इस प्रकार की सेवा सच में तिरस्करणीय है

20 दिसम्बर, 2017

डिंग निंग हेज़े सिटी, शैन्डॉन्ग प्रांत

पिछले कुछ दिनों में, कलीसिया ने मेरे कार्य में एक परिवर्तन की व्यवस्था की है। जब मुझे यह नया कार्यभार मिला, तो मैंने सोचा, "मुझे अपने भाई—बहनों के साथ एक सभा बुलाने, मामलों के बारे में साफ तौर पर उनसे बात करने, और उन पर अच्छा प्रभाव छोड़ने के लिए इस अंतिम अवसर को लेने की जरूरत है।" इसलिए, मैंने कई उपयाजकों से मुलाकात की, और हमारी मुलाकात की समाप्ति पर, मैंने कहा, "मुझसे यहाँ से चले जाने और एक अन्य कार्य पर जाने के लिए कहा गया है। मैं उम्मीद करती हूँ कि आप लोग उस अगुआ को स्वीकार करेंगे जो मेरी जगह आएगी और एक दिल और एक मन से उसके साथ मिलकर कार्य करेंगे।" जैसे ही उन्होनें मुझे इन वचनों को कहते हुए सुना, तो वहाँ मौज़ूद कुछ बहनों का चेहरा सफेद पड़ गया, और उनके चेहरों से मुस्कान गायब हो गई। उनमें से कुछ ने मेरे हाथ पकड़ लिए, कुछ ने मुझे गले लगा लिया, और उन्होंने रोते हुए कहा, "तुम हमें नहीं छोड़ सकती हो! तुम हमें बेकार समझकर नहीं छोड़ सकती हो और हमारी जरूरतों को नजरअंदाज नहीं कर सकती हो! ..." मेजबान परिवार की वह बहन खासतौर पर मुझे जाने देने की अनिच्छुक थी। उसने मुझसे कहा, "यह बहुत अच्छी बात है कि तुम यहाँ हमारे साथ हो। तुम ऐसी व्यक्ति हो जो कठिनाईयाँ सह सकती है, और तुम सत्य के बारे में संगति करने में भी अच्छी हो। हमें चाहे तुम्हारी जब भी ज़रूरत रही, तुम धैर्यवान रूप से हमारी सहायता करने के लिए हमेशा होती थी। यदि तुम चली गई, तो हम क्या करेंगे? ..." मुझसे अलग होने की उनकी अनिच्छा देखकर, मेरा दिल आनंद और संतुष्टि से भर गया। मैंने इन वचनों से उन्हें सांत्वना दी: "परमेश्वर पर निर्भर रहो। जब हो सकेगा, तो मैं वापस आकर तुम लोगों से मिलूँगी...।"

