झूठ से सिर्फ दर्द मिले

04 फ़रवरी, 2022

गेंगक्षिण, दक्षिण कोरिया

मुझे याद है, मई 2021 में, हम भाई लियू के गाने के वीडियो का फिल्मांकन कर रहे थे, मैं लाइटिंग का काम कर रहा था। भाई लियू मंच पर चारों ओर चल रहे थे, वे लंबे हैं, बड़े डग भरते हैं, इसलिए मुझे नजर रखनी थी कि वे कितनी दूर तक चल रहे हैं, फिर उसी अनुसार लाइटिंग को चलाना था। अगर मैंने तालमेल नहीं रखा और पीछे वाली रोशनी उनके सिर पर सही ढंग से न पड़ी, तो अंतिम संपादन में निरंतरता की दिक्कत हो जाएगी। फिल्मांकन शुरू करने से पहले, मैंने ध्यान लगाए रखने के लिए खुद को तैयार किया। शुरू के कुछ शॉट में कोई दिक्कत नहीं हुई, तो मैं धीरे-धीरे थोड़ा ढीला हो गया। हमारा फिल्मांकन खत्म होने को ही था कि निर्देशक ने दो-चार और शॉट लेने की बात कही, तो शॉट शुरू होने के बाद भी मेरी नजर एक दूसरे मॉनीटर पर ही थी, मेरा ध्यान तब गया जब भाई लियू लाइटिंग वाले हिस्से से बाहर जा चुके थे। मैंने जल्दी से लाइटिंग सरकाई, मगर मैं फुर्ती से नहीं कर पाया, और भाई लियू का सिर लाइटिंग से बाहर चला गया और फिर अंदर आ गया। यह शॉट बेकार हो गया था। आमतौर पर मंच पर कोई समस्या होने पर, हमें निर्देशक को फौरन बताना होता है, और एक दूसरा टेक लेना होता है, लेकिन मैं बस वॉकी–टॉकी पकड़े रहा, मुँह खोलने की हिम्मत ही नहीं कर पाया। मेरे मुँह से बोल ही नहीं निकल रहे थे। मैंने बड़ी दुविधा महसूस की, मैं सोच रहा था कि वहाँ सिर्फ निर्देशक ही नहीं, बहुत-से दूसरे भाई-बहन भी थे। अगर मैंने उन्हें बताया कि मैंने ऐसी बुनियादी गलती की है, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं लापरवाह था? यह बड़ी शर्मिंदगी की बात होगी। लेकिन अगर मैंने कुछ नहीं कहा, तो मुझे गैरजिम्मेदार कहा जाएगा। अगर फुटेज का इस्तेमाल किया गया, तो इससे सीधे वीडियो-क्वालिटी पर असर पड़ेगा। मेरे मन में यह संघर्ष चल रहा था, तभी मैंने निर्देशक को यह कहते सुना, "यह हिस्सा अच्छा बन गया है, आइए, अगला शुरू करें।" मैंने देखा कि फिल्मांकन करने वाला भाई अपना सामान बांध चुका है, इसलिए मैं बहाने ढूँढ़ने लगा। मैं सोच रहा था, फिल्मांकन पूरा हो चुका है, इसलिए अगर मैंने कुछ कहा, तो सभी को अपने सामान फिर खोलने होंगे, और इससे बड़ी परेशानी होगी। शायद मुझे जिक्र नहीं करना चाहिए, वैसे भी यह महज एक शॉट है, और हो सकता है इसका इस्तेमाल भी न हो। इसके अलावा, बारीकी से देखे बिना लाइटिंग की समस्या दिखाई नहीं देगी। मैंने चुप रहने का फैसला किया। फिल्मांकन के बाद, मैं और ज्यादा दोषी महसूस करने लगा। क्या मैं जानबूझकर धोखा नहीं दे रहा था? मैं लोगों को बेवकूफ बना सकता था, मगर परमेश्वर को? इसलिए मैंने निर्देशक को अपनी गलती के बारे में बता दिया। उन्होंने कहा, "हमने काम पूरा कर लिया और सबने पैक-अप कर लिया। मुझे बताने के लिए आपने अब तक इंतज़ार क्यों किया? आपने मुझे उस वक्त क्यों नहीं बताया? अगर बताया होता, तो उसके दोबारा करने में ज्यादा वक्त नहीं लगा होता।" निर्देशक के असहाय चेहरे को देखकर, मुझे और भी बुरा लगा, खुद को थप्पड़ मारने का मन हुआ। बस अपनी गलती मान लेना मेरे लिए इतना मुश्किल क्यों था? बस सच्चा होने के लिए इतना संघर्ष क्यों? अपनी पीड़ा में मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैंने गलती की और इस डर से कि वे मुझे नीची नजर से देखेंगे, मुझमें उसे मानने की हिम्मत नहीं थी। हे परमेश्वर, अब मुझे पीड़ा हो रही है। मुझे खुद को जानने का रास्ता दिखाओ।"

