जागी मगर देर से

10 जून, 2022

लीं मीन, चीन

2013 में, मैंने अंत के दिनों के सर्वशक्तिमान परमेश्वर का कार्य स्वीकारा। उस समय मैं बहुत उत्साहित थी। अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ती, सभाओं में जाती और संगति करती। जल्दी ही मेरी अगुआ ने मुझे कुछ बैठक समूहों का प्रभारी बना दिया। वो मुझे सत्य का अनुसरण करने के लिए प्रोत्साहित करतीं, और मुझे सिंचन-कार्य के उपयाजक के लिए तैयार करने लगीं। उस समय, मुझे अच्छा लगा कि मेरी कद्र हो रही है, तो मैंने सत्य पर संगति करने और भाई-बहनों की समस्याएँ सुलझाने में काफी मेहनत की। मैं चाहती थी कि सब मेरी कद्र करें और कहें कि मुझमें अच्छी क्षमता है, कम समय में ही मैं सत्य पर संगति कर समस्याएँ सुलझा सकती हूँ और सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान हूँ।

फिर बहन शाओझेन का तबादला हमारी कलीसिया में हो गया। शुरू में मैं उसकी सिंचन प्रभारी थी और उससे मिलती रहती थी। कुछ समय बाद, कलीसिया में चुनाव हुए, लोगों ने देखा कि उसका अनुसरण और क्षमता अच्छी है, वो शुद्धता से सत्य ग्रहण करती है, तो उसे सिंचन उपयाजक चुन लिया गया। उस समय, मैंने देखा कि भाई-बहन उसका सम्मान और अगुआ उसकी कद्र करती हैं। तब लगा कि मुझे भुला दिया गया है। मुझे जलन और पीड़ा हुई। मैंने सोचा, "अगर शाओझेन न होती, तो अगुआ मुझे ही विकसित कर रही होती, लेकिन उसने आकर मेरी चमक छीन ली। थोड़ा और अभ्यास करके तो वो मुझसे आगे निकल जाएगी, भाई-बहन भी मुझसे ज्यादा उसका सम्मान करेंगे।" सोच-सोचकर मैं बेचैन हो रही थी, मेरी तो नींदें भी उड़ गई थीं। अगुआ शाओझेन को विकसित न करें, इसलिए मैंने कई बार अगुआ से कहा, "शाओझेन आस्था में नई है, इसलिए वह सत्य नहीं समझती और समस्याएँ नहीं सुलझा सकती। वह सिंचन-कार्य के उपयुक्त नहीं है।" अगुआ ने मेरी ईर्ष्या को पढ़ लिया और मेरे साथ इस बारे में संगति कर मेरी समस्याओं की ओर इशारा किया। उन्होंने कहा कि मुझमें रुतबे की चाहत है, ईर्ष्या है, मैं उन्हें अपने से आगे बढ़ते नहीं देख सकती, और ये सब बुरी मानवता की अभिव्यक्तियाँ हैं। मुझे पता था कि शाओझेन से ईर्ष्या करना गलत है, परमेश्वर को इससे नफरत है, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए। तब मैंने ऊपर से खुद पर लगाम लगाकर शाओझेन के बारे में बोलना बंद कर दिया, लेकिन उसके प्रति मेरी ईर्ष्या नहीं गई। जब कभी कोई काम उसे नहीं आता, तो वो मुझसे पूछ लेती थी, उसने मुझे नए विश्वासियों को सहयोग करने के लिए भी कहा। इससे मैं और चिढ़ गई। मैंने सोचा, "मैं तुम्हारा सिंचन किया करती थी, और अब पद पाकर मुझ पर ही हुक्म चला रही हो। अब मुझे तुम्हारा हुक्म मानना पड़ेगा? मैं भले ही अगुआ या कर्मी नहीं हूँ, पर तुम्हारे जितनी ही काबिल हूँ।" मैंने सोचा, "भाई-बहनों की समस्याएँ दूर करने के लिए मुझे सत्य पर अधिक संगति करनी चाहिए। इस तरह उन्हें लगेगा कि मैं शाओझेन से बेहतर हूँ। तब मुझे उनका अधिक सम्मान मिलेगा।" उसके बाद जब कभी भाई-बहनों को कोई मुश्किल आती, तो मैं संगति कर उसे दूर करने के लिए परमेश्वर के वचन खोजती। लोग कहते कि मैं अच्छी संगति कर लेती हूँ, इससे मुझे बड़ी खुशी मिलती।

एक बार, शाओझेन ने लियांग जिंग का जिक्र किया, कि वो अपनी समस्या नहीं स्वीकारती और बैठक में शाओझेन के प्रति पूर्वाग्रह और विचार साझा करती है, यह सुनकर मुझे बहुत खुशी हुई : "अच्छा है कि सब उसकी आलोचना करते हैं। ऐसे कोई भाई-बहन उसे अपने दिल में जगह नहीं देगा।" मैं तुरंत लिआंग जिंग से मिली और कहा, "मेरे मन में भी शाओझेन की छवि अच्छी नहीं है। सिंचन उपयाजक होकर सरकारी अफसर की तरह पेश आती है। वह मुझ पर भी हुक्म चलाती रहती है।" लियांग जिंग और एक अन्य बहन ने भी मेरी बात से सहमति जताई। मैंने कहा शाओझेन का अनुभव सतही है, वो बातों को नहीं समझती और कड़वा बोलती है। मेरी बात सुनकर, शाओझेन के प्रति लियांग जिंग का पूर्वाग्रह और बढ़ गया। फिर जब बैठकों में शाओझेन संगति करती, तो लियांग जिंग का मुँह बन जाता, कभी-कभी तो छोटी-छोटी बातों पर उससे लड़ने लगती, जिसके कारण शाओझेन बेबस महसूस करने लगी, कलीसिया का जीवन बाधित और अस्तव्यस्त हो गया। उस समय, मैंने लियांग जिंग से संगति कर उसे शाओझेन के साथ सही व्यवहार करने को तो कह दिया, पर मैं सच में बहुत खुश थी। लियांग जिंग हमेशा शाओझेन से बहस करती जिससे उसकी स्थिति खराब होने लगी। अगर वह नकारात्मक होकर अपना काम अच्छे से न कर पाई, तो उसे हटा दिया जाएगा, तब भाई-बहन उसके बारे में अच्छी राय नहीं रखेंगे। लेकिन शाओझेन की स्थिति में तेजी से सुधार होते देख मुझे हैरानी हुई। वह अभी भी अपने काम का भार वहन करती थी, कलीसिया के काम की रक्षा करते हुए न्याय की भावना रखती थी। कुछ महीनों बाद, शाओझेन को कलीसिया का अगुआ चुना गया। भाई-बहन हर काम के लिए उसी के पास जाते, और मेरा जी बहुत दुखता, मैं सोचती, "कुछ समस्याएँ तो मैं भी दूर कर सकती हूँ। मैं उससे बुरी तो नहीं हूँ। लेकिन अब वह अगुआ है, और अब से, सभी भाई-बहनों के मन में केवल वो होगी, मैं नहीं।" यह सोचकर, मेरे मन में ईर्ष्या और प्रतिरोध उभरने लगा। मैं बैठकों में उससे बात नहीं करना चाहती थी। जब कभी उसकी संगति स्पष्ट न होती या वो कोई काम ठीक से न कर पाती, तो मैं उसे सुधारने या दूर करने की कोशिश न करती। मैं जानबूझकर उसकी समस्याएँ निकालती, उसे बुरा दिखाने का प्रयास करती।

