कठिन समय से सीख

24 जनवरी, 2022

ली यांग, चीन

2020 के चीनी नव वर्ष के तुरंत बाद मुझे मेरी आस्था के कारण गिरफ्तार कर लिया गया था। मेरे नियमित शारीरिक जाँच के लिए दाखिल होने पर उन्होंने पाया कि मेरे फेफड़ों पर काले धब्बे हैं। यह वह समय था, जब कोरोना वाइरस का प्रकोप बहुत जोरों पर था, इसलिए उन्होंने मुझे वहाँ रखने की हिम्मत नहीं की। पुलिस ने मेरे परिवार से संपर्क किया, ताकि वे मुझे घर ले जाएँ। घर जाते समय मेरी बहन ने मुझसे कहा, "पिछले साल डैड बहुत बीमार हो गए थे, पता चला कि उन्हें मूत्राशय का कैंसर है। सर्जरी ही छह घंटे से ज्यादा लंबी चली थी। उन्होंने उनकी एक किडनी का आधा हिस्सा निकाल दिया, और वे मरने ही वाले थे। फिलहाल उन्होंने हर महीने उनके ब्लैडर की कीमो सोल्यूशन से सफाई करके उन्हें जीवित रखा हुआ है। पता नहीं,वे कब तक जिएँगे।" बोलते हुए वह रो रही थी, उसने पिछले दो साल में घटी कुछ दूसरी घटनाओं के बारे में भी बताया। मुझे इतना खराब लगा कि मैं बता नहीं सकता, मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मुझे यकीन है कि मैं जिन चीजों का सामना कर रहा हूँ, उनमें तुम्हारी इच्छा निहित है। मेरे दिल की रक्षा करो, मेरी मदद करो कि मैं समर्पण करूँ, तुम्हें दोष न दूँ।"

घर पहुँचने पर मैंने देखा कि मेरे डैड बहुत कमजोर लग रहे थे, उनका चेहरा सूजा हुआ था। मैं जब वहाँ से गया था, उसकी तुलना में वे एक बिलकुल अलग इंसान लग रहे थे। इससे मुझे और भी बुरा लगा। मैंने यह भी देखा कि भारी सूखे के कारण हमारे बाग में फलों के ज्यादातर पेड़ नष्ट हो गए थे, और परिवार की सारी जमा-पूँजी मेरे डैड के इलाज पर खर्च हो गई थी। उनकी आमदनी का एकमात्र स्रोत फलों के पेड़ थे, जो मुश्किल से फल दे रहे थे। बहुत कठिन समय था। ये सब देखकर मैं बहुत बेचैन हो गया था, मेरी समझ में नहीं आ रहा था, इसका सामना कैसे करूँ। अनजाने में ही मैं परमेश्वर को दोष देने लगा। कुछ साल पहले मुझे परमेश्वर में आस्था के कारण गिरफ्तार करके महीने भर हिरासत में रखा गया था। रिहा होने के बाद से मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए शहर से बाहर था। मेरे इतना त्याग करने, इतने कष्ट सहने के बावजूद मेरे परिवार के साथ ऐसा कैसे हो सकता है? इस विचार ने मुझे और अधिक हताश कर दिया, मैं इससे उबरना नहीं जानता था। कोशिश करके भी मैं प्रेरणा नहीं जुटा पाया, महामारी खत्म होने पर परिवार की आमदनी बढ़ाने के लिए नौकरी ढूँढ़ने के विचारों में ही उलझा हुआ था। कुछ समय बाद मुझे भाई-बहनों से एक पत्र मिला, उसमें लिखा था कि मैं घर पर सुरक्षित नहीं हूँ, और कुछ समय के लिए मुझे कलीसिया के एक दूसरे सदस्य के घर जाकर छिप जाना चाहिए। मैं जानता था कि मुझे हिरासत में न लिए जाने का एकमात्र कारण महामारी है, और वे किसी भी समय मुझे वापस ले जा सकते हैं। घर छोड़ देना ज्यादा सुरक्षित होगा, मैं कलीसिया का जीवन जीते हुए अपना कर्तव्य निभा सकूँगा। लेकिन अपने परिवार को ऐसी मुश्किल में देखकर कर्तव्य निभाने का मेरा मन नहीं था। मैंने उनके पत्र के जवाब में लिखा कि मैं नहीं जाऊँगा। पत्र भेजने के बाद मैंने बहुत दोषी महसूस किया, लेकिन इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। अगले दिन खेतों में काम करने के लिए बाइक से जाते समय मैं गिर गया और मेरा पैर टूट गया। मुझे एहसास हुआ कि यह परमेश्वर ने मुझे संदेश भेजा है। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं अपनी शैतानी भ्रष्टता में जीते हुए तुमसे लड़ना नहीं चाहता। मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं खुद को जान सकूँ, इस माहौल में समर्पण कर सकूँ।" अपनी प्रार्थना के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्‍हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्‍हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्‍हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्‍हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्‍हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्‍हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्‍हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? ... तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान')। "मनुष्य का परमेश्वर के साथ संबंध केवल एक नग्न स्वार्थ है। यह आशीष देने वाले और लेने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो, यह कर्मचारी और नियोक्ता के मध्य के संबंध के समान है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के संबंध में कोई स्नेह नहीं होता, केवल एक लेनदेन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझदारी नहीं होती, केवल दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है। अब जबकि चीज़ें इस बिंदु तक आ गई हैं, तो कौन इस क्रम को उलट सकता है? और कितने लोग इस बात को वास्तव में समझने में सक्षम हैं कि यह संबंध कितना भयानक बन चुका है? मैं मानता हूँ कि जब लोग आशीष प्राप्त होने के आनंद में निमग्न हो जाते हैं, तो कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ इस प्रकार का संबंध कितना शर्मनाक और भद्दा है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3: मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर ने मेरी असली हालत उजागर कर दी। मैंने शर्मिंदगी महसूस की। अपने डैड को इतना बीमार और फलों के उन तमाम सूखे वृक्षों को देखने के बाद, और परिवार को कठिन दौर में देखकर मैं परमेश्वर को गलत समझकर दोष दे रहा था, यहाँ तक कि उसके सामने बहाने भी बना रहा था। मुझे लगा, चूँकि मैं उसके लिए त्याग और कड़ी मेहनत कर रहा था, जेल में बंद रहा था और उसे धोखा न देते हुए बहुत कष्ट सहे थे, इसलिए उसे मेरी रक्षा करनी चाहिए और मेरे परिवार को आशीष देना चाहिए। मैंने देखा कि अपने कर्तव्य में मैं सत्य का अनुसरण नहीं कर रहा था, न ही अपने स्वभाव को बदलने की कोशिश कर रहा था, बल्कि अपने त्याग के बदले परमेश्वर से आशीष पाने के लिए सौदेबाजी करने की कोशिश करना चाहता था। क्या यह अपने कर्तव्य को सरासर सौदेबाजी में बदलना नहीं था? इस प्रकार आस्था रखना और अपना कर्तव्य निभाना दुनिया में कोई दूसरी नौकरी करने से जरा-भी अलग नहीं था। यह बिना किसी सच्ची भावना के निजी फायदे की सौदेबाजी थी।

मैं बहुत भाग्यशाली था कि मुझे परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य प्राप्त हुआ, उसके वचनों का पोषण और सिंचन मिला, उसका न्याय और शुद्धिकरण प्राप्त हुआ, और अंत में बचाए जाने का मौक़ा मिला। कितना अप्रतिम वरदान है! लेकिन मैं सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए कर्तव्य अच्छे से करने पर ध्यान नहीं दे रहा था। अपने परिवार का संघर्ष देखकर मैंने सत्य खोजने और गवाही देने के तरीके के बारे में नहीं सोचा। मैंने सिर्फ अपने निजी हित के बारे में सोचा, अपने नफे-नुकसान का हिसाब लगाता रहा। यहाँ तक कि मैंने परमेश्वर को भी दोष दिया, उसे गलत समझा, मैं तो अपना कर्तव्य ही नहीं निभाना चाहता था। यह परमेश्वर को धोखा देना था, पूरी तरह से इंसानियत से रहित होना था।