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "अगर तुम्हें या तो अपनी गलतियाँ स्वीकार कर एक ईमानदार व्यक्ति बनना हो, सच बोलना हो, और सभी को अपने असली रंग देखने देने हों जिससे लोगों के दिलों में तुम्हारी छवि और हैसियत पूरी तरह से खत्म हो जाए, या परमेश्वर के लिए अपने जीवन का बलिदान करना हो, तो तुम किसे चुनोगे? यह एक कठिन चुनाव होगा, है न? शायद तुम कहो, 'मैं परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्यागना पसंद करूँगा। मैं परमेश्वर के लिए मरने को तैयार हूँ।' तुम इसे पूरा करने में सक्षम हो सकते हो, लेकिन अगर तुम्हें अभी मरना न हो, बल्कि एक ईमानदार व्यक्ति बनना हो और कुछ सच कहना हो, कुछ ऐसा जिसमें तथ्य शामिल हों, कुछ ऐसा जिससे तुम्हारा भविष्य और भाग्य जुड़ा हो, जिसके परिणाम शायद तुम्हारे लिए लाभप्रद न हों, और दूसरे अब तुम्हें सम्मान से न देखें, और तुम्हारी प्रतिष्ठा नष्ट हो जाए—क्या तुम ऐसा कर सकोगे? यह करना सबसे कठिन काम है, अपना जीवन त्यागने से कहीं अधिक कठिन। तुम कह सकते हो, 'मेरे सच बोलने से काम नहीं चलेगा। मैं सच बोलने और एक ईमानदार व्यक्ति बनने के बजाय परमेश्वर के लिए मरना पसंद करूँगा। हर कोई मुझे नीची निगाह से देखे और मुझे एक आम व्यक्ति समझे, इसके बजाय मैं मर जाना पसंद करूँगा।' यह क्या दिखाता है कि लोग किस चीज को सबसे ज्यादा सँजोते हैं? लोग जिसे सबसे ज्यादा सँजोते हैं, वह उनका जीवन नहीं है, बल्कि उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा है—ऐसी चीजें जो शैतानी, भ्रष्ट स्वभावों द्वारा नियंत्रित होती हैं। व्यक्ति का जीवन एक शब्द से बलिदान किया जा सकता है, एक झटके से त्यागा जा सकता है। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम अपने जीवन का बलिदान दो, बल्कि यह चाहता है कि तुम एक सच्चे ईमानदार व्यक्ति बनो, जो वही कहता है जो उसके दिल में होता है और उसे सभी को दिखाता है। क्या तुम्हारे लिए ऐसा करना आसान है? (नहीं।) परमेश्वर तुमसे कुछ भी बलिदान करने के लिए नहीं कहता, वह तुमसे अपना जीवन बलिदान करने के लिए नहीं कहता। क्या तुम्हारा जीवन तुम्हें परमेश्वर ने ही नहीं दिया था? तुम्हारा जीवन परमेश्वर का क्या भला करेगा? परमेश्वर उसे नहीं चाहता। वह चाहता है कि तुम ईमानदारी से बोलो, दूसरों को यह बताओ कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो और अपने दिल में क्या सोचते हो। क्या तुम ये बातें कह सकते हो? यहाँ, यह कार्य कठिन हो जाता है, और तुम कह सकते हो, 'मुझे कड़ी मेहनत करने दो, मुझमें उसे करने की ताकत होगी। मुझे त्याग करने दो, मैं अपनी सारी संपत्ति, अपने माता-पिता, अपने बच्चे, अपनी जवानी, अपनी शादी और अपनी आजीविका त्याग दूँगा। इन सभी का त्याग करना आसान है। लेकिन अपने दिल की बात कहना, ईमानदारी से बोलना—यही एक काम मैं नहीं कर सकता।' क्या कारण है कि तुम ऐसा नहीं कर सकते? इसका कारण यह है कि तुम्हारे ऐसा करने के बाद, जो कोई भी तुम्हें जानता है या तुमसे परिचित है, वह तुम्हें अलग तरह से देखेगा। वह अब तुम्हारा सम्मान नहीं करेगा। तुम्हारी साख मिट जाएगी, तुम्हारा चरित्र और गरिमा भी नष्ट हो जाएगी। दूसरों की दृष्टि में तुम्हारी ऊँची हैसियत और प्रतिष्ठा नहीं रहेगी। इसलिए, चाहे कुछ भी हो जाए, तुम ये बातें नहीं कहोगे। जब लोगों के सामने यह स्थिति आती है, तो उनके दिलों में एक जंग होती है, और जब वह जंग खत्म होती है, तो कुछ लोग अंततः अपनी कठिनाइयों से निकल आते हैं, जबकि अन्य इससे निकल नहीं पाते और अभी भी अपने शैतानी, भ्रष्ट स्वभावों और अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और तथाकथित गरिमा द्वारा नियंत्रित होते हैं। यह एक कठिनाई है, है न? केवल ईमानदारी से बोलना और सच बोलना कोई महान कार्य नहीं है, फिर भी बहुत-से वीर नायक, बहुत-से ऐसे लोग जिन्होंने परमेश्वर के लिए अपना जीवन समर्पित करने और जब तक वे जीवित हैं तब तक परमेश्वर के लिए खपने की शपथ ली है, और बहुत-से ऐसे लोग जिन्होंने परमेश्वर से भव्य बातें कही हैं, ऐसा करना असंभव पाते हैं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपने कर्तव्य को अच्छी तरह निभाने के लिए कम से कम, एक जमीर का होना आवश्यक है')। मेरी ठीक यही हालत थी। मेरी प्रतिष्ठा और रुतबा मेरे लिए बहुत मायने रखते थे। बुरा दिखने के डर से, मैंने अपनी गलती नहीं मानी, एक शब्द भी नहीं बोल पाया। जब मैंने अपनी गलती समझी, तो लगा, इसे मान लिया तो दूसरे लोग यही सोचेंगे कि मैं इतना आसान काम नहीं संभाल सकता, वे मुझे नीची नजर से