बर्खास्तगी से मैंने क्या सीखा
परमेश्वर के वचन कहते हैं : “लोग अपना स्वभाव स्वयं परिवर्तित नहीं कर सकते; उन्हें परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, पीड़ा और शोधन से गुजरना होगा, या उसके वचनों द्वारा अनुशासित और काट-छाँट किया जाना होगा। इन सब के बाद ही वे परमेश्वर के प्रति विश्वसनीयता और आज्ञाकारिता प्राप्त कर सकते हैं और उसके प्रति बेपरवाह होना बंद कर सकते हैं। परमेश्वर के वचनों के शोधन के द्वारा ही मनुष्य के स्वभाव में परिवर्तन आ सकता है। केवल उसके वचनों के संपर्क में आने से, उनके न्याय, अनुशासन और काट-छाँट से, वे कभी लापरवाह नहीं होंगे, बल्कि शांत और संयमित बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे परमेश्वर के मौजूदा वचनों और उसके कार्यों का पालन करने में सक्षम होते हैं, भले ही यह मनुष्य की धारणाओं से परे हो, वे इन धारणाओं को नज़रअंदाज करके अपनी इच्छा से पालन कर सकते हैं” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं)। परमेश्वर के वचन बहुत व्यावहारिक हैं। परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना, और काट-छाँट से ही हम अपने शैतानी स्वभाव को बदलकर परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता और निष्ठा पा सकते हैं। मैं भ्रष्ट स्वभाव के साथ अपने कर्तव्य किया करता था, हमेशा अपने नाम और रुतबे को बचाने में लगा रहता था। काम से निकाले जाने के बाद, परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन से मुझे अपने भ्रष्ट स्वभाव का ज्ञान हासिल हुआ। मुझे पछतावा होने लगा और खुद से घृणा हो गई, फिर दूसरा कर्तव्य मिलने पर मैंने पहले से बेहतर काम किया।
अगस्त 2020 में, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया और कुछ अन्य भाई-बहनों के साथ कलीसिया के काम की जिम्मेदारी दी गई। मैं मुख्य रूप से सिंचन कार्य पर ध्यान देने के साथ-साथ कलीसिया के प्रोजेक्ट में फैसले लेने में भी हिस्सा लिया करता था। हमने अपनी-अपनी ज़िम्मेदारियां बाँट ली थीं, मगर मैं जानता था कि कलीसिया का काम एक व्यापक इकाई है, कलीसिया के हितों की रक्षा करने के लिए मुझे भाई-बहनों के साथ सहयोग करना और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना था। पहले, मैं साप्ताहिक सभाओं पर बहुत ध्यान देता था। मैं चर्चाओं में सक्रिय रूप से हिस्सा लेता और अपने सुझाव भी दिया करता था। फिर अक्टूबर में एक दिन नए सदस्यों के सिंचन के काम में देरी होने ही वाली थी क्योंकि मैंने सही समय पर उसकी जानकारी नहीं ली। बड़े अगुआओं ने कड़ाई से मेरी काट-छाँट की। मैंने मन-ही-मन सोचा, “मेरे काम में समस्या थी, इसलिए मेरी काट-छाँट की गई। अगर और समस्याएं सामने आती हैं, तो अगुआ मुझे समझ जाएंगे कहेंगे कि मैं व्यावहारिक काम नहीं कर सकता, फिर वे मुझे बर्खास्त कर देंगे। इसके बाद मैं दोबारा अपना चेहरा कैसे दिखा पाऊँगी? कौन मेरा आदर करेगा? नहीं, अब मुझे जिन कामों की जिम्मेदारी दी गई है उन पर ज़्यादा ध्यान देना होगा, कोई और गलती नहीं हो सकती।”
कुछ समय बाद, मेरी ज़िम्मेदारियों का दायरा बढ़ा दिया गया। मैं कुछ कामों में अच्छा नहीं था, इसलिए प्रासंगिक सिद्धांतों को समझने में काफी समय लगती थी, मगर हर सहकर्मी सभा में बहुत-सी बातों पर चर्चा करके फैसले लेने की ज़रूरत होती थी और इसमें काफी समय लग रहा था। मैंने सोचा क्या इसका असर उन कामों पर पड़ सकता है जिनकी ज़िम्मेदारी मुझ पर है। अगर मेरी ज़िम्मेदारी वाले काम असरदार नहीं रहे और उसमें अधिक समस्याएं आने लगीं, तो मुझे पक्के तौर पर बर्खास्त कर दिया जाएगा, फिर दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? दूसरे लोग कलीसिया के अन्य प्रोजेक्ट पर ध्यान दे रहे थे। मैंने सोचा वे अपनी चर्चाएं खुद कर लें, मेरे पास बहुत सारा काम है। अगर वे अपने काम पूरे करते हैं तो इसका मुझसे क्या लेना-देना, उससे तो मुझे कोई प्रशंसा नहीं मिलेगी। मगर मैं सिर्फ अपने काम के दायरे में आने वाली समस्याओं के लिए सीधे ज़िम्मेदार हूँ, इसलिए मुझे बस अपनी जिम्मेदारियों पर ध्यान देना चाहिए। उसके बाद, मैं अपनी ज़िम्मेदारी वाले मुख्य काम में ज़्यादा समय देने और मेहनत करने लगा, और दूसरे कामों को बोझ की तरह देखने लगा। जब कलीसिया के काम पर चर्चा कर फैसले लेने की ज़रूरत होती थी, मैं अपने काम से जुड़ी हर बात पर अपने विचार रखती थी, मगर दायरे से बाहर की बात होने पर, मैं अपने कामों में ही लगा रहता था। मैं चर्चाओं पर ज़्यादा ध्यान नहीं देता था, इसलिए जब फैसलों पर मेरा फैसला या मेरी राय माँगी जाती, तो मैं वही कह देता जो बाकी लोग कहते। जब महत्वपूर्ण मामलों पर तत्काल चर्चा करके फैसले लेने की ज़रूरत होती, और मुझे पता चलता कि उसका मेरे कर्तव्य से लेना-देना नहीं है, तो मैं उसे अनदेखा कर देता और उदासीन रुख अपना लेता।
