मैं मसीह को देखने के अयोग्य हूँ
जब से मैंने सबसे पहले सर्वशक्तिमान परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया, तब से मैं उन भाइयों और बहनों की हमेशा सराहना करता था जो मसीह की व्यक्तिगत सेवकाई हासिल कर सकते हैं, जो अपने स्वयं के कानों से उसके धर्मोपदेशों को सुन सकते हैं। अपने दिल में, मैं सोचता कि अगर भविष्य में एक दिन मैं मसीह के धर्मोपदेशों को सुन सकूँ तो यह कितना अद्भुत होगा, निस्संदेह उसे देखना तो और भी अधिक अद्भुत होगा। लेकिन बाद में, उसकी संगति को सुनकर, मुझे मेरे दिल की गहराई से यह महसूस होने लगा है कि मैं मसीह को देखने के योग्य नहीं हूँ।
ऐसा तब हुआ था जब जीवन में प्रवेश पर धर्मोपदेश और संगति खण्ड 1-3 जारी किए गए थे। जब मैंने पहली किताब को सुना, तो मुझे लगा कि ऊंचाई पर के भाई ने बहुत अच्छा कहा है। जब मैंने दूसरी किताब में मसीह की संगति को सुना (इससे पहले मुझे किसी ने नहीं बताया था कि ये मसीह की संगति थी), तो मैंने कल्पना की थी कि यह वक्ता ऊंचाई पर के भाई के अधीन केवल एक अगुआ है, और खासतौर पर जब मसीह ने इस समस्या के बारे में संगति की कि ज्ञान को कैसे देखें, तो मुझे अपने भाइयों और बहनों की उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं सुनाई दी, तो मैं निश्चित हो गया कि मेरा अनुमान सही था, और मैं यह सोचता था कि यह वक्ता ऊंचाई पर के भाई जितना अच्छा नहीं बोलता है, इसलिए मैं ध्यान से नहीं सुनता था। तीसरी किताब को सुनने के बाद, ऊंचाई पर के भाई की संगति के बाद, मैंने मसीह को यह कहते हुए सुना कि, "भाई की अभी-अभी की संगति के बारे में...," और मैं और भी ज्यादा सुनिश्चित हो गया था कि यह वक्ता ऊंचाई पर के भाई के अधीन एक अगुआ है, क्योंकि हमारी दुनिया में, अगुआ हमेशा सबसे पहले बोलते हैं, और उनके अधीनस्थ बाद में बोलते हैं। तो मैंने स्पीकर को बंद कर दिया, और सोचने लगा, "बाद में जब मेरे पास समय होगा, तब मैं इसे सुन लूँगा।" उस दिन जब मैंने जाना कि यह असल में मसीह की संगति थी तो मैं अचंभित रह गया, और अंतत: मैंने उस धर्मोपदेश के प्रत्येक वचन को गंभीरता से सुना।
इसके बाद, मैंने चिंतन करना शुरू किया: मैं खुद मसीह की संगति सुनने के लिए इतना लालायित क्यों था, फिर भी जब उसने अंतत: हमसे बात की, तो मैं इसे पहचान नहीं सका? मैंने अपनी अवस्था से संबंधित परमेश्वर के वचनों को खाना और पीना शुरू कर दिया, और देखा कि परमेश्वर ने कहा था कि, "सभी मनुष्य यीशु के सच्चे रूप को देखने और उसके साथ रहने की इच्छा करते हैं। मुझे नही लगता कि भाई-बहनों में से एक भी ऐसा है जो कहेगा कि वह यीशु को देखने या उसके साथ रहने की इच्छा नहीं करता। यीशु को देखने से पहले अर्थात, देहधारी परमेश्वर को देखने से पहले, संभवत: तुम लोगों के भीतर अनेक तरह के विचार होंगे, उदाहरण के लिए, यीशु के रूप के बारे में, उसके बोलने के तरीके, उसकी जीवन-शैली के बारे में इत्यादि। लेकिन एक बार उसे वास्तव में देख लेने के बाद तुम्हारे विचार तेजी से बदल जाएँगे। ऐसा क्यों है? क्या तुम लोग जानना चाहते हो? यह सच है कि मनुष्य की सोच को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि मसीह का सार इंसान द्वारा किए गए किसी भी परिवर्तन को सहन नहीं करता। तुम लोग मसीह को अविनाशी या एक संत मानते हो, लेकिन कोई भी उसे दिव्य सार धारी सामान्य मनुष्य नहीं मानता है। इसलिए, ऐसे बहुत-से लोग जो दिन-रात परमेश्वर को देखने की कामना करते हैं, वास्तव में परमेश्वर के शत्रु हैं और परमेश्वर के अनुरूप नहीं हैं। क्या यह मनुष्य की ओर