देखेंगे। अपनी छवि बचाने की चाह में, मैंने कुछ नहीं बताया, यह सोचकर उस पर परदा भी डाल दिया, कि किसी को पता नहीं चलेगा और वे इसके लिए मेरी आलोचना नहीं करेंगे। फिर उनकी नज़रों में मैं अपनी छवि बनाए रख सकूंगा। मैं जानता था कि इससे कलीसिया के कार्य पर असर पड़ेगा, और मुझे इसका बुरा भी लग रहा था, फिर भी मैं काट-छाँट, निपटान और इज्जत खोने से डर रहा था, इसलिए मैंने खुद को सुकून देने का एक बहाना ढूँढ़ लिया : शायद यह शॉट इस्तेमाल नहीं होगा। क्या मैं खुद से झूठ नहीं बोल रहा था? मैं बेहद स्वार्थी था! मुझे सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बचाने के लिए, परमेश्वर और भाई-बहनों के साथ बेईमानी करने पर बहुत खेद हुआ। इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैंने सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए अपनी गलती नहीं मानी। मैं जानता हूँ, यह आपकी इच्छा नहीं है, मगर मानो मैं किसी के काबू में था, मैं अपनी भ्रष्टता से बच कर नहीं निकल सका। हे परमेश्वर, मेरा मार्गदर्शन करो ताकि मैं अपनी भ्रष्टता से मुक्त हो सकूँ।"

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े, जिनसे मुझे एक मार्ग मिला। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर ने पहले से तय किया हुआ है कि केवल ईमानदार व्यक्ति ही स्वर्ग के राज्य का अंग हो सकते हैं। अगर तुम ईमानदार नहीं हो और अगर अपने जीवन में तुम्हारा व्यवहार ईमानदार बनने की दिशा में नहीं है और तुम अपना वास्तविक चेहरा उजागर नहीं करते, तो तुम्हें परमेश्वर का कार्य या प्रशंसा हासिल करने का मौका कभी नहीं मिलेगा। चाहे तुम कुछ भी करने के लिए प्रेरित हो, तुम्हें एक ईमानदार रवैया रखना चाहिए। उदाहरण के लिए, क्या कोई कर्तव्य निभाने के लिए ईमानदार रवैया होना आवश्यक है? यदि कर्तव्य निभाते हुए कुछ चीजें ऐसी हों जिन्हें तुमने सही तरीके से न किया हो, तो तुम्हें स्वयं को खोल देना चाहिए और अपना विश्लेषण करना चाहिए, और फिर सत्य के सिद्धांतों की खोज करनी चाहिए और अगली बार लापरवाही बरते बिना उन्हें सही तरीके से करने का भरपूर प्रयास करना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर को ऐसे हृदय से संतुष्ट करने का प्रयास नहीं करते जो ईमानदार है, और हमेशा अपने देह या अहंकार को ही संतुष्ट करने का प्रयास करते हो, तो क्या तुम इस तरह से काम करते हुए अच्छा काम कर पाओगे? क्या तुम अपने कर्तव्य का निर्वाह अच्छी तरह से कर पाओगे? हरगिज नहीं" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')। "यदि कोई गलती करने के बाद तुम उसे सही तरह से ले सको, और हर किसी को उसके बारे में बात करने और स्वतंत्र रूप से उसका मूल्यांकन करने दे सको, और उसके बारे में खुलकर उसका विश्लेषण कर सको, तो तुम्हारे बारे में सभी की राय क्या होगी? (कि यह ईमानदार व्यक्ति है।) तुम्हारे बारे में उनकी राय तुरंत सुधर जाएगी। वे कहेंगे कि तुम एक ईमानदार व्यक्ति हो और तुम्हारा दिल खुला है, और तुम्हारे कार्यों और व्यवहार के माध्यम से वे तुम्हारे दिल को देख पाएँगे। लेकिन अगर तुम खुद को छिपाने या हर किसी को धोखा देने की कोशिश करते हो, तो लोग तुम्हें तुच्छ समझेंगे और कहेंगे कि तुम मूर्ख और नासमझ व्यक्ति हो। यदि तुम ढोंग करने या बहाने बनाने की कोशिश नहीं करोगे, तो सभी लोग कहेंगे कि तुम ईमानदार और बुद्धिमान हो। और तुम्हें बुद्धिमान क्या चीज बनाती है? सब लोग गलतियाँ करते हैं। सबमें दोष और कमजोरियाँ होती हैं। और वास्तव में, सभी में वही भ्रष्ट स्वभाव होता है। अपने तुम को दूसरों से अधिक महान, परिपूर्ण और दयालु मत समझो; यह एकदम अनुचित है। जब तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव और सार, और मनुष्य की भ्रष्टता के असली चेहरे को पहचान जाते हो, तब तुम अपनी गलतियों से आश्चर्यचकित नहीं होते, न ही तुम दूसरों की गलतियों पर शिकंजा कसते हो, बल्कि दोनों को संतुलित ढंग से देखते हो। तभी तुम समझदार बनोगे और बेवकूफी की बातें नहीं करोगे, और यह बात