कुछ समय बाद, मुझे भाई-बहनों से यह सुनने को मिलने लगा कि कुछ मामलों पर ठीक से ध्यान नहीं दिया गया है और हमारे अगुआओं ने उनकी काट-छाँट की है, इसके अलावा, कर्मियों की व्यवस्था भी सिद्धांतों के अनुरूप नहीं की गई है, जिसके कारण कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुंचा है। कुछ बातों पर हर किसी के फैसले और सहमति की ज़रूरत थी। उन पर अच्छी तरह ध्यान नहीं देने से, आखिर में कलीसिया के हितों को नुकसान पहुंचा। इसके अलावा, कलीसिया के लिए सामानों की खरीद पर भी ठीक से ध्यान नहीं दिया गया, जिसके चलते कलीसिया के पैसों का नुकसान हुआ। इस तरह की चीज़ें अक्सर होने लगीं। मैंने सोचा, यह अच्छी बात है कि मेरे काम में कोई बड़ी समस्या नहीं आई है। जब अगुआ इसकी जांच करेंगे, तो ठीकरा मेरे सिर नहीं फूटेगा, इसका दोष मुझ पर नहीं मढ़ा जाएगा। अपने कर्तव्य के प्रति मेरा इस तरह का गैर-ज़िम्मेदार रवैया काफी समय तक बना रहा और मुझे इसमें कुछ गलत भी नहीं लगता था। एक दिन, मेरी सहकर्मी बहन मुझसे कहने लगी कि मैं अपने कर्तव्य की ज़िम्मेदारी उठाने और सभी बातों पर गौर करने के बजाय सिर्फ अपने काम पर ध्यान दे रही हूँ, मैं फैसले लेने में सक्रियता से हिस्सा नहीं लेती। उसने कहा कि यह खतरनाक है और अगर मैंने अपना रवैया नहीं बदला, तो देर-सवेर परमेश्वर मुझे हटा देगा। उसने कहा कि मुझे कर्तव्य के प्रति अपने रवैये पर अच्छी तरह विचार करना चाहिए। उसकी सहभागिता के बाद भी, मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। इसके बजाय, मन-ही-मन तर्क दिया : “क्या तुमने मेरी सभी तकलीफ़ों को नहीं देखा है? इस काम को अच्छे से करने में काफी मेहनत लगती है। अगर मेरी ज़िम्मेदारी वाले काम में कोई समस्या है, तो वह मेरे सिर होगा, फिर दूसरे लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे सोचेंगे कि मैं काबिल नहीं हूँ और व्यावहारिक काम नहीं कर सकता। क्या उन दूसरे कामों के लिए अन्य लोग ज़िम्मेदार नहीं हैं? इन फैसलों में मेरी भागीदारी से कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।” इसलिए, मैं कलीसिया के कार्य के प्रति हमेशा लापरवाह और गैर-ज़िम्मेदार रहा, और आत्मचिंतन करने या खुद को जानने की कोशिश नहीं की।
जनवरी 2021 में, एक अगुआ ने मुझसे कहा, “भाई-बहनों ने बताया कि आप अपने कर्तव्य की ज़िम्मेदारी नहीं उठा रहे हैं, काम की चर्चाओं के दौरान भी आप अपने विचार साझा नहीं करते हैं, आप अपनी ओर से ठोस सुझाव भी नहीं दे रहे हैं, आपको कलीसिया के काम के प्रति ज़िम्मेदारी का ज़रा-भी एहसास नहीं है। आप अगुआ होने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। विचार-विमर्श के बाद, हर किसी ने आपको बर्खास्त करने का फैसला लिया है।” अगुआ की बात सुनकर, मैं हैरान रह गया, चक्कर खाकर गिरने ही वाला था। मैंने सोचा, “मैंने भले ही कलीसिया के समग्र कार्य में ज़्यादा भागीदारी नहीं दिखाई, मगर हर दिन अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने में काफी व्यस्त रहा और काफी कष्ट भी उठाया है। आप यह कैसे कह सकती हैं कि मैं ज़िम्मेदारी नहीं निभा रहा? बिना किसी समस्या के मैं अपना काम पूरा करता रहा, क्या ये काफी नहीं?” कुछ समय के लिए तो मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाया, मगर फिर भी मुझे विश्वास था कि परमेश्वर जो करता है अच्छा करता है, मुझे अब तक इस बारे में पता नहीं था। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके राह दिखाने को कहा, ताकि आत्मचिंतन करके खुद को जान सकूँ।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा जिसने मुझे काफी प्रेरणा दी। