जिंदगी का निर्णायक क्षण
मैं खेती-किसानी वाले गाँव में पैदा हुआ था, एक गरीब परिवार में पला-बढ़ा। मेरे माता-पिता सीधे-सादे किसान थे, जिन पर अक्सर लोग धौंस जमाते थे। मैंने बचपन में ही यह कसम खाई कि बड़ा होकर मैं जरूर कुछ बनूँगा, ताकि गाँव वाले हमें इज्जत से देखें और कोई भी हमें कमतर न समझे और डराए-धमकाए नहीं। 11 साल की उम्र में मैं मार्शल आर्ट्स सीखने लगा, हालाँकि यह मेहनत का काम था और अक्सर मुझे चोटें लगती रहती थीं, पर चाहे जितनी मुश्किल आई, मैंने उसे छोड़ा नहीं। बाद में भीड़ से अलग हटकर कोई कारोबार करने की सोचकर मैंने जगह-जगह से कर्ज लिया, तोहफे दिए और रिश्ते बनाए। 1999 में जाकर मैं एक मार्शल आर्ट्स स्कूल रजिस्टर करवा पाया।
स्कूल खुलने के बाद यह मेरे मेहनती प्रबंधन से फलने-फूलने लगा और मुनाफा बढ़ता गया। स्थानीय लोग बहुत खुश थे और मेरे परिवार को मुझ पर गर्व था, उन्हें लगता था कि मैंने खानदान का नाम रोशन किया है। छात्र और उनके माता-पिता मेरी तारीफ करते नहीं थकते थे, सिटी स्पोर्ट्स ब्यूरो और शहर का मेयर मुझे बहुत महत्व देते थे और मुझसे खुश थे। सबसे अपनी तारीफ सुनकर मैं महत्वपूर्ण और सम्मानित महसूस करता था। रुतबा हासिल करने की मेरी इच्छा पूरी हो चुकी थी। मैं इतना खुश था कि लगता था कि आखिर जीवन में जो पाना था, मैंने पा लिया है। स्कूल को एक ठोस आधार देने के लिए मैं बहुत-से सामाजिक समारोहों में हिस्सा लेता था, बहुत-से विभागों को रिश्वत देता था, छुट्टी के दिनों में नेताओं को तोहफे भेजता था ताकि वे मुझे योग्यता के प्रमाण-पत्र देकर स्कूल को प्रोत्साहन दे सकें। उनसे अपने काम निकलवाने के लिए मैं बेहिसाब चीजें बोलता-करता था, जो मेरी खुद की मान्यताओं के खिलाफ थे, इस डर से कि अगर किसी अधिकारी से रिश्ते बिगड़ गए तो जो कारोबार, रुतबा और साख बनाने में मैंने इतनी मेहनत की थी, उस पर पानी फिर जाएगा। हर वक्त मुझे डर लगा रहता था, मैं चैन से नहीं बैठ पाता था। यह सब दिमागी और जिस्मानी तौर पर थकाने वाला था, जिंदगी बहुत मुश्किल हो गई थी। उस समय मैं बड़ी उलझन में था : मेरा कारोबार खूब चल रहा था, मैं नाम और पैसा कमा चुका था, फिर जिंदगी इतनी मुश्किल और थकाऊ क्यों थी?
फिर मई 2012 में मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का सुसमाचार स्वीकारा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया की सभाओं में भाई-बहनों से बात करके मैंने देखा कि यहाँ धोखाधड़ी और सत्ता और पैसे की सौदेबाजी नहीं होती। हर कोई बस सत्य के अनुसरण पर ध्यान दे रहा था। भ्रष्ट स्वभाव उजागर होने पर वे आत्मज्ञान पर संगति में दिल खोलकर बोलते और अपने मसले हल करने के लिए सत्य खोजते थे। यह सब मुझे समाज में नजर नहीं आता था। मुझे लगा कि आस्था का यह रास्ता जीने का सही रास्ता है। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने जाना कि अंत के दिनों में परमेश्वर अच्छाई को पुरस्कार देने और बुराई को दंडित करने का कार्य करता है। सिर्फ परमेश्वर में सच्चा विश्वास और सत्य का अनुसरण करने वाले ही उसकी देखभाल और सुरक्षा पाएँगे, अंत में बड़ी आपदाओं से बचाए जाएँगे और जीवित रहेंगे। जो आस्था नहीं रखते या सत्य का अनुसरण नहीं करते, वे चाहे कितना ही सफल कारोबार चलाते हों, कितने ही अमीर हों, आखिर में सब बेकार हो जाएगा, इससे उनकी अपनी जिंदगी भी नहीं बच पाएगी। यह सब समझते ही स्कूल की तरक्की पर मेरा उतना ध्यान नहीं रहा। इसके बजाय, अपने बचे हुए समय में मैं जाकर सुसमाचार साझा करने लगा।
मेरे परिवार ने पहले तो मेरे विश्वास का साथ किया। बाद में हालाँकि मेरे सबसे बड़े बेटे ने खबरों में देखा कि सरकार विश्वासियों का दमन कर उन्हें गिरफ्तार कर रही थी। मेरे विश्वास से स्कूल को खतरा होने के डर से मेरा बेटा मेरी आस्था का विरोध करने लगा, यहाँ तक कि पुलिस से मेरी शिकायत करने की धमकी भी दे दी। मेरे साथ बड़े अच्छे संबंध रखने वाले एक सरकारी अधिकारी ने भी सलाह दी, “इस देश में आस्था की अनुमति नहीं है। तुम्हें इसे छोड़ देना चाहिए। अगर तुम गिरफ्तार हो गए, तो तुम्हें सजा तो होगी ही, साथ ही शायद स्कूल भी बंद हो जाए। क्या इससे