आराम के पीछे भागने के नतीजे

04 फ़रवरी, 2022

लिंगशुआंग, स्पेन

कलीसिया में मेरा काम स्पेशल इफेक्ट तैयार करने का है। प्रोडक्शन के दौरान, जब मेरे पास थोड़े मुश्किल प्रोजेक्ट आते हैं, तो बार-बार हर फ्रेम में इफेक्ट देखने और बदलने की ज़रूरत होती है, जिसमें कई बार मैं विफल भी होती हूँ। पहले जब मैंने देखा कि मेरे भाई-बहनों के प्रोजेक्ट कहीं ज़्यादा आसान हैं, और वे ज़्यादा प्रोजेक्ट पूरे कर पाते हैं, तो मैंने सोचा, "मेरे प्रोजेक्ट के लिए उच्च तकनीकी चीज़ों पर ध्यान देने की ज़रूरत होती है, मुझे सोचने, सामग्री ढूंढने और चीज़ों को समझने के लिए समय देना पड़ता है, और प्रोडक्शन में ज़्यादा समय लगता है। अगर प्रोजेक्ट आसान होते, तो उन्हें पूरा करना मुश्किल नहीं होता। मुझे बस कुछ आसान तरीके और कौशल सीखने की ज़रूरत होती, और प्रोडक्शन में ज़्यादा समय भी नहीं लगता, जिससे प्रोजेक्ट पूरे करने में परेशानी नहीं होती।" उसके बाद से, अपने कामों में मैं यह ध्यान देने लगी कि कौन से प्रोजेक्ट मुश्किल हैं और कौन से आसान, और फिर तय करती कि कौन सा प्रोजेक्ट हाथ में लेना है। एक बार, मैंने एक आसान प्रोजेक्ट चुना और मुश्किल प्रोजेक्ट अपने भाई-बहनों के लिए छोड़ दिये। जब मैंने देखा कि मेरे भाई-बहन आसानी से तैयार हो गए, तो मुझे थोड़ा असहज लगा: "क्या मैं मुश्किलों को सामने देख अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं रही?" मगर फिर मैंने सोचा, "मुश्किल प्रोजेक्ट में मुझे काफी समय और ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है, उनमें काफी दिमागी काम भी करना पड़ता है, ऐसे में आसान प्रोजेक्ट चुनना ही मेरे लिए सबसे अच्छा है।" कुछ समय बाद, मुझे लगा कि मेरे एक स्पेशल इफेक्ट प्रोजेक्ट में कुछ सुधार की गुंजाइश है, मगर इसके लिए मैं ज़्यादा मेहनत नहीं करना चाहती थी, भाई-बहनों को भी उसमें कोई समस्या नज़र नहीं आई थी, इसलिए मैंने बिना बदलाव किये उसे आगे बढ़ा दिया। कभी-कभी, जब मुझे कोई समस्या होती, तो मैं उस पर ज़्यादा सोचे बिना अपने भाई-बहनों से पूछ लेती। मुझे लगता कि इससे समस्या जल्दी हल हो जाती है और मेरी मेहनत भी बच जाती है, अपने काम पूरे करने का यह आसान तरीका था। मगर ऐसा करने पर, मुझे अपराध-बोध होने लगता। कुछ सवाल सचमुच बड़े आसान थे, मैं थोड़ी मशक्कत करके उन्हें हल कर सकती थी, भाई-बहनों को पूछने से उनके काम में रुकावट आती है, मगर मैंने आत्मचिंतन करने या खुद को समझने की कोशिश नहीं की। इस तरह की चालाकी मेरे काम करने के तरीके में शामिल हो गई।

उसके बाद, मैं वीडियो प्रोडक्शन के काम में लग गई। वीडियो बनाने के अलावा, मुझे अध्ययन में अपने भाई-बहनों की अगुआई भी करनी थी और सभी का पेशेवर कौशल बढ़ाना था, इसलिए मुझे सामान्य से अधिक काम करना पड़ता था। मुझे न केवल पेशेवर कौशल सीखने की ज़रूरत थी, बल्कि अपने भाई-बहनों की ज़रूरतों के हिसाब से पाठ्य सामग्री भी तैयार करनी थी। यह सब बहुत मुश्किल और उबाऊ काम लगता था। मैंने सोचा, "पहले मेरा काम बेहतर था। मेरे ऊपर काम का ज़्यादा बोझ और दबाव नहीं था। मुझे बस अपने प्रोजेक्ट पूरे करने होते थे। अब मुझे बहुत से काम करने पड़ते हैं और बहुत सी बातों का ध्यान रखना पड़ता है।" इन सबके बारे में सोचकर सिर में दर्द होने लगता। कुछ समय बाद, मैं सोचने लगी कि कैसे समय बचाऊँ कि थकान भी महसूस न हो, फिर मैंने अपने भाई-बहनों को स्पेशल इफेक्ट सीखने की सामग्री भेजने का फैसला किया। इस तरह, भाई-बहन उन्हें पढ़ सकते थे और मुझे सामग्री ढूंढने में ज़्यादा समय नहीं लगाना होगा। जितना सोचती उतना ही मुझे लगता कि इससे बेहतर तरीका हो ही नहीं सकता। कुछ समय बाद, मेरे भाई-बहनों ने कहा कि उनसे उनकी समस्याएं हल नहीं हो रही हैं। उस समय, मुझे थोड़ा दुख हुआ, फिर कोई विकल्प न होने पर, आसान तरीके से सभी को सिखाने के लिए मैंने कुछ सामग्री ढूंढी, और सोचा, "सभी के लिए व्यवस्था कर दी है, तो अब मेरा काम हो गया।" मगर कुछ ही दिनों बाद, मेरी टीम की अगुआ ने कहा, "भाई-बहनों ने बताया कि तकनीकी समस्याओं की वजह से वीडियो प्रोडक्शन का काम ठीक से नहीं हो रहा है और अक्सर इन्हें दोबारा करने से प्रगति में देरी हो रही है।" यह सुनकर भी मैंने आत्मचिंतन नहीं किया या खुद को समझने की कोशिश नहीं की, मुझे लगा कि इस काम में न केवल कष्ट उठाने और कीमत चुकाने की ज़रूरत