सिद्धांत की बातों से मेरी बदसूरती उजागर हुई
जुलाई 2019 में, मैंने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अंत के दिनों का कार्य स्वीकारा। सभाओं में परमेश्वर के वचनों पर अगुआ बहुत बढ़िया संगति करते थे, और भाई-बहन "आमीन" कहकर हामी में सिर हिलाते थे। मुझे जलन होती थी, लगता था, परमेश्वर के वचनों पर अच्छी संगति करने का अर्थ है हमारे पास सत्य की वास्तविकता होना। इसलिए मैं अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ता था, और अच्छी संगति करने वाले की नकल करता था। बाद में, दूसरे कुछ लोगों ने मेरी संगति को सराहा। मैं सचमुच खुश था, लगा, मैं परमेश्वर के वचनों और सत्य को समझने में अच्छा था। मगर धीरे-धीरे मैं बहुत घमंडी और दंभी हो गया। बहुत बाद में, परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से मुझे थोड़ा आत्मबोध हो पाया।
बहन डेरिल्स और मैं एक ही समूह में जाते थे। मैंने देखा कभी-कभी वह परमेश्वर के वचनों पर छोटी-सी संगति करती थी। मुझे लगता, उसकी काबिलियत कम थी, उसे परमेश्वर के वचनों की अच्छी समझ नहीं थी। वह मेरी संगति के बराबर नहीं थी। फिर भी, जब हम साथ कर्तव्य निभाते थे, तो वह बहुत प्रभावी थी, और कार्य की हर बैठक में, अगुआ उसके नाम का जिक्र करते थे। तब मैं सोचता : वह सभाओं में ज्यादा संगति नहीं करती, तो वह इतनी प्रभावी क्यों है, और मैं बराबरी क्यों नहीं कर पाता? मैं समझ नहीं सका। सभाओं में, अगुआ उससे संगति करने को कहते, और मैं सोचता : उसकी काबिलियत कम है, वह किस बारे में संगति कर सकेगी? मैं नहीं सुनना चाहता था। मुझे लगता, मैं सत्य को उससे बेहतर समझता हूँ, मेरी काबिलियत अच्छी है, और मैं परमेश्वर के वचनों पर ज्यादा संगति कर सकता हूँ। इसलिए हर सभा में मैं बढ़िया प्रदर्शन करता। लेकिन मेरी उम्मीद के विपरीत, जल्द ही उसे समूह अगुआ चुन लिया गया। यह स्वीकारना मेरे लिए मुश्किल था। मेरे बजाय उसे क्यों चुना गया? लगा, मैं समूह अगुआ बनने के ज्यादा लायक था।
फिर मई 2020 में, मुझे सुसमाचार उपयाजक चुना गया। तब मैंने खुद से कहा मुझमें इस कर्तव्य के लिए जरूरी सारा कुछ था। जब कुछ भाई-बहन समस्याएँ झेलते, तो मैं उन्हें परमेश्वर के कुछ वचन भेजता। पढ़ने के बाद वे कहते, "आपके चुने हुए वचन बढ़िया थे, उनसे सच में मेरी हालत ठीक हो गई।" लगता, मैं सत्य समझता था, और समस्याएँ सुलझाने में इसका इस्तेमाल कर सकता था, और मैं इस भूमिका के लिए सही था। दूसरे मौकों पर, मेरी संगति के बाद, कुछ लोग कहते, "आपकी संगति हमारे लिए वाकई मददगार थी।" मुझे बहुत खुशी होती कि मेरी संगति में पवित्र आत्मा का प्रकाश था, और मैं भाई-बहनों की मदद कर सकता था। कुछ समय बाद, मैंने संगति किए हुए परमेश्वर के वचनों के मनन पर ध्यान देना बंद कर दिया, क्योंकि मुझे लगता था, मैं इन्हें पढ़ चुका हूँ और समझता हूँ, लेकिन जब जटिल समस्याओं से मेरा सामना होता, तो नहीं जान पाता इन्हें कैसे संभालूँ। जैसे कि जब कुछ भाई-बहन काम या स्कूल के कारण, अपना नियमित कर्तव्य समय से न निभा पाते, तो कैसे भी संगति कर मैं उनकी समस्याएँ नहीं सुलझा पाता। कुछ लोग सभाओं में बड़ा जोश दिखाते, लेकिन एक-दो दिन बाद उनका जोश ठंडा पड़ जाता, और मैं नहीं जान पाता उनकी मदद के लिए कैसे संगति करूँ। तब, मैं अक्सर सोचता : मैं परमेश्वर के वचनों पर संगति कर सकता हूँ, तो भाई-बहनों की समस्याएँ क्यों नहीं सुलझा पाता?