तुम्हारा परिवार बर्बाद नहीं हो जाएगा?” मैंने उसे कहा कि मेरी आस्था सच्चा मार्ग है, मैं मरते दम तक इस पर चलूँगा। वह मुझे नहीं मना सका, तो उसने मेरी पत्नी को वे झूठी बातें बता दीं, जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कलीसिया के खिलाफ कम्युनिस्ट पार्टी ने फैलाई थीं। उसने यह भी कहा कि “चमकती पूर्वी बिजली” के विश्वासी प्रमुख रूप से सरकारी गिरफ्तारियों के निशाने पर हैं और इसका बुरा असर उनकी आने वाली पीढ़ियों पर भी पड़ेगा, उनके बच्चे कॉलेज में भर्ती नहीं हो पाएंगे, न ही सेना या सरकारी नौकरियों में भर्ती हो पाएंगे। मेरी पत्नी यह सब सुनकर डर गई कि मेरी आस्था का बुरा असर हमारे बच्चों पर पड़ेगा। उसने मुझसे खूब बहस की और मुझे तलाक की धमकी तक दे दी। यह सब मेरे लिए बहुत पीड़ाजनक था। “मेरे दूसरे बेटे को पहले ही मास्टर डिग्री के बाद एक अच्छी नौकरी मिल गई थी। अगर मेरी आस्था की वजह से उसकी नौकरी गई, तो वह भी मुझसे झगड़ेगा। साथ ही जिस स्कूल को खड़ा करने में मैंने इतनी मेहनत की, वह खूब फल-फूल रहा था। अगर परमेश्वर में मेरी आस्था की वजह से वह बंद हुआ, तो क्या बरसों की मेहनत मिट्टी में नहीं मिल जाएगी? मेरे पड़ोसी मेरे बारे में क्या सोचेंगे?” उस दौरान मैं न ठीक से खा पाया, न सो पाया। मैं बहुत लाचार और बेचैन महसूस कर रहा था। मैं इतनी व्यथा में था कि मेरे मन में आस्था छोड़ने की बात भी आई, पर उसी समय मैं यह भी जानता था कि आस्था उद्धार पाने का इकलौता रास्ता थी, तो मैंने विश्वास नहीं छोड़ा।
एक सभा के दौरान मैंने अपने दिल की बात साझा की। अगुआ ने परमेश्वर के कई वचनों पर संगति की, जिनमें यह अंश भी था : “जिस क्षण तुम रोते हुए इस दुनिया में आते हो, उसी पल से तुम अपना कर्तव्य पूरा करना शुरू कर देते हो। परमेश्वर की योजना और उसके विधान के लिए तुम अपनी भूमिका निभाते हो और तुम अपनी जीवन-यात्रा शुरू करते हो। तुम्हारी पृष्ठभूमि जो भी हो और तुम्हारी आगे की यात्रा जैसी भी हो, कोई भी स्वर्ग के आयोजनों और व्यवस्थाओं से बच नहीं सकता, और किसी का भी अपनी नियति पर नियंत्रण नहीं है, क्योंकि केवल वही, जो सभी चीज़ों पर शासन करता है, ऐसा करने में सक्षम है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर मनुष्य के जीवन का स्रोत है)। अगुआ संगति करते हुए बोली, “हमारी नियति परमेश्वर के हाथों में है। अपने जन्म के पल से ही हममें से हरेक अपनी जिंदगी में जो कुछ अनुभव करने वाले हैं, जिन रुकावटों और मुश्किलों का सामना करेंगे, वे सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनिधारित हैं। हमारा परमेश्वर में आस्था रख पाना, उसका उद्धार स्वीकारने में सक्षम होना भी अब पूर्वनिर्धारित कर दिया गया है। यह परमेश्वर की अनुमति से है कि हम चीन में हैं और अपनी आस्था के लिए इतना दमन और कष्ट झेलते हैं, परमेश्वर इस दमन का इस्तेमाल करके अपने चुने हुए लोगों की आस्था और भक्ति को पूर्ण बनाता है। क्या तुम गिरफ्तार होगे, क्या तुम्हारा स्कूल बंद होगा, तुम्हारे बच्चों का भविष्य क्या होगा, यह पूरी तरह से परमेश्वर के हाथ में है। कोई इंसान यह तय नहीं कर सकता, सरकार भी अंतिम फैसला नहीं ले सकती।” परमेश्वर के वचनों और अगुआ की संगति से मुझे प्रबोधन मिला : “यह सच है। मैं पहले ही अपनी आधी जिंदगी जी चुका हूँ, बहुत-सा अनुभव किया है और महसूस किया है कि जो कुछ हुआ, वह वास्तव में मेरे काबू में नहीं था। मिसाल के लिए जब मैं सेना में था, तो मैंने कड़ी मेहनत की, अच्छा प्रदर्शन किया, लगा कि मैं अफसर बनूँगा, पर मेरी जगह किसी और ने अनुचित रूप से तरक्की पा ली। दूसरी तरफ अपना स्कूल खोलते हुए भी मुझे सभी तरह की मुश्किलों से गुजरना पड़ा, पर आखिर मैंने इसे खड़ा कर दिया और आज यह अच्छा चल रहा है। ये कामयाबियां और नाकामियां इंसान के नियंत्रण से बाहर थे।” यह सब सोचकर मुझे एहसास हुआ कि हम जिंदगी में जो भी अनुभव करते हैं, वह परमेश्वर के नियम से तय होता है, इसमें हम कुछ नहीं कर सकते। यह चिंता करना बेकार था कि मैं गिरफ्तार होऊँगा या नहीं। परमेश्वर पहले ही फैसला कर चुका है, इसलिए मुझे यह सब उसके हाथ में छोड़कर उसकी