सहयोगी प्रतिस्पर्धी नहीं होता
परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकारने के बाद जल्दी ही मैं नए सदस्यों के सिंचन का अभ्यास करने लगी। क्योंकि मैं जोशीली थी, आगे बढ़कर काम करती और कर्तव्य में नतीजे देती थी, तो मुझे समूह अगुआ चुन लिया गया। बाद में, मैं एक सुसमाचार उपयाजिका बन गई। भाई-बहन कहते थे कि कम उम्र की होने के बावजूद मैं काफी भरोसेमंद थी, अपने कर्तव्य में बोझ उठाती थी और जिम्मेदार थी। इससे मेरा अहं वाकई संतुष्ट हुआ। अक्तूबर 2020 में मैं कलीसिया अगुआ बन गई। इससे मैं और भी ज्यादा महसूस करने लगी कि मैं सत्य का अनुसरण करने वाली एक योग्य इंसान हूँ।
कुछ समय बाद, एक बड़े अगुआ ने बहन ओलिविया को मेरे साथ काम करने के लिए कहा। मैं उसे कलीसिया की स्थिति के बारे में समझा ही रही थी कि अगुआ ने हमारी कलीसिया में मौजूद कुछ समस्याओं की चर्चा की। यह सुनकर ओलिविया ने कहा, “हमें समस्या की जड़ का पता लगाकर इसे जल्दी से हल करना होगा। नहीं तो कलीसिया के काम में रुकावट आएगी।” उसकी यह बात सुनकर मुझे शर्मिंदगी महसूस हुई, क्योंकि मुझे चिंता थी कि ओलिविया मुझे नीची नजर से देखेगी क्योंकि मेरे काम में ये समस्याएँ थीं। अगले कुछ दिनों में, ओलिविया ने जाना कि भाई-बहन कलीसिया में कर्तव्य कैसे निभाते हैं। फिर तमाम सहकर्मियों और मेरे भाई-बहनों के सामने ही उसने मुझसे कहा, “पिछले दो दिनों में मुझसे मिले सुसमाचार उपयाजक और बहुत-से समूह अगुआ कोई बोझ नहीं उठा रहे हैं। जब नए सदस्यों की कुछ धारणाएँ और मुश्किलें होती हैं, तो समूह अगुआओं को पता नहीं होता कि इन्हें कैसे सुलझाना है और वे सक्रियता से खोजबीन नहीं करते, बल्कि मुश्किलों में उलझ जाते हैं। इस तरह वे नए सदस्यों का अच्छे से सिंचन नहीं कर सकते।” उसकी बात सुनकर मैं थोड़ी विरोधी हो गई क्योंकि मैं कई समूह अगुआओं को विकसित करने पर ध्यान दे रही थी। उसे बोलते हुए सुनकर ऐसा लगा जैसे उनमें से कोई भी अच्छा काम नहीं कर रहा था। मुझे लगा कि वह शायद ज्यादा ही अपेक्षाएं कर रही थी। मैंने सोचा, “तुम अभी आई हो और सारी परिस्थिति नहीं समझती, फिर भी नुक्स निकालने लगी हो। क्या तुम दिखाना चाहती हो कि तुम बोझ उठा सकती हो और समस्याओं का पता लगा सकती हो? क्या नई होने की वजह से तुम यहाँ अपना प्रभाव जमाने की कोशिश कर रही हो? अगर तुम मेरे काम की समस्याओं को कुरेदती रही तो क्या भाई-बहनों की नजरों में मेरी छवि खराब नहीं कर दोगी?” मैंने अपने गुस्से पर काबू पाते हुए कहा, “तुम इन समस्याओं के बारे में सही हो। लेकिन समूह अगुआ और सुसमाचार उपयाजक, सभी वास्तविक मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, इसलिए कभी-कभी खोज-खबर लेने का काम ठीक-से नहीं हो पाता, और हमें उन्हें समझना चाहिए।” यह सुनकर उसने कहा, “इन मुश्किलों को सत्य पर संगति करके हल किया जा सकता है। अगर वे सत्य स्वीकार सकते हैं और परमेश्वर का इरादा समझ सकते हैं, तो वे बोझ उठाएंगे और अपने कर्तव्य में जिम्मेदार होंगे। सबसे अहम बात यह है कि क्या इन समस्याओं को सुलझाने के लिए हम सत्य पर संगति करते हैं।” मुझे और भी गुस्सा आ गया, सोचने लगी, “क्या तुम कह रही हो कि मैं सत्य की संगति के जरिये ये समस्याएँ सुलझाने में सक्षम नहीं हूँ?” ओलिविया के बारे में मेरी धारणा बिल्कुल बदल गई। अब मैं उसे अपनी सहयोगी और मदद करने वाली समझने के बजाय अपनी विरोधी समझने लगी। मैंने सोचा, “अगर ऐसे ही चलता रहा, तो वह देर-सवेर मेरे काम की कमान अपने हाथ में ले लेगी। अगुआ मैं हूँ, वह सिर्फ मेरे साथ सहयोग करने आई है। वह हर मामले में मुझसे बेहतर है, और हमेशा मुझे शर्मिंदा करती है। इस तरह मेरी गरिमा कैसे बची रहेगी? भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” इसके बाद, मैं उसके साथ काम करना नहीं चाहती थी, उससे बात भी नहीं करना चाहती थी।
एक बार, सहकर्मियों की एक सभा में, हमने परमेश्वर के वचन पढ़े, जिनमें झूठे अगुआओं के वास्तविक काम न करने का खुलासा किया गया था। ओलिविया ने इन पर चिंतन करके अपने बारे में समझ साझा की, कहा कि कलीसिया में आए उसे कुछ समय हो गया था, पर उसके वास्तविक काम न करने के कारण नए सदस्यों की समस्याएँ समय पर हल न हो सकीं। उसने कहा कि इसके कारण वे निरंतर अपनी मुश्किलों के साथ जी रहे थे, और वे सत्य का अभ्यास करना नहीं जानते थे जिससे उनके जीवन-प्रगति में देर हो रही थी। हालांकि वह अपने बारे में समझ की चर्चा कर रही थी, पर मुझे तो यही लगा जैसे कि वह मुझे असल काम न करने के कारण उजागर कर रही है। मैंने उसकी बातों के अर्थ का अंदाज़ा लगाया, “तुम दूसरों को मेरे काम की समस्याएँ बताने के लिए जानबूझकर ऐसी बातें कर रही हो, है ना? पहले भाई-बहनों पर मेरा कितना अच्छा प्रभाव था, पर अब जब तुमने मुझे इस तरह उजागर कर दिया है, तो लगता है जैसे तुम जानबूझकर मेरी छवि खराब कर रही हो, है ना? अब वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” उस समय, मैं बहुत प्रतिरोधी थी और वहाँ से चली जाना चाहती थी, पर ऐसा करना बहुत अटपटा लगता, तो मैं बेमन से आखिर तक बैठी रही। उस शाम, ओलिविया मुझसे चर्चा करने आई कि बोझ उठाने वाला कौन है जिसे टीम अगुआ के रूप में विकसित किया जा सकता है। जब उसने ये पूछा, तो मैं बहुत विरोधी महसूस करने लगी, और सोचा, “क्या कोई अच्छा उम्मीदवार बचा है? तुमने सभी अच्छे लोगों को ठुकरा दिया है। हमारी कलीसिया में जो समस्याएँ हैं, उनके बारे में तुम न सिर्फ यहाँ खुलकर चर्चा करती हो, बल्कि दूसरी कलीसियाओं के भाई-बहनों के सामने भी ऐसा करती रहती हो। अब दूसरी कलीसियाओं में भी लोग जानते हैं कि मैं वास्तविक काम नहीं करती। तुम बोलने से पहले मेरी भावनाओं का ख्याल क्यों नहीं करती? मुझे लगता है तुम जान-बूझकर मुझे निशाना बना रही हो!” मैंने सख्ती से कहा, “जब से तुम आई हो, किसी और ने कोई बोझ नहीं उठाया है!” उसने धीमे स्वर में जवाब दिया, “तो तुम्हारा ख्याल है कि मुझे यहाँ नहीं होना चाहिए?” मुझे एहसास हुआ कि मैं बहुत तैश में आ गई थी, मुझे यह नहीं कहना चाहिए था, तो मैंने झट से कहा, “नहीं।” कुछ देर हम दोनों ही चुप रहे, फिर वापस चर्चा होने लगी। बाद में, अपनी बहन से मैंने जो कहा, उस बारे में सोचते हुए मुझे अपराध-बोध हुआ। ओलिविया हमारे काम में समस्याएँ खोज सकी, यह तथ्य यही दिखाता है कि वह बोझ उठा सकती थी। मैं उससे ऐसा कैसे कह सकती थी? चर्चा खत्म होने के बाद मैं उससे माफी मांगना चाहती थी, पर काम में व्यस्त होते ही मैं भूल गई।
बाद में जब मैंने बड़े अगुआ को सभी मामलों में ओलिविया से सलाह करते देखा, तो मुझे बहुत बेचैनी हुई : “मैं भी एक अगुआ हूँ। मेरे भाई-बहन मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे मैं एक बेकार की अगुआ हूँ, मेरी कोई जरूरत नहीं है?” मुझे लगा ओलिविया मेरी लोकप्रियता छीन रही है और मुझे उससे जलन होने लगी। मैंने सोचा, “अगर वह यहाँ न आती तो अगुआ मेरे साथ काम की चर्चा करती।” मैंने यह भी सोचा कि अब सारे काम पर ओलिविया का दबदबा था, वह लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करती रही थी और उसे सत्य की समझ मुझसे ज्यादा थी। उसने भाई-बहनों के सामने ही मेरे काम की समस्याओं पर उंगली उठाई थी, तो मुझे नहीं पता कि भाई-बहन अब मेरे बारे में क्या सोचते थे। इन बातों के बारे में सोचते हुए मुझे संकट की घड़ी का आभास हुआ। मुझे चिंता होने लगी कि ओलिविया मेरा ओहदा चुरा लेगी। मैं इस बारे में जितना ज्यादा सोचती, उतनी ही असंतुष्ट होती जाती, मेरे मन में उससे बदला लेने की भावना पनपने लगी : “तुम्हें मेरी भावनाओं की परवाह नहीं है, आज के बाद मैं भी चीजों को तुम्हारे लिए इतनी आसान नहीं रहने दूँगी।” मुझे याद है एक बार