अभिमान और शोहरत ने मुझे नुकसान पहुँचाया

24 जनवरी, 2022

2017 में मुझे अगुआई के एक पद के लिए चुना गया और कुछ कलीसियाओं के कार्य का प्रभारी बना दिया गया। मैंने देखा कि कलीसियाओं के वे सभी विश्वासी मुझसे ज्यादा समय से विश्वासी रहे हैं। बहन गाओ और बहन सुन कई वर्षों तक अगुआ के पद पर काम कर चुकी थीं, और पहले हम सहकर्मी-सभाओं में साथ भाग ले चुकी थीं, इसलिए वे बखूबी जानती थीं कि मुझसे क्या उम्मीद की जाए। एक दूसरी कलीसिया की अगुआ, बहन युआन ने उस समय मेरा सिंचन किया था, जब मैंने परमेश्वर के कार्य को स्वीकार किया ही था। उस वक्त मैं पूर्णत: अनभिज्ञ थी, लेकिन जब कभी मुझे कोई दिक्कत होती, वे सत्य के बारे में संगति करके हमेशा मेरी मदद करतीं। इसलिए चाहे कार्य-अनुभव हो या आस्था की अवधि, हर मामले में वे मुझसे आगे थीं। मुझे लगा, अगर मैं उनके काम की प्रभारी बनकर उनकी समस्याएँ सुलझाने में मदद करूँगी, तो मुझे ही शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी। लेकिन मैं यह भी जानती थी कि यह काम परमेश्वर द्वारा किया गया मेरा उत्कर्ष है। मैं सिर्फ अपनी इज्जत और रुतबा बचाने के लिए यह काम करने से मना नहीं कर सकती। मुझे स्वीकार और समर्पण ही करना था।

इसलिए मैंने कलीसियाओं से खुद को अवगत कराने के लिए जल्द-से-जल्द एक सभा करने के लिए कलीसिया के अगुआओं को पत्र लिखा। आम तौर पर मैं पत्र बहुत जल्दी लिख लेती हूँ, लेकिन बहन गाओ को लिखते समय ऐसा नहीं कर पाई। मैं लिखती, फिर उन पंक्तियों को बदलकर दोबारा लिखती, और बार-बार सुधार करती रही। मुझे चिंता होती कि अपनी बात साफ तौर पर नहीं लिख पाई, तो वे मुझे नीची नजर से देखेंगी। जब सभा का समय आया, तो मैं और भी अधिक बेचैन हो गई। मेरे मन में विचारों का तूफान आया हुआ था : हम सहकर्मियों के रूप में साथ में सभाएँ किया करती थीं, और अगर मैं ढंग से संगति नहीं कर पाई, या उनकी समस्याएँ नहीं सुलझा पाई, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगी? क्या वे कहेंगी, "ऐसे आध्यात्मिक कद के साथ बैठकें करने और हमारी समस्याएँ सुलझाने वाली आप होती कौन हैं?" नहीं, नहीं, मुझे बढ़िया संगति करके उन्हें यह दिखाना होगा कि मैं यह काम करने के काबिल हूँ। संतुलित दिखने की कोशिश करते हुए मैं उनके काम को समझने लगी। मैंने उन्हें पेश आने वाली समस्याओं पर नोट्स बनाए और उन्हें सुलझाने के लिए परमेश्वर के वचन ढूँढ़े। लेकिन मैं इतनी घबरा गई कि थोड़ी देर संगति करने के बाद मेरे पास बोलने को कुछ नहीं बचा। तभी मैंने देखा, बहन गाओ का चेहरा गंभीर हो गया था। मैंने मन-ही-मन सोचा, "क्या ऐसा इसलिए है कि मैं अपनी संगति से उनकी समस्याएँ नहीं सुलझा पाई हूँ?" इज्जत बचाने की कोशिश में मैंने जबरन संगति जारी रखी। बोलते समय मैं उनके चेहरों के हावभाव पर नजर रखे हुए थी, यह देखने के लिए कि कहीं उनका धीरज जवाब तो नहीं दे रहा। उनके हावभाव में जरा-से भी बदलाव से मेरा दिल जोरों से धड़कने लगता। जब सभा