तुम्हें बुद्धिमान बना देगी। जो लोग बुद्धिमान नहीं बल्कि मूर्ख होते हैं, वे पर्दे के पीछे चोरी-छिपे अपनी छोटी-छोटी गलतियों पर देर तक बात किया करते हैं। देखकर घृणा होती है। वास्तव में, तुम जो कुछ भी करते हो, वह दूसरों पर तुरंत जाहिर हो जाता है, फिर भी तुम खुल्लम-खुल्ला वह काम करते रहते हो। लोगों को यह मसखरी का प्रदर्शन लगता है। क्या यह बेवकूफी नहीं है? यह सच में बेवकूफी ही है। मूर्ख लोगों में कोई अक्ल नहीं होती। वे कितने भी उपदेश सुन लें, फिर भी उन्हें न तो सत्य समझ में आता है, न ही वे चीजों की असलियत देख पाते हैं। वे हमेशा अहंकार से भरे रहते हैं और सोचते हैं कि वे बाकी सबसे अलग हैं, अधिक योग्य हैं—जो कि मूर्खता है। मूर्खों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती, है न? जिन मामलों में तुम मूर्ख और नासमझ होते हो, वे ऐसे मामले होते हैं जिनमें तुम्हें कोई आध्यात्मिक समझ नहीं होती, और तुम सत्य को नहीं समझते। सारा मामला यह है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'व्यक्ति के आचरण का मार्गदर्शन करने वाले सिद्धांत')। इससे मैंने जाना कि सभी लोग अपने काम में गलतियाँ करते हैं। यह सामान्य है। हम इन्हें दबा नहीं सकते, लेकिन हमें सच बोलना चाहिए, अपनी भ्रष्टता और कमियों के बारे में खुलकर बताना चाहिए। हमें अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को नहीं बचाना चाहिए, हमें परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार ईमानदार होना चाहिए। सिर्फ इसी में प्रतिष्ठा है, इसी को परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष मिलता है। लेकिन बस दूसरों की नजर में अपना रुतबा और छवि बनाए रखने की चाह में, मुझे इस बात की बहुत ज्यादा परवाह थी कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं। दूसरों को पता न चले इस डर से, मैं अपनी गलतियाँ दबा देना चाहता था, दोषी महसूस करने के बाद भी मुझमें सच बोलने की हिम्मत नहीं थी। मैंने यह भी नहीं सोचा कि इससे परमेश्वर के घर के कार्य को कितना नुकसान हो सकता है। मैं परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रख रहा था, और जरा भी ईमानदार नहीं था। ऐसे मैं अपना काम अच्छे ढंग से कैसे कर सकता था? इस बारे में सोचकर मुझे बहुत बुरा लगा। इसके बाद मैंने अपने काम में अपना रवैया बदलना चाहा। अगर हम इस बारे में सोचें, तो सभी लोग अपने काम में गलतियाँ करते हैं। यह सामान्य है। शांत मन से इसका सामना कर उसी वक्त इससे निपटने से, हमें सुधरने में मदद मिल सकती है। इससे काम पर बुरा असर नहीं पड़ता और इससे उतना कष्ट भी नहीं होता। इसके बाद जब भी मैं फिल्मांकन में गलतियाँ करता, गलतियाँ मानने को लेकर दुविधा में पड़ जाता, तो मुझे एहसास होता कि मैं बस अपनी प्रतिष्ठा और रुतबा बनाए रखने की कोशिश कर रहा था। मैं परमेश्वर से प्रार्थना करता, उससे सत्य का अभ्यास करने और ईमानदार होने का रास्ता दिखाने की विनती करता, ताकि मैं अपनी गलती मान सकूँ। ऐसा करने पर, मुझे एहसास हुआ कि भाई-बहन मुझे दोष नहीं देते, भावनाओं को आड़े नहीं आने देते, और दूसरा शॉट ले लेते। मुझे बहुत बेहतर महसूस होने लगा और मैंने सत्य का अभ्यास करने से मिलने वाला सुकून और आनंद महसूस किया।

एक दिन हम एक और संगीत वीडियो पर काम कर रहे थे। शूटिंग शुरू करने से पहले, निर्देशक ने वॉकी-टॉकी पर पूछा, "लाइट्स रेडी? कैमरे पर पिक्चर को ध्यान से चेक करें।" मुझे लगा, मैं सभी पिक्चरों को अच्छी तरह देख चुका हूँ, इसलिए मैंने पूरे विश्वास से कहा, "रेडी, सब ठीक है!" लेकिन एक शॉट के बाद, मुझे एहसास हुआ कि मैं कुछ लाइट्स जलाना भूल गया था। मैं बुरी तरह घबरा गया। मैं कुछ बोलना चाहता था, मगर झिझक गया। मैं सोच रहा था कि मैंने सबके सामने विश्वास के साथ जोर देकर कहा था कि सब-कुछ तैयार है, तो अगर मैं मान लूँ कि मैंने गलती की है, तो वे सब मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या मुझमें उनका भरोसा टूट जाएगा? लाइट जलाना भूल जाना नौसिखिये वाली