अपना छद्मवेश उतारकर मुझे बहुत अच्छा महसूस होता है

14 नवम्बर, 2020

चेन यूआन, चीन

सितंबर 2018 में मुझे कलीसिया की अगुआ चुना गया था। मैं उस समय बहुत खुश थी। मुझे लगा कि ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि मैं ज्यादातर भाई-बहनों से बेहतर हूँ, और मुझे सत्य का अनुसरण और अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। मैं नहीं चाहती थी कि लोग मेरी अगुआई को केवल प्रतीकात्मक समझें। एक दिन मैं एक समूह की बैठक में गई। काम पर चर्चा के दौरान कुछ भाई-बहनों ने विशेषज्ञ कौशलों के बारे में बात की। मैं थोड़ा हड़बड़ा गई। मुझे इसके बारे में लगभग कुछ भी मालूम नहीं था। अगर उन्होंने मुझसे सवाल पूछे और मैं जवाब न दे पाई, तो क्या होगा? क्या वे मुझे तुच्छ समझेंगे और सोचेंगे कि जब मैं जानती ही नहीं, तो अगुआई कैसे करूँगी? मैं कुछ नहीं कह पाई, लेकिन क्या यह मुझे एक बेकार अगुआ नहीं बनाता? मैं क्या कर सकती थी? मैं चिंता में डूबी, टिन की गर्म छत पर बिल्ली की तरह बैठी रही। कौन क्या बात कर रहा है, मैं समझ नहीं पाई। जब उनकी बातें पूरी हो गईं, तो मैंने जल्दी से कहा, "कोई और सवाल न हो, तो बैठक यहीं समाप्त करें।" बैठक से बाहर आने तक मैं सहज नहीं हो पाई। मैंने सोचा, "इस समूह को बहुत सारे पेशेवर ज्ञान की आवश्यकता है और मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानती, इसलिए अच्छा होगा कि मैं बैठकों में न जाऊँ। अगर दूसरों को पता चल गया कि मुझे पेशेवर चीजों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, तो वे निश्चित ही मुझे तुच्छ समझेंगे। उसके बाद मुझे कौन गंभीरता से लेगा?"

अगले कुछ हफ्तों में मैं हर दिन अन्य समूहों से मुलाकात करने गई और उनकी समस्याएँ और कठिनाइयाँ हल करने में मदद की। हमारे कलीसिया-जीवन में सुधार आया। सभी ने मेरा समर्थन किया, और मैं वाकई इन समूहों के साथ मुलाकात करना चाहती थी। लेकिन जब मैं उस समूह के बारे में सोचती, जिसे विशेषज्ञतापूर्ण ज्ञान की आवश्यकता थी, तो मैं परेशान हो जाती। मुझे डर लगता कि मैं उनकी बातें नहीं समझ पाऊँगी, इसलिए मैं बहाना बना लेती और कभी-कभार ही वहाँ जाती। एक रात मेरे साथ काम करने वाली बहन ने बताया कि उस समूह की कुछ समस्याएँ हैं, इसलिए उसने मुझसे बैठक में चलने का आग्रह किया। मैं अनिच्छा से तैयार तो हो गई, लेकिन चिंता करती रही। मैंने सोचा, "अगर मैं समस्या हल नहीं कर पाई, तो क्या दूसरे लोग यह नहीं कहेंगे कि मैं एक अक्षम अगुआ हूँ?" मैं परेशान हो गई। अगले दिन, जब हमने परमेश्वर के वचन पर संगति कर ली, तो मुझे डर लगा कि अन्य लोग पेशेवर ज्ञान के बारे में सवाल पूछेंगे, और अगर मैं उन्हें जवाब न दे पाई तो बेवकूफ लगूँगी। इसलिए मैंने खुद को सँभाला और स्थिति को टालने के लिए बातचीत करती रही, लेकिन मुझे बेचैनी महसूस होती रही। मैंने उनसे पूछा, "अन्य किन समस्याओं का समाधान नहीं हुआ है?" समूह के अगुआ ने अपनी समस्याओं और समाधानों के बारे में बताया। जब उसने विशिष्ट शब्दावली का प्रयोग करना शुरू किया, तो मैं भ्रमित हो गई। मैं समझ नहीं पाई कि समस्याएँ पूरी तरह से हल हो गई थीं या नहीं। यदि उन्हें हल नहीं मिला, तो उनकी प्रगति प्रभावित होगी। लेकिन अगर मैंने विस्तृत सवाल पूछे, तो वे अवश्य ही मेरी राय सुनना चाहेंगे। लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आया था, और यह शर्मनाक होता। बहुत सोच-विचार के बाद, मैंने कुछ नहीं कहा। फिर, एक बहन ने स्वयं द्वारा अनुभव की रही कुछ कठिनाइयों के बारे में बात की, जिनका संबंध कुछ पेशेवर मुद्दों से था। मैं और भी उलझ गई। मेरी उससे यह पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि उसका क्या मतलब है। मुझे डर था कि अगर मैं उसकी समस्या हल नहीं कर पाई, तो वह सोचेगी कि मैं अच्छी अगुआ नहीं हूँ। मैंने बस थोड़ी-सी बात की और यह कहकर मुद्दे को टाल दिया, "मैं इस मुद्दे की बाद में जाँच करूँगी।" बैठक के बाद मैं पूरी तरह से थक चुकी थी। मुझे खालीपन महसूस हुआ। इस बैठक के दौरान कोई समस्या हल नहीं हुई। क्या मैं अपने कर्तव्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर रही थी? मुझे यह भी पता था कि इस समूह के भाई-बहनों को ज्यादा कुछ हासिल नहीं हुआ था। उनके काम में ज्यादा प्रगति नहीं हुई और मुझे इसके बारे में बुरा लगा। मुझे डर था, वे कहेंगे कि मुझे यह काम समझ में नहीं आया, और वे मुझे तुच्छ समझेंगे। मैंने हर मुलाकात के दौरान अपना मार्ग धूमिल कर लिया। मैं वास्तव में कार्य-स्थिति कभी समझ नहीं पाई और मैंने किसी वास्तविक समस्या का समाधान नहीं किया। मैं कोई वास्तविक काम नहीं कर रही थी। क्या मैं परमेश्वर को धोखा नहीं दे रही थी और अपने भाई-बहनों को बेवकूफ नहीं बना रही थी? मैंने असहज महसूस किया और खुद को दोषी ठहराया। मैंने आत्मचिंतन करने और स्वयं को जानने के प्रयास में सहायता के लिए परमेश्वर से प्रार्थना की।

एक दिन धार्मिक कार्यों के दौरान मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "सभी भ्रष्ट मनुष्यों में यह समस्या देखी जाती है : जब वे बिना किसी ओहदे के साधारण भाई-बहन होते हैं, तो वे किसी के साथ परस्पर संपर्क के समय या बातचीत करते समय शेखी नहीं बघारते, न ही वे अपनी बोल-चाल में किसी निश्चित शैली या लहजे को अपनाते हैं; वे बस साधारण और सामान्य होते हैं, और उन्हें खुद को आकर्षक ढंग से पेश करने की आवश्यकता नहीं होती है। वे किसी मनोवैज्ञानिक दबाव को महसूस नहीं करते, और वे खुलकर, दिल से सहभागिता कर सकते हैं। वे सुलभ होते हैं और उनके साथ बातचीत करना आसान होता है; दूसरों को यह महसूस होता है कि वे बहुत अच्छे लोग हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें कोई रुतबा प्राप्त होता है, वे ऊँचे और शक्तिशाली बन जाते हैं, मानो उन तक कोई नहीं पहुँच सकता; उन्हें लगता है कि वे इज्ज़तदार हैं, और आम लोग तो किसी और ही मिट्टी के बने हुए हैं। वे आम इंसान को नीची नज़रों से देखते हैं और उनके साथ खुलकर सहभागिता करना बंद कर देते हैं। वे अब खुले तौर पर सहभागिता क्यों नहीं करते हैं? उन्हें लगता है कि अब उनके पास ओहदा है, और वे अगुआ हैं। उन्हें लगता है कि अगुआओं की एक निश्चित छवि होनी चाहिए, उन्हें आम लोगों की तुलना में थोड़ा ऊँचा होना चाहिए, उनका क़द बड़ा और उन्हें अधिक जिम्मेदारी संभालने के योग्य होना चाहिए; उनका यह मानना होता है कि आम लोगों की तुलना में, अगुआओं में अधिक धैर्य होना चाहिए, उन्हें अधिक कष्ट उठाने और खपने में समर्थ होना चाहिए, और किसी भी प्रलोभन का सामना करने में सक्षम होना चाहिए। वे सोचते हैं कि अगुआ रो नहीं सकते, भले ही उनके परिवार के सदस्यों में से कितनों की भी मृत्यु हो जाए, और अगर उन्हें रोना ही है, तो उन्हें अपने बिस्तर में मुँह छुपाकर रोना चाहिए, ताकि किसी को भी उनमें कोई कमी, दोष या कमज़ोरी न देख सके। उन्हें यहाँ तक लगता है कि अगुआ किसी को यह जानने नहीं दे सकते कि वे नकारात्मक हो गए हैं; इसके बजाय, उन्हें ऐसी सभी बातों को छिपाना चाहिए। उनका मानना है कि ओहदे वाले वाले व्यक्ति को ऐसा ही करना चाहिए"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। परमेश्वर के वचनों ने मेरी वास्तविक