समाप्त होने को थी, तो सब पूरी तरह चुप हो गए, अकेली मैं ही बोल रही थी। मुझे लगा, जैसे समय थम गया हो—सभा कछुए की गति से घिसट रही थी। आखिरकार सभा समाप्त हुई और मैं पूरी तरह थकी-हारी घर रवाना हो गई, लगा जैसे मैंने दिन भर कमरतोड़ मेहनत की हो, और मैं बस आराम करना चाहती थी, लेकिन फिर मुझे याद आया कि मैंने अगले दिन बहन युआन और कुछ दूसरी बहनों के साथ एक सभा निर्धारित की हुई है। अगर उनके सामने ऐसी कोई समस्या आई जिसे मैं सुलझा न सकी, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगी? नहीं, मुझे पहले से तैयारी करनी होगी। मैं कलीसिया के उनके काम की रिपोर्ट उठाकर पढ़ने लगी, लेकिन जाने कब मेरी आँख लग गई। अचानक रात 9 बजे एक झटके से मेरी नींद खुल गई। मैंने सोचा, "अजीब बात है। इतनी जल्दी तो मुझे कभी नींद नहीं आती।" इसलिए मैंने परमेश्वर के सामने आकर उससे प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, इस काम को पूरा करने में मुझे बहुत तनाव हो रहा है। मुझे चिंता है कि अगर मैंने अच्छी संगति नहीं की, तो कलीसिया की अगुआ मुझे नीची नजर से देखेंगी। मैं बहुत बेबस महसूस कर रही हूँ, और मैं नहीं जानती कि इस हालत से बाहर कैसे निकलूँ। मेरी विनती है कि मुझे प्रबुद्ध कर रास्ता दिखाओ, ताकि मैं खुद को जान सकूँ।"

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "सभी भ्रष्ट मनुष्य एक आम समस्या से ग्रस्त होते हैं : जब उनकी कोई हैसियत नहीं होती, जब वे साधारण भाई-बहन होते हैं, तो वे किसी के साथ परस्पर संपर्क के समय या बातचीत करते समय शेखी नहीं बघारते, न ही वे अपनी बोल-चाल में किसी निश्चित शैली या लहजे को अपनाते हैं; वे बस साधारण और सामान्य होते हैं, और उन्हें खुद को आकर्षक ढंग से पेश करने की आवश्यकता नहीं होती है। वे किसी मनोवैज्ञानिक दबाव को महसूस नहीं करते, और वे खुलकर, दिल से सहभागिता कर सकते हैं। वे सुलभ होते हैं और उनके साथ बातचीत करना आसान होता है; दूसरों को यह महसूस होता है कि वे बहुत अच्छे लोग हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें कोई रुतबा प्राप्त होता है, वे ऊँचे और शक्तिशाली बन जाते हैं, मानो उन तक कोई नहीं पहुँच सकता; उन्हें लगता है कि वे इज्ज़तदार हैं, और आम लोग तो किसी और ही मिट्टी के बने हुए हैं। वे आम इंसान को नीची नज़रों से देखते हैं और उनके साथ खुलकर सहभागिता करना बंद कर देते हैं। वे अब खुले तौर पर सहभागिता क्यों नहीं करते हैं? उन्हें लगता है कि अब उनके पास ओहदा है, और वे अगुआ हैं। उन्हें लगता है कि अगुआओं की एक निश्चित छवि होनी चाहिए, उन्हें आम लोगों की तुलना में थोड़ा ऊँचा होना चाहिए, उनका क़द बड़ा और उन्हें अधिक जिम्मेदारी संभालने के योग्य होना चाहिए; उनका यह मानना होता है कि आम लोगों की तुलना में, अगुआओं में अधिक धैर्य होना चाहिए, उन्हें अधिक कष्ट उठाने और खपने में समर्थ होना चाहिए, और किसी भी प्रलोभन का सामना करने में सक्षम होना चाहिए। वे