एक बार सभा में, भिन्न विचारों के कारण दो बहनों में बहस हो गई, जिससे कलीसियाई जीवन पर असर पड़ा। मैंने इसकी सूचना शाओझेन को दी, लेकिन वह दूसरे कामों में व्यस्त थी और समय पर संगति नहीं कर पाई, तो मैंने इस समस्या को पकड़ लिया और सबके सामने कहा कि वो व्यावहारिक काम नहीं करती, मुझे उम्मीद थी कि भाई-बहन अब उसका सम्मान नहीं करेंगे। यह सुनकर कुछ लोगों ने उस पर समस्या दूर न करने का आरोप लगाया, इससे शाओझेन थोड़ी नकारात्मक और शर्मिंदा हो गई। फिर, सभाओं में, शाओझेन मौजूद होती तो मैं उसके साथ होड़ करती। अगर किसी को कोई समस्या होती, तो उसकी छवि बिगाड़ने और अपमानित करने के लिए, मैं तुरंत उस समस्या से जुड़े परमेश्वर के वचन खोजती और पहले सहभागिता करती। मैं डरती थी कि शाओझेन पहले पहुंची तो मैं दिखावा नहीं कर पाऊँगी। मुझे समस्या दूर करते देख, शाओझेन फिर संगति न करती। चूँकि मैं अक्सर दिखावा करती, तो हर कोई मेरी प्रशंसा करता। समूह के अगुआओं की बैठकों में, सभी भाई-बहनों का ध्यान मुझ पर रहता। उन्हें उम्मीद रहती कि मैं संगति कर उनकी हर कठिनाई दूर कर दूँगी। एक समूह अगुआ ने मुझे चेताया कि मैं पद-प्रतिष्ठा के पीछे भागकर मसीह विरोधी मार्ग पर चल रही हूँ, लेकिन मैंने उसकी बात को गंभीरता से नहीं लिया। धीरे-धीरे शओझेन इतनी बेबस हो गई, कि बैठकों में संगति करना कम कर दिया, और नकारात्मक स्थिति में पहुँच गई। उसने कहा बेहतर होगा कि उसका काम मैं ही संभाल लूँ। कई बार उसने इस्तीफे की पेशकश भी की। आखिरकार, खराब स्थिति में होने और काम ठीक से न कर पाने के कारण उसे बर्खास्त कर दिया गया। जब मुझे पता चला तो मैं बहुत खुश हुई। मैंने सोचा, "चलो शाओझेन बर्खास्त हो ही गई। अब वह मुझसे बेहतर नहीं दिखेगी, अब भाई-बहन भी मुझे उससे खराब नहीं मानेंगे।"

जल्दी ही अगुआ को मेरे व्यवहार के बारे में पता चल गया और वो मेरे साथ संगति के लिए आईं। उन्होंने मुझे कलीसिया में सकारात्मक भूमिका न निभाने, रुतबे के लिए शाओझेन से होड़ करने, उसे नीचा दिखाने, आलोचना करने और दरकिनार करने के लिए उजागर किया, जिस कारण वह नकारात्मक और बेबस हो गई, अपना काम नहीं कर पाई, आखिरकार उसने इस्तीफा दे दिया। यह उस पर आक्रमण करना था जिससे कलीसिया का काम बाधित हुआ। अगुआ ने यह भी कहा कि भाई-बहनों की समस्याएँ दूर करने के कारण यूँ तो मैं जिम्मेदार दिखती हूँ, मगर यह दिखावा करके लोगों को अपने सामने लाना है। अंतत: अगुआ ने मुझे बर्खास्त कर ग्रुप बी में भेज दिया और आत्मचिंतन करने को कहा। ऊपर से तो मैंने सब मान लिया, पर मन में यही लगा कि मेरे साथ अन्याय हुआ है। मुझे लगा अगुआ मुझे दंडित करने के लिए मेरी भ्रष्टता को मुद्दा बना रही हैं। मैंने बैठकों में यह कहकर अपना असंतोष व्यक्त किया, कि अगुआ ने सिद्धांतों का पालन नहीं किया, मनमाने ढंग से दंडित किया, वगैरह, जिससे सब मेरा पक्ष लेने लगे और अगुआ की आलोचना की। चूँकि मैंने रुतबे के लिए होड़ की, गुट बनाकर कलीसिया के काम को बुरी तरह बाधित किया, कई बार अगुआओं, कर्मियों और भाई-बहनों द्वारा उजागर होने और निपटे जाने पर भी मैंने न तो आत्मचिंतन किया और न ही प्रायश्चित किया, इसलिए आखिरकार मुझे कलीसिया से निकाल दिया गया।

इस व्यवस्था के बारे में सुनकर मैं दंग रह गई। मुझे बेहद दुख हुआ और मैं खूब रोई। मैंने सोचा, "मेरे लिए सबकुछ खत्म हो गया। अब मैं कलीसियाई जीवन जीते हुए अपना कर्तव्य नहीं निभा पाऊँगी, न ही बचाई जाऊँगी।" लगा कि मुझे परमेश्वर के घर से बाहर किया गया है, तभी मुझे बेनकाब कर हटाया गया है। प्रार्थना में मैं परमेश्वर की उपस्थिति महसूस नहीं कर पाती थी, और बेजान-सी हो गई थी। भाई-बहनों ने मुझे उजागर किया था, इसलिए मैं बेहद दुखी और निराश थी, मेरी अपनी शिकायतें और विरोध थे। मैंने सोचा, "क्या मैंने सचमुच इतनी दुष्टता की है? क्या बात इतनी गंभीर है? मैंने कौन-सा दिखावा किया? क्या मेरी सारी संगति परमेश्वर के वचनों पर आधारित नहीं थी? फिर, परमेश्वर में मेरे विश्वास को अभी चार साल ही तो हुए हैं, मैं अभी भी सत्य नहीं समझती, अगर मैंने थोड़ी-बहुत भ्रष्टता दिखाई और कुछ बुरे काम किए, तो मुझे माफ करना चाहिए था, निकालना सही नहीं था, है न? क्या मेरे साथ कठोर व्यवहार नहीं हुआ था?" सोच-सोचकर मेरी नकारात्मकता बढ़ती गई। अपने विश्वास में मुझे कोई आशा नजर नहीं आई, लगा अब मेरा न कोई अंत है, न गंतव्य। मैं रोए जा रही थी। मैं कई दिनों तक न खा सकी और न सो सकी, और दर्द से सिर फटा जा रहा था। मैं बेहद दुखी और मायूस थी। मैंने सोचा, "जीवन दुखों से भरा है, मर जाऊँ तो ही अच्छा रहेगा।"