है, बल्कि कोई गड़बड़ हो जाने पर उसकी जिम्मेदारी भी लेनी पड़ेगी, इसलिए मैं यह काम और भी नहीं करना चाहती थी। एक दिन मेरी अगुआ ने मेरे पास आकर मेरे कामचलाऊ तरीके से काम करने और चालाकी दिखाने को लेकर मुझे उजागर कर मेरा निपटान किया, उन्होंने कहा कि अगर चीज़ें नहीं बदलीं, तो मुझे बर्खास्त कर दिया जाएगा। अपनी अगुआ के मुँह से ऐसा सुनकर, भले ही मैंने यह मान लिया कि मैं कामचलाऊ तरीके से काम करती थी, मगर मुझे कोई पछतावा नहीं हुआ। जब मैंने आने वाले समय में अपने काम में होने वाली समस्याओं और परेशानियों के बारे में सोचा, तो मैं अब यह काम नहीं करना चाहती थी। मैं कोई आसान काम करना चाहती थी। अगले दिन, मैंने अपनी अगुआ के पास जाकर बोला, "मैं यह काम करने के काबिल नहीं हूँ। मैं कोई और काम करना चाहती हूँ।" यह सुनकर उन्होंने मेरा निपटान करते हुए कहा, "तुम वाकई यह काम नहीं कर सकती? क्या तुमने सचमुच कोशिश की? तुम कड़ी मेहनत से बचना चाहती हो, कामचलाऊ काम कर चालाकी दिखाती हो, तुममें अच्छी इंसानियत नहीं है। ऐसे बर्ताव से तो यही लगता है कि तुम वाकई इस काम के लायक नहीं हो।" अपने अगुआ से यह सब सुनकर, मुझे लगा जैसे मेरा दिल अचानक खोखला हो गया है। स्टूडियो में वापस आकर, मैंने देखा कि दूसरी बहनें अपने कामों में व्यस्त थीं, मगर मुझे बर्खास्त कर दिया गया था, मेरा काम छिन गया था इससे मुझे बहुत गहरा दुख हुआ। मैंने सोचा नहीं था कि मैं सचमुच अपना काम गँवा दूँगी। उस समय, मन-ही-मन मैं खुद का बचाव कर रही थी, "मैं यह काम नहीं करना चाहती, तो कोई और काम दे देते। कर्तव्य निभाने की मेरी योग्यता रद्द क्यों कर दी गई?" मगर फिर मैंने सोचा, "सभी चीज़ों पर परमेश्वर की संप्रभुता है। मेरी बर्खास्तगी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का आना है। मुझे उसका आज्ञापालन करते हुए आत्मचिंतन करना होगा।" उसके बाद के दिनों में, मेरी अगुआ द्वारा मुझे बर्खास्त किये जाने का दृश्य एक फ़िल्म की तरह मेरे मन में बार-बार कौंधता रहा। अगुआ की बातों के बारे में सोचकर मुझे बहुत दुख होता, खासकर जब मेरी अगुआ ने कहा कि मुझमें अच्छी इंसानियत नहीं है। मैं नहीं जानती थी कि कैसे आत्मचिंतन करूं और खुद को जानूं, अपनी पीड़ा में, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए उससे कहा कि वो मेरा मार्गदर्शन करे ताकि मैं खुद को जानूँ।

फिर मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा, "क्या एक भ्रष्ट स्वभाव के भीतर ही कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो इतनी लापरवाही से और गैर-जिम्मेदाराना रूप से काम संभालने के लिए उकसाती है? वह क्या चीज़ है? वह है मलिनता; सभी मामलों में, वे कहते हैं कि 'यह लगभग ठीक है' और 'काफ़ी ठीक है'; यह 'शायद,' 'संभवतः' और 'पाँच में से चार' का रवैया है; वे चीजों को सरसरी तौर पर करते हैं, कम से कम और जैसे-तैसे काम करके संतुष्ट हो जाते हैं; वे चीज़ों को गंभीरता से लेने या परिशुद्धता के लिए प्रयास करने को कोई महत्व नहीं देते, और सिद्धांतों की तलाश करने का तो उनके लिए कोई मतलब ही नहीं। क्या यह चीज़ एक भ्रष्ट स्वभाव के भीतर नहीं है? क्या यह सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है? इसे अहंकार कहना सही है, और इसे ज़िद्दी कहना भी पूरी तरह से उपयुक्त है—लेकिन इसके अर्थ को पूरी तरह से एक शब्द में ढालना हो, तो वह शब्द होगा 'मलिन'। अधिकांश लोगों की मानवता में इस तरह की मलिनता मौजूद है; सभी मामलों में, वे कम से कम प्रयास करने की इच्छा रखते हैं, यह देखने के लिए कि उन्हें कितनी छूट मिल सकती है, और वे जो कुछ भी करते हैं उसमें छल की झलक होती है। जब मौका मिले, वे दूसरों को धोखा देते हैं, जब भी मुमकिन हो, लापरवाही से काम करते हैं, और किसी मामले पर गौर करने के लिए वे बहुत समय या विचार देना पसंद नहीं करते। वे मन ही मन सोचते हैं, 'जब तक मैं उजागर होने से बच सकता हूँ, कोई समस्या पैदा नहीं करता, और मुझसे हिसाब नहीं लिया जाता, तब तक मैं इसे जैसे-तैसे निपटा सकता हूँ। किसी काम को अच्छी तरह से करना एक बड़ी परेशानी मोल लेने के बराबर है।' ऐसे लोग कुछ सीख कर किसी चीज़ में माहिर नहीं बनते, और वे अपनी पढ़ाई में पूरा ध्यान नहीं लगाते। वे केवल ऊपर-ऊपर से किसी विषय की रूपरेखा समझना चाहते हैं और खुद को उस में प्रवीण कहते हैं, और फिर जैसे-तैसे