सोचते हैं कि अगुआ रो नहीं सकते, भले ही उनके परिवार के सदस्यों में से कितनों की भी मृत्यु हो जाए, और अगर उन्हें रोना ही है, तो उन्हें ऐसा गुप्त रूप से करना चाहिए, ताकि किसी को भी उनमें किसी तरह की कमी, दोष या, कमज़ोरी न दिखाई दे। उन्हें यहाँ तक लगता है कि अगुआ किसी को यह जानने नहीं दे सकते कि वे नकारात्मक हो गए हैं; इसके बजाय, उन्हें ऐसी सभी बातों को छिपाना चाहिए। उनका मानना है कि ओहदे वाले वाले व्यक्ति को ऐसा ही करना चाहिए। जब वे इस हद तक अपना दमन करते हैं, तो क्या हैसियत उनका परमेश्वर, उनका प्रभु नहीं बन गई है? और ऐसा होने पर, क्या उनमें अभी भी सामान्य मानवता है? जब उनमें ये विचार होते हैं—जब वे खुद को इस तरह सीमित कर लेते हैं, और इस तरह का कार्य करते हैं—तो क्या वे हैसियत के प्रति आसक्त नहीं हो गए हैं?" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत एकदम उजागर कर दी। ये सभाएँ करना मेरे लिए बहुत थकाऊ और दुखदायी इसलिए हो रहा था, क्योंकि मुझे प्रतिष्ठा और रुतबे की बड़ी चिंता थी। अगुआ के रूप में चुनी जाने से पहले के बारे में सोचूँ, तो बहन गाओ और अन्य बहनों के साथ सभाओं में मैं निस्संकोच रहती थी। मैं उतनी ही संगति करती थी जितना मैं समझती थी, और मुझे विश्वास था कि मेरे बहुत ज्यादा समय से विश्वासी न होने के कारण मेरी सतही संगति के लिए कोई मुझे नीची नजरों से नहीं देखेगा। लेकिन एक अगुआ के कर्तव्य निभाने के बाद मुझे लगा कि उनसे ऊँचे पद पर होने के कारण अगर मैं अच्छे ढंग से संगति न कर पाई और उनकी समस्याएँ न सुलझा पाई, तो उनकी दृष्टि में मेरा सम्मान कम हो जाएगा। मैं सभाओं में दिखावा करती और अपनी बात पर जोर देती, ताकि दूसरे मेरे बारे में अच्छी राय बनाएँ और कहें कि मैं पद के लायक हूँ। मुझे अधिक व्यावहारिक अनुभव नहीं था, लेकिन मैं अपनी कमियाँ खुलकर नहीं बताना चाहती थी। मैं बस जबरन आगे बढ़ती रही। मैं यह सोचकर खुद को बड़ा समझती रही, कि अगुआओं का एक खास आध्यात्मिक कद होना चाहिए और उन्हें बाकी सब लोगों से हर मामले में बेहतर होना चाहिए। मैंने अपनी सभी खामियाँ और कमियाँ छिपाईं, जो कुछ मैं नहीं समझती थी, मैंने उसकी खुलकर खोज नहीं की, और यूँ दिखाती मानो मैं समझती हूँ, इस डर से कि मुझे नीची नजरों से देखा जाएगा। रुतबे में आसक्त होने के कारण मैंने खुद ये मुसीबत मोल ली। अगुआ के पद पर मेरा उत्कर्ष करके परमेश्वर ने मुझे प्रशिक्षित होने का एक मौका दिया था, ताकि मैं सत्य पर संगति करना सीख लूँ और समस्याएँ सुलझा सकूँ। लेकिन मैंने यह जरा भी नहीं सोचा कि अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाकर मैं दूसरों की समस्याएँ और मसले सुलझाने में मदद कैसे करूँ। इसके बजाय मैंने अपने काम का इस्तेमाल खुद को आगे बढ़ाने और दूसरों की नजर में ऊँचा दिखने के लिए किया। यहाँ तक कि मैंने नकली रूप में सामने आकर भाई-बहनों को धोखा भी दिया। मुझमें जरा भी समझ नहीं थी—मैं बिलकुल बेशर्म थी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रायश्चित-स्वरूप उससे प्रार्थना की, और उससे शोहरत और रुतबे के बंधन तोड़ फेंकने का रास्ता दिखाने की विनती की।