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “अंतरात्मा और विवेक दोनों ही व्यक्ति की मानवता के घटक होने चाहिए। ये दोनों सबसे बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। वह किस तरह का व्यक्ति है जिसमें अंतरात्मा नहीं है और सामान्य मानवता का विवेक नहीं है? सीधे शब्दों में कहा जाये तो, वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनमें मानवता का अभाव है, वह बहुत ही खराब मानवता वाला व्यक्ति है। अधिक विस्तार में जाएँ तो ऐसा व्यक्ति किस लुप्त मानवता का प्रदर्शन करता है? विश्लेषण करो कि ऐसे लोगों में कैसे लक्षण पाए जाते हैं और वे कौन-से विशिष्ट प्रकटन दर्शाते हैं। (वे स्वार्थी और निकृष्ट होते हैं।) स्वार्थी और निकृष्ट लोग अपने कार्यों में लापरवाह होते हैं और अपने को उन चीजों से अलग रखते हैं जो व्यक्तिगत रूप से उनसे संबंधित नहीं होती हैं। वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करते हैं और परमेश्वर की इच्छा का लिहाज नहीं करते हैं। वे अपने कर्तव्य को करने या परमेश्वर की गवाही देने की कोई जिम्मेदारी नहीं लेते हैं, और उनमें उत्तरदायित्व की कोई भावना होती ही नहीं है। जब कभी वे कोई काम करते हैं तो किस बारे में सोचते हैं? उनका पहला विचार होता है, ‘अगर मैं यह काम करूंगा तो क्या परमेश्वर को पता चलेगा? क्या यह दूसरे लोगों को दिखाई देता है? अगर दूसरे लोग नहीं देखते कि मैं इतना ज्यादा प्रयास करता हूँ और मेहनत से काम करता हूँ, और अगर परमेश्वर भी यह न देखे, तो मेरे इतना ज़्यादा प्रयास करने या इसके लिए कष्ट सहने का कोई फायदा नहीं है।’ क्या यह अत्यधिक स्वार्थपूर्ण नहीं है? यह एक नीच किस्म का इरादा है। जब वे ऐसी सोच के साथ कर्म करते हैं, तो क्या उनकी अंतरात्मा कोई भूमिका निभाती है? क्या इसमें उनकी अंतरात्मा पर दोषारोपण किया जाता है? नहीं, उनकी अंतरात्मा की कोई भूमिका नहीं है, न इस पर कोई दोषारोपण किया जाता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो चाहे कोई भी कर्तव्य निभाएँ पर कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। वे पता चलने वाली समस्याओं की रिपोर्ट भी तुरंत अपने वरिष्ठों को नहीं करते। लोगों को विघ्न-बाधा डालते देखकर वे आँखें मूँद लेते हैं। जब वे दुष्ट लोगों को बुराई करते देखते हैं, तो वे उन्हें रोकने की कोशिश नहीं करते। वे परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करते, न ही इस बात पर विचार करते हैं कि उनका कर्तव्य और जिम्मेदारी क्या है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो वे कोई वास्तविक कार्य नहीं करते; वे खुशामदी लोग हैं जो सुविधा के लालची होते हैं; वे केवल अपने घमंड, साख, हैसियत और हितों के लिए बोलते और कार्य करते हैं, और वे अपना समय और प्रयास ऐसी चीजों में लगाना चाहते हैं, जिनसे उन्हें लाभ मिलता है। ऐसे इंसान के क्रियाकलाप और इरादे हर किसी को स्पष्ट होते हैं : जब भी उन्हें अपनी हैसियत दिखाने या आशीष प्राप्त करने का कोई मौका मिलता है, ये उभर आते हैं। लेकिन जब उन्हें अपनी हैसियत दिखाने का कोई मौका नहीं मिलता या जैसे ही कष्ट उठाने का समय आता है, वैसे ही वे उसी तरह नज़रों से ओझल हो जाते हैं जैसे कछुआ अपना सिर खोल में छिपा लेता है। क्या इस तरह के इंसान में अंतरात्मा और विवेक होता है? (नहीं।) क्या ऐसा बर्ताव करने वाले, ज़मीर और विवेक से रहित इंसान, आत्म-निंदा एहसास करता है? इस प्रकार के व्यक्ति में आत्म-निंदा की कोई भावना नहीं होती; इस प्रकार के इंसान की अंतरात्मा किसी काम की नहीं होती। उन्हें कभी भी अपनी अंतरात्मा से फटकार का एहसास नहीं होता, तो क्या वे पवित्र आत्मा की झिड़की या अनुशासन को महसूस कर सकते हैं? नहीं, वे नहीं कर सकते” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपना हृदय परमेश्वर को देकर सत्य प्राप्त किया जा सकता है)। मुझे लगा परमेश्वर के वचन मेरे दिल में नश्तर की तरह चुभते जा रहे हैं। मैं बिल्कुल वैसा ही था जैसा परमेश्वर ने कहा। मैं अपने कर्तव्य के प्रति बेपरवाह और अलग-थलग था, अपनी जिम्मेदारियों से बाहर किसी भी चीज़ पर ध्यान नहीं देता था। मैंने सिर्फ अपने काम पर ध्यान दिया। मैंने सिर्फ यही सोचा कि शोहरत और रुतबा हासिल करने की मेरी इच्छा पूरी हो सकती है या नहीं। मैंने कलीसिया के कार्य की रक्षा बिल्कुल भी नहीं की। जब हर कोई फैसले लेने पर चर्चा कर रहा था, उस दौरान, मैं सोच रहा था कि मेरी जिम्मेदारियों के बाहर मिलने वाली कामयाबी से