अपने बेटे की जानलेवा बीमारी का सामना करना
दो साल पहले मेरे बेटे की कमर में अचानक भयंकर दर्द होने लगा। जब हम जाँच के लिए उसे अस्पताल ले गए, तो डॉक्टर ने बताया कि जाँच के नतीजे चिंताजनक हैं, इसलिए हमें आगे की जाँच के लिए किसी बड़े प्रांतीय अस्पताल में जाना चाहिए। उनकी बात सुनकर मैं डर गई, मैंने सोचा कि मेरे बेटे को कोई गंभीर बीमारी हो सकती है। मगर फिर मैंने सोचा : “विश्वासी बनने के बाद से मैंने परमेश्वर के लिए बहुत त्याग किए और अपना कर्तव्य निभाया है और मैंने बहुत से कष्ट उठाए हैं। यहां तक कि जब कम्युनिस्ट पार्टी के भयानक अत्याचार और गिरफ्तारी का सामना किया, अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के ताने और अपमान सहे, तब भी मैं कभी पीछे नहीं हटी और हमेशा अपने कर्तव्य पर डटी रही। मुझे लगा कि परमेश्वर के लिए मैंने इतना त्याग किया है तो वह किसी भी गंभीर खतरे से मेरे बेटे की रक्षा करेगा।” जाँच के नतीजों से मैं चौंक गई। मेरे बेटे को लिवर कैंसर और लिवर सिरोसिस था। डॉक्टर का कहना था कि उसके पास बस तीन से छह महीने ही बचे हैं। ये जाँच मेरे लिए बहुत बड़ा झटका था, मेरी हालत ऐसी हो गई जैसे मुझे लकवा मार गया हो। मैं इस हकीकत को स्वीकार नहीं कर सकी। वह सिर्फ सैंतीस साल का था—उसे ऐसी गंभीर बीमारी कैसे हो सकती है? जाँच के नतीजे मेरे हाथ में थे और मेरे हाथ काँप रहे थे। मैंने सोचा कहीं डॉक्टर ने जाँच में कोई गड़बड़ तो नहीं कर दी। मैं अवाक होकर वहीं बिस्तर के कोने पर बैठ गई, काफी देर तक मुझे कुछ होश न था। मेरी आँखों से आँसू बहते जा रहे थे और मैं सोच रही थी, “वह तो अभी जवान है—उसे ऐसी गंभीर बीमारी कैसे हो सकती है? लिवर कैंसर और लिवर सिरोसिस? दोनों बीमारियाँ ही जानलेवा हैं, मगर एक साथ दोनों का होना? वही हमारे परिवार का एकमात्र सहारा है। उसके बिना हमारा क्या होगा? किसी व्यक्ति को जीवन में जिस सबसे दर्दनाक चीज का सामना करना पड़ सकता है, वह है अपने बच्चे को दफनाना।” मेरी हालत खराब होती जा रही थी। आँसू हर वक्त बहने को तैयार रहते, और हर दिन मैं सदमे की हालत में जीती थी। मैं वाकई अंधकार में जा चुकी थी। मैंने यह प्रार्थना की, “परमेश्वर, अपने बेटे को इतना बीमार देखकर, मैं सचमुच पीड़ा में हूँ, मैं इसे और नहीं झेल सकती। मुझे प्रबुद्ध करो ताकि मैं तुम्हारी इच्छा समझ सकूँ।”
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : “परीक्षणों से गुजरते समय लोगों का कमजोर होना, या उनके भीतर नकारात्मकता आना, या परमेश्वर की इच्छा या अपने अभ्यास के मार्ग के बारे में स्पष्टता का अभाव होना सामान्य है। परंतु हर हालत में, अय्यूब की ही तरह, तुम्हें परमेश्वर के कार्य पर भरोसा होना चाहिए, और तुम्हें परमेश्वर को नकारना नहीं चाहिए। यद्यपि अय्यूब कमजोर था और अपने जन्म के दिन को धिक्कारता था, फिर भी उसने इस बात से इनकार नहीं किया कि मनुष्य के जीवन में सभी चीजें यहोवा द्वारा प्रदान की गई हैं, और यहोवा ही उन्हें वापस लेने वाला है। चाहे उसकी कैसे भी परीक्षा ली गई, उसने यह विश्वास बनाए रखा। ... परमेश्वर लोगों पर पूर्णता का कार्य करता है, और वे इसे देख नहीं सकते, महसूस नहीं कर सकते; इन परिस्थितियों में तुम्हारा विश्वास आवश्यक होता है। लोगों का विश्वास तब आवश्यक होता है, जब कोई चीज खुली आँखों से न देखी जा सकती हो, और तुम्हारा विश्वास तब आवश्यक होता है, जब तुम अपनी धारणाएँ नहीं छोड़ पाते। जब तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में स्पष्ट नहीं होते, तो आवश्यक होता है कि तुम विश्वास बनाए रखो, रवैया दृढ़ रखो और गवाह बनो” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मैंने जाना कि मेरे बेटे का इस कदर बीमार पड़ना मेरे लिए एक तरह का परीक्षण और परीक्षा थी और इसमें सफल होने के लिए मुझे अपनी आस्था पर डटे रहना था। मैंने अय्यूब के बारे में सोचा, जिसने अपनी सारी संपत्ति, पशुओं और अपने सभी बच्चों को खो दिया था, उसका पूरा शरीर फोड़ों से भर गया था। इतने बड़े परीक्षण के बावजूद, वो परमेश्वर पर उँगली उठाने से पहले खुद को कोसने को तैयार था, वो तब भी यहोवा के नाम का गुणगान करने की स्थिति में था। आखिर उसने परमेश्वर के लिए शानदार गवाही दी। जब वह इन सारी मुसीबतों का सामना कर रहा था, तो उसके दोस्तों ने उसका मजाक उड़ाया, उसकी पत्नी ने उसकी निंदा की और यहां तक कि उसे परमेश्वर का साथ छोड़कर मर जाने को कहा। बाहर से तो लगा कि जैसे लोग उसकी आलोचना कर रहे थे, मगर असल में इसके पीछे शैतान था, जो लोगों के ज़रिए अय्यूब को परमेश्वर को ठुकराने और उसे धोखा देने पर मजबूर कर रहा था। मगर अय्यूब उनके जाल में नहीं फँसा, उसने अपनी पत्नी की मूर्खता पर उसे फटकारा। इस बार मेरे दोस्तों और परिवार के लोगों के हमलों के पीछे शैतान की चालें थीं। मुझे अय्यूब की तरह मजबूती से परमेश्वर के लिए गवाही देनी थी। मैं उनकी बेतुकी बातों पर ध्यान नहीं दे सकती थी। इन विचारों के बाद मैंने खुद को उतना दुखी और असहाय महसूस नहीं किया, जितना पहले होता था।
कुछ हफ्ते बाद मेरे बेटे की सर्जरी की गई और उसकी स्थिति सुधरने लगी। मैंने सोचा, “शायद परमेश्वर मेरी आस्था के कारण उस पर थोड़ी दया दिखाएगा। मैं सच में उम्मीद करती थी कि परमेश्वर कोई चमत्कार प्रकट करेगा। और उसकी बीमारी का निदान कर देगा। अगर वह पूरी तरह ठीक हो गया, तो कितना अच्छा होगा!” फिर अचानक परमेश्वर के वचनों का ये अंश मुझे याद आया : “तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी आस्था के पीछे के गलत नज़रिए और आशीष पाने की चाह को साफ तौर पर उजागर कर दिया। मुझे वास्तव में शर्मिंदगी महसूस हुई। प्रभु में विश्वास करते हुए मैं हमेशा आशीष और अनुग्रह की खोज में रहती थी, ताकि मेरे विश्वास के कारण मेरे पूरे परिवार को आशीष मिले। परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकारने के बाद, हालाँकि मैंने कभी बेशर्मों की तरह परमेश्वर से अनुग्रह पाने के लिए प्रार्थना नहीं की थी, मैं सत्य को नहीं खोज रही थी और ना ही मैं परमेश्वर को समझ पाई थी। अपनी आस्था में मैं सोचती थी कि आशीष पाने से मैं “इस जीवन में सौ गुना और आने वाले युग में अनंत जीवन पाऊंगी।” मुझे लगा कि मैंने परमेश्वर के लिए इतने त्याग किए हैं, इसलिए वह मेरी सराहना करेगा और मुझे आशीष देगा, वह किसी भी बीमारी या आपदा से मेरे परिवार की रक्षा करेगा और हमारा जीवन आसान बनाएगा, किसी भी भयानक दुर्घटना से हमारी रक्षा करेगा। इसी कारण, अपना कर्तव्य निभाने के लिए मैंने अपनी नौकरी छोड़ दी, और खुशी-खुशी सारा कष्ट उठाने को इच्छुक थी। मगर जब मेरे बेटे को कैंसर हुआ, तो उसे बीमार देखकर मैं निरंतर पीड़ा में रहने और चिंता करने लगी, और मैं कर्तव्य निभाने की इच्छा ही खो बैठी। मैंने परमेश्वर के लिए खुद को कितना खपाया, कितना कष्ट झेला, उसका हिसाब लगाते हुए, मैं परमेश्वर से कुतर्क कर रही थी, मेरे बेटे की रक्षा नहीं करने के लिए उस