआ की बात सुनकर मेरे दिल ने मुझे थोड़ा फटकारा। जब हम अपने काम में एक जगह फंस गए थे तो मैंने जिम्मेदारी लेते हुए इसे हल क्यों नहीं किया। इसके बजाय मैं पास खड़ी मुस्कुराती रही। मैं कलीसिया के काम की बिल्कुल भी रक्षा नहीं कर रही थी। यह एहसास होने के बाद, मैंने अपनी मानसिकता को ठीक किया और चर्चाओं में भाग लेने लगी। पर पिछली चर्चा में देर के कारण कामकाज की व्यवस्था बहुत देर से हो पाई। एक रात, अगुआ मेरे पास आई और मुझे मेरे काम की समस्याओं के बारे में बताने लगी। उसने कहा, "मान और रुतबे को लेकर तुम्हारी इच्छा बहुत प्रबल है। तुम वाहवाही के लिए बहन लियू से होड़ करती रही हो। काम की चर्चा के दौरान तुम उसके किसी भी विचार को स्वीकार नहीं करती हो। तुम हरेक को गलत ठहरा देती हो। बहन लियू तुम्हारे साथ बेबस महसूस करती है, उसे नहीं पता कि तुम्हारे साथ सहयोग कैसे किया जाए। तुम्हें आत्मचिंतन करना चाहिए।" अपनी अगुआ की बात सुनकर मैं बहुत उदास और दुखी हो गई : "बहन लियू पीठ पीछे मेरी समस्याएँ क्यों रिपोर्ट कर रही थी? अगर वह सचमुच मेरी मदद करना चाहती थी तो मुझे अकेले में बता सकती थी। अब अगुआ को मेरी समस्याओं का पता चल गया है और वह मुझे कर्तव्य से हटा भी सकती है।" यह बात मन में आते ही, मैं अगुआ को खुलकर अपनी हालत के बारे में बताने लगी। मैंने इस्तीफा देने की भी पेशकश की, ताकि कलीसिया के काम में देर न होती रहे। ये शब्द कहते हुए मेरा दिल टूटा जा रहा था। मुझे लगा मैं अपना काम खोने ही वाली हूँ। अगुआ ने मुझसे कहा, "जब हमारे साथ समस्याएँ होती हैं तो हम उनसे कन्नी नहीं काट सकते। हमें सत्य खोजकर आत्मचिंतन करना होता है। अगर बहन लियू काम में समस्याएँ देख सकती है तो इसका मतलब है वह एक जिम्मेदारी उठा सकती है। क्या यह कलीसिया के काम के लिए अच्छा नहीं है? तुम इसे सही नजरिए से क्यों नहीं देख पाती? तुम हमेशा उससे जलती हो और डरती हो कहीं वह तुमसे आगे न निकल जाए। इससे पता चलता है तुम्हारी रुतबे की चाह बहुत प्रबल है।" अगुआ की संगति के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मान और रुतबे की मेरी इच्छा सचमुच बहुत प्रबल थी। मुझे अपनी हालत ठीक करने के लिए सत्य खोजना था। अब मैं निष्क्रिय और हठधर्मी बनी रहना नहीं चाहती थी।
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, तो मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव की थोड़ी समझ आई। "मसीह-विरोधियों को लगता है कि जो कोई भी उन्हें उजागर करता है, वह उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है, इसलिए वे भी उससे प्रतिस्पर्धा और लड़ाई करके उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं, जो उन्हें उजागर करता है। अपनी मसीह-विरोधी प्रकृति के कारण वे ऐसे किसी व्यक्ति के प्रति कभी दयालु नहीं होते, जो उनकी काट-छाँट करता या उनसे निपटता है, न ही वे ऐसा करने वाले किसी भी व्यक्ति को सहन या स्वीकार करते हैं, उसके प्रति कृतज्ञता या सराहना तो वे बिल्कुल भी अनुभव नहीं करते। इसके विपरीत, अगर कोई उनकी काट-छाँट करता है या उनसे निपटता है, और उन्हें अपनी गरिमा और इज्जत से हाथ धोने