हम काम की चर्चा कर रहे थे, तो ओलिविया ने अपनी राय बताते हुए मेरी सलाह माँगी। मैंने उसे नजरअंदाज करते हुए जानबूझकर उसकी कार्य-व्यवस्थाओं में दोष निकालने शुरू कर दिए, कि यह काम नहीं करेगा, वह काम नहीं करेगा, ताकि उसका काम मुश्किल हो जाए। एक बार, हम एक ऐसे काम की चर्चा कर रहे थे जिसकी मुख्य जिम्मेदारी ओलिविया पर थी। उस समय, मुझे अच्छे से पता था कि समस्या को कैसे हल करना है, पर मैं उसे कोई सुझाव देना नहीं चाहती थी। मैंने यह भी सोचा, “अच्छा होगा अगर तुम्हारी व्यवस्थाएँ विफल हो जाएँ। फिर हरेक को पता चल जाएगा कि तुम चीजों को नहीं संभाल सकती, और अगुआ को भी लगेगा कि मेरे बजाय हर बार तुम्हीं से बात करना गलत है।” इसके बाद उसने बहुत-से सुझाव दिए और मैंने सब-के-सब ठुकरा दिए। जब मैंने देखा कि उसे नहीं पता इसे हल कैसे करें, और वह मेरी सलाह मांग रही है, तो मुझे मन-ही-मन खुशी हुई, “तुम कामकाज की व्यवस्था तक ठीक-से नहीं कर सकती, फिर भी मेरे काम पर उंगली उठाने की हिम्मत करती हो।” अगुआ ने देखा कि मेरा व्यवहार ठीक नहीं था, उसने मुझे याद दिलाया कि मुझे ओलिविया के साथ मिल-जुलकर काम करना चाहिए, वरना कलीसिया के काम में देर होगी। अपनी अगुआ की बात सुनकर, मुझे अंदर से अपराध-बोध हुआ। जब हम अपने काम में एक जगह फंस गए थे तो मैंने जिम्मेदारी लेते हुए इसे हल नहीं किया। इसके बजाय खड़ी-खड़ी मज़ाक उड़ाती रही। मैं कलीसिया के काम की बिल्कुल भी रक्षा नहीं कर रही थी। यह एहसास होने के बाद, मैंने अपनी मानसिकता को ठीक किया और चर्चाओं में भाग लेने लगी। पर पिछली देरी के कारण कार्य-व्यवस्थाएँ देर से कार्यान्वित की गईं।
एक रात, अगुआ मेरे पास आई और मुझे मेरे काम की समस्याओं के बारे में बताने लगी। उसने कहा, “मान और रुतबे को लेकर तुम्हारी इच्छा बहुत प्रबल है। तुम प्रसिद्धि के लिए ओलिविया से होड़ करती रही हो। काम की चर्चा के दौरान तुम उसके किसी भी विचार को स्वीकार नहीं करती हो। तुम उन सबका खंडन करती हो। ओलिविया तुम्हारे सामने बेबस महसूस करती है, उसे नहीं पता कि तुम्हारे साथ सहयोग कैसे किया जाए। तुम्हें थोड़ा आत्मचिंतन करना चाहिए।” अपनी अगुआ की बात सुनकर मैं बहुत उदास और दुखी हो गई : “ओलिविया पीठ पीछे मेरी समस्याएँ क्यों रिपोर्ट कर रही थी? अगर वह सचमुच मेरी मदद करना चाहती थी तो मुझे अकेले में बता सकती थी। अब अगुआ को मेरी समस्याओं का पता चल गया है और वह मुझे बर्खास्त कर सकती है।” यह बात मन में आते ही, मैं अगुआ को खुलकर अपनी हालत के बारे में बताने लगी। मैंने जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा देने की भी पेशकश की, ताकि कलीसिया के काम में देर न हो। इस्तीफे की बात कहते हुए मेरा दिल टूटा जा रहा था। मुझे लगा मैं अपना काम खोने ही वाली हूँ। अगुआ ने मेरे साथ संगति करते हुए कहा, “जब हमारे साथ समस्याएँ होती हैं तो हम उनसे कन्नी नहीं काट सकते। हमें सत्य खोजकर आत्मचिंतन करना चाहिए। अगर ओलिविया काम में समस्याएँ देख सकती है तो इसका मतलब है वह जिम्मेदारी उठा सकती है। क्या यह कलीसिया के काम के लिए अच्छा नहीं है? तुम इसे सही नजरिए से क्यों नहीं देख पाती? तुम हमेशा उससे जलती हो और डरती हो कहीं वह तुमसे आगे न निकल जाए। इससे पता चलता है तुम्हारी रुतबे की चाह बहुत प्रबल है।” अगुआ की संगति के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मान और रुतबे की मेरी इच्छा सचमुच बहुत प्रबल थी। मुझे अपनी हालत ठीक करने के लिए सत्य खोजना था। अब मैं नकारात्मक और हठधर्मी बनी रहना नहीं चाहती थी।
इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा, और मैंने जो भ्रष्ट स्वभाव दिखाया था, उसकी थोड़ी समझ प्राप्त हुई। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मसीह-विरोधियों को लगता है कि जो कोई भी उन्हें उजागर करता है, वह उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है, इसलिए वे भी ऐसे किसी भी व्यक्ति से प्रतिस्पर्धा और लड़ाई करते हैं जो उन्हें उजागर करता है। अपनी इसी प्रकार की प्रकृति के कारण मसीह-विरोधी ऐसे किसी व्यक्ति के प्रति कभी दयालु नहीं होते जो उनकी काट-छाँट करता है, न ही वे ऐसा करने वाले किसी भी व्यक्ति को सहन या स्वीकार करते हैं, उसके प्रति कृतज्ञता या सराहना तो वे बिल्कुल भी अनुभव नहीं करते। इसके विपरीत, अगर कोई उनकी काट-छाँट करता है, और उन्हें अपनी गरिमा और इज्जत से हाथ धोने पर विवश कर देता है, तो वे उस व्यक्ति के प्रति अपने दिलों में घृणा पाल लेते हैं और उससे बदला लेने के मौके की ताक में रहते हैं। उन्हें दूसरों से कैसी नफरत होती है! वे ऐसा सोचते हैं और दूसरों के सामने खुलकर कहते हैं, ‘आज तुमने मेरी काट-छाँट की है, ठीक है, अब हमारा झगड़ा पत्थर की लकीर हो गया है। तुम अपने रास्ते जाओ, मैं अपने रास्ते जाता हूँ, लेकिन मैं कसम खाता हूँ कि तुमसे बदला लेकर रहूँगा! अगर तुम मेरे सामने अपनी गलती स्वीकार करो, मेरे सामने अपना सिर झुकाओ या घुटने टेको और मुझसे भीख माँगो तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा, वरना मैं इसे कभी नहीं भूलूँगा!’ मसीह-विरोधी चाहे कुछ भी कहें या करें, वे किसी के हाथों अपनी दयालुतापूर्ण काट-छाँट को या किसी की ईमानदार मदद को कभी भी परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के आगमन के रूप में नहीं देखते। इसके बजाय, वे इसे अपने अपमान के संकेत के रूप में और उस क्षण के रूप में देखते हैं जब वे सबसे अधिक शर्मिंदा हुए थे। यह दर्शाता है कि मसीह-विरोधी सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, कि उनका स्वभाव सत्य से विमुख होने और नफरत करने वाला होता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। परमेश्वर ने खुलासा किया कि जब मसीह-विरोधियों की काट-छांट की जाती है तो न सिर्फ वे इसे स्वीकार नहीं करते, बल्कि वे काट-छांट करने वाले इंसान से नफरत करने लगते हैं और पलटवार करना चाहते हैं। मैंने देखा कि मसीह-विरोधी सत्य को स्वीकार नहीं करते, वे सत्य से विमुख होते हैं, नफरत करते हैं। पहले जब कभी मैं “प्रतिरोध” शब्द को देखती थी तो मुझे यह बड़ा शातिर रवैया लगता था। मुझे विश्वास नहीं हुआ कि मैंने शातिरपन दिखाया था और मैं इस तरह की चीजें कर सकती थी। सिर्फ मसीह-विरोधी और बुरे इंसान ही लोगों से बदला लेते हैं। मैं अपने व्यवहार के बारे में सोचने लगी, क्या यह मसीह-विरोधियों जैसा ही नहीं है? जब ओलिविया ने मेरे सहकर्मियों और भाई-बहनों के सामने मेरे काम की समस्याएँ बताई थीं, तो मुझे लगा था मेरी छवि खराब हुई है और मेरे मन में उसके लिए पूर्वाग्रह और प्रतिरोध पनपने लगा था। एक सभा में ओलिविया को एहसास हुआ कि उसने परमेश्वर के वचनों के आधार पर वास्तविक कार्य नहीं किया, तब मुझे लगा कि वह जानबूझकर अपने आत्म-ज्ञान की बात करके मेरे काम की समस्याओं को उजागर कर रही है, जिससे उसके प्रति मेरा पूर्वाग्रह और बढ़ गया था। मैंने उस पर हमला बोलते हुए कहा था कि उसके आने के बाद किसी और ने कोई बोझ उठाया ही नहीं। जब मैंने अगुआ को हमेशा उसके साथ काम की चर्चा करते देखा तो मुझे लगा मेरी लोकप्रियता छिन गई है। उससे बदला लेने के लिए, काम की चर्चा के दौरान मैंने उसे अपने सुझाव नहीं दिए, और जब ओलिविया ने अपने विचार और सुझाव बताए, तो मैंने गलतियाँ निकालते हुए उन्हें ठुकरा दिया, जिससे काम को आगे बढ़ाना नामुमकिन हो गया। मैं अपनी बहन को प्रतिस्पर्धी समझने लगी। अपना नाम और रुतबा बचाने के लिए मैं उस पर वार-पलटवार भी कर सकती थी। मैंने जो स्वभाव दिखाया, क्या वह एक मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं था? इससे भी बढ़कर, मैंने उसके द्वारा मेरे काम की वास्तविक समस्याओं को उजागर करने के बारे में सोचा। अगर मैंने आत्मचिंतन के लिए सत्य की खोज की होती, और गलतियों को सुधारा होता, तो समस्याएँ जल्दी से सुलझ जातीं। यह हमारे काम के लिए लाभकारी होता। पर मैंने न सिर्फ इसे स्वीकार नहीं किया, बल्कि अपनी बहन पर पलटवार भी करना चाहा। मैं सच में परमेश्वर की विश्वासी कहलाने लायक नहीं हूँ।