मेरी सिफारिश का परिणाम
पिछले साल, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया। पहले तो लगा कि मुझमें बहुत कमी है, तो अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए मैं यही सोचती रही कि अपना कर्तव्य कैसे निभाऊं। जब कोई उलझन की स्थिति या मुश्किल समस्या सामने आती, तो मैं उसे लिख लेती, फिर सहकर्मियों के साथ मिलकर उस पर खोज और संगति करती। किसी को कोई समस्या होने पर, मैं फौरन जाकर उसके साथ संगति करती। कुछ समय बाद, मैंने कलीसिया के काम के कुछ सिद्धांत समझ लिए, काम के बारे में चर्चा करते समय सभी मेरे ज़्यादातर विचारों से सहमत होते। कोई समस्या होने पर लोग खुशी से मेरे पास संगति करने के लिए आते। यह देखकर, मुझे बहुत खुशी होती। मुझे लगता कि मुझमें अच्छी काबिलियत है, मैं अगुआ का काम करने के काबिल हूँ।
जब हमारा सुसमाचार का काम आगे बढ़ा, तो कलीसिया की सदस्यता बढ़ने लगी। हम सभा की नई जगहें भी जोड़ने लगे। हर दिन समूह की सभाओं में जाने के लिए भागती और नए विश्वासियों का सिंचन करती। अगुआओं को चिंता थी कि काम काफी बढ़ गया है, तो काम में देरी से बचने के लिए वे जल्द से जल्द मेरे साथ किसी और अगुआ को जोड़ना चाहते थे। मैंने सोचा, सबको पता है काम काफी बढ़ गया है, अगर मैंने सारी जिम्मेदारी खुद ही उठा ली, तो हर कोई मुझे प्रतिभाशाली और काबिल समझेगा, मुझे एक नई रोशनी में देखेगा। इसलिए मैंने बहाने बनाते हुए कहा कि मुझे सहयोगी की ज़रूरत नहीं है। उस दौरान मैं बहुत अधिक व्यस्त रहती थी। कभी-कभी तो मेरे पास सुबह के धार्मिक कार्यों के लिए भी वक्त नहीं होता, रात को भी काफी देर से सोती। आस-पास की सभी बहनों ने कहा कि मुझे कोई सहयोगी ढूंढ लेना चाहिए। बाद में, मुझे सचमुच लगा कि मैं इतना काम नहीं कर पा रही, तो मैंने आखिरकार अगुआओं को असली हालात बता दिए। मैं चाहती थी कि बहन वांग मेरे साथ काम करे और सभी इससे सहमत थे। पहले तो लगा कि किसी के साथ काम का बोझ साझा करने से चीज़ें आसान हो जाएंगी। हालांकि, जल्दी ही मुझे पता चल गया कि बहन वांग में अच्छी काबिलियत है, वह सत्य जल्दी समझती है और आगे बढ़कर काम करती है। अगर भाई-बहनों को कोई परेशानी होती या कलीसिया में कोई समस्या आती, तो वह उसे पहले पकड़कर इससे निपट भी लेती। खास तौर पर, सत्य के बारे में उसकी संगति बहुत साफ और रोशनी देने वाली होती। भाई-बहनों का कहना था कि यह उनके लिए फ़ायदेमंद है। धीरे-धीरे, हर कोई समस्या या परेशानी लेकर संगति के लिए बहन वांग के पास जाने लगा। फिर मुझे जो महसूस हुआ उसे बयां नहीं कर सकती। पहले, भाई-बहन समस्या लेकर मेरे पास आते थे, मगर अब, थोड़े समय में ही हर कोई उसे खोजने लगा। अगर ऐसे ही चलता रहा, तो क्या मैं अपनी प्रमुखता बनाए रख पाऊँगी? एक अगुआ ने कहा कि बहन वांग में अच्छी काबिलियत है, वह आगे बढ़ाए जाने लायक है। इससे मुझे और भी ज़्यादा खतरे का एहसास हुआ। मैं सोचती थी कि वो बतौर नई अगुआ बस मेरे काम का बोझ साझा करेगी। यह नहीं जानती थी कि वो मेरी चमक ही चुरा लेगी। ऐसा ही चलता रहा तो क्या मेरे लिए कोई जगह बचेगी?