कुछ दिनों बाद एक बहन मुझसे मिलने आई। मेरे पीले चेहरे और कमजोर आवाज से, उसे लगा कि मैं अभी भी नकारात्मक स्थिति में हूँ, तो उसने मेरे साथ संगति की। उसने कहा, "जब ऐसा माहौल होता है, तो परमेश्वर चाहता है कि हम आत्मचिंतन करें, अपनी बुराई का मूल जानें प्रायश्चित करें और बदलें। लेकिन अगर हम परमेश्वर की इच्छा समझकर आत्मचिंतन न करें, अपने परिणामों पर ही विचार करते रहें, निष्क्रिय होकर विरोध करें, ऐसे ही बने रहें, तो परमेश्वर हमसे घृणा करेगा और हमें हटा देगा।" उसने यह भी कहा, "नीनवे के लोगों के बुरे कामों ने परमेश्वर को ठेस पहुँचाई, लेकिन जब उन्होंने अपने पाप स्वीकार कर परमेश्वर के सामने पश्चात्ताप किया, तो उसने अपना क्रोध वापस ले लिया और उन पर दया की।" बहन की संगति सुनकर मुझे थोड़ी राहत मिली।

फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों की पुस्तक खोली और यह अंश पढ़ा। "परमेश्वर नीनवे के लोगों से चाहे जितना भी क्रोधित रहा हो, लेकिन जैसे ही उन्होंने उपवास की घोषणा की और टाट ओढ़कर राख पर बैठ गए, वैसे ही उसका हृदय नरम होने लगा, और उसने अपना मन बदलना शुरू कर दिया। जब उसने घोषणा की कि वह उनके नगर को नष्ट कर देगा—उनके द्वारा अपने पाप स्वीकार करने और पश्चात्ताप करने से पहले के क्षण तक भी—परमेश्वर उनसे क्रोधित था। लेकिन जब वो लोग लगातार पश्चात्ताप के कार्य करते रहे, तो नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर का कोप धीरे-धीरे उनके प्रति दया और सहनशीलता में बदल गया। ... परमेश्वर ने लोगों को निम्नलिखित बातें बताने के लिए अपने रवैये का उपयोग किया : ऐसा नहीं है कि परमेश्वर लोगों को बरदाश्त नहीं करता, या वह उन पर दया नहीं दिखाना चाहता; बल्कि वे कभी परमेश्वर के सामने सच्चा पश्चात्ताप नहीं करते, और उनका सच में अपने कुमार्ग को छोड़ना और हिंसा त्यागना एक दुर्लभ बात है। दूसरे शब्दों में, जब परमेश्वर मनुष्य से क्रोधित होता है, तो वह आशा करता है कि मनुष्य सच में पश्चात्ताप करेगा, दरअसल वह मनुष्य का सच्चा पश्चात्ताप देखना चाहता है, और उस दशा में वह मनुष्य पर उदारता से अपनी दया और सहनशीलता बरसाता रहेगा। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य का बुरा आचरण परमेश्वर के कोप को जन्म देता है, जबकि परमेश्वर की दया और सहनशीलता उन लोगों पर बरसती है, जो परमेश्वर की बात सुनते हैं और उसके सम्मुख वास्तव में पश्चात्ताप करते हैं, जो कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं। नीनवे के लोगों के प्रति परमेश्वर के व्यवहार में उसका रवैया बहुत साफ तौर पर प्रकट हुआ था : परमेश्वर की दया और सहनशीलता प्राप्त करना बिलकुल भी कठिन नहीं है; और वह इंसान से सच्चा पश्चात्ताप चाहता है। यदि लोग कुमार्ग छोड़कर हिंसा त्याग देते हैं, तो परमेश्वर उनके प्रति अपना हृदय और रवैया बदल लेता है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है II)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं बहुत प्रेरित हुई। नीनवे के लोगों ने बहुत अधिक बुराई करके परमेश्वर को ठेस पहुँचाई थी, परमेश्वर ने उन्हें नष्ट करने के लिए आपदाएँ भेजने का तय किया था। लेकिन जब उन्होंने योना की घोषणा सुनी, तो उन्होंने ईमानदारी से अपने पाप स्वीकारे, प्रायश्चित किया, हिंसा रोकी और दुष्टता करना बंद कर दिया, तब परमेश्वर ने अपना मन बदलकर उनके प्रति सहनशीलता और दया दिखाई। परमेश्वर के वचनों से मुझे उम्मीद बँधी। मेरे कर्मों ने कलीसिया के कार्य को बाधित किया था जिससे परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँची और मुझे कलीसिया से निकाल दिया गया। यह मुझ पर परमेश्वर का कोप था और उसकी धार्मिक ताड़ना भी। लेकिन परमेश्वर मुझे हटाना नहीं चाह रहा था, वह चाहता था कि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचानकर पश्चात्ताप करूं। लेकिन मैंने क्या किया? मैंने न तो आत्मचिंतन किया, न ही उसके सामने पाप स्वीकार कर पश्चात्ताप किया। मैं नकारात्मक और विरोधी ही बनी रही, बल्कि मरने तक परमेश्वर से लड़ना चाहती थी। नहीं जानती थी कि मेरा भला किसमें है। मैं एकदम विवेकशून्य थी! हालाँकि मुझे कलीसिया ने हटा दिया था, मगर परमेश्वर का उद्धार कार्य अभी बाकी था, तो मैं खुद से हार नहीं मान सकती थी। मुझे आत्मचिंतन करना था, अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने के लिए सत्य खोजकर परमेश्वर के आगे पश्चात्ताप करना था।