पर विवश कर देता है, तो वे उस व्यक्ति के प्रति अपने दिल में घृणा पाल लेते हैं और उससे बदला लेने के मौके की ताक में रहते हैं। उन्हें दूसरों से कैसी नफरत होती है! वे दूसरों के सामने खुलकर ऐसा सोचते और कहते हैं, 'आज तुमने मेरी काट-छाँट और निपटान किया है, ठीक है, अब हमारा झगड़ा पत्थर की लकीर हो गया है। तुम अपने रास्ते जाओ, मैं अपने रास्ते जाता हूँ, लेकिन मैं कसम खाता हूँ कि मैं अपना बदला लेकर रहूँगा! अगर तुम मेरे सामने अपनी गलती स्वीकार करो, मेरे सामने अपना सिर झुकाओ, या घुटने टेको और मुझसे भीख माँगो, तब तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा, वरना मैं इसे कभी नहीं छोडूँगा!' मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी कहें या करें, वे कभी किसी के द्वारा अपने साथ की जाने वाली दयालुतापूर्ण काट-छाँट या निपटान को या किसी की ईमानदार मदद को परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के आगमन के रूप में नहीं देखते। इसके बजाय, वे इसे अपने अपमान के संकेत और अपनी सबसे बड़ी शर्मिंदगी के क्षण के रूप में देखते हैं। यह दर्शाता है कि मसीह-विरोधी सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, कि उनका स्वभाव सत्य से चिढने और नफरत करने वाला होता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ))। परमेश्वर ने खुलासा किया कि जब मसीह-विरोधियों की काट-छांट और निपटान किया जाता है तो वे इसे स्वीकार नहीं करते, बल्कि वे काट-छांट और निपटान करने वाले इंसान से नफरत करने लगते हैं और बदला लेना चाहते हैं। मैंने देखा कि मसीह-विरोधी सत्य को स्वीकार नहीं करते, बल्कि इससे बिदकते हैं, नफरत करते हैं। पहले जब कभी मैं "लोगों पर पलटवार" शब्द देखती थी तो मुझे यह बड़ा दुष्ट रवैया लगता था। मुझे लगता था मुझमें ऐसी दुष्टता नहीं थी और मैं ऐसा नहीं कर सकती, सिर्फ मसीह-विरोधी और बुरे इंसान ही लोगों से बदला ले सकते हैं। मैं अपने व्यवहार के बारे में सोचने लगी : जब बहन लियू ने मेरे सहयोगियों और भाई-बहनों के सामने मेरे काम की समस्याएँ बताई थीं, तो मुझे लगा था मेरी छवि खराब हुई है और मेरे मन में उसके लिए पूर्वाग्रह और प्रतिरोध पनपने लगा था। एक सभा में बहन लियू को एहसास हुआ कि उसने परमेश्वर के वचनों पर आधारित व्यवहारिक काम नहीं किया था, तब मुझे लगा कि वह जानबूझकर अपनी समझ की बात करके मेरे काम की समस्याओं को उजागर कर रही थी, जिससे उसके प्रति मेरा पूर्वाग्रह और गहरा हो गया था। मैंने उस पर हमला बोलते हुए कहा था कि उसके आने के बाद किसी और ने कोई बोझ उठाया ही नहीं था। इसके बाद जब मैंने अगुआ को हमेशा उसके साथ काम की चर्चा करते देखा तो मुझे लगा बहन लियू मेरी लोकप्रियता छीन रही है। उससे बदला लेने के लिए, काम की चर्चा के दौरान मैंने उसे अपने सुझाव नहीं दिए, और जब बहन लियू ने अपने विचार और सुझाव बताए, तो मैंने गलतियाँ निकालते हुए उन्हें ठुकरा दिया, जिससे काम को आगे बढ़ाना नामुमकिन हो गया। मैं अपनी बहन को प्रतिस्पर्धी समझने लगी। अपना नाम और रुतबा बचाने के लिए मैं उस पर वार-पलटवार भी कर सकती थी। मैंने जो स्वभाव दिखाया, क्या वह एक मसीह-विरोधी जैसा नहीं था? इससे भी बढ़कर, यह एक तथ्य था कि वह मेरे काम की वास्तविक समस्याओं के बारे में ही बता रही थी। अगर मैंने आत्मचिंतन के लिए सत्य की खोज की होती, और गलतियों को सुधारा होता, तो समस्याएँ जल्दी से सुलझ जातीं। यह हमारे काम के लिए लाभकारी होता। पर मैंने न सिर्फ इसे स्वीकार नहीं किया, बल्कि अपनी बहन पर पलटवार करना चाहा। मैं सच में परमेश्वर की विश्वासी कहलाने लायक नहीं हूँ।