फिर, बहन वांग ऐसे काम में मेरी मदद लेने आई जो उसे समझ नहीं आ रहा था। जानकारी साझा न करने का मन बनाकर, मैंने उसे टालते हुए ऊपर-ऊपर की बातें बता दीं, मुझे डर था कि अगर वो काम समझ गई तो मुझे और अधिक किनारे कर देगी। एक बार मैंने सुना, उसे पता चला है कि किसी काम की प्रगति धीमी है, तो वह इस स्थिति की रिपोर्ट करने और इसे हल करने के तरीके पर चर्चा के लिए सीधे अगुआओं के पास चली गई, उसने उन्हें बताया कि एक बहन, जिसे मैंने सिंचन कार्य में लगाया था, इस काम के लिए सही नहीं है। यह सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया, मैंने सोचा : "भाई-बहनों के सामने हमेशा मेरी चमक चुराना क्या काफी नहीं था। अब मुझसे पूछे बगैर अगुआओं से भी बात कर ली? क्या इससे ऐसा नहीं लगेगा कि तुम मुझसे ज़्यादा काम कर रही हो? मैंने जिसे नियुक्त किया था उसे तुमने काम के लिए गलत बता दिया। क्या यह अगुआओं के सामने मुझे नीचा दिखाने की कोशिश नहीं है?" बहन वांग के लिए मेरे मन में वैर भाव पैदा हो गया। मैं उसके सही सुझावों को भी स्वीकार नहीं करना चाहती थी। अगर स्वीकार करती भी तो बेमन से। एक बार सहकर्मियों की बैठक में, एक सहकर्मी कलीसिया की कुछ समस्याएं लेकर आयी जिन्हें हल करना ज़रूरी था, कि हम उनके बारे में संगति करें। अध्यक्ष के रूप में यह बहन वांग की पहली बैठक थी, वह घबराई हुई थी और चाहती थी कि पहले मैं संगति करूं। मगर मैं उसके साथ सहयोग नहीं करना चाहती थी, मैंने सोचा : "क्या तुम बड़ी काबिल नहीं? खुद ही जाकर संगति करो!" मैं जानबूझकर चुप रही। काफी देर की चुप्पी के बाद अजीब लगने लगा, फिर बहन वांग को पहले संगति करनी पड़ी। इसके बाद, उसने अपनी बात में मुझे कुछ जोड़ने को कहा, तो मैंने बेमन से थोड़ी संगति साझा कर दी। वह बैठक ज्यादा कारगर नहीं रही। उसके बाद, मुझे थोड़ी बेचैनी महसूस हुई। मैंने अपना कर्तव्य या जिम्मेदारी पूरी नहीं की थी, मुझे अपनी गलती महसूस हुई। मैंने परमेश्वर के सामने आकर आत्मचिंतन किया। बहन वांग को मेरा सहयोगी बनाया गया था, वह दूसरों की समस्याएं हल कर सकती थी, जो कलीसिया के लिए अच्छा था। क्या यह अच्छी बात नहीं थी? तो मैं नाखुश क्यों थी, उसके ख़िलाफ़ होड़ क्यों कर रही थी?
मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ अंश देखे, "कलीसिया का अगुआ होने के लिए, न केवल यह जानना जरूरी है कि समस्याओं को सुलझाने के लिए सत्य का इस्तेमाल कैसे करें, बल्कि यह भी कि प्रतिभा का पता लगाकर उसे बढ़ावा कैसे दें, प्रतिभाशाली लोगों को न तो दबाएँ और न ही उनसे ईर्ष्या करें। कर्तव्य का ऐसा निर्वहन मानक के अनुसार होता है, ऐसा करने वाले अगुआ और कर्मी मानक के अनुरूप होते हैं। यदि तुम हर चीज में सिद्धांतों के अनुसार काम कर सको, तो तुम अपनी निष्ठा के अनुरूप जी रहे होगे। कुछ लोग हमेशा इस बात डरे रहते हैं कि दूसरे लोग उनसे बेहतर और ऊँचे हैं, दूसरों का सम्मान होगा और उनको अनदेखा कर दिया जाएगा। इसी वजह से वे दूसरों पर हमला करते हैं और उन्हें अलग कर देते हैं। क्या यह अपने से ज़्यादा सक्षम लोगों से ईर्ष्या करने का मामला नहीं है? क्या ऐसा व्यवहार स्वार्थी और घिनौना नहीं है? यह किस तरह का स्वभाव है? यह दुर्भावनापूर्ण है! केवल अपने हितों के बारे में सोचना, सिर्फ़ अपनी इच्छाओं को संतुष्ट करना, दूसरों के कर्तव्यों पर कोई ध्यान नहीं देना, या परमेश्वर के घर के हितों के बारे में नहीं सोचना—इस तरह के लोग बुरे स्वभाव वाले