लेकिन उसके बाद, जब भी मैं अपने भाई—बहनों से अलग होने के उस दृश्य पर विचार करती, तो मेरे दिल में असहजता पैदा होने लगती थी। मुझे आश्चर्य होता था, "क्या दुःख की ऐसी भावनाएँ केवल स्वाभाविक हैं? उन्होंने ऐसा व्यवहार क्यों किया था मानो कि मेरा जाना इतनी ख़राब बात है? आखिर कलीसिया क्यों चाहता था कि मैं अपना पद बदलूँ?" मैं समझ ही नहीं पा रही थी, और इसीलिए मैं जवाबों की खोज करते हुए अक्सर परमेश्वर के समक्ष आती थी। एक दिन मैं एक उपदेश पढ़ रही थी और मुझे यह अंश मिला: "जो परमेश्वर की सेवा करेंगे उन्हें अवश्य सभी मामलों में परमेश्वर का उत्कर्ष करना और परमेश्वर की गवाही देनी चाहिए। केवल इसी तरह से वे परमेश्वर को जानने के लिए दूसरों की अगुवाई करने का फल पा सकते हैं और केवल परमेश्वर का उत्कर्ष करके और उसकी गवाही देकर ही वे दूसरों को परमेश्वर की उपस्थिति में ला सकते हैं। यह परमेश्वर की सेवा करने के सिद्धांतों में से एक है। परमेश्वर के कार्य का सर्वश्रेष्ठ फल जिसे अवश्य प्राप्त किया जाना चाहिए वह है परमेश्वर के कार्य को जानने के माध्यम से लोगों को ऐसा बनाना कि वे परमेश्वर के समक्ष आएँ। यदि जो अगुवा के रूप में सेवा करते हैं वे परमेश्वर का उत्कर्ष नहीं करते हैं और उसकी गवाही नहीं देते हैं, बल्कि इसके बजाय लगातार स्वयं को प्रदर्शन में रखते हैं..., तो वे अपने आप को परमेश्वर के विरोध में स्थापित कर रहे हैं। वे परमेश्वर के स्थान पर बैठते हैं और अपने आप को लोगों से परमेश्वर मनवाते हैं। उनका कार्य ऐसा कार्य बन जाता है जो लोगों के ऊपर परमेश्वर के साथ होड़ करता है। क्या यह ठीक वैसा ही नहीं है जैसे शैतान परमेश्वर का विरोध करता है। अब, बहुत से अगुवा है जिनमें से प्रत्येक के पास उनके अधीन अनुयायियों का परिचारकगण है, और वे जैसा स्वयं चाहते है वैसे ही लोगों को उन्नत और प्रशिक्षित कर रहे हैं। अंत में, परमेश्वर ने ऐसे किसी को प्राप्त नहीं किया है जो उसके हृदय को जानता हो। लोग किसके लिए अपना कार्य करते हैं? उन्होंने कितने लोगों को प्रशिक्षित किया है जो परमेश्वर के समान दृष्टिकोण वाले हैं? उन्होंने कितने लोगों की परमेश्वर को सच में जानने और प्यार करने में अगुवाई की है? इसलिए यदि लोगों की सेवा परमेश्वर का उत्कर्ष नहीं करती है और परमेश्वर की गवाही नहीं देती है, तो वे निश्चित रूप से स्वयं का दिखावा कर रहे हैं। भले ही उनका अभिप्राय परमेश्वर की सेवा करना हो, लेकिन वे असल में स्वयं की हैसियत के लिए कार्य कर रहे हैं; वे असल में देह के आनन्द के लिए कार्य कर रहे हैं। वे किसी भी तरह से परमेश्वर का उत्कर्ष करने या परमेश्वर की गवाही देने के लिए कार्य नहीं कर रहे हैं। यदि कोई परमेश्वर की सेवा करने के इस सिद्धांत का उल्लंघन करता है, तो इससे साबित होता है कि वह परमेश्वर की उपेक्षा कर रहा है" (कार्य व्यवस्था)। मैं जितना ज्यादा पढ़ती, मेरा दिल उतना ही ज्यादा परेशान होता था। मैं जितना ज्यादा पढ़ती, मैं उतना ही ज्यादा भयभीत हो जाती। आत्म-भर्त्सना की मेरी संवेदना कई गुना बढ़ गई थी। मेरे भाई—बहनों ने मेरे प्रति जो रवैया दर्शाया था, उससे मैं देख सकती थी कि मेरा कार्य असल में परमेश्वर की उपस्थिति में अपने भाई—बहनों की अगुआई करना नहीं रहा था, बल्कि उन्हें मेरी अपनी उपस्थिति में उनकी अगुआई करना था। अब मैं अपने भाई—बहनों के साथ बिताए गए समय के दौरान के कई दृश्यों को फिर से जाँचने के अलावा और कुछ नहीं कर सकती थी। मैं अक्सर ही मेजबान परिवार की उस बहन से कहती थी, "देखो तुम सब लोग कितने भाग्यशाली हो। तुम्हारा पूरा परिवार विश्वासी है। जब मैं घर पर होती हूँ, तो मेरा पति पूरे दिन मेरे साथ दुर्व्यवहार करता है। यदि वह मुझे पीट नहीं रहा होता है, तो वह मुझे कोस रहा होता है। मैंने अपने कर्तव्य को अधिकतम निभाया है, और देखो कि परमेश्वर में अपने विश्वास की वजह से मैंने कितनी कड़वाहट सही है।" जब मेरे भाई—बहन कठिनाईयों का सामना करते थे, तो मैं उनसे परमेश्वर की इच्छा का संवाद नहीं करती थी; मैं परमेश्वर के कार्य और परमेश्वर के प्रेम की गवाह के रूप में कार्य नहीं करती थी। इसके बजाय, मैं लगातार इस देह को पहले रखती थी और लोगों से यह सोचने का प्रयास करवाती थी कि मैं स्वयं बहुत अच्छी और विचारशील हूँ। जब भी मैं किसी भाई या बहन को ऐसा कुछ करते देखती थी जो सिद्धांतों के विरुद्ध होता था, तो मैं अपमान करने से डरती थी, इसलिए मैं हमेशा लोगों के बीच संबंधों की सुरक्षा करने की कोशिश करते हुए, सहायता नहीं करती या मार्गदर्शन नहीं देती थी। मैं जो कुछ भी करती थी, उसमें मैं अपने पद और लोगों के दिलों में अपनी छवि का सबसे ज्यादा ध्यान रखती थी। ... मेरा मुख्य उद्देश्य हमेशा दूसरों की सहानुभूति और सराहना प्राप्त करना होता था; यह मेरी सबसे बड़ी संतुष्टि बन गई थी। इससे सच में यह प्रकट होता है कि मैं स्वयं को बढ़ा रही थी, स्वयं के लिए गवाह के रूप में सेवा कर रही थी। मैंने जो कुछ भी किया था, वह असल में परमेश्वर के विरोध में था। मैं परेश्वर के उन वचनों को सोचती थी, जो कहते हैं, "अब, जबकि मैं तुम लोगों के बीच कार्य कर रहा हूँ, तो तुम लोग इस तरह से व्‍यवहार कर रहे हो—यदि किसी दिन तुम लोगों की निगरानी करने के लिए कोई न हो, तो क्या तुम लोग ऐसे डाकू नहीं बन जाओगे जिन्होंने खुद को राजा घोषित कर दिया है? जब ऐसा होगा और तुम विनाश का कारण बनोगे, तब तुम्हारे पीछे उस गंदगी को कौन साफ करेगा?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, एक बहुत गंभीर समस्या : विश्वासघात (1))। परमेश्वर के वचनों ने फिर से मुझे इस जागरुकता में ला दिया कि कैसे परमेश्वर की मेरी सेवा असल में मेरी स्वयं की गवाही दे रही थी और मेरा उत्कर्ष कर रही थी और इसने मुझे इस व्यवहार के गंभीर परिणामों को देखने में मेरी सहायता की। परमेश्वर के वचनों ने मुझे यह देखने में सहायता की, कि प्रधान दूत की तरह की मेरी प्रकृति मुझे एक अत्याचारी डाकू बना सकती थी, और यह कि मैं एक बड़ी तबाही का कारण बन सकती थी। मैंने सोचती थी कि कैसे परमेश्वर के प्रति मेरी सेवा, सेवा करने के सही सिद्धांतों के अनुसार पूरी नहीं की गई थी; यह परमेश्वर को उठाना और परमेश्वर की गवाही देना नहीं था, अपना कर्तव्य करना नहीं था। इसके बजाय, मेरे दिन स्वयं का दिखाता करते हुए, स्वयं की गवाही देते हुए, अपने भाई—बहनों को मेरी उपस्थिति में लाते हुए बीतते थे। क्या इस तरह की सेवा तिरस्करणीय नहीं है? क्या यह बस मसीह के शत्रु की 'सेवा' करना नहीं है? यदि परमेश्वर की सहिष्णुता और दया नहीं होती, तो मैं पहले ही परमेश्वर का शाप पा चुकी होती और गिरा दी जाती।