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो और अंश पढ़े, जिनसे मुझे इस स्वभाव के सार और परिणाम समझ आए। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “मसीह-विरोधियों की प्रकृति की मुख्य विकृतियों में से एक है शातिरपन। ‘शातिरपन’ का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि सत्य के बारे में उनका एक विशेष रूप से नीच रवैया होता है—न केवल उसके प्रति समर्पण करने में विफल होना, और न केवल उसे स्वीकार करने से मना करना, बल्कि उन लोगों की निंदा तक करना, जो उनकी काट-छाँट करते हैं। यह मसीह-विरोधियों का शातिर स्वभाव है। मसीह-विरोधियों को लगता है कि जो भी व्यक्ति अपनी काट-छाँट स्वीकार करता है, वह इतना असुरक्षित होता है कि उसके साथ दबंगई हो सकती है और हमेशा दूसरों की काट-छाँट करने वाले लोग हमेशा लोगों को तंग करना और धौंस देना चाहते हैं। इसलिए मसीह-विरोधी हर उस व्यक्ति का विरोध करते हैं और उसके लिए समस्या खड़ी करते हैं जो उनकी काट-छाँट करता है। और जो कोई मसीह-विरोधी की कमियाँ या भ्रष्टता सामने लाता है, या सत्य और परमेश्वर के इरादों के बारे में उनके साथ सहभागिता करता है, या उन्हें स्वयं को जानने के लिए बाध्य करता है, वे सोचते हैं कि वह व्यक्ति उनके लिए समस्या खड़ी कर रहा है और उन्हें अप्रिय लगता है। वे उस व्यक्ति से अपने दिल की गहराई से नफरत करते हैं, उससे बदला लेते हैं और उसके लिए मुश्किलें खड़ी करते हैं। ... किस तरह के लोग ऐसे शातिर स्वभाव के होते हैं? बुरे लोग। सच तो यह है कि मसीह-विरोधी बुरे लोग होते हैं। इसलिए, केवल बुरे लोग और मसीह-विरोधी ही ऐसे शातिर स्वभाव के होते हैं। जब एक शातिर व्यक्ति को किसी भी प्रकार के सुविचारित उपदेश, आरोप, सीख या सहायता का सामना करना पड़ता है, तो उसका रवैया आभार जताने या विनम्रतापूर्वक इसे स्वीकारने का नहीं होता है, बल्कि वह शर्म से लाल हो जाता है, और अत्यंत शत्रुता, नफरत, और यहाँ तक कि प्रतिशोध का भाव महसूस करता है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग आठ))। “मसीह-विरोधी अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा को किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। ये लोग कपटी, चालाक और दुष्ट ही नहीं, बल्कि अत्यधिक विद्वेषपूर्ण भी होते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि उनकी हैसियत खतरे में है, या जब वे लोगों के दिलों में अपना स्थान खो देते हैं, जब वे लोगों का समर्थन और स्नेह खो देते हैं, जब लोग उनका आदर-सम्मान नहीं करते, और वे बदनामी के गर्त में गिर जाते हैं, तो वे क्या करते हैं? वे अचानक बदल जाते हैं। जैसे ही वे अपनी हैसियत खो देते हैं, वे कोई भी कर्तव्य निभाने के लिए तैयार नहीं होते, वे जो कुछ भी करते हैं, अनमने होकर करते हैं, और उनकी कुछ भी करने में कोई दिलचस्पी नहीं रहती। लेकिन यह सबसे खराब अभिव्यक्ति नहीं होती। सबसे खराब अभिव्यक्ति क्या होती है? जैसे ही ये लोग अपनी हैसियत खो देते हैं और कोई उनका सम्मान नहीं करता, कोई भी उनसे गुमराह नहीं होता, तो उनकी घृणा, ईर्ष्या और प्रतिशोध बाहर आ जाता है। उनके पास न केवल परमेश्वर का भय मानने वाला दिल नहीं रहता, बल्कि उनमें समर्पण का कोई अंश भी नहीं होता। इसके अतिरिक्त, उनके दिलों में परमेश्वर के घर, कलीसिया, अगुआओं और कार्यकर्ताओं से घृणा करने की संभावना होती है; वे दिल से चाहते हैं कि कलीसिया के कार्य में समस्याएँ आ जाएँ या वह ठप हो