पर उँगली उठा रही थी। अपने हालात के साथ ही परमेश्वर के वचनों के प्रकाशन से मैंने जाना कि आस्था में अनुसरण को लेकर मेरा नजरिया गलत था। मैं अपनी आस्था की खातिर त्याग नहीं कर रही थी कि सत्य की खोज सकूँ और अपने भ्रष्ट स्वभाव से छुटकारा पा सकूँ, इसके बजाय यह इसलिए था कि बदले में परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष पा सकूँ। मैं परमेश्वर के साथ लेन-देन कर रही थी, उसका इस्तेमाल करके उसे धोखा दे रही थी। मेरी आस्था एकचित्त होकर इस बात के लिए परमेश्वर के पीछे पड़ना था कि वह बीमारियों और आपदाओं से मेरे परिवार की रक्षा करे। मुझमें और उन धार्मिक लोगों में क्या फर्क है जो भूख मिटाने के लिए रोटी मांगते हैं? मैंने जाना कि अनुसरण को लेकर मेरा नज़रिया कितना नीचतापूर्ण था। इस समझ के आने के बाद मैंने परमेश्वर के लिए खुद को शुक्रगुजार माना और मैं उसके सामने आकर प्रार्थना करने लगी, मैं अपने बेटे की सेहत परमेश्वर के हाथों में सौंपकर, उसकी व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने को तैयार हो गई।
इलाज के एक समय के बाद मेरे बेटे की हालत बेहतर होती गई और इसी के साथ उसकी मनःस्थिति भी सुधरती गई। वह सामान्य ढंग से खाना खाने के साथ-साथ छोटे-मोटे काम भी कर पा रहा था। मैं बहुत खुश थी, खासकर तब जब मैंने उसे माइक्रोफोन हाथ में लिए अपने बेटे के साथ नाचते-गाते देखा, वह पूरी तरह स्वस्थ दिख रहा था। मुझे उसके लिए बड़ी उम्मीद दिखी और यहां तक सोचा, “देखा जाए तो, उसकी बीमारी तो मौत की सजा थी और उसके पास जिंदा रहने को छह महीने ही बचे थे। मगर छह महीने से ज्यादा बीत चुके थे और वह अच्छी तरह ठीक हो रहा था। ये परमेश्वर का अनुग्रह और सुरक्षा ही थे। अगर ऐसे ही चले, तो वह शायद पूरी तरह ठीक हो सकता था।” मगर मैंने जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ। अचानक उसे खाने-पीने में बहुत तकलीफ होने लगी, दिन-ब-दिन उसके पेट की सूजन तेज़ी से बढ़ने लगी जिसके कारण वो ठीक से बैठ भी नहीं पा रहा था। उसने अपनी जाँच कराई, तो पता चला कि कैंसर के ना फैलने के बाद भी, सिरोसिस की समस्या बदतर होती जा रही थी और उसे लिवर एसाइटिस हो गया था। मुझे लगा जैसे मौत हर पल उसके करीब आती जा रही थी, मैं फिर से हताश हो गई। मैंने सोचा, “मेरे बेटे की सेहत दिनोंदिन बेहतर होती जा रही थी, तो वह फिर से बिगड़ने क्यों लगी? वह कितना अच्छा बेटा है और सबसे हँसी-खुशी मिलकर रहता है। दोस्त, रिश्तेदार और पड़ोसी, सभी उसकी तारीफ करते रहते थे। वह मेरी आस्था का समर्थक नहीं है, मगर कभी मेरे मार्ग में रुकावट भी नहीं बनता। आखिर उसे यह जानलेवा बीमारी क्यों हुई? जब से मैं विश्वासी बनी हूँ तब से लगातार सुसमाचार साझा कर रही हूँ, कलीसिया में जो भी काम आता है, हमेशा उसके लिए तैयार रहती हूँ। कम्यूनिस्ट पार्टी के अत्याचार और गिरफ्तारी और मेरे परिवार वालों की ओर से मेरी आस्था का विरोध और रुकावटें डालने पर भी मैं कभी पीछे नहीं हटी। मैं अपना कर्तव्य निभाती रही। मैंने इतना सब कुछ दिया है, फिर भी मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है? इतने सालों के त्याग के बदले में क्या मुझे यही मिलना है?” हालाँकि मैंने यह कहा नहीं, मगर मुझे लगने लगा जैसे परमेश्वर मेरे साथ अधार्मिक हो गया था। मैं हर वक्त हताश, उदास और उलझन में रहने लगी। मुझमें कोई उम्मीद नहीं बची थी। मैं हर वक्त भयानक पीड़ा के कारण रोती रहती थी।
