बीमारी के बीच आत्मचिंतन
मैं बचपन से ही कमज़ोर और बीमार रहती थी। मेरी माँ ने बताया कि मैं समय से पहले पैदा होने के कारण बीमार रहती थी। फिर जब मैं ईसाई बनी, तो धीरे-धीरे मेरी सेहत सुधरी। सात सालों तक, मुझे अस्पताल जाने या कोई दवा लेने की ज़रूरत नहीं पड़ी। मैं परमेश्वर की बहुत आभारी थी। फिर 2001 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर का अंत के दिनों का कार्य स्वीकार लिया। मैं प्रभु का स्वागत करने के लिए बेहद उत्साहित थी, खुद को धन्य समझती थी। मैंने अपना कारोबार छोड़ सुसमाचार का प्रचार करते हुए अपना कर्तव्य निभाने लगी। अपने कर्तव्य के लिए कहीं भी जाने की शक्ति मुझमें थी, मैंने अपना सब कुछ इसमें लगा दिया। कई बार तो मैं गिरफ्तार होने से बाल-बाल बची, परमेश्वर के सहारे होकर कभी हार नहीं मानी। भाई-बहनों की मदद करने के लिए मैंने खुद की भी परवाह नहीं की, कभी-कभी पहाड़ों पर गई, एक बार में पाँच-छह घंटे तक चलती रहती। कुछ जगहों पर, मुझे साफ पानी भी नसीब न हुआ, मगर मुझे ये मुश्किल नहीं लगा। मुझे लगा कि इस तरह खुद को खपाने से, मुझे परमेश्वर की स्वीकृति और आशीष ज़रूर मिलेगी।
2015 में, विदेश जाने के कुछ ही समय बाद, मैं अधिक से अधिक अस्वस्थ रहने लगी, रात को कभी-कभी मेरा पूरा शरीर पसीने से भीग जाता था। मुझे बहुत घबराहट होती और ध्यान लगाना मुश्किल हो जाता था। मैंने कुछ चीनी दवाएं ली, एक्यूपंक्चर का सहारा भी लिया, मगर कोई फायदा नहीं हुआ। पहले मैं इसके बारे में ज़्यादा नहीं सोचती थी, जानती थी कि मेरी सेहत परमेश्वर के हाथों में है, इसलिए अच्छे से अपना कर्तव्य निभाने पर वह मेरी देखभाल और सुरक्षा करेगा। मगर मैं हैरान रह गई, जब मेरी सेहत बिगड़ती चलती गई। फिर जुलाई 2016 में, मैंने देखा कि मेरी गर्दन के एक तरफ के हिस्से में दर्द रहने लगा, करीब एक महीने बाद, हालत इतनी बुरी हो गई कि एक शाम जब मैं सभा में थी, तो कुछ भी बोल नहीं पाई। मुझे बहुत थकावट महसूस हुई, कंपकपी शुरू हो गई। तापमान देखा तो 103 डिग्री था। मैंने बुखार कम करने और दर्द रोकने वाली कुछ दवाएं लीं, मगर कोई असर नहीं हुआ। उसके बाद हर दिन शाम को मुझे बुखार रहने लगा, आधी रात को पूरा शरीर पसीने से भीग जाता। मैं इतनी तकलीफ़ में थी कि सारी रात जागती रहती। एक बहन ने मुझसे इसकी जांच करवाने को कहा, तो मैंने हाँ तो कर दी पर सोचा कि मैं ठीक हो जाऊँगी। मैंने सोचा, इतनी कड़ी मेहनत की है, इतने साल अपना कर्तव्य निभाया, तो परमेश्वर मेरी देखभाल और रक्षा ज़रूर करेगा, मुझे कुछ हुआ भी, तो कोई मामूली बात होगी। मगर कुछ ही हफ़्तों के बाद मुझे हर वक्त बुखार रहने लगा, मेरा वज़न 10 पाउंड कम हो गया, मेरी गर्दन पर सूजन साफ दिखने लगी। मुझे चक्कर आने लगे और मैं दिन-ब-दिन कमज़ोर होती चली गई, मेरा दिल बड़ी तेज़ी से धड़कता था, हाथ भी कांपने लगे। एक बार बात बर्दाश्त के बाहर हो गई, और एक बहन आधी रात को मुझे इमरजेंसी रूम में ले गई। वहां कई डॉक्टर मेरे बिस्तर को घेरे खड़े थे, उनके चेहरों पर चिंता की लकीरें थीं, मैंने सोचा, कहीं मुझे कोई गंभीर बीमारी तो नहीं हो गई। उसने कहा, शुरुआती जांच में एक्यूट थायराइडिटिस और थायरोटॉक्सिकोसिस का पता चला है, मुझे फौरन भर्ती करना होगा। उसने यह भी कहा कि मेरी गर्दन में एक गांठ है, जिसके ट्यूमर होने की संभावना है। वे मेरा बुखार उतरने तक इंतज़ार करना चाहते थे, फिर वे बाकी जांच के लिए कुछ टिशू निकाल सकते थे। उस समय मुझमें थायराइड संकट के लक्षण भी दिख रहे थे, जो घातक हो सकता था। डॉक्टर ने मुझसे बड़े प्यार से कहा, "दोबारा इस तरह इलाज में देर करने के नतीजे कितने गंभीर होंगे, पता है?" उसके चेहरे पर गंभीर भाव थे। यह सुनकर, मैं निढाल हो गई सोचा, "इतने बरस परमेश्वर के लिए काम करने और कर्तव्य निभाने की खातिर मैंने सब कुछ त्याग दिया। काफी कष्ट भी उठाया। उसे मेरी रक्षा और देखभाल करनी चाहिए। मुझे ट्यूमर कैसे हो सकता है?" उस दौरान मैं प्रार्थना और खोज कर रही थी, सिद्धांत के तौर पर मैं जानती थी कि मुझे परमेश्वर की सत्ता और व्यवस्थाओं को समर्पित होना चाहिए, मगर अपने दिल में मुझे अब भी परमेश्वर से सुरक्षा की उम्मीद थी कि वो फौरन मेरी बीमारी दूर कर देगा।