होते हैं, और परमेश्वर के पास उनके लिये कोई प्रेम नहीं है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि बहन वांग से दुश्मनी रखने और उसकी काबिलियत से ईर्ष्या होने का मुख्य कारण था अपने पद और प्रतिष्ठा की बहुत अधिक परवाह करना। बहन वांग की अच्छी काबिलियत, कर्तव्य के प्रति उसके सक्रिय रवैये और समस्याएं हल करने के साथ-साथ हर किसी की सराहना और सम्मान पाने की उसकी क्षमता देखकर, मुझे लगा मेरे पद को खतरा है, इसलिए मैं उसे नापसंद करने लगी, उसके लिए वैर भाव रखने लगी। जब उसे मेरे काम में समस्याएं दिखीं और उसने अगुआओं से इन्हें हल करने का तरीका पूछा, तो मेरा वैर भाव और गुस्सा बढ़ गया। मुझे लगा उसने मेरी चमक चुरा ली और मेरी कमियां अगुआओं को बता दी। मन ही मन, मैं उसके साथ होड़ कर रही थी। जब उसने कुछ उचित सुझाव सामने रखे, तो मैं उसकी बात सुनना नहीं चाहती थी। जब वह किसी भाई या बहन की समस्या हल नहीं कर पाती, तो मैं उसे देखकर हँसती, चुपके से उसे कमज़ोर बनाने की कोशिश करती, जिससे हमारी बैठक ज़्यादा कारगर नहीं होती थी। मैं पद और प्रतिष्ठा के पीछे भाग रही थी। मैंने सिर्फ अपने हितों की बात सोची, परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा नहीं की। मैं कितनी स्वार्थी और नीच थी, बस अपना दुष्ट शैतानी स्वभाव दिखा रही थी। इससे परमेश्वर को नफ़रत है!
फिर मैंने परमेश्वर के ये वचन देखे : "भाइयों और बहनों के बीच सहयोग अपने तुम में, एक की कमज़ोरियों की भरपाई दूसरे की शक्तियों से करने की प्रक्रिया है। तुम दूसरों की कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हो और दूसरे तुम्हारी कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हैं। यही दूसरों की खूबियों से अपनी कमज़ोरियों की भरपाई करने और सामंजस्य के साथ सहयोग करने का यही अर्थ है। सामंजस्य में सहयोग करके ही लोग परमेश्वर के समक्ष धन्य हो सकते हैं, व्यक्ति इसका जितना अधिक अनुभव करता है, उसमें उतनी ही अधिक व्यावहारिकता आती है, मार्ग उतना ही अधिक प्रकाशवान होता जाता है, इंसान और भी अधिक सहज हो जाता है" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'सामंजस्यपूर्ण सहयोग के बारे में')। "दूसरों के साथ काम करते समय लोगों को उपयोगी होने के लिए क्या करना चाहिए? एक-दूसरे की कमियाँ पूरी करना और उन कमियों की ओर इशारा करना, एक-दूसरे पर नजर रखना, एक-दूसरे की तलाश करना और एक-दूसरे से सलाह लेना" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। परमेश्वर के वचनों से मुझे एहसास हुआ कि सहयोगी होने का मतलब सिर्फ काम में हाथ बंटाना नहीं है, जैसा कि मैं सोचती थी, न ही उससे होड़ या तुलना करनी चाहिए। सबसे जरूरी है, अपने कर्तव्य में एक दूसरे का साथ देने के साथ नज़र भी रखना और चीज़ों को सामने लाना। मैंने सोचा कि कैसे काम में सहयोगी बनने के बाद, बहन वांग ने कुछ ऐसी समस्याएं ढूंढ निकालीं जिनके बारे में मुझे पता ही नहीं था, उसकी संगति भी रोशन करने वाली थी, वह व्यावहारिक समस्याएं हल कर पाती थी। इससे कलीसिया के काम में भी मदद मिली। उसने समस्याएं देखीं तो आगे बढ़कर अगुआओं से मदद माँगी। यह कलीसिया के काम का बोझ उठाना और उसे कायम रखना था। मगर मुझे गुस्सा आया और उसके प्रति नाराज़गी महसूस हुई। क्या यह सत्य और सकारात्मक चीज़ों के ख़िलाफ़ जाना नहीं था? अगर उसने मेरे चुने हुए व्यक्ति को अयोग्य नहीं पाया होता और समय पर कदम नहीं उठाया होता, तो इससे कलीसिया के काम को नुकसान पहुंचता और वह मेरा अपराध होता। बहन वांग ने जो समस्याएँ उठाईं, उससे मुझे भी आत्मचिंतन का मौका मिला, मैंने जाना कि अपने कर्तव्य में मुझे और अधिक मेहनत करके सिद्धांत खोजने होंगे। इससे मुझे अपनी कमियों को दूर करने में मदद मिली।