जाए; वे कलीसिया, और भाई-बहनों पर हँसना चाहते हैं। वे उस व्यक्ति से भी घृणा करते हैं, जो सत्य का अनुसरण करता है और परमेश्वर का भय मानता है। वे उस व्यक्ति पर हमला करते हैं और उसका मजाक उड़ाते हैं, जो अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और कीमत चुकाने का इच्छुक होता है। यह मसीह-विरोधियों का स्वभाव है—और क्या यह विद्वेषपूर्ण नहीं है? ये स्पष्ट रूप से बुरे लोग हैं; मसीह-विरोधी अपने सार में बुरे लोग होते हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद नौ (भाग दो))। “विद्वेषपूर्ण” और “बुरे लोग” जैसे शब्द पढ़ना बहुत परेशान करने वाला था। मैंने सोचा नहीं था कि ये शब्द मुझ पर लागू होंगे। ओलिविया ने मेरे काम की समस्याओं पर उंगली उठाई तो मेरी छवि खराब हो गई। मैं उस पर वार-पलटवार करने लगी, काम के बारे में चर्चा करते हुए जान-बूझकर उसे शर्मिंदा करने लगी, और उसकी कार्य-व्यवस्थाओं में गलतियाँ निकालने लगी। उसके काम की एक समस्या का हल जानते हुए भी मैंने उसे नहीं बताया, क्योंकि मैं उसे शर्मिंदा करना और उस पर हँसना चाहती थी। जब अगुआ ने मुझे उजागर करके मेरी कट-छाँट की, तो मैंने न सिर्फ आत्मचिंतन नहीं किया, बल्कि मेरी समस्या की रिपोर्ट करने के कारण उससे नफरत की। मैं नकारात्मक और हठधर्मी थी और अपना गुस्सा अपने कर्तव्य पर निकाल रही थी, मैं इस्तीफा देकर अपना कर्तव्य छोड़ने को भी तैयार थी। मैंने जो दिखाया, वह मसीह-विरोधी जैसा ही दुष्ट स्वभाव था! मैं इन फलसफों में विश्वास करती थी : “मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता” और “अगर तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहोगे तो मैं तुम्हारा बुरा करूँगा।” जब कोई मेरे हितों और छवि को नुकसान पहुंचाता था, तो मैं उससे नफरत करती थी, वार-पलटवार करती थी। मुझे याद आया कि परमेश्वर में विश्वास करने से पहले, एक दोस्त से मेरा झगड़ा हो गया था और उसने किसी से मेरी बुराई की थी। मैं गुस्से से बिफर पड़ी थी, और सोचने लगी थी, “अगर तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहोगे तो मैं तुम्हारा बुरा करूँगा।” मैंने उसी दूसरी इंसान से गुपचुप अंदाज में कही थी, “तुम इतनी मूर्ख कैसे हो? उसके साथ इतनी नरमी क्यों दिखा रही हो? तुम्हें पता तक नहीं है कि पीठ पीछे वह तुम्हारी कितनी बुराई करती है!” मुझे लगता था किसी के धमकाने पर पलटकर वार न करना मेरी कमजोरी थी। इन फलसफों के साथ जीने के कारण मैं स्वार्थी और दुष्ट हो गई, मेरी सोच विकृत हो गई, और मैं भले-बुरे में फर्क नहीं कर पाई। यह एहसास होने पर मुझे लगा कि मैं बहुत बुरी थी। अगर मैंने अपनी दुष्टता का इलाज नहीं किया, तो मैं और भी बड़ी बुराई कर सकती हूँ, फिर परमेश्वर द्वारा ठुकराई और हटाई जा सकती हूँ! मैंने परमेश्वर से मन-ही-मन प्रार्थना की, “परमेश्वर, तुम्हारे वचनों के न्याय और खुलासे के जरिये मैं देख पा रही हूँ कि मेरी मानवता बुरी है और मैं बहुत विद्वेषपूर्ण हूँ। मैं खुद को बदलने के लिए प्रायश्चित और सत्य का अभ्यास करना चाहती हूँ। कृपया मुझे राह दिखाओ।”
बाद में, परमेश्वर के वचनों में मैंने पढ़ा : “जब कोई तुम्हारी पर्यवेक्षण या प्रेक्षण करने में थोड़ा समय लगाता है या तुम्हें गहराई से समझने लगता है, तुम्हारे साथ खुले दिल से बातचीत करने और यह पता लगाने की कोशिश करता है कि इस दौरान तुम्हारी स्थिति कैसी रही है, यहाँ तक कि कभी-कभी जब उसका रवैया थोड़ा कठोर होता है, और तुम्हारी थोड़ी काट-छाँट करता है, अनुशासित करता और धिक्कारता है, तो वह यह सब इसलिए करता है क्योंकि उसका परमेश्वर के घर के कार्य के प्रति एक ईमानदार और जिम्मेदारी भरा रवैया होता है। तुम्हें इसके प्रति कोई नकारात्मक विचार या भावनाएँ नहीं रखनी चाहिए। अगर तुम दूसरों की निगरानी, निरीक्षण और समझने की कोशिश को स्वीकार