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े, जिनसे मुझे इस स्वभाव के सार और परिणामों के बारे में ज्यादा समझ आई। परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधी की प्रकृति की मुख्य विकृतियों में से एक है दुष्टता। 'दुष्टता' का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि सत्य के बारे में उनका एक विशेष रूप से नीच रवैया होता है—न केवल उसके प्रति समर्पण करने में विफल होना, और न केवल उसे स्वीकार करने से मना करना, बल्कि उन लोगों की निंदा तक करना, जो उनकी काट-छाँट करते हैं और उनसे निपटते हैं। यह मसीह-विरोधियों का दुष्ट स्वभाव है। मसीह-विरोधी सोचते हैं कि जो कोई भी अपने साथ निपटा जाना और काट-छाँट की जाना स्वीकार करता है, उनके साथ दबंगई की जा सकती है, और जो लोग हमेशा दूसरों से निपटते और उनकी काट-छाँट करते हैं, वे वो लोग होते हैं जो हमेशा लोगों को तंग करना और धौंस देना चाहते हैं। इसलिए, जो कोई भी मसीह-विरोधियों से निपटता और उनकी काट-छाँट करता है, वे उसका विरोध करते हैं और उसके लिए समस्या खड़ी करते हैं। और जो कोई मसीह-विरोधी की कमियाँ या भ्रष्टता सामने लाता है, या सत्य और परमेश्वर की इच्छा के बारे में उनके साथ सहभागिता करता है, या उन्हें स्वयं को जानने के लिए बाध्य करता है, वे सोचते हैं कि वह व्यक्ति उनके लिए समस्या खड़ी कर रहा है और उन्हें संदेह से देख रहा है। वे उस व्यक्ति से अपने दिल की गहराई से नफरत करते हैं, और उससे बदला लेते हैं और उसके लिए मुश्किलें खड़ी करते हैं। ... किस तरह के लोग ऐसे दुष्ट स्वभाव के होते हैं? बुरे लोग। सच तो यह है कि मसीह-विरोधी बुरे लोग होते हैं। इसलिए, केवल बुरे लोग और मसीह-विरोधी ही ऐसे दुष्ट स्वभाव के होते हैं। जब एक उग्र व्यक्ति को किसी भी प्रकार के सुविचारित उपदेश, आरोप, सीख या सहायता का सामना करना पड़ता है, तो उसका रवैया विनम्रतापूर्वक धन्यवाद देने या स्वीकार करने का नहीं होता, बल्कि क्रोधित होने, अत्यंत नफरत करने, शत्रुता रखने, यहाँ तक कि प्रतिशोध लेने का होता है" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग आठ))। "मसीह-विरोधी अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। ये लोग कुटिल, धूर्त और दुष्ट ही नहीं, बल्कि अत्यधिक विद्वेषपूर्ण भी होते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि उनकी हैसियत खतरे में है, या जब उन्होंने लोगों के दिलों में अपना स्थान खो दिया होता है, जब वे लोगों का समर्थन और स्नेह खो देते हैं, जब लोग उनका आदर-सम्मान नहीं करते, और वे बदनामी के गर्त में गिर जाते हैं, तो वे क्या करते हैं? वे अचानक बदल जाते हैं। जैसे ही