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "ऐसा कोई इंसान नहीं होता जिसका पूरा जीवन दुखों से मुक्त हो। किसी को पारिवारिक परेशानी, किसी को काम-धंधे की, किसी को शादी-विवाह की और किसी को शारीरिक –व्याधि की परेशानी। हर कोई कष्ट झेलता है। कुछ लोग कहते हैं, 'लोगों को कष्ट क्यों उठाना पड़ता है? अगर हमारा पूरा जीवन सुख-शांति से बीतता, तो कितना अच्छा होता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दुख ही न आएँ?' नहीं—सभी को दुख भोगने होंगे। दुख इंसान को जीवन की असंख्य संवेदनाओं का अनुभव कराते हैं, फिर चाहे ये संवेदनाएं सकारात्मक हों, नकारात्मक हों, सक्रिय हों या निष्क्रिय हों; दुख तुम्हारे अंदर तरह-तरह के एहसास और समझ पैदा करता है, जो तुम्हारे पूरे जीवन का अनुभव होते हैं। यदि तुम सत्य की खोज करके इनसे परमेश्वर की इच्छा का पता लगा सको, तो तुम उस मानक के करीब पहुँच जाओगे, जिसकी परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है। यह एक पहलू है और यह लोगों को अधिक अनुभवी बनाने के लिए भी है। दूसरा पहलू वह जिम्मेदारी है जो परमेश्वर मनुष्य को देता है। कौन-सी जिम्मेदारी? तुम्हें इस पीड़ा से गुजरना होगा, इस पीड़ा को सहना होगा, और यदि तुम इसे सह पाओ, तो यह गवाही है, कोई शर्मनाक चीज नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी धारणाओं का समाधान करके ही कोई परमेश्वर में विश्वास के सही मार्ग में प्रवेश कर सकता है (1)')। इसने मुझे दिखाया कि विश्वासी और अविश्वासी दोनों एक-समान अपने जीवन में तरह-तरह के संघर्षों और विपत्तियों का सामना करते हैं। हम कितने कष्ट झेलेंगे, जीवन में कितनी बाधाएँ आएँगी, ये परमेश्वर तय करता है। परमेश्वर जीवन में हमारा परीक्षण करने, हमें अधिक अनुभव देने और विपत्ति के जरिए हमारे संकल्प की परीक्षा लेने के लिए हमें मिठास, खटास और कड़वाहट के स्वाद चखाता है। वही हमें एक जिम्मेदारी भी देता है। अपने डैड को इतना बीमार और अपने परिवार की मुसीबत देखना सच में एक संघर्ष था, लेकिन परमेश्वर मेरे लिए हालात मुश्किल नहीं बना रहा था। वह मेरी वर्षों की आस्था के दौरान आशीषों के पीछे भागने के मेरे दोषपूर्ण नजरिए को उजागर कर रहा था, ताकि मैं सत्य का अनुसरण करने के मार्ग पर चल सकूँ। लेकिन परमेश्वर की इच्छा को न समझकर मैंने परमेश्वर से सिर्फ कुतर्क किया, उसके साथ लड़ पड़ा। मैं बहुत विद्रोही था, मैंने परमेश्वर को निराश कर दिया था। मैं जान गया था कि मुझे शिकायत नहीं करनी चाहिए, परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण करना चाहिए, इसके जरिए गवाही देनी चाहिए।

मैंने आत्मचिंतन किया। मैंने अनेक वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा। मैं जानता था कि आस्था रखना स्वाभाविक और सही है, और मुझे परमेश्वर से सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए। फिर मैं आशीषों के पीछे भागने और परमेश्वर से सौदेबाजी करने से खुद को क्यों नहीं रोक पया? इसके मूल में क्या है? बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। परमेश्वर के वचन कहते हैं, "सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। मैं तो बस अपने लिए सोचूँगा, बाकियों को शैतान ले