बढ़ते रहने के लिए वे इस पर भरोसा करते हैं। क्या चीज़ों के बारे में लोगों का रवैया ऐसा ही नहीं होता? क्या यह ठीक रवैया है? लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति जिस तरह का रवैया ऐसे लोग अपनाते हैं, उसे चंद शब्दों में, 'जैसे-तैसे काम चलाना' कहते हैं, और इस तरह की मलिनता सारी भ्रष्ट मानव जाति में मौजूद है। अपनी मानवता में नीचता रखने वाले लोग जो कुछ भी करते हैं, उसे जैसे-तैसे निपटाने का विचार रखते हैं। क्या यह उन्हें कुछ भी ठीक से करने देता है? नहीं। तो क्या वे कुछ कर पाने में सक्षम होते हैं? इसकी संभावना और भी कम है।" "महान और नीच लोगों के बीच का अंतर कोई कैसे जान सकता है? बस लोगों, घटनाओं, और चीजों के साथ उनके व्यवहार के तरीके और उनके रवैये को देखो—यह देखो कि वे कैसे कार्य करते हैं, वे चीजों को कैसे संभालते हैं, और कोई समस्या उठे तो वे क्या करते हैं। अच्छे चरित्र और गरिमा वाले लोग अपने कार्यों में अतिसावधान, गंभीर और मेहनती होते हैं, और बलिदान देने के लिए तैयार रहते हैं। बिना चरित्र और गरिमा वाले लोग अपने कार्यों में अनियमित और फिसड्डी होते हैं, हमेशा कोई न कोई चाल चलते रहते हैं, हमेशा बस जैसे-तैसे काम चलाते रहना चाहते हैं। वे कोई कौशल सीख कर उसमें माहिर नहीं बनते, और चाहे वे कितने समय तक अध्ययन करें, वे कौशल या पेशे के मामलों में अज्ञानता से भ्रमित रहते हैं। यदि तुम उन्हें उत्तर देने पर ज़ोर नहीं देते, तो सब ठीक लगता है, लेकिन जैसे ही तुम ऐसा करते हो, तो वे घबरा जाते हैं—उनके माथे से पसीना छूटने लगता है, और उनकी बोलती बंद हो जाती है। वे घटिया चरित्र के लोग हैं" ("मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (भाग दो)')परमेश्वर के वचन मेरे दिल में चुभ गए, खासकर उसके ये वचन "जब मौका मिले, वे दूसरों को धोखा देते हैं, जब भी मुमकिन हो, लापरवाही से काम करते हैं," "बिना चरित्र और गरिमा," और "घटिया चरित्र।" हर एक वचन काम में मेरे रवैये और मेरी इंसानियत का खुलासा करता है। मुझे एहसास हुआ कि मैं बिल्कुल इसी तरीके से अपने काम करती थी। मैं हर बार जैसे-तैसे काम करती, सिर्फ कामचलाऊ काम करती थी। मैंने हर चीज़ में अपने शारीरिक सुख का ध्यान रखा, कष्ट से बचने के तरीके ढूंढे, कभी यह नहीं सोचा कि अपना काम अच्छे से कैसे करूं। कष्ट झेलने और कीमत चुकाने से बचने के साथ-साथ शारीरिक आराम के लिए, स्पेशल इफेक्ट तैयार करते समय, मैं हमेशा आसान प्रोजेक्ट को ही चुनती थी। प्रोडक्शन की प्रक्रिया में, समस्याएं मिलने और सुधार की गुंजाइश होने पर भी, जब तक किसी और की नज़र उन पर नहीं पड़ती, मैं कुछ नहीं करती। अपने वीडियो प्रोडक्शन के काम में, मुझे पेशेवर कौशल सीखने और इन्हें सीखने में अपने भाई-बहनों की अगुआई करने की ज़रूरत थी। मुझे लगा इस काम में बहुत अधिक दबाव है और बहुत तकलीफ उठानी पड़ेगी, इस बारे में सोचकर ही मुझे थकान होने लगी, फिर अपने शारीरिक सुख के लिए मैंने तरकीब और चालाकी से काम लेने की कोशिश की, ताकि भाई-बहन खुद से सीख सकें, इसके कारण उनके कौशल में सुधार नहीं हुआ, उनका काम कम प्रभावी हो गया और काम में देरी हो गई। मैं हर जगह तरकीब और चालाकी से काम लेती, मैंने परमेश्वर के घर के कार्य या अपना कर्तव्य अच्छे से निभाने पर कभी विचार नहीं किया। मुझमें ज़रा भी इंसानियत नहीं थी! मैं बहुत स्वार्थी, नीच और कुकर्मी थी। इन बातों पर विचार करके मुझे बहुत अफसोस और अपराध-बोध महसूस हुआ।

उसके बाद, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े, "सतही तौर पर कुछ लोगों में अपने कर्तव्य-निष्पादन की पूरी अवधि के दौरान कोई गंभीर समस्या प्रतीत नहीं होती। वे खुले आम कोई बुराई नहीं करते; वे विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न नहीं करते, या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर नहीं चलते। अपने कर्तव्य-निर्वहन में उनके सामने कोई बड़ी त्रुटि या सिद्धांत की समस्याएँ भी नहीं आतीं, फिर भी, उन्हें एहसास भी नहीं होता और कुछ ही वर्षों में वे सत्य को बिलकुल भी स्वीकार न करने वाले के रूप में, एक गैर-विश्वासी के रूप में उजागर हो जाते हैं। ऐसा क्यों होता है? दूसरों को कोई समस्या नहीं दिखती, लेकिन परमेश्वर इन लोगों के अंतरतम हृदय की जाँच करके समस्या देख लेता है। वे हमेशा इसके बारे में लापरवाह रहते हैं और