अपने तानाशाही तरीकों का त्याग

24 जनवरी, 2022

चेंग नुओ, फ्रांस

दरअसल, जब अगुआ ने बहन लिन को मेरे साथ नवागतों की कलीसिया के सिंचन का काम सौंपा, तो मैं बहुत खुश नहीं थी। मुझे लगा कि मैंने अपने दम पर दो कलीसियाओं का प्रबंधन किया है, फिर मुझे सिर्फ एक कलीसिया के प्रबंधन के लिए पार्टनर की क्या जरूरत? कोई भी उपलब्धि निश्चित रूप से हम दोनों की समझी जाएगी, तब मैं सुर्खियों में नहीं रहूँगी, कोई मेरा सम्मान नहीं करेगा। अगर मैं इसे खुद सँभालती, तो भाई-बहन मुझे काबिल समझते कि मैंने अकेले इतना कुछ किया। मैं उस कार्य का आधार होती, मेरे बिना काम न चलता। मैं सच में चमक पाती। इसके अलावा, पार्टनर होने पर, मेरा निर्णय अंतिम नहीं हो सकता, तो क्या तब मेरे पास आधी शक्ति नहीं होगी? मुझे हर बात पर अपनी पार्टनर की राय लेनी होगी, और मैं अयोग्य दिखूँगी। ये सोचकर मैं वास्तव में इस व्यवस्था की प्रतिरोधी हो गई और मैंने सोचा, अगुआ ने कोई गलती तो नहीं कर दी, या वो मुझे कम तो नहीं समझती। मैं जानती थी कि अन्य सभी कलीसियाओं में दो प्रभारी थे, लेकिन मुझे लगा कि मैं विशेष रूप से सक्षम हूँ, दूसरों की तरह नहीं हूँ। मैं बहन लिन को नजरअंदाज कर रही थी, मैं जो करती, उसमें से बहुत कुछ उसे नहीं बताती। एक बार कुछ सदस्यों के चले जाने के कारण दो समूहों को मिलाकर एक बनाना था। मुझे लगा, इतनी आसान चीज मैं खुद ही कर सकती हूँ। मैं पहले वह सब सँभाल चुकी थी, इसलिए चर्चा की कोई जरूरत नहीं थी। मैंने आगे बढ़कर उन्हें मिला दिया। जब बहन लिन ने पूछा तो मैंने विश्वास के साथ कहा कि मैंने काम कर दिया है। एक और बार, अगुआ ने हमसे पता करने को कहा कि सुसमाचार साझा करने के लिए कौन-सा नवागत सही होगा, तो मैंने खुद ही अच्छे उम्मीदवारों का एक समूह बना दिया। जब वे उस काम के सिद्धांत सीख रहे थे, तो मैंने देखा कि उनमें से एक अपने काम में व्यस्त रहता है। मैंने बिना चर्चा किए उसे समूह से बाहर कर दिया और कर्तव्य निभाने की उसकी पात्रता रद्द कर दी। जब सुसमाचार के कार्य के प्रभारी भाई झांग को इसका पता चला, तो वे मुझसे यह कहते हुए निपटे कि मैं तानाशाह और स्वेच्छाचारी हूँ, और अपने पार्टनर को शामिल किए बिना निर्णय लेती हूँ। उस समय मैंने सिर्फ इतना कहा कि आप सही हैं, लेकिन मुझे दिल से विश्वास था कि मेरी भ्रष्टता इतनी बुरी नहीं है।

इस तरह की चीजें कई बार होने पर एक दिन बहन लिन ने मुझे खोजा और कहा, "हम पार्टनर हैं। भले ही आप अपने दम पर काम कर सकती हों, फिर भी आपको मुझे बताना चाहिए, ताकि मुझे भी पता रहे कि हमारा काम कैसा चल रहा है। बहन झांग हमेशा अपने पार्टनर के साथ चर्चा करने का प्रयास करती हैं। वे मिलकर हर चीज पर बात करते हैं।" मैंने सोचा, "अगर मैं आपको बताऊँगी तो आप मेरी सलाह मान लेंगी, क्या ये बस औपचारिकता नहीं? लोग इसलिए पूछते हैं, क्योंकि वे नहीं जानते कि कोई चीज कैसे करनी है। जब मैं ठीक से प्रबंधन कर सकती हूँ, तो क्यों पूछूँ? पार्टनर का होना बड़ी परेशानी है, हर चीज पर आपसे बात करूँ। ऐसा लगेगा, जैसे मैं अफसर को रिपोर्ट करने वाली मातहत हूँ, इससे मैं अयोग्य दिखूँगी।" उन्होंने मुझे इस बारे में और कई बार कहा, पर मैं उसी तरह काम करती रही। कभी-कभी वे मुझसे कुछ खास बातें पूछतीं, पर मैं अनदेखा कर देती। मैं सोचती थी कि वे उन चीजों के बारे में पूछ रही हैं जिन पर हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं, इसलिए मैं उन्हें नजरअंदाज करती हूँ। काम की चर्चा के दौरान मैं उन्हें बार-बार ठंडी सांसें लेते देखती, और सोचती कि क्या वे मेरे कारण बेबस महसूस करती हैं। मुझे थोड़ा बुरा भी लगता। पर फिर मुझे लगता