से की गई गलती नहीं है? तुम लोग अभी भी यह सोचते हो कि तुम्हारा विश्वास और तुम्हारी निष्ठा ऐसी है कि तुम सब मसीह के रूप को देखने के योग्य हो, परन्तु मैं तुमसे आग्रह करता हूँ कि तुम अपने आपको और ज्यादा व्यवहारिक चीज़ों से युक्त कर लो! क्योंकि अतीत, वर्तमान और भविष्य में ऐसे बहुत-से लोग जो मसीह के सम्पर्क में आए, वे असफल हो गए हैं और असफल हो जाएँगे; वे सभी फरीसियों की भूमिका निभाते हैं। तुम लोगों की असफलता का क्या कारण है? इसका सीधा-सा कारण यह है कि तुम्हारी धारणाओं में एक ऐसा परमेश्वर है जो बहुत ऊंचा और विराट है और प्रशंसा के योग्य है। परन्तु सत्य वह नहीं होता जो मनुष्य चाहता है। न केवल मसीह ऊँचा और विराट नहीं है, बल्कि वह विशेष रूप से छोटा है; वह न केवल मनुष्य है बल्कि वह एक सामान्य मनुष्य है...। इसीलिए लोग उसके साथ सामान्य मनुष्य जैसा व्यवहार करते हैं; जब वे उसके साथ होते हैं तो उसके साथ बेतकल्लुफ़ी भरा व्यवहार करते हैं...। जो मसीह पहले ही आ चुका है उसे तुम लोग एक साधारण मनुष्य समझते हो और उसके वचनों को भी एक साधारण मनुष्य के शब्द मानते हो। इसलिए, तुमने मसीह से कुछ भी प्राप्त नहीं किया है, बल्कि अपनी कुरूपता को ही प्रकाश में पूरी तरह से उजागर कर दिया है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। मैंने परमेश्वर के वचनों से तुलना की, और फिर सोचा कि अंतत: मसीह की संगति सुनते समय किस तरह से मेरा खुद का भ्रष्ट स्वभाव अभिव्यक्त हुआ था। मैं अपने खुद के कानों से मसीह के धर्मोपदेश और संगति सुनने की इच्छा करता था, फिर भी जब मैंने अंतत: मसीह की संगति सुनी, तो मैंने उसकी परवाह नहीं की। मैंने मसीह को बस एक आम मनुष्य के रूप में देखा। ऐसा इसलिए था क्योंकि मैं मसीह के सार को नहीं समझता था, यह सब नहीं समझता था कि मसीह विनम्र और छिपा हुआ रहता है, और मसीह के बारे में मेरे बहुत से विचार और धारणाएँ थी। मैं कल्पना करता था कि, मसीह की संगति केवल उन भाइयों और बहनों तक सीमित होनी चाहिए जिनकी तुरंत उस तक पहुँच है, दूसरों को अपने कानों से उसकी संगति सुनने की अनुमति नहीं होगी; मैं कल्पना करता था कि, मसीह की संगति मसीह द्वारा सार्वजनिक रूप से अपनी पहचान प्रकट करने के साथ होगी; मैं कल्पना करता था कि, मसीह की संगति निश्चित रूप से दूसरों से अलग आवाज़ में और वाक्यांशों के सुरुचिपूर्ण लहजे में कही जाएगी, किसी असाधारण प्रकार के मनुष्य की तरह; मैं कल्पना करता था कि, मसीह की संगति को मेरे भाइयों और बहनों की उत्साहित, भावपूर्ण जयजयकार का साथ मिलेगा; और यदि यह ऊंचाई पर का भाई और मसीह बारी-बारी से बोल रहे हैं, तो मसीह सबसे पहले बोलेगा, और ऊंचाई पर का भाई अंत में बोलेगा...। मैंने मसीह के कार्य और वचनों को अपनी कल्पनाओं की सीमाओं में सीमित कर दिया था, क्योंकि मैं मसीह की कल्पना एक विशेष तरीके से करता था। जब तथ्य, उनके बारे में की गई मेरी कल्पना के असंगत होते थे, तो मैं मसीह के साथ एक साधारण व्यक्ति के रूप में और मसीह के वचनों के साथ एक साधारण व्यक्ति के वचनों के रूप में बर्ताव करता था, और जबकि अन्य लोग इस सहभागिता से काफी कुछ हासिल करते थे, लेकिन मैं कुछ भी नहीं पाता था, और इसके बजाय मैं पूरी तरह से अपने खुद की अहंकारी, दंभी, सत्य-का-तिरस्कार करने वाली, शैतानी प्रकृति को उजागर करता था, और खुद को ऐसा बना लेता था जो मसीह को अस्वीकार और उसका विरोध करता है।