फिर, मैंने प्रार्थना की और आत्मचिंतन करने के लिए वचन पढ़े। एक बार, मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश देखे, "कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जाकर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें सुनते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उनके चारों ओर घूमते हैं। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के मन में उनकी एक हैसियत हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें: उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिमाग में एक हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। "उदाहरण के लिए, यदि तुम्हारा स्वभाव अहंकारी और दंभी है, तो तुम्हें परमेश्वर का विरोध न करने को कहने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा, तुम खुद को रोक नहीं सकते, यह तुम्हारे नियंत्रण के बाहर है। तुम ऐसा जानबूझकर नहीं करोगे; तुम ऐसा अपनी अहंकारी और दंभी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन करोगे। तुम्हारे अहंकार और दंभ के कारण तुम परमेश्वर को तुच्छ समझोगे और उसे ऐसे देखोगे जैसे कि उसका कोई महत्व ही न हो, वे तुमसे स्वयं की प्रशंसा करवाने की वजह होंगे, निरंतर तुमको दिखावे में रखवाएंगे; वे तुम्हें दूसरों का तिरस्कार करने के लिए मजबूर करेंगे, वे तुम्हारे दिल में तुम्हें छोड़कर और किसी को नहीं रहने देंगे; वे तुम्हें खुद को अन्य लोगों और परमेश्वर से श्रेष्ठ समझने के लिए मजबूर करेंगे, और अंतत: तुम्हें परमेश्वर के स्थान पर बैठने और यह माँग करने के लिए मजबूर करेंगे और चाहेंगे कि लोग तुम्हें समर्पित हों, तुम्हारे विचारों, ख्यालों और धारणाओं को सत्य मानकर पूजें। देखो लोग अपनी उद्दंडता और अहंकारी प्रकृति के प्रभुत्व के अधीन कितनी बुराई करते हैं!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है')। इन वचनों ने मेरी अभिव्यक्तियाँ प्रकट कर दीं। मेरा स्वभाव अहंकारी और दंभी था। मुझे संगति में दिखावा करना और लोगों को अपने इर्दगिर्द देखना अच्छा लगता था, मैं लोगों के दिलों में बसना चाहती थी, सम्मान और प्रशंसा पाना चाहती थी। मैं शैतान की तरह राक्षसी प्रकृति को जी रही थी। पहले तो, अगुआ ने मुझे विकसित करने पर ध्यान दिया जो मुझे अच्छा लगा। लेकिन फिर अगुआ शाओझेन को महत्व देकर विकसित करने लगी। इससे मुझे खतरे का आभास हुआ और लगा कि कहीं वह मेरी जगह न ले ले, मुझे उससे ईर्ष्या हुई और मैं हर चीज में उससे होड़ करने लगी, ताकि मैं उसे दबा सकूँ। समूह के अगुआओं की बैठकों में, मैं हमेशा शाओझेन से पहले संगति करने की कोशिश करती, इस डर से कि मेरी जगह कहीं वो न छा जाए। भाई-बहनों से अपना सम्मान करवाने के लिए, उनकी समस्याओं या स्थितियों के समाधान के लिए मैं संगति में परमेश्वर के वचनों का उपयोग करती और यह दिखाती कि मैं सत्य समझती और उनके जीवन प्रवेश बोझ वहन करती हूँ। मैं हर बात में दिखावा करती, इससे धोखा खाकर भाई-बहन मेरा सम्मान और मेरी प्रशंसा करते, अपनी कठिनाइयों और खराब हालात में मेरे पास आते। क्या मैं लोगों को अपने सामने नहीं ला रही थी? मैं इतनी अभिमानी हो गई थी कि न तो किसी का सम्मान करती थी, न ही परमेश्वर मेरे दिल में था। मैं रुतबे के लिए किसी व्यक्ति के साथ होड़ नहीं कर रही थी, बल्कि लोगों के लिए परमेश्वर से होड़ कर रही थी, जिससे उसके स्वभाव को ठेस पहुंची।