कि मैंने उनके साथ कुछ नहीं किया, इसलिए मैंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा, "आप इस कलीसिया का अकेले ही प्रबंधन कर सकती हैं, है ना?" उस समय मैं नहीं समझ पाई कि उन्होंने मुझसे ये पूछा, और सोचा कि कहीं उनका तबादला तो नहीं होने वाला। अगर ऐसा हुआ तो बहुत अच्छा होगा, मुझे उन्हें रिपोर्ट नहीं करनी होगी, तब मैं प्रभारी बन सकूँगी। मैंने बस कहा, "हाँ कर सकती हूँ।" वे एक शब्द नहीं बोलीं। बाद में पता चला कि वे सच में मेरे कारण बेबस महसूस करती थीं, मानो वे कुछ न कर सकती हों, और वे इस्तीफा देना चाहती थीं। तब मुझे एहसास हुआ कि मेरा रवैया उनके प्रति अच्छा नहीं था, लेकिन मैंने ज्यादा आत्म-चिंतन नहीं किया।

अगुआ ने बहन लिन को दूसरे प्रोजेक्ट पर ध्यान लगाने को कहा, इसलिए कलीसिया के अधिकतर कामों के लिए मैं जिम्मेदार थी। मैं अंदर-ही-अंदर खुश थी, सोचती थी कि आखिरकार मैं अपने हुनर दिखाकर अपना हुक्म चला सकती हूँ। लेकिन जैसा मैंने सोचा था वैसा नहीं हुआ। मेरा काम स्पष्ट रूप से बहुत कठिन हो गया, और जब भाई-बहनों को अपने कार्य में कोई समस्या आती, तो मैं सार न समझ पाने की वजह से उसे जड़ से हल न कर पाती। कुछ समय बाद, अधिकाधिक नवागतों ने नियमित रूप से सभा में आना बंद कर दिया, अगुआ ने मुझसे कहा कि मेरा काम सबसे खराब चल रहा है। बहन लिन ने भी कई बार मेरी समस्याओं को बताते हुए कहा कि मैं अकेली काम करती हूँ, दूसरों से सलाह नहीं लेती, चीजों में सत्य की खोज नहीं करती। मैं उस समय बहुत अड़ियल थी, और मैंने इसे अनसुना किया, आत्म-चिंतन भी नहीं किया। मेरी हालत बद से बदतर होती गई, कुछ समझ आना बंद हो गया। एक दिन अगुआ ने कहा कि वे मेरे साथ मेरी हालत के बारे में बात करना चाहती हैं, उन्होंने दूसरी बहन के साथ एक बैठक निश्चित कर ली। मैंने सुना था कि उस बहन के काम का प्रदर्शन खराब है, मैंने सोचा, अगुआ को ज़रूर लगा होगा कि मैं भी उसके जैसी ही हूँ। मैं एक तरह से डर गई थी। क्या मेरी समस्या वाकई इतनी खराब है? क्या मेरा काम छिनने वाला है? जब मैं पहले दो कलीसियाओं का प्रबंधन कर रही थी, तब सब ठीक चल रहा था, और अब सिर्फ एक कलीसिया में, जाना-पहचाना काम करते हुए, जो मैंने पहले किया था, मेरा काम अच्छा क्यों नहीं था? मेरे अंदर जरूर कोई समस्या है। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की, और उससे मार्गदर्शन करने की विनती की कि मैं अपनी समस्या पर चिंतन कर उसे समझ पाऊँ। फिर एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "जब दो लोग किसी काम के लिए ज़िम्मेदार होते हैं, और उनमें से एक में मसीह-विरोधी सार होता है, तो उस व्यक्ति में क्या प्रदर्शित होता है? चाहे कुछ भी काम हो, वह काम हर स्थिति में उसी को करना है, उसी को सवाल पूछने होते हैं, उसी को समस्याएँ सुलझानी होती हैं, उसी को समाधान ढूँढ़ना होता है। और ज्यादातर समय वे अपने साथी को कुछ बताते नहीं। उनकी नजर में उनका साथी क्या होता है? उनका सहायक नहीं, बल्कि वह सिर्फ दिखावे के लिए होता है। मसीह-विरोधी की नजर में, वह उनका साथी होता ही नहीं है। जब भी कोई समस्या आती है, तो मसीह-विरोधी अपने मन में उस पर विचार करते हैं, उस पर चिन्तन करते हैं, और एक बार जब वे इस बारे में निर्णय कर लेते हैं कि कार्य कैसे करना है, तो बाकी लोगों को सूचित कर देते हैं कि यह इस तरह से किया जाएगा, उस पर किसी को सवाल उठाने का हक नहीं होता। दूसरों के साथ उनके सहयोग का सार क्या होता है? सच यह है कि सारे अधिकार उन्हीं के पास होते हैं। वे अकेले ही काम करते हैं, बोलना-चालना, समस्या सुलझाना और अपने ऊपर दायित्व लेना, सब खुद ही करते