कर सकते हो, तो इसका क्या मतलब है? यह कि अपने दिल में तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करते हो। अगर तुम लोगों के द्वारा अपनी निगरानी, निरीक्षण और समझने के प्रयासों को स्वीकार नहीं करते—अगर तुम इस सबका विरोध करते हो—तो क्या तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार करने में सक्षम हो? परमेश्वर की जाँच लोगों की समझने की कोशिश से ज्यादा विस्तृत, गहन और सटीक होती है; परमेश्वर की अपेक्षाएँ इससे अधिक विशिष्ट, कठोर और गहन होती हैं। अगर तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों द्वारा पर्यवेक्षण किया जाना स्वीकार नहीं कर सकते, तो क्या तुम्हारे ये दावे कि तुम परमेश्वर की जाँच स्वीकार कर सकते हो, खोखले शब्द नहीं हैं? परमेश्वर की जाँच और परीक्षा स्वीकार करने में सक्षम होने के लिए तुम्हें पहले परमेश्वर के घर, अगुआओं और कार्यकर्ताओं, या भाई-बहनों द्वारा पर्यवेक्षण स्वीकार करने में सक्षम होना चाहिए” (वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (7))। “चाहे तुम्हें कोई भी समस्या हो या चाहे तुम जैसा भी भ्रष्टाचार प्रकट करो, तुम्हें हमेशा परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में अपने बारे में सोचना चाहिए और खुद को जानना चाहिए या अपने भाई-बहनों से इन बातों की ओर ध्यान दिलाने के लिए कहना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें परमेश्वर की जाँच-पड़ताल को स्वीकार करना चाहिए, परमेश्वर के सामने आना चाहिए और उससे तुम्हें प्रबुद्ध और रोशन करने के लिए कहना चाहिए। चाहे तुम कोई भी तरीका अपनाओ, समस्याओं को जल्दी पहचानना और फिर उनका समाधान करना एक ऐसा प्रभाव है जो आत्म-चिंतन द्वारा प्राप्त होता है और यह सबसे अच्छी चीज है जो तुम कर सकते हो। तुम्हें पश्चाताप महसूस करने से पहले तब तक इंतजार नहीं करना चाहिए जब तक कि परमेश्वर तुम्हें प्रकट करके समाप्त न कर दे, क्योंकि तब तक पश्चाताप करने में बहुत देर हो चुकी होगी!” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद सात : वे दुष्ट, धूर्त और कपटी हैं (भाग एक))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद ही मुझे यह एहसास हुआ कि मेरे भाई-बहन मुझे जो निगरानी और मार्गदर्शन देते हैं, वह सिर्फ इसलिए है कि वे काम को लेकर गंभीर और जिम्मेदार हैं। मुझे इसे परमेश्वर से स्वीकारना और स्वीकारकर इसका पालन करना सीखना चाहिए। यही परमेश्वर की जांच-पड़ताल को स्वीकारना और परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखना है। जब मेरी बहन ने मेरी समस्याओं का पता लगाकर मुझे उनके बारे में बताया था, तो यह मेरी मदद और सहयोग के लिए था। मेरा जीवन अनुभव बहुत खोखला था। नए सदस्यों को अपने कर्तव्यों में मुश्किलें आ रही थीं, पर मैं सत्य पर संगति करके इन्हें सुलझा नहीं पा रही थी, और कई बार, मैं बस काम की व्यवस्था सिर्फ उसे खत्म करने के लिए करती और फिर उसे छोड़ देती थी, बाद में न तो कोई खोज-खबर लेती थी और न ही सहयोग प्रदान करती थी। इस कारण काम में कोई नतीजे नहीं मिले थे। मुझे कर्मियों की व्यवस्था संबंधी सिद्धांतों की समझ नहीं थी और कुछ लोगों की अनुपयुक्तता को नजरंदाज नहीं किया जा सकता था। ओलिविया को सत्य की थोड़ी समझ थी, और वह कुछ मामलों को साफ-साफ देख सकती थी। अगर हमने कलीसिया के काम में सहयोग किया होता, तो इससे काम में मदद मिलती और साथ ही मैं उससे सीख सकती थी और ज्यादा सुधार कर सकती थी। तभी मेरी समझ में आया कि परमेश्वर हमें अकेले अपना काम करने देने के बजाय हमारे कर्तव्यों में सहयोग करवाना क्यों चाहता है। इसका कारण है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव और बहुत-से दोष होते हैं। हमें एक-दूसरे पर नजर रखने, एक-दूसरे का मार्गदर्शन करने, एक-दूसरे की मदद करने की जरूरत है। गलतियों से बचने का यही एक उपाय है। यह सब सोचते हुए मुझे काफी अपराध-बोध होने लगा। मैं अब मान और रुतबे के लिए नहीं जी सकती। मुझे अपने अहं को पीछे छोड़ना और दूसरों की निगरानी और मार्गदर्शन को स्वीकारना सीखना होगा, अपनी बहन के साथ सहयोग करना, और सत्य की खोज कर काम की समस्याओं को मिल-जुलकर सुलझाना, और अपने कर्तव्य को सही ढंग से निभाना होगा।