जाए—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; वे चीजों को त्यागते हैं, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं—लेकिन फिर भी वे ये सब स्वयं के लिए करते हैं। संक्षेप में, यह सब स्वयं के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। दुनिया में, सब कुछ निजी लाभ के लिए होता है। परमेश्वर पर विश्वास करना आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़ देता है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति बहुत दुःख का भी सामना कर सकता है। यह सब मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति का प्रयोगसिद्ध प्रमाण है। जिन लोगों के स्वभाव बदल गए हैं, वे अलग हैं, उन्हें लगता है कि अर्थ सत्य के अनुसार जीने से आता है, कि परमेश्वर के प्राणी के कर्तव्य निभाने वाले ही इंसान कहलाने योग्य हैं, कि इंसान होने का आधार ईश्वर के प्रति समर्पित होना, परमेश्वर का भय मानना और बुराई से दूर रहना है, कि परमेश्वर की आज्ञा स्वीकार करना स्वर्ग और पृथ्वी द्वारा आदेशित जिम्मेदारी है—और अगर वे परमेश्वर से प्रेम करने और उसके प्रेम का प्रतिफल देने में सक्षम नहीं हैं, तो वे इंसान कहलाने योग्य नहीं हैं; उनकी दृष्टि में, अपने लिए जीना खोखला और अर्थहीन है। वे यह महसूस करते हैं कि लोगों को परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से पूरे करने के लिए जीना चाहिए, उन्हें एक सार्थक जीवन जीना चाहिए, ताकि जब उनके मरने का समय हो तब भी, वे संतुष्ट महसूस करें और उनमें जरा-सा भी पछतावा न हो, और यह कि वे व्यर्थ नहीं जिए हैं" ("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर')। परमेश्वर के वचनों ने दिखाया कि वर्षों की आस्था के बावजूद मैं आशीष पाने के पीछे क्यों भाग रहा था। शैतान के जहर, जैसे कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाए", मेरे दिल में गहराई से जगह बना चुके थे, जिससे मैं अपने हर काम में निजी फायदे को सबसे आगे रखता था। मैं हमेशा अपने निजी हितों का ध्यान रखता था। जब सीसीपी मेरे पीछे पड़ी थी और मैं घर नहीं जा पा रहा था, तो मैं अपना कर्तव्य निभा तो रहा था, लेकिन वह सच्चे मन से परमेश्वर के लिए खुद को खपाना और कर्तव्य निभाना नहीं था। वह परमेश्वर के आशीष और एक अद्भुत मंजिल पाने की आशा से था। जब घर पर मुसीबत आ पड़ी, घरवाले जीवन चलाने के लिए संघर्ष करने लगे, तो आशीष पाने की मेरी आशा चूर-चूर हो गई, इसलिए मैंने नकारात्मक होकर आगे अपना कर्तव्य नहीं निभाना चाहा। मैंने अपनी आस्था और कर्तव्य में देखा कि मैं अपने छोटे-से प्रयास के बदले भी ढेरों आशीष पाना चाहता था। मैं परमेश्वर का इस्तेमाल करते हुए हिसाब लगा रहा था। यह बहुत अधिक स्वार्थी और घिनौना काम था!

परमेश्वर का यह वचन, "एक अपरिवर्तित स्वभाव का होना परमेश्वर के साथ शत्रुता में होना है," सोलह आने सही था। हालाँकि पिछले अनेक वर्षों में मैंने ऊपर-ऊपर से त्याग किए थे, खुद को खपाया था, काम में कष्ट सहे थे, लेकिन सत्य का अनुसरण न करने या परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना को न स्वीकारने के कारण मेरा भ्रष्ट स्वभाव नहीं बदला था। जब ऐसी घटनाएँ घटीं जो मेरी धारणाओं के अनुरूप नहीं थीं, तो मैंने विद्रोह कर परमेश्वर का प्रतिरोध किया। परमेश्वर से मैंने दुश्मनी की। आस्था को लेकर मेरा नजरिया ठीक उन धार्मिक लोगों जैसा ही था, जो बस अपना पेट भरना और अपने त्याग के बदले स्वर्ग का टिकट पाना चाहते हैं। मैं