आराम के पीछे भागने के नतीजे
मैं कलीसिया में वीडियो बनाती थी। काम के दौरान मैंने देखा कि ज़्यादा मुश्किल प्रोजेक्ट के प्रोडक्शन के लिए काफी खर्च करना पड़ता था, बार-बार हर फ्रेम में इफेक्ट देखने और बदलने की ज़रूरत होती थी, जिसमें अक्सर मैं विफल भी होती थी। जो प्रोजेक्ट थोड़े आसान होते थे, उन पर ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती थी, कामयाबी भी अधिक मिलती थी। मैंने सोचा, “मुश्किल प्रोजेक्ट के लिए उच्च तकनीकी चीज़ों पर ध्यान देने की ज़रूरत होती है, मुझे सोचने, सामग्री ढूंढने और चीज़ों को समझने के लिए समय देना पड़ता है, ताकि उनका विश्लेषण और अध्ययन किया जा सके। प्रोडक्शन में भी ज़्यादा समय लगता है। आसान प्रोजेक्ट को पूरा करना मुश्किल नहीं होता। मुझे बस कुछ आसान तरीके और कौशल सीखने की ज़रूरत होती है, और प्रोडक्शन में ज़्यादा समय भी नहीं लगता है, जिसका मतलब है कि काम बहुत जल्दी पूरा किया जा सकता है। ऐसा लगता है आसान प्रोजेक्ट तैयार करने से मेरी बहुत सी परेशानी बच जाएगी।” इसलिए, अपने कर्तव्यों में मैं यह ध्यान देने लगी कि कौन से प्रोजेक्ट मुश्किल हैं और कौन से आसान, और फिर तय करती कि कौन सा प्रोजेक्ट हाथ में लेना है। एक बार, मैंने एक आसान प्रोजेक्ट चुना और मुश्किल प्रोजेक्ट अपने भाई-बहनों के लिए छोड़ दिये। जब मैंने देखा कि मेरे भाई-बहन आसानी से तैयार हो गए, तो मुझे थोड़ा अपराध-बोध हुआ : “क्या मैं मुश्किलों को सामने देख अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं रही और उनका डटकर सामना नहीं करना चाहती?” मगर फिर मैंने सोचा, “मुश्किल प्रोजेक्ट में मुझे काफी समय और ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है, उनमें काफी दिमागी काम भी करना पड़ता है, यह बड़ा थकाऊ है, ऐसे में आसान प्रोजेक्ट चुनना ही मेरे लिए सबसे अच्छा है।” एक बार, एक प्रोजेक्ट पूरा करने के बाद, मुझे लगा कि उसमें कुछ सुधार की गुंजाइश है, मगर मैं कोई भी बदलाव करने में ज़्यादा मेहनत नहीं करना चाहती थी, जांच करने पर भाई-बहनों को भी उसमें कोई समस्या नज़र नहीं आई थी, इसलिए मैंने बिना कोई बदलाव किये उसे आगे बढ़ा दिया। कभी-कभी, जब वीडियो बनाने में मुझे कोई समस्या होती, तो मैं उन बातों पर ज़्यादा सोचे बिना अपने भाई-बहनों से पूछ लेती। मुझे लगता कि इससे न सिर्फ समस्या जल्दी हल हो जाती है, बल्कि मेरी मेहनत भी बच जाती है, अपने काम पूरे करने का यह आसान तरीका था। मगर ऐसा करने पर, मुझे अपराध-बोध होने लगता। क्योंकि ये सवाल सचमुच बड़े आसान थे, मैं थोड़ी मशक्कत करके उन्हें हल कर सकती थी। भाई-बहनों को पूछने से उनके कर्तव्य में देरी होती है, मगर मैंने आत्मचिंतन नहीं किया। इसलिए, इस तरह की चालाकी मेरे कर्तव्य निभाने के तरीके में शामिल हो गई।
वीडियो बनाने के अलावा, मुझे अध्ययन में अपने भाई-बहनों की अगुआई भी करनी थी और सभी का पेशेवर कौशल बढ़ाना था, इसलिए मुझे सामान्य से अधिक काम करना पड़ता था। मुझे न केवल पेशेवर कौशल सीखने की ज़रूरत थी, बल्कि अपने भाई-बहनों की ज़रूरतों और उनकी कमियों के हिसाब से पाठ्य सामग्री भी तैयार करनी थी। यह सब बहुत मुश्किल और उबाऊ काम लगता था। इसलिए मैं सोचने लगी कि कैसे समय बचाऊँ कि थकान भी महसूस न हो, फिर मैंने अपने भाई-बहनों को सीखने की सामग्री भेजने का फैसला किया, ताकि वे खुद उन्हें देख सकें। इस तरह, मुझे क्लास की तैयारी करने में ज़्यादा समय नहीं लगाना होगा, ज़्यादा मेहनत नहीं करनी होगी। मुझे लगा कि इससे बेहतर तरीका हो ही नहीं सकता। कुछ समय बाद, मेरे भाई-बहनों ने कहा कि उनसे उनकी समस्याएं हल नहीं हो रही हैं। उस समय, मुझे थोड़ा दुख हुआ, फिर कोई विकल्प न होने पर, आसान तरीके से सभी को सिखाने के लिए मैंने कुछ सामग्री ढूंढी, और सोचा कि सभी के लिए अध्ययन की व्यवस्था कर देना काफी है। जल्दी ही, हमारी टीम की अगुआ ने कहा कि हमारे द्वारा हाल ही में बनाई गई वीडियो में समस्याएँ हैं, जिससे हमारे काम की प्रगति में देरी हुई। यह सुनकर भी मैंने आत्मचिंतन नहीं किया या खुद को समझने की कोशिश नहीं की, मुझे लगा कि इस कर्तव्य में न केवल कष्ट उठाने और कीमत चुकाने की ज़रूरत है, बल्कि कोई गड़बड़ हो जाने पर उसकी जिम्मेदारी भी लेनी पड़ेगी, बहुत सारा काम करने पर भी अच्छे नतीजे नहीं मिल रहे थे, इसलिए मैं यह कर्तव्य और भी नहीं करना चाहती थी।