इसी पीड़ा के दौरान मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और उसके वचनों में उसकी इच्छा जाननी चाही। तब मैंने ये अंश पढ़ा : “धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्हारे द्वारा पूरे किए गए काम के अनुसार तुम्हें तुम्हारे हक का हिस्सा आवंटित करने, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसकी गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब को खत्म कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे उस चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे बूझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्ट कर दिया होता, तो लोगों ने यह न कहा होता कि वह धार्मिक है। हालाँकि, लोग भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्या उसे लोगों को बतलाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से नियम बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्ट है, और जो परमेश्वर का विरोध कर सकता है, वह व्यक्ति बेकार है; लेकिन परमेश्वर चाहे जैसे उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। ... परमेश्वर का सार धार्मिकता है। हालाँकि वह जो करता है उसे बूझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्या थी? ‘तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्हारी सदिच्छा समाई है; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्भव है कि मैं तुम्हारी बुद्धि और कर्मों की सराहना न करूँ?’ अब तुम्हें यह देखना चाहिए कि मनुष्य के उद्धार के समय परमेश्वर द्वारा शैतान को नष्ट न किए जाने का कारण यह है कि मनुष्य स्पष्ट रूप से देख सकें कि शैतान ने उन्हें कैसे और किस हद तक भ्रष्ट किया है, और परमेश्वर कैसे उन्हें शुद्ध करके बचाता है। अंततः, जब लोग सत्य समझ लेंगे और शैतान का घिनौना चेहरा स्पष्ट रूप से देख लेंगे, और शैतान द्वारा उन्हें भ्रष्ट किए जाने का राक्षसी पाप देख लेंगे, तो परमेश्वर उन्हें अपनी धार्मिकता दिखाते हुए शैतान को नष्ट कर देगा। जब परमेश्वर शैतान को नष्ट करेगा, वह समय परमेश्वर के स्वभाव और बुद्धि से भरा होगा। वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग परमेश्वर की धार्मिकता को समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और उसकी वजह से वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक अतर्कसंगत हो रहे हैं। तुम देखो कि पतरस ने पाया कि कुछ चीजें अबूझ थीं, लेकिन उसे पक्का विश्वास था कि परमेश्वर की बुद्धिमता विद्यमान थी और उन चीजों में उसकी इच्छा थी। मनुष्य हर चीज की थाह नहीं पा सकते; इतनी सारी चीजें हैं जिन्हें वे समझ नहीं सकते। इस तरह, परमेश्वर के स्वभाव को जानना आसान बात नहीं है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि उसकी धार्मिकता वैसी नहीं है जैसा कि मैं सोचती थी—बिल्कुल निष्पक्ष और भेदभाव से रहित, इसका मतलब यह नहीं था कि हम जितना योगदान देंगे उतना ही पाएंगे। परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है और उसका सार बिल्कुल धार्मिक है, तो चाहे वह हमें कुछ दे या हमसे छीन ले, चाहे हमें अनुग्रह मिले या हम परीक्षणों में कष्ट भोगें, इन सबमें उसकी बुद्धि काम करती है। यह सब उसके धार्मिक स्वभाव का प्रकाशन है। अय्यूब पूरी जिंदगी परमेश्वर के मार्ग पर चलता रहा, परमेश्वर का भय मानकर बुराई से दूर रहा। परमेश्वर की नजरों में एकदम पूर्ण होने के बाद भी, परमेश्वर ने उसकी