पौलुस की तरह परमेश्वर के विरुद्ध जाने वाले रास्ते पर था! जो लोग सच में सत्य का अनुसरण करते हैं और स्वभाव में बदलाव चाहते हैं, वे सौदेबाजी से अपने कर्तव्य को दूषित नहीं करते, बल्कि सत्य का अनुसरण करते हुए परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाने के लिए दिल लगाकर काम करते हैं। वे परमेश्वर से प्रेम कर उसे संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं, एक अर्थपूर्ण जीवन जीते हैं। वे पतरस की तरह होते हैं, जिसने परमेश्वर का सर्वोच्च प्रेम चाहा, और मृत्यु तक आज्ञाकारी रहा। परमेश्वर के लिए सूली पर चढ़कर उसने उसकी सुंदर गवाही दी। इसे परमेश्वर की स्वीकृति मिलती है, अर्थ और मूल्यों के साथ जीने का यही एकमात्र तरीका है।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों के पाठ का एक वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मनुष्य के कर्तव्य और वह धन्य है या शापित, इनके बीच कोई सह-संबंध नहीं है। कर्तव्य वह है, जो मनुष्य के लिए पूरा करना आवश्यक है; यह उसकी स्वर्ग द्वारा प्रेषित वृत्ति है, जो प्रतिफल, स्थितियों या कारणों पर निर्भर नहीं होनी चाहिए। केवल तभी कहा जा सकता है कि वह अपना कर्तव्य पूरा कर रहा है। धन्य होना उसे कहते हैं, जब कोई पूर्ण बनाया जाता है और न्याय का अनुभव करने के बाद वह परमेश्वर के आशीषों का आनंद लेता है। शापित होना उसे कहते हैं, जब ताड़ना और न्याय का अनुभव करने के बाद भी लोगों का स्वभाव नहीं बदलता, ऐसा तब होता है जब उन्हें पूर्ण बनाए जाने का अनुभव नहीं होता, बल्कि उन्हें दंडित किया जाता है। लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना कि उन्हें धन्य किया जाता है या शापित, सृजित प्राणियों को अपना कर्तव्य पूरा करना चाहिए; वह करते हुए, जो उन्हें करना ही चाहिए, और वह करते हुए, जिसे करने में वे सक्षम हैं। यह न्यूनतम है, जो व्यक्ति को करना चाहिए, ऐसे व्यक्ति को, जो परमेश्वर की खोज करता है। तुम्हें अपना कर्तव्य केवल धन्य होने के लिए नहीं करना चाहिए, और तुम्हें शापित होने के भय से अपना कार्य करने से इनकार भी नहीं करना चाहिए। मैं तुम लोगों को यह बात बता दूँ : मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह ऐसी चीज़ है, जो उसे करनी ही चाहिए, और यदि वह अपना कर्तव्य करने में अक्षम है, तो यह उसकी विद्रोहशीलता है। अपना कर्तव्य पूरा करने की प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य धीरे-धीरे बदलता है, और इसी प्रक्रिया के माध्यम से वह अपनी वफ़ादारी प्रदर्शित करता है। इस प्रकार, जितना अधिक तुम अपना कार्य करने में सक्षम होगे, उतना ही अधिक तुम सत्य को प्राप्त करोगे, और उतनी ही अधिक तुम्हारी अभिव्यक्ति वास्तविक हो जाएगी। जो लोग अपना कर्तव्य बेमन से करते हैं और सत्य की खोज नहीं करते, वे अंत में हटा दिए जाएँगे, क्योंकि ऐसे लोग सत्य के अभ्यास में अपना कर्तव्य पूरा नहीं करते, और अपना कर्तव्य पूरा करने में सत्य का अभ्यास नहीं करते। ये वे लोग हैं, जो अपरिवर्तित रहते हैं और शापित किए जाएँगे। उनकी न केवल अभिव्यक्तियाँ अशुद्ध हैं, बल्कि वे जो कुछ भी व्यक्त करते हैं, वह दुष्टतापूर्ण होता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, देहधारी परमेश्वर की सेवकाई और मनुष्य के कर्तव्य के बीच अंतर)। जब मैंने इस पर गौर किया, तो मैंने समझा कि कर्तव्य एक ऐसी चीज है, जो हमें सृजित प्राणी होने के नाते निभाना चाहिए। यह