प्रायश्चित नहीं करते। जैसे-जैसे समय बीतता है, वे स्वाभाविक रूप से उजागर हो जाते हैं। प्रायश्चित न करने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि हालाँकि उन्होंने पूरी अवधि में अपना कर्तव्य निभाया है, लेकिन उनका रवैया हमेशा गलत रहता है, लापरवाही से भरा होता है, अनमना होता है, चीजों को हल्के में लेने वाला रवैया होता है, वे कर्तव्यनिष्ठ भी नहीं होते, समर्पित होने की तो बात ही छोड़ दो। वे शायद थोड़ा-बहुत प्रयास करते हों, लेकिन वे बेमन से काम करते हैं। वे पूरे दिल से काम नहीं करते और उनके अपराधों का कोई अंत नहीं होता। परमेश्वर की दृष्टि में, उन्होंने कभी प्रायश्चित नहीं किया; वे हमेशा लापरवाह रहे हैं, और उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आया है—अर्थात, वे अपने हाथों की बुराई को छोड़कर परमेश्वर के आगे पश्चाताप नहीं करते। परमेश्वर उनमें पश्‍चाताप की मनोवृत्ति नहीं देखता और वह उनकी मनोवृत्ति में कोई बदलाव भी नहीं देखता। वे इसी मनोवृत्ति और पद्धति से अपने कर्तव्य और परमेश्वर के आदेश के संबंध में अड़ियल बने रहते हैं। उनके इस जिद्दी और दुराग्रही स्वभाव में कभी कोई बदलाव नहीं आता। इससे भी बढ़कर, वे कभी भी परमेश्वर के प्रति कृतज्ञ महसूस नहीं करते, उन्हें कभी नहीं लगता कि उनकी लापरवाही और बेमन से किया गया काम अपराध और दुष्टता है। उनके मन में न तो कोई कृतज्ञता का भाव होता है, न वे खुद को दोषी महसूस करते हैं, न उनमें कोई खेद का भाव आता है, अपराध-बोध आने की तो बात ही छोड़ दो। जैसे-जैसे समय बीतता है, परमेश्वर देखता है कि यह व्यक्ति लाइलाज है। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर की बात की परवाह नहीं करता, वह चाहे जितने भी उपदेश सुन ले या उसे सत्य की कितनी भी समझ हो, उसका दिल प्रेरित नहीं होता और उसके रवैये में न कोई बदलाव आता है, न ही यह पूरी तरह परिवर्तित होता है। परमेश्वर कहता है : 'इस व्यक्ति से अब कोई आशा नहीं है। मेरी कोई भी बात उसके दिल को छूती नहीं है, मेरी किसी भी बात से उसके अंदर बदलाव नहीं आता है। उसे बदलने का कोई उपाय नहीं है। यह व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाने के लिए अयोग्य है और मेरे घर में सेवा करने योग्य नहीं हैं।' और परमेश्वर ऐसा क्यों कहता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब वे अपना कर्तव्य निभाते हैं और काम करते हैं, तो चाहे उनके प्रति कितनी भी सहनशीलता और धैर्य दिखाया जाए, इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न ही उनमें कोई बदलाव आ पाता है। यह उन्हें अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने में सक्षम नहीं बना सकता, और न ही उन्हें सच में सत्य के मार्ग पर चलने की शुरुआत करने दे सकता है। ऐसा व्यक्ति लाइलाज होता है। जब परमेश्वर यह निर्धारित कर लेता है कि कोई व्यक्ति लाइलाज है, तो क्या वह तब भी उस व्यक्ति को मजबूती से पकड़े रहेगा? नहीं, वह ऐसा नहीं करता। परमेश्वर उसे जाने देगा" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना कर्तव्‍य करते हुए गैरज़िम्‍मेदार और असावधान होने की समस्‍या का समाधान कैसे करें')। "तुम परमेश्वर के आदेशों को कैसे लेते हो, यह एक बहुत ही गंभीर विषय है! परमेश्वर ने जो तुम्हें सौंपा है, यदि तुम उसे पूरा नहीं कर सकते, तो तुम उसकी उपस्थिति में जीने के योग्य नहीं हो और तुम्हें दण्डित किया जाना चाहिए। इसे स्वर्ग द्वारा आदेशित और पृथ्वी द्वारा स्वीकार किया गया है कि मनुष्यों को परमेश्वर द्वारा दिए जाने वाले सभी आदेश पूरे करने चाहिए; यह उनका सर्वोच्च दायित्व है, और उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उनका जीवन है। यदि तुम परमेश्वर के आदेशों को गंभीरता से नहीं लेते, तो तुम उसके साथ सबसे कष्टदायक तरीक़े से विश्वासघात कर रहे हो, और तुम यहूदा से भी अधिक शोकजनक हो और तुम्हें शाप दिया जाना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें')। मैंने परमेश्वर के वचनों को बार-बार पढ़ा। फिर समझी कि पहले, भले ही लगता था कि मैं अपना कर्तव्य निभा रही हूँ, मगर दिल-ही-दिल में परमेश्वर को धोखा दे रही थी। अपने कामों में, मैं सिर्फ अपने शारीरिक सुखों का ध्यान रखती और कष्ट उठाने से बचती, तरकीबों और चालाकी से काम लेते हुए, जैसे-तैसे काम को निबटा देती। अपने काम को