उसके बाद, मैंने फिर से परमेश्वर के वचन पढ़े। "मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ, वे खुद को ऊपर के पदों पर रखने और चीजों को अपने हाथ में लेने की कोशिश करेंगे। वे एक सामान्य अनुयायी के रूप में कभी भी चैन से नहीं बैठ सकते। और वे किस धुन में रहते हैं? लोगों के सामने खड़े होकर उन्हें आदेश देने, उन्हें दरकिनार करने, और लोगों से अपनी बात मनवाने की धुन में। वे इस बारे में सोचते तक नहीं कि अपना कर्तव्य ठीक तरह कैसे निभाएँ—इसे निभाते हुए सत्य का अभ्यास करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए सत्य के सिद्धांतों को खोजना तो दूर की बात है। इसके बजाय, वे विशिष्ट दिखने के तरीके खोजने के लिए दिमाग के घोड़े दौड़ाते हैं, ताकि अगुआ उनके बारे में अच्छा सोचें और उन्हें आगे बढ़ाएँ, ताकि वे खुद अगुआ या कार्यकर्ता बन सकें, और दूसरे लोगों की अगुआई कर सकें। वे सारा दिन यही सोचते और इसी की उम्मीद करते रहते हैं। मसीह-विरोधी नहीं चाहते कि दूसरे उनकी अगुआई करें, न ही वे सामान्य अनुयायी बनना चाहते हैं, चुपचाप और बिना किसी तमाशे के अपने कर्तव्य निभाते रहना तो दूर की बात है। उनके कर्तव्य जो भी हों, यदि वे महत्त्वपूर्ण स्थिति में नहीं हो सकते, यदि वे दूसरों से ऊपर नहीं हो सकते, और अगुआ नहीं हो सकते, तो उन्हें अपने कर्तव्य पूरे करने का कोई उद्देश्य नजर नहीं आता, और वे नकारात्मक हो जाते हैं और ढीले पड़ जाते हैं। दूसरों की प्रशंसा और सराहना के बिना उनके लिए अपना काम और भी कम दिलचस्प हो जाता है, और उनमें अपने कर्तव्य निभाने की इच्छा और भी कम हो जाती है। लेकिन अगर अपने कर्तव्य निभाते हुए वे महत्त्वपूर्ण स्थिति में महसूस कर रहे हों और अपनी बात मनवा सकते हों, तो वे अपनी स्थिति को मजबूत महसूस करते हैं और कैसी भी कठिनाइयाँ झेल सकते हैं। अपने दिलों में, वे दूसरों से बहुत बेहतर होने, दूसरों से बढ़कर होने की अपनी जरूरत को पूरा करने और अपनी इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने को ही अपना कर्तव्य समझते है। अपने कर्तव्य निभाते हुए, हद से ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक होने—हर मामले में होड़ करने, विशिष्ट दिखने, सबसे आगे रहने, दूसरों से ऊपर उठने—के साथ-साथ वे यह भी सोचते रहते हैं कि अपने रुतबे, नाम और प्रतिष्ठा को और मजबूत कैसे करें। अगर कोई ऐसा व्यक्ति है जो उनके रुतबे और नाम के लिए खतरा है, तो वे उसे नीचे गिराने और दरकिनार करने के लिए कुछ भी करने से नहीं कतराते, एक इंच भी इधर-उधर नहीं खिसकते। वे सत्य की खोज करने वाले और अपना कर्तव्य निष्ठा और दायित्व भावना से निभाने वाले लोगों पर प्रहार करने के लिए घृणित साधनों का इस्तेमाल करते हैं। वे उन भाई-बहनों के प्रति भी ईर्ष्या और घृणा से भरे होते हैं जो अपना कर्तव्य बहुत श्रेष्ठ ढंग से निभाते हैं। ऐसे लोगों से तो वे खासतौर से घृणा करते हैं जिनका दूसरे भाई-बहन अनुमोदन और समर्थन करते हैं; वे ऐसे लोगों को अपने प्रयासों, अपने रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए गंभीर खतरा मानते हैं, और वे दिल-ही-दिल में कसमें खाते हैं कि 'या तो तुम रहोगे या मैं, मैं रहूँगा या तुम, हम दोनों के लिए यहाँ जगह नहीं है, अगर मैंने तुम्हें नीचे नहीं गिराया और तुम्हारा सफाया नहीं किया तो मुझे चैन नहीं पड़ेगा!' जिन भाई-बहनों की उनसे अलग राय होती है, जो उनकी कुछ कमजोरियों को उजागर कर देते हैं, या उनके रुतबे के लिए खतरा बन जाते हैं, उनके प्रति वे पूरी तरह निर्मम हो जाते हैं : वे उन्हें किसी चक्कर में फँसाने, उन पर कलंक लगाने और उन्हें कमजोर करने की सोचते रहते हैं, और जब तक वे ऐसा नहीं कर देते उन्हें चैन नहीं पड़ता" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग सात)')। "मसीह-विरोधी चाहे किसी भी तरह से लोगों को धोखा दें और फँसाने की कोशिश करें, एक बात निश्चित है : अपने सामर्थ्य और हैसियत के लिए वे अपना दिमाग दौड़ाएँगे और अपने लक्ष्य प्राप्त करने के लिए अपने पास उपलब्ध हर साधन का उपयोग करेंगे। कुछ और भी निश्चित है : चाहे वे कुछ भी कर रहे हों, वे अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे होते, उनका काम अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के लिए तो बिल्कुल भी नहीं होता, बल्कि कलीसिया के भीतर सत्ता पाने का अपना लक्ष्य हासिल करने के लिए होता है। इतना ही नहीं, वे चाहे कुछ भी कर रहे हों, वे परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान कभी नहीं रखते, परमेश्वर के चुने हुए लोगों के हितों पर ध्यान तो वे बिल्कुल भी नहीं देते। तुम इनमें से कोई भी चीज मसीह-विरोधी के शब्दकोश में कभी नहीं पाओगे; दोनों जन्म से ही उनमें अनुपस्थित रहती हैं। चाहे वे किसी भी स्तर के अगुआ हों, वे परमेश्वर के घर और चुने हुए लोगों के हितों के प्रति पूरी तरह से उदासीन रहते हैं। उनके विचार से परमेश्वर के घर के हितों और कार्यों का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। वे दोनों का तिरस्कार करते हैं; वे केवल अपनी हैसियत और हितों पर विचार करते हैं। इससे हम देख सकते हैं कि मसीह-विरोधियों की प्रकृति और सार न सिर्फ दुष्टतापूर्ण हैं, बल्कि हद से ज्यादा स्वार्थी और घृणित भी हैं। वे सिर्फ अपने नाम, धन और पद के लिए काम करते हैं, उन्हें यह परवाह नहीं होती कि दूसरे जीएं या मरें, और जो उनके रुतबे के लिए चुनौती प्रतीत होते हैं, उन्हें दबाने, दरकिनार करने और उन पर बर्बर प्रहार करने में अनैतिक साधनों का इस्तेमाल करते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे लोगों को भ्रमित करने, फुसलाने, धमकाने और नियंत्रित करने का काम करते हैं')। परमेश्वर के वचन मेरे दिल में उतर गए। मेरी जिस अभिव्यक्ति और स्वभाव को परमेश्वर ने प्रकट किया, वो मसीह-विरोधी जैसे थे। जो स्वार्थी, नीच होते हैं और अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के बारे में ही सोचते हैं। उन्हें लोगों की भावनाओं या परमेश्वर के परिवार के कार्य की रक्षा का ख्याल नहीं होते। जो भी रुतबे के लिए खतरा हो, उससे वे ईर्ष्या और घृणा करते हैं, यहाँ तक कि बेईमानी से हमला करके ऐसे लोगों को बाहर कर देते हैं, और उनके नकारात्मक होकर हार मान लेने तक संतुष्ट नहीं होते। मुझे एहसास हुआ कि मैं भी तो वही हूँ। जब शाओझेन को सिंचन उपयाजक चुना गया, अगुआ और भाई-बहन उसकी प्रशंसा करने लगे, तो शाओझेन मुझे खटकने लगी और मैंने हमेशा उसे नीचे गिराना चाहा। मैं अगुआ के सामने लगातार उसकी कमियाँ उजागर करने लगी, बेसब्री से उम्मीद करने लगी कि अगुआ उसे हटा देंगी, ताकि भाई-बहन मुझ पर ध्यान देने लगें। बतौर सिंचन उपयाजक, शाओझेन को मेरे लिए काम की व्यवस्था करने का अधिकार था, लेकिन मैं इस बात को हजम नहीं कर पा रही थी। मैं हमेशा उसे नखरे दिखाती और काम में कोई सहयोग नहीं करती, जिससे वह अपने काम में विवश महसूस करती। उसने अगुआई करना शुरू ही किया था, तो किसी काम में गड़बड़ी होना सामान्य-सी बात थी। लेकिन भाई-बहनों को उसे नकारने और उसकी बात न मानने को उकसाने के लिए, मैं उसके काम में मीन-मेख निकालती, गलतियाँ और लापरवाही पकड़ती, उसकी कमियाँ उजागर करती, नीचा दिखाती और सबके सामने उसकी आलोचना करती, उसकी पीठ पीछे कलह पैदा करती, जिससे कुछ लोग उसके प्रति पूर्वाग्रह रखने लगे, उसके काम में असहयोग करउसे अलग-थलग कर दिया। इससे कलीसिया का जीवन तो बाधित हुआ ही, वो शर्मिंदा भी हुई और नकारात्मक बन गई, अंत में उसने इस्तीफा देना चाहा। शाओझेन ने नकारात्मकता और उत्पीड़ित महसूस किया, पर मैं खुद को तो क्या दोष देती, उल्टे उसके दुर्भाग्य पर खुश थी लगा कि उसकी बर्खास्तगी के बाद, मेरी अहमियत बढ़ेगी। मैं बेहद शातिर और नीच थी! हालाँकि शाओझेन की आस्था नई थी, उसमें कुछ कमियाँ और दोष थे, लेकिन उसमें अच्छी क्षमता और न्याय की भावना थी, वह ईमानदार थी। लोगों की समस्याएँ और भटकाव देख, उनका मार्गदर्शन, मदद और कलीसिया के हितों की रक्षा करती थी। उसका अगुआ होना परमेश्वर के घर के काम और भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के लिए हितकारी था, मुझे उसका समर्थन और सहयोग करना चाहिए था। लेकिन अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए, परमेश्वर के घर के बारे में सोचे बिना, मैं अनैतिक ढंग से उससे लड़ी और ईर्ष्यावश उसका दमन किया। लगातार अपनी हरकतों से उसे काम करने लायक नहीं छोड़ा। मैंने जो किया, उससे शाओझेन को तो पीड़ा और हानि हुई ही, कलीसिया का काम भी बाधित और अस्तव्यस्त हुआ। मेरी इंसानियत और स्वभाव बहुत बुरे थे। रुतबा पाने के लिए मैं लोगों को दंड देने को तैयार थी। जब बड़े लाल अजगर के रुतबे को किसी व्यक्ति या ताकत से खतरा होता है, तो वह अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए, हराने और आलोचना करने के लिए हर हथकंडा आजमाता है, यहाँ तक कि लोगों का कत्ल भी करता है। मैंने देखा कि मेरी प्रकृति भी बड़े लाल अजगर जितनी ही शातिर और दुष्ट थी! इसका एहसास होने पर, मुझे पछतावा हुआ और खुद से घृणा हुई। परमेश्वर ने मुझे काम करने का मौका दिया ताकि मैं सत्य का अनुसरण कर अपनी भ्रष्टता से मुक्त हो सकूँ, भाई-बहनों से सहयोग करूँ, उनकी खूबियों से सीखकर कलीसिया के काम की रक्षा करूँ। लेकिन, मैंने इसकी परवाह नहीं की और बुरे काम करती रही जिससे परमेश्वर के घर का काम बाधित हुआ। मुझमें न विवेक था, न मानवता, मैं तो इंसान कहलाने लायक भी नहीं थी। मेरी मदद करने के लिए भाई-बहनों ने कई बार मुझे चेताया, लेकिन प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे पागल होकर इसे गंभीरता से नहीं लिया, विरोध किया, पश्चात्ताप करना नहीं चाहा। बर्खास्तगी के बाद, मैंने आत्मचिंतन नहीं किया, अपनी परेशानियों का रोना रोती रही, अगुआ के प्रति असंतोष को जगजाहिर किया, भाई-बहनों को अगुआ की आलोचना करने के लिए उकसाया और कलीसिया के जीवन को अस्त-व्यस्त करती रही। मैं बंद रास्ते पर चलने के लिए अड़ी रही, कलीसिया से निकाले जाने के बाद ही मैंने आत्मचिंतन करना और खुद को जानना शुरू किया। मेरा स्वभाव अड़ियल था और मुझे सत्य से घृणा थी। कई बार निपटे जाने और अनुशासित किए जाने के बावजूद, मैंने पश्चात्ताप नहीं किया, मैं अभी भी हठपूर्वक परमेश्वर की शत्रु बनी रही, और सत्य का अनुसरण करने वाले एक नेक इंसान को गिराने और हराने के लिए घिनौने तरीके अपनाए, परमेश्वर के कार्य-स्थल में रुकावट पैदा की, झगड़ा किया और उसके घर के कार्य को बाधित किया, परमेश्वर ने मुझे सत्य प्राप्त करने और बचाए जाने का जो अवसर दिया था, उसे बर्बाद कर दिया। मेरा कलीसिया से निकाला जाना परमेश्वर की धार्मिकता थी। यह मेरी ही गलती थी। मेरे साथ कोई अन्याय नहीं हुआ था।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के दो अंश पढ़े। "मैंने तुम लोगों के बीच बहुत सारा कार्य किया है और बहुत सारे वचन बोले हैं—इनमें से कितने सच में तुम लोगों के कानों में गए हैं? इनमें से कितनों का तुमने कभी पालन किया है? जब मेरा कार्य समाप्त होगा, तो यह वो समय होगा जब तुम मेरा विरोध करना बंद कर दोगे, तुम मेरे खिलाफ खड़ा होना बंद कर दोगे। जब मैं काम करता हूँ, तो तुम लोग लगातार मेरे खिलाफ काम करते रहते हो; तुम लोग कभी मेरे वचनों का अनुपालन नहीं करते। मैं अपना कार्य करता हूँ, और तुम अपना 'काम' करते हो, और अपना छोटा-सा राज्य बनाते हो। तुम लोग लोमड़ियों और कुत्तों से कम नहीं हो, सब-कुछ मेरे विरोध में कर रहे हो! ... तुम लोगों की छवि परमेश्वर से भी बड़ी है, तुम लोगों का रुतबा परमेश्वर से भी ऊँचा है, लोगों में तुम्हारी प्रतिष्ठा का तो कहना ही क्या—तुम लोग ऐसे आदर्श बन गए हो जिन्हें लोग पूजते हैं। क्या तुम प्रधान स्वर्गदूत नहीं बन गए हो? जब लोगों के परिणाम उजागर होते हैं, जो वो समय भी है जब उद्धार का कार्य समाप्ति के करीब होने लगेगा, तो तुम लोगों में से बहुत-से ऐसी लाश होंगे जो उद्धार से परे होंगे और जिन्हें हटा दिया जाना होगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अभ्यास (7))। "मैं उन सबको अपनी सजा का भागी बनाऊँगा जिन्होंने मेरे क्रोध को भड़काया, मैं उन सभी जानवरों पर अपना संपूर्ण कोप बरसाऊँगा जिन्होंने कभी मेरे समकक्षों के रूप में मेरी बगल में खड़े होने की कामना की थी लेकिन मेरी आराधना या मेरा आज्ञापालन नहीं किया, अपनी जिस छड़ी से मैं मनुष्य को मारता हूँ, वह उन जानवरों पर पड़ेगी जिन्होंने कभी मेरी देखभाल और मेरे द्वारा बोले गए रहस्यों का आनंद लिया था, और जिन्होंने कभी मुझसे भौतिक आनंद लेने की कोशिश की थी। मैं ऐसे किसी व्यक्ति को क्षमा नहीं करूँगा, जो मेरा स्थान लेने की कोशिश करता है; मैं उनमें से किसी को भी नहीं छोड़ूँगा, जो मुझसे खाना और कपड़े हथियाने की कोशिश करते हैं। फिलहाल तुम लोग नुकसान से बचे हुए हो और मुझसे की जाने वाली माँगों में हद से आगे बढ़ते जाते हो। जब कोप का दिन आ जाएगा, तो तुम लोग मुझसे और कोई माँग नहीं करोगे; उस समय मैं तुम लोगों को जी भरकर 'आनंद' लेने दूँगा, मैं तुम लोगों के चेहरों को मिट्टी में धँसा दूँगा, और तुम लोग दोबारा कभी उठ नहीं पाओगे!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। परमेश्वर के प्रतापी और कोप से भरे वचनों ने मेरे हृदय को झकझोर दिया। मैंने उसके क्रोध को महसूस किया और देखा कि उसका स्वभाव धार्मिकता है और इसे ठेस नहीं पहुँचाई जा सकती। परमेश्वर पद के लिए लड़ने वालों से घृणा करता है। वो ऐसे लोगों को धिक्कारता और दंड देता है और कोई उससे बच नहीं सकता। रुतबा पाने के लिए, मैंने प्रसिद्धि और धन के लिए लोगों से होड़ की, सत्य का अनुसरण करने वालों पर हमला किया, हर जगह दिखावा किया, लोगों को अपने सामने लाई। मैं पद और लोगों के लिए परमेश्वर से होड़ कर रही थी, इससे उसके स्वभाव को बहुत ठेस पहुँची। मुझे लगा कि मैंने बड़ी दुष्टता और अक्षम्य पाप किया है। मानो मैंने नर्क के द्वार खोल दिए हों। मैं इतना डर गई थी कि सांस लेना भी मुश्किल हो रहा था। पता नहीं अब मुझे परमेश्वर की दया मिलेगी भी या नहीं। शायद परमेश्वर मुझे माफ न करे। क्या वह मुझे किसी भी समय मार डालेगा और नष्ट कर देगा? दर्द में, मैंने बार-बार परमेश्वर से प्रार्थना की, अपने पाप स्वीकारे और पश्चात्ताप किया। मैंने कहा, "परमेश्वर, मैंने बुराई की है, तेरा विरोध किया है, तेरे स्वभाव को ठेस पहुँचाई है। मैं हर दिन दहशत में रहती हूँ कि कहीं मुझे सजा और शाप न झेलना पड़े। परमेश्वर, मैं पश्चात्ताप करना चाहती हूँ। मेरी रक्षा कर।" प्रार्थना के बाद मन थोड़ा शांत हुआ।