स्थिति प्रकट कर दी। अगुआ बनने से पहले अगर मुझे कोई चीज समझ नहीं आती थी, तो मैं किसी से पूछ लेती थी। अगर मुझे कोई समस्या या कठिनाई होती, तो मैं खुलकर दूसरों के साथ संगति कर लेती थी। अगुआ बनने के बाद मुझे लगा कि मुझे दूसरों से बेहतर होना चाहिए। मुझे लगा कि चूँकि भाई-बहनों ने मुझे चुना है, इसलिए मुझे अगुआ की तरह काम करना चाहिए। मुझे उनसे बेहतर होने की जरूरत थी, मुझे किसी भी समस्या को समझने और सुलझाने में सक्षम होना था। इसलिए जब मैं समूह की बैठकों में गई, तो मैंने खुद को अलग तरह से रखा। लेकिन चूँकि कुछ चीजें ऐसी थीं जो मुझे समझ नहीं आती थीं, इसलिए मैं डरती थी कि दूसरे मुझे तुच्छ समझेंगे। मैंने ढोंग और दिखावा करना शुरू कर दिया, और अपने काम से जी चुराने लगी। मैं सबसे आसान कार्यों वाले समूहों में जाती, जहाँ मैं अपनी प्रतिभा दिखा पाती, और उन समूहों को टाल देती, जिनके कार्य कठिन होते या ऐसे क्षेत्रों से जुड़े होते जिन्हें मैं नहीं समझती थी, ताकि खराब काम करने से मेरी नाक न कटे। अगर मैं जाती भी, तो सिर्फ कुछ निरर्थक बातें करके काम चला लेती। मैं उन समूहों में असली समस्याओं का सामना न कर पाती। मैं अपने अंहकार और अगुआ होने से इतनी अभिभूत थी। परमेश्वर के घर में अगुआओं से प्रत्येक कार्य में अत्यधिक तल्लीन होना, सत्य संप्रेषित करना और अपने भाई-बहनों के सामने आने वाली समस्याएँ हल करना अपेक्षित होता है, ताकि वे अपने कर्तव्य सत्य के सिद्धांतों के अनुसार पूरे कर सकें। इसका मतलब है वास्तविक काम करना और परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना। मुझे पता था कि उस समूह के भाई-बहनों के सामने कठिनाइयाँ हैं, लेकिन मैं उनकी समस्याओं का सामना करने और उन्हें हल करने के लिए सत्य की तलाश करने को तत्पर नहीं थी। मैं अपने ही घमंड में चूर और अपने कर्तव्य में लापरवाह थी, और केवल प्रतिष्ठा के लिए जी रही थी। मैं परमेश्वर के घर के काम के बारे में सब-कुछ भूल गई थी। परिणामस्वरूप, उस समूह की समस्याओं का समाधान नहीं हुआ और उसकी प्रगति में विलंब हुआ। क्या मैं सिर्फ एक नकली अगुआ नहीं थी, जो वास्तविक काम किए बिना अगुआई की प्रतिष्ठा का आनंद भोग रही थी? प्रतिष्ठा के पीछे भागना थकाऊ है और इससे मुझे दिल में बेचैनी महसूस होती है। यह परमेश्वर के घर के काम में व्यवधान भी लाता है, यानी दोनों पक्षों के लिए हार की स्थिति। अगर मैं पश्चात्ताप नहीं करूँगी, तो मैं बुरा करूँगी और परमेश्वर का विरोध करूँगी, जिससे परमेश्वर मुझे त्याग देगा। मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की और अभ्यास की राह माँगी।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक दूसरा अंश पढ़ा। "जब तुम्हारे पास कोई ओहदा नहीं होता है, तो तुम अक्सर स्वयं का विश्लेषण कर सकते हो और स्वयं को जान सकते हो। दूसरे इससे लाभान्वित हो सकते हैं। जब तुम्हारे पास ओहदा हो, तो तुम फिर भी अक्सर स्वयं का विश्लेषण कर सकते हो और स्वयं को जान सकते हो, दूसरों को सत्य की वास्तविकता को समझने और तुम्हारे अनुभवों से परमेश्वर की इच्छा को समझने का अवसर दे सकते हो। लोग इससे भी लाभान्वित हो सकते हैं, क्या वे नहीं हो सकते? यदि तुम इसका अभ्यास करते हो, तो चाहे तुम्हारे पास ओहदा हो या न हो, दूसरों को इससे लाभ होगा ही। तो, ओहदे का तुम्हारे लिए क्या अर्थ है? यह वास्तव में, एक अधिक, अतिरिक्त चीज़ है, जैसे कपड़े का कोई टुकड़ा या टोपी; जब तक तुम इसे कोई बहुत बड़ी बात नहीं मानते, यह तुम्हें बाधित नहीं कर सकता। यदि तुम ओहदे का मोह रखते हो और इस पर विशेष ज़ोर देते हो, हमेशा