हैं, उनके साथी तो सिर्फ दिखावे के लिए होते हैं। किसी के साथ काम करने योग्य नहीं होने पर क्या वे अपने काम पर दूसरों के साथ संगति करेंगे? नहीं। कई मामलों में, बाकी लोगों को तभी पता चलता है जब वे उस काम को पूरा कर चुके होते हैं या उसे सुलझा चुके होते हैं। दूसरे लोग उनसे कहते हैं, 'आपको हर समस्या पर हमारे साथ चर्चा करनी चाहिए। आप उस व्यक्ति से कब निपटे? आपने उसे कैसे संभाला? इस बारे में हमें कैसे पता नहीं चला?' वे न तो इन बातों का कोई स्पष्टीकरण देते हैं और न ही उस पर कोई ध्यान देते हैं; उनके लिए, उनके साथी का कोई फायदा नहीं है। जब कुछ होता है, तो वे उस बारे में सोचकर अपना मन बना लेते हैं और जैसा ठीक समझते हैं वैसा ही करते हैं। उनके आस-पास चाहे कितने भी लोग हों, उनके लिए मानो उनका कोई अस्तित्व ही नहीं होता। मसीह विरोधी के लिए, वे हवा की तरह होते हैं। इस तरह, उनके सहयोग से क्या कुछ वास्तविक निकलकर आता है? नहीं, वे सिर्फ लापरवाही से काम रहे होते हैं, एक भूमिका निभा रहे होते हैं। लोग उनसे कहते हैं, 'जब कोई समस्या आती है तो तुम सबके साथ संगति क्यों नहीं करते?' जिस पर वे उत्तर देते हैं, 'वे क्या जानते हैं? मैं टीम अगुआ हूँ, यह तय करना मेरा काम है।' दूसरे कहते हैं, 'और तुमने अपने साथी के साथ संगति क्यों नहीं की?' वे उत्तर देते हैं, 'मैंने उसे बताया था, लेकिन उसकी कोई राय ही नहीं है।' वे अपने साथी के राय न होने या खुद से सोचने के काबिल न होने को एक बहाने की तरह इस्तेमाल करते हैं ताकि इस तथ्य को गोलमोल कर दें कि वे खुद ही कानून बने बैठे हैं। वे इस पर जरा-सा भी आत्मनिरीक्षण नहीं करते, सत्य की स्वीकृति की तो बात ही छोड़ दो—वह तो असंभव ही है। यह है मसीह विरोधी की प्रकृति की समस्या है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। यह वास्तव में बहुत ही मर्मस्पर्शी था। ऐसा लगा जैसे परमेश्वर हर वचन से मुझे उजागर कर रहा हो। अंतत: मैंने देखा कि हर चीज में हमेशा अपनी चलाने की चाहत रखना, बहन लिन से ऐसे पेश आना जैसे उसका कोई वजूद ही न हो, इस बहाने से उसकी सलाह न लेना कि मैं अकेले ही काम कर सकती हूँ, तानाशाह होना और मसीह-विरोधी का मार्ग अपनाना था। मैं अपना काम हमेशा इसी तरह करती आई थी। जब उन दो समूहों को मिलाया गया, तो मैंने बहन लिन से चर्चा किए बिना ही काम कर लिया। मैंने उसे यह तक नहीं बताया कि काम हो गया। जब मैंने देखा कि एक नवागत अपने काम में व्यस्त है, तो मैंने कार्रवाई के सर्वोत्तम तरीके पर चर्चा नहीं की, बल्कि सीधे उसे समूह से बाहर कर दिया और उसका काम छीन लिया। जब बहन लिन ने प्रोजेक्ट और नए विश्वासियों के बारे में पूछा, तो धैर्य से जवाब देने के बजाय मैं नाराज हो गई, मुझे लगा यह अधिकारी को रिपोर्ट करने जैसा है, मानो मैं उससे नीचे के पद पर हूँ, और मैं उसकी उपेक्षा करती रही। हमेशा अपनी बात मनवानी चाही, अधिकार रखना चाहा। मैं अपने काम में निरंकुश और स्वेच्छाचारी थी, किसी के साथ काम नहीं करना चाहती थी, मैंने उन्हें बेबस कर दिया। यह कर्तव्य निभाना नहीं था। यह परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित करना और शैतान के दास जैसा बर्ताव था।