गलती थी। अगर मैंने गलती मान ली, तो दोबारा मुँह कैसे दिखाऊँगा? मैंने इतना आसान काम बिगाड़ दिया तो क्या दूसरे सोचेंगे कि मैं बेकार हूँ? थोड़ी देर के लिए मैं बड़ी दुविधा में पड़ गया। समझ नहीं आया कि अपनी गलती के बारे में बोलूँ या नहीं, मुझे लगा मैं जलते अंगारों पर खड़ा हूँ। हम कई शॉट पूरे कर चुके थे, इसलिए अगर मैं कुछ कहता, तो मुझे डर था कि सभी लोग उसी वक्त न बोलने के लिए मेरी आलोचना करेंगे। दिमाग के घोड़े दौड़ाता रहा, मुझे लगा सिर्फ वीडियो संपादक से जाकर लाइटिंग ठीक कर देने को कहूँ, तो मुझे सबके सामने अपनी गलती माननी नहीं पड़ेगी। इससे वीडियो की समस्या हल हो जाएगी, और मेरा रुतबा बना रहेगा। इसलिए फिल्मांकन खत्म करने के बाद, मैंने अपनी गलती को छोटा दिखाते हुए संपादन करने वाले भाई से कहा : "पहली बार लाइटिंग करने में मुझे दिक्कत हुई थी। उनकी तुलना में ये गलती उतनी बुरी नहीं है, बस, उजाले में थोड़ा-सा फर्क है। अगर आप इसे थोड़ा ठीक कर दें, तो बहुत बढ़िया रहेगा।" उसने मेरी बात मान ली और कहा कि लाइटिंग ठीक करने में मदद कर देगा। ये बातें बोलते ही मुझे बहुत बुरा महसूस हुआ, क्योंकि असल में यह एक बहुत बड़ी समस्या थी, मगर मैंने कहा था, यह कोई बड़ी बात नहीं। क्या मैं बिल्कुल सफ़ेद झूठ नहीं बोल रहा था? आखिर, उस दृश्य की लाइटिंग ठीक करने में उस भाई को तीन घंटे से भी ज्यादा लग गए। अगली सुबह सबसे पहले निर्देशक ने मुझसे पूछा कि लाइटिंग की ऐसी बड़ी समस्या के बारे में मैंने उसी वक्त उन्हें क्यों नहीं बताया। मुझे समझ नहीं आया क्या बोलूँ, इसलिए सफाई देने के लिए बहाने ढूँढ़ने लगा। उन्होंने कहा, "ऐसा पहले भी हुआ, और आपने कुछ नहीं बताया। आप हमारे काम में रुकावट डाल रहे हैं। आपको आत्मचिंतन करने की जरूरत है।" उनकी यह बात सुनकर मैंने बहुत दोषी महसूस किया। मुझे घृणा हो रही थी कि मैं भ्रष्टता के कब्जे में था और मैं फिर से सत्य का अभ्यास नहीं कर पाया। मैंने घुटने टेक कर परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैं अपनी शोहरत की बहुत ज्यादा परवाह करता हूँ। इस बार, मैंने न सिर्फ अपनी गलती के बारे में कुछ कहा नहीं, बल्कि मैंने उसे छिपाने का खेल भी खेला। मैं सच में कपटी हूँ। हे परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ। मेरा मार्गदर्शन करो, मुझे बचा लो।"

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : "मसीह-विरोधियों की मानवता बेईमान होती है, जिसका अर्थ है कि वे जरा भी सच्चे नहीं होते। वे जो कुछ भी कहते और करते हैं, उसमें उनके इरादों और लक्ष्यों की मिलावट होती है, और इस सबमें छिपी होती हैं उनकी अनकही और अकथनीय चालें, तरीके, प्रयोजन और साजिशें। उनके बोलने का तरीका इतना मिलावटी होता है कि यह पता चलना असंभव होता है कि उनकी कौन-सी बात सच्ची है और कौन-सी झूठी, कौन-सी सही है और कौन-सी गलत। चूँकि वे बेईमान होते हैं, इसलिए उनके दिमाग बेहद जटिल होते हैं, बहुत ही घुमावदार और चालों से भरे होते हैं। वे एक भी सीधी बात नहीं कहते। वे एक को एक, दो को दो, हाँ को हाँ और ना को ना नहीं कहते। इसके बजाय, सभी मामलों में वे गोलमोल बातें करते हैं और चीजों पर अपने दिमाग में कई बार सोच-विचार करते हैं, कारणों और परिणामों के बारे में सोचते हैं, हर कोण से गुण और कमियाँ तोलते हैं। फिर, वे अपनी भाषा से चीजों में इस तरह हेरफेर करते हैं कि वे जो कुछ भी कहते हैं, वह काफी बोझिल लगता है। ईमानदार लोग उनकी बातें कभी समझ नहीं पाते और वे उनसे आसानी से धोखा खा जाते हैं और ठगे जाते हैं, और जो भी ऐसे लोगों से बात करता है, उसका यह अनुभव थका देने वाला और दुष्कर होता है। वे कभी एक को एक और दो को दो नहीं कहते, वे कभी नहीं बताते कि वे क्या सोच रहे हैं, और वे चीजों का वैसा वर्णन नहीं करते जैसी वे होती हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं, वह अथाह होता है, और उनके कार्यों के लक्ष्य और इरादे बहुत जटिल होते हैं। और अगर बोल चुकने के बाद वे उजागर हो जाते हैं या पकड़े जाते