बेहतर ढंग से कर पाने के काबिल होने भी मैंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि मुझे लगता था कि भले ही यह काम बहुत अच्छे से नहीं हुआ, मगर कम से कम पूरा तो हो गया, बस इतना काफी है। मैंने लापरवाही से काम करने को गंभीरता से नहीं लिया, मैंने कभी आत्मचिंतन करने या खुद को समझने की कोशिश नहीं की। फिर, मेरी अगुआ ने मुझे बेनकाब करते हुए चेतावनी दी, जो परमेश्वर द्वारा मुझे दिया गया पश्चाताप का मौका था, मगर मैं नहीं पछताई, अब भी अपने शारीरिक सुखों का ध्यान रखती रही। जब मैंने विचार किया कि मेरे काम में कितनी मेहनत करने और कीमत चुकाने की ज़रूरत है, तो मैं वह काम नहीं करना चाहती थी। मैं इतनी संवेदनहीन और अड़ियल क्यों थी? परमेश्वर ने मुझे बार-बार पश्चाताप करने और बदलने के मौके दिये, जो मेरे लिए परमेश्वर की दया थी, मगर मैंने सिर्फ अपने शारीरिक सुखों का ध्यान रखा, सत्य की खोज नहीं की, आत्मचिंतन नहीं किया, अड़ियल बनकर परमेश्वर का विरोध करती रही। मैं कितनी विद्रोही थी! मेरा काम परमेश्वर द्वारा मुझे दी गई एक आज्ञा और जिम्मेदारी थी, इन्हें पूरा करने के लिए मुझे हर मुमकिन कोशिश करनी थी। मगर मैं अपने काम को अच्छे से करने में ही विफल नहीं रही, बल्कि परमेश्वर को धोखा देने के लिए कामचलाऊ तरीका अपनाया और अपने काम को ठुकरा दिया। क्या यह परमेश्वर से विश्वासघात करना नहीं हुआ? परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव कोई अपमान बर्दाश्त नहीं करता है, और मैंने जो भी किया, उससे परमेश्वर को नफरत है। मेरा बर्खास्त किया जाना परमेश्वर की धार्मिकता दिखाता है। इसका एहसास होने पर, मुझे थोड़ा डर लगा। मुझे परमेश्वर का दिल दुखाने का पछतावा भी हुआ। मैं इस तरह कामचलाऊ काम नहीं कर सकती। मुझे पश्चाताप करके बदलने की ज़रूरत थी।

उसके बाद, मैं अपने भाई-बहनों के साथ सुसमाचार का प्रचार करने लगी। चूँकि मुझे सिद्धांतों की जानकारी नहीं थी और लोगों से बात करने में अच्छी नहीं थी, तो यह काम बहुत मुश्किल लगा, फिर से मैं मेहनत नहीं करना चाहती थी। मगर मैंने काम को लेकर अपने पिछले रवैये के बारे में सोचा, तो लगा कि सुसमाचार का प्रचार कर पाना परमेश्वर की बड़ी कृपा है। समस्या से सामना होने पर, मैं पहले की तरह छोड़कर नहीं भाग सकती थी। ये समझने पर, मुझे थोड़ा सकारात्मक महसूस हुआ।

फिर, मैंने आत्मचिंतन करते हुए सोचा कि काम मुश्किल लगने पर, मैं उसे छोड़कर भागना क्यों चाहती हूँ। आखिर मैं किस प्रकृति के काबू में हूँ? मैंने परमेश्वर के वचन-पाठ का वीडियो देखा। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "आज, तुम मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, और उन पर ध्यान नहीं देते; जब इस कार्य को फैलाने का दिन आएगा, और तुम उसकी संपूर्णता को देखोगे, तब तुम्हें अफसोस होगा, और उस समय तुम भौंचक्के रह जाओ। आशीषें हैं, फिर भी तुम्हें उनका आनंद लेना नहीं आता, सत्य है, फिर भी तुम्हें उसका अनुसरण करना नहीं आता। क्या तुम अपने-आप पर अवमानना का दोष नहीं लाते? आज, यद्यपि परमेश्वर के कार्य का अगला कदम अभी शुरू होना बाकी है, फिर भी तुमसे जो कुछ अपेक्षित है और तुम्हें जिन्हें जीने के लिए कहा जाता है, उनमें कुछ भी असाधारण नहीं है। इतना सारा कार्य है, इतने सारे सत्य हैं; क्या वे इस योग्य नहीं हैं कि तुम उन्हें जानो? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुम्हारी आत्मा को जागृत करने में असमर्थ हैं? क्या परमेश्वर की ताड़ना और न्याय तुममें खुद के प्रति नफरत पैदा करने में असमर्थ हैं? क्या तुम शैतान के प्रभाव में जी कर, और शांति, आनंद और थोड़े-बहुत दैहिक सुख के साथ जीवन बिताकर संतुष्ट हो? क्या तुम सभी लोगों में सबसे अधिक निम्न नहीं हो? उनसे ज्यादा मूर्ख और कोई नहीं है जिन्होंने उद्धार को देखा तो है लेकिन उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते; वे ऐसे लोग हैं जो पूरी तरह से देह-सुख में लिप्त होकर शैतान का आनंद लेते हैं। तुम्हें लगता है कि परमेश्वर में अपनी आस्था के लिए तुम्‍हें चुनौतियों और क्लेशों या कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा। तुम हमेशा निरर्थक चीजों के पीछे भागते हो, और तुम जीवन के विकास को कोई अहमियत नहीं देते, बल्कि तुम अपने फिजूल के विचारों को सत्य से ज्यादा महत्व देते हो। तुम कितने निकम्‍मे