बाद में मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "कुछ मसीह-विरोधी कहते हैं, 'जब मेरे सामने कोई समस्या आती है, तो मैं निर्णय लेना पसंद करता हूँ। मैं किसी और के साथ उस पर चर्चा करना पसंद नहीं करता—इससे मैं बेवकूफ और अक्षम दिखूंगा!' यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? क्या यह अहंकारी स्वभाव है? उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ सहयोग और चर्चा करना, उनसे जवाब चाहना और सवाल पूछना, उनकी गरिमा को कम करता है, अपमानजनक है, उनके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाता है। तो अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें पारदर्शिता नहीं आने देते, न ही वे इस बारे में किसी को बताते हैं, उनसे उस पर चर्चा करना तो दूर की बात है। उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ चर्चा करना खुद को अक्षम दिखाना है; हमेशा लोगों की राय माँगने का मतलब है कि वे मूर्ख हैं और अपने आप सोचने में असमर्थ हैं; उन्हें लगता है कि किसी कार्य को पूरा करने में या किसी समस्या को सुलझाने में दूसरों के साथ काम करने से वे नाकारा दिखने लगेंगे। क्या उनका यह दृष्टिकोण हास्यास्पद नहीं है? और क्या यह उनका भ्रष्ट स्वभाव है? जब उनका दिमाग इस तरह के स्वभाव से नियंत्रित होता है, तो वे दूसरों के साथ अच्छी तरह से काम नहीं कर सकते। क्या यहाँ अहंकार और आत्माभिमान शामिल है? बेशक। हमेशा यही सोचना कि वे सही हैं, उन्हें ही प्रभारी होना चाहिए और निर्णय लेना चाहिए—क्या यह उनकी मानसिकता है? एक ओर, यह उनकी भ्रष्ट मानसिकता और प्रेरणा है; लेकिन सबसे बढ़कर, यह उनका भ्रष्ट स्वभाव है। अपने भ्रष्ट स्वभाव के हिस्से के रूप में, वे मानते हैं कि दूसरों के साथ काम करना अपनी ताकत को कम और खंडित करना है, जब काम दूसरों के साथ साझा किया जाता है, तो उनकी अपनी शक्ति घट जाती है। जहाँ उनकी बात का वजन घटता है, वहाँ उनकी ताकत भी कम हो जाती है, जो उनके लिए एक जबरदस्त नुकसान होता है। और इसलिए, चाहे वे किसी भी समस्या का सामना करें, अगर उन्हें मौका मिलता है और वे इसे स्वयं करने में सक्षम होते हैं, तो वे किसी और के साथ इस पर चर्चा नहीं करते, दूसरों से चर्चा करने के बजाय, वे गलतियाँ करना पसंद करते हैं, किसी और के साथ सत्ता साझा करने के बजाय वे गलतियाँ करना पसंद करते हैं, अपने काम में किसी और का हस्तक्षेप बर्दाश्त करने के बजाय, वे बर्खास्त होना पसंद करते हैं। ऐसा होता है मसीह-विरोधी। वे किसी और के साथ अपनी सत्ता साझा नहीं करते, फिर भले ही परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचे, भले ही परमेश्वर के घर के हित दांव पर लग जाएँ। उन्हें लगता है कि जब वे कोई काम कर रहे होते हैं या किसी मामले को संभाल रहे होते हैं, जब तक उन्हें सत्य की समझ है और वे स्वयं उस काम को करने में सक्षम हैं, तो उन्हें किसी और के साथ मिलकर काम करने की आवश्यकता नहीं है, न ही उन्हें सिद्धांत खोजने की आवश्यकता है; वे सोचते हैं कि उन्हें उस काम को अकेले ही पूरा करना चाहिए, तभी वे काबिल कहलाएँगे। इस बहाने की आड़ में, वे अपना लक्ष्य साधते हैं : वह अपने प्रचार के लिए, विशिष्ट दिखने के लिए और सत्ता पाने के लिए सब-कुछ करते हैं। इस तरह मसीह-विरोधी अपनी सत्ता के चिपके रहते हैं और उसे कभी छोड़ते" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। जब मैंने इसे पढ़ा, तो मैंने सोचा कि मेरे इतने दबंग होने और दूसरों के साथ काम करना न चाहने का कारण मेरी यह चिंता थी कि अगर कलीसिया के काम में ज्यादा लोग शामिल होंगे, तो मेरी ताकत बँट जाएगी मैं अकेली प्रभारी नहीं रह पाऊँगी, हुक्म नहीं चला पाऊँगी, न ही दूसरों की प्रशंसा पाऊँगी। बहन लिन के साथ काम करते हुए, चूँकि मैं पहले भी नवागतों की कलीसिया की जिम्मेदारी संभाल चुकी थी, मुझे लगा मैं अनुभवी हूँ, इसे अच्छे से समझती हूँ, और सक्षम हूँ। मैंने इसका फायदा उठाया और अहंकारी हो गई, मुझे लगा मैं खास हूँ और मुझे ऊँचे पायदान पर होना चाहिए। वे चाहती थीं कि मैं कुछ करने से पहले उन्हें बता दूँ, लेकिन मुझे