एक दिन मेरी अगुआ ने मेरे पास आकर मेरे कामचलाऊ तरीके से कर्तव्य करने और चालाकी दिखाने को लेकर मुझे उजागर किया, उन्होंने कहा कि अगर चीज़ें नहीं बदलीं, तो मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। अपनी अगुआ के मुँह से ऐसा सुनकर, भले ही मैंने यह मान लिया कि मैं कामचलाऊ तरीके से कर्तव्य निभा रही थी, मगर मुझे कोई पछतावा नहीं हुआ। जब मैंने आने वाले समय के अध्ययनों में होने वाली समस्याओं और परेशानियों के बारे में सोचा, तो मैं अब सभी के अध्ययन की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहती थी, जिससे मेरे लिए चीजें अधिक आसान हो जातीं। अगले दिन, मैंने अपनी अगुआ के पास जाकर बोला, “क्या आप हमारी टीम के अध्ययन की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी किसी और को दे सकती हैं? मैं इस काम में अच्छी नहीं हूँ।” यह सुनकर उन्होंने मेरी काट-छाँट करते हुए कहा, “तुम वाकई यह काम ठीक से नहीं कर सकती? क्या तुमने सचमुच कोशिश की? तुम हमेशा कड़ी मेहनत से बचना चाहती हो, कामचलाऊ तरीके से काम करके चालाकी दिखाना चाहती हो, तुममें अच्छी इंसानियत नहीं है। ऐसे बर्ताव से तो यही लगता है कि तुम वाकई इसके लायक नहीं हो। अभी तो तुम बस अपनी भक्ति और थोड़ा आत्मचिंतन करो, और कलीसिया से आगे की व्यवस्थाओं के लिए इंतजार करो।” अपने अगुआ से यह सब सुनकर, मुझे लगा जैसे मेरा दिल अचानक खोखला हो गया है। मैंने देखा कि सभी भाई-बहन अपने कर्तव्यों में व्यस्त थे, मगर मुझे बर्खास्त कर दिया गया था, मेरा कर्तव्य छिन गया था। मैं बता नहीं सकती कि इससे मुझे कितना गहरा दुख हुआ। मैंने सोचा नहीं था कि मैं सचमुच अपना कर्तव्य गँवा दूँगी। मगर फिर मैंने सोचा, “सभी चीज़ों पर परमेश्वर की संप्रभुता है। मेरी बर्खास्तगी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का आना है। मुझे उसका आज्ञापालन करते हुए आत्मचिंतन करना होगा और खुद को जानना होगा।” उसके बाद के दिनों में, मेरी अगुआ द्वारा मुझे बर्खास्त किये जाने का दृश्य एक फ़िल्म की तरह मेरे मन में बार-बार कौंधता रहा। अगुआ की बातों के बारे में सोचकर मुझे बहुत दुख होता, खासकर जब मेरी अगुआ ने कहा कि मुझमें अच्छी इंसानियत नहीं है। मैं नहीं जानती थी कि कैसे आत्मचिंतन करूं और कैसे खुद को जानूं, अपनी पीड़ा में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए उससे कहा कि वो मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं खुद को जानूँ।
फिर मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े : “चीजों को इतनी लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी से सँभालना एक भ्रष्ट स्वभाव के भीतर की चीज है : इसे लोग नीचता कहते हैं। वे अपने सारे काम ‘लगभग ठीक’ और ‘काफी ठीक’ की हद तक ही करते हैं; यह ‘शायद,’ ‘संभवतः’ और ‘पाँच में से चार’ का रवैया है; वे चीजों को अनमनेपन से करते हैं, यथासंभव कम से कम और जैसे-तैसे काम करने से संतुष्ट रहते हैं; उन्हें चीजों को गंभीरता से लेने या उन्हें सटीक रूप से करने का प्रयास करने में कोई मतलब नहीं दिखता, और सत्य-सिद्धांतों की तलाश करने का तो उनके लिए कोई मतलब ही नहीं। क्या यह एक भ्रष्ट स्वभाव के भीतर की चीज नहीं है? क्या यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है? नहीं। इसे अहंकार कहना सही है, और इसे जिद्दी कहना भी पूरी तरह से उपयुक्त है—लेकिन इसका अर्थ पूरी तरह से ग्रहण करना हो तो, एक ही शब्द उपयुक्त होगा और वह है ‘नीच।’ अधिकांश लोगों के भीतर नीचता होती है, बस उसकी मात्रा ही भिन्न होती है। सभी मामलों में, वे बेमन और लापरवाह ढंग से चीजें करना चाहते हैं, और वे जो कुछ भी करते हैं, उसमें छल झलकता है। वे जब भी संभव हो दूसरों को धोखा देते हैं, जब भी संभव हो जैसे-तैसे काम निपटाते हैं, जब भी संभव हो समय बचाते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं, ‘अगर मैं उजागर होने से बच सकता हूँ, और कोई समस्या पैदा नहीं करता, और मुझसे जवाब तलब नहीं किया जाता, तो मैं इसे जैसे-तैसे निपटा सकता हूँ। काम अच्छी तरह से करना इतनी परेशानी मोल लेने के लायक नहीं है।’ ऐसे लोग महारत हासिल करने के लिए कुछ नहीं सीखते, और वे अपनी पढ़ाई में कड़ी मेहनत नहीं करते या कष्ट नहीं उठाते और कीमत नहीं चुकाते। वे विषय का सिर्फ सतही ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं और फिर यह मानते हुए कि उन्होंने जानने योग्य सब-कुछ सीख लिया है, खुद को उसमें प्रवीण कह देते हैं, और फिर जैसे-तैसे काम निपटाने के लिए वे उस पर भरोसा करते हैं। क्या दूसरे लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति लोगों का यही रवैया नहीं होता? क्या यह ठीक रवैया है? नहीं। सीधे शब्दों में कहें तो, यह जैसे-तैसे काम निपटाना है। ऐसी नीचता तमाम भ्रष्ट मनुष्यों में मौजूद है। जिन लोगों की मानवता में नीचता होती है, वे अपने हर काम में जैसे-तैसे निपटाने का दृष्टिकोण और रवैया अपनाते हैं। क्या ऐसे लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभाने में सक्षम होते हैं? नहीं। तो क्या वे चीजों को सिद्धांत के साथ कर पाने में सक्षम होते हैं? इसकी संभावना और भी कम है” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। “व्यक्ति महान और नीच लोगों के बीच अंतर कैसे बता सकता है? बस कर्तव्यों के प्रति उनका रवैया और उनके क्रियाकलाप देखो, और देखो कि समस्याएँ आने पर वे चीजों को कैसे लेते और कैसे व्यवहार करते हैं। चरित्रवान और गरिमापूर्ण लोग अपने कर्तव्यों में सजग, गंभीर और मेहनती होते हैं और वे बलिदान देने के लिए तैयार रहते हैं। चरित्रहीन और गरिमाहीन लोग अपने कार्यों में अनियमित और लापरवाह होते हैं, हमेशा कोई न कोई चाल चलते रहते हैं, हमेशा खानापूरी करना चाहते हैं। चाहे वे जिस भी तकनीक का अध्ययन करें, वे उसे कर्मठता से नहीं सीखते, वे उसे सीखने में असमर्थ रहते हैं, और चाहे वे उसका अध्ययन करने में जितना भी समय लगाएँ, वे पूरी तरह से अज्ञानी बने रहते हैं। ये निम्न चरित्र के लोग हैं” (वचन, खंड 4, मसीह-विरोधियों को उजागर करना, मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग दो))। परमेश्वर के वचन मेरे दिल में चुभ गए, खासकर उसके ये वचन “वे जब भी संभव हो दूसरों को धोखा देते हैं, जब भी संभव हो जैसे-तैसे काम निपटाते हैं,” “चरित्रहीन और गरिमाहीन,” और “निम्न चरित्र।” हर एक वचन मेरी इंसानियत और कर्तव्यों के प्रति मेरे रवैये का खुलासा करता है। मुझे एहसास हुआ कि मैं बिल्कुल इसी तरीके से अपने कर्तव्य निभाती थी। मैं हर बार जैसे-तैसे काम करती, सिर्फ कामचलाऊ काम करती थी। मैंने हमेशा कष्ट से बचने के तरीके ढूंढे, ताकि काम ज़्यादा आसानी से किया जा सके, कभी यह नहीं सोचा कि अपने कर्तव्य अच्छे से कैसे करूं। कष्ट झेलने से बचने और शारीरिक आराम के लिए, मैं हमेशा अधिक सरल और आसान प्रोजेक्ट को ही चुनती थी। काम पूरा होने के बाद, समस्याएं मिलने और सुधार की गुंजाइश होने पर भी, मैं कोई बदलाव नहीं करना चाहती, बस कामचलाऊ तरीके से काम करने की कोशिश करती। जब हमारी टीम को पेशेवर कौशल सीखने की ज़रूरत थी, मुझे लगा भाई-बहनों के लिए अध्ययन की व्यवस्था करना बेहद थकाऊ काम होगा। फिर अपने शारीरिक सुख के लिए मैंने तरकीब और चालाकी से काम लेने की कोशिश की, ताकि भाई-बहन खुद से प्रशिक्षण वीडियो देखकर सीख सकें, इसके कारण उनके कौशल में कभी सुधार नहीं हुआ, उनका कर्तव्य कम प्रभावी हो गया और काम में देरी हो गई। अपने कर्तव्यों में मैं हर जगह तरकीब और चालाकी से काम लेती, मैंने कलीसिया के कार्य पर कभी विचार नहीं किया। मुझमें ज़रा भी इंसानियत नहीं थी! मैं बहुत स्वार्थी, नीच और कुकर्मी थी! इन बातों पर विचार करके मुझे बहुत अफसोस और अपराध-बोध महसूस हुआ। उसके बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : “सतही तौर पर कुछ लोगों में अपने कर्तव्यों के निष्पादन की पूरी अवधि के दौरान कोई गंभीर समस्या प्रतीत नहीं होती। वे खुले आम कोई बुराई नहीं करते; वे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं करते, या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर नहीं चलते। अपने कर्तव्यों के निर्वहन में उनके सामने कोई बड़ी त्रुटि या सिद्धांत की समस्याएँ भी नहीं आतीं, फिर भी, उन्हें एहसास भी नहीं होता और कुछ ही वर्षों में वे सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार न करने वाले के रूप में, एक गैर-विश्वासी के रूप में उजागर हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? दूसरों को कोई समस्या नहीं दिखती, लेकिन परमेश्वर इन लोगों के अंतरतम हृदय की जाँच करके समस्या देख लेता है। वे अपने कर्तव्यों के प्रदर्शन में हमेशा लापरवाह रहते हैं और प्रायश्चित