मैं अक्सर प्रार्थना कर परमेश्वर को पुकारता, एक दिन, मैंने उसके वचनों के कुछ अंश पढ़े। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "परमेश्वर के वचनों को मानते हुए स्थिरता के साथ उनकी व्याख्या करने के योग्य होने का अर्थ यह नहीं है कि तुम्हारे पास वास्तविकता है; बातें इतनी भी सरल नहीं हैं जितनी तुम सोचते हो। तुम्हारे पास वास्तविकता है या नहीं, यह इस बात पर आधारित नहीं है कि तुम क्या कहते हो; अपितु यह इस पर आधारित है कि तुम किसे जीते हो। जब परमेश्वर के वचन तुम्हारा जीवन और तुम्हारी स्वाभाविक अभिव्यक्ति बन जाते हैं, तभी कहा जा सकता है कि तुममें वास्तविकता है और तभी कहा जा सकता है कि तुमने वास्तविक समझ और असल आध्यात्मिक कद हासिल कर लिया है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल सत्य का अभ्यास करना ही इंसान में वास्तविकता का होना है)। "मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षा मात्र वास्तविकता के विषय में बात करने के योग्य होना ही नहीं है; अगर ऐसा हो तो क्या यह अति सरल नहीं होगा? तब परमेश्वर जीवन में प्रवेश के विषय में बात क्यों करता है? वह रूपांतरण के विषय में बात क्यों करता है? यदि लोग केवल वास्तविकता की खोखली बातें ही कर पायेंगे, तो क्या वे अपने स्वभाव में रूपांतरण ला सकते हैं? राज्य के अच्छे सैनिक उन लोगों के समूह के रूप में प्रशिक्षित नहीं होते जो मात्र वास्तविकता की बातें करते हैं या डींगें मारते हैं; बल्कि वे हर समय परमेश्वर के वचनों को जीने के लिए प्रशिक्षित होते हैं, ताकि किसी भी असफलता को सामने पाकर वे झुके बिना लगातार परमेश्वर के वचनों के अनुसार जी सकें और वे फिर से संसार में न जाएँ। इसी वास्तविकता के विषय में परमेश्वर बात करता है; और मनुष्य से परमेश्वर की यही अपेक्षा है। इसलिए परमेश्वर द्वारा कही गई वास्तविकता को इतना सरल न समझो। मात्र पवित्र आत्मा के द्वारा प्रबुद्ध होना वास्तविकता रखने के समान नहीं है। मनुष्य का आध्यात्मिक कद ऐसा नहीं है, अपितु यह परमेश्वर का अनुग्रह है और इसमें मनुष्य का कोई योगदान नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति को पतरस की पीड़ाएँ सहनी होंगी और इसके अलावा उसमें पतरस का गौरव होना चाहिए जिसे वे परमेश्वर के कार्य प्राप्त कर लेने के बाद जीते हैं। मात्र इसे ही वास्तविकता कहा जा सकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल सत्य का अभ्यास करना ही इंसान में वास्तविकता का होना है)। "क्या तुझे लगता है कि ज्ञान से युक्त होना सत्य से युक्त होने के बराबर है? क्या यह भ्रांत दृष्टिकोण नहीं है? तू ज्ञान के उतने अंश बोल पाता है जितने समुद्र-तट पर रेत के कण होते हैं, फिर भी इसमें से कुछ भी वास्तविक मार्ग नहीं है। यह करके क्या तू लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयत्न नहीं कर रहा है? क्या तू खोखला प्रदर्शन नहीं कर रहा है, जिसके समर्थन के लिए कुछ भी ठोस नहीं है? ऐसा समूचा व्यवहार लोगों के लिए हानिकारक है! जितना अधिक ऊँचा सिद्धांत और उतना ही अधिक यह वास्तविकता से रहित, उतना ही अधिक यह लोगों को वास्तविकता में ले जाने में अक्षम है। जितना अधिक ऊँचा सिद्धांत, उतना ही अधिक यह तुझसे परमेश्वर की अवज्ञा और विरोध करवाता है। आध्यात्मिक सिद्धांत में लिप्त मत हो—इसका कोई फायदा नहीं! कुछ लोग आध्यात्मिक सिद्धांत के बारे में दशकों से बात कर रहे हैं, और वे आध्यात्मिकता के दिग्गज बन गए हैं, लेकिन अंततः, इतने पर वे भी सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने में विफल हैं। चूँकि उन्होंने परमेश्वर के वचनों का अभ्यास या अनुभव नहीं किया