लगा कि उनके साथ चीजों पर बात करने से मैं अक्षम दिखूँगी, इसलिए मैं चीजों को खुद ही कर देती। कभी-कभी मैं सोचती कि क्या मुझे उनकी सलाह लेनी चाहिए, लेकिन दिखावा करने और दूसरों की प्रशंसा हासिल करने के लिए मैंने यह बहाना बनाया कि वो क्या राय देंगी, वैसे भी मुझसे सहमत ही होंगी। कलीसिया ने व्यवस्था की थी कि हम दोनों मिलकर कलीसिया का काम करें। उन्हें हर प्रकार के काम में हिस्सा लेने, उसका विवरण और प्रगति जानने का हक था, लेकिन मैंने अकेले काम करने के लिए उन्हें किनारे कर दिया, बोलने और चीजों को जानने का अधिकार छीन लिया, उन्हें पुतला बना दिया। मैंने सारा काम अपने हाथ में रखा, उन्हें भाग नहीं लेने दिया। क्या मैं अपना साम्राज्य स्थापित करने वाली मसीह-विरोधी नहीं थी? मैंने बड़े लाल अजगर की तानाशाही और उसके चरम नियंत्रण का सोचा, लोगों को बिना सवाल किए उसकी बात सुननी होती है। और मैं चाहती थी हर काम का नियंत्रण मेरे हाथ में हो, दबंग थी, दूसरों के साथ चर्चा नहीं करना चाहती थी। मैं कलीसिया में तानाशाह की तरह थी और अंतिम नियंत्रण रखती थी। मैं बड़े लाल अजगर से कैसे अलग थी? जितना अधिक मैंने इसके बारे में सोचा, दूसरों के साथ सहयोग करने से इनकार करने की समस्या उतनी ही गंभीर लगी, और मैं एक तरह से डर गई। कलीसिया में सत्ता मसीह और सत्य के पास है। चाहे कुछ भी हो जाए, हमें सत्य की तलाश कर सिद्धांत के अनुसार काम करना चाहिए। लेकिन मैं चाहती थी कि जिस कलीसिया की कमान मैं सँभालूँ, उसमें मेरा निर्णय अंतिम हो। क्या मैं पहाड़ी का राजा नहीं बनना चाहती थी? सत्य का अभ्यास कैसे किया जाए और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा कैसे की जाए, ये सोचने के बजाय मैं सोच रही थी मेरी इच्छाएँ पूरी होंगी या नहीं। अंत में उस कलीसिया के कार्य में कोई प्रगति नहीं हुई जिसकी मैं अगुआई कर रही थी, बल्कि मैं पूरी तरह से रास्ता रोके खड़ी थी। परमेश्वर ने मुझे वह कार्य करने के लिए इस आशा से उन्नत किया था कि मैं सत्य का अनुसरण करूँगी, भाई-बहनों के साथ अच्छी तरह काम करूँगी, नए विश्वासियों का सिंचन करूँगी, ताकि वे जल्दी से सच्चे मार्ग पर पैर जमा सकें। लेकिन मैंने इसे दिखावा करने, अपनी शक्ति का प्रयोग करने और दूसरों से सम्मान पाने का अवसर समझा। मैं हमेशा घमंडी रही, अपने कौशलों का दिखावा करती रही। इससे न केवल परमेश्वर के घर के काम में रुकावट आई, बल्कि भाई-बहनों को भी चोट पहुँची, साथ ही इससे मेरे जीवन को भी नुकसान हुआ।

परमेश्वर के वचनों का एक वीडियो-पाठ देखकर मेरे गलत विचार बदल गए। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "सामँजस्यपूर्ण सहयोग का मतलब होता है दूसरों को अपनी बात कहने देना और उन्हें वैकल्पिक सुझाव प्रस्तुत करने का अवसर देना, इसका अर्थ होता है कि दूसरों की मदद और सलाह को स्वीकारना सीखना। कभी-कभी लोग कुछ नहीं कहते, तो तुम्हें उन्हें अपनी राय देने के लिए प्रेरित करना चाहिए। किसी भी समस्या में सत्य-सिद्धांतों की तलाश कर एक आम राय बनानी चाहिए । इस तरह से काम करके तुम एक सामँजस्यपूर्ण सहयोग का वातावरण बना सकते हो। एक अगुआ के तौर पर अगर तुम हर समय अपने आपको दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी अधिकारी की तरह पेश आओगे, अपने पद के नशे में रहोगे, हमेशा योजनाएँ बनाते रहोगे, अपने तरीके से संचालन करते रहोगे, सफलताअ और तरक्की के लिए संघर्ष करते रहोगे, तो फिर यह परेशानी वाली बात है : इस तरह से किसी सरकारी अधिकारी की तरह व्यवहार करना बेहद जोखिम भरा है। अगर तुम हमेशा इसी तरह से कार्य करते हो, और तुम किसी और के साथ सहयोग नहीं करना चाहते, जिससे