व्यवस्थाओं के आगे समर्पण कर देना चाहिए। तब अगुआ ने मेरे साथ किसी और चीज पर संगति की : “प्राचीन काल से ही सच्चे मार्ग का दमन होता रहा है। जितना वह मार्ग सच्चा होता है, शैतान की शक्तियां उतनी ही क्रूरता से जुल्म ढाती हैं। शैतान यह कैसे बर्दाश्त कर सकता है कि परमेश्वर लोगों को बचाए? जब प्रभु यीशु कार्य करने आया था, तो रोमन सरकार और धार्मिक दुनिया ने पागलों की तरह उसका और उसके अनुयायियों का विरोध और अत्याचार किया। आज हम सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, इसलिए यह तो होना ही है कि शैतानी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन हमें गिरफ्तार करे और अत्याचार करे। परमेश्वर इन अत्याचारों का इस्तेमाल हमें विवेक पाने में करता है, ताकि हम पार्टी के शैतानी, परमेश्वर विरोधी सार को साफ देख सकें।”
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “हजारों सालों से यह मलिनता की भूमि रही है। यह असहनीय रूप से गंदी और असीम दुःखों से भरी हुई है, चालें चलते और धोखा देते हुए, निराधार आरोप लगाते हुए, क्रूर और दुष्ट बनकर इस भुतहा शहर को कुचलते हुए और लाशों से पाटते हुए प्रेत यहाँ हर जगह बेकाबू दौड़ते हैं; सड़ांध ज़मीन पर छाकर हवा में व्याप्त हो गई है, और इस पर जबर्दस्त पहरेदारी है। आसमान से परे की दुनिया कौन देख सकता है? शैतान मनुष्य के पूरे शरीर को कसकर बांध देता है, अपनी दोनों आंखों पर पर्दा डालकर, अपने होंठ मजबूती से बंद कर देता है। शैतानों के राजा ने हजारों वर्षों तक उपद्रव किया है, और आज भी वह उपद्रव कर रहा है और इस भुतहा शहर पर बारीकी से नज़र रखे हुए है, मानो यह राक्षसों का एक अभेद्य महल हो; इस बीच रक्षक कुत्ते चमकती हुई आंखों से घूरते हैं, वे इस बात से अत्यंत भयभीत रहते हैं कि कहीं परमेश्वर अचानक उन्हें पकड़कर समाप्त न कर दे, उन्हें सुख-शांति के स्थान से वंचित न कर दे। ऐसे भुतहा शहर के लोग परमेश्वर को कैसे देख सके होंगे? क्या उन्होंने कभी परमेश्वर की प्रियता और मनोहरता का आनंद लिया है? उन्हें मानव-जगत के मामलों की क्या कद्र है? उनमें से कौन परमेश्वर के उत्कट इरादों को समझ सकता है? फिर, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि देहधारी परमेश्वर पूरी तरह से छिपा रहता है : इस तरह के अंधकारपूर्ण समाज में, जहाँ राक्षस बेरहम और अमानवीय हैं, पलक झपकते ही लोगों को मार डालने वाला शैतानों का सरदार, ऐसे मनोहर, दयालु और पवित्र परमेश्वर के अस्तित्व को कैसे सहन कर सकता है? वह परमेश्वर के आगमन की सराहना और जयजयकार कैसे कर सकता है? ये अनुचर! ये दया के बदले घृणा देते हैं, लंबे समय पहले ही वे परमेश्वर से शत्रु की तरह पेश आने लगे थे, ये परमेश्वर को अपशब्द बोलते हैं, ये बेहद बर्बर हैं, इनमें परमेश्वर के प्रति थोड़ा-सा भी सम्मान नहीं है, ये लूटते और डाका डालते हैं, इनका विवेक मर चुका है, ये विवेक के विरुद्ध कार्य करते हैं, और ये लालच देकर निर्दोषों को अचेत कर देते हैं। प्राचीन पूर्वज? प्रिय अगुआ? वे सभी परमेश्वर का विरोध करते हैं! उनके हस्तक्षेप ने स्वर्ग के नीचे की हर चीज को अंधेरे और अराजकता की स्थिति में छोड़ दिया है! धार्मिक स्वतंत्रता? नागरिकों के वैध अधिकार और हित? ये सब पाप को छिपाने की चालें हैं!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (8))। परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि कम्युनिस्ट पार्टी एक नास्तिक पार्टी है, परमेश्वर की शत्रु है, जो परमेश्वर का वजूद नहीं देखना चाहेगी। यह धार्मिक आजादी की अनुमति का दावा करती है, पर यह सिर्फ लोगों को गुमराह करने वाला एक झूठ है। इसे डर है कि अगर लोग आस्था रखने लगे, परमेश्वर के वचन पढ़ने लगे, सत्य जान गए, तो वे समझ जाएँगे कि पार्टी खुद ही शैतान है और वे इसके विरुद्ध विद्रोह कर इसे नकार देंगे। फिर लोगों को हमेशा नियंत्रण में रखने के इसके अरमान मिट्टी में मिल जाएँगे। इसलिए लोगों को परमेश्वर में विश्वास और उसका अनुसरण करने से रोकने के लिए यह परमेश्वर के चुने हुए लोगों को गिरफ्तार करती है, उन पर जुल्म ढाती है और मीडिया के जरिए सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया को बदनाम कर उसे कलंकित करती है। यहाँ तक कि यह विश्वासियों के परिवारों को भी धमकाती है, उनसे विश्वासियों को तब तक प्रताड़ित कर उनकी अवहेलना कराती है जब तक कि वे अपनी आस्था न छोड़ दें, परमेश्वर का उद्धार खो बैठें और पार्टी के साथ नरक में सड़ें। कम्युनिस्ट पार्टी हद से ज्यादा दुष्ट और कुटिल है! मेरा परिवार इससे गुमराह होकर मुझे प्रताड़ित करने लगा था। अगर मैं उनके आगे झुक जाता, तो मैं शैतान की चाल में फँस जाता। मैं इसके झांसे में नहीं आ सकता था। मेरा परिवार कितने भी रोड़े अटकाए, पर मैं जानता था कि मुझे आस्था बनाए रखनी है और अपना कर्तव्य करते जाना है।
मुझे परमेश्वर के अनुसरण में अडिग देखकर मेरा बड़ा बेटा मुझे और सताने लगा। यहाँ तक कि एक दिन उसने छात्रों के सामने ही मुझे स्कूल से बाहर खदेड़ दिया। वह मुझ पर गुस्से से चिल्लाते हुए बोला, “सरकार धर्म की इजाजत नहीं देती, पर आप विश्वास करने पर अड़े हैं! आप गिरफ्तार हो गए तो पूरा परिवार चपेट में आएगा, यहाँ तक कि मेरे बच्चे भी। इसे कैसे स्वीकार किया जा सकता है? अगर आस्था रखनी है तो स्कूल छोड़ दीजिए, हमें इसमें मत फँसाइए!” मुझे अपने कानों पर विश्वास न हुआ कि मेरा अपना बेटा इतना बेरहम होकर बात कर सकता है, सिर्फ परमेश्वर को मानने पर मुझे स्कूल से बाहर कर सकता है। दिल पर एक चोट-सी लगी : “अगर मैं अपने ही स्कूल से बाहर कर दिया गया हूँ, तो इसका मतलब तो यही है न कि मेरा खून-पसीना, आँसू सब बेकार चले गए? फिर कौन मुझे ‘हेडमास्टर’ कहेगा, कौन मेरा मान-सम्मान करेगा? मैं इन चीजों का सुख नहीं ले पाऊँगा। मैं फिर से एक मामूली किसान बन जाऊँगा। मैं अपने दोस्तों और जानने वालों का सामना कैसे करूँगा?” यह सोचना ही असहनीय और दर्दनाक था। “अगर मेरे बेटे ने ही मुझे बाहर कर दिया तो मैं कहाँ जाऊँगा? क्या मुझे बस उसकी सुननी चाहिए।” यह सब दिमाग में आते ही मुझे परमेश्वर के वचनों का ध्यान आया : “यदि लोगों में आत्मविश्वास नहीं है, तो उनके लिए इस मार्ग पर चलते रहना आसान नहीं है। अब हर कोई देख सकता है कि परमेश्वर का कार्य लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप जरा-सा भी नहीं है। परमेश्वर ने इतना अधिक कार्य किया है और इतने सारे वचनों को कहा है, और भले ही लोग मानें कि वे सत्य हैं, पर परमेश्वर के बारे में धारणाएँ अभी भी पैदा हो सकती हैं। अगर लोग सत्य को समझना और पाना चाहते हैं, तो उनमें उस चीज के साथ खड़े होने का आत्मविश्वास और इच्छाशक्ति होनी चाहिए, जिसे वे पहले ही देख चुके हैं और अपने अनुभवों से प्राप्त कर चुके हैं। भले ही परमेश्वर लोगों में कुछ भी कार्य करे, उन्हें वह बनाए रखना चाहिए जो उनके पास है, उन्हें परमेश्वर के सामने ईमानदार होना चाहिए, और उसके प्रति बिल्कुल अंत तक समर्पित रहना चाहिए। यह मनुष्य का कर्तव्य है। लोगों को जो करना चाहिए, उसे उन्हें बनाए रखना चाहिए” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम्हें परमेश्वर के प्रति अपनी भक्ति बनाए रखनी चाहिए)। “निराश न हो, कमज़ोर न बनो, मैं तुम्हारे लिए चीज़ें स्पष्ट कर दूँगा। राज्य की राह इतनी आसान नहीं है; कुछ भी इतना सरल नहीं है! तुम चाहते हो कि आशीष आसानी से मिल जाएँ, है न? आज हर किसी को कठोर परीक्षणों का सामना करना होगा। बिना इन परीक्षणों के मुझे प्यार करने वाला तुम लोगों का दिल और मजबूत नहीं होगा और तुम्हें मुझसे सच्चा प्यार नहीं होगा। यदि ये परीक्षण केवल मामूली परिस्थितियों से युक्त भी हों, तो भी सभी को इनसे गुज़रना होगा; अंतर केवल इतना है कि परीक्षणों की कठिनाई हर एक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होगी” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 41)। परमेश्वर के वचनों से मेरा मन शांत हुआ। यह सही है कि परमेश्वर में विश्वास का रास्ता हमेशा सुगम नहीं होता। हमें कुछ कष्ट झेलने पड़ते हैं और आस्था के बिना अपने रास्ते पर डटे रहना मुश्किल होता है। अगर इस दमन के आगे मैं निराश होकर पीछे हट जाता तो मेरी आस्था का क्या होता? परमेश्वर में विश्वास करने से पहले, जब मैंने ज़िंदगी में आगे बढ़ने के लिए