मगर मेरा बुखार खत्म नहीं हुआ और यह बार-बार वापस आने लगा, कभी-कभी तापमान बढ़कर 104 डिग्री तक पहुंच जाता। मैं बहुत घबरा जाती थी। रात को सोते समय पसीने से भीग जाती, कंबल और गद्दे भी गीले हो जाते। सुबह सबसे पहले मुझे नहाना और गीला बिस्तर सुखाना पड़ता था। मेरे हाथ इतना काँपते थे कि मैं ठीक से चॉपस्टिक भी नहीं पकड़ पाती थी। मुझे हर हफ़्ते अस्पताल जाना पड़ता था, क्योंकि बुखार कम नहीं हो रहा था। बाद में, डॉक्टर ने हताश होकर मुझसे कहा, "मैंने तुम्हारे जैसा केस कभी नहीं देखा।" डॉक्टर बस मेरे हार्मोन के डोज़ बढाता जा रहा था। वो और कुछ नहीं कर सकता था। मगर हार्मोन लेने से मुझमें कुछ स्पष्ट दुष्प्रभाव भी दिखने लगे, जैसे कि मेरे चेहरे और शरीर में सूजन और पैरों में दर्द रहने लगा। इन मुसीबतों से गुजरना बहुत पीड़ादायी था। उस समय, मुझमें कोई आस्था नहीं बची थी, सोच रही थी क्या मैं सचमुच मरने वाली हूँ। कुछ समय बाद, एक अगुआ ने मेरी दयनीय स्थिति देखकर, कुछ समय के लिए मुझे सिंचन का काम रोककर सेहत पर ध्यान देने को कहा। मैं जानती थी कि भाई-बहन मेरी भलाई सोच रहे थे, मगर वह मेरे लिए बहुत मुश्किल था। मुझे लगा, अगर मैं कर्तव्य नहीं निभा सकती, तो क्या इसका मतलब मुझे हटा दिया जाएगा?
उस रात मुझे दोबारा बुखार आया तो मैं बैठकर खाली कमरे को ताकती रही, वहां मेरे अलावा कोई नहीं था, फिर मुझे अचानक ही काफी अकेलापन लगने लगा, मेरी उम्मीद टूट गई। मैंने सोचा, "क्या मैं सचमुच यहीं पर मरने वाली हूँ?" मैंने अपने बेटे और अपनी माँ के बारे में सोचा। पता नहीं मरने से पहले दोबारा उनके चेहरे देख पाऊँगी या नहीं। मैं जीते जी मर रही थी। मैं घर वापस नहीं जा सकती थी, अपना कर्तव्य भी गँवा दिया था, लगने लगा जैसे अब परमेश्वर मुझे नहीं चाहता। बीते बरसों में मैंने इतना त्याग किया और इतना कष्ट उठाया था, तो बदले में मुझे यह सब कैसे मिल सकता था? मैंने इस बारे में जितना अधिक सोचा मुझे उतना ही दुख हुआ, मैं रोती रही। मैं सोचने लगी अच्छा है मर जाऊँ, खेल खत्म हो। फिर अचानक, एक शब्द मेरे मन में आया : प्रतिरोध! यह शब्द बार-बार मेरे दिमाग में घूमने लगा, और फिर मुझे परमेश्वर की बात याद आई : "यदि भाग्य के प्रति किसी व्यक्ति का दृष्टिकोण नकारात्मक है, तो इससे साबित होता है कि वह हर उस चीज़ का विरोध कर रहा है जो परमेश्वर ने उसके लिए व्यवस्थित की है, और उसमें समर्पित होने की प्रवृत्ति नहीं है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों ने मेरे दिल को झकझोर दिया, जो उस समय सुन्न पड़ा था। मैंने सोचा कि जब से मेरी बीमारी शुरू हुई है, मैं परमेश्वर से बहुत सी मांगें करने लगी हूँ। मुझे लगा कि परमेश्वर मेरी रक्षा करेगा, क्योंकि मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर-बार और काम छोड़ दिया था। जब मुझे पता चला कि मेरी हालत कितनी गंभीर है और मैं मर भी सकती हूँ, तो मुझे लगा मेरा भविष्य और मेरी मंज़िल, सब खत्म हो गया। मुझे इतने बरसों की कड़ी मेहनत पर पछतावा हुआ, मैं तो इन सब पर विराम लगाते हुए मर जाना चाहती थी। क्या ये परमेश्वर का प्रतिरोध करना नहीं था? परमेश्वर के लिए मेरी आज्ञाकारिता कहां थी? इस एहसास ने मानो अचानक नींद से जगा दिया, मैं परमेश्वर के सामने घुटने टेककर, आँखों में आँसू लिए प्रार्थना करने लगी। मैंने कहा, "परमेश्वर, मैं गलत थी! मुझे आपको गलत समझकर, शिकायत नहीं करनी चाहिए थी, आपका प्रतिरोध नहीं करना चाहिए था। मगर मैं बड़ी तकलीफ में हूँ, बड़ी कमज़ोर हो गई हूँ। नहीं जानती इन हालात से बाहर कैसे निकलूँ। मुझे राह दिखाओ।" प्रार्थना के बाद मुझे लगा कि मेरे अंदर थोड़ी हिम्मत आ गई है, इसलिए मैंने हिम्मत जुटाकर खुद को संभाला और परमेश्वर के वचन खोलकर पढ़ने लगी। मैंने इस अंश को देखा : "यदि तुम हमेशा मेरे प्रति बहुत निष्ठावान रहे हो, मेरे लिए तुममें बहुत प्रेम है, मगर फिर भी तुम बीमारी, दरिद्रता, और अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के द्वारा त्यागे जाने की पीड़ा को भुगतते हो या जीवन में किसी भी अन्य दुर्भाग्य को सहन करते हो, तो क्या तब भी मेरे लिए तुम्हारी निष्ठा और प्यार बना रहेगा? यदि मैने जो किया है उसमें से कुछ भी उससे मेल नहीं खाता है जिसकी तुमने अपने हृदय में कल्पना की है, तो तुम अपने भविष्य के मार्ग पर कैसे चलोगे? यदि तुम्हें वह कुछ भी प्राप्त नहीं होता है जो तुमने प्राप्त करने की आशा की थी, तो क्या तुम मेरे अनुयायी बने रह सकते हो?