तुम्हारा अधिकार दूसरों में बिखर जाता है, तुम्हारी चमक चोरी हो जाती है, तुम्हारे सिर से प्रभामंडल छिन जाता है—अगर तुम सारी चीजें अपने तक ही रखना चाहते हो, तो तुम मसीह-विरोधी हो। लेकिन अगर तुम अकसर सत्य की तलाश करते हो, यदि तुम आत्म-प्रेरणाओं और युक्तियों से दैहिक सुखों से विमुख हो जाते हो, और अगर तुम दूसरों के साथ सहयोग करने की पहल कर सकते हो, अकसर अपना दिल खोलकर दूसरों से परामर्श करते हो और उनकी सलाह लेते हो, और अगर तुम दूसरों के सुझाव अपना सकते हो और उनके विचार और शब्द ध्यान से सुन सकते हो, तो तुम सही रास्ते पर, सही दिशा में जा रहे हो। अपने को दूसरों से बेहतर समझना बंद करो और अपना खिताब एक तरफ रख दो। इन चीजों पर ध्यान मत दो, इन्हें जरा भी महत्वपूर्ण मत समझो, और इन्हें हैसियत के निशान के रूप में, प्रतिष्ठा के रूप में मत देखो। अपने दिल में विश्वास करो कि तुम और अन्य समान हैं; अपने आप को दूसरों के साथ बराबरी पर रखना सीखो, यहाँ तक कि दूसरों से उनकी राय माँगने के लिए झुकने में भी सक्षम हो जाओ। दूसरों की बातें गंभीरता से, सावधानी से और ध्यानपूर्वक सुनने में सक्षम हो जाओ। इस तरह तुम अपने और दूसरों के बीच शांतिपूर्ण सहयोग उत्पन्न कर लोगे। तो शांतिपूर्ण सहयोग कौन-सा काम करता है? यह वास्तव में बहुत बड़ा काम करता है। इससे तुम ऐसी चीजें पा लोगे जो तुम्हारे पास कभी नहीं थीं, तुम नई चीजें, उच्च क्षेत्रों की चीजें पा लोगे; तुम दूसरों के गुण जान लोगे और उनकी क्षमताओं से सीख लोगे। और एक बात और भी है : तुम्हारी धारणाओं में मौजूद पहलू, जहाँ तुम दूसरों को मंदबुद्धि, मूर्ख, मूढ़, अपने से कमतर समझते हो—जब तुम दूसरों के सुझाव सुनते हो, या जब दूसरे तुमसे बात करने के लिए अपना दिल खोलते हैं, तो तुम अनजाने ही यह महसूस करने लगते हो कि कोई भी भोंदू नहीं है, कि हर किसी के पास, चाहे वह कोई भी हो, कुछ महत्वपूर्ण विचार होते हैं। और इस तरह, तुम हरफनमौला बनना छोड़ दोगे, फिर तुम अपने आपको दूसरों से ज्यादा चतुर और बेहतर समझना छोड़ दोगे। यह तुम्हें हमेशा एक आत्म-मुग्धता, आत्म-प्रशंसा की स्थिति में रहने से रोकता है। यह तुम्हारी रक्षा करता है, है ना? दूसरों के साथ काम करने के ये नतीजे और फायदे होते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। जब मैंने यह देखा, तो मुझे एहसास हुआ कि बहन लिन के साथ सहयोग नहीं करने और अपनी ताकत बांटने से डरने, का कारण था कि मैंने परमेश्वर द्वारा दिए गए कार्य को उसकी आज्ञा और अपना मिशन नहीं समझा। मैंने इसे अपना आधिकारिक पद समझा, मानो वह मेरी प्रतिष्ठा और ताज हो। मैंने दूसरों के साथ सहयोग करने से इनकार किया, हमेशा दंभी बनी रही, मैंने अपने दम पर अलग दिखना चाहा। यह गलत रास्ता था। उस समय ने यह प्रकट किया कि मुझे सत्य और समस्याओं के प्रति दृष्टिकोण की उथली समझ थी। मैं अपने काम पर समग्र रूप से विचार नहीं कर रही थी, मैंने शायद ही कोई व्यावहारिक काम किया था। भाई-बहनों की जीवन-प्रवेश संबंधी समस्याओं में मदद करना एक संघर्ष था, और बहुत सारा काम था जो मैं अकेले नहीं कर सकती थी। मुझे साथ काम करने, चीजों पर चर्चा करने और फीडबैक के लिए किसी की जरूरत थी, ताकि मैं अपनी कमजोरियाँ दूर करने के लिए उसकी खूबियों से सीख सकूँ। मैंने देहधारी परमेश्वर के बारे में सोचा, जिसने इंसान के उद्धार के लिए अनेक सत्य व्यक्त किए हैं, लेकिन उसने स्वयं को कभी भी परमेश्वर के स्थान पर नहीं रखा। वह बहुत-सी चीजों में लोगों के सुझाव सुनता है। उसमें जरा-भी अहंकार नहीं है और वह कभी दिखावा नहीं करता। वह इंसान के सिंचन और पोषण के लिए हमेशा चुपचाप सत्य व्यक्त करता