तब से, बहन वांग के साथ अपने काम में, जब भी मुझे ईर्ष्या होती, तो मैं परमेश्वर से प्रार्थना करके खुद की इच्छाओं का त्याग करती। मैं अपनी ईर्ष्या किनारे करने में समर्थ हो पाई और अब ज़्यादा दुखी नहीं रहती थी। जब वो सही सुझाव देती, तो मैं उसके साथ मिलकर काम करती। इस पर अमल करके मुझे आज़ादी का एहसास हुआ।
कुछ समय बाद, जब मैंने लोगों को अपनी समस्याओं पर संगति के लिए बहन वांग के पास जाते देखा, तो मुझे फिर से बेचैनी होने लगी। हमने अपनी ज़िम्मेदारियां बाँट ली थीं, तो वे सिर्फ उसके पास ही क्यों जा रहे थे? क्या सचमुच मुझमें कमी है? मैं जानती थी कि ऐसा सोचना गलत था, मगर ऐसा महसूस करने से खुद को रोक नहीं पाई। बाद में, मुझे नए विश्वासियों के सिंचन की ज़िम्मेदारी मिली और सभाओं में नए समूहों की व्यवस्था की गई। ऐसे में मुझे बहन वांग को साथ रखना चाहिए, मगर उसे ले गई तो उन समूहों के लोग भी अपनी समस्याएं लेकर उसके पास जाने लगे, तब क्या होगा? इसलिए, मैंने उसे साथ नहीं लिया। कई दिनों तक मुझे बहुत बेचैनी और परेशानी महसूस हुई, मगर मैंने अपने दिल को शांत करके बेचैनी की जड़ पर चिंतन नहीं किया। एक दिन, एक अगुआ ने वैसे ही कहा कि बहन वांग बहुत कम उम्र की है, पहले वह अपने कर्तव्य में जल्दी नाराज़ होकर मनमर्ज़ी चलाने लगती थी। जब लगा कि अगुआ उसके बारे में ऊँची राय नहीं रखती, तो बड़ा अच्छा लगा। फिर मैंने आग में घी डालते हुए कहा : "हाँ, कर्तव्य निभाते हुए उसे सबका ध्यान खींचना और दिखावा करना पसंद है।" बाद में मैंने सुना कि एक और कलीसिया में अगुआ का पद खाली है, हमारे अगुआ सोच रहे थे कि हमारी कलीसिया से किसी को वहां भेज दिया जाये। मैंने मन ही मन सोचा : "अगर बहन वांग उस कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाती है, तो हमारे पास अपना इलाका होगा। फिर क्या यहां मेरा पद अधिक सुरक्षित नहीं हो जाएगा?" अगले दिन, मैंने एक अगुआ को सुझाव दिया कि उसे दूसरी कलीसिया में भेज दिया जाये, मैं यहां कुछ और ज़िम्मेदारी संभाल लूँगी। हालांकि, अगुआ ने कहा कि कलीसिया के पास पहले से एक सही उम्मीदवार मौजूद है। यह सुनकर मुझे बहुत निराशा हुई। चूंकि बहन वांग उस कलीसिया में नहीं जा रही थी, तो मुझे अब भी सभाओं की नई जगह उसे लेकर जाना था। यह सोचकर, मुझे लगा कि मैं अपना पद उसे दे रही हूँ। मैं निराश होकर बैठ गई, मेरे मन में उथल-पुथल मच गई। फिर अचानक परमेश्वर के वचन मेरे मन में आये : "तुम में से हर व्यक्ति, परमेश्वर की सेवा करने वाले के तौर पर सिर्फ़ अपने हितों के बारे में सोचने के बजाय, अपने हर काम में कलीसिया के हितों की रक्षा करने में सक्षम होना चाहिये। एक दूसरे को कमतर दिखाने की कोशिश करते हुए, अकेले काम करना अस्वीकार्य है। इस तरह का व्यवहार करने वाले लोग परमेश्वर की सेवा करने के योग्य नहीं हैं! ऐसे लोगों का स्वभाव बहुत बुरा होता है; उनमें ज़रा सी भी मानवता नहीं बची है। वे सौ फीसदी शैतान हैं! वे जंगली जानवर हैं!