सालों तक संघर्ष किया था, तो वह जीना मुश्किल, थकाऊ और प्रेरणाविहीन था। अब मुझे सौभाग्य से जीवन में ऐसा दुर्लभ अवसर मिला था—मानवजाति को बचाने के लिए परमेश्वर का आगमन। मैं इसे यूँ ही कैसे गँवा सकता था? अगर मैंने ऐसा किया तो फिर परमेश्वर द्वारा मुझे कैसे बचाया जाएगा? प्रभु यीशु ने कहा था : “आकाश के पक्षियों को देखो! वे न बोते हैं, न काटते हैं, और न खत्तों में बटोरते हैं; फिर भी तुम्हारा स्वर्गीय पिता उनको खिलाता है। क्या तुम उनसे अधिक मूल्य नहीं रखते?” (मत्ती 6:26)। परमेश्वर ने पंछियों का सृजन किया, जिन्हें बोना-काटना नहीं आता। उन्हें परमेश्वर जीवित रखता है। मैंने परमेश्वर में विश्वास किया है और अपना कर्तव्य निभाया है, तो परमेश्वर मेरे लिए कोई रास्ता खोलेगा। अगर मेरे बेटे ने मुझे घर से बाहर निकाल दिया, तो निश्चित ही परमेश्वर मुझे राह दिखाएगा, मुझे चिंता करने की जरूरत नहीं थी। इस विचार ने मुझमें आस्था का नया संचार कर दिया मैं अब बेटे के सामने लाचार नहीं था। यह देखकर कि मैं अपनी आस्था पर अटल था, उसने गुस्से में मुझे स्कूल के दरवाजे से बाहर धक्का दे दिया। मेरे पास स्कूल छोड़ने और कुछ दिन अपने माता-पिता के साथ रहने के अलावा कोई चारा नहीं था।
उस शाम, अपनी दुर्दशा के बारे में सोचकर मुझे बहुत दुख हुआ। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर, मुझे नहीं पता इसमें तुम्हारा क्या इरादा है। मुझे पता है कि तुम पर विश्वास करके मैं सही रास्ते पर चल रहा हूँ। फिर मेरा बेटा मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहा है? मुझे राह दिखाओ, ताकि मैं तुम्हारे इरादे को समझ सकूँ।” फिर मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद आया, जो भाई-बहनों ने मेरे साथ साझा किया था : “परमेश्वर द्वारा मनुष्य के भीतर किए जाने वाले कार्य के प्रत्येक चरण में, बाहर से यह लोगों के मध्य अंतःक्रिया प्रतीत होता है, मानो यह मानव-व्यवस्थाओं द्वारा या मानवीय विघ्न से उत्पन्न हुआ हो। किंतु पर्दे के पीछे, कार्य का प्रत्येक चरण, और घटित होने वाली हर चीज, शैतान द्वारा परमेश्वर के सामने चली गई बाजी है, और लोगों से अपेक्षित है कि वे परमेश्वर के लिए अपनी गवाही में अडिग बने रहें। उदाहरण के लिए, जब अय्यूब को आजमाया गया था : पर्दे के पीछे शैतान परमेश्वर के साथ दाँव लगा रहा था, और अय्यूब के साथ जो हुआ वह मनुष्यों के कर्म थे, और मनुष्यों का विघ्न था। परमेश्वर द्वारा तुम लोगों में किए गए कार्य के हर कदम के पीछे शैतान की परमेश्वर के साथ बाजी होती है—इस सब के पीछे एक संघर्ष होता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल परमेश्वर से प्रेम करना ही वास्तव में परमेश्वर पर विश्वास करना है)। परमेश्वर के वचनों पर विचार करके मैं यह समझ पाया कि ऊपर से देखने पर लगता था कि मेरे बेटे ने कम्युनिस्ट पार्टी के झूठे प्रचार से गुमराह होकर मेरी आस्था को दबाने और उसमें अड़चनें डालने के लिए मुझे मेरे ही स्कूल से निकाला था। लेकिन हकीकत में तो इस सबके पीछे शैतान केवल यह देखने के लिए परेशान और गुमराह कर स्थिति का फायदा उठा रहा था कि मैं क्या चुनूँगा—क्या मैं अपने पारिवारिक रिश्ते कायम रखूँगा, नाम और रुतबा बचाऊँगा और परमेश्वर को धोखा दूँगा? या मैं अपने निजी हितों को छोड़कर परमेश्वर का अनुसरण जारी रखूँगा। मेरे हालात से मुझे चिंतित और परेशान कर दिया क्योंकि मुझे परमेश्वर के लिए सच्ची आस्था नहीं थी और उसके लिए सब कुछ त्यागने का संकल्प नहीं था। शैतान मेरी कमजोरियों—प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए मेरी इच्छा और परिवार के लिए मेरी चिंता—का इस्तेमाल कर रहा था, ताकि मैं परमेश्वर को धोखा दूँ और उसे छोड़ दूँ। फिर अंततः मुझे वह बर्बाद कर निगल जाता। शैतान कितना पापी और बुरा था! यह समझ में आने के बाद मुझे थोड़ा बेहतर महसूस हुआ। मैंने संकल्प किया, चाहे मेरा परिवार मुझे रोकने के लिए जो करे, मुझे जिंदगी में कितनी ही मुश्किलें झेलनी पड़ें, मैं अपनी आस्था पर मजबूती से टिका रहूँगा और अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करके शैतान को शर्मिंदा करूंगा!