है, इसलिए उनके पास अभ्यास के लिए कोई सिद्धांत या मार्ग नहीं है। ऐसे लोगों के पास स्वयं सत्य की वास्तविकता नहीं होती, तो वे अन्य लोगों को परमेश्वर में आस्था के सही रास्ते पर कैसे ला सकते हैं? वे केवल लोगों को गुमराह कर सकते हैं। क्या यह दूसरों को और खुद को नुकसान पहुँचाना नहीं है? कम से कम, तुझे वास्तविक समस्याएँ हल करने में सक्षम होना चाहिए, जो ठीक तेरे सामने हैं। अर्थात्, तुझे परमेश्वर के वचनों का अभ्यास और अनुभव करने और सत्य को अभ्यास में लाने में सक्षम होना चाहिए। केवल यही परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारिता है। जीवन में प्रवेश कर लेने पर ही तू परमेश्वर के लिए काम करने के योग्य होता है, और परमेश्वर के लिए ईमानदारी से खुद को खपाने पर ही तू परमेश्वर द्वारा अनुमोदित किया जा सकता है। हमेशा बड़े-बड़े वक्तव्य न दिया कर और आडंबरपूर्ण सिद्धांत की बात मत किया कर; यह वास्तविक नहीं है। लोगों से अपनी प्रशंसा करवाने के लिए आध्यात्मिक सिद्धांत बघारना परमेश्वर की गवाही देना नहीं है, बल्कि अपनी शान दिखाना है। यह लोगों के लिए बिलकुल भी लाभदायक नहीं है और उन्हें कुछ सिखाता नहीं, और उन्हें आसानी से आध्यात्मिक सिद्धांत की आराधना करने और सत्य के अभ्यास पर ध्यान केंद्रित न करने के लिए प्रेरित कर सकता है—और क्या यह लोगों को गुमराह करना नहीं है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, वास्तविकता पर अधिक ध्यान केंद्रित करो)। परमेश्वर के वचनों ने मेरी हालत का सटीक बयान किया। मुझे लगता था मैं परमेश्वर के वचनों की इतनी समझ पर संगति करता था और मेरे तर्क स्पष्ट थे, यानी मैं सत्य समझता था, मुझमें इसकी वास्तविकताएं थीं। आखिरकार अब मैं समझ पाया हूँ कि वास्तविकताएं होने का मतलब यह नहीं है कि आप कितनी बढ़िया संगति करते हैं, बल्कि अहम यह है कि क्या आप हर हालात में परमेश्वर के वचनों पर अमल कर सकते हैं, क्या परमेश्वर के वचन वे पैमाना बन चुके हैं जिसके आधार पर आप चीजों को देखते और काम करते हैं। सभाओं में मैं जो साझा करता, वह परमेश्वर के वचनों से प्राप्त मेरी थोड़ी-सी समझ भर थी, उसके वचनों की शाब्दिक समझ। इसका अर्थ यह नहीं था कि मैं सत्य के इस पहलू पर अमल कर चुका था, या मैंने परमेश्वर के वचनों का सही अर्थ समझ लिया था। लेकिन अपने सच्चे आध्यात्मिक कद से वाकिफ न होने के कारण, मैं खुद को ऊँचा आँकता था। तो, जब मैंने बहन डेरिल्स को सभाओं में खुद से काफी कम संगति करते देखा, तो मैं उसे नीची नजर से देखने लगा, यह सोचकर कि वह परमेश्वर के वचन नहीं समझती थी, उसकी काबिलियत कम थी, और उसे समूह अगुआ के रूप में विकसित नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, हालाँकि बहन डेरिल्स ज्यादा बोलती नहीं थी, मगर परमेश्वर के वचनों पर वह जो भी बोलती, वह शाब्दिक अर्थ नहीं था, उसकी संगति व्यावहारिक अनुभव पर आधारित होती थी। कर्तव्य में, वह परमेश्वर के वचनों पर अमल पर ध्यान देती, उसे सच्चे नतीजे हासिल होते। लेकिन मैं? मैं बस परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक अर्थ की व्याख्या में ही दिमाग लगाता, मगर जब दूसरों के असल-जीवन की समस्याओं और दिक्कतों से मेरा सामना होता, तो मैं उन्हें सत्य से सुलझा नहीं पाता था। सोचता, काम, स्कूल या जीवन की दूसरी समस्याओं के कारण, कुछ लोगों की हालत पर कैसे असर पड़ता है और वे अपना कर्तव्य ठीक से नहीं निभा पाते। सभाओं में, मैं बस कुछ हौसला बढ़ाने वाले वचन ही साझा कर पाता था, उनसे अपने कर्तव्य को गंभीरता से लेने को कहता, लेकिन जब खुद मेरे सामने ऐसी समस्याएँ आतीं, तो नहीं जान पाता इनसे कैसे उबरूं, और