मेरा कुछ भला नहीं होगा, और अगर इन चीज़ों से ठीक से नहीं निपटा गया तो इसका दोष मेरे ऊपर नहीं आएगा। अगर मैं इन्हें टाल सकता हूँ तो इनमें हिस्सा नहीं लूंगा। मैं बस हर किसी से सहमत होते हुए बेपरवाही से काम करता रहा। ये लापरवाह और गैर-ज़िम्मेदार रवैया था। मैं अपनी ज़िम्मेदारी के दायरे में आने वाले काम में बहुत मेहनती और ईमानदार था, डरता था कि इनमें कोई समस्या होने पर मेरी काट-छाँट की जाएगी या मुझे बर्खास्त किया जाएगा और बहुत बदनामी होगी। अपने काम को अच्छी तरह से पूरा करने के लिए, दूसरों के बीच अपनी छवि और रुतबे को बचाने के लिए, मैंने फैसले लेने की ज़िम्मेदारी को एक रुकावट और वक्त की बर्बादी माना, अपना काम करने से दूर भागता रहा। अपने बर्ताव पर विचार करके, मैंने जाना कि अपने कर्तव्य को पूरा करने के पीछे मेरी मंशा खुद को संतुष्ट करने की थी, मैंने सारी तकलीफें खुद के लिए उठाई थीं। मैंने कलीसिया के हितों या समग्र कार्य की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी बिल्कुल भी नहीं उठाई और न ही मुझे इसकी समझ थी। क्या मैं इंसानियत से वंचित नहीं था? मैं ऐसी महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करने के काबिल बिल्कुल नहीं था। इसके बाद मैंने अपनी बर्खास्तगी को पूरी तरह कबूल कर लिया। हालांकि मैं यह जानता था कि मेरा बर्ताव परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप नहीं था, फिर भी मैंने अपनी प्रकृति को नहीं समझा और यह नहीं जान पाया कि मेरे अपने कर्तव्य का बोझ नहीं उठाने के पीछे कारण क्या था। मेरे शोहरत और रुतबे के पीछे भागने और कलीसिया के हितों को पूरी तरह अनदेखा कर देने की वजह क्या थी। उसके बाद मैंने प्रार्थना में परमेश्वर के सामने अपनी समस्या रखी, परमेश्वर से विनती की कि वो मुझे राह दिखाए जिससे मैं अपनी समस्या के मूल और सार को जान सकूँ, ताकि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव को समझकर दिल की गहराइयों से खुद से नफ़रत कर सकूँ।
उसके बाद, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “मसीह-विरोधियों में न तो कोई अंतःकरण होता है, न समझ और न ही कोई मानवता होती है। वे न केवल बेशर्म होते हैं, बल्कि उनकी एक और पहचान भी होती है : वे असाधारण रूप से स्वार्थी और नीच होते हैं। उनके ‘स्वार्थीपन और नीचता’ का शाब्दिक अर्थ समझना कठिन नहीं है : उन्हें अपने हित के अलावा कुछ नहीं सूझता। अपने हितों से संबंधित किसी भी चीज पर उनका पूरा ध्यान रहता है, वे उसके लिए कष्ट उठाएँगे, कीमत चुकाएँगे, उसमें खुद को तल्लीन कर देंगे, समर्पित कर देंगे। जिन चीजों का उनके अपने हितों से कोई लेना-देना नहीं होता, वे उनकी ओर से आँखें मूँद लेंगे और उन पर कोई ध्यान नहीं देंगे; दूसरे लोग जो चाहें सो कर सकते हैं—उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि कोई विघ्न-बाधा पैदा तो नहीं कर रहा, उन्हें इन बातों से कोई सरोकार नहीं होता। युक्तिपूर्वक कहें तो, वे अपने काम से काम रखते हैं। लेकिन यह कहना ज्यादा सही है कि इस तरह का व्यक्ति नीच, घिनौना और निकम्मा होता है; हम उन्हें ‘स्वार्थी और नीच’ के रूप में परिभाषित करते हैं। मसीह-विरोधियों की स्वार्थपरता और नीचता कैसे प्रकट होती हैं? उनके रुतबे और प्रतिष्ठा को जिससे लाभ होता है, उसके लिए जो भी जरूरी है उसके करने या बोलने का प्रयास करते हैं और वे स्वेच्छा से हर पीड़ा सहन करते हैं। लेकिन जहाँ बात परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कार्य से संबंधित होती है, या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन के विकास को लाभ पहुंचाने वाले कार्यों से संबंधित होती है, वे पूरी तरह इसे अनदेखा करते हैं। यहाँ तक कि जब कुकर्मी विघ्न-बाधा डाल रहे होते हैं, सभी प्रकार की बुराई कर रहे होते हैं और इसके फलस्वरूप कलीसिया के कार्य को बुरी तरह प्रभावित कर रहे होते हैं, तब भी वे उसके प्रति आवेगहीन और उदासीन बने रहते हैं, जैसे उनका उससे कोई लेना-देना ही न हो। और अगर कोई किसी कुकर्मी के बुरे कर्मों के बारे में जान जाता है और इसकी रिपोर्ट कर देता है, तो वे कहते हैं कि उन्होंने कुछ नहीं देखा और अज्ञानता का ढोंग करने लगते हैं। लेकिन अगर कोई उनकी रिपोर्ट करता है और यह उजागर करता है कि वे व्यावहारिक कार्य नहीं करते और सिर्फ प्रतिष्ठा