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (2))। वचनों के इस अंश को पढ़ना मेरे लिए वाकई दर्द भरा अनुभव था। मैंने उन सभी मौकों को याद किया जब मैंने इस अंश को पढ़कर परमेश्वर के सामने कसम खाई थी कि मैं अंत तक दृढतापूर्वक उसका अनुसरण करूंगी, चाहे जो भी हो जाये, उसे धोखा नहीं दूँगी। मगर बीमारी का सामना करते हुए, उतने बरसों की मेरी आस्था पूरी तरह से उजागर हो गई, मुझे एहसास हुआ कि अपनी आस्था के इतने बरसों में, मैं परमेश्वर के प्रति कभी ईमानदार नहीं रही, उससे सच्चा प्रेम नहीं किया। जब अपनी आस्था से सुरक्षा पाने की मेरी इच्छा पूरी नहीं हुई, जब आशीष पाने की मेरी उम्मीदें खत्म हो गईं, मैं परमेश्वर को गलत समझकर उसे दोष देने लगी, मैं तो मरकर उससे लड़ना चाहती थी। मैंने जाना कि मेरा सारा त्याग सिर्फ मेरे लिए था, सिर्फ आशीष पाने के लिए था। मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी कर रही थी। मैं कितनी विद्रोही थी! एक सृजित प्राणी के नाते मेरी हर साँस मुझे परमेश्वर से मिली है, इसलिए मुझे उसकी सत्ता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होना चाहिए। मुझे परमेश्वर से कुछ भी मांगने और उसके साथ सौदेबाजी करने का क्या अधिकार है? इस बारे में सोचकर मुझे बहुत पछतावा हुआ और मुझे खुद से नफ़रत हो गई, मैं कितनी नासमझ और बेशर्म थी।
मुझे ये भजन याद आया जो हम अक्सर गाते थे : "अब मैं अपनी भविष्य की संभावनाओं पर कोई ध्यान नहीं देता, और न ही मैं मृत्यु के जुए से बँधा हूँ। ऐसे हृदय के साथ जो तुमसे प्रेम करता है, मैं जीवन के मार्ग की तलाश करना चाहता हूँ। हर बात, हर चीज़—सब तुम्हारे हाथों में है; मेरा भाग्य तुम्हारे हाथों में है और तुमने मेरा पूरा जीवन अपने हाथों में थामा हुआ है। अब मैं तुमसे प्रेम करना चाहता हूँ, और चाहे तुम मुझे अपने से प्रेम करने दो या न करने दो, चाहे शैतान कितना भी हस्तक्षेप करे, मैं तुमसे प्रेम करने के लिए कृतसंकल्प हूँ। मैं खुद परमेश्वर के पीछे जाने और उसका अनुसरण करने के लिए तत्पर हूँ। अब भले ही परमेश्वर मुझे त्याग देना चाहे, मैं फिर भी उसका अनुसरण करूँगा। वह मुझे चाहे या न चाहे, मैं फिर भी उससे प्रेम करता रहूँगा, और अंत में मुझे उसे प्राप्त करना होगा। ..." ("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'मैं परमेश्वर से प्रेम करने को संकल्पित हूँ')। मन में ये भजन गूंज रहा था, मैंने मन ही मन संकल्प लिया चाहे मेरा भविष्य, मेरी मंज़िल जैसी भी हो, मुझे आशीष मिले या न मिले, मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगी, परमेश्वर के लिए गवाही दूँगी। मुझे पता चला कि सेहत अच्छी न होने और घर से निकलने में असमर्थ होने पर भी मैं ऑनलाइन काम कर सकती हूँ। तभी से, मैंने ऑनलाइन सुसमाचार साझा करने के काम में लग गई, जब मैंने अपने भविष्य और मंज़िल के बारे में सोचना बंद कर दिया, सारी ताकत से कर्तव्य निभाने लगी, तो मुझे काफी सुकून मिला, सुसमाचार के प्रचार में भी थोड़ी कामयाबी मिली। कुछ ही समय बाद, मुझे एहसास हुआ कि मेरा बुखार पहले से कम हो गया, मुझे बार-बार अस्पताल जाने की भी ज़रूरत नहीं रही। बाद में डॉक्टर ने पुष्टि की कि मुझे दरअसल थाइराइड नोड्यूल था, घातक ट्यूमर नहीं। मुझे दवा लेते और डॉक्टर से मिलते रहना था, मगर मैं सचमुच परमेश्वर की आभारी थी।
उसके बाद मुझे खुद की बेहतर समझ हुई, मगर भ्रष्टता और मिलावट की जड़ें गहराई तक समाई हुई हैं, सिर्फ कुछ समझ हासिल करके हम खुद को बदल नहीं सकते। बाद में मुझे और भी बहुत-सी बातें पता चलीं।