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचन को देखा: "तुम सब हमेशा मसीह को देखने की कामना करते हो, लेकिन मैं तुम सबसे विनती करता हूँ कि तुम अपने आपको इतना ऊँचा न समझो; हर कोई मसीह को देख सकता है, परन्तु मैं कहता हूँ कि कोई भी मसीह को देखने के लायक नहीं है। क्योंकि मनुष्य का स्वभाव बुराई, अहंकार और विद्रोह से भरा हुआ है, इस समय तुम मसीह को देखोगे तो तुम्हारा स्वभाव तुम्हें बर्बाद कर देगा और बेहद तिरस्कृत करेगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो मसीह के साथ असंगत हैं वे निश्चित ही परमेश्वर के विरोधी हैं)। "तुम लोग सत्य की उपस्थिति में श्रद्धावान नहीं हो, और सत्य के लिए तरसने की प्रवृत्ति तो तुम लोगों में बिलकुल भी नहीं है। तुम बस इतना ही करते हो कि अंधाधुंध अध्ययन करते हो और पुलक भरी उदासीनता के साथ प्रतीक्षा करते हो। इस तरह से अध्ययन और प्रतीक्षा करने से तुम क्या हासिल कर सकते हो? क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हें परमेश्वर से व्यक्तिगत मार्गदर्शन मिलेगा? यदि तुम परमेश्वर के कथनों को नहीं समझ सकते, तो तुम किस तरह से परमेश्वर के प्रकटन को देखने के योग्य हो? ... केवल वे लोग ही परमेश्वर की वाणी सुन पाएँगे, जो सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, और केवल इस तरह के लोग ही परमेश्वर के प्रकटन को देखने के योग्य हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 1: परमेश्वर के प्रकटन ने एक नए युग का सूत्रपात किया है)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह समझाया कि मैं परमेश्वर की आवाज को नहीं पहचान सकता था क्योंकि मैं बहुत अहंकारी, बहुत विद्रोही, और बहुत दंभी था, ध्यानपूर्वक सुनने से बहुत जल्दी बहक जाता था और, पद और हैसियत वाले लोगों के साथ सहमति में सर हिला देता था, जबकि बिना पद या हैसियत वाले लोगों को तुच्छ समझता था, इतना कि भले ही उन्होंने सत्य के अनुरूप बोला हो तब भी मैं उसे नहीं सुनता। जब मैं संगति को सुनता था, तो मेरा सत्य पर ध्यान केन्द्रित नहीं होता था और सत्य हासिल करने की मेरी इच्छा नहीं होती थी, और इसके बजाय मैं अपने मन को अटकलबाजियों और जाँच-पड़ताल में समर्पित करता था। मैं अहंकार और विद्रोहशीलता, अवधारणाओं और कल्पनाएँ करने के अलावा कुछ भी प्रकट नहीं करता था। मेरे जैसा कोई अहंकारी, विद्रोही, और सत्य को अस्वीकार करने वाला, मेरे जैसा कोई जिसकी सत्य के सम्मुख धर्मनिष्ठा या लालसा नहीं है, मैं संभवतः कैसे परमेश्वर की आवाज़ को सुन और जान सकता हूँ? मैं परमेश्वर को देखने के योग्य कैसे था?
इस प्रकाशन के माध्यम से, मैं अंतत: समझ गया कि भले ही मैं मसीह को देखना चाहता था, लेकिन मैं मसीह को देखने के अयोग्य था क्योंकि मुझमें शैतान की भ्रष्टता बहुत गहरी है, मैं प्रकृति से अभिमानी और विद्रोही हूँ, मुझमें कोई सत्य और सत्य के बारे में कोई प्रेम नहीं है, मैं मसीह के सार को नहीं समझता हूँ, मैं मूर्खतापूर्ण पूर्वाग्रहों के साथ आँकलन करता हूँ, मेरी बहुत अधिक अवधारणाएँ और विचार हैं, और मैं जिस परमेश्वर में विश्वास करता हूँ वह अभी भी अस्पष्ट परमेश्वर है, एक शक्तिशाली और वाक्पटु व्यक्ति की छवि है। और जब मैं सचमुच मसीह को देखता हूँ, तो मेरी धारणाएँ जड़ जमा सकती हैं और मेरा अहंकार किसी भी समय अंकुरित हो सकता है, मेरी अपनी विद्रोही प्रकृति मुझे बर्बाद कर रही है। अब मुझे अवश्य सत्य से सुसज्जित हो जाना चाहिए, परमेश्वर के वचनों में अपनी भ्रष्ट प्रकृति और मसीह के सार को समझने की कोशिश करनी चाहिए, और ऐसा व्यक्ति बनना चाहिए जो मसीह को समझता और उसकी आराधना करता हो।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?