हैं, तो वे जल्दी से लीपापोती करने के लिए एक और कहानी गढ़ लेते हैं। ये लोग अक्सर झूठ बोलते हैं, अपने झूठ ढकते हैं, और अपने रहस्यों और निजता की रक्षा के लिए दूसरों को धोखा देते हैं, और जैसा कि अक्सर होता है, जब उनके झूठ पकड़े और समझ लिए जाते और उजागर कर दिए जाते हैं, तो वे अपने झूठ छिपाने के लिए और झूठ बोलते हैं, और झूठों का अंबार लगा देते हैं। ज्यादातर लोगों पर ऐसे लोगों की यह छाप होती है कि वे नहीं जानते कि उनके कौन-से शब्द सत्य हैं, वे नहीं जानते कि वे कब सच बोल रहे होते हैं और वे यह तो बिलकुल नहीं जानते कि वे कब झूठ बोल रहे होते हैं। जब ऐसे लोग झूठ बोलते हैं, तो वे शरमाते या हिचकते नहीं, मानो वे सच बोल रहे हों। क्या इसका मतलब यह नहीं कि झूठ बोलना उनकी प्रकृति बन गई है? उदाहरण के लिए, सरलतम मामले में, वे सतह पर दूसरों के लिए अच्छे, उनके प्रति विचारशील और अपने भाषण में गर्मजोशी से भरे दिखाई देते हैं, जो सुनने में सुखद और प्रेरक होता है—लेकिन इस सरल-से मामले में भी कोई यह नहीं बता सकता कि वे ईमानदार हैं या उनकी बातों के पीछे कोई मंशा या प्रयोजन है, या वे वास्तव में किस चीज के पीछे हैं। शुभकामना के शब्द जैसी साधारण बातें भी उनके मुँह में मिलावटी और कपटपूर्ण होती हैं। क्या झूठ बोलना उनकी प्रकृति नहीं बन गई है? ऐसे लोग परिणामों की परवाह किए बिना झूठ बोलते हैं। अगर, वे जो कहते हैं, वह उनके लिए तत्काल लाभकारी और दूसरों को धोखा देने में सक्षम होता है, अगर वह उनके लक्ष्य प्राप्त कर सकता है, तो वे परिणामों की परवाह नहीं करते। जैसे ही वे उजागर होते हैं, वे बात छिपाना, झूठ बोलना, छल करना जारी रखते हैं। जिस सिद्धांत और तरीके से ये लोग दूसरों से बातचीत करते हैं, वह लोगों को झूठ बोलकर बरगलाना है। वे दोमुँहे होते हैं और अपने श्रोताओं के अनुरूप बोलते हैं; स्थिति जिस भी भूमिका की माँग करती है, वे उसे निभाते हैं। वे मधुरभाषी और चालाक होते हैं, उनके मुँह झूठ से भरे होते हैं, और भरोसे के लायक नहीं होते हैं। जो भी कुछ समय के लिए उनके संपर्क में आता है, वह धोखा खा जाता है या परेशान हो जाता है और उसे पोषण, सहायता या सीख नहीं मिल पाती। ऐसे लोगों के मुँह से निकले शब्द गंदे हों या अच्छे, उचित हों या बेतुके, मानवता के अनुकूल हों या प्रतिकूल, अशिष्ट हों या सभ्य, वे सब अनिवार्य रूप से झूठे होते हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'प्रकरण चार : मसीह-विरोधियों के चरित्र और उनके स्वभाव के सार का सारांश (भाग एक)')परमेश्वर के वचन मसीह-विरोधियों की कपटी और चालबाजी प्रकृति को उजागर करते हैं। वे अपनी कथनी और करनी दोनों में बेईमान होते हैं। सत्य का एक भी शब्द उनके मुँह से नहीं निकलता। अपनी गलतियाँ दबाने के लिए, वे बेशर्मी से झूठ बोलते और अपने घिनौने मंसूबे छिपाते हैं। मसीह-विरोधियों जैसे लोग अविश्वसनीय रूप से दुष्ट होते हैं। खुद को देखकर मुझे लगा जैसे परमेश्वर के वचन मेरे ही बारे में थे। फिल्मांकन के दौरान मेरे ध्यान न देने के कारण गलती हुई। मैंने इस डर से गलती नहीं मानी कि दूसरे मुझे नीची नजर से देखेंगे, इसलिए इसे दबाने का सही तरीका ढूँढ़ने के लिए बहुत सोचा। मैंने संपादक भाई से लाइटिंग ठीक करवाने के लिए अकेले में बात की, खेल खेले, झूठ बोला कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं थी, ताकि उसे लगे कि ज्यादा बड़ी बात नहीं है। मैं बहुत ज्यादा कपटी था। क्या मैं मसीह-विरोधी जैसा दुष्ट नहीं था? परमेश्वर ईमानदार लोगों को पसंद करता है, लेकिन चालबाजी, दुष्टता, और झूठ मेरी प्रकृति बन गए थे। क्या यह मसीह-विरोधियों की तरह, परमेश्वर को गुस्सा दिलाने वाला और घिनौना नहीं है? मुझे प्रभु यीशु का यह वचन याद आया, "तुम्हारी बात 'हाँ' की 'हाँ,' या 'नहीं' की 'नहीं' हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है" (मत्ती 5:37)। "तुम अपने पिता शैतान से हो और अपने पिता की लालसाओं को पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से हत्यारा है और