है। मैंने देखा कि परमेश्वर का सार कितना दयामय और प्यारा है। लेकिन मुझे शैतान ने भ्रष्ट कर दिया था, मैं शैतानी स्वभाव से भरी हुई थी, और सत्य नहीं समझती थी। बहुत-कुछ था जो मैं नहीं समझ पाई। लेकिन फिर भी मैं दंभी बनी हुई थी, सोचती थी कि मैं खास हूँ, मैं अपने दम पर ढेर सारा काम कर सकती हूँ, बिना पार्टनर के, बिना किसी के बारे में सोचे। मैंने देखा कि मैं बहुत अभिमानी थी। चीजों पर चर्चा करना और अपने कर्तव्य में अधिक संगति करना उचित और बुद्धिमानी है, अक्षमता का प्रदर्शन नहीं। यह दूसरों से ऐसी चीजें हासिल करना है, जिन्हें आप देख या समझ नहीं सकते, और अपने दंभ के कारण गलत रास्ता अपनाने से बचना है। अच्छे से कार्य करने और परमेश्वर की सुरक्षा पाने का यही तरीका है। अब मैं परमेश्वर की इच्छा समझती हूँ। चीजों पर चर्चा करना, सहयोग करना और एक-दूसरे की कमजोरी में सहारा देना ही अच्छे से कर्तव्य करने और परमेश्वर को प्रसन्न करने का एकमात्र तरीका है।

मैंने एक और अंश पढ़ा था : "जब तुम लोग अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए दूसरों के साथ समन्वय करते हो, तो क्या तुम अलग-अलग राय स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हो? क्या तुम दूसरों की राय स्वीकार कर पाते हो? क्या तुम लोगों को लगता है कि कोई भी पूर्ण है? लोग चाहे जितने शक्तिशाली हों, या चाहे जितने सक्षम और प्रतिभाशाली हों, फिर भी वे पूर्ण नहीं हैं। लोगों को यह मानना चाहिए; यह तथ्य है। यह हर उस व्यक्ति का सबसे उपयुक्त रवैया भी है, जो अपनी शक्तियों और फायदों या दोषों को सही ढंग से देखता है; यह वह तार्किकता है जो लोगों के पास होनी चाहिए। ऐसी तार्किकता के साथ तुम अपनी शक्तियों और कमज़ोरियों के साथ-साथ दूसरों की शक्तियों और कमज़ोरियों से भी उचित ढंग से निपट सकते हो, और इसके बल पर तुम उनके साथ सौहार्दपूर्वक कार्य कर पाओगे। यदि तुम सत्य के इस पहलू से सन्नद्ध हो और सत्य की वास्तविकता के इस पहलू में प्रवेश कर सकते हो, तो तुम अपने भाइयों और बहनों के साथ सौहार्दपूर्वक रह सकते हो, एक-दूसरे की खूबियों का लाभ उठाकर अपनी किसी भी कमज़ोरी की भरपाई कर सकते हो। इस प्रकार, तुम चाहे जिस कर्तव्य का निर्वहन कर रहे हो या चाहे जो कार्य कर रहे हो, तुम सदैव उसमें श्रेष्ठतर होते जाओगे और परमेश्वर का आशीष प्राप्त करोगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य का अभ्यास करके ही कोई सामान्य मानवता से युक्त हो सकता है')। यह सच है। महान और सक्षम होने से ही कोई पूर्ण नहीं हो जाता। हर किसी की अपनी खूबियाँ और कमजोरियाँ होती हैं, उन्हें ठीक से समझा जाना चाहिए। हमें दूसरों के सुझाव सुनना और एक-दूसरे को सहारा देना सीखना होगा, ताकि हममें दूसरों के साथ अच्छी तरह सहयोग करने की सही समझ हो। पहले मैं बस नए विश्वासियों के सिंचन पर ध्यान दे रही थी, और बहन लिन सुसमाचार का काम कर रही थीं। अगर मैं उस सारे काम की जिम्मेदारी ले लेती, तो उसे संभाल या उसे अच्छी तरह से कर ही नहीं पाती। अपने कार्य में बहुत-सी चीजों में मेरा दृष्टिकोण सीमित था। मैं अविवेकी थी। जब भी कोई अगुआ मेरे काम के बारे में पूछता, तो उसमें बहुत सारी गलतियाँ और गलत ढंग से की गई चीजें होती थीं। मुझे एहसास हुआ कि मुझे सच में कर्तव्य में एक पार्टनर की जरूरत थी। मैंने इसे पहले कभी नहीं समझा था, मैं खुद को नहीं जानती थी। मैं घमंडी थी, प्रभारी बनना चाहती थी, और दूसरों के साथ काम नहीं कर सकती थी। इससे कलीसिया का काम रुक गया। मैं बहुत दोषी महसूस कर रही थी, इसलिए मन में परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं अब और भ्रष्टाचार में नहीं रहना चाहती, बहन लिन के साथ अच्छी तरह काम करने के लिए तैयार हूँ।