इसके बाद, मुझे एक दूसरी कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाने के लिए भेज दिया। ओलिविया से अलग होने पर, मेरे मन में बहुत-से खेद थे। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, कहा कि अब मैं अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाना चाहती हूँ और अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने पर ध्यान देना चाहती हूँ। एक बार मैंने सिंचन कार्य की प्रभारी, बहन एस्थर से कहा कि वह मुझे समझाए कि नए सदस्यों की सभाएं कैसी चल रही हैं। एस्थर ने मुझे कुछ सलाह दी, “तुम हमेशा दूसरी सभाओं में जाती हो, पर नए सदस्यों की सभाओं में कभी-कभार जाती हो, जिससे ऐसा लगता है मानो अगुआ गैरहाजिर हो। भाई-बहनों में से कोई भी तुम्हें नहीं जानता। इस कारण तुम्हारे लिए उनकी हालत और समस्याओं का समाधान करना और उनके काम की खोज-खबर लेना आसान नहीं होता।” उसकी यह बात सुनकर मैं सन्न रह गई और मेरे गाल लाल होने लगे। मैंने सोचा, “तुम मुझे एक गैरहाजिर अगुआ कैसे कह सकती हो? क्या तुम्हारे कहने का मतलब है कि मैं कोई वास्तविक काम नहीं करती और मैं बेकार हूँ? तुम कुछ ज्यादा ही कठोर हो! ऐसा नहीं है कि मैं काम नहीं कर रही हूँ, मैं दूसरे काम की खोज-खबर ले रही हूँ। इस समूह की प्रभारी तुम हो, तो यह जिम्मेदारी तुम्हें ही उठानी चाहिए। हर काम मैं ही करूँ, यह जरूरी तो नहीं। अगर बड़े अगुआओं ने तुम्हारी बात सुनी तो क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि मैं वास्तविक काम नहीं करती? ऐसे नहीं चलेगा। मुझे तुम्हारे काम में कुछ गलतियाँ ढूंढनी पड़ेंगी।” यह सब सोचते हुए, अचानक मुझे एहसास हुआ कि मेरी हालत सही नहीं थी। मेरी बहन मेरे काम की समस्याएँ बता रही थी, इसे स्वीकार कर चिंतन-मनन करने के बजाय मुझे लगा वह बहुत कठोर है, उसे गलत साबित करने के लिए उसके काम में समस्याएँ ढूँढना चाहती थी। मैं फिर से सत्य को स्वीकार न करके बदला लेना चाहती थी। मैंने फौरन मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, “परमेश्वर, एस्थर ने एक मसला उठाया, पर मेरे दिल में हठधर्मिता थी, जो तुम्हारे इरादे के खिलाफ है। मैं तुम्हारी इच्छा को स्वीकारना, उसका पालन कर आत्मचिंतन करना चाहती हूँ।” प्रार्थना के बाद मैंने आत्मचिंतन किया और मुझे एहसास हुआ कि मेरे साथ सचमुच एक समस्या थी। मैं एस्थर पर बहुत ज्यादा निर्भर थी, मुझे लगता था क्योंकि वह नए सदस्यों के सिंचन की प्रभारी है, तो मैं आराम कर सकती हूँ, इसलिए मैं इस काम से दूर रही। एक कलीसिया अगुआ होने के नाते, मुझे शायद ही कभी नए सदस्यों की असली हालत और समस्याओं का पता चलता था। मैं अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर रही थी। यह सचमुच वास्तविक काम न करने का लक्षण था। इसके बाद मैंने एस्थर से कहा, “मुझे नहीं पता था कि ऐसी कोई समस्या है, पर अब मैं इसे बदलना चाहती हूँ।” बाद में, मैं नए सदस्यों से मिली और उनकी सभाओं में शामिल हुई, उनकी हालत को ठीक करने के लिए संगति की भी पेशकश की। इस तरह अपना कर्तव्य निभाकर मुझे बहुत शांति महसूस हुई।
इस अनुभव से मुझे यह एहसास हुआ कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार अभ्यास करने से और अपने भाई-बहनों की निगरानी, मार्गदर्शन और काट-छांट को स्वीकारना सीखने से मैं सचमुच कुछ बदलाव ला सकती हूँ। परमेश्वर को धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?