अपने कर्तव्य में दिल लगाए बिना नकारात्मकता में जीता रहता था। इन हालात में, मैं सत्य नहीं खोजता था, या समाधान का मार्ग नहीं ढूँढ़ता था, मुझे व्यावहारिक अनुभव और ज्ञान भी नहीं था। तो मैं दूसरों की समस्याएँ और दिक्कतें कैसे सुलझा पाता? मुझे यह भी एहसास हुआ कि भले ही मैं परमेश्वर के वचनों पर जल्द संगति कर सकता था, मगर बाद में, अपनी संगति की बातों पर अमल नहीं करता था। मैं बस दूसरों से बातें कर उनकी सराहना और सम्मान पाकर संतुष्ट हो जाता था। असली हालात का सामना होने पर, मुझे एहसास हुआ कि मैं सत्य को नहीं समझता था। सिर्फ सिद्धांतयानी परमेश्वर के वचनों का शाब्दिक अर्थ समझता था।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "ऐसे व्यक्ति के रूप में, जिसका परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जाता है, हर मनुष्य परमेश्वर के लिए कार्य करने के योग्य है, अर्थात्, हर एक के पास पवित्र आत्मा द्वारा उपयोग किए जाने का अवसर है। किंतु एक बात का तुम लोगों को अवश्य एहसास होना चाहिए : जब मनुष्य परमेश्वर द्वारा आदेशित कार्य करता है, तो मनुष्य को परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने का अवसर दिया गया होता है, किंतु मनुष्य द्वारा जो कहा और जाना जाता है, वह पूर्णतः मनुष्य का आध्यात्मिक कद नहीं होता। तुम लोग बस यही कर सकते हो, कि अपने कार्य के दौरान बेहतर ढंग से अपनी कमियों के बारे में जानो, और पवित्र आत्मा से अधिक प्रबुद्धता प्राप्त करो। इस प्रकार, तुम लोग अपने कार्य के दौरान बेहतर प्रवेश प्राप्त करने में सक्षम होगे। यदि मनुष्य परमेश्वर से प्राप्त मार्गदर्शन को अपना स्वयं का प्रवेश और अपने में अंतर्निहित चीज़ समझता है, तो मनुष्य के आध्यात्मिक कद के विकसित होने की कोई संभावना नहीं है। पवित्र आत्मा मनुष्य में जो प्रबुद्धता गढ़ता है, वह तब घटित होता है जब मनुष्य एक सामान्य स्थिति में होता है; ऐसे समय पर, मनुष्य प्रायः स्वयं को प्राप्त होने वाली प्रबुद्धता को अपना वास्तविक अध्यात्मिक कद समझने की ग़लती कर बैठता है, क्योंकि जिस रूप में पवित्र आत्मा प्रबुद्ध करता है, वह अत्यंत सामान्य होता है, और वह मनुष्य के भीतर जो अंतर्निहित है, उसका उपयोग करता है। जब लोग कार्य करते और बोलते हैं, या जब वे प्रार्थना या अपनी आध्यात्मिक भक्ति कर रहे होते हैं, तो एक सत्य अचानक उन पर स्पष्ट हो जाएगा। लेकिन वास्तव में, मनुष्य जो देखता है, वह केवल पवित्र आत्मा द्वारा प्रदान की जाने वाली प्रबुद्धता होती है (स्वाभाविक रूप से यह प्रबुद्धता मनुष्य के सहयोग से जुड़ी है) जो मनुष्य का सच्चा आध्यात्मिक कद नहीं दर्शाती। अनुभव की एक अवधि के बाद, जिसमें मनुष्य कुछ कठिनाइयों और परीक्षणों का सामना करता है, ऐसी परिस्थितियों में मनुष्य का वास्तविक आध्यात्मिक कद प्रत्यक्ष हो जाता है। केवल तभी मनुष्य को पता चलता है कि मनुष्य का आध्यात्मिक कद बहुत बड़ा नहीं है, और मनुष्य का स्वार्थ, व्यक्तिगत हित और लालच सब उभर आते हैं। केवल इस तरह के अनुभवों के कई चक्रों के बाद ही कई ऐसे लोग, जो अपनी आत्माओं के भीतर जाग गए होते हैं, महसूस करते हैं कि अतीत में जो उन्होंने अनुभव किया था, वह उनकी अपनी वास्तविकता नहीं थी, बल्कि पवित्र आत्मा से प्राप्त एक क्षणिक रोशनी थी, और मनुष्य को केवल यह रोशनी प्राप्त हुई थी। जब पवित्र आत्मा मनुष्य को सत्य को समझने के लिए प्रबुद्ध करता है, तो ऐसा प्रायः स्पष्ट और विशिष्ट तरीके से होता है, यह समझाए बिना कि चीज़ें किस तरह घटित हुई हैं या किस ओर जा रही हैं। अर्थात्, इस प्रकाशन में मनुष्य की कठिनाइयों को शामिल करने के बजाय वह सत्य को सीधे प्रकट