आध्यात्मिक भक्ति में मैंने परमेश्वर के ये वचन देखे, "आज परमेश्वर तुम लोगों का न्याय करता है, तुम लोगों को ताड़ना देता है, और तुम्हारी निंदा करता है, लेकिन तुम्हें यह अवश्य जानना चाहिए कि तुम्हारी निंदा इसलिए की जाती है, ताकि तुम स्वयं को जान सको। वह इसलिए निंदा करता है, शाप देता है, न्याय करता और ताड़ना देता है, ताकि तुम स्वयं को जान सको, ताकि तुम्हारे स्वभाव में परिवर्तन हो सके, और, इसके अलावा, तुम अपनी कीमत जान सको, और यह देख सको कि परमेश्वर के सभी कार्य धार्मिक और उसके स्वभाव और उसके कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार हैं, और वह मनुष्य के उद्धार के लिए अपनी योजना के अनुसार कार्य करता है, और कि वह धार्मिक परमेश्वर है, जो मनुष्य को प्यार करता है, उसे बचाता है, उसका न्याय करता है और उसे ताड़ना देता है। यदि तुम केवल यह जानते हो कि तुम निम्न हैसियत के हो, कि तुम भ्रष्ट और अवज्ञाकारी हो, परंतु यह नहीं जानते कि परमेश्वर आज तुममें जो न्याय और ताड़ना का कार्य कर रहा है, उसके माध्यम से वह अपने उद्धार के कार्य को स्पष्ट करना चाहता है, तो तुम्हारे पास अनुभव प्राप्त करने का कोई मार्ग नहीं है, और तुम आगे जारी रखने में सक्षम तो बिल्कुल भी नहीं हो। परमेश्वर मारने या नष्ट करने के लिए नहीं, बल्कि न्याय करने, शाप देने, ताड़ना देने और बचाने के लिए आया है। उसकी 6,000-वर्षीय प्रबंधन योजना के समापन से पहले—इससे पहले कि वह मनुष्य की प्रत्येक श्रेणी का परिणाम स्पष्ट करे—पृथ्वी पर परमेश्वर का कार्य उद्धार के लिए होगा; इसका प्रयोजन विशुद्ध रूप से उन लोगों को पूर्ण बनाना—पूरी तरह से—और उन्हें अपने प्रभुत्व की अधीनता में लाना है, जो उससे प्रेम करते हैं। ... इसके बारे में सोचो : यदि आगमन के पीछे मेरा इरादा तुम लोगों को बचाने के बजाय तुम्हारी निंदा करना और सज़ा देना होता, तो क्या तुम लोगों का जीवन इतने लंबे समय तक चल सकता था? क्या तुम, मांस और रक्त के पापी प्राणी आज तक जीवित रहते? यदि मेरा उद्देश्य केवल तुम लोगों को दंड देना होता, तो मैं देह क्यों बनता और इतने महान उद्यम की शुरुआत क्यों करता? क्या तुम पूर्णत: नश्वर प्राणियों को दंडित करने का काम एक वचन भर कहने से ही न हो जाता? क्या तुम लोगों की जानबूझकर निंदा करने के बाद अभी भी मुझे तुम लोगों को नष्ट करने की आवश्यकता होगी? क्या तुम लोगों को अभी भी मेरे इन वचनों पर विश्वास नहीं है? क्या मैं केवल प्यार और करुणा के माध्यम से मनुष्य को बचा सकता हूँ? या क्या मैं मनुष्यों को बचाने के लिए केवल सूली पर चढ़ने के तरीके का ही उपयोग कर सकता हूँ? क्या मेरा धार्मिक स्वभाव मनुष्य को पूरी तरह से आज्ञाकारी बनाने में अधिक सहायक नहीं है? क्या यह मनुष्य को पूरी तरह से बचाने में अधिक सक्षम नहीं है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मनुष्य के उद्धार के लिए तुम्हें सामाजिक प्रतिष्ठा के आशीष से दूर रहकर परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए)। पढ़ने के बाद परमेश्वर के वचनों ने मुझे छू लिया। परमेश्वर ने मुझे उजागर कर मेरा न्याय करने के लिए कठोर वचनों का प्रयोग किया, उसके द्वारा निंदा की, शाप भी दिया, लेकिन उसने मुझे बर्बाद करने के लिए ऐसा नहीं किया। बल्कि, इसलिए किया ताकि मैं स्वयं को जानकर अपनी परमेश्वर-विरोधी शैतानी प्रकृति देख सकूँ, और पश्चात्ताप कर बदल सकूँ। इससे मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान सकी। जब लोग रुतबे के लिए होड़ करते हैं या कलीसिया के काम को बाधित करते हैं, तो परमेश्वर को उससे घृणा होती है और वो इसे सह नहीं पाता। परमेश्वर सभी सकारात्मक चीजों का स्रोत है, वह नकारात्मक और बुरी चीजों की मौजूदगी बर्दाश्त नहीं करता। कलीसिया में परमेश्वर के चुने हुए लोग उसकी आराधना और सत्य का अनुसरण करते हैं। यह वह स्थान भी है जहाँ परमेश्वर की इच्छा बाधित नहीं होती। लेकिन मैं? मैंने कलीसिया में सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई। मैंने चीजों को खराब और ध्वस्त किया, इसलिए मुझ पर परमेश्वर का कोप टूटा और कलीसिया से निकाली गई जो परमेश्वर की धार्मिकता थी। इतने बरसों में, मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, बस प्रसिद्धि और रुतबे के पीछे रही। जब किसी से मेरे पद को खतरा हुआ, तो मैं जल उठी और परमेश्वर के घर के काम को बाधित कर दिया, जो मसीह-विरोधी का मार्ग है। मैंने इतनी बुराई की है कि मैं परमेश्वर के दण्ड के लायक थी, परन्तु परमेश्वर ने मेरी बुराई के अनुसार मेरे साथ व्यवहार नहीं किया। दुख और निराशा के पलों में, जब मैं मरने की सोच रही थी, तो परमेश्वर को लगा कहीं मैं शैतान की चाल में न आ जाऊँ, तो उसने मुझे प्रबुद्ध करने और राह दिखाकर मुझे नकारात्मकता से बाहर निकालने के लिए बहन की संगति और अपने वचनों का इस्तेमाल किया। मैंने अपने दिल में गहराई से महसूस किया कि यह सब परमेश्वर का प्रेम और उद्धार है।