सत्य पर स्थिर न रहा, क्योंकि सत्य उसमें है ही नहीं। जब वह झूठ बोलता, तो अपने स्वभाव ही से बोलता है; क्योंकि वह झूठा है वरन् झूठ का पिता है" (यूहन्ना 8:44)। परमेश्वर कहता है कि झूठ, दुष्ट से आते हैं, दानव से, और हमेशा छल करने वाले लोग दानव होते हैं। मेरा लगातार झूठ बोलना और झूठ के साथ-साथ छल करना, क्या बिल्कुल शैतान जैसा नहीं था? मैं जो कह रहा था, उसमें दानवी तत्व था, वह कपटपूर्ण था, यह परमेश्वर के घर के कार्य को बाधित करने वाला था। फिल्मांकन में मैंने जो गलती की, उसे सरलता से स्वीकार कर सुलझाया जा सकता था, जिससे बहुत सारा नुकसान रोका जा सकता था। लेकिन, दूसरों की नजर में अपनी छवि और पद को बचाए रखने के लिए, मैंने मन में बार-बार इस पर सोचा, मगर एक भी सच्चा शब्द नहीं बोला। आखिरकार मैंने झूठ बोला, गलती को और ज्यादा दबाया, भाई-बहनों को धोखा दिया। संपादक भाई को गलती सुधारने में मेरी मदद के लिए तीन घंटे से भी ज्यादा लगाना पड़ा। मैंने दूसरे लोगों के काम के बारे में या अंतिम वीडियो मेंशॉट के खराब होने के परिणामों के बारे में बिल्कुल नहीं सोचा। मैं बहुत स्वार्थी था! अपने भ्रष्ट स्वभाव के कारण मेरा किया हर काम मुझे और दूसरों को दुख पहुँचा रहा था। परमेश्वर के लिए यह सचमुच घिनौना और गुस्सा दिलाने वाला था। मैं पछतावे और आत्म-निंदा से भर गया। मैंने अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को बचाना बंद करने और एक सरल और खुले दिल का ईमानदार इंसान बनने की इच्छा से परमेश्वर से प्रार्थना की।

इसके बाद मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "कोई भी समस्या पैदा होने पर, चाहे वह कैसी भी हो, तुम्हें सत्य की खोज करनी चाहिए, और तुम्हें किसी भी तरीके से छद्म व्यवहार नहीं करना चाहिए या दूसरों के सामने नकली चेहरा नहीं लगाना चाहिए। तुम्हारी कमियाँ हों, खामियाँ हों, गलतियाँ हों, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव हों—तुम्हें उनके प्रति खुला रुख अपनाना चाहिए और उनके बारे में संगति करनी चाहिए। उन्हें अपने अंदर न रखो। सत्य में प्रवेश करने के लिए खुलकर बोलना सीखना सबसे पहला कदम है, और यह पहली बाधा है, जिसे पार करना सबसे मुश्किल है। एक बार तुमने इसे पार कर लिया तो सत्य में प्रवेश करना आसान हो जाता है। यह कदम उठाने का मतलब है कि तुम अपना हृदय खोल रहे हो और वह सब कुछ दिखा रहे हो जो तुम्हारे पास है, अच्छा या बुरा, सकारात्मक या नकारात्मक: दूसरों और परमेश्वर के देखने के लिए खुद को खोलना, परमेश्वर से कुछ न छिपाना, कोई स्वांग न करना, धोखे और चालबाजी से मुक्त रहना, और इसी तरह दूसरे लोगों के साथ खुला और ईमानदार रहना। इस तरह, तुम प्रकाश में रहते हो, और न सिर्फ परमेश्वर तुम्हारी जांच करेगा बल्कि अन्य लोग भी यह देख पाएंगे कि तुम सिद्धांत से और एक हद तक पारदर्शिता से काम करते हो। तुम्हें अपनी निजी प्रतिष्ठा, अपने मान-सम्मान और ओहदे की खातिर, कुछ भी ढकने की, कोई संशोधन करने की, या कोई भी चालाकी करने की आवश्यकता नहीं है, और यह बात तुम्हारे द्वारा की गई किसी भूल पर भी लागू होती है; ऐसा व्यर्थ कार्य अनावश्यक है। यदि तुम ये सारी चीज़ें नहीं करते हो, तो तुम आसानी से और बिना थकान के, पूरी तरह से प्रकाश में, जियोगे। केवल ऐसे लोग ही परमेश्वर की प्रशंसा पा सकते हैं। फिर, तुम्हें अपने विचारों और सुझावों का विश्लेषण करना सीखना चाहिए। जो गलत काम तुम करते हो, तुम्हारा जो व्यवहार परमेश्वर को पसंद नहीं आयेगा, तुम्हें उन्हें तुरंत परिवर्तित करके सुधारने में सक्षम होना चाहिए। इन्हें सुधारने का मकसद क्या है? इसका मकसद यह है कि तुम अपने भीतर उन चीजों को अस्वीकार करो जो शैतान से संबंधित हैं और उनकी जगह सत्य को लाते हुए, सत्य को स्वीकार करो और उसका पालन भी करो। पहले तुम कपट और धोखेबाज़ी जैसी अपनी भ्रष्ट प्रकृतियों पर भरोसा करते थे, लेकिन अब तुम ऐसे नहीं हो; अब, जब तुम कोई काम करते हो, तो तुम ईमानदारी, पवित्रता और आज्ञाकारिता की मानसिकता के साथ कार्य करते हो। यदि