एक ऐसी जिम्मेदारी है, जिससे हम मुँह नहीं मोड़ सकते। इसे सौदेबाजी से दूषित नहीं करना चाहिए, निजी लाभ से नहीं जोड़ना चाहिए। यह संतानोचित निष्ठा की तरह है— यह चीजों का स्वाभाविक क्रम है और बहुत ही स्पष्ट है। हम अपने कर्तव्य में परमेश्वर के न्याय और ताड़ना से गुजरते हैं; हमारी भ्रष्टता बदली और शुद्ध की जा सकती है। बचाए जाने और अच्छी मंजिल पाने का यही एकमात्र तरीका है। अगर हम सत्य का अनुसरण नहीं करते, अपने भ्रष्ट स्वभाव में बदलाव लाए बिना वर्षों विश्वास रखते हैं, बल्कि अपनी सौदेबाजी की मानसिकता और फिजूल की आकांक्षाओं से चिपके रहते हैं, तो हम कितने समय तक भी विश्वास रखें, कितना भी त्याग करें, हमें परमेश्वर की स्वीकृति कभी नहीं मिलेगी, वह हमें हटा देगा। मुझे याद आया कि अय्यूब ने अपनी हर चीज खो दी थी, यहाँ तक कि अपने बच्चों को भी, लेकिन उसने परमेश्वर को दोष नहीं दिया। उसे पता था कि हर चीज परमेश्वर की दी हुई है, जब परमेश्वर उन्हें वापस लेता है, तो उसे बिना शर्त आज्ञा माननी होगी। इसीलिए अय्यूब ने कहा, "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" (अय्यूब 1:21)। अपने दिल में वह जानता था कि परमेश्वर चाहे पुरस्कार दे या वापस ले ले, उसे परमेश्वर की आराधना करनी है। यही उसका कर्तव्य है। अय्यूब ने परमेश्वर के लिए अपना कर्तव्य निभाया और उसकी गवाही दी। परमेश्वर के सच्चे सृजित प्राणी को यही करना चाहिए। मुझे अय्यूब के कदमों पर चलना होगा। अब मैं परमेश्वर से चीजें माँगने के लिए अपने त्याग को लेनदेन के कार्ड की तरह इस्तेमाल नहीं कर सकता, मुझे अपने कर्तव्य को जिम्मेदारी और दायित्व समझना होगा। यही है अंत:करण और समझ का होना।

बाद में, चूँकि पुलिस मुझे फिर से गिरफ्तार करने वाली थी, इसलिए मैंने घर छोड़ दिया और अस्थायी तौर पर एक बुजुर्ग भाई के घर में रहने लगा। इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "अगर तुम अपना हृदय, शरीर और अपना समस्त वास्तविक प्यार परमेश्वर को समर्पित कर सकते हो, उसके प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी हो सकते हो, और उसकी इच्छा के प्रति पूर्णतः विचारशील हो सकते हो—देह के लिए नहीं, परिवार के लिए नहीं, और अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं के लिए नहीं, बल्कि परमेश्वर के परिवार के हित के लिए, परमेश्वर के वचन को हर चीज में सिद्धांत और नींव के रूप में ले सकते हो—तो ऐसा करने से तुम्हारे इरादे और दृष्टिकोण सब युक्तिसंगत होंगे, और तब तुम परमेश्वर के सामने ऐसे व्यक्ति होगे, जो उसकी प्रशंसा प्राप्त करता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर से सचमुच प्रेम करने वाले लोग वे होते हैं जो परमेश्वर की व्यावहारिकता के प्रति पूर्णतः समर्पित हो सकते हैं)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे एक मार्ग, एक दिशा दी। मुझे सिर्फ अपने परिवार और देह-सुख के बारे में नहीं सोचना चाहिए, बल्कि मुझे अपनी मंशाओं को सुधारना चाहिए, अपनी ऊर्जा और विचार कर्तव्य अच्छे से निभाने में लगाने चाहिए। परमेश्वर की इच्छा समझ लेने के बाद मैंने अपने दिल को शांत किया और परमेश्वर के वचन पढ़ने में समय बिताया। कुछ समय बीतने के बाद मुझे एक दूसरा कर्तव्य दिया गया। परमेश्वर के न्याय और ताड़ना ने आस्था के प्रति मेरा गलत नजरिया सुधार दिया, और अब अपने प्रयासों में मेरा लक्ष्य सही है।

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