इसे एक महत्व का मुद्दा मानते हो, तो यह तुम्हें अपने नियंत्रण में ले लेगा; उसके बाद, तुम अब स्वयं को जानना नहीं चाहोगे, और न ही तुम अपने आप को खुलकर प्रकट करने के लिए, या अपनी नेतृत्व की भूमिका को किनारे रखकर दूसरों के साथ बातचीत करने और अपना कर्तव्य निभाने के लिए, तैयार होगे। यह किस तरह की समस्या है? क्या तुमने स्वयं के लिए यह दर्जा नहीं अपना लिया है? और क्या तुम तब, बस उसी पद पर कब्ज़ा करना जारी नहीं रखते और इसे छोड़ देने के लिए अनिच्छुक नहीं होते हो, और यहाँ तक कि दूसरों के साथ अपने ओहदे की रक्षा करने के लिए स्पर्धा भी नहीं करते हो? क्या तुम सिर्फ खुद को सता नहीं रहे हो? यदि तुम खुद को हद से ज़्यादा सताते हो, तो तुम किसे दोष दोगे? जब तुम्हारे पास ओहदा हो, तब अगर तुम दूसरों पर रौब जमाने से इन्कार कर देते हो, बजाय इसके यदि तुम अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से करने पर ध्यान केंद्रित करते हो, जो कुछ भी करना चाहिए उसे करते हो और अपने सभी कर्तव्यों को पूरा करते हो, और यदि तुम स्वयं को एक साधारण भाई या बहन के रूप में देखते हो, तब क्या तुमने ओहदे के बंधन से मुक्ति प्राप्त न कर ली होगी?"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान करने के लिए होना ही चाहिए अभ्यास का सुनिश्चित मार्ग')। परमेश्वर के वचनों को पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि जब परमेश्वर ने मुझे अपना कर्तव्य करने के लिए अगुआ के रूप में पदोन्नत किया, तो वह मुझे हैसियत नहीं दे रहा था, बल्कि एक आज्ञा, एक जिम्मेदारी दे रहा था। समस्याएँ चाहे जितनी भी मुश्किल हों, मुझे उन्हें हल करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध होने की जरूरत है। भाई-बहनों के साथ बातचीत करते समय मुझे अपनी अगुआई की हैसियत पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। जब भी मैं भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करती हूँ, या जब कठिनाइयाँ या कमियाँ उत्पन्न होती हैं, तो मुझे खुलकर संवाद करना चाहिए और सच्चा होना चाहिए, दूसरों को मेरी भ्रष्टता और कमियाँ देखने देनी चाहिए और मेरा असली स्वरूप जानने देना चाहिए। कोई ढोंग या दिखावा नहीं होना चाहिए। मुझे सिर्फ वह होना चाहिए, जो मैं हूँ, और उसी विषय पर संगति देनी चाहिए, जिसे मैं समझती हूँ। जब मैं न समझूँ, तो मुझे सत्य का अनुसरण और अपने भाई-बहनों के साथ संगति करनी चाहिए, ताकि उनके साथ मिलकर सर्वोत्तम कार्य कर सकूँ। बाद में मैं उस समूह की सभाओं में गई। जब मुझे इस विशेषज्ञता से संबंधित समस्याओं का सामना करना पड़ा, तो मैंने सचेतन रूप से अपना अहंकार त्याग दिया। जिन चीजों को मैं नहीं समझती थी, उनके बारे में मैंने सक्रियतापूर्वक दूसरों से पूछा और उनसे समझाने का आग्रह किया। उन्होंने मुझे जरा भी कम नहीं समझा। उन्होंने भी अपने काम में आने वाली समस्याओं और कठिनाइयों के बारे में खुलकर बात की। जब वे बात कर रहे थे, तो मैंने ध्यान से सुना और समझने की कोशिश की। तभी मैं उनकी समस्याओं के बारे में कुछ अंतर्दृष्टि हासिल कर पाई और मैंने सत्य के सिद्धांतों का उपयोग करके उनके साथ संगति की। मैंने अपने समय में विशेषज्ञता के इस क्षेत्र का अध्ययन भी किया। कठिनाइयाँ आने पर मैं उनके साथ जवाब तलाशती। एक-साथ काम करके हम एक-दूसरे के पूरक बनने में सक्षम हो गए। हमने अपने काम में आने वाली कई समस्याएँ हल करनी शुरू कर दीं और अपने काम में बेहतर परिणाम हासिल किए। इससे मुझे बहुत अधिक सुकून और सहजता महसूस हुई।