परमेश्वर की इच्छा को समझ लेने पर, अब मैं दुखी नहीं रहना चाहती थी। फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा, "जीवधारियों में से एक होने के नाते, मनुष्य को अपनी स्थिति को बना कर रखना होगा और शुद्ध अंतःकरण से व्यवहार करना होगा। सृष्टिकर्ता के द्वारा तुम्हें जो कुछ सौंपा गया है, कर्तव्यनिष्ठा के साथ उसकी सुरक्षा करो। अनुचित ढंग से आचरण मत करो, या ऐसे काम न करो जो तुम्हारी क्षमता के दायरे से बाहर हों या जो परमेश्वर के लिए घृणित हों। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की चेष्टा मत करो, दूसरों से श्रेष्ठ होने की कोशिश मत करो, न ही परमेश्वर बनने की कोशिश करो। लोगों को ऐसा बनने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। महान या अद्भुत व्यक्ति बनने की कोशिश करना बेतुका है। परमेश्वर बनने की कोशिश करना और भी अधिक लज्जाजनक है; यह घृणित है और नीचता भरा है। जो काम तारीफ़ के काबिल है और जिसे प्राणियों को सब चीजो से ऊपर मानना चाहिए, वह है एक सच्चा जीवधारी बनना; यही वह एकमात्र लक्ष्य है जिसे पूरा करने का निरंतर प्रयास सब लोगों को करना चाहिए" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है I)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे बेहद शर्मिंदा कर दिया। हालाँकि मैं तो बस एक सृजित प्राणी हूँ, एक मलिन और भ्रष्ट व्यक्ति हूँ, फिर भी चाहती थी कि लोग मेरा सम्मान और प्रशंसा करें। मैंने हर जगह दिखावा किया और चाहा कि जहाँ भी जाऊँ मुझे अहमियत मिले और लोगों से संगति के लिए परमेश्वर के वचन का इस्तेमाल किया। मुझमें जरा-सी भी समझ नहीं थी, सत्य की वास्तविकता नहीं थी, न ही खुद का कोई वास्तविक ज्ञान था। केवल शब्द और सिद्धांतों की बात करते हुए मैं बोलती ही जाती थी। मेरे शब्दों का सार भ्रमित करने वाला था। खुद को नहीं जानती थी, फिर भी मैंने शाओझेन पर हमला कर उसे बाहर कर दिया। मैं हद दर्जे की अभिमानी थी। मैं बहुत घिनौनी और घृणित थी! मुझे अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को त्यागना चाहिए, अच्छा व्यवहार करना चाहिए और सही स्थान पर रहकर, अपने कर्तव्य का निर्वाह व्यावहारिक ढंग से करना चाहिए। किसी भी सृजित प्राणी में यही विवेक होना चाहिए। परिणाम की परवाह न कर, मैंने कर्तव्य अच्छे से निभाने की कसम खाई। जब तक जिंदा हूँ, मुझे सत्य का अनुसरण करना है, भ्रष्टता से बचकर एक इंसान के रूप में जीते हुए परमेश्वर के दिल को सुकून देना है। उसके बाद, मैं हर दिन परमेश्वर से प्रार्थना करती कि वो मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं पश्चात्ताप कर बदल सकूं। जब परमेश्वर के वचन पढ़े, तो मैंने उनकी तुलना खुद से की हर दिन मैं जो उजागर करती, उस पर चिंतन और उसकी जाँच करती। धीरे-धीरे मुझे अपने अहंकारी स्वभाव का, अपनी दुष्टता, पहचान और रुतबे का थोड़ा-बहुत ज्ञान हुआ। मैंने अपने रिश्तेदारों, दोस्तों और परिचितों में सुसमाचार फैलाने की पूरी कोशिश की, जहाँ जरूरी हुआ वहाँ मैंने कलीसिया के काम में पूरी मदद की, और अक्सर भाई-बहनों की मेजबानी की। मुझे बहुत खुशी हुई और मैंने अपना मन बना लिया कि परमेश्वर मेरे साथ कैसा भी व्यवहार करे, मुझे अच्छी मंजिल मिले या न मिले, मैं कोई सौदेबाजी या मांग नहीं करूंगी, और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाऊंगी।