हो! तुम सूअर की तरह जीते हो—तुममें और सूअर और कुत्ते में क्या अंतर है? जो लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते, बल्कि शरीर से प्यार करते हैं, क्या वे सब पूरे जानवर नहीं हैं? क्या वे मरे हुए लोग जिनमें आत्मा नहीं है, चलती-फिरती लाशें नहीं हैं? तुम लोगों के बीच कितने सारे वचन कहे गए हैं? क्या तुम लोगों के बीच केवल थोड़ा-सा ही कार्य किया गया है? मैंने तुम लोगों के बीच कितनी आपूर्ति की है? तो फिर तुमने इसे प्राप्त क्यों नहीं किया? तुम्हें किस बात की शिकायत है? क्या यह बात नहीं है कि तुमने इसलिए कुछ भी प्राप्त नहीं किया है क्योंकि तुम देह से बहुत अधिक प्रेम करते हो? क्योंकि तुम्‍हारे विचार बहुत ज्यादा निरर्थक हैं? क्योंकि तुम बहुत ज्यादा मूर्ख हो? यदि तुम इन आशीषों को प्राप्त करने में असमर्थ हो, तो क्या तुम परमेश्वर को दोष दोगे कि उसने तुम्‍हें नहीं बचाया? तुम परमेश्वर में विश्वास करने के बाद शांति प्राप्त करना चाहते हो—ताकि अपनी संतान को बीमारी से दूर रख सको, अपने पति के लिए एक अच्छी नौकरी पा सको, अपने बेटे के लिए एक अच्छी पत्नी और अपनी बेटी के लिए एक अच्छा पति पा सको, अपने बैल और घोड़े से जमीन की अच्छी जुताई कर पाने की क्षमता और अपनी फसलों के लिए साल भर अच्छा मौसम पा सको। तुम यही सब पाने की कामना करते हो। तुम्‍हारा लक्ष्य केवल सुखी जीवन बिताना है, तुम्‍हारे परिवार में कोई दुर्घटना न हो, आँधी-तूफान तुम्‍हारे पास से होकर गुजर जाएँ, धूल-मिट्टी तुम्‍हारे चेहरे को छू भी न पाए, तुम्‍हारे परिवार की फसलें बाढ़ में न बह जाएं, तुम किसी भी विपत्ति से प्रभावित न हो सको, तुम परमेश्वर के आलिंगन में रहो, एक आरामदायक घरौंदे में रहो। तुम जैसा डरपोक इंसान, जो हमेशा दैहिक सुख के पीछे भागता है—क्या तुम्‍हारे अंदर एक दिल है, क्या तुम्‍हारे अंदर एक आत्मा है? क्या तुम एक पशु नहीं हो? मैं बदले में बिना कुछ मांगे तुम्‍हें एक सत्य मार्ग देता हूँ, फिर भी तुम उसका अनुसरण नहीं करते। क्या तुम उनमें से एक हो जो परमेश्वर पर विश्वास करते हैं? मैं तुम्‍हें एक सच्चा मानवीय जीवन देता हूँ, फिर भी तुम अनुसरण नहीं करते। क्या तुम कुत्ते और सूअर से भिन्न नहीं हो? सूअर मनुष्य के जीवन की कामना नहीं करते, वे शुद्ध होने का प्रयास नहीं करते, और वे नहीं समझते कि जीवन क्या है। प्रतिदिन, उनका काम बस पेट भर खाना और सोना है। मैंने तुम्‍हें सच्चा मार्ग दिया है, फिर भी तुमने उसे प्राप्त नहीं किया है: तुम्‍हारे हाथ खाली हैं। क्या तुम इस जीवन में एक सूअर का जीवन जीते रहना चाहते हो? ऐसे लोगों के जिंदा रहने का क्या अर्थ है? तुम्‍हारा जीवन घृणित और ग्लानिपूर्ण है, तुम गंदगी और व्यभिचार में जीते हो और किसी लक्ष्य को पाने का प्रयास नहीं करते हो; क्या तुम्‍हारा जीवन अत्यंत निकृष्ट नहीं है? क्या तुम परमेश्वर की ओर देखने का साहस कर सकते हो? यदि तुम इसी तरह अनुभव करते रहे, तो क्या केवल शून्य ही तुम्हारे हाथ नहीं लगेगा? तुम्हें एक सच्चा मार्ग दे दिया गया है, किंतु अंततः तुम उसे प्राप्त कर पाओगे या नहीं, यह तुम्हारी व्यक्तिगत खोज पर निर्भर करता है" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान')। परमेश्वर का हर एक सवाल मेरे दिल में नश्तर की तरह चुभ गया, मानो परमेश्वर मेरे सामने खड़े होकर सवाल पूछ रहा हो, मुझे लगा कि मैं परमेश्वर की बहुत ऋणी हूँ। देहधारी परमेश्वर ने हमारा सिंचन और पोषण करने के लिए इतने सारे सत्य व्यक्त किये, ताकि हमें सत्य हासिल हो सके, हम अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्याग कर बचाये जाने का मौका पा सकें। यह मानवजाति के लिए परमेश्वर की सबसे बड़ी आशीष है। बुद्धिमान लोग परमेश्वर के कार्य से मिले मौके का लाभ उठाएंगे, अपना समय सत्य की खोज करने, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने, अपने कर्तव्य के दौरान अपने जीवन स्वभाव में बदलाव लाने की कोशिश में लगाएंगे, और फिर सत्य समझकर परमेश्वर द्वारा पूरी तरह बचाये जा सकेंगे। मगर अंधे और अज्ञानी लोग शारीरिक सुख के पीछे भागते और जैसे-तैसे काम करते हैं, वे सत्य की खोज करने के लिए कड़ी मेहनत नहीं करते। वे लापरवाह रवैया अपनाते हुए अपने काम पर ध्यान नहीं देते, चाहे कितने ही समय से विश्वासी रहे हों, वे कभी सत्य नहीं समझ पाते, अपने जीवन स्वभाव में कोई बदलाव