और हैसियत का अनुसरण करते हैं, तो वे आगबबूला हो जाते हैं। यह तय करने के लिए आनन-फानन में बैठकें बुलाई जाती हैं कि क्या उत्तर दिया जाए, इस बात की जाँच की जाती है कि किसने गुपचुप यह काम किया, सरगना कौन था, कौन शामिल था। जब तक वे इसकी तह तक नहीं पहुँच जाते और मामला शांत नहीं हो जाता, तब तक उनका खाना-पीना हराम रहता है; कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि उन्हें तभी खुशी मिलती है जब वे अपनी रिपोर्ट करने वाले सभी लोगों को धराशायी कर देते हैं। यह स्वार्थपरता और नीचता का प्रकटीकरण है, है न? क्या वे कलीसिया का काम कर रहे हैं? वे अपने सामर्थ्य और रुतबे के लिए काम कर रहे हैं, और कुछ नहीं। वे अपना कारोबार चला रहे हैं। मसीह-विरोधी व्यक्ति चाहे जो भी कार्य करें, वह कभी परमेश्वर के घर के हितों पर विचार नहीं करता। वह केवल इस बात पर विचार करता है कि कहीं उसके हित तो प्रभावित नहीं हो रहे, वह केवल अपने सामने के उस छोटे-से काम के बारे में सोचता है, जिससे उसे फायदा होता है। उसकी नजर में, कलीसिया का प्राथमिक कार्य बस वही है, जिसे वह अपने खाली समय में करता है। वह उसे बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लेता। वह केवल तभी हरकत में आता है जब उसे काम करने के लिए कोंचा जाता है, केवल वही करता है जो वह करना पसंद करता है, और केवल वही काम करता है जो उसकी हैसियत और सत्ता बनाए रखने के लिए होता है। उसकी नजर में, परमेश्वर के घर द्वारा व्यवस्थित कोई भी कार्य, सुसमाचार फैलाने का कार्य, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों का जीवन-प्रवेश महत्वपूर्ण नहीं हैं। चाहे अन्य लोगों को अपने काम में जो भी कठिनाइयाँ आ रही हों, उन्होंने जिन भी मुद्दों को पहचाना और रिपोर्ट किया हो, उनके शब्द कितने भी ईमानदार हों, मसीह-विरोधी उन पर कोई ध्यान नहीं देते, वे उनमें शामिल नहीं होते, मानो इन मामलों से उनका कोई लेना-देना ही न हो। कलीसिया के काम में उभरने वाली समस्याएँ चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हों, वे पूरी तरह से उदासीन रहते हैं। अगर समस्या उनके ठीक सामने भी हो, तब भी वे उस पर लापरवाही से ही ध्यान देते हैं। जब ऊपर वाला सीधे उनकी काट-छाँट करता है और उन्हें किसी समस्या को सुलझाने का आदेश देता है, तभी वे बेमन से थोड़ा-बहुत काम करके ऊपर वाले को दिखाते हैं; उसके तुरंत बाद वे फिर अपने धंधे में लग जाते हैं। कलीसिया के काम के प्रति, व्यापक संदर्भ की महत्वपूर्ण बातों के प्रति वे उदासीन और बेखबर बने रहते हैं। जिन समस्याओं का उन्हें पता लग जाता है, उन्हें भी वे नजरअंदाज कर देते हैं और समस्याओं के बारे में पूछने पर लापरवाही से जवाब देते हैं या तुम्हें टालने के लिए कोई बात कह देते हैं, और बहुत ही बेमन से उस समस्या की तरफ ध्यान देते हैं। यह स्वार्थ और नीचता का प्रकटीकरण है, है न?” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक))। परमेश्वर के वचनों ने मेरा दिल छलनी कर दिया। मसीह-विरोधी सिर्फ अपनी इज्ज़त और रुतबे के लिए काम करते हैं, वे हर उस काम को ईमानदारी से पूरा करते हैं जिसमें उनका हित होता है। उसके लिए वे हर तकलीफ उठा सकते हैं, अपनी मानसिक और शारीरिक ऊर्जा खर्च कर सकते हैं। मगर जो काम उनके फायदे का नहीं है, उसे अनदेखा करते हैं। वे खास तौर पर स्वार्थी और घिनौने हैं। मैंने देखा कि मेरा बर्ताव मसीह-विरोधियों जैसा ही था, मैं सिर्फ अपनी इज़्ज़त और रुतबे के लिए काम कर रहा था। “चीजों को प्रवाहित होने दें यदि वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रभावित न करती हों” और “जितनी कम परेशानी, उतना ही बेहतर” जैसे शैतानी फलसफों के अनुसार जी रहा था। मैं सिर्फ उस काम पर ध्यान दे रहा था जिसके लिए जिम्मेदार था, और जिसका असर मेरी शोहरत और रुतबे पर पड़ता था, मैंने उन कामों को अनदेखा कर दिया जो मेरी ज़िम्मेदारी के दायरे में नहीं आते थे। इससे कलीसिया के कार्य और उसके पैसों को भारी नुकसान हुआ। मैंने देखा कि मैं एक स्वार्थी, ख़ुदगर्ज, घृणित और नीच इंसान था, मैं भरोसे के लायक नहीं था। उस समय के दौरान कलीसिया के काम में लगातार समस्याएं आ रही थीं, काम को सही तरीके से पूरा न कर पाने के कारण अगुआ दूसरे भाई-बहनों की काट-छाँट कर रहे थे। सीधे तौर पर मेरी काट-छाँट नहीं की गई, मगर