नहीं करते। जैसे-जैसे समय बीतता है, वे स्वाभाविक रूप से उजागर हो जाते हैं। प्रायश्चित न करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हालाँकि उन्होंने पूरी अवधि में अपने कर्तव्य निभाए हैं, लेकिन उनके प्रति उनका रवैया हमेशा गलत रहा है, लापरवाही से भरा होता है, अनमना होता है, चीजों को हल्के में लेने वाला रवैया होता है, वे कर्तव्यनिष्ठ भी नहीं होते, पूरे दिल से अपने कर्तव्य निभाने की तो बात ही छोड़ दो। वे शायद थोड़ा-बहुत प्रयास करते हों, लेकिन वे बेमन से काम करते हैं। वे पूरे दिल से अपने कर्तव्य नहीं करते और उनके अपराधों का कोई अंत नहीं होता। परमेश्वर की दृष्टि में, उन्होंने कभी प्रायश्चित नहीं किया; वे हमेशा अनमने और लापरवाह रहे हैं, और उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया है—अर्थात, वे अपने हाथों की बुराई को छोड़कर परमेश्वर के आगे पश्चाताप नहीं करते। परमेश्वर उनमें पश्चाताप की मनोवृत्ति नहीं देखता और वह उनकी मनोवृत्ति में कोई बदलाव भी नहीं देखता। वे इसी मनोवृत्ति और पद्धति से अपने कर्तव्यों और परमेश्वर के आदेशों के संबंध में अड़ियल बने रहते हैं। उनके इस जिद्दी और दुराग्रही स्वभाव में कभी कोई बदलाव नहीं आता। इससे भी बढ़कर, वे कभी भी परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस नहीं करते, उन्हें कभी नहीं लगता कि उनकी लापरवाही और बेमन से किया गया काम अपराध और दुष्टता है। उनके मन में न तो कोई कृतज्ञता का भाव होता है, न वे खुद को दोषी महसूस करते हैं, न उनमें कोई खेद का भाव आता है, अपराध-बोध आने की तो बात ही छोड़ दो। जैसे-जैसे समय बीतता है, परमेश्वर देखता है कि इस तरह का व्यक्ति लाइलाज है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की बात की परवाह नहीं करता, वह चाहे जितने भी उपदेश सुन ले या उसे सत्य की कितनी भी समझ हो, उसका दिल प्रेरित नहीं होता और उसके रवैये में न कोई बदलाव आता है, न ही यह पूरी तरह परिवर्तित होता है। परमेश्वर इसे देखता है और कहता है : ‘इस व्यक्ति से अब कोई आशा नहीं है। मेरी कोई भी बात उसके दिल को छूती नहीं है, मेरी किसी भी बात से उसके अंदर बदलाव नहीं आता है। उसे बदलने का कोई उपाय नहीं है। यह व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाने के लिए अयोग्य है और मेरे घर में सेवा करने योग्य नहीं है।’ और परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं और काम करते हैं, तो वे लगातार लापरवाह और अनमने रहते हैं। चाहे उनकी कितनी भी काट-छाँट की जाए, और चाहे उनके प्रति कितनी भी सहनशीलता और धैर्य दिखाया जाए, इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और यह उन्हें वास्तव में पश्चात्ताप करने या बदलने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता। यह उन्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में सक्षम नहीं बना सकता, और न ही उन्हें सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने की शुरुआत करने दे सकता है। ऐसा व्यक्ति लाइलाज होता है। जब परमेश्वर यह निर्धारित कर लेता है कि कोई व्यक्ति लाइलाज है, तो क्या वह तब भी उस व्यक्ति को मजबूती से पकड़े रहेगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करता। परमेश्वर उसे जाने देगा” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। “तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह अत्यंत महत्वपूर्ण है, और यह एक बहुत ही गंभीर मामला है। परमेश्वर ने जो लोगों को सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दंडित किया जाना चाहिए। यह पूरी तरह से स्वाभाविक और उचित है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए। यह मनुष्य का सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो। इसमें, तुम यहूदा से भी अधिक शोचनीय हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। मैंने परमेश्वर के वचनों को बार-बार पढ़ा। फिर समझी कि पहले, भले ही लगता था कि मैं अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, मगर दिल-ही-दिल में परमेश्वर को धोखा दे रही थी। मैं मुश्किल कामों से बचती रही, सिर्फ अपने शारीरिक सुखों का ध्यान रखती, कष्ट उठाना और कीमत चुकाना नहीं चाहती, हमेशा तरकीबों और चालाकी से काम लेते हुए, जैसे-तैसे काम को निबटा देती। अपने काम को बेहतर ढंग से