प्रार्थना करने के बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। "कुछ लोग हमेशा सोचते हैं कि जब लोगों के पास हैसियत हो, तो उन्हें अधिकारियों की तरह पेश आना चाहिए, तभी दूसरे लोग उन्हें गंभीरता से लेंगे और तभी उनका सम्मान करेंगे, जब वे खास तरीके से बोलेंगे। अगर तुम यह समझ पाओ कि सोचने का यह तरीका गलत है, तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और दैहिक चीजों से मुँह मोड़ लेना चाहिए। उस रास्ते पर मत चलो। जब तुम्हारे मन में इस तरह के विचार आएँ तो तुम्हें इस अवस्था से बाहर निकल आना चाहिए, तुम्हें अपने-आपको इसमें फँसने नहीं देना चाहिए। एक बार तुम इसमें फंस गए और ये सोच-विचार तुम्हारे भीतर आकार लेने लगे, तो तुम एक छद्म भेस धारण कर लोगे और अपने ऊपर एक आवरण लपेट लोगे, इतना मज़बूती से कस लोगे कि कोई देख न पाए या तुम्हारे दिल अथवा मन को भाँप न पाए। तुम दूसरों से ऐसे बात करोगे जैसे तुमने कोई मुखौटा लगा रखा हो। वे तुम्हारा हृदय नहीं देख पाएंगे। तुम्हें दूसरे लोगों को यह देखने देना सीखना चाहिए कि तुम्हारे दिल में क्या है, लोगों पर विश्वास करो और उनके करीब आओ। तुम्हें भौतिक प्रवृत्तियों से दूर हो जाना चाहिए—और इसमें कुछ भी गलत नहीं है; यह भी अपनाया जा सकने वाला मार्ग है। तुम्हारे साथ चाहे कुछ भी हो जाए, तुम्हें सबसे पहले अपनी सोच में मौजूद समस्याओं पर विचार करना चाहिए। अगर तुम्हारा झुकाव अभी भी किसी प्रकार का दिखावा या ढोंग करने की ओर हो, तो तुम्हें जितनी जल्दी हो सके, परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए : 'हे परमेश्वर, मैं फिर से अपना भेस बदलना चाहता हूँ, और मैं एक बार फिर चालबाजी और छल-कपट में लिप्त होना चाहता हूँ। मैं कितना शैतान हूँ! मैं तुम्हारे अंदर अपने लिए कितनी नफरत पैदा कर रहा हूँ! मुझे इस समय अपने-आप पर कितनी कोफ्त हो रही है, कृपा करके मुझे अनुशासित करो, मुझे धिक्कारो और मुझे दंडित करो।' तुम्हें यह प्रार्थना करते हुए अपने रवैये को प्रकाश में लाना चाहिए। यह तुम्हारे अभ्यास के तरीके से जुड़ा हुआ है। यह अभ्यास मानवता के कौन से पहलू पर लक्षित है? यह उस सोच, उन विचारों और उन मंतव्यों पर लक्षित है जो लोग किसी मामले को लेकर प्रकट कर चुके हैं, और साथ ही जिस रास्ते पर और जिस दिशा में वे चलते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तुम्हारे मन में ढोंग करने के विचार आएँ, तो उन्हें उजागर करने, उनका विश्लेषण करने और उन पर नियंत्रण रखने के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहो। जब तुम इस तरह उनका विश्लेषण करते हो और उन पर नियंत्रण रखते हो, तो तुम जो कुछ भी करोगे, उसमें कोई समस्या नहीं रह जाएगी, क्योंकि तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव विफल हो गया होगा, और अब प्रकट नहीं होगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। परमेश्वर के ये वचन पढ़कर मुझे अभ्यास का मार्ग भी मिला। भले ही मुझे अगुआ चुन लिया गया था, लेकिन मेरा आध्यात्मिक कद नहीं बदला था। ऐसा नहीं था कि इस कर्तव्य को निभाने भर से मैं सारे सत्य एकाएक समझ गई थी, और हर चीज की थाह पाकर सभी मसले हल कर सकती थी। मुझे अपनी कमियाँ स्वीकार करनी होंगी— अगर मैं कोई समस्या हल नहीं कर पाती, तो मुझे ईमानदारी से मान लेना चाहिए कि मैं नहीं समझ पाई। फिर मैं समस्या सुलझाने के लिए दूसरों के साथ मिलकर सत्य को खोज सकूँगी। बाद की एक सभा में कलीसिया की अगुआओं ने संगति के लिए अनसुलझी समस्याएँ सामने रखीं। उस वक्त मुझे थोड़ी चिंता हुई। अगर मैं उनकी समस्याएँ नहीं सुलझा पाई, तो क्या वे मेरा सम्मान करना छोड़ देंगी? इसलिए मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, कि वह मेरा रवैया सुधारकर मुझे अपनी कमियाँ स्वीकार करने में सक्षम बनाए। भले ही वे मेरी असली क्षमता देखकर मेरा सम्मान करना छोड़ दें, फिर भी मुझे सत्य का अभ्यास करना होगा। अगर हम अपनी सारी समस्याएँ सुलझा लें और हमारा काम सुचारु ढंग से चलता रहे, तो यह ठीक है। इसके बाद, मैंने उतनी ही संगति की, जितना मैं समझती थी, और अगर मुझे समस्याएँ सुलझाने में दिक्कत होती, तो मैं इस बारे में अपने भाई-बहनों को बता देती, और हम साथ मिलकर समाधान खोजते। इस तरह अभ्यास करने से मुझे बहुत राहत मिली। धीरे-धीरे मैंने अपने नाम और रुतबे से चिपके रहना छोड़ दिया, और सभाओं में बहुत सुकून महसूस करने लगी। मुझे अकसर लगता कि परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध करके मेरा मार्गदर्शन कर रहा है, और मैं काम में समस्याएँ पहचानकर परमेश्वर के वचनों के जरिये उन्हें सुलझाने के तरीके ढूँढ़ने में कामयाब होने लगी। इस प्रकार अपना कर्तव्य निभाकर मैंने खुद को स्थिर और शांत महसूस किया।

बाद में कुछ और बातें हुईं, जिनके कारण मैंने और अधिक गहराई से आत्म-चिंतन किया। 2019 में मैंने कलीसिया में संपादन का काम सँभाला। उपयुक्त सिद्धांत तय करने के लिए हमें कुछ कलीसियाओं के भाई-बहनों का एक अध्ययन-समूह बनाना था। मैंने इससे पहले कभी इतना बड़ा अध्ययन-समूह नहीं बनाया था, और मैं बहुत तनाव महसूस कर रही थी—ऐसा लग रहा था, मानो मेरे सीने पर बहुत बड़ा पत्थर रखा हो। मुझे चिंता हो रही थी कि अगर मैं स्पष्ट संगति नहीं कर पाई, तो मेरा नाम खराब हो जाएगा। एक बार समूह के अगुआ ने एक नए बन रहे अध्ययन-समूह के लिए संगति में मुझे सक्रियता से भाग लेने को कहा। मेरा कलेजा मुँह को आ गया गया— यह थोड़े-से लोगों की कोई छोटी-मोटी सभा नहीं थी। अगर इतने सारे भाई-बहनों के सामने मैं स्पष्ट संगति नहीं कर पाई, तो क्या होगा? वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे यह सोचेंगे कि मुझ जैसी अयोग्य व्यक्ति को संपादन का काम कैसे दे दिया गया? मैंने इस बारे में जितना सोचा, उतनी ही बेचैन हो गई। सभा से पहले मैंने सिद्धांतों को बार-बार पढ़ा। मैंने अपना दिमाग लड़ाया, कि कैसे उन पर स्पष्ट और नियोजित ढंग से संगति करूँ। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना कर उससे अपने दिल को शांति और सुकून देने की विनती की। लेकिन सभा का समय आते ही मैं फिर बुरी तरह घबरा गई। मैं संगति करने की अपनी बारी का पल-पल इंतजार करने लगी। मैं सिद्धांतों के बारे में चिंतन करने की हालत में नहीं थी। पता नहीं, उस सभा से मैंने कैसे पार पाई। मुझे बहुत तनाव महसूस हुआ—मैं उस तरह का अध्ययन-समूह बिलकुल आयोजित नहीं करना चाहती थी। मैंने मन-ही-मन सोचा : "शायद मुझे अध्ययन-समूह न बनाकर सबको अपने आप पढ़ने देना चाहिए। इस तरह मुझे खराब संगति करने और सबके सामने शर्मिंदा होने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी।" मैंने अगुआ के पास जाकर कहा कि मौजूदा रूप में अध्ययन-समूह प्रभावहीन है। आखिरकार समूह रद्द कर दिया गया। किसी दूसरे को मेरे घिनौने इरादों का पता नहीं था, लेकिन परमेश्वर देख रहा था। बाद में परमेश्वर ने मेरे लिए एक योजना तैयार की। एक बहन ने मुझसे कई बार पूछा : "आप सिद्धांतों की जाँच करने के लिए भाई-बहनों का एक अध्ययन-समूह क्यों नहीं बनातीं?" उसने यह भी कहा कि वह ऐसे अध्ययन-समूह में अवश्य भाग लेना चाहेगी। उसकी यह बात सुनकर मैंने खुद को थोड़ा दोषी महसूस किया। मैं कलीसिया के संपादन-कार्य की प्रभारी थी। सिद्धांतों के अध्ययन में अपने भाई-बहनों की अगुआई करना मेरा कर्तव्य था। लेकिन मैंने अपना नाम और रुतबा बचाने के लिए दूसरों की जरूरतों का जरा भी ध्यान न रखकर या यह सोचे बिना कि कलीसिया के कार्य के लिए क्या उत्तम है, अध्ययन-समूह रद्द कर दिया। क्या मैं भाई-बहनों को नुकसान नहीं पहुँचा रही थी? मैं बहुत स्वार्थी और नीच थी!

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक बहुत प्रेरक अंश देखा, जिसमें वह मसीह-विरोधियों को उजागर करता है। रुतबे और शोहरत को इतना महत्त्व देकर मैं दरअसल अपना मसीह-विरोधी स्वभाव ही प्रकट कर रही थी। परमेश्वर के वचन कहते हैं : "अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा के प्रति मसीह-विरोधियों का चाव सामान्य लोगों से कहीं ज्यादा होता है, और यह एक ऐसी चीज है जो उनके स्वभाव और सार के भीतर होती है; यह कोई अस्थायी रुचि या उनके परिवेश का क्षणिक प्रभाव नहीं होता—यह उनके जीवन, उनकी हड्डियों में समायी हुई चीज है, और इसलिए यह उनका सार है। कहने का तात्पर्य यह है कि मसीह-विरोधी जो कुछ भी करता है, उसमें उनका पहला विचार अपनी हैसियत और प्रतिष्ठा का होता है, और कुछ नहीं। मसीह-विरोधी के लिए हैसियत और प्रतिष्ठा उनका जीवन और उनके जीवन भर का लक्ष्य होती हैं। वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें उनका पहला विचार यही होता है : 'मेरी हैसियत का क्या होगा? और मेरी प्रतिष्ठा का क्या होगा? क्या