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, इस्राएलियों की तरह सेवा करो)। मैं महसूस कर सकती थी कि परमेश्वर का स्वभाव कोई अपमान नहीं सहेगा। मैं बहन वांग के साथ मिलकर काम नहीं करना चाहती थी, उसे सभाओं से अलग कर दिया था, उसे दूर भेजने की कोशिश भी की थी। इससे परमेश्वर को घृणा थी, ऐसा करके, मैंने पूरी तरह से शैतानी स्वभाव दिखाया था, मुझमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं थी। अगर मैंने पश्चाताप नहीं किया, तो अंत में मुझे परमेश्वर के स्वभाव का अपमान करने के लिए कर्तव्य से हटा दिया जाएगा। इस विचार ने मुझे डरा दिया। उस रात, मैं सो नहीं पाई, बिस्तर पर करवटें बदलती रही। सोच रही थी, "मुझे पता है कि बहन वांग के साथ मिलकर काम करना परमेश्वर की इच्छा है, यह कलीसिया के काम के साथ-साथ भाई-बहनों के जीवन प्रवेश के लिए भी अच्छा है, मगर मैंने उसे दूर भेजने की हर मुमकिन कोशिश की। यह कैसी समस्या है? मैं किस तरह के स्वभाव के वश में हूँ?" मैंने परमेश्वर से मुझे प्रबुद्ध करने के लिए विनती की, ताकि मैं खुद को जान सकूँ।
एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "मसीह-विरोधी कलीसिया के हितों सहित परमेश्वर के घर के काम को पूरी तरह से अपना मानते हैं, अपनी व्यक्तिगत संपत्ति की तरह, जिसका प्रबंधन पूरी तरह से उन्हीं के द्वारा किया जाना चाहिए, उसमें किसी और का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। और इसलिए परमेश्वर के घर का काम करते समय वे केवल अपने ही हितों, अपनी ही हैसियत और प्रतिष्ठा के बारे में सोचते हैं। वे हर उस व्यक्ति को अस्वीकार कर देते हैं, जो उनकी नजरों में उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा के लिए खतरा हो। वे उनका दमन और बहिष्कार करते हैं। वे उन लोगों का भी निष्कासन और दमन करते हैं, जो कुछ विशेष कर्तव्य निभाने के लिए उपयोगी और उपयुक्त होते हैं। वे न तो परमेश्वर के घर के काम को जरा भी तवज्जो देते हैं, न ही परमेश्वर के घर के हितों को। यदि कोई उनकी हैसियत के लिए खतरा हो सकता है, उन्हें समर्पित नहीं होता, उन पर ध्यान नहीं देता, तो वे उसे निष्कासित कर देते हैं और उसे दूर रखते हैं। वे उसे अपने साथ सहयोग नहीं करने देते, और विशेष रूप से उसे अपनी शक्ति के दायरे में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाने देते या किसी भी महत्वपूर्ण उपयोग का नहीं होने देते। चाहे उन लोगों के कर्म कितने भी श्रेष्ठ हों या चाहे उन्होंने परमेश्वर के घर के लिए कितना भी अच्छा काम किया हो, मसीह-विरोधी उसे छिपा देते हैं, उसकी बेकद्री करते हैं, उसे भाइयों और बहनों को नहीं दिखाते, और उन्हें अँधेरे में रखते हैं। इसके अलावा, मसीह-विरोधी झूठ भी गढ़ते हैं और भाई-बहनों के बीच तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं, लोगों को नीचा दिखाने के लिए उनके बारे में बुरा बोलते हैं, उन्हें अलग-थलग करने और उनका दमन करने के बहाने ढूँढ़ते हैं, चाहे वे लोग कुछ भी काम करें; इसलिए वे यह कहते हुए उनकी आलोचना भी करते हैं कि वे घमंडी और दंभी हैं, कि वे दिखावा करना पसंद करते हैं, कि वे महत्वाकांक्षाएँ पालते हैं। वास्तव में, उन सभी लोगों में खूबियाँ होती हैं, वे सभी लोग सत्य से प्रेम करने वाले और विकसित किए जाने योग्य होते हैं। उनमें केवल मामूली दोष, कभी-कभी भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्तियाँ पाई जाती हैं; उन सभी में अपेक्षाकृत अच्छी मानवता होती है। कुल मिलाकर वे कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त होते हैं, वे कर्तव्य निभाने वाले व्यक्ति के सिद्धांतों के