उस घटना के दो-तीन महीने बाद, मुझे घर से यह संदेश मिला कि मेरी माँ को अचानक स्ट्रोक आया था, उसने बिस्तर पकड़ लिया है। मेरा बेटा इलाज के लिए उधार लेने की कोशिश में यहां-वहां भटक रहा था। यह खबर सुनकर मुझे जोर का झटका लगा। यह बहुत परेशानी की खबर थी। मेरी पूरी जिंदगी, कमज़ोर सेहत के कारण माँ ने हमेशा मेरे भाई-बहनों से कहीं अधिक मेरा ख्याल रखा। अब वो बीमार होकर अस्पताल में है, मगर मैं उसके पास नहीं जा सकी, उसकी देखभाल नहीं कर सकी। मैं जानती थी मेरी माँ का ठीक होना, न होना पूरी तरह परमेश्वर के हाथों में है मैं समर्पित होने के लिए तैयार थी, मगर अब भी मुझे यह उम्मीद थी कि अगर मैंने अपना कर्तव्य अच्छे से निभाया, तो परमेश्वर माँ का ध्यान रखेगा, उसकी रक्षा करेगा। मुझे वाकई उम्मीद थी कि उनकी सेहत बेहतर हो जाएगी, घर पर सब ठीक हो जाएगा। मगर कुछ महीने बीतने के बाद भी, सेहत नहीं सुधरी, उल्टे उनके शरीर के बाएं हिस्से में लकवा मार गया, वो सोच-समझ भी नहीं पा रही थी। ऐसा लगने लगा कि अब उनके ठीक होने की कोई उम्मीद नहीं है। यह मेरे लिए काफी दर्दनाक था। मैं अब भी अपनी सेहत से जूझ रही थी। अक्सर मुझे कंपकपी होती और मैं थोड़ी-भी हवा नहीं झेल पाती थी। दूसरे लोग ठंडक के लिए एयरकंडीशनर और बांस की चटाइयों का इस्तेमाल करते, मगर मुझे रजाई की ज़रूरत पड़ती, मेरा ब्लड प्रेशर 45/80 mmHg तक गिर गया। मुझे खून और शर्करा की कमी थी, पैरों में दर्द था। मेरी नज़र भी कमज़ोर हो गई थी। एक दिन शाम को मुझे फिर से बुखार आया। मैं सोचने लगी, मेरी हालत तो सुधरी नहीं, दवाओं और डॉक्टर का चक्कर जारी है, मेरी माँ की हालत भी बहुत बुरी है, क्या पता वो कब तक ये सब सहन कर पाएगी। मैं बहुत निराश थी और काम में मन बिल्कुल भी नहीं लग रहा था। दुख में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "परमेश्वर, अभी मैं बहुत कमज़ोर महसूस कर रही हूँ, आपने जो हालात पैदा किये हैं, उसके प्रति समर्पित नहीं हो पा रही। मुझे राह दिखाइए ताकि मैं आपके वचनों के अनुसार चीज़ों को समझ सकूँ, आपको गलत समझकर दोष न दूँ और मैं अपनी हालत की थोड़ी समझ पाऊँ।"
उसके बाद, मैंने वचनों का ये अंश पढ़ा : "बहुत-से लोग केवल इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनको चंगा कर सकता हूँ। बहुत-से लोग सिर्फ इसलिए मुझ पर विश्वास करते हैं कि मैं उनके शरीर से अशुद्ध आत्माओं को निकालने के लिए अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करूँगा, और बहुत-से लोग मुझसे बस शांति और आनंद प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ और अधिक भौतिक संपदा माँगने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग मुझसे सिर्फ इस जीवन को शांति से गुज़ारने और आने वाले संसार में सुरक्षित और स्वस्थ रहने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल नरक की पीड़ा से बचने के लिए और स्वर्ग के आशीष प्राप्त करने के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं। बहुत-से लोग केवल अस्थायी आराम के लिए मुझ पर विश्वास करते हैं और आने वाले संसार में कुछ हासिल करने की कोशिश नहीं करते। जब मैंने अपना क्रोध नीचे मनुष्यों पर उतारा और उसका सारा आनंद और शांति छीन ली, तो मनुष्य संदिग्ध हो गया। जब मैंने मनुष्य को नरक का कष्ट दिया और स्वर्ग के आशीष वापस ले लिए, तो मनुष्य की लज्जा क्रोध में बदल गई। जब मनुष्य ने मुझसे खुद को चंगा करने के लिए कहा, तो मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया और उसके प्रति घृणा महसूस की; तो मनुष्य मुझे छोड़कर चला गया और बुरी दवाइयों तथा जादू-टोने का मार्ग खोजने लगा। जब मैंने मनुष्य द्वारा मुझसे माँगा गया सब-कुछ वापस ले लिया, तो हर कोई बिना कोई निशान छोड़े गायब हो गया। इसलिए मैं कहता हूँ कि मनुष्य मुझ पर इसलिए विश्वास करता है, क्योंकि मैं बहुत अनुग्रह देता हूँ, और प्राप्त करने के लिए और भी बहुत-कुछ है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम विश्वास के बारे में क्या जानते हो?)