वे अपनी हैसियत खो देते हैं, वे कोई भी कर्तव्य निभाने के लिए तैयार नहीं होते, और वे जो कुछ भी करते हैं, वह घटिया होता है, और उनकी कुछ भी करने में कोई दिलचस्पी नहीं रहती। कर्तव्य-पालन में उनकी कोई रुचि नहीं होती। लेकिन यह सबसे खराब अभिव्यक्ति नहीं होती। सबसे खराब अभिव्यक्ति क्या होती है? जैसे ही ये लोग अपनी हैसियत खो देते हैं और कोई उनका सम्मान नहीं करता, कोई उनके बहकावे में नहीं आता, तो उनकी घृणा, ईर्ष्या और प्रतिशोध बाहर आ जाता है। उन्हें न केवल परमेश्वर का कोई भय नहीं रहता, बल्कि उनमें आज्ञाकारिता का कोई अंश भी नहीं होता। इसके अतिरिक्त, उनके दिलों में परमेश्वर के घर, कलीसिया, अगुआओं और कार्यकर्ताओं से घृणा करने की संभावना होती है; वे दिल से चाहते हैं कि कलीसिया के कार्य में समस्याएँ आ जाएँ या वह ठप हो जाए; वे कलीसिया, और भाई-बहनों पर हँसना चाहते हैं। वे उस व्यक्ति से भी घृणा करते हैं, जो सत्य का अनुसरण करता है और परमेश्वर का भय मानता है। वे उस व्यक्ति पर हमला करते हैं और उसका मजाक उड़ाते हैं, जो अपने कर्तव्य के प्रति वफादार और कीमत चुकाने का इच्छुक होता है। यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है—और क्या यह विद्वेषपूर्ण नहीं है? ये स्पष्ट रूप से बुरे लोग हैं; मसीह-विरोधी अपने सार में बुरे लोग होते हैं" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ : वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो))। "दुष्ट" और "दुष्ट लोग" जैसे शब्द पढ़ना बहुत पीड़ाजनक था, मेरा दिल अचानक बहुत डर गया। मैंने सोचा नहीं था कि ये शब्द मुझ पर लागू होंगे। मेरी बहन ने मेरे काम की समस्याओं पर उंगली उठाई तो मेरी छवि खराब हो गई, और मैं उस पर वार-पलटवार करने लगी, काम के बारे में चर्चा करते हुए जान-बूझकर उसे शर्मिंदा करने लगी, और उसकी कामकाज की व्यवस्था में गलतियाँ निकालने लगी। उसके काम की एक समस्या का हल जानते हुए भी मैंने उसे नहीं बताया, क्योंकि मैं उसे शर्मिंदा करना और उस पर हँसना चाहती थी। जब अगुआ ने मुझे उजागर करके मेरा निपटान किया, तो मैं आत्मचिंतन करने के बजाय, मेरी समस्या की रिपोर्ट करने के कारण उससे नफरत करने लगी। मैं नकारात्मक और हठधर्मी थी और अपना गुस्सा अपने कर्तव्य पर निकाल रही थी, मैं इस्तीफा देकर अपना कर्तव्य छोड़ने को भी तैयार थी। ये सब एक मसीह-विरोधी के ही लक्षण थे, एक दुष्ट स्वभाव के! मैं इन फलसफ़ों में विश्वास करती थी : "मैं तब तक हमला नहीं करूंगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता" और "अगर तुम निर्दयी हो, तो अन्यायी होने का दोष मुझ पर मत डालो।" जब कोई मेरे हितों और छवि को नुकसान पहुंचाता था, तो मैं उससे नफरत करती थी, वार-पलटवार करती थी। मुझे याद आया कि परमेश्वर में विश्वास करने से पहले, जब एक दोस्त से मेरा झगड़ा हो गया था और उसने किसी से मेरी बुराई की थी, तो मैं गुस्से से बिफर पड़ी थी, और सोचने लगी थी, "अगर तुम निर्दयी हो, तो अन्यायी होने का दोष मुझ पर मत डालो।" मैंने यही बात दूसरे इंसान से गुपचुप अंदाज में कही थी, "तुम उसके साथ नरमी दिखाने की मूर्खता क्यों कर रहे