उसके बाद मिलकर काम करते हुए मैंने देखा कि उनमें बहुत खूबियाँ थीं। वे मुझसे ज्यादा विचारशील थीं और कोई भी बात हो तो सत्य के सिद्धांत खोजती थीं। वे समस्याओं पर विस्तार से संगति करती थीं। मुझे अगुआ बने ज्यादा समय नहीं हुआ था, इसलिए कलीसिया के कार्य के प्रबंधन के बारे में मेरे विचार अस्पष्ट थे। जब काम के विवरण और संगति की बात आती, तो मुझमें स्पष्टता की कमी रहती। उन तरीकों में मेरी उनसे कोई बराबरी नहीं थी। नए विश्वासियों के सिंचन में वे मुझसे अधिक प्रेममयी थीं। उनकी मदद करते समय वे बार-बार संगति करती थीं, हाल-चाल लेती रहती थीं। जब मुझे लगता था कि वे पहले ही अच्छा काम कर चुकी हैं, तब वे कहतीं कि अभी और करने की आवश्यकता है। मैंने सोचा कि कैसे मैं उनके साथ सहयोग नहीं किया, उन्हें फालतू समझा। वे कभी-कभी नकारात्मक हो जातीं, लेकिन जल्दी से अपनी सोच बदल लेतीं और अपना कर्तव्य करती रहतीं। हालाँकि मैंने उनकी उपेक्षा की, फिर भी वे बार-बार मुझसे पूछती रहीं। वे प्रेममयी और धैर्यवान थीं, उन्होंने अपने कार्य के लिए वास्तविक जिम्मेदारी ली थी। ये वे गुण थे, जिनकी मुझमें कमी थी। इसका एहसास हुआ, तो मुझे बहुत बुरा लगा। मैंने देखा कि मेरे भ्रष्ट स्वभाव से बहन लिन को बहुत चोट पहुंची है, और परमेश्वर के घर के काम को भी। अगर मैं शुरू से ही उनके साथ सहयोग करने के लिए उत्सुक रहती, उनके साथ हर चीज पर चर्चा करती, तो चीजें इस तरह से न होतीं। अफसोस से भरकर मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, मैं अपनी भ्रष्टता और खामियाँ देख सकती हूँ, और अब मैं तेरी इच्छा समझती हूँ। मैं अब से बहन लिन के साथ सहयोग करूँगी और एक इंसान की तरह जिऊँगी।"

उसके बाद बहन लिन के साथ काम करते हुए मैं उनसे ऐसी बातें जरूर पूछती, "क्या यह आपको ठीक लग रहा है? क्या आपके पास कोई और सुझाव है?" एक बार काम के बारे में चर्चा करते हुए, उन्होंने मुझसे पूछा कि नवागतों का सिंचन कैसा चल रहा है। मैंने सोचा, "अभी कुछ दिन पहले ही इसके बारे में बात की थी, फिर से क्यों? अगर कोई समस्या हुई तो मैं सँभाल लूँगी।" मैंने फिर से उनकी उपेक्षा करना चाहा। तभी एहसास हुआ कि सब अपने काबू में रखने की मेरी पुरानी समस्या फिर से सिर उठा रही है। मैंने जल्दी से प्रार्थना की, परमेश्वर से मेरा मार्गदर्शन करने के लिए कहा, ताकि मैं भ्रष्टता से कार्य न करूँ। प्रार्थना के बाद मैंने अब तक की अपनी तमाम विफलताओं के बारे में सोचा, कि मैं कैसे तानाशाह और दबंग थी, हमेशा चीजों को अपने तरीके से करना और दिखावा करना चाहती थी। यह पूरी तरह से शैतान की अभिव्यक्ति थी। मुझे खुद को त्यागकर परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करना था, और बहन के साथ सहयोग करना था। इसलिए मैंने ईमानदारी से काम के बारे में वो सारी बातें साझा कीं, जो मुझे पता थीं, मेरी बात सुनकर उन्होंने अपने विचार साझा किए। मैंने उनकी संगति से कुछ चीजें सीखीं और महसूस किया कि यह कर्तव्य करने का शानदार तरीका है। उसके बाद मैं हमारे कर्तव्य पर चर्चा करने के लिए उन्हें खोजती, और हम मिलकर नवागतों के मुद्दों पर सत्य की खोज और संगति करते। इसके कुछ समय बाद मेरी हालत सुधर गई और मेरे कार्य के प्रदर्शन में सुधार हो गया। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी हूँ। और मैंने देखा है कि कैसे अपने कार्य में सत्य का अभ्यास करने, दूसरों के साथ अच्छी तरह काम करने और एक-दूसरे की सहायता करने से परमेश्वर का आशीष मिलता है!

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