तुम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते हो, दिखावा नहीं करते हो, ढोंग नहीं करते हो, मुखौटा नहीं लगाते हो, यदि तुम भाई-बहनों के सामने अपने आपको खोल देते हो, अपने अंतरतम विचारों और चिंतन को छिपाते नहीं हो, बल्कि दूसरों को अपना ईमानदार रवैया दिखा देते हो, तो फिर धीरे-धीरे सत्य तुम्हारे अंदर जड़ें जमाने लगेगा, यह खिल उठेगा और फलदायी होगा, धीरे-धीरे तुम्हें इसके परिणाम दिखाई देने लगेंगे" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'जो सत्य का अभ्यास करते हैं केवल वही परमेश्वर का भय मानने वाले होते हैं')। परमेश्वर के वचनों में मुझे अभ्यास के कुछ मार्ग मिले, समस्याओं के आने पर खुलकर बोलना, और अपनी छवि बचाने के लिए परमेश्वर के सामने कपटी होने या धूर्त और धोखेबाज होने के बजाय अपना दिल खोलना सीखा। मैं जान गया कि मुझे अपने गुप्त मंसूबों सहित, भ्रष्टता, कमियों और गलतियों के बारे में दूसरों को खुलकर बताना चाहिए। सत्य में प्रवेश करने का यह सबसे अहम अंश है। इसे हासिल करना ही धीरे-धीरे भ्रष्टता से मुक्त होने और सच्ची इंसानियत के साथ जीवन जीने का एकमात्र मार्ग है। मैं जान गया था कि मैं अपने रुतबे की खातिर काम करते नहीं रह सकता था, बल्कि मुझे परमेश्वर की जाँच और भाई-बहनों के निरीक्षण को स्वीकारना होगा।

इसलिए, मैंने इस प्रक्रिया के दौरान प्रकट की गई अपनी भ्रष्टता और गलतियों के बारे में, दूसरे सभी लोगों को खुल कर बताया। मैंने खुद को दंड देने के लिए भी कुछ काम किए, ताकि उसकी याद बनी रहे। असल में, गलतियाँ मान लेना मुश्किल नहीं है। असली मुश्किल तो है भ्रष्ट स्वभाव में फंसे रहना। इस घटना ने मुझे अपने धूर्त स्वभाव के बारे में थोड़ी समझ दी, मैंने शपथ ली कि मैं इसमें बदलाव करूंगा। इसके बाद फिल्मांकन के दौरान एक दिन, एक दूसरे कैमरे में पर्दे के विवरण को देखते समय, मेरा ध्यान हटते ही एक गायक लाइटिंग वाले हिस्से से बाहर चला गया। मुझे इसका एहसास हो, इससे पहले ही वह बहुत-सी पंक्तियाँ गा चुका था, इसलिए लाइटिंग के कारण करीब 10 सेकंड की फुटेज बेकार हो गयी थी। मैं सोचने लगा कि वही गलती मैंने फिर से कैसे कर डाली। इन दिनों मैं बहुत गड़बड़ी कर रहा था। अगर मैंने गलती मान ली, तो सब लोग क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं अपने काम को गंभीरता से नहीं ले रहा हूँ? मैं कुछ कहने से झिझक ही रहा था कि मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से अपना रुतबा बचाने की कोशिश कर रहा था, मुझे याद आया कि जब मैं पहले खुद को बचाता था और सत्य का अभ्यास नहीं करता था, तब भाई-बहनों और कलीसिया के कार्य पर इसका कैसा बुरा असर पड़ा था। मैंने इस बारे में भी सोचा कि अपनी गलती छिपाने की मेरी कोशिशें कितनी शर्मनाक थीं, और झूठ बोलने से कैसी पीड़ा और दुख मिला था। मैं जान गया था कि मुझे खेल नहीं खेलना है, छल नहीं करना है, बल्कि इस बार मुझे खुद की न सोचकर सत्य का अभ्यास करना है। इसलिए मैंने ढुलमुल होना छोड़ दिया, अपनी वॉकी-टॉकी पकड़ी और निर्देशक को बता दिया कि क्या हुआ था।

इसके बाद, मैं सचेतन होकर अपने काम में ईमानदार होने का अभ्यास करने लगा, सक्रिय होकर अपनी गलतियाँ मानने लगा। मैं लगातार अपने रुतबे और शोहरत के बारे में सोचना छोड़कर, परमेश्वर के घर के हितों पर ध्यान देने लगा। ऐसा करने से सिर्फ गलतियां ठीक करने का काम ही कम नहीं हुआ, बल्कि मेरी गलतियों के कारण परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान नहीं पहुँचा। कभी-कभार मैंने भाई-बहनों को वॉकी-टॉकी के जरिए मुझे फटकार लगाते और बढ़ावा देते सुना, मगर इस तरह से काम करने से मुझे शांति और सुकून महसूस हुआ। मैंने सही मायनों में अनुभव किया कि अपनी शोहरत के लिए झूठ बोलना और धोखा देना कितना दुखदाई होता है। सत्य का अभ्यास करना और एक ईमानदार इंसान होना ही प्रतिष्ठा पाने और प्रकाश में जीवन जीने का एकमात्र मार्ग है। परमेश्वर का धन्यवाद!

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