कर पाने के काबिल होने भी मैंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि मुझे लगता था कि भले ही यह काम बहुत अच्छे से नहीं हुआ, मगर कम से कम पूरा तो हो गया, बस इतना काफी है। मैंने लापरवाही से काम करने को गंभीरता से नहीं लिया, मैंने कभी आत्मचिंतन नहीं किया। मेरी अगुआ ने मुझे उजागर करते हुए चेतावनी दी, मगर मुझे ज़रा सा भी पछतावा नहीं हुआ, अब भी अपने शारीरिक सुखों का ध्यान रखती रही। जब मैंने विचार किया कि मेरे कर्तव्य में कितनी मेहनत करने और कीमत चुकाने की ज़रूरत है, तो मैं वह कर्तव्य नहीं निभाना चाहती थी। मैं इतनी संवेदनहीन और अड़ियल क्यों थी? परमेश्वर ने मुझे बार-बार पश्चाताप करने और बदलने के मौके दिये, जो मेरे लिए परमेश्वर की दया थी, मगर मैंने सिर्फ अपने शारीरिक सुखों का ध्यान रखा, सत्य की खोज नहीं की, आत्मचिंतन नहीं किया, अड़ियल बनकर परमेश्वर का विरोध करती रही। मैं कितनी विद्रोही थी! व्यक्ति का कर्तव्य परमेश्वर द्वारा दी गई आज्ञा और जिम्मेदारी होता है, जिसे पूरा करने के लिए उसे हर मुमकिन कोशिश करनी चाहिए। मगर मैं मुश्किल कर्तव्यों से बचती रही, बल्कि परमेश्वर को धोखा देने के लिए कामचलाऊ तरीका अपनाया और आसान कर्तव्य मांगने की ढिठाई की। क्या यह परमेश्वर का विरोध करना और उसे धोखा देना नहीं हुआ? परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव कोई अपमान बर्दाश्त नहीं करता है, और मैंने जो भी किया, उससे परमेश्वर को नफरत है। मेरा बर्खास्त किया जाना परमेश्वर की धार्मिकता दिखाता है। इसका एहसास होने पर, मुझे थोड़ा डर लगा। मुझे परमेश्वर का दिल दुखाने का पछतावा भी हुआ। मैं इस तरह कामचलाऊ काम नहीं कर सकती। मुझे पश्चाताप करके बदलने की ज़रूरत थी।
उसके बाद, मैं अपने भाई-बहनों के साथ सुसमाचार का प्रचार करने लगी। चूँकि मुझे सिद्धांतों पर महारत हासिल नहीं थी और लोगों से बात करने में अच्छी नहीं थी, तो यह कर्तव्य बहुत मुश्किल लगा, फिर मैं मेहनत करना या कीमत चुकाना भी नहीं चाहती थी। मगर मैंने कर्तव्य को लेकर अपने पिछले लापरवाह रवैये के बारे में सोचा, तो लगा कि अब सुसमाचार का प्रचार कर पाना परमेश्वर की बड़ी कृपा है। समस्या से सामना होने पर, मैं पहले की तरह छोड़कर नहीं भाग सकती थी। ये समझने पर, मुझे काम की प्रगति को लेकर काफी जोश महसूस हुआ। मैंने आत्मचिंतन किया : कर्तव्य मुश्किल लगने पर, मैं उसे छोड़कर भागना क्यों चाहती थी? मैंने परमेश्वर के वचनों में पढ़ा : “आज, तुम मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, और उन पर ध्यान नहीं देते; जब इस कार्य को फैलाने का दिन आएगा, और तुम उसकी संपूर्णता को देखोगे, तब तुम्हें अफसोस होगा, और उस समय तुम भौंचक्के रह जाओगे। आशीषें हैं, फिर भी तुम्हें उनका आनंद लेना नहीं आता, सत्य है, फिर भी तुम्हें उसका अनुसरण करना नहीं आता। क्या तुम अपने-आप पर अवमानना का दोष नहीं लाते? आज, यद्यपि परमेश्वर के कार्य का अगला कदम अभी शुरू होना बाकी है, फिर भी तुमसे जो कुछ अपेक्षित है और तुम्हें जिन्हें जीने के लिए कहा जाता है, उनमें कुछ भी असाधारण नहीं है। इतना सारा कार्य है, इतने सारे सत्य हैं; क्या वे इस योग्य नहीं हैं कि तुम उन्हें जानो? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुम्हारी आत्मा को जागृत करने में असमर्थ हैं? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुममें खुद के प्रति नफरत पैदा करने में असमर्थ हैं? क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? ... मैं तुम्हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है : तुम्हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर का हर एक सवाल मेरे दिल में नश्तर की तरह चुभ गया, मानो परमेश्वर मेरे सामने खड़े होकर बात कर रहा हो, मुझे लगा कि मैं उसकी बहुत ऋणी हूँ। देहधारी परमेश्वर ने हमारा सिंचन और पोषण करने के लिए इतने सारे सत्य व्यक्त किये, ताकि हमें सत्य हासिल हो सके, हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग कर बचाये जाने का मौका पा सकें। यह मानवजाति के लिए परमेश्वर की सबसे बड़ी आशीष है। बुद्धिमान लोग परमेश्वर के कार्य से मिले मौके का लाभ उठाएंगे, अपना समय सत्य की खोज करने, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने, अपने कर्तव्यों के दौरान अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश में लगाएंगे, और फिर सत्य समझकर परमेश्वर द्वारा बचाये जा सकेंगे। मगर अंधे और अज्ञानी लोग शारीरिक सुख के पीछे भागते और जैसे-तैसे काम करते हैं, वे सत्य की खोज करने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करते। वे लापरवाह रवैया अपनाते हुए अपने कर्तव्यों पर ध्यान नहीं देते, चाहे कितने ही समय से विश्वासी रहे हों, वे कभी सत्य नहीं समझ पाते, अपने जीवन स्वभाव में कोई बदलाव नहीं ला पाते और आखिर में परमेश्वर द्वारा निकाल दिये जाते हैं। मैंने खुद के बर्ताव के बारे में सोचा। क्या मैं भी ऐसी ही अज्ञानी नहीं थी? “ऑटोपायलट पर जीवन जीएँ” और “आलसीपन के अपने फायदे हैं” जैसे शैतानी फलसफे मेरे जीवन जीने के सिद्धांत थे। मैं हर दिन पहले जैसी स्थिति बनाये रखते और जैसे-तैसे काम करते हुए शारीरिक सुखों के पीछे भागती रहती थी। मैंने बरसों परमेश्वर पर विश्वास किया, पर सत्य नहीं खोजा या कभी विचार नहीं किया कि क्या मैंने अपने स्वभाव में लाया, न ही ये सोचा कि मेरे कर्तव्य परमेश्वर की इच्छा अनुरूप हैं या नहीं। मेरा शारीरिक सुख मेरे लिए सत्य हासिल करने से कहीं ज़्यादा अहम था, इसलिए मैं लगातार मुश्किल कर्तव्यों से बचती रही, जैसे-तैसे काम निबटाया, तरकीबों और चालाकियों का सहारा लिया। अपने हर काम में कीमत चुकाने से इनकार किया। इसी कारण से मेरे कर्तव्य के अच्छे नतीजे न निकलते और कलीसिया के काम पर असर पड़ता। फिर भी, मुझे पछतावा या अपराध-बोध नहीं होता। मैं बिल्कुल सुन्न पड़ गई थी। फिर मुझे एहसास हुआ कि शैतान के इन झूठे नियमों के अनुसार जीने, सिर्फ शारीरिक सुख की चाह रखने, आगे बढ़ने की कोई कोशिश नहीं करने, और भी ज़्यादा भ्रष्ट हो जाने से, मेरी चेतना बिल्कुल सुन्न पड़ गई है, मेरे जीवन का कोई लक्ष्य नहीं है। क्या मैं अपना जीवन बरबाद नहीं कर रही थी? अपना कर्तव्य गँवा देने के लिए सिर्फ मैं ही दोषी हूँ। मैं बहुत आलसी थी, मेरा व्यवहार अच्छा नहीं था और मैं किसी के भरोसे के काबिल नहीं थी, जिससे मेरे भाई-बहनों को नफ़रत और परमेश्वर को घृणा थी। पहले, मुझे लगता था कि जिन कर्तव्यों में बहुत अधिक अपेक्षाएं और कई तरह के काम थे, वे कष्ट उठाने के बराबर हैं। मगर असल में यह अपने कर्तव्यों के लिए कष्ट उठाना बिल्कुल भी नहीं था। ज़ाहिर है कि मेरी प्रकृति बहुत आलसी और स्वार्थी थी, मैं सिर्फ अपने शरीर की सोचती थी। हालांकि, कर्तव्यों में परेशानियां आने पर मुझे प्रयास करना पड़ता था और कीमत चुकानी पड़ती थी, मगर इस तरह की चीज़ें मैं बर्दाश्त कर सकती थी, क्योंकि परमेश्वर भैंस के आगे बीन बजाना नहीं चाहता। परमेश्वर ने इन परेशानियों का इस्तेमाल मेरे भ्रष्ट स्वभाव और कमियों को दिखाने के लिए किया, ताकि मैं खुद को जान सकूँ, समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोज सकूँ और अपना जीवन स्वभाव बदल सकूँ। साथ ही, परमेश्वर को उम्मीद थी कि इन परेशानियों का सामना होने पर मैं उसका सम्मान करना, उस पर भरोसा करना सीख जाऊँगी, और सच्ची आस्था रख पाऊँगी। पहले, मैं अज्ञानी और अंधी थी, परमेश्वर की इच्छा नहीं समझती थी। मैंने सत्य हासिल करने और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किये जाने के कई मौके गँवा दिये, मैं इस शानदार वक्त को बेकार जाने दिया। भले ही मुझे शारीरिक आराम मिला, मैंने तकलीफ नहीं सही या ज़्यादा कीमत नहीं चुकाई, मगर मेरे पास सत्य वास्तविकता नहीं थी और मेरे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान भी नहीं हुआ, अपने कर्तव्य में मैंने कोई अच्छा कर्म संचित नहीं किया, कलीसिया के काम में देरी की और परमेश्वर ने मुझसे नफरत की। अगर मैं ऐसे ही लापरवाह तरीके से काम करती रहती, तो अंत में पूरी तरह से परमेश्वर के उद्धार को गँवा देती। इन बातों का एहसास होने पर, मुझे काफी अफसोस हुआ और खुद से घृणा हुई, और अब मैं इस तरह नहीं जीना चाहती थी।