करता है। जब मनुष्य प्रवेश की प्रक्रिया में कठिनाइयों का सामना करता है, और फिर पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता को शामिल करता है, तो यह मनुष्य का वास्तविक अनुभव बन जाता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, कार्य और प्रवेश (2))। इन वचनों पर मनन करके, मैं समझ गया कि दूसरों के लिए परमेश्वर के सही वचन ढूँढ़ने, या संगति में प्रबुद्धता होने का यह अर्थ नहीं था कि मुझमें काबिलियत या आध्यात्मिक कद था, बल्कि यह पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता और मार्गदर्शन था। मगर अपनी काबिलियत या आध्यात्मिक कद से वाकिफ न होने के कारण, यह सोचकर कि मैं सत्य हासिल कर चुका हूँ, मैंने पवित्र आत्मा के कार्य को अपना असली आध्यात्मिक कद मान लिया था, इसलिए मैं प्रगति की कोशिश नहीं कर रहा था और सत्य खोजने की कोशिश पर ध्यान नहीं दे रहा था। मैं बहुत घमंडी था, मुझमें आत्मबोध नहीं था। मैंने यह भी सोचा कि सुसमाचार उपयाजक बनने के बाद, कैसे मैं अक्सर परमेश्वर के वचनों पर संगति करता था, मगर बाद में कभी उन पर गंभीरता से विचार नहीं करता था, क्योंकि मुझे लगता था कि मैं परमेश्वर के ये वचन पढ़ चुका था, इनका अर्थ जानता था, और मुझे उन पर ध्यान लगाने की जरूरत नहीं थी। जब मैं दूसरों को कम संगति करते देखता, तो उन्हें नीची नजर से देखता और उनकी बातें ध्यान से नहीं सुनता। लेकिन दरअसल, पवित्र आत्मा के कार्य और प्रबुद्धता के बिना, मैं परमेश्वर के वचन समझ नहीं सकता या उनके बारे में अपनी समझ पर संगति नहीं कर सकता। मैंने पवित्र आत्मा के कार्य को बिल्कुल नहीं पहचाना! ठीक पौलुस की तरह। उसने सुसमाचार साझा कर बहुत-से लोगों को हासिल किया, वह बहुत प्रभावी था, लेकिन यह सब पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन था। पौलुस ने सोचा, यह उसकी अपनी काबिलियत और खूबियों के कारण है, उसने पवित्र आत्मा के कार्य को नहीं पहचाना। उसने अपनी सफलता का श्रेय खुद को दिया। नतीजतन, वह बहुत घमंडी और दंभी हो गया, कहने लगा, वह किसी भी प्रेरित से कम नहीं, और आखिर उसने गवाही भी दी कि उसके लिए, जीवन जीना ही मसीह है। आखिरकार, परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने के कारण परमेश्वर ने उसे दंडित किया। पवित्र आत्मा के कार्य को न पहचानना बहुत खतरनाक है! यह समझ लेने के बाद, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैंने तुम्हारी प्रबुद्धता को अपना ही वास्तविक आध्यात्मिक कद माना, खुद की खुशामद करने और दूसरों के दिलों में रुतबा पाने के लिए इसका प्रयोग किया। आज मुझे एहसास हुआ कि तुम्हें इससे घृणा है। हे परमेश्वर, मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ। मुझे तुम्हारी मदद चाहिए।" प्रार्थना के बाद, मैं रो-रोकर आँसू बहाने लगा। मैंने अपना घमंड देखा, समझ का अभाव देखा, और जाना कैसे इस वजह से परमेश्वर मुझसे घृणा करता है। मैंने खुद से घृणा की। मुझे व्यावहारिक अनुभव और बोध नहीं था, मैं व्यावहारिक समस्याएँ नहीं सुलझा सकता था। मैं यह कैसे मान सकता था कि मुझमें सत्य की वास्तविकता थी? अपने बेहद घमंडी और अज्ञानी होने पर मुझे शर्मिंदगी हुई।