मैं भी कलीसिया अगुआ थी और मैं अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता था। अगर मैंने काम की चर्चाओं में ईमानदारी से हिस्सा लिया होता, तो शायद मुझे कुछ समस्याओं का पता चल जाता। मगर मैंने सिर्फ अपनी जिम्मेदारियों पर ध्यान देकर, अपने नाम और रुतबे को बचाना चाहा। मैंने कलीसिया के समग्र कार्य या हितों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया। अपने कर्तव्य में मेरे कई अपराधों और कलीसिया के काम को पहुँचाये अपूरणीय नुकसानों को देखकर, मैं पछतावे और अपराध बोध से भर गया। परमेश्वर ने ऐसा महत्वपूर्ण काम करने का मौका देकर मुझ पर अनुग्रह किया था और मुझे ऊँचा उठाया था, और मुझे खुद को संवारने का मौका दिया था, ताकि मैं अधिक तेज़ी से सत्य समझ सकूँ। मैंने कई बरसों तक परमेश्वर के वचनों के सिंचन और पोषण का आनंद उठाया था, फिर भी मैंने आभार नहीं माना, मैं अपना कर्तव्य ठीक से निभाना या परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुकाना नहीं चाहता था। मैंने सिर्फ अपनी छवि और रुतबे के साथ-साथ अपनी छोटी-सी दुनिया को बचाने के बारे में सोचा, ताकि मेरी काट-छाँट न की जाए। मैं इस महत्वपूर्ण कार्य के प्रति लापरवाह और गैर-ज़िम्मेदार था, कलीसिया के हितों का नुकसान होते और कलीसिया के काम पर बुरा असर पड़ते देखता रहा। मैं बेपरवाह था, मुझमें विवेक नाम की चीज़ नहीं थी। मुझे एक इंसान भी कैसे माना जा सकता है? जब कोई परिवार कुत्ते को खाना खिलाता है तो कुत्ता हमेशा वफ़ादार बना रहता है। मैं तो एक जानवर से भी बुरा था। जितना सोचता उतना ही लगता कि मैं परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद उठाने के लायक नहीं था। इस पर, मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की : “हे परमेश्वर, अपने कर्तव्य मैंने कलीसिया के कार्य की रक्षा करने की परवाह किये बिना सिर्फ अपने नाम और रुतबे के बारे में सोचा। मुझमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं थी, मैं स्वार्थी और ख़ुदगर्ज था। मुझे बर्खास्त किया जाना तुम्हारी धार्मिकता है, इससे भी ज़्यादा, यह मेरे लिए तुम्हारा प्रेम और उद्धार है। मैं पश्चाताप करना चाहता हूँ।”
इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “वह मानक क्या है जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के कर्मों को अच्छे या बुरे के रूप में आंका जाता है? वह यह है कि वह अपने विचारों, भावात्मक अभिव्यक्तियों और कार्यों में सत्य को व्यवहार में लाने और सत्य वास्तविकता को जीने की गवाही रखता है या नहीं। यदि तुम्हारे पास यह वास्तविकता नहीं है या तुम इसे नहीं जीते, तो बेशक, तुम एक कुकर्मी हो। परमेश्वर कुकर्मियों को कैसे देखता है? परमेश्वर के लिए, तुम्हारे विचार और बाहरी कर्म परमेश्वर की गवाही नहीं देते, न ही वे शैतान को शर्मिंदा करते या उसे हराते हैं; बल्कि वे परमेश्वर को शर्मिंदा करते हैं और उस अपमान से निशानों से भरे हुए हैं जो तुमने परमेश्वर का किया है। तुम परमेश्वर के लिए गवाही नहीं दे रहे, न ही तुमपरमेश्वर के लिये खुद को खपा रहे हो, तुम परमेश्वर के प्रति अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों को भी पूरा नहीं कर रहे; बल्कि अपने फायदे के लिए काम कर रहे हो। ‘अपने फायदे के लिए,’ इसका क्या मतलब है? इसका सही-सही मतलब है, शैतान के फायदे के लिए काम करना। इसलिये, अंत में परमेश्वर यही कहेगा, ‘हे कुकर्म करनेवालो, मेरे पास से चले जाओ।’ परमेश्वर की नजर में तुम्हारे कार्यों को अच्छे कर्मों के रूप में नहीं देखा जाएगा, बल्कि उन्हें बुरे कर्म माना जाएगा। उन्हें न केवल परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं होगी—बल्कि उनकी निंदा भी की परमेश्वर में ऐसे विश्वास से कोई क्या हासिल करने की आशा कर सकता है? क्या इस तरह का विश्वास अंततः व्यर्थ नहीं हो जाएगा?” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मैंने जाना कि उसका स्वभाव धार्मिक है और वह कोई अपमान नहीं सहता है। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराई में देखता है, अगर लोग परमेश्वर को संतुष्ट करने के बजाय किसी और मंशा से अपने कर्तव्य निभाते हैं, उनके पास सत्य के अभ्यास की गवाही नहीं होती, हर मामले में खुद को संतुष्ट करते हैं, अपनी इज्ज़त और रुतबे के पीछे भागते हैं, तो परमेश्वर इसकी सराहना नहीं करता। कोई व्यक्ति इसके लिए कितनी भी तकलीफ़ क्यों न उठाए, परमेश्वर उसे याद नहीं रखता, बल्कि परमेश्वर उसे एक दुष्ट इंसान मानकर दंड देता है। अपने कर्तव्य के प्रति मेरी मंशाएं गलत थीं। वे परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं थी, बल्कि मैं तो अपना ही उद्यम चला रहा था। मैं सिर्फ अपनी ज़िम्मेदारी वाले काम के लिए तकलीफ़ उठाने और खुद को खपाने को तैयार था, मगर दूसरों की नज़रों में यह सब अपने रुतबे और छवि को बचाने के लिए था। मैं तकलीफ़ उठाने और कड़ी मेहनत करने के लिए दूसरों की प्रशंसा पाना चाहता था, लोगों की सराहना पाकर उनके दिलों में जगह बनाना चाहता था। परमेश्वर के अनुग्रह से ही मैं एक अगुआ के रूप में काम कर पाया और मुझे खुद को संवारने का अवसर मिला। अगुआ, कलीसिया के समग्र कार्य के लिए ज़िम्मेदार होते हैं, कलीसिया में बहुत-सी समस्याएं, परेशानियां और मुश्किलें होती हैं जिनका समाधान ज़रूरी होता है। इसके लिए बहुत से सिद्धांतों और सत्य की खोज करनी होती है। वे अपने काम में गलतियां कर सकते हैं, उनके साथ काट-छाँट भी की जा सकती है, मगर निरंतर समीक्षा, सुधार और आत्मचिंतन से उन्हें बहुत कुछ हासिल होगा। चाहे यह परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की बात हो या उनके भ्रष्ट स्वभाव की, यह सब व्यावहारिक ज्ञान है। परमेश्वर लोगों को कर्तव्य निभाकर सत्य हासिल करने देता है, लेकिन मैंने परमेश्वर की इच्छा का ध्यान नहीं रखा या अपने कर्तव्य को गंभीरता से नहीं लिया। मैंने इसे एक असुविधा माना, और सत्य हासिल करने के अनेक अवसर गँवा दिए। ऐसे महत्वपूर्ण कर्तव्य में, ज़िम्मेदार न होकर, दूसरों के साथ सहयोग न करके, फैसले या निगरानी में कोई भूमिका न निभाकर, मैं भला अपना कर्तव्य कैसे निभा रहा था? मैं तो परमेश्वर को मूर्ख बनाकर उसे धोखा दे रहा था। मैं दुष्टता कर रहा था!
उसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “अपने कर्तव्य को निभाने वाले सभी लोगों के लिए, फिर चाहे सत्य को लेकर उनकी समझ कितनी भी उथली या गहरी क्यों न हो, सत्य वास्तविकता में प्रवेश के अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि हर काम में परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचा जाए, और अपनी स्वार्थपूर्ण इच्छाओं, व्यक्तिगत मंशाओं, अभिप्रेरणाओं, घमंड और हैसियत का त्याग किया जाए। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—कम से कम इतना तो व्यक्ति को करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य निभाने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है। तुम्हें पहले परमेश्वर के घर के हितों के बारे में सोचना चाहिए, परमेश्वर की इच्छा के प्रति विचारशील होना चाहिए, और कलीसिया के कार्य का ध्यान रखना चाहिए। इन चीजों को पहले स्थान पर रखना चाहिए; उसके बाद ही तुम अपनी हैसियतकी स्थिरता या दूसरे लोग तुम्हारे बारे में क्या सोचते हैं, इसकी चिंता कर सकते हो। क्या तुम लोगों को नहीं लगता कि जब तुम इसे दो चरणों में बाँट देते हो और कुछ समझौते कर लेते हो तो यह थोड़ा आसान हो जाता है? यदि तुम कुछ समय के लिए इस तरह अभ्यास करते हो, तो तुम यह अनुभव करने लगोगे कि परमेश्वर को संतुष्ट करना इतना भी मुश्किल काम नहीं है। इसके अलावा, तुम्हेंअपनी जिम्मेदारियाँ, अपने दायित्व और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, और अपनी स्वार्थी इच्छाओं, मंशाओं और उद्देश्यों को दूर रखना चाहिए, तुम्हें परमेश्वर की इच्छा का ध्यान रखना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों को, कलीसिया के कार्य को और जो कर्तव्य तुम्हें निभाना चाहिए, उसे पहले स्थान पर रखना चाहिए। कुछ समय तक ऐसे अनुभव के बाद, तुम पाओगेकि यह आचरण का एक अच्छा तरीका है। यह सरलता और ईमानदारी से जीना और नीच और भ्रष्ट व्यक्ति न होना है, यह घृणित, नीच और निकम्मा होने की बजाय न्यायसंगत और सम्मानित ढंग से जीना है। तुम पाओगेकि किसी व्यक्ति को ऐसे ही कार्य करना चाहिए और ऐसी ही छवि को जीना चाहिए। धीरे-धीरे, अपने हितों को तुष्ट करने की तुम्हारी इच्छा घटती चली जाएगी” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागकर ही आजादी और मुक्ति पाई जा सकती