ऐसा करने से मुझे प्रतिष्ठा मिलेगी? क्या इससे लोगों के मन में मेरी हैसियत बढ़ेगी?' यही वह पहली चीज है जिसके बारे में वे सोचते हैं, जो इस बात का पर्याप्त प्रमाण है कि उनमें मसीह-विरोधियों का स्वभाव और सार है; अन्यथा वे इस प्रकार प्रयास नहीं करते" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपने व्यक्तिगत यश के बदले उन हितों के साथ धोखा तक कर देते हैं (भाग दो)')। परमेश्वर के वचनों के पैमाने पर खुद को मापकर मैं समझ गई कि शोहरत और रुतबे को लेकर मेरी हाल की सनक मेरे मसीह-विरोधी स्वभाव का प्रदर्शन थी। अध्ययन-समूह बनाते समय मुझे चिंता हुई कि सिद्धांतों पर मेरी पकड़ मजबूत नहीं है और अगर मैं अच्छे ढंग से संगति नहीं कर पाई, तो दूसरे मुझे नीची नजर से देखेंगे। अपने को अच्छी तरह से अभिव्यक्त करने की चिंता से मैंने सभा से पहले सिद्धांतों को बार-बार पढ़ा। लेकिन वह सारी कड़ी मेहनत सत्य और सिद्धांतों को समझने या भाई-बहनों को कुछ व्यावहारिक और उपयोगी बातें समझाने के लिए नहीं, बल्कि दूसरों की सराहना पाने के लिए अपनी छवि को एक "काबिल प्रोफेशनल" के रूप में पेश करने के लिए थी। मैंने शोहरत और रुतबे को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया, और सभाओं को केवल अपनी शोहरत बढ़ाने के एक मौके के रूप में देखा। मैं अच्छी तरह जानती थी कि यह अध्ययन का एक असरदार तरीका है, लेकिन मैं ठीक ढंग से संगति न कर पाने पर अपना नाम खराब होने से डरती थी, इसलिए मैंने काम से जी चुराया, यहाँ तक कि अध्ययन-समूह को रद्द करने के लिए बहाने भी बनाए। मैं चौबीसों घंटे यही सोचती थी कि अपना नाम खराब होने से कैसे बचाऊँ, और दूसरों की सराहना कैसे पाऊँ। मैंने बाकी हर चीज पर निजी फायदे को प्राथमिकता दी। परमेश्वर के आदेश के लिए मेरे दिल में कोई स्थान नहीं था, मैंने यह नहीं सोचा कि मेरे भाई-बहनों के लिए किस तरह से काम करना सर्वोत्तम होगा, और परमेश्वर के घर के कार्य के लिए कौन-सा तरीका उत्तम होगा। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी! मैं मसीह-विरोधी जैसी कोई दुष्टता करती भले ही न दिखूँ, लेकिन सार रूप में मेरा स्वभाव उससे अलग नहीं था। मैं मसीह-विरोधी के रास्ते पर चल रही थी। अगर मेरे पास रुतबा होता, तो मैं यकीनन मसीह-विरोधी जैसा ही बर्ताव करती, और निजी हितों की खातिर परमेश्वर के घर के कार्य में बाधा और रुकावट डालती। मैं हर प्रकार की दुष्टता करती और परमेश्वर द्वारा हटा दी जाती। इन बातों का एहसास होने पर मुझे बहुत डर लगा और पछतावा भी हुआ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, शैतान ने मुझे बेहद भ्रष्ट कर दिया है। मैं हमेशा शोहरत और रुतबे को बचाए रखने की कोशिश करती हूँ, और मैं अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदार या समर्पित नहीं रही हूँ। हे परमेश्वर, अब मैं तुमसे विद्रोह नहीं करना चाहती—मैं प्रायश्चित करना चाहती हूँ। मुझे प्रबुद्ध करो, मेरा मार्गदर्शन करो!"