साथ मेल खाते हैं। लेकिन मसीह-विरोधियों की नजरों में, वे सोचते हैं : 'मेरा इसे सहना संभव नहीं है। तुम मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मेरे क्षेत्र के भीतर एक भूमिका चाहते हो। यह असंभव है, इसके बारे में सोचना भी मत। तुम मुझसे अधिक सक्षम हो, मुझसे अधिक मुखर हो, मुझसे अधिक शिक्षित हो और मुझसे अधिक लोकप्रिय हो। यदि तुमने मेरी सफलता चुरा ली, तो मैं क्या करूँगा? तुम चाहते हो कि मैं तुम्हारे साथ काम करूँ? इसके बारे में सोचना भी मत!' क्या वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार कर रहे हैं? नहीं। वे बस इस बारे में सोच रहे हैं कि अपनी हैसियत कैसे सुरक्षित करें, इसलिए वे इन लोगों का उपयोग करने के बजाय परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचा देंगे। यह बहिष्कार है" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। परमेश्वर के प्रकाशन से, यह साफ हो गया कि मसीह-विरोधियों की प्रकृति दुष्ट और दुर्भावनापूर्ण होती है। उनका मानना है, "केवल एक ही अल्फा पुरुष हो सकता है" और "सारे ब्रह्मांड का सर्वोच्च शासक बस मैं ही हूँ।" वे पद और प्रतिष्ठा को अन्य सभी चीज़ों से ज़्यादा अहम मानते हैं। वे सबसे आगे रहना चाहते हैं और किसी को अपने से आगे नहीं निकलने देते। वे अपने पद के लिए खतरा बन सकने वाले व्यक्ति को अलग करके हटाने की भरसक कोशिश करते हैं, वे दूसरों की खूबियों और गुणों पर परदा डालने में कोई कसर नहीं छोड़ते। दूसरों ने परमेश्वर के घर के हितों का कितना भी ध्यान रखा हो, वे इस पर परदा डालकर छिपा देते हैं, दूसरों के काम का श्रेय खुद ले लेते हैं। मैंने इन बातों की रोशनी में आत्मचिंतन किया। हालांकि मेरी हरकतें उन मसीह विरोधियों जितनी गंभीर नहीं थीं जिन्हें परमेश्वर ने उजागर किया था, मगर मैं एक मसीह विरोधी जैसा ही स्वभाव दिखा रही थी। बहन वांग की काबिलियत, समस्या हल करने की खूबी और दूसरों के मन में उसके प्रति सम्मान को देखकर, मैंने सोचा कि उसने मेरी प्रसिद्धि चुरा ली, इसलिए मेरे मन में उसके प्रति वैर भाव आ गया, हमेशा यही लगने लगा कि वो मेरे रास्ते में आकर, मेरे पद के लिए खतरा बन रही है। जब हमने एक दूसरे के साथ मिलकर काम करना शुरू किया, तो इस डर से कि कहीं मेरा रुतबा न छिन जाये, मैं उसे कई सभाओं में नहीं ले गई। मैंने एक अगुआ के सामने उसकी खूबियों और गुणों का ज़िक्र किये बिना उसकी आलोचना भी कर दी। मैं तो चाहती थी कि अगुआ उसे किसी दूसरी जगह कर्तव्य निभाने के लिए भेज दें, मैं अपनी निरंकुश महत्वाकांक्षा पूरी करना और सारे फैसले खुद लेना चाहती थी। मैंने बहन वांग को अलग करने के लिए बहुत दुष्ट और नीच तरकीबों का इस्तेमाल किया। यह किसी मसीह विरोधी की मनमर्ज़ी और सत्ता की भूख से अलग कहां था? मैंने उन मसीह विरोधियों के बारे में सोचा जिन्हें हमेशा रुतबे के पीछे भागने के कारण निकाल दिया गया था। हर किसी पर दबदबा कायम करने और हमेशा सत्ता में बने रहने का लक्ष्य हासिल करने के लिए, वे अपने पद के लिए खतरा बनने वाले इंसान को रास्ते का काँटा समझते थे, परमेश्वर के घर के कार्य की ज़रा-भी परवाह किये बिना दूसरों पर हमला करके उन्हें निकाल बाहर करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। अंत में उन्होंने हर तरह की दुष्टता की, फिर उन्हें निकाल दिया गया। एक मसीह विरोधी के स्वभाव से काम करते हुए, क्या मैं मसीह विरोधी के रास्ते पर नहीं चल रही थी? इस एहसास ने मुझे