हो? तुम्हें पता तक नहीं है कि पीठ पीछे वह तुम्हारी कितनी बुराई करती रहती है!" मुझे लगता था किसी के धमकाने पर पलटकर वार न करना मेरी कमजोरी थी। इस फलसफे के साथ जीने के कारण मैं स्वार्थी और दुष्ट हो गई, मेरी सोच विकृत हो गई, और मैं भले-बुरे का फर्क भूल गई। इस एहसास ने मुझे चौंका दिया और मुझे यह भी लगा कि मैं कितनी बुरी थी। अगर मैंने अपनी दुष्टता का इलाज नहीं किया, तो मैं और भी बड़ी बुराई कर सकती हूँ, फिर परमेश्वर द्वारा ठुकराई और निकाली जा सकती हूँ। इसे पहचाकर, मैंने परमेश्वर से मन-ही-मन प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं सोचती थी मुझमें अच्छी मानवता है, पर तुम्हारे वचनों के न्याय और खुलासे ने मुझे दिखाया है कि मुझमें बुरी मानवता है और मैं बहुत दुष्ट हूँ। मैंने दरअसल अपनी बहन की मदद का बदला लिया। मुझमें मानवता नाम की कोई चीज नहीं है! परमेश्वर, मैं प्रायश्चित कर सत्य का अभ्यास करना, और खुद को बदलना चाहती हूँ। कृपया मुझे राह दिखाओ।"
बाद में, परमेश्वर के वचनों में मैंने पढ़ा, "जब कोई तुम्हारी निगरानी या निरीक्षण करने में थोड़ा समय लगाता है या तुमसे गहन प्रश्न पूछता है, तुम्हारे साथ खुले दिल से बातचीत करने और यह पता लगाने की की कोशिश करता है कि इस दौरान तुम्हारी स्थिति कैसी रही है, यहाँ तक कि कभी-कभी जब उनका रवैया थोड़ा कठोर होता है, और वे तुमसे थोड़ा निपटते हैं और तुम्हारी थोड़ी काट-छाँट करते हैं, और तुम्हें अनुशासित करते और धिक्कारते हैं, तो वे यह सब इसलिए करते हैं क्योंकि उनका परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति एक ईमानदार और जिम्मेदारी भरा रवैया होता है। तुम्हें इसके प्रति नकारात्मक विचार या भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम दूसरों की निगरानी, निरीक्षण और पूछताछ स्वीकार कर सकते हो, तो इसका क्या मतलब है? यह कि अपने दिल में तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो। अगर तुम लोगों के द्वारा अपनी निगरानी, निरीक्षण और पूछताछ स्वीकार नहीं करते—अगर तुम इस सब का विरोध करते हो—तो क्या तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करने में सक्षम हो? परमेश्वर की जाँच लोगों की पूछताछ से ज्यादा विस्तृत, गहन और सटीक होती है; परमेश्वर जो पूछता है, वह इससे अधिक विशिष्ट, कठोर और गहन होता है। इसलिए अगर तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा निगरानी की जाना स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हारे ये दावे कि तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर सकते हो, खोखले शब्द नहीं हैं? परमेश्वर की जाँच और परीक्षा स्वीकार करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर के घर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, और भाई-बहनों द्वारा निगरानी स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए" (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ)। "चाहे तुम्हारे अंदर कोई भी समस्या हो या तुम किसी भी तरह की भ्रष्टता प्रकट करो, तुम्हें परमेश्वर के वचनों के अनुसार आत्म-चिंतन करके