कुछ महीने बाद कलीसिया ने मेरे काम का दायरा बढ़ा दिया। मुझे पता था कि मुझे बहुत-कुछ सीखना पड़ेगा। जब मेरे सामने कठिनाइयाँ आतीं, तो मैं अकसर परमेश्वर से प्रार्थना करती और परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में लाती, और मैंने कुछ व्यावहारिक समस्याएँ हल कर दीं। भाई-बहनों ने मेरी प्रशंसा करते हुए मुझे इज्जत देना शुरू कर दिया, और मुझे वह एहसास भाने लगा। अनजाने ही मैंने फिर से हैसियत पर ध्यान देना शुरू कर दिया। एक दिन सहकर्मियों की एक बैठक के दौरान हमारे अगुआ ने कहा कि किसी खास कलीसिया की बैठकें बहुत प्रभावी नहीं रही हैं। मेरे सहकर्मियों ने सिफारिश की कि समस्या हल करने के लिए मुझे उस कलीसिया में जाना चाहिए। मैंने मन में सोचा, "ऐसा लगता है, जैसे मेरे पास सत्य की कुछ वास्तविकता है और मैं समस्याएँ हल करने में मदद कर सकती हूँ। मुझे सहकर्मियों के बीच उत्कृष्ट होना चाहिए। मुझे कड़ी मेहनत करने और उन्हें यह दिखाने की जरूरत है कि मैं क्या कर सकती हूँ।" मेरे गलत इरादों के परिणामस्वरूप परमेश्वर ने मुझसे निपटने के लिए एक परिस्थिति तैयार की। एक दिन, एक समूह-अगुआ बहन ली के सामने कुछ कठिनाइयाँ थीं और वह थोड़ी नकारात्मक महसूस कर रही थी। मैंने जल्दी से परमेश्वर के वचनों के दो अंश ढूँढ़े और अपने अनुभव का उपयोग करके उसके साथ संगति की। वह तीस मिनटों तक चली, लेकिन उसके ऊपर इसका कोई असर होता दिखाई नहीं दिया। मुझे भी लगा कि मेरी संगति उबाऊ है और उससे कोई समस्या हल नहीं हुई। तब बहन ऐन परमेश्वर के वचनों का एक अंश लेकर आई, जिसे सुनकर बहन ली सिर हिलाने और मुसकराने लगी। उस समय मुझे थोड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। बहन ऐन ने जिस अंश का उल्लेख किया, वह अधिक उपयुक्त था। मैंने सोचा कि बहन ली मेरे बारे में क्या सोचेगी। क्या वह और बहन ऐन यह नहीं कहेंगी कि मैं एक अयोग्य अगुआ हूँ, कि मैं परमेश्वर के वचनों के उपयुक्त अंश उद्धृत नहीं कर सकी या समस्याएँ हल नहीं कर सकी? मैं निराश हो गई और आगे संगति करने की इच्छुक नहीं रही। कुछ दिनों बाद भाई झांग एक खराब हालत में पड़ गए। मैंने अग्रिम रूप से कुछ संबंधित अंश ढूँढ़ लिए और सोचा, "मुझे यह संगति अच्छी तरह से करनी होगी, ताकि बहन ऐन के सामने मेरी इज्जत बच सके। अन्यथा मैं यह काम कैसे कर सकती हूँ?" जब मैंने भाई झांग को देखा, तो मैं बहुत ऊर्जावान और अग्रसक्रिय थी। मैंने उसे वह सब बताने की कोशिश की, जो मैं जानती थी। अप्रत्याशित रूप से भाई झांग ने अधीर होकर मुझसे कहा, "बहन, मैं आपकी बातें समझता हूँ, लेकिन मेरी स्थिति सुधर नहीं रही। मुझे इसके बारे में कुछ और सोचने दो।" उसकी बातों से मुझे सदमा पहुँचा। मैं बस नि:शब्द होकर बैठी रही। इच्छा हुई कि किसी चट्टान की आड़ में जाकर छिप जाऊँ। मैं बहुत परेशान हुई और सोचा, "मेरे साथ क्या गड़बड़ है? अन्य भाई-बहनों के साथ बात करते समय तो ऐसा नहीं हुआ। मैं गलतियाँ क्यों करती जा रही हूँ? इससे वे मुझे तुच्छ समझेंगे। क्या वे यह नहीं कहेंगे कि मैं केवल बातें करती हूँ और वास्तविक समस्याएँ हल नहीं कर सकती?" बैठक कैसे समाप्त हुई, मुझे याद नहीं।