बाद में, अपने कर्तव्य में प्रभावी न होने के कारण मुझे बर्खास्त कर दिया गया। मैं थोड़ा नकारात्मक और परेशान हो गया, लेकिन पता था कि मुझे नया काम सौंपे जाने के पीछे परमेश्वर की इच्छा थी, मुझे इसका पालन करना चाहिए। इसके बाद, मैंने सुसमाचार का प्रचार शुरू किया। पता चला बहन डेरिल्स सुपरवाइजर बन गई थी, और कलीसिया के सुसमाचार कार्य की जिम्मेदारी उसके पास थी। मुझे झटका लगा—वह बस यूँ ही सुपरवाइजर कैसे बन गई? क्या यह बहुत जल्दी नहीं हो गया? उसकी काबिलियत कोई खास बढ़िया नहीं थी। सुपरवाइजर को बढ़िया वक्ता होना चाहिए, संगठन कार्य में अच्छा होना चाहिए। मगर वह सभाओं में ज्यादा संगति नहीं करती थी, तो वह हमारी अगुआई क्यों करे? मैं यह हजम नहीं कर पाया। बाद में, उसने मेरे काम का जायजा लेने के लिए संदेश भेजा, मगर मैंने उसे अनदेखा कर दिया। मैं उसकी संगति में खामियाँ ढूँढ़ने के मौकों की भी तलाश करने लगा, ताकि मैं उससे सवाल कर उसकी नाक काट सकूँ।
एक बार एक सभा में, वह मुझे भी जोड़ते हुए, अपनी हालत के बार में खुल कर बोली कि कुछ लोग उसके संदेशों का जवाब नहीं देते हैं। उसका दिल दुखी था, वह बहुत मायूस थी। यह सुनकर मुझे बहुत बुरा लगा। मुझे एहसास हुआ कि उससे पेश आने का यह सही तरीका नहीं था। बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश पढ़े। परमेश्वर कहते हैं, "आत्मतुष्ट मत बनो; अपनी कमियों को दूर करने के लिए दूसरों से ताकत बटोरो, और देखो कि दूसरे परमेश्वर के वचनों के अनुसार कैसे जीते हैं; और देखो कि क्या उनके जीवन, कर्म और बोल अनुकरणीय हैं। यदि तुम दूसरों को अपने से कम मानते हो, तो तुम आत्मतुष्ट और दंभी हो और किसी के भी काम के नहीं हो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 22)। "अहंकार मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की जड़ है। लोग जितने ज़्यादा अहंकारी होते हैं, उतने ही ज्यादा अविवेकी होते हैं, और वे जितने ज्यादा अविवेकी होते हैं, उतनी ही ज्यादा उनके द्वारा परमेश्वर का प्रतिरोध किए जाने की संभावना होती है। यह समस्या कितनी गम्भीर है? अहंकारी स्वभाव के लोग न केवल बाकी सभी को अपने से नीचा मानते हैं, बल्कि, सबसे बुरा यह है कि वे परमेश्वर को भी हेय दृष्टि से देखते हैं, और उनके दिलों में परमेश्वर का कोई भय नहीं होता। भले ही लोग परमेश्वर में विश्वास करते और उसका अनुसरण करते दिखायी दें, तब भी वे उसे परमेश्वर क़तई नहीं मानते। उन्हें हमेशा लगता है कि उनके पास सत्य है और वे अपने बारे में बहुत ऊँचा सोचते हैं। यही अहंकारी स्वभाव का सार और जड़ है और इसका स्रोत शैतान में है। इसलिए, अहंकार की समस्या का समाधान अनिवार्य है। यह भावना कि मैं दूसरों से बेहतर हूँ—एक तुच्छ मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि एक व्यक्ति का अहंकारी स्वभाव उसको परमेश्वर के प्रति, उसके विधान और उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पण करने से रोकता है; इस तरह का व्यक्ति हमेशा दूसरों पर सत्ता स्थापित करने की ख़ातिर परमेश्वर से होड़ करने की ओर प्रवृत्त होता है। इस तरह का व्यक्ति परमेश्वर में तनिक भी श्रद्धा नहीं रखता, परमेश्वर से प्रेम करना या उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है। जो लोग अहंकारी और दंभी होते हैं, खास तौर से वे, जो इतने घमंडी होते हैं कि अपनी सुध-बुध खो बैठते हैं, वे परमेश्वर पर अपने विश्वास में उसके प्रति समर्पित नहीं हो पाते, यहाँ तक कि बढ़-बढ़कर खुद के लिए गवाही देते हैं। ऐसे लोग परमेश्वर का सबसे अधिक विरोध करते हैं और उन्हें परमेश्वर का बिलकुल भी भय नहीं होता। यदि लोग परमेश्वर का आदर करने की स्थिति में पहुँचना चाहते हैं, तो पहले उन्हें अपने अहंकारी स्वभावों का समाधान करना होगा। जितना अधिक तुम अपने अहंकारी स्वभाव का समाधान करोगे, उतना अधिक आदर तुम्हारे भीतर परमेश्वर के लिए होगा, और केवल तभी तुम उसके प्रति समर्पित होकर सत्य प्राप्त कर सकते हो और उसे जान सकते हो। केवल सत्य को प्राप्त करने वाले ही वास्तव में मनुष्य होते हैं" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि मैं बहन डेरिल्स के सुपरवाइजर बनने का इसलिए विरोधी था, क्योंकि मैं घमंडी प्रकृति का था, हमेशा मानता था कि मैं उससे थोड़ा ज्यादा बेहतर और ज्यादा काबिल था। बहन डेरिल्स को दूसरों से कम संगति करते देख, मैं उसे नीची नजर से देखता था। मैं सोचता था वह मुझसे नीचे थी, छोटे आध्यात्मिक कद वाली थी, और मेरी तरह अच्छी संगति नहीं करती थी, इसलिए मैं उसकी अगुआई से खुश नहीं था। काम का जायजा लेने के बारे में उसका संदेश आने पर, मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया, उसकी अनदेखी की। मैंने उस पर उंगली उठाने के लिए उसकी संगति में खामियाँ ढूँढ़ने की भी कोशिश की, यह दिखाने के लिए कि वह मेरे बराबर की नहीं थी, वह सुपरवाइजर नहीं हो सकती थी। इससे मैं नकारात्मक हो गया, लाचार महसूस करने लगा। मेरा स्वभाव बहुत ज्यादा घमंडी था—मैं किसी को कुछ नहीं समझता था। मुझमें सामान्य मानवता नहीं थी। दरअसल, परमेश्वर के घर में, किसी का चुनाव या तरक्की इस भरोसे नहीं होती कि वे बाहर से कितनी अच्छी संगति करते हैं, बल्कि इस पर होती है कि क्या वे सत्य पर अमल करते हैं, सत्य खोजते हैं, और उनमें अच्छी मानवता है। मगर मैं? मैंने बस देखा कि यह बहन कितनी कम संगति करती थी, और फिर उसे नीची नजरों से देखने लगा। अपनी बात कहूँ, तो हालाँकि बाहर से मैं अच्छा वक्ता था, मगर विरले ही परमेश्वर के वचनों पर अमल करता था। मैं बस परमेश्वर के वचनों का शाब्दिक अर्थ समझ कर संतुष्ट था, और सोचता था मुझमें बुद्धि और काबिलियत है, मैं दूसरों से ज्यादा काबिल हूँ। मैं इतनी घृणा करने वाला, अति-आत्मविश्वासी कैसे हो सकता था? मुझमें जरा भी आत्मबोध नहीं था! इस मुकाम पर, मुझे एहसास हुआ कि बहन डेरिल्स के सुपरवाइजर बनने के पीछे परमेश्वर की इच्छा रही होगी, मुझे उसके अच्छे गुण देखकर उससे सीखना चाहिए और अपनी कमजोरियाँ सुधारनी चाहिए। बाद में, उसके साथ बातचीत में, मुझे एहसास हुआ कि वह अपने कर्तव्य को गंभीरता से लेती थी और जिम्मेदार थी। कर्तव्य में मुश्किलों से सामना होने पर, वह उन पर काबू पाने के लिए सत्य खोजती, प्रार्थना करती और परमेश्वर का सहारा लेती, मेरी तरह नहीं, जो मुश्किल हालात में नकारात्मकता में डूब जाता था, सत्य नहीं खोजता था और अपने कर्तव्य में बेपरवाह था। जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह यह था कि उसकी इलेक्ट्रीशियन की नौकरी के उसके कर्तव्य में आड़े आने पर, उसने अपने काम खराब होने से रोकने के लिए अपनी नौकरी छोड़ना पसंद किया और सब-कुछ परमेश्वर के हाथ में सौंप दिया। ऐसा मैं तो नहीं कर सकता था। मुझे यह भी एहसास हुआ कि अपने कर्तव्य में वह बारीकी-पसंद थी। वह सुसमाचार ग्रहण करने वालों के हालात बारीकी से जानती थी, और हर दिन के अपने काम का खाका तैयार करती थी। इसी कारण से वह अपने कर्तव्य में प्रभावी थी। मगर अपनी बात कहूँ, तो मैं सिर्फ संगति करने की बाहरी क्षमता पर ध्यान देता था, और सत्य पर विरले ही अमल करता था। अपने कर्तव्य में विरले ही सत्य के सिद्धांत खोजता था, जिसके कारण मैं कर्तव्य में प्रभावी नहीं था। वास्तविकता से सामना होने पर, मैं उससे जरा भी बेहतर नहीं था। मुझे अपने वास्तविक आध्यात्मिक कद या अपने अस्तित्व का भान तक नहीं था, फिर भी हमेशा खुद को महान मानता था। मुझमें समझ की बहुत कमी थी! इसके बाद से, अपने कर्तव्य में जब भी समस्याओं से सामना होता, मैं बहन डेरिल्स से मदद माँगता, और उसके साथ अपनी असली हालत साझा करता था। वह बड़े सब्र से मेरे साथ संगति करती और मुझे सलाह देती थी। उसके सुझाव मेरे लिए बड़े उपयोगी होते थे। मैं महसूस कर पाया, यह मेरे प्रति परमेश्वर का प्रेम था!