परीक्षा ली। हर परीक्षण के बाद उसके मन में परमेश्वर के लिए आस्था और उसके प्रति भय बढ़ता गया, और आखिर में उसने शैतान को पूरी तरह हराकर परमेश्वर के लिए बेहतरीन गवाही दी। फिर परमेश्वर उसके सामने प्रकट हुआ और उसे भरपूर आशीष दिया। इससे परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव प्रकट होता है। मैंने पौलुस के बारे में भी सोचा। उसने बहुत कष्ट उठाए और प्रभु के सुसमाचार का प्रचार करने के लिए दुनिया भर में घूमता रहा, मगर उसके मन में परमेश्वर के लिए सच्चा भय या समर्पण नहीं था। वह केवल अपनी कड़ी मेहनत के बदले परमेश्वर से आशीष पाना चाहता था। थोड़ा-बहुत काम करने के बाद उसने कहा : “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। पौलुस के कष्ट और उसका योगदान उसकी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से भरा था, और वो लेन-देन पर आधारित थीं। उसका स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला और वह परमेश्वर-विरोधी मार्ग पर चल रहा था। आखिर में परमेश्वर ने उसे दंड दिया। इससे पता चलता है कि परमेश्वर इस पर ध्यान नहीं देता कि कौन कितना काम करता है, वह हमारे सच्चे प्रेम और अपने प्रति समर्पण को और हमारे जीवन स्वभाव में हुए बदलावों पर ध्यान देता है। परमेश्वर बेहद पवित्र और धार्मिक है। मुझे लगा कि मुझे मेरे योगदान के लिए भुगतान किया जाएगा, मेरे योगदानों के बराबर मुझे कुछ न कुछ जरूर मिलेगा। यह एक इंसानी, लेन-देन वाली सोच है जो परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव से बिल्कुल अलग है। हालाँकि मैंने कुछ त्याग किए हैं, एक विश्वासी होने के नाते कुछ अच्छे काम भी किए हैं, मगर आस्था पर अनुसरण को लेकर मेरी सोच गलत थी और मेरे मन में परमेश्वर के लिए सच्चा समर्पण नहीं था। बेटे के बीमार पड़ने पर भी मैंने परमेश्वर को दोषी ठहराया और उसका विरोध किया। मेरे जीवन का स्वभाव नहीं बदला था और मैं अभी भी परमेश्वर का विरोध करने वाली इंसान थी जिसका संबंध शैतान से था। मैं परमेश्वर के आशीष पाने के काबिल नहीं थी। मैंने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं समझा था, और सोचती थी कि चूँकि मैंने अपने कर्तव्य में कुछ त्याग किए हैं, इसलिए परमेश्वर को मेरे बेटे की रक्षा कर उसका ध्यान रखना चाहिए। क्या मैं परमेश्वर के आगे इंसानी, लेन-देन वाली सोच के आधार पर मांगें नहीं रख रही थी? मुझे परमेश्वर के ये वचन याद आए : “प्रत्येक के पास एक उचित गंतव्य है। ये गंतव्य प्रत्येक व्यक्ति के सार के अनुसार निर्धारित किए जाते हैं और दूसरे लोगों से इनका कोई संबंध नहीं होता। किसी बच्चे का दुष्ट व्यवहार उसके माता-पिता को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता और न ही किसी बच्चे की धार्मिकता को उसके माता-पिता के साथ साझा किया जा सकता है। माता-पिता का दुष्ट आचरण उनकी संतानों को हस्तांतरित नहीं किया जा सकता, न ही माता-पिता की धार्मिकता उनके बच्चों के साथ साझा की जा सकती है। हर कोई अपने-अपने पाप ढोता है और हर कोई अपने-अपने आशीषों का आनंद लेता है। कोई भी दूसरे का स्थान नहीं ले सकता; यही धार्मिकता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। मैं हमेशा सोचती थी कि मैंने अपनी आस्था में इतने त्याग किए हैं, इसलिए परमेश्वर को मेरे बेटे को ठीक कर देना चाहिए। वरना, मैं उसे अधार्मिक समझूँगी। मैं एकदम बेवकूफ थी! मैंने चाहे कितने भी कष्ट क्यों न झेले हों, चाहे