इसके बाद जब भी मैंने बहन ऐन के साथ समय बिताया, मुझे बहुत संकोच हुआ। कभी-कभी उसका मुझे देखने या मुझसे बात करने का तरीका थोड़ा कठोर होता। मैंने सोचा, "क्या उसे मुझसे कोई परेशानी है? क्या वह मुझे पसंद नहीं करती?" मुझे लगा कि मुझे भविष्य में दूरी बनाकर रखनी चाहिए, ताकि मेरी और कमियाँ उजागर न हों। अन्य भाई-बहनों के सामने भी मैं सावधानीपूर्वक दिखावे करती रही। मैंने जानबूझकर दूरी बना ली और कभी-कभार ही उनसे बात करती या उनकी समस्याओं में मदद करती। मैंने जिम्मेदारी से अपना काम करना बंद कर दिया। धीरे-धीरे मैं अपने दिल पर अँधेरा छाता महसूस करने लगी। मैं दूसरों की समस्याएँ समझ या हल नहीं कर पा रही थी। कभी-कभी मुझे उनसे मिलने में भी डर लगता। मेरा हर दिन असमंजस में बीतता और मैं महसूस करती कि परमेश्वर ने मुझे त्याग दिया है। तब अंतत: मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "परमेश्वर, मैं हमेशा अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने कोशिश करती रहती हूँ और हमेशा दिखावा करती हूँ। मैं अब अपने कर्तव्य के प्रति जिम्मेदार नहीं रही। तुमने मुझसे मुँह फेर लिया है और यह तुम्हारी धार्मिकता है, लेकिन मैं तुम्हारी ओर मुड़ना और आत्मचिंतन करना चाहती हूँ।" उसके बाद मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : "लोग स्वयं सृष्टि की वस्तु हैं। क्या सृष्टि की वस्तुएँ सर्वशक्तिमान हो सकती हैं? क्या वे पूर्णता और निष्कलंकता हासिल कर सकती हैं? क्या वे हर चीज़ में दक्षता हासिल कर सकती हैं, हर चीज़ को समझ सकती हैं, और हर चीज़ को पूरा कर सकती हैं? वे ऐसा नहीं कर सकतीं। हालांकि, मनुष्यों में एक कमजोरी है। जैसे ही लोग किसी कौशल या पेशे को सीख लेते हैं, वे यह महसूस करने लगते हैं कि वे सक्षम हो गये हैं, वे रुतबे और हैसियत वाले लोग हैं, और वे पेशेवर हैं। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वे खुद को कितना 'सक्षम' समझते हैं, वे सभी अपने तुमको एक आकर्षक रूप में पेश करना चाहते हैं, अपने तुमको बड़े व्यक्तित्वों के छद्म वेश में छिपा लेते हैं, दिखने में पूर्ण और निष्कलंक लगते हैं, जिसमें एक भी दोष नहीं है; दूसरों की नज़रों में, वे महान, शक्तिशाली, पूरी तरह से सक्षम, और कुछ भी कर सकने वाला समझा जाना चाहते हैं। उन्हें लगता है कि अगर वे किसी मामले में दूसरों की मदद माँगते हैं, तो वे असमर्थ, कमज़ोर और हीन दिखाई देंगे और लोग उन्हें नीची नज़रों से देखेंगे। इस कारण से, वे हमेशा एक झूठा चेहरा बनाए रखना चाहते हैं। ... यह किस तरह का स्वभाव है? ऐसे लोग बहुत घमंडी होते हैं, उन्होंने अपना सारा विवेक खो दिया है!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। "कुछ लोग विशेष रूप से पौलुस को आदर्श मानते हैं। उन्हें बाहर जा कर भाषण देना और कार्य करना पसंद होता है, उन्हें सभाओं में भाग लेना और प्रचार करना पसंद होता है; उन्हें अच्छा लगता है जब लोग उन्हें सुनते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उनके चारों ओर घूमते हैं। उन्हें पसंद होता है कि दूसरों के मन में उनकी एक हैसियत हो, और जब दूसरे उनके द्वारा प्रदर्शित छवि को महत्व देते हैं, तो वे उसकी सराहना करते हैं। आओ हम इन व्यवहारों से उनकी प्रकृति का विश्लेषण करें: उनकी प्रकृति कैसी है? यदि वे वास्तव में इस तरह से व्यवहार करते हैं, तो यह इस बात को दर्शाने के लिए पर्याप्त है कि वे अहंकारी और दंभी हैं। वे परमेश्वर की आराधना तो बिल्कुल नहीं करते हैं; वे ऊँची हैसियत की तलाश में रहते हैं और दूसरों पर अधिकार रखना चाहते हैं, उन पर अपना कब्ज़ा रखना चाहते हैं, उनके दिमाग में एक हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं। यह शैतान की विशेष छवि है। उनकी प्रकृति के पहलू जो अलग से दिखाई देते हैं, वे हैं उनका अहंकार और दंभ, परेमश्वर की आराधना करने की अनिच्छा, और दूसरों के द्वारा आराधना किए जाने की इच्छा। ऐसे व्यवहारों से तुम उनकी प्रकृति को स्पष्ट रूप से देख सकते हो"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद मुझे समझ आया कि मैं