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। "भ्रष्ट मानवजाति के लिए सबसे कठिन समस्या है वही पुरानी गलतियाँ दोहराना। इसे रोकने के लिए लोगों को पहले इससे अवगत होना चाहिए कि उन्होंने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है, कि उनके जीवन-स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है, और यह कि भले ही वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, पर वे अभी भी शैतान के प्रभुत्व में रह रहे हैं, और उन्हें बचाया नहीं गया है; वे किसी भी समय परमेश्वर को धोखा दे सकते हैं और उससे दूर भटक सकते हैं। यदि उनके हृदय में संकट का यह भाव हो—यदि, जैसा कि लोग अक्सर कहते हैं, वे शांति के समय युद्ध के लिए तैयार रहें—तो वे कुछ हद तक अपने आपको काबू में रख पाएँगे, और अगर उनके साथ कोई बात हो भी जाए, तो वे परमेश्वर से प्रार्थना करेंगे और उस पर निर्भर रहेंगे, और वही पुरानी गलतियाँ करने से बच पाएँगे। तुम्हें स्पष्ट देखना चाहिए कि तुम्हारा स्वभाव नहीं बदला, कि परमेश्वर को धोखा देने की प्रकृति अभी भी तुम में गहरे जड़ें जमाए हुए है और वह निकाली नहीं गई है, कि तुम अब भी परमेश्वर को धोखा देने के जोखिम में हो, और तुम्हें तबाह और नष्ट किए जाने की संभावना निरंतर बनी हुई है। यह वास्तविक है; इसलिए तुम लोगों को सावधान रहना चाहिए। तीन सबसे महत्वपूर्ण बातें हैं, जिन्हें ध्यान में रखना चाहिए : पहली, तुम अभी भी परमेश्वर को नहीं जानते; दूसरी, तुम्हारे स्वभाव में कोई बदलाव नहीं आया है; और तीसरी, तुम्हें अभी भी मनुष्य की सच्ची छवि को जीना है। ये तीनों चीजें तथ्यों के अनुरूप हैं, ये वास्तविक हैं, और तुम्हें इनके बारे में स्पष्ट होना चाहिए, तुम्हें आत्म-जागरूक होना चाहिए। यदि तुम्हारे पास इस समस्या को ठीक करने का संकल्प है, तो तुम्हें अपना नीति-वाक्य चुनना चाहिए : उदाहरण के लिए, 'मैं जमीन पर पड़ा गोबर हूँ,' या 'मैं शैतान हूँ,' या 'मैं अकसर पुराने ढर्रे पर चल पड़ता हूँ,' या 'मैं हमेशा खतरे में हूँ।' इनमें से कोई भी तुम्हारा व्यक्तिगत नीति-वाक्य बनने के लिए उपयुक्त है, और यदि तुम हर समय इसे याद करोगे, तो यह तुम्हारी मदद करेगा। इसे मन में दोहराते रहो, इस पर चिंतन करो, और तुम कम गलतियाँ करने या गलतियाँ करने से रुकने में सक्षम हो सकते हो—लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात है परमेश्वर के वचनों को पढ़ने और सत्य को समझने में अधिक समय व्यतीत करना, अपनी प्रकृति जानना और अपने भ्रष्ट स्वभाव से बचना; तभी तुम सुरक्षित रहोगे" (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, केवल सत्य की खोज करके ही स्वभाव में बदलाव लाया जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मैं समझ पाया कि शैतान ने मुझे भ्रष्ट कर दिया था, मैं घमंडी प्रकृति का था, गंदगी और भ्रष्टता से सराबोर था। मुझमें सच्ची मानवता थी ही नहीं। इस अनुभव से मैं अपने असली आध्यात्मिक कद से वाकिफ हो गया। मैंने खुद को अधिक आँकना छोड़ दिया, खुद पर बहुत ज्यादा भरोसा करना बंद कर दिया। तभी, मुझे एहसास हुआ कि मेरी काबिलियत या कौशल जैसा भी हो, इसका अर्थ यह नहीं कि मैं सत्य को समझता हूँ और मैंने उसमें प्रवेश कर लिया है। भले ही मैं परमेश्वर के कुछ वचनों पर संगति कर सकता था, पर उसमें ज्यादातर सिद्धांत ही होते थे। मुझे व्यावहारिक अनुभव नहीं था और मुझमें बहुत-सी खामियाँ थीं। मुझे हमेशा याद रखना चाहिए मुझमें अभी भी कितनी खामियाँ हैं, सत्य से सामना होने पर मेरा रवैया विनम्रता से खोजने का होना चाहिए। मुझे आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। घमंड, कपट और खुद की बड़ाई से बचने का यही एकमात्र तरीका है। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?