एक दिन, अपने धार्मिक कार्य के दौरान, मैंने परमेश्वर के वचन के दो अंश पढ़े : “आज के प्रयास भविष्य के कार्य के लिए एक नींव है, ताकि तू परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जा सके और उसकी गवाही देने में सक्षम बन सके। अगर तू इसे अपने प्रयासों का लक्ष्य बना ले, तो तू पवित्र आत्मा की उपस्थिति को प्राप्त कर पायेगा। तू अपने लक्ष्य को जितना ऊंचा रखेगा, उतना ही अधिक तू पूर्ण किया जा सकेगा। जितना अधिक तू सत्य के लिए प्रयास करेगा, उतना ही अधिक पवित्र आत्मा कार्य करेगा। अपने प्रयासों में तू जितनी ऊर्जा लगाएगा, उतना अधिक तू प्राप्त करेगा। पवित्र आत्मा लोगों को उनकी आंतरिक अवस्था के आधार पर पूर्ण करता है। कुछ लोग कहते हैं कि वे परमेश्वर द्वारा उपयोग होने या उसके द्वारा पूर्ण किए जाने के इच्छुक नहीं हैं, वे बस चाहते हैं कि उनकी देह सुरक्षित रहे और उन्हें कोई दुर्भाग्य न झेलना पड़े। कुछ लोग राज्य में प्रवेश करना नहीं चाहते लेकिन अथाह कुंड में उतरना चाहते हैं। अगर ऐसा है तो परमेश्वर भी तेरी इच्छा को पूरा करेगा। तू जो भी प्रयास करेगा परमेश्वर उसे पूरा करेगा। तो इस समय तेरा प्रयास क्या है? क्या यह पूर्ण किया जाना है? क्या तेरे वर्तमान कार्यकलाप और व्यवहार परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने की खातिर हैं, उसके द्वारा प्राप्त किए जाने के लिए हैं? तुझे अपने रोजमर्रा के जीवन में इस तरह से स्वयं का आंकलन निरंतर करना चाहिए। यदि तू पूरे दिल से एक लक्ष्य का पीछा करने में लग जाता है, तो निस्संदेह परमेश्वर तुझे पूर्ण करेगा। यह पवित्र आत्मा का मार्ग है। जिस मार्ग पर पवित्र आत्मा लोगों को ले जाता है, वह प्रयास से प्राप्त होता है। जितनी अधिक तेरे भीतर परमेश्वर के द्वारा पूर्ण और प्राप्त किए जाने की प्यास होगी, पवित्र आत्मा तेरे अंदर उतना ही अधिक काम करेगा। जितना अधिक तू तलाश करने में असफल होता है, जितना अधिक तू नकारात्मक और पीछे हटने वाला होता है, उतना ही तू पवित्र आत्मा से कार्य करने के अवसर छीन लेता है; जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा पवित्र आत्मा तुझे त्याग देगा। क्या तू परमेश्वर के द्वारा पूर्ण किया जाना चाहता है? क्या तू परमेश्वर के द्वारा प्राप्त किया जाना चाहता है? क्या तू परमेश्वर के द्वारा उपयोग किया जाना चाहता है? तुम लोगों को परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने, प्राप्त किए जाने, और उपयोग किए जाने के उद्देश्य से हर संभव कार्य करने का प्रयास करना चाहिए, जिससे ब्रह्मांड और सभी चीज़ें तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रदर्शित हुए कार्य को देख सकें। तुम सभी चीजों के बीच स्वामी हो, और जो सभी चीज़ें हैं उन सबके बीच, तुम परमेश्वर को तुम्हारे माध्यम से गवाही और महिमा का आनंद लेने दोगे—यह प्रमाण है कि तुम सभी पीढ़ियों में सबसे सौभाग्यशाली हो!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं)। “तुम्हें सत्य के लिए कष्ट उठाने होंगे, तुम्हें सत्य के लिए समर्पित होना होगा, तुम्हें सत्य के लिए अपमान सहना होगा, और अधिक सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अधिक कष्ट उठाने होंगे। यही तुम्हें करना चाहिए। एक शांतिपूर्ण पारिवारिक जीवन के लिए तुम्हें सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए, और क्षणिक आनन्द के लिए तुम्हें अपने जीवन की गरिमा और सत्यनिष्ठा को नहीं खोना चाहिए। तुम्हें उस सबका अनुसरण करना चाहिए जो खूबसूरत और अच्छा है, और तुम्हें अपने जीवन में एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जो ज्यादा अर्थपूर्ण है। यदि तुम एक गंवारू जीवन जीते हो और किसी भी उद्देश्य को पाने की कोशिश नहीं करते हो तो क्या तुम अपने जीवन को बर्बाद नहीं कर रहे हो? ऐसे जीवन से तुम क्या हासिल कर पाओगे? तुम्हें एक सत्य के लिए देह के सभी सुखों को छोड़ देना चाहिए, और थोड़े-से सुख के लिए सारे सत्यों का त्याग नहीं कर देना चाहिए। ऐसे लोगों में कोई सत्यनिष्ठा या गरिमा नहीं होती; उनके अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं होता!” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, पतरस के अनुभव : ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान)। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा कि अपने कर्तव्य में सत्य हासिल करने के लिए, हमें शारीरिक सुख को त्यागकर सत्य का अभ्यास करना होगा, तभी हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक कर पाएंगे और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किये जा सकेंगे। यही जीवन जीने का सबसे सार्थक और मूल्यवान तरीका है। कुछ समय के शारीरिक आराम के लिए सत्य को त्याग देना, आत्मसम्मान के बिना जीना है, यह पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा देना और फिर अंत परमेश्वर द्वारा त्याग कर हटा दिया जाना भी है, इससे हम उद्धार का मौका गँवा देंगे। मैंने यह भी सीखा कि शारीरिक आराम के पीछे भागने की समस्या को हल करने के लिए, हमारे पास सत्य की खोज करने वाला दिल होना चाहिए, कोई समस्या होने पर अक्सर हमें आत्मचिंतन करना चाहिए, कर्तव्य में अपने प्रयासों पर ध्यान देना चाहिए, मुश्किलों का सामना होने पर, शारीरिक सुख को किनारे करने, खुद का त्याग करने और कलीसिया के कार्य की रक्षा करने के काबिल होना चाहिए। इसी तरह पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है। इन बातों का एहसास होने पर, मेरा दिल रोशन हो गया, मैंने कसम खाई कि मैं शारीरिक इच्छाओं को त्याग कर कर्तव्य में खुद को झोंक दूँगी। फिर, मैंने सच्चे मन से यह विचार किया कि सुसमाचार का प्रचार अच्छे से कैसे किया जाये। सिद्धांत न समझ पाने पर, मैं अपने भाई-बहनों के साथ खोजती और दूसरों के साथ मिलकर अध्ययन के लिए समय निकालती। बाद में, जब सच्चे मार्ग की जांच-पड़ताल करने वालों की संख्या काफी बढ़ गई, तब मुझे और भी कई चीज़ें करनी थी। फिर भी, मुझे ऐसा नहीं लगा वे ज़्यादा मुश्किल थे। इसके बजाय, मुझे लगा कि ये मेरी जिम्मेदारी है जो मुझे पूरी करनी ही चाहिए। भले ही मैं हर दिन बहुत व्यस्त रहती, मगर खुद को समृद्ध महसूस करती।
अचानक एक दिन, मेरी अगुआ ने मेरे पास आकर मुझे वीडियो बनाने के काम पर लौटने को कहा। यह खबर सुनकर, मैं बहुत रोमांचित हो गई। परमेश्वर की आभार देने के अलावा क्या कहूँ समझ नहीं पा रही थी। मैंने याद किया कि कैसे पहले शारीरिक सुख की परवाह करते हुए अपने कर्तव्यों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देती थी, हर काम लापरवाही से पूरा करती थी, मैंने खास तौर पर खुद को परमेश्वर की ऋणी पाया। मैं अपनी पिछली गलतियों की भरपाई तो नहीं कर सकती, मगर अब अपने कर्तव्य में ईमानदार रहकर कीमत तो चुका ही सकती थी। इस तरह, हर काम अच्छे से पूरा करके परमेश्वर के प्रेम का मूल्य चुका सकती थी। तब से, अपने कर्तव्यों में मुश्किलों का सामना होने पर, मैं सच्चे मन से परमेश्वर से प्रार्थना करती और उन्हें हल करने का तरीका ढूंढती। एक बार, मेरा एक प्रोजेक्ट बहुत अच्छा नहीं हुआ, टीम की अगुआ और सुपरवाइजर को इसे ठीक करना नहीं आता था। मैं भी मुश्किल में उलझ गई, समझ नहीं आ रहा था कि इसे कैसे ठीक करूँ। मैंने सोचा, “अगर मैं इसे ठीक करने की कोशिश करती रही, समय लगाकर इस पर काम करती रही, तो मुझे नहीं पता कि मैं इसे ठीक कर भी पाऊँगी या नहीं, ऐसे में किसी और को यह काम करना चाहिए।” फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर मुश्किलों से बच निकलने की कोशिश में थी, तो मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की। मुझे परमेश्वर के ये इन वचन याद आए : “जब तुम्हारे सामने अचानक कोई कर्तव्य आता है और यह तुम्हें सौंप दिया जाता है तो कठिनाइयों का सामना करने से बचने की मत सोचो; अगर कोई चीज संभालना कठिन है तो इसे दरकिनार कर अनदेखा मत करो। तुम्हें इसका आमना-सामना करना चाहिए। तुम्हें हर समय यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर लोगों के साथ है, अगर उन्हें कोई कठिनाई हो रही है तो सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजने की जरूरत है और परमेश्वर के साथ रहते कुछ भी कठिन नहीं है। तुममें यह आस्था होनी चाहिए” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। चाहे कोई भी समस्या और परेशानी का सामना करना पड़े, हमें परमेश्वर पर भरोसा करके उसे हल करने का तरीका ढूंढना चाहिए। हमें मुश्किलों से बचने या शारीरिक कष्ट के कारण अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यह परमेश्वर से विश्वासघात और अपने कर्तव्य से बेईमानी है। इस बात का एहसास होने पर, मैंने खुद से वादा किया कि इस बार मैं परमेश्वर पर भरोसा करके समस्या को हल करने की पूरी कोशिश करूँगी। फिर मैंने मन को शांत करके इसे ठीक करने की कोशिश की। मुझे हैरानी हुई कि पल भर में समस्या हल हो गई। इसे देखने के बाद, सभी को लगा कि यह बेहतर है, किसी ने और सुझाव नहीं दिए। इस तरह अभ्यास करने पर, मेरे दिल को सुकून और शांति मिली। मुझे लगा कि अपने कर्तव्य में कीमत चुका कर ही आत्मसम्मान हासिल किया जा सकता है। परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?