है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। हमारे कर्तव्य में कलीसिया के हित सबसे पहले आने चाहिए। हमें परमेश्वर की जांच को स्वीकार करके सत्य की खोज पर ध्यान केंद्रित करना होगा, अपने नाम, रुतबे और निजी हितों को परे रखकर, हर तरह से कलीसिया के कार्य की रक्षा करनी होगी। यही परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप काम करने, ईमानदारी और सम्मान के साथ जीने का एकमात्र तरीका है। मैं हमेशा यही सोचता था कि कलीसिया के कार्य से जुड़े फैसलों में हिस्सा लेने से मेरे काम में देरी हो जाएगी, मगर यह एक बेतुकी सोच थी। दरअसल, अगर सत्य सिद्धांतों की खोज करने, प्राथमिकता की समझ बनाये रखने, और महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करने पर ध्यान दिया जाता है, तो कार्य में देरी नहीं होती है। कलीसिया के ज़रूरी फैसले करने में हिस्सा लेने पर अधिक सिद्धांतों की समझ हासिल होती है, इससे कर्तव्य के साथ खुद को भी फायदा होता है। परमेश्वर के घर ने हर कलीसिया में कुछ अगुआओं को चुना है जिन पर कलीसिया के कार्य की ज़िम्मेदारी होती है, इसलिए हर व्यक्ति इसमें योगदान देकर, निगरानी करते हुए एक दूसरे पर नज़र रख सकता है। खास तौर पर कुछ जटिल समस्याओं में, जहां वे फैसले लेने वालों के तौर पर काम करते हैं, गहरी समझ न होने और मनमाने फैसले लेने से कलीसिया के कार्य को होने वाले नुकसान रोके जा सकते हैं, मगर मैं ऐसे महत्वपूर्ण कर्तव्य में बेपरवाह और उदासीन बना रहा। मैं सचमुच विश्वास के लायक नहीं था, मुझे बर्खास्त करके निकाला जाना सही था। यह समझकर मैंने संकल्प लिया कि आगे से चाहे कोई काम मेरी मुख्य ज़िम्मेदारी हो, चाहे यह कलीसिया का काम हो या इसमें उसके हित शामिल हों, वह मेरी ज़िम्मेदारी और मेरा कर्तव्य होगा, मुझे कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के लिए अपना सर्वोत्तम प्रयास करना चाहिए।
बाद में, मुझे दूसरी कलीसिया के लिए अगुआ चुना गया। मैं जानता था कि यह परमेश्वर का उत्कर्ष है। मैं स्वार्थी और नीच था, फिर भी कलीसिया ने ऐसा महत्वपूर्ण कर्तव्य करने की अनुमति दी, मैंने कसम खाई कि मैं इसे अच्छी तरह करूंगा, मैं स्वार्थी बनकर सिर्फ अपने काम के बारे में नहीं सोचूंगा। उस कलीसिया में, मैं तीन अगुआओं में से एक था, हर अगुआ को कार्य के एक हिस्से की ज़िम्मेदारी मिली हुई थी। मैंने देखा कि मेरी जिम्मेदारी वाले काम में ऐसी बहुत-सी बातें थीं जिन्हें मैं नहीं समझता था, इन्हें सीखने के लिए समय और मेहनत की ज़रूरत थी। मेरे हर दिन का पूरा काम बंटा होता था, कभी-कभी लगता कि मेरे पास पर्याप्त समय ही नहीं है। एक दिन, मेरी एक सहकर्मी बहन मेरे पास आकर बोली कि वह कुछ समस्याओं को हल करने में मेरी मदद चाहती है। मैंने सोचा, “कुछ दिनों पहले, एक बड़ी अगुआ ने मेरे काम की समीक्षा करने के बाद कहा था कि मैंने बहुत से काम ठीक से पूरे नहीं किये थे। मेरा वक्त बहुत कीमती है। अगर मैंने उसकी मदद की और मेरे काम में देरी हो गई, तो मुझे अच्छे नतीजे नहीं मिलेंगे, फिर वो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वो कहेगी कि मैं काबिल नहीं हूँ और व्यावहारिक काम नहीं कर सकता? क्या मुझे फिर से बर्खास्त कर दिया जाएगा?” इस पर, मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपने नाम और रुतबे के बारे में सोच रहा हूँ, कलीसिया का काम एक समग्र काम है और मैं इसे बाँट नहीं सकता। अगर मैंने सिर्फ अपनी ज़िम्मेदारियों पर ध्यान दिया और बाकी बातों को अनदेखा किया, तो क्या वह स्वार्थ, नीचता, और अपने हितों की रक्षा करना नहीं है? मैं ऐसा नहीं कर सकता। मुझे अपने हितों को परे रखकर कलीसिया की समस्याओं को हल करने में इस बहन की मदद करनी ही होगी। मैं समस्याएं हल करने में उसकी मदद करने को तैयार हो गया। ऐसा करके मुझे काफी सुकून मिला और वह आज़ादी महसूस हुई जो सत्य का अभ्यास करने से आती है। भले ही मेरा बर्खास्त किया जाना मेरे लिए बहुत पीड़ादायक था, मगर इससे मुझे एक बेशकीमती सबक भी मिला। इसने मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की व्यावहारिक समझ दी, जो कोई अपमान नहीं सहता है। मैंने अपने कर्तव्य के प्रति मेरी गलत सोच और लापरवाह रवैये को भी कुछ हद तक ठीक किया। मुझे बचाने के लिए परमेश्वर का धन्यवाद।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?