। "जो लोग मानवता से रहित हैं, वे सच में परमेश्वर से प्रेम करने में अक्षम हैं। जब परिवेश सही-सलामत और सुरक्षित होता है, या जब लाभ कमाया जा सकता है, तब वे परमेश्वर के प्रति पूरी तरह से आज्ञाकारी रहते हैं, किंतु जब जो वे चाहते हैं, उसमें कमी-बेशी की जाती है या अंतत: उसके लिए मना कर दिया जाता है, तो वे तुरंत बगावत कर देते हैं। यहाँ तक कि एक ही रात के अंतराल में वे..., एक मुस्कुराते, 'उदार-हृदय' व्यक्ति से एक कुरूप और जघन्य हत्यारे में बदल जाते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर का कार्य और मनुष्य का अभ्यास)। परमेश्वर के वचनों के इस अंश को पढ़कर मुझे काफी शर्मिंदगी महसूस हुई। परमेश्वर के इस न्याय ने आस्था में आशीष पाने की मेरी नीच मंशा को पूरी तरह उजागर कर दिया। शुरुआत से ही, मैं अपनी आस्था के बदले अच्छी सेहत और शांतिपूर्ण, खुशहाल परिवार चाहती थी। जब मुझे परमेश्वर से यह आशीष और अनुग्रह मिला, जब मेरी सेहत ठीक थी, तो मैंने सब त्यागकर उसके लिए काम किया। मगर जैसे ही मैं दोबारा बीमार पड़ी और मेरी माँ को सेहत की समस्याएं होने लगीं, मैं परमेश्वर से शिकायत करने लगी, निराश होकर मैंने अपने कदम पीछे खींच लिये। मैंने तो अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाने की भी परवाह नहीं की। मैं किस तरह की विश्वासी थी? क्या मैं सिर्फ आशीष पाने की अपनी इच्छा पूरी करने के लिए परमेश्वर का इस्तेमाल नहीं कर रही थी? क्या मैं उसे धोखा नहीं दे रही थी? उसने पहले ही मुझे बहुत कुछ दिया था, अगर मुझे परमेश्वर का उद्धार नहीं मिला होता, तो मैं इतना आगे नहीं बढ़ पाती। अगर इंसान विश्वासी न हो पर उसमें विवेक हो, तो वह कृतज्ञता का आभार मानता है, मगर मैं इतने बरसों से परमेश्वर के सिंचन और पोषण का आनंद लेने के बाद भी बदले में कुछ नहीं दे रही थी, परमेश्वर की इतनी कृपा होने पर भी मुझमें उसके प्रति ज़रा-सी भी कृतज्ञता नहीं थी। मैं कर्तव्य ईमानदारी से नहीं निभा रही थी, बल्कि मैं परमेश्वर को खजाने का अक्षय पात्र समझ रही थी, उससे सिर्फ अनुग्रह और आशीष पाना चाहती थी। समझ आया कि मुझमें बिल्कुल-भी समझ और विवेक नहीं है जो एक इंसान में होना चाहिए। मैं स्वार्थी, नीच, लालची और तुच्छ थी! इसका एहसास होने पर, मुझे खुद से नफ़रत हो गई। मैंने खुद को दोषी और ऋणी महसूस किया, फिर आँखों में आँसू लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने लगी। मैंने कहा, "परमेश्वर, अब मैं समझ गई हूँ कि इतने बरसों से मैंने जो भी मेहनत की वह सिर्फ आशीष पाने के लिये थी। मैं आपको धोखा दे रही थी, सौदा कर रही थी। इससे तुम्हें बहुत नफ़रत है। आशीष पाने की मेरी चाह की जड़ को समझने में मेरा मार्गदर्शन करो, ताकि मैं सचमुच पश्चाताप करके बदल जाऊँ।"
अपनी खोज में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "सभी भ्रष्ट लोग स्वयं के लिए जीते हैं। हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये—यह मानव प्रकृति का निचोड़ है। लोग अपनी ख़ातिर परमेश्वर पर विश्वास करते हैं; वे चीजों को त्यागते हैं, परमेश्वर के लिए स्वयं को खपाते हैं और परमेश्वर के प्रति वफादार रहते हैं—लेकिन फिर भी वे ये सब स्वयं के लिए करते हैं। संक्षेप में, यह सब स्वयं के लिए आशीर्वाद प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। दुनिया में, सब कुछ निजी लाभ के लिए होता है। परमेश्वर पर विश्वास करना आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ही कोई व्यक्ति सब कुछ छोड़ देता है, और आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कोई व्यक्ति बहुत दुःख का भी सामना कर सकता है। यह सब मनुष्य की भ्रष्ट प्रकृति का प्रयोगसिद्ध प्रमाण है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'बाहरी परिवर्तन और स्वभाव में परिवर्तन के बीच अंतर')। "'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। ये शब्द पहले ही भ्रष्ट इंसान की प्रकृति, भ्रष्ट इंसान की शैतानी प्रकृति की सच्ची तस्वीर बन गए हैं, और यह शैतानी प्रकृति पहले ही भ्रष्ट इंसान के अस्तित्व का आधार बन चुकी है; कई हजार सालों से वर्तमान दिन तक भ्रष्ट इंसान शैतान के इस जहर से जिया है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। इसे