नहीं ला पाते और आखिर में परमेश्वर द्वारा हटा दिये जाते हैं। मैंने खुद के बारे में सोचा। क्या मैं भी ऐसी ही अज्ञानी नहीं थी? "ऑटोपायलट पर जीवन जीएँ" और "आलसीपन के अपने फायदे हैं" जैसे शैतानी फलसफे मेरे जीवन जीने के सिद्धांत थे। मैं हर दिन पहले जैसी स्थिति बनाये रखते और जैसे-तैसे काम करते हुए शारीरिक सुखों के पीछे भागती रहती थी। मैंने बरसों परमेश्वर पर विश्वास किया पर सत्य नहीं खोजा या स्वभाव में बदलाव लाने पर ध्यान नहीं दिया, न ये सोचा कि मेरे काम परमेश्वर की इच्छा अनुरूप हैं या नहीं। मेरा शारीरिक सुख मेरे लिए परमेश्वर की इच्छा से कहीं ज़्यादा अहम था, इसलिए जब भी मेरे काम में कष्ट उठाने या कीमत चुकाने की ज़रूरत होती, तो मैं तरकीबों और चालाकियों का सहारा लेकर जैसे-तैसे अपने काम निबटाती, जिससे मेरे काम के अच्छे नतीजे नहीं निकलते और परमेश्वर के घर के काम में देरी हो जाती। फिर भी, मुझे पछतावा या अपराध-बोध नहीं होता। आराम की चाह ने मुझे नीच, विवेकहीन और सुधार के प्रति बेपरवाह बना दिया। क्या मैं अपना जीवन बरबाद नहीं कर रही थी? मैं किसी जंगली जानवर से अलग कहां थी? आखिरकार मुझे समझ आया कि ये शैतानी जहर लोगों को भ्रष्ट करने के लिए शैतान द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली भ्रांतियां हैं। वह लोगों को आराम के पीछे भागने, सुधार की कोशिश न करने, नीच इंसान बनने और आखिर में अज्ञानता के साथ मर जाने को मजबूर करता है। अपना काम गँवा देने के लिए सिर्फ मैं ही दोषी हूँ। मैं बहुत आलसी थी, मेरा व्यवहार अच्छा नहीं था और मैं किसी के भरोसे के काबिल नहीं थी, जिससे मेरे भाई-बहनों को नफ़रत और परमेश्वर को घृणा थी। पहले, मुझे लगता था कि जिन कामों में बहुत अधिक अपेक्षाएं और कई तरह के काम थे, वे कष्ट उठाने के बराबर हैं। मगर यह अपने कर्तव्य के लिए कष्ट उठाना बिल्कुल भी नहीं था। ज़ाहिर है कि मेरी प्रकृति बहुत आलसी और स्वार्थी थी, मैं सिर्फ अपने शरीर की सोचती थी। हालांकि, हमारे काम में परेशानियां आने पर हमें कष्ट उठाना और कीमत चुकानी पड़ती है, मगर इस तरह की चीज़ें हम बर्दाश्त कर सकते हैं, क्योंकि परमेश्वर कभी ऐसा बोझ नहीं देता जो बर्दाश्त के बाहर हो। परमेश्वर ने इन परेशानियों का इस्तेमाल मेरे भ्रष्ट स्वभाव और कमियों को दिखाने के लिए किया, ताकि मैं खुद को जान सकूँ, समस्याओं को हल करने के लिए सत्य खोज सकूँ और अपना जीवन स्वभाव बदल सकूँ। साथ में, परमेश्वर को उम्मीद थी कि इन परेशानियों का सामना होने पर मैं उस पर भरोसा करना सीख जाऊँगी, और सच्ची आस्था रख पाऊँगी। पहले, मैं अज्ञानी और अंधी थी, परमेश्वर की इच्छा नहीं समझती थी। मैंने सत्य हासिल करने और परमेश्वर द्वारा पूर्ण किये जाने के कई मौके गँवा दिये, मैं इस शानदार वक्त को बेकार जाने दिया। भले ही मुझे शारीरिक आराम मिला, मैंने तकलीफ नहीं सही या ज़्यादा कीमत नहीं चुकाई, मगर मेरे पास सत्य नहीं था और मेरे भ्रष्ट स्वभाव का समाधान भी नहीं हुआ, अपने कर्तव्य में मैंने कोई अच्छा कर्म संचित नहीं किया, परमेश्वर के घर के काम में देरी की और उसे नाराज़ किया। अगर मैं ऐसे ही लापरवाह तरीके से काम करती रहती, तो अंत में पूरी तरह से परमेश्वर के उद्धार को गँवा देती। उस वक्त, मुझे दुख और खुद से घृणा हुई, अब मैं किसी जानवर की तरह नहीं जीना चाहती थी।

एक दिन, अपने धार्मिक कार्य के दौरान, मैंने परमेश्वर के कुछ वचन पढ़े। "आज के प्रयास भविष्य के कार्य के लिए एक नींव है, ताकि तू परमेश्वर द्वारा उपयोग किया जा सके और उसकी गवाही देने में सक्षम बन सके। अगर तू इसे अपने प्रयासों का लक्ष्य बना ले, तो तू पवित्र आत्मा की उपस्थिति को प्राप्त कर पायेगा। तू अपने लक्ष्य को जितना ऊंचा रखेगा, उतना ही अधिक तू पूर्ण किया जा सकेगा। जितना अधिक तू सत्य के लिए प्रयास करेगा, उतना ही अधिक पवित्र आत्मा कार्य करेगा। अपने प्रयासों में तू जितनी ऊर्जा लगाएगा, उतना अधिक तू प्राप्त करेगा। पवित्र आत्मा लोगों को उनकी आंतरिक अवस्था के आधार पर पूर्ण करता है। कुछ लोग कहते हैं कि वे परमेश्वर द्वारा उपयोग होने या उसके द्वारा पूर्ण किए जाने के इच्छुक नहीं हैं, वे बस चाहते हैं कि उनकी देह सुरक्षित रहे और उन्हें कोई दुर्भाग्य न झेलना पड़े। कुछ लोग राज्य में प्रवेश करना नहीं चाहते लेकिन अथाह कुंड में उतरना चाहते हैं। अगर ऐसा है तो परमेश्वर भी तेरी