कितनी भी कीमत चुकाई हो, वह मेरा कर्तव्य था, जो एक सृजित प्राणी होने के नाते मुझे करना चाहिए। इसका मेरे बेटे की बीमारी, उसकी किस्मत या मंजिल से कोई नाता नहीं था। मुझे इसका फायदा उठाकर परमेश्वर के साथ सौदेबाजी या लेन-देन की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, जिससे मुझे अपने गलत नजरिए के सार को समझने में मदद मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “चाहे उसके साथ कितनी भी चीजें घटित हो जाएँ, मसीह-विरोधी जैसा व्यक्ति कभी परमेश्वर के वचनों में सत्य खोजकर उन्हें हल करने की कोशिश नहीं करता, चीजें परमेश्वर के वचनों के माध्यम से देखने की कोशिश तो वह बिल्कुल भी नहीं करता—जो पूरी तरह से इसलिए है, क्योंकि वह इस पर विश्वास नहीं करता कि परमेश्वर के वचनों की प्रत्येक पंक्ति सत्य है। परमेश्वर का घर सत्य पर चाहे जिस भी तरह संगति करे, मसीह-विरोधी उसे ग्रहण नहीं करते, जिसका नतीजा यह होता है कि चाहे उन्हें किसी भी स्थिति का सामना करना पड़े, उनमें सही मानसिकता का अभाव रहता है; विशेष रूप से, जब यह बात आती है कि वे परमेश्वर और सत्य को कैसे लेते हैं, तो मसीह-विरोधी हठपूर्वक अपनी धारणाएँ अलग रखने से इनकार कर देते हैं। जिस परमेश्वर में वे विश्वास करते हैं, वह वो परमेश्वर है जो चिह्न और चमत्कार दिखाता है, यानी अलौकिक परमेश्वर। जो कोई भी संकेत और चमत्कार दिखा सकता है—चाहे वह बोधिसत्व हो, बुद्ध हो या माजू हो—वे उसे परमेश्वर कहते हैं। ... मसीह-विरोधियों के विचार में, उस परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए जो वेदी के पीछे छिपा हो, लोगों द्वारा चढ़ाए गए खाद्य पदार्थ खाता हो, उनकी जलाई हुई धूप सूँघता हो, उनके मुसीबत में होने पर मदद के लिए हाथ बढ़ाता हो, जब लोग मदद माँगें और अपनी विनती में सच्चे हों तो उनकी समझ की सीमा के भीतर खुद को सर्वशक्तिमान दिखाते हुए उन्हें तत्काल सहायता प्रदान करता हो, और उनकी जरूरतें पूरी करता हो। मसीह-विरोधियों के अनुसार सिर्फ ऐसा ईश्वर ही सच्चा परमेश्वर है। इस बीच, आज परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसमें उसे मसीह-विरोधियों का तिरस्कार झेलना पड़ता है। और ऐसा क्यों है? मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार को देखते हुए, उन्हें जिस चीज की जरूरत है, वह सिंचन, चरवाही और उद्धार का वह कार्य नहीं है जो सृष्टिकर्ता परमेश्वर के प्राणियों पर करता है, बल्कि सभी चीजों में समृद्धि और सफलता, इस दुनिया में दंडित न किया जाना और मरने पर स्वर्ग जाना है। उनका दृष्टिकोण और जरूरतें सत्य के प्रति उनकी शत्रुता के सार की पुष्टि करती हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद पंद्रह : वे परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते और वे मसीह के सार को नकारते हैं (भाग एक))। परमेश्वर का हर एक वचन बिल्कुल सटीक निशाने पर बैठता है। आत्मचिंतन के बाद मुझे एहसास हुआ, कि मैं हमेशा सोचती थी कि मैंने अपनी आस्था में जो त्याग और योगदान दिए हैं, उनके लिए परमेश्वर मुझे पुरस्कृत करे और आशीष दे, उसे मेरे परिवार को आपदा और बीमारी से सुरक्षित रखना चाहिए। इसलिए जब मैंने अपने बेटे की सेहत को बेहतर होते देखा, तो मैंने उसे परमेश्वर का अनुग्रह माना, मैं उसकी बहुत आभारी थी और परमेश्वर का गुणगान करने लगी। मगर जब दोबारा उसकी हालत बिगड़ने लगी, तो मैं उसके ठीक होने के लिए परमेश्वर से चमत्कार की उम्मीद करने