सिर्फ परमेश्वर के प्राणियों में से एक हूँ। मेरे लिए हर चीज को समझना और उसमें महारत हासिल करना असंभव है। ऐसी चीजें बहुत सीमित हैं, जिन्हें मैं समझ और ग्रहण कर सकूँ, फिर चाहे वे सत्य से संबंधित हों या विशिष्ट ज्ञान से। चीजों को नजरअंदाज करना और गलतियाँ करना आम बात है, लेकिन मैं वास्तव में खुद को नहीं जानती थी, और मैं अपनी कमियों को स्वीकार नहीं करना चाहती थी। मैं पूर्ण, उच्च और शक्तिशाली बनना चाहती थी, और मैं कोई और होने का ढोंग कर रही थी, और इस बात पर बहुत ध्यान दे रही थी कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं। जब मेरे सहकर्मियों ने उस कलीसिया में जाकर उनकी समस्याएँ हल करने के लिए मेरी सिफारिश की, तो मुझे लगा कि मेरे पास सत्य की वास्तविकता है और मैं उनसे बेहतर हूँ, इसलिए मैं अपनी प्रतिभा दिखाना और खुद को साबित करना चाहती थी। बहन ऐन के साथ रखे जाने पर मुझे लगा जैसे मैं अगुआ हूँ और समस्याएँ हल करना मेरा काम है, इसलिए मुझे हर चीज में उससे बेहतर होना चाहिए। जब मैंने देखा कि कैसे बहन ऐन दूसरों की समस्याएँ हल कर रही है और मैं लगातार गलतियाँ कर रही हूँ, तो मुझे महसूस हुआ कि मेरी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल गई है और मैं दूर भाग जाना चाहती थी, इसलिए मैंने जानबूझकर खुद को दूसरों से दूर करके अपने काम से जी चुराना शुरू कर दिया। कलीसिया-जीवन में समस्याएँ अभी भी बनी हुई थीं, जो भाई-बहनों को जीवन में प्रवेश पाने से रोक रही थीं। मुझे एहसास हुआ कि मैं हमेशा नकली इसलिए थी, क्योंकि मैं शैतान के इस तरह के विषों से भ्रष्ट हो चुकी थी, जैसे कि "लोगों को हमेशा अपने समकालीनों से बेहतर होने का प्रयत्न करना चाहिए," "जैसे एक पेड़ अपनी छाल के लिए जीता है, उसी तरह एक मनुष्य अपनी इज्ज़त के लिए जीता है," और "एक व्यक्‍ति जहाँ रहता है वहाँ अपना नाम छोड़ता है, जैसे कि एक हंस जहाँ कहीं उड़ता है आवाज़ करता जाता है।" मैं चाहे जिस समूह में भी रही, मैंने दिखावा करने और अपनी कमियाँ छिपाने की कोशिश की। मैं चाहती थी कि लोग मेरा केवल अच्छा पक्ष देखें और मैं उन पर केवल अच्छी छाप छोडूँ। मुझे लगा कि इससे मेरे जीवन में मूल्य और गरिमा आती है, लेकिन जब वह भावना दूर हुई, तो मुझे दर्द और उदासी महसूस हुई। मैंने सावधानी बरती और दूसरों को संदेह की नजर से देखने लगी। यह बहुत ही थकाऊ था। परमेश्वर ने मुझे इसलिए उन्नत किया, ताकि मैं उसके उत्कर्ष और गवाही के लिए एक अगुआ के रूप में अपना कर्तव्य निभा सकूँ, व्यावहारिक समस्याएँ हल करने के लिए संगति कर सकूँ और भाई-बहनों को परमेश्वर के पास ला सकूँ। लेकिन मैंने परमेश्वर के घर के काम को बनाए रखने की पूरी कोशिश नहीं की। इसके बजाय, मैंने इसे दिखावा करने और प्रशंसा प्राप्त करने का अवसर माना। जब मुझे वह नहीं मिला, जो मैं चाहती थी, तो मैंने अपने काम की उपेक्षा की। मैंने केवल अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत के बढ़ने और घटने के बारे में सोचा, और मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, न ही अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी कीं। परिणामस्वरूप, परमेश्वर ने मेरा तिरस्कार किया, और मेरी आत्मा अँधेरे में डूब गई। मैं न केवल कोई वास्तविक समस्या हल नहीं कर सकी, बल्कि वे चीजें भी नहीं कर पाई, जिन्हें करने में मैं मूलत: सक्षम थी। मैंने परमेश्वर की धार्मिकता और पवित्रता देखी। पौलुस की प्रकृति घमंडी और प्रतिस्पर्धी थी। वह आँखें मूँदकर रुतबे के पीछे भागा और दूसरों से प्रशंसा पानी चाही। वह लोगों को खुद के सामने लाया और