इच्छा को पूरा करेगा। तू जो भी प्रयास करेगा परमेश्वर उसे पूरा करेगा। तो इस समय तेरा प्रयास क्या है? क्या यह पूर्ण किया जाना है? क्या तेरे वर्तमान कार्यकलाप और व्यवहार परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने की खातिर हैं, उसके द्वारा प्राप्त किए जाने के लिए हैं? तुझे अपने रोजमर्रा के जीवन में इस तरह से स्वयं का आंकलन निरंतर करना चाहिए। यदि तू पूरे दिल से एक लक्ष्य का पीछा करने में लग जाता है, तो निस्संदेह परमेश्वर तुझे पूर्ण करेगा। यह पवित्र आत्मा का मार्ग है। जिस मार्ग पर पवित्र आत्मा लोगों को ले जाता है, वह प्रयास से प्राप्त होता है। जितनी अधिक तेरे भीतर परमेश्वर के द्वारा पूर्ण और प्राप्त किए जाने की प्यास होगी, पवित्र आत्मा तेरे अंदर उतना ही अधिक काम करेगा। जितना अधिक तू तलाश करने में असफल होता है, जितना अधिक तू नकारात्मक और पीछे हटने वाला होता है, उतना ही तू पवित्र आत्मा से कार्य करने के अवसर छीन लेता है; जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा पवित्र आत्मा तुझे त्याग देगा। क्या तू परमेश्वर के द्वारा पूर्ण किया जाना चाहता है? क्या तू परमेश्वर के द्वारा प्राप्त किया जाना चाहता है? क्या तू परमेश्वर के द्वारा उपयोग किया जाना चाहता है? तुम लोगों को परमेश्वर द्वारा पूर्ण किए जाने, प्राप्त किए जाने, और उपयोग किए जाने के उद्देश्य से हर संभव कार्य करने का प्रयास करना चाहिए, जिससे ब्रह्मांड और सभी चीज़ें तुम्हारे भीतर परमेश्वर के प्रदर्शित हुए कार्य को देख सकें। तुम सभी चीज़ों के बीच स्वामी हो, और जो सभी चीज़ें हैं उन सबके बीच, तुम परमेश्वर को तुम्हारे माध्यम से गवाही और महिमा का आनंद लेने दोगे—यह प्रमाण है कि तुम सभी पीढ़ियों में सबसे सौभाग्यशाली हो!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जिनके स्वभाव परिवर्तित हो चुके हैं, वे वही लोग हैं जो परमेश्वर के वचनों की वास्तविकता में प्रवेश कर चुके हैं)। "तुम्हें सत्य के लिए कष्ट उठाने होंगे, तुम्हें सत्य के लिए समर्पित होना होगा, तुम्हें सत्य के लिए अपमान सहना होगा, और अधिक सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अधिक कष्ट उठाने होंगे। यही तुम्हें करना चाहिए। एक शांतिपूर्ण पारिवारिक जीवन के लिए तुम्हें सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए, और क्षणिक आनन्द के लिए तुम्हें अपने जीवन की गरिमा और सत्यनिष्ठा को नहीं खोना चाहिए। तुम्हें उस सबका अनुसरण करना चाहिए जो खूबसूरत और अच्छा है, और तुम्हें अपने जीवन में एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जो ज्यादा अर्थपूर्ण है। यदि तुम एक घिनौना जीवन जीते हो और किसी भी उद्देश्य को पाने की कोशिश नहीं करते हो तो क्या तुम अपने जीवन को बर्बाद नहीं कर रहे हो? ऐसे जीवन से तुम क्या हासिल कर पाओगे? तुम्हें एक सत्य के लिए देह के सभी सुखों को छोड़ देना चाहिए, और थोड़े-से सुख के लिए सारे सत्यों का त्याग नहीं कर देना चाहिए। ऐसे लोगों में कोई सत्यनिष्ठा या गरिमा नहीं होती; उनके अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं होता!" ("वचन देह में प्रकट होता है" में 'पतरस के अनुभव: ताड़ना और न्याय का उसका ज्ञान')। परमेश्वर के वचनों से मैंने समझा : अपने कर्तव्य में सत्य हासिल करने के लिए, हमें शारीरिक सुख को त्यागकर सत्य का अभ्यास करना होगा, तभी हम परमेश्वर द्वारा पूर्ण किये जा सकेंगे। यही जीवन जीने का सबसे सार्थक और मूल्यवान तरीका है। अगर हम कुछ समय के शारीरिक आराम के लिए सत्य त्याग देते हैं, तो हम आत्मसम्मान के बिना जियेंगे, पवित्र आत्मा के कार्य को गँवा देंगे, फिर अंत में परमेश्वर हमें हटा देगा और हम उद्धार का मौका गँवा देंगे। मैंने यह भी सीखा कि शारीरिक आराम के पीछे भागने की समस्या को हल करने के लिए, हमारे पास सत्य की खोज करने वाला दिल होना चाहिए, कोई समस्या होने पर अक्सर हमें आत्मचिंतन करना चाहिए, कर्तव्य में अपने प्रयासों पर ध्यान देना चाहिए, मुश्किलों का सामना होने पर, शारीरिक सुख को ठुकराने, खुद का त्याग करने और परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा करने के काबिल होना चाहिए। इसी तरह पवित्र आत्मा का कार्य और मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है। इन बातों का एहसास होने पर, मेरा दिल रोशन हो गया, मैंने