लगी। जब परमेश्वर ने मेरी इच्छा के अनुसार काम नहीं किया, तो मेरी सारी खुशी चिढ़ में बदल गई, मेरे सभी त्यागों और योगदानों का ध्यान नहीं रखने और मेरे बेटे की रक्षा करके उसे ठीक न करने के कारण, मैं परमेश्वर से बहुत नाराज हो गई। मुझे अपना सब कुछ देने और त्याग करने पर भी अफसोस होने लगा। मन में सिर्फ यही चल रहा था, मैंने अपनी आस्था में क्या पाया, क्या खोया। अपनी आस्था में, परमेश्वर को सृष्टि का प्रभु मानकर उसकी आराधना करने और उसके प्रति समर्पण के बजाय, मैंने उसे मांगें पूरी करने वाली और मुझे आशीष देने वाली “मूर्ति” मान लिया था। यह भला उन अविश्वासियों से अलग कहां था जो बुद्ध या गुआन यिन की आराधना करते हैं? मैं सच्ची विश्वासी नहीं रही थी! परमेश्वर दो बार देहधारण करके इस धरती पर आया, उसने भयंकर अपमान सहे, लोगों की निंदा, विरोध, विद्रोह और गलतफहमियों का सामना किया। उसने यह सब हमें अपने वचन और सत्य बताने के लिए किया ताकि हम उसके वचनों के अनुसार चलें और भ्रष्ट स्वभाव से बच सकें, और अंत में हमें बचाया जा सके। परमेश्वर ने मानवजाति को बचाने के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। इतने सालों की आस्था में मैंने परमेश्वर के अनुग्रह का बहुत आनंद उठाया, मुझे बहुत से सत्यों का सिंचन और पोषण मिला। मगर परमेश्वर के लिए मेरा मन बिल्कुल भी सच्चा नहीं था। इससे परमेश्वर को कितना दुख पहुंचा होगा और कितनी निराशा हुई होगी! मुझे परमेश्वर के ऋणों का एहसास होता गया, मैंने परमेश्वर के सामने घुटने टेक दिए, पछतावे और अपराध बोध के आँसू मेरे चेहरे पर छलक आए। मैंने पश्चात्ताप में परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा, “परमेश्वर, मैं इतने सालों से विश्वासी बनी हुई थी और फिर भी मैंने सत्य की खोज नहीं की थी। मेरे बेटे की बीमारी के दौरान मैं तुम्हारे लिए गवाही नहीं दे पाई और तुम्हें निराश किया। परमेश्वर, मैं तुम्हारे सामने पश्चात्ताप करना चाहती हूँ, और चाहे मेरे बेटे की सेहत बेहतर हो या ना हो, मैं तुम्हारे आयोजनों और शासन के प्रति समर्पित होने को तैयार हूँ। मुझे आस्था दो।” प्रार्थना के बाद लगा जैसे मेरे कंधों पर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो और मैं बहुत हल्का महसूस करने लगी।
मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा जिनसे मुझे उसकी इच्छा के बारे में कुछ और समझ हासिल हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कर्तव्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि हमारे कर्तव्य का आशीष या शाप मिलने से कोई संबंध नहीं है। सृजित प्राणी होने के नाते चाहे किसी को अपने विश्वास में आशीष मिले या नहीं, परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। यही उचित और सही है। यह वैसा ही है जैसे माता-पिता का अपने बच्चे का पालन-पोषण करना—बच्चों को उनके प्रति ईमानदार होना चाहिए। जायदाद पाने की चाह या शर्तें नहीं होनी चाहिए। यह वह न्यूनतम चीज है जो एक व्यक्ति को करनी चाहिए। अपने कर्तव्य में मेरा ध्यान परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने पर नहीं था। इसके बजाय, मैं तो परमेश्वर द्वारा दिए गए कर्तव्य का फायदा उठाकर उसके साथ सौदा करना चाहती थी। जो मैंने थोड़ा बहुत दिया था और त्याग किया था उसके लिए मैं परमेश्वर से अनुग्रह और आशीष चाहती थी। ये सब नहीं मिलने पर मैं परमेश्वर को दोषी ठहराने लगी। मैं विवेकहीन थी, मैंने वाकई