परमेश्वर के विरोध के मार्ग पर अग्रसर हुआ। मैंने सत्य का अनुसरण नहीं किया, बल्कि आँख मूँदकर हैसियत के पीछे भागती रही। मैंने इस बात की बहुत ज्यादा परवाह की कि दूसरे मेरे बारे में क्या सोचते हैं, मैंने उनका दिल जीतकर उन्हें धोखा देना चाहा। पौलुस की ही तरह मैंने भी परमेश्वर के विरोध का रास्ता अपनाया! जब मुझे इस बात का एहसास हुआ, तो मैंने जल्दी से परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप किया। मैं अब और दिखावा करना या अपनी हैसियत की रक्षा करना नहीं चाहती थी। मैं सत्य का अभ्यास करना और एक ईमानदार इंसान बनना चाहती थी।

जब मैं अगली बार भाई-बहनों से मिली, तो मैंने उन्हें बताना चाहा कि मैं किस अनुभव से गुजर रही हूँ, और अपनी भ्रष्टता उजागर करनी चाही, लेकिन मेरे मुँह से शब्द नहीं निकल सके। मैं कलीसिया की अगुआ थी और मुझसे उनके काम पर नजर रखने की अपेक्षा की जाती थी। अगर मैंने उन्हें अपनी सब कमियाँ और कमजोरियाँ बता दीं, तो क्या वे यह नहीं सोचेंगे कि मैं सत्य का अनुसरण करने वाली इंसान नहीं हूँ, कि मैं एक अगुआ बनने लायक नहीं हूँ? मेरे दिमाग में रस्साकशी-सी होने लगी। तभी मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से दिखावा करने लगी हूँ और अपनी प्रतिष्ठा कायम रखने की कोशिश कर रही हूँ। मैंने सोचा कि किस तरह मैं बार-बार अपनी हैसियत को महत्व देती रही हूँ, जिससे परमेश्वर के घर का काम बाधित हुआ और जिसने मुझे गलत रास्ते पर डाल दिया। मेरा दिल डर से भर गया। मैंने परमेश्वर के इन वचनों का ध्यान किया : "तुम्हें अपनी निजी प्रतिष्ठा, अपने मान-सम्मान और ओहदे की खातिर, कुछ भी ढँकने की, कोई संशोधन करने की, या कोई भी चालाकी करने की आवश्यकता नहीं है, और यह बात तुम्हारे द्वारा की गई किसी भूल पर भी लागू होती है; ऐसा व्यर्थ कार्य अनावश्यक है। यदि तुम ये सारी चीज़ें नहीं करते हो, तो तुम आसानी से और बिना थकान के, पूरी तरह से प्रकाश में, जियोगे। केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर की प्रशंसा पा सकते हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को रोशन किया और मुझे प्रेरणा दी। मैंने महसूस किया कि इस माहौल में रहना सत्य का अभ्यास करने का एक अवसर है। मैं अब अपना असली स्वरूप नहीं छिपा सकती थी और अपनी हैसियत की रक्षा नहीं कर सकती थी, इसलिए मैंने अपनी सारी भ्रष्टता और सीखे गए सबक अपने भाई-बहनों के साथ साझा कर दिए। हम सबको इस संगति से कुछ न कुछ हासिल हुआ और हम एक-दूसरे के करीब आ गए। हमने काम के मुद्दों के बारे में भी बात की, और एक-दूसरे की खूबियों का लाभ उठाकर हम अपने कर्तव्य-पालन में हुई गलतियाँ सुधारने में सक्षम रहे। कुछ समय बाद इस कलीसिया की समस्याओं का समाधान हो गया। भाई-बहनों के हालात भी सुधर गए और वे सक्रिय रूप से अपना कर्तव्य पूरा करने लगे। इसके बाद, अपना कर्तव्य निभाते हुए भले ही मैं अभी भी कभी-कभी हैसियत के विचारों से विवश महसूस करने लगती थी, लेकिन मैं सचेत होकर परमेश्वर से प्रार्थना करने, सत्य का अभ्यास करने और ईमानदार बनने में कामयाब रही, और मैं अपनी भ्रष्टता भी खुलकर स्वीकार कर पाई। धीरे-धीरे मैंने अपनी हैसियत पर अधिक ध्यान देना बंद कर दिया। तब से मैं दिखावा किए बिना अपने भाई-बहनों के साथ मिलजुलकर काम करने में सक्षम रही हूँ। समस्त दिखावे के बिना, मैं सत्य का अनुसरण कर पा रही हूँ और अपने कर्तव्य को विवेकपूर्ण तरीके से निभा रही हूँ। यह परमेश्वर के वचनों के न्याय और ताड़ना का परिणाम है! परमेश्वर का धन्यवाद!

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