चूँकि मैं माता-पिता के घर में ज्यादा दिन नहीं ठहर सकता था, मुझे स्कूल वापस जाना पड़ा। लौटने के बाद मैंने सभाओं में शामिल होना और सुसमाचार साझा करना जारी रखा। मुझे अपनी आस्था पर टिका देख मेरे बड़े बेटे और उसकी पत्नी ने अत्याचार को बढ़ा दिया। वे अक्सर मुझसे बुरी बातें कहते, मुझे कोसते और चले जाने के लिए कहते थे। उन्होंने मेरे स्कूल की कमाई भी अपने हाथ में ले ली और मेरे लिए एक पाई भी नहीं छोड़ी। मुझे परेशान करने के लिए वे अक्सर बुरी बातें कहते थे और कुछ दिन मैं निरंतर बहुत गुस्से में रहा और मुश्किल से ही खाना खा पाया, इसका मेरी सेहत पर बुरा असर पड़ा। चलते-चलते आँखों के आगे अंधेरा छा जाता, कई बार मैं लगभग बेहोश हो जाता था। मुझे पेट की बीमारी हो गई। रात को मुझे इतना दर्द होता कि तकिए से पेट को दबाकर ही थोड़ा आराम मिल पाता था। जब मैं रात को सो नहीं पाता तो स्कूल के मैदान में चला जाता, ट्रेनिंग बिल्डिंग, दफ्तर, कैफे और छात्रावास को देखता रहता। उस स्कूल को निहारते हुए, जिसे मैंने इतनी मेहनत से बनाया था, मेरा मन भारी हो जाता। मैं सोचता कि ये स्कूल खोलने के लिए मैंने न जाने सड़कों पर कितनी यात्राएं कीं, न जाने कितने संबंध बनाए और न जाने कितना कष्ट सहा। अब जब कुछ कामयाबी मिली तो मेरा बेटा इसे मुझसे छीनना चाह रहा था। यह मेरा जिंदगी भर का काम था। अब अगर मैंने अपनी आस्था बचाई तो यह सब खो जाने का जोखिम उठाऊँगा। यह सोचते हुए मेरे दिल पर छुरियाँ चलने लगती थीं। उस दौरान मैं इतना कमजोर था, हमेशा चुपचाप रात को रोता था। आँसुओं के बीच मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, “हे परमेश्वर, मैं यह कारोबार खोने जा रहा हूँ, जिसे बनाने में मैंने अपनी पूरी जिंदगी खपाई है और मैं इसे यूँ जाते सहन नहीं कर पा रहा। मुझे राह दिखाकर इस हालात से उबारो।”
बाद में, मेरे भाई-बहनों ने मेरे साथ परमेश्वर के कुछ वचन साझा किए, जिनसे मुझे अभ्यास का एक रास्ता मिला। परमेश्वर के वचन कहते हैं : “अब तुम्हें उस मार्ग को स्पष्ट रूप से देखने में समर्थ हो जाना चाहिए, जिस पर पतरस चला था। यदि तुम पतरस के मार्ग को स्पष्ट रूप से देख सको, तो तुम उस कार्य के बारे में निश्चित होगे जो आज किया जा रहा है, इसलिए तुम शिकायत नहीं करोगे या नकारात्मक नहीं होगे, या किसी भी चीज़ की लालसा नहीं करोगे। तुम्हें पतरस की उस समय की मनोदशा का अनुभव करना चाहिए : वह दुख से त्रस्त था; उसने फिर कोई भविष्य या आशीष नहीं माँगा। उसने सांसारिक लाभ, प्रसन्नता, प्रसिद्धि या धन-दौलत की कामना नहीं की; उसने केवल सर्वाधिक अर्थपूर्ण जीवन जीना चाहा, जो कि परमेश्वर के प्रेम को चुकाने और परमेश्वर को अपनी सबसे अधिक बहुमूल्य वस्तु समर्पित करने के लिए था। तब वह अपने हृदय में संतुष्ट होता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस ने यीशु को कैसे जाना)। परमेश्वर के वचनों पर विचार कर मेरी आँखें खुल गईं। एक वक्त पतरस को भी अपनी आस्था के लिए अपने परिवार का दमन झेलना पड़ा था। उसका परिवार चाहता था कि वह नाम कमाए, खानदान का नाम रौशन करे। पर वह उनकी वजह से विवश नहीं। जब प्रभु यीशु ने उसे बुलाया, तो वह सब कुछ छोड़कर प्रभु का अनुसरण करने लगा, एक अर्थपूर्ण जीवन जीने लगा। पतरस का अनुभव मेरे लिए प्रबोधक था। पतरस की परमेश्वर में सच्ची आस्था थी, वह सब कुछ छोड़कर उसका अनुसरण करने में सक्षम था। उसने सत्य का अनुसरण किया, परमेश्वर को जानने और प्रेम करने लगा, आखिर में परमेश्वर की स्वीकृति पाने में सक्षम रहा। मुझे विश्वासी बने कुछ ही समय हुआ था, सत्य कम समझता था, पर नाम और रुतबे के पीछे जाने से मेरी दुर्दशा हुई थी, उधर पतरस ने जो रास्ता चुना उससे उसे परमेश्वर की स्वीकृति मिली, यह मेरे लिए सचमुच प्रेरणादायक था। मैं पतरस की मिसाल पर चलते हुए नाम और प्रतिष्ठा को भुलाकर सत्य का अनुसरण करना चाहता था। बाद में मैंने स्कूल छोड़कर अपनी आस्था का अभ्यास करने और अपना कर्तव्य निभाने का फैसला किया।