खोज करते समय मेरी नजर परमेश्वर के वचनों के एक वीडियो-पाठ पर पड़ी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके प्रति खुला रुख अपनाना चाहिए और उनके बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। सत्य में प्रवेश करने के लिए खुलकर बोलना सीखना सबसे पहला कदम है, और यह पहली बाधा है, जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक: दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना, परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग भी यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी निजी प्रतिष्ठा, अपने मान-सम्मान और ओहदे की खातिर, कुछ भी ढकने की, कोई संशोधन करने की, या कोई भी चालाकी करने की आवश्यकता नहीं है, और यह बात तुम्हारे द्वारा की गई किसी भूल पर भी लागू होती है; ऐसा व्यर्थ कार्य अनावश्यक है। यदि तुम ये सारी चीज़ें नहीं करते हो, तो तुम आसानी से और बिना थकान के, पूरी तरह से प्रकाश में, जियोगे। केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर की प्रशंसा पा सकते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। मैंने देखा, परमेश्वर चाहता है कि हम सत्य का अभ्यास कर ईमानदार बनें। हमें अपनी कमजोरियों, कमियों और भ्रष्टता पर खुलकर बोलना चाहिए। हमें चीजें मन में नहीं रखनी चाहिए या फिर लोगों या परमेश्वर के आगे स्वांग नहीं रचना चाहिए। हमें अपनी सारी कथनी और करनी परमेश्वर की जाँच के लिए प्रस्तुत करने को तैयार रहना चाहिए। तभी हमें परमेश्वर की सराहना मिल पाएगी। सच्चाई यह है कि मैं चाहे कितना भी वेश बदल लूँ, अपना आध्यात्मिक कद नहीं बदल सकती। भले ही मैं अपने भाई-बहनों को मूर्ख बनाकर उनकी इज्जत पा लूँ, लेकिन मैं परमेश्वर को मूर्ख नहीं बना सकती। मुझे खुले मन से परमेश्वर की जाँच के लिए प्रस्तुत होकर एक ईमानदार इंसान बनना चाहिए।

बाद में हमने कुछ कलीसियाओं के भाई-बहनों के साथ मिलकर अध्ययन के लिए और सभाएँ कीं। मैं चाहती थी कि ये सभाएँ असरदार हों, और उनसे मेरे भाई-बहनों की वास्तविक और व्यावहारिक मदद हो सके, इसलिए जब भी मैं अध्ययन-सामग्री बनाने लगती, तभी मैं परमेश्वर से प्रार्थना कर उसका मार्गदर्शन माँगती। जिन सवालों के बारे में मैं आश्वस्त न होती, उन्हें चर्चा के लिए समूह के सामने प्रस्तुत करती। पिछली सभाओं में मैं अपना दिमाग खपाकर दूसरों से सम्मान पाने के तरीके खोजती थी, नतीजा यह होता कि मैं बुरी तरह घबराकर थक जाती। अब मैं रुतबे के पीछ नहीं भागती, न ही इज्जत बचने की कोशिश करती हूँ, इसलिए अब मैं बड़ा सुकून और आजादी महसूस करती हूँ। मुझे यह भी एहसास हुआ है कि सभा के असरदार होने के लिए सबके सहयोग की जरूरत पड़ती है, और सबसे अहम है पवित्र आत्मा द्वारा प्रबुद्ध और प्रकाशित होना। जब मैंने सभाओं को सही रवैये से लेना शुरू किया, तो मैंने महसूस किया कि परमेश्वर मुझे प्रबुद्ध कर मेरा मार्गदर्शन कर रहा है। कभी-कभी संगति के दौरान जब सभी लोग अपने-अपने विचार व्यक्त करते, तो मुझे लगता कि मैंने सभा से बहुत-कुछ हासिल किया है। इस अनुभव से मुझे महसूस हुआ कि रुतबे और प्रतिष्ठा के पीछे भागना कितनी बड़ी बेवकूफी है। मैं खुद को यातना दे रही थी और ऊपर से, मेरे द्वारा कर्तव्य न निभाने से परमेश्वर भी असंतुष्ट था। परमेश्वर के वचन के अनुसार अभ्यास करके, परमेश्वर का सृजित प्राणी बनने का प्रयास करके और ईमानदारी और सच्चाई से अपना कर्तव्य निभाकर ही मैं आनंद के साथ चिंतामुक्त जीवन जी सकती हूँ।

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