परमेश्वर को निराश किया। खासकर बेटे के बीमार पड़ने पर, मेरी माँगें बढ़ती गईं, और मैं हमेशा परमेश्वर को गलत समझती और उसे दोषी ठहरा रही थी। इस सोच को लेकर मुझे खुद से नफ़रत होने लगी। मैंने सोचा, “मेरा बेटा ठीक हो या ना हो, मैं दोबारा कभी परमेश्वर को दोषी नहीं ठहराऊँगी।” इसके बाद मेरे बेटे की सेहत बिगड़ती चली गई। दिनोंदिन उसकी सेहत बिगड़ती जा रही थी। हालाँकि इससे मुझे बहुत तकलीफ हुई, मैं बहुत पीड़ा में थी, मगर अब मैं परमेश्वर से मांगें नहीं कर रही थी।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में ये पढ़ा : “परमेश्वर ने अपने सभी प्राणियों की उत्पत्ति, आगमन, जीवनकाल, अंत, तथा उनके जीवन के मिशन और मानव जाति में उनकी भूमिका की पूरी योजना पहले से ही बना रखी है। इन चीजों को कोई नहीं बदल सकता; यह सृष्टिकर्ता का अधिकार है। प्रत्येक प्राणी का आगमन, उसके जीवन का मिशन, उसका जीवनकाल कब समाप्त होगा—ये सभी नियम परमेश्वर द्वारा बहुत पहले ही निर्धारित किए गए हैं, जैसे परमेश्वर ने प्रत्येक खगोलीय पिंड की कक्षा निर्धारित की; ये खगोलीय पिंड किस कक्षा में चलेंगे, ये कितने वर्षों तक और कैसे परिक्रमा करेंगे, किन नियमों का पालन करेंगे—यह सब परमेश्वर ने बहुत पहले ही निर्धारित किया था, जो हजारों-लाखों वर्षों से अपरिवर्तित है। यह परमेश्वर द्वारा निर्धारित है, और यह उसका अधिकार है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। यह सच है। परमेश्वर सृष्टि का प्रभु है, हमारा जीवन कितना लंबा होगा, वही तय करता है। अपने जीवन काल में हम कब तक जिएंगे, कितना कष्ट भोगेंगे, और हमें कितनी आशीष मिलेंगी यह सब परमेश्वर के हाथों में है। परमेश्वर पृथ्वी पर सिर्फ अच्छे कर्मों के कारण ही किसी का जीवन नहीं बढ़ाता है, और ना ही बुरे कर्मों के कारण किसी का जीवन छोटा करता है। कोई इंसान अच्छा हो या बुरा, हर एक का जीवन काल परमेश्वर ही तय करता है। इसे कोई नहीं बदल सकता। मेरा बेटा कब तक जिंदा रहेगा, परमेश्वर यह बहुत पहले ही तय कर चुका है। परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक होते हैं मुझे बस उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। इसका एहसास होने पर मेरी पीड़ा कुछ कम हुई। मैं जानती थी कि मेरे बेटे के साथ चाहे जो भी हो, एक सृजित प्राणी होने के नाते मुझे अपना कर्तव्य निभाकर परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना ही होगा।
इस साल मार्च में, हमने अपने बेटे को अलविदा कहा। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से, मैं उसकी मौत का ठीक से सामना कर पाई और मेरी पीड़ा बहुत कम हुई। इन दो सालों में, जब से मेरा बेटा बीमार हुआ था, हालाँकि मैंने बहुत पीड़ा सही थी, इस पीड़ा और परीक्षण के उजागर होने से ही मैं अपनी आस्था के पीछे छिपी आशीष पाने की चाह की भ्रष्टता और मैलेपन और अपने नीच इरादों को देख पाई। मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में अधिक जानती हूँ और अब उससे फिजूल की मांगें नहीं करूँगी। मैं अब उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के आगे समर्पण करने में सक्षम हो गई हूँ। इस अनुभव से मैंने वास्तव में जाना कि चाहे जो हो और चाहे किसी चीज को लोग बुरा या अच्छा मानें जब तक हम परमेश्वर की आराधना करते हैं और सत्य खोजते हैं, हमें उसका फायदा मिलेगा और हम उसे प्राप्त करेंगे।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?