डरा दिया। परमेश्वर के न्याय और प्रकाशन के बिना, मैं कभी खुद को नहीं जान पाती। मुझे नहीं पता कि परमेश्वर का विरोध करने के लिए मैं और किस हद तक जाती। मैंने जाना कि मैं "केवल एक ही अल्फा पुरुष हो सकता है" के शैतानी जहर के हिसाब से जी रही थी। यह शैतान की छवि थी, जिसमें ज़रा-भी इंसानियत नहीं थी। मुझे खुद से घृणा महसूस हुई और उबकाई आने लगी। मैंने परमेश्वर के सामने आकर प्रार्थना की : "परमेश्वर, इन दिनों मेरी आँखों पर नाम और रुतबे का परदा पड़ा हुआ है। सत्ता बनाए रखने के लिए, मैंने अपनी सहयोगी को ही अलग कर दिया। मैं कितनी विद्रोही हूँ! परमेश्वर, मैं पश्चाताप करके बहन वांग के साथ अपना कर्तव्य निभाना चाहती हूँ।"
फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश देखा : "सामँजस्यपूर्ण सहयोग का मतलब होता है दूसरों को अपनी बात कहने देना और उन्हें वैकल्पिक सुझाव प्रस्तुत करने का अवसर देना, इसका अर्थ होता है कि दूसरों की मदद और सलाह को स्वीकारना सीखना। कभी-कभी लोग कुछ नहीं कहते, तो तुम्हें उन्हें अपनी राय देने के लिए प्रेरित करना चाहिए। किसी भी समस्या में सत्य-सिद्धांतों की तलाश कर एक आम राय बनानी चाहिए। इस तरह से काम करके तुम एक सामँजस्यपूर्ण सहयोग का वातावरण बना सकते हो। एक अगुआ के तौर पर अगर तुम हर समय अपने आपको दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी अधिकारी की तरह पेश आओगे, अपने पद के नशे में रहोगे, हमेशा योजनाएँ बनाते रहोगे, अपने तरीके से संचालन करते रहोगे, सफलताअ और तरक्की के लिए संघर्ष करते रहोगे, तो फिर यह परेशानी वाली बात है : इस तरह से किसी सरकारी अधिकारी की तरह व्यवहार करना बेहद जोखिम भरा है। अगर तुम हमेशा इसी तरह से कार्य करते हो, और तुम किसी और के साथ सहयोग नहीं करना चाहते, जिससे तुम्हारा अधिकार दूसरों में बिखर जाता है, तुम्हारी चमक चोरी हो जाती है, तुम्हारे सिर से प्रभामंडल छिन जाता है—अगर तुम सारी चीजें अपने तक ही रखना चाहते हो, तो तुम मसीह-विरोधी हो। लेकिन अगर तुम अकसर सत्य की तलाश करते हो, यदि तुम आत्म-प्रेरणाओं और युक्तियों से दैहिक सुखों से विमुख हो जाते हो, और अगर तुम दूसरों के साथ सहयोग करने की पहल कर सकते हो, अकसर अपना दिल खोलकर दूसरों से परामर्श करते हो और उनकी सलाह लेते हो, और अगर तुम दूसरों के सुझाव अपना सकते हो और उनके विचार और शब्द ध्यान से सुन सकते हो, तो तुम सही रास्ते पर, सही दिशा में जा रहे हो" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग एक)')। मिल-जुलकर काम करने के लिए, हमें अपने अहम को किनारे करना होगा और दूसरों से सीखना होगा, दूसरों की राय को ध्यान से सुनना होगा, ज़रूरत होने पर मदद करनी होगी। मैंने देखा कि मुझमें कोई विशेष गुण नहीं थे, खास तौर पर सत्य-वास्तविकता का अभाव था। परमेश्वर ने यह कर्तव्य देकर ऊँचा उठाया था कि मैं खुद को प्रशिक्षित करूँ, सत्य हासिल करके जीवन में आगे बढ़ सकूँ। मगर थोड़ा हासिल होते ही, मैं ऊपर पहुंचकर, अगुआ के पद पर काबिज़ होना चाहती थी। मैं तो उस पद पर बने रहकर अपनी मनमर्ज़ी चलाना चाहती थी और सारे फैसले खुद ही लेना चाहती थी। मैं कितनी नासमझ थी! इसका एहसास होने पर, मैं पछतावे और घृणा से भर गई। मैं फौरन बहन वांग को सभाओं कि नई जगह ले जाने लगी, सारी बातें अच्छे से समझाईं, ताकि वह जल्द से जल्द रफ़्तार से काम करने लगे। बहन वांग में ज़िम्मेदारी का एहसास था, वह अपने कर्तव्य के प्रति सचेत थी और