एक दिन, दिसंबर 2020 में अचानक, मेरी अगुआ ने बताया कि मुझे कलीसिया में पुन: स्वीकार कर लिया गया है, मैं फिर से कलीसिया का जीवन जी सकती हूँ। यह खबर सुनते ही खुशी से मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने मन में सोचा, "मैंने इतनी दुष्टता की, लेकिन जब मैंने सच्चा पश्चात्ताप किया, तो मुझे कलीसिया में वापस ले लिया गया। यह सच में परमेश्वर का प्रेम और दया है।" पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि मैंने अच्छा अनुसरण किया, अपने कर्तव्य का बोझ उठाया और भाई-बहनों से प्रेम किया। केवल परमेश्वर के वचनों से उजागर होने, निकाले जाने, न्याय और खुलासे से, जाना कि शैतान ने मुझे इतना भ्रष्ट कर दिया था कि मेरी इंसानियत खत्म हो गई, मेरी पूरी सोच में दुष्टता थी। अगर परमेश्वर का न्याय और ताड़ना न होते, तो मैं महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं की पूर्ति के लिए रुतबे के पीछे भागती रहती, कभी न आत्मचिंतन करती, न जागती। मैंने परमेश्वर की बातों को वाकई अनुभव किया, "यह जान लो कि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। इन बातों का अनुभव करके, मैंने परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव देखा है। मैंने अपने लिए परमेश्वर की सुरक्षा और उद्धार भी देखा है। हालांकि मेरा भ्रष्ट स्वभाव अभी भी बहुत गंभीर है, पर मैं परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करने के लिए पूरी मेहनत करने को तैयार हूँ, भाई-बहनों की काट-छांट और निपटारे को स्वीकारने को तैयार हूँ, और अपने स्वभाव में बदलाव लाकर इंसान की तरह जीने को तैयार हूँ।

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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