स्वयं को जानना चाहिए या भाई-बहनों से फीडबैक देने के लिए कहना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि तुम्हें परमेश्वर की जांच स्वीकार करनी चाहिए और परमेश्वर के सामने आकर उसकी प्रबुद्धता और प्रकाश पाने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। तुम इसे चाहे जैसे करो, सबसे अच्छा यह होगा कि तुम पहले ही अपनी समस्याओं की पहचान कर उन्हें हल कर लो, जो आत्म-चिंतन का परिणाम होता है। तुम जो कुछ भी करो, उसमें परमेश्वर द्वारा उजागर किए जाने का इंतज़ार न करो, क्योंकि तब तक बहुत देर हो चुकी होगी!" (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही मुझे यह एहसास हुआ कि मेरे भाई-बहन इसलिए मेरी निगरानी और मार्गदर्शन करते हैं क्योंकि वे काम को लेकर गंभीर और जिम्मेदार हैं, और मुझे परमेश्वर का अनुग्रह मानकर इसे स्वीकारना और इसका पालन करना चाहिए। परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकारने और परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखने का यही अर्थ है। जब मेरी बहन ने मेरी समस्याओं को समझकर मुझे उनके बारे में बताया था, तो यह मेरी मदद और सहयोग के लिए था। मेरा जीवन अनुभव बहुत खोखला था। नए सदस्यों को अपने कर्तव्यों में मुश्किलें आ रही थीं, पर मैं सत्य पर संगति करके इन्हें सुलझा नहीं पा रही थी, और कई बार, मैं बस काम की व्यवस्था करके छोड़ देती थी, बाद में न तो कोई खोज-खबर लेती थी और न ही सहयोग करती थी। मुझे कामकाज की व्यवस्था संबंधी सिद्धांतों की समझ नहीं थी, पर बहन लियू को सत्य की थोड़ी समझ थी, और वह कुछ मामलों को साफ-साफ देख सकती थी। अगर हमने कलीसिया के काम में सहयोग किया होता, तो इससे काम में मदद मिलती। मैं उससे सीख सकती थी और ज्यादा तेजी से सुधार कर सकती थी। तभी मेरी समझ में आया कि परमेश्वर हमें अकेले अपना काम करने देने के बजाय हमारे कर्तव्यों में सहयोग करवाना क्यों चाहता है। इसका कारण लोगों का भ्रष्ट स्वभाव है, इसलिए हमें एक-दूसरे पर नजर रखने, एक-दूसरे का मार्गदर्शन करने, और गलतियों से बचने में एक-दूसरे की मदद करने की जरूरत है। यह सब सोचते हुए मुझे काफी अपराध-बोध होने लगा। मैं अब अपने मान और रुतबे के लिए नहीं जीना चाहती थी। मुझे अपने अहं को पीछे छोड़ना और दूसरों की निगरानी और मार्गदर्शन को स्वीकारना सीखना होगा, अपनी बहन के साथ सहयोग करना, और सत्य की खोज कर काम की समस्याओं को मिल-जुलकर सुलझाना, और अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाना।
इसके बाद मैं बहन लियू के सामने अपना दिल खोलकर रखना, अपनी भ्रष्टता को उजागर कर उसका विश्लेषण करना, और उससे क्षमा मांगना चाहती थी। मुझे हैरानी हुई जब मेरी अगुआ ने मुझे एक दूसरी कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने के लिए भेज दिया। बहन लियू से अलग किए जाने के बाद मेरे मन में बहुत-से खेद थे। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, और कहा कि अब मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहती हूँ और अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने पर ध्यान देना चाहती हूँ। फिर, नई कलीसिया में, मैंने खुद को अपने कर्तव्य को समर्पित कर दिया। मुझे याद है, एक बार सिंचन कार्य की इंचार्ज बहन ली ने मुझे बुलाया और पूछा कि नए सदस्यों की सभाएं कैसी चल रही हैं। बहन ली ने मुझे कुछ सलाह दी, "तुम हमेशा दूसरी सभाओं में जाती हो, पर नए सदस्यों की सभाओं में कभी-कभार जाती हो, जिससे ऐसा लगता है जैसे अगुआ गैरहाजिर हो। भाई-बहनों में से कोई भी तुम्हें नहीं जानता। इससे बाद में उनकी हालत और समस्याओं पर ठीक-से संगति करना बहुत मुश्किल हो जाता है।" उसकी यह बात सुनकर मैं सन्न रह गई और मेरा पारा चढ़ने लगा। मैंने सोचा, "तुम मुझे एक गैरहाजिर अगुआ कैसे कह सकती हो? क्या तुम्हारा मतलब है कि मैं कोई वास्तविक काम नहीं करती और मैं बेकार हूँ? तुम कुछ ज्यादा ही कठोर हो! ऐसा नहीं है कि मैं काम नहीं कर रही हूँ, मैं दूसरे काम की खोज-खबर ले रही हूँ। इस समूह की इंचार्ज तुम हो, तो यह जिम्मेदारी तुम क्यों नहीं उठाती? हर काम मैं ही करूँ, यह जरूरी तो नहीं। अगर बड़े अगुआओं को इसका पता चला तो क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि मैं व्यावहारिक काम नहीं करती? ऐसे नहीं चलेगा। मुझे तुमसे बात करने के लिए तुम्हारे काम में कुछ गलतियाँ ढूंढनी पड़ेंगी ..." यह सब सोचते हुए, अचानक मुझे एहसास हुआ कि मेरी हालत सही नहीं थी। मेरी बहन मेरे काम की समस्याएँ बता रही थी, इसे स्वीकार कर चिंतन-मनन करने के बजाय मैं उसे बहुत कठोर ठहरा रही थी, उसे गलत साबित करने के लिए उसके काम में समस्याएँ ढूँढना चाहती थी। मैं फिर से सत्य को स्वीकार न करके बदला लेना चाहती थी। यह बात समझ लेने के बाद मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, बहन ली का आज यह मसला उठाना तुम्हारी व्यवस्था थी, पर मेरे दिल में हठधर्मिता थी, जो तुम्हारी इच्छा के खिलाफ है। मैं तुम्हारी इच्छा का पालन कर आत्मचिंतन करना चाहती हूँ।" प्रार्थना के बाद मुझे शांति मिली और मैं आत्मचिंतन करने लगी। मुझे एहसास हुआ कि मेरे साथ सचमुच एक समस्या थी : मैं बहन ली पर बहुत ज्यादा निर्भर थी, मुझे लगता था क्योंकि वह नए सदस्यों के सिंचन की इंचार्ज थी, तो मैं इस काम से दूर रहकर थोड़ा आराम कर सकती थी। एक कलीसिया अगुआ होने के नाते, मुझे शायद ही कभी नए सदस्यों की असली हालत और समस्याओं का पता चलता था। मैं अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रही थी। यह सचमुच व्यावहारिक काम न करने का लक्षण था। इसके बाद मैंने बहन ली से कहा, "मैं अपना समय फिर से व्यवस्थित करूंगी। मुझे इस समस्या का पहले नहीं पता था, पर मैं इसे बदलना चाहती हूँ।" बाद में, मैं नए सदस्यों से मिली और उनकी सभाओं में शामिल हुई, उनकी हालत को ठीक करने के लिए संगति की भी पेशकश की। इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर मुझे बहुत शांति महसूस हुई। इस अनुभव से मुझे यह एहसास हुआ कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने से और अपने भाई-बहनों की निगरानी, मार्गदर्शन, काट-छांट और निपटान को स्वीकारना सीखने से मैं सचमुच कुछ बदलाव ला पाई।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?