कुछ दिन बाद, मेरे कुछ पुराने सैनिक दोस्तों को जब पता चला कि मेरे बेटे ने मुझे स्कूल से निकाल दिया है, तो उन्हें बहुत गुस्सा आया। वे मुझे इसे वापस लेने की तरकीबें सुझाने लगे। दोस्त और रिश्तेदार सभी इस बेइंसाफी की निंदा कर रहे थे। गाँव के सचिव ने मुझे यह सरकारी प्रमाण-पत्र उपलब्ध करवाया कि स्कूल मैंने खुद बनाया था और किसी भी दूसरे का इस पर कोई हक नहीं था। उन्होंने जो कहा उसे सुनकर मैंने सोचा : “अब इस प्रमाण-पत्र के साथ अगर मेरे सैनिक दोस्त मुझे स्कूल वापस दिलवाने में मदद कर दें, तो मैं अपनी पुरानी प्रतिष्ठा फिर से पा लूँगा, जिसे मैंने खो दिया था।” पर मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से नाम और रुतबे के चक्कर में पड़ रहा था, तो मैंने मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना करके मुझे दैहिक इच्छाओं के विरुद्ध विद्रोह करने की शक्ति देने के लिए कहा। प्रार्थना के बाद मैंने अय्यूब के अनुभव के बारे में सोचा। एक ही रात में उसने अपनी सारी संपत्ति खो दी थी और हालाँकि यह बड़ी तकलीफदेह बात थी, पर उसने इसे वापस लेने के लिए अपनी तरकीबें नहीं भिड़ाईं। इसके बजाय उसने परमेश्वर से प्रार्थना करके उसकी व्यवस्थाओं के आगे समर्पण किया। मेरी संपत्ति अय्यूब की दौलत की तुलना में कुछ भी नहीं थी, पर अगर मैं इस हालत में प्रार्थना करके परमेश्वर के साथ न खोजूँ, बल्कि खुद के भरोसे इसे वापस लेना चाहूँ, तो यह परमेश्वर के प्रति समर्पण कैसे हुआ? इसके अलावा, अगर मैं स्कूल वापस ले भी लूँ, तो मैं इसे चलाने में ही सारे दिन व्यस्त रहूँगा, मेरे पास आस्था के अभ्यास और कर्तव्य निभाने के लिए ताकत नहीं बचेगी। अब जब मेरे बेटे ने मुझसे स्कूल ले लिया था, मैं पूरे दिल से आस्था का अभ्यास कर अपना कर्तव्य निभा सकता था। यह बहुत बढ़िया बात थी। इस विचार से मेरा मन खुशी से भर गया। मुझे एहसास हुआ कि मैं कभी भी स्कूल छोड़ नहीं पाता क्योंकि बेहद भ्रष्ट होने के कारण मैं प्रतिष्ठा और रुतबे की चिंता में रहता था।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “ऐसी गंदी जगह में जन्म लेकर मनुष्य समाज द्वारा बुरी तरह संक्रमित कर दिया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित हो गया है, और उसे ‘उच्चतर शिक्षा संस्थानों’ में पढ़ाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन के बारे में क्षुद्र दृष्टिकोण, सांसारिक आचरण के घृणित फलसफे, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, भ्रष्ट जीवन-शैली और रिवाज—इन सभी चीजों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर घुसपैठ कर ली है, उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। दिन-प्रतिदिन मनुष्य का स्वभाव और अधिक शातिर बन रहा है, और एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के लिए कुछ भी त्याग करे, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रति समर्पण करे, इसके अलावा, न ही एक भी व्यक्ति ऐसा है जो स्वेच्छा से परमेश्वर के प्रकटन की खोज करे। इसके बजाय, इंसान शैतान की सत्ता में रहकर, आनंद का अनुसरण करने के सिवाय कुछ नहीं करता और कीचड़ की धरती पर खुद को देह की भ्रष्टता में डुबा देता है। सत्य सुनने के बाद भी जो लोग अंधकार में जीते हैं, उसे अभ्यास में लाने का कोई विचार नहीं करते, न ही वे परमेश्वर का प्रकटन देख लेने के बावजूद उसे खोजने की ओर उन्मुख होते हैं। इतनी भ्रष्ट मानवजाति को उद्धार का मौका कैसे मिल सकता है? इतनी पतित मानवजाति प्रकाश में कैसे जी सकती है?” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी अवस्था उजागर कर दी। बचपन से मेरे माता-पिता और शिक्षकों ने मुझे इस तरह की बातें सिखाई थीं, “आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है,” “सबसे महान इंसान बनने के लिए व्यक्ति को सबसे बड़ी कठिनाइयाँ सहनी होंगी,” और “भीड़ से ऊपर उठो,” और “अपने पूर्वजों का नाम करो।” ये शैतानी फलसफे मेरे दिल में बहुत गहरी पैठ बना चुके थे, जिससे मेरे मन में जिंदगी और मूल्यों के प्रति गलत नजरिया बन गया था। लगता था कि आगे बढ़ना, दूसरों से बेहतर होना, प्रतिष्ठा और रुतबा कमाना ईमानदारी और मूल्यों के साथ जीने का इकलौता तरीका था। नाम कमाने के लिए मैं कोई भी कष्ट सहन करने को तैयार हो सकता था। मार्शल आर्ट्स स्कूल के प्रबंधन के समय हर दिन थका देने वाला था, तब मेहनत और पसीने से कमाए गए पैसे को मैं सरकारी अधिकारियों की चापलूसी में लगा देता था, उनकी झूठी बड़ाई, मीठी बातें बनाते हुए बिना किसी गरिमा के जी रहा था। मुझे बहुत-से सरकारी नेताओं को छुट्टियों में तोहफे भेजने होते थे, इस डर से कि जरा-सी गलती होने से भी मुसीबत आ सकती है। उन जटिल संबंधों को बनाए रखना दिमागी और जिस्मानी दोनों तरह की कसरत थी, पर मैं इसमें बुरी तरह फँसा हुआ था और उससे खुद को निकाल नहीं सकता था। मेरे आसपास के लोग नाम और रुतबा कमाने के बाद बेतहाशा बुरे कामों में लिप्त हो गए थे, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, वेश्यागमन, जुएबाजी में उनकी कोई सीमा नहीं थी। शैतान इसी तरह लोगों को भ्रष्ट करके नुकसान पहुँचाता है। मेरे बेटे ने तो मेरा वह स्कूल ही झपट लिया था, जिसे मैंने अपने हाथों से खड़ा किया था क्योंकि वह भी फायदे और रुतबे के मोह में फँस गया था। इस फायदे के लिए उसे बाप-बेटे के रिश्ते की परवाह नहीं थी। इससे मुझे प्राचीन राजघरानों की याद आ गई, जहां राज सिंहासन के लिए भाई, बाप और बेटे एक-दूसरे की हत्या कर देते थे। ये शैतान की भ्रांतियाँ और राक्षसी बातें हैं, जो लोगों को इतना भ्रष्ट कर देते हैं कि वे अपनी मानवता और तर्क खो देते हैं। उसी घड़ी मुझे एहसास हुआ कि शैतान मानवता को किस तरह प्रतिष्ठा और रुतबे की जंजीरों में जकड़ता है। अगर हम शैतानी फलसफ़ों से जीते हुए प्रतिष्ठा और रुतबे के पीछे पड़े रहेंगे, तो हम और भ्रष्ट हो जाएँगे और हमारी जिंदगी और भी तकलीफदेह होती जाएगी। परमेश्वर मुझे अब और शैतान द्वारा भ्रष्ट होते नहीं देखना चाहता था, इसलिए जब मैं प्रतिष्ठा और रुतबे के दलदल में गहराई तक धँसा था तो परमेश्वर के वचनों ने मुझे दिखाया कि सत्य का अनुसरण करना ही जीवन का सही रास्ता है, सार्थक जीवन जीने का एकमात्र तरीका है। मैं शैतानी फलसफ़ों में जकड़ा हुआ था, इसलिए जब मैं पैसे, प्रतिष्ठा और रुतबे का सुख खो बैठा तो मैं उन्हें जाने देने को तैयार नहीं था और दुखी हो गया। यहाँ तक कि मैं उन्हें पाने के लिए अदालत में केस भी लड़ना चाहता था। मैं कितना मूर्ख था। अगर मैं उस रास्ते पर चलता तो मैं बस शैतान को मुझे नुकसान पहुँचाने देता रहता और आखिर में मैं इसके साथ ही नष्ट हो जाता। प्रभु यीशु ने कहा था : “यदि मनुष्य सारे जगत को प्राप्त करे, और अपने प्राण की हानि उठाए, तो उसे क्या लाभ होगा? या मनुष्य अपने प्राण के बदले क्या देगा?” (मत्ती 16:26)। यह सच है। कोई कितना ही पैसा और प्रतिष्ठा कमा ले, इससे सत्य और जीवन नहीं खरीदा जा सकता! मैंने जिंदगी भर खपकर जो संपत्ति, प्रतिष्ठा और रुतबा कमाया था, आज सब गँवा बैठा था, पर इस अनुभव से मैंने सीखा कि ये चीजें कैसे लोगों का नुकसान करती हैं और इनके पीछे भागने के कितने भयंकर परिणाम हो सकते हैं। मैंने सत्य के अनुसरण के अर्थ और मूल्य को भी सीखा है और इस दुनियावी संपत्ति को त्यागने में सक्षम होकर परमेश्वर का अनुसरण कर अपना कर्तव्य निभा पाया हूँ। यह मेरे लिए परमेश्वर का बड़ा उद्धार है। परमेश्वर का इरादा समझने के बाद मैं अब अपने बेटे से झगड़ना या उसे अदालत में नहीं घसीटना चाहता था। मुझे बस परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था, के आगे समर्पण करने, सही ढंग से सत्य के अनुसरण और अपने कर्तव्य को निभाने की परवाह थी।
तब से मैं कलीसिया में सुसमाचार साझा कर रहा हूँ और अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ। हालाँकि अब दूसरे मेरी तारीफ नहीं करते, पर मैं पहले से ज्यादा शांति महसूस करता हूँ और हर दिन भरा-पूरा लगता है। मुझे अपने मन में यकीन है कि आस्था रखना और परमेश्वर का अनुसरण करना सबसे अच्छा चुनाव है और जिंदगी जीने का सबसे सार्थक तरीका है। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?