पढ़ने के बाद, मुझे ये बात थोड़ी समझ आई कि अपनी आस्था में आशीष पाने की मेरी कोशिश की जड़ यह थी कि शैतान ने मुझे बहुत अधिक भ्रष्ट कर दिया था। मैं इस शैतानी तर्क के अनुसार जी रही थी कि "हर व्यक्ति अपनी सोचे, बाकियों को शैतान ले जाये" इसलिए मैंने जो भी किया वो खुद के लिए किया। मेरी आस्था मेरी अपनी सेहत और परिवार की खुशहाली के लिये थी। अपने कर्तव्य में मेरे सभी त्याग और कड़ी मेहनत के पीछे अच्छी मंज़िल पाने की मंशा थी। जिस पल मुझे अपनी आस्था का लाभ मिलना बंद हो गया, जब मेरी उम्मीदें टूटने लगीं, कर्तव्य करने का सारा उत्साह चला गया। दरअसल, किसी इंसान के सामान्य जीवन में सेहत की समस्याएं होना आम बात है। ये प्रकृति का नियम है। मगर जब मैं बीमार पड़ी, तो मैंने परमेश्वर को दोष दिया, जब माँ बीमार हुई तो मैंने परमेश्वर से शिकायत की। यह बहुत बेतुका था! मुझे अय्यूब की याद आ गई। वह ईमानदार और दयालु था, उसने परमेश्वर से कभी कुछ नहीं माँगा। उसका मानना था कि सब कुछ परमेश्वर से आया है, चाहे हमें आशीष मिले या आपदा का सामना करना पड़े, हमें परमेश्वर की स्तुति और आराधना करनी चाहिए। यही कारण है कि जब शैतान ने अय्यूब को प्रलोभन दिया, और रातों-रात उसके बच्चे छीन लिए गए, उसकी सारी संपत्ति चोरी हो गई, उसका पूरा शरीर फोड़ों से भर गया, मगर उसने एक भी शिकायत नहीं की, बल्कि परमेश्वर के नाम का गुणगान करते हुए कहा, "यहोवा ने दिया और यहोवा ही ने लिया; यहोवा का नाम धन्य है" (अय्यूब 1:21)। इतना सब कुछ हो जाने के बाद, उसने गवाही देकर शैतान को नीचा दिखाया। मगर, परमेश्वर के इतने वचन पढ़ने के बाद भी, मेरे दिल में उसके लिए कोई जगह नहीं थी। मेरी आस्था सिर्फ आशीष पाने और मेरे अपने फायदे के लिए थी। मुझमें इंसानियत नाम की चीज़ नहीं थी!
उसके बाद, मैं परमेश्वर के वचनों को पढ़ते हुए चिंतन करने लगी। सेहत की इन समस्याओं में परमेश्वर की इच्छा क्या थी? मैंने वचनों के कुछ अंश पढ़े जिनसे काफी मदद मिली : "शुद्धिकरण वह सर्वोत्तम साधन है, जिसके द्वारा परमेश्वर लोगों को पूर्ण बनाता है, केवल शुद्धिकरण और कड़वे परीक्षण ही लोगों के हृदय में परमेश्वर के लिए सच्चा प्रेम उत्पन्न कर सकते हैं। कठिनाई के बिना लोगों में परमेश्वर के लिए सच्चे प्रेम की कमी रहती है; यदि भीतर से उनको परखा नहीं जाता, और यदि वे सच में शुद्धिकरण के भागी नहीं बनाए जाते, तो उनके हृदय बाहर ही भटकते रहेंगे। एक निश्चित बिंदु तक शुद्धिकरण किए जाने के बाद तुम अपनी स्वयं की निर्बलताएँ और कठिनाइयाँ देखोगे, तुम देखोगे कि तुममें कितनी कमी है और कि तुम उन अनेक समस्याओं पर काबू पाने में असमर्थ हो, जिनका तुम सामना करते हो, और तुम देखोगे कि तुम्हारी अवज्ञा कितनी बड़ी है। केवल परीक्षणों के दौरान ही लोग अपनी सच्ची अवस्थाओं को सचमुच जान पाते हैं; और परीक्षण लोगों को पूर्ण किए जाने के लिए अधिक योग्य बनाते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल शुद्धिकरण का अनुभव करके ही मनुष्य सच्चे प्रेम से युक्त हो सकता है)। "अगर तुम बस परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाया जाना और अंत में धन्य किया जाना चाहते हो, तो परमेश्वर पर तुम्हारे विश्वास का परिप्रेक्ष्य शुद्ध नहीं है। तुम्हें यह खोजना चाहिए कि वास्तविक जीवन में परमेश्वर के कर्मों को कैसे देखें, जब वह अपनी इच्छा तुम पर प्रकट करे तो उसे कैसे संतुष्ट करें, और तुम्हें यह पता लगाना चाहिए चाहिए कि उसकी अद्भुतता और बुद्धि की गवाही तुम्हें कैसे देनी चाहिए, और इसकी गवाही कैसे देनी चाहिए कि वह तुम्हें कैसे अनुशासित करता है और कैसे तुमसे निपटता है। ये सभी वे चीजें हैं, जिन पर अब तुम्हें विचार करना चाहिए। अगर परमेश्वर के लिए तुम्हारा प्रेम सिर्फ इसलिए है कि परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के बाद तुम उसकी महिमा में हिस्सा बँटा सको, तो यह अभी भी अपर्याप्त है और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी नहीं कर सकता। तुम्हें परमेश्वर के कार्य की गवाही देने में समर्थ होने, उसकी