सत्य-सिद्धांतों की खोज पर ध्यान देती थी। अब मैंने इसे अपने पद के लिए खतरा नहीं माना। इसके बजाय, मदद के लिए ऐसी साथी की व्यवस्था करने पर मैंने परमेश्वर का धन्यवाद किया। तब से, कहीं अटकने और भाई-बहनों की कोई समस्या हल न कर पाने पर, मैं बहन वांग से संगति करने के लिए कहती, मैं लोगों को उसके पास जाने के लिए भी कहती। इस पर अमल करने से मुझे आज़ादी का एहसास हुआ और कलीसिया का काम अच्छे से आगे बढ़ने लगा। यह सब देखकर मैंने सोचा, अगर बहन वांग को दूर भेज दिया जाता, जैसा कि मैं चाहती थी, तो मैं इस काम को अकेले ठीक से संभाल नहीं पाती। इससे कलीसिया के काम को ज़रूर नुकसान पहुंचता, उसमें देरी होती। यह तो दुष्टता करना होता! सोचने पर लगा कि परमेश्वर ने मेरे लिये कितनी अच्छी साथी की व्यवस्था की थी। मैंने तहे-दिल से उसका धन्यवाद किया।
कुछ महीने बाद, मैंने देखा कि हमारी कलीसिया की बहन लिन में अच्छी काबिलियत है, वह सत्य समझती है, और मुझसे कहीं अधिक समझदार है। सिद्धांत के आधार पर, वह अगुआ के पद के लिए सही थी और मैं उसकी सिफ़ारिश करना चाहती थी। फिर मुझे लगा कि अगर वह कलीसिया अगुआ बन गई, तो मेरा पद खतरे में पड़ जाएगा। तभी मुझे परमेश्वर के वचन याद आए : "तुम्हें इन चीज़ों को छोड़ देने और अलग कर देने का तरीका सीखना चाहिये। तुम्हें दूसरों की अनुशंसा करना, और उन्हें दूसरों से विशिष्ट बनने देना सीखना चाहिए। संघर्ष मत करो या जैसे ही दूसरों से अलग बनने या कीर्ति हासिल करने का अवसर मिले, तुम ज़ल्दबाजी में उसका फ़ायदा उठाने के लिये मत दौड़ पड़ो। तुम्हें पीछे रहने का कौशल सीखना चाहिये, लेकिन तुम्हें अपने कर्तव्य के निर्वहन में देरी नहीं करनी चाहिए। ऐसा व्यक्ति बनो जो शांत गुमनामी में काम करता है, और जो वफ़ादारी से अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए दूसरों के सामने दिखावा नहीं करता है। तुम जितना अधिक अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे को छोड़ते हो, और जितना अधिक अपने हितों को अलग रखते हो, तुम उतने ही शांतचित्त बनोगे, तुम्हारे हृदय में उतनी ही ज़्यादा जगह खुलेगी और तुम्हारी अवस्था में उतना ही अधिक सुधार होगा। तुम जितना अधिक संघर्ष और प्रतिस्पर्धा करोगे, तुम्हारी अवस्था उतनी ही अंधेरी होती जाएगी। अगर तुम्हें इस बात पर विश्वास नहीं है, तो इसे आज़माकर देखो!" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। मुझे अपनी स्वार्थी इच्छाओं के बजाय पहले कलीसिया के काम के बारे में सोचना होगा। बहन लिन एक बेहतर अगुआ साबित होगी, इसलिए मुझे उसकी सिफ़ारिश करनी चाहिए। यही परमेश्वर की इच्छा थी और ऐसा करना ही सही था। इसलिए, मैंने उसकी सिफ़ारिश कर दी। जब वह कलीसिया अगुआ बन गई, तो मैंने बिना कोई संकोच किये हर बात उसके साथ साझा की, जो मुझे पता थी। जहां तक हो सका, मैंने उसका समर्थन और सहयोग किया। बहन लिन और बहन वांग को ज़िम्मेदारी के साथ अपने कर्तव्य निभाते, अच्छे नतीजे हासिल करते और हर किसी की स्वीकृति पाते देखकर, मैं तो रो ही पड़ी। मगर इस बार ऐसा रुतबा खोने की भावना के कारण नहीं था। मैं देख रही थी कि हर कोई परमेश्वर के घर के कार्य को कायम रखने के लिए साथ मिलकर काम कर रहा था। मैं इतनी प्रेरित हुई कि बता नहीं सकती। इन सारे अनुभवों से गुज़रकर मैंने जाना, सत्य पर अमल करना और दूसरों के साथ मिलकर अच्छे से कर्तव्य निभाना कितना अहम है।
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?