उस समय, मैं डर और शर्मिंदगी से काँप जाती थी; मेरे दिल में एक भारी ऋण की देनदारी की संवेदना बहने लगती थी, और मैं जमीन पर दंडवत हो जाती थी, फूट—फूटकर रोती थी और परमेश्वर से प्रार्थना करती थी: "हे, परमेश्वर! यदि तेरा प्रकाशन और प्रबुद्धता नहीं होती, तो मैं नहीं जानती कि मैं कितनी गहराई तक गिर जाती। मैं सच में जितना चुका सकती हूँ उससे अधिक तेरी ऋणी हूँ। तूने मुझे जो उद्धार दिया है उसके लिए तेरा धन्यवाद! मेरी आत्मा की गहराई में अपना स्वयं का कुरूप और घिनौना रूप देखने में मेरी सहायता करने के लिए तेरा धन्यवाद। मुझे यह दिखाने के लिए तेरा धन्यवाद कि तेरे प्रति मेरी सेवा असल में तेरा विरोध थी। यदि मेरे कार्यों से मेरा न्याय किया जाए, तो मैं तेरे शाप के अलावा और किसी योग्य नहीं हूँ, लेकिन तूने मेरी आँखें खोल दी, मेरा मार्गदर्शन किया है, और मुझे पश्चाताप करने और एक नई शुरुआत करने का मौका दिया है। हे परमेश्वर, मैं इस अनुभव को पूरी जिंदगी अपने साथ एक सबक के रूप में रखने की इच्छुक हूँ। तेरी ताड़ना और न्याय हमेशा मेरे साथ रहें, और शैतान के मेरे स्वार्थ को हटाने में ये शीघ्र मेरी सहायता करें और परमेश्वर का सच्चा श्रद्धालु सेवक बनने में मेरी सहायता करें ताकि मैं उस महान ऋण को चुकाना शुरू कर सकूँ जिसकी मैं कर्जदार हूँ।"

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