अपेक्षाएँ पूरी करने और उसके द्वारा लोगों पर किए गए कार्य का व्यावहारिक तरीके से अनुभव करने की आवश्यकता है। चाहे पीड़ा हो, आँसू हो या उदासी, तुम्हें अपने अभ्यास में ये सभी चीजें अनुभव करनी चाहिए। ये तुम्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में पूर्ण करने के लिए हैं, जो परमेश्वर की गवाही देता है। वास्तव में अभी वह क्या है, जो तुम्हें कष्ट सहने और पूर्णता पाने की कोशिश करने के लिए मजबूर करता है? क्या तुम्हारा वर्तमान कष्ट सच में परमेश्वर से प्रेम करने और उसकी गवाही देने के लिए है? या यह देह के आशीषों के लिए, तुम्हारी भविष्य की संभावनाओं और नियति के लिए है? अपने जिन इरादों, प्रेरणाओं और लक्ष्यों का तुम अनुसरण करते हो, वे सब सही किए जाने चाहिए, वे तुम्हारी इच्छा से निर्देशित नहीं हो सकते" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिन्हें पूर्ण बनाया जाना है उन्हें शोधन से गुजरना होगा)। परमेश्वर के वचनों के इन दो अंशों को पढ़ने के बाद, लगा मानो मुझे थोड़ी अंतर्दृष्टि मिल गई है। मेरी बीमारी में परमेश्वर की इच्छा आस्था में मेरी भ्रष्टता और मिलावट को सामने लाकर मुझे शुद्ध और स्वच्छ करने की थी। अगर ऐसा नहीं होता, तो मुझे आशीष पाने के पीछे भागने की घिनौनी मंशा का एहसास नहीं होता, मैं नहीं जान पाती कि मेरी सारी कड़ी मेहनत वास्तव में परमेश्वर के साथ लेन-देन करने के लिए थी। इस तरह आस्था रखना और कर्तव्य निभाना दरअसल परमेश्वर को धोखा देना और उसका प्रतिरोध करना था। मैं जानती थी कि अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया और खुद को नहीं बदला, तो परमेश्वर मुझे हटा देगा। तब मैंने समझा कि मेरी बीमारी वास्तव में परमेश्वर का प्रेम और उद्धार थी मुझे आत्मचिंतन करके खुद को जानना चाहिए, अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। परमेश्वर को इच्छा समझने के बाद, मैंने उसके सामने कसम खाई कि चाहे मेरी और माँ की सेहत ठीक हो या न हो, मैं अपनी अपेक्षाओं और चाहतों को दरकिनार कर, आशीष पाने की चाह को छोड़कर, तुम्हारे प्रति समर्पित होने के लिए तैयार हूँ। उसके बाद, मैं अपना पूरा मन सुसमाचार साझा करने के कर्तव्य में लगाने लगी। कुछ महीनों के बाद जब मैं अपनी जांच के लिए अस्पताल गई, तो डॉक्टर ने कहा कि खून की रिपोर्ट सामान्य है, अल्ट्रासाउंड से पता चला कि मेरी थायराइड की गांठ गायब हो गई है। उसने कहा कि मैं दवाएं लेना बंद कर सकती हूँ। मैं जानती थी कि यह पूरी तरह से परमेश्वर की सुरक्षा थी, मैं उसकी बहुत आभारी थी। मैं बस परमेश्वर का ऋण चुकाने के लिए अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहती थी।
करीब तीन बरसों से मेरी सेहत बहुत अच्छी है और थायराइड की समस्या भी दोबारा नहीं हुई है। मगर इस साल फरवरी में, मुझे गर्दन में थोड़ा दर्द महसूस हुआ, आईने में देखा तो उस जगह पर सूजन दिख रही थी। उस दिन शाम को इतना तेज़ दर्द हो रहा था कि मैं सो नहीं पाई, बिस्तर पर करवटें बदलती रही, अगली सुबह उठकर जब पानी पिया, तो ग्लास पकड़ते हुए हाथ कांप रहा था। मुझे काफी डर लगा, ये तो पहले जैसे लक्षण थे। इस बार मुझे पक्का पता नहीं था, मैंने अपने लक्षणों के बारे में एक चीनी डॉक्टर से बात की। उसने कहा कि मेरी थायराइड की समस्या दोबारा सामने आ गई है। मुझे काफी चिंता होने लगी, क्योंकि बहुत से लोग ऑनलाइन सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य की जांच-पड़ताल कर रहे थे, तो मैं गवाही साझा करने में बहुत व्यस्त थी। कभी-कभी तो एक दिन में कई सभाएं करनी पड़ती थी। मैं सोच रही थी अगर इस तरह अपना कर्तव्य निभाती रही, तो बुरी तरह थक जाऊँगी और मुझे फिर से बुखार आने लगेगा, अगर मेरी हालत बिगड़ती गई, तो क्या होगा? कोरोना वायरस के कारण इन बुरे हालत में, अगर मैं अस्पताल में भर्ती हो गई, तो मेरा थायराइड का इलाज सफल होगा ये तो पता नहीं, पर मुझे कोविड ज़रूर हो सकता था। उस दिन, एक बहन के साथ सिर्फ एक घंटे की संगति के बाद, मेरा शरीर बहुत थक गया। मेरी गर्दन में दर्द होने लगा, मैं बुरी तरह कांपने लगी, लगा कि मुझे पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल रहा है, मस्तिष्क में धुंधलापन छाने लगा। मैंने सोचा कि एक-दो दिनों की छुट्टी ले लूँ, ठीक होने के बाद दोबारा काम पर वापस आ जाऊंगी। मगर फिर मुझे अन्य कलीसियाओं के कार्यकर्ताओं की याद आई जिनके साथ अगले दिन गवाही साझा करनी थी। इतनी जल्दी किसी और को ढूँढ़ना मुमकिन नहीं था, ऐसे में अगर मैं नहीं गई, तो इससे सच्चे मार्ग की जांच-पड़ताल में देरी नहीं होगी? उस दिन शाम को, मेरी गर्दन में दर्द के साथ सूजन भी थी, सारी रात मैं बिल्कुल नहीं सो पाई। मगर मैंने इस बारे में सोचा कि परमेश्वर ने मुझमें इतना अधिक काम किया है, बीमार होने पर मैं सिर्फ अपने बारे में सोच रही हूँ—मुझे बहुत बुरा लगा। मैं परमेश्वर के सामने घुटने टेककर प्रार्थना करने लगी, "परमेश्वर, मुझे दोबारा बीमार करने के पीछे तुम्हारी नेक इच्छा है। मुझे प्रबुद्ध करो, राह दिखाओ, ताकि मैं तुम्हारी इच्छा समझ सकूँ। मैं मानती हूँ कि मेरा जीवन तुम्हारे हाथों में है, चाहे मेरी सेहत जैसी भी हो, मैं तुम्हारी सत्ता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार हूँ।" प्रार्थना के बाद वचनों का यह अंश याद आया : "अगर परमेश्वर में अपनी आस्था और सत्य की खोज में तुम यह कहने में सक्षम हो, 'परमेश्वर कोई भी बीमारी या अप्रिय घटना मेरे साथ होने दे—परमेश्वर चाहे कुछ भी करे—मुझे आज्ञापालन करना चाहिए, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जगह पर रहना चाहिए। अन्य सभी चीजों से पहले मुझे सत्य के इस पहलू—आज्ञापालन—को अभ्यास में लाना चाहिए, मैं इसे कार्यान्वित करता हूँ और परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता की वास्तविकता को जीता हूँ। साथ ही, परमेश्वर ने जो आदेश मुझे दिया है और जो कर्तव्य मुझे निभाना चाहिए, मुझे उनका परित्याग नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।' क्या यह गवाही देना नहीं हुआ? जब तुम्हारा इस तरह का संकल्प होता है और तुम्हारी इस तरह की अवस्था होती है, तो क्या तब भी तुम परमेश्वर की शिकायत कर सकते हो? नहीं, तुम ऐसा नहीं कर सकते" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सत्य के बारंबार चिन्तन से ही मार्ग मिलता है')। परमेश्वर के इन वचनों से मुझे यह समझने में मदद मिली कि मेरा कर्तव्य परमेश्वर की आज्ञा थी, मेरी जिम्मेदारी थी, इसे पूरा करना बिल्कुल सही और जायज़ था। चाहे जो भी हो जाए, अपनी आखिरी साँस तक भी मुझे अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। इसलिए मैंने खुद को मजबूत करके सब कुछ व्यवस्थित किया। अगले दिन गवाही साझा करने के बाद अगर मेरी हालत बदतर भी हो जाए, अस्पताल में भर्ती होना पड़े, तब भी मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगी। जब मैं इस तरह से सोचा, तो मेरे मन को थोड़ा सुकून मिला। अगले दिन, तय समय से पहले ही मैं अपने कंप्यूटर पर तैयार बैठी थी। मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि उस दिन की कई सभाओं में सब कुछ स्पष्ट था, मैं बोलते हुए बहुत प्रबुद्ध महसूस कर रही थी। मैंने दिन भर बात की, मगर मेरी गर्दन में ज़रा-सा भी दर्द महसूस नहीं हुआ। तब से, मेरी गर्दन का दर्द और सूजन पूरी तरह से गायब हो गयी। एक बार फिर परमेश्वर की सुरक्षा देखकर, मैंने उसका बहुत आभार माना, मैंने मन-ही-मन सोचा कि चाहे यह समस्या दोबारा आये या न आये, मैं समर्पित होकर इसका सामना करने के लिए तैयार हूँ।
उस अनुभव में मैंने सचमुच परमेश्वर का प्रेम महसूस किया। भले ही अपनी बीमारी में मैंने कष्ट झेला, मगर इसने मेरी आँखें खोल दीं, आस्था में आशीष पाने की मेरी मंशा, भ्रष्टता और मिलावट को उजागर कर दिया। परमेश्वर के वचनों ने अनुसरण पर मेरी गलत सोच को बदल दिया और परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में मेरी मदद की। यही नहीं, इससे मैं परमेश्वर का अधिकार और सुरक्षा देख पाई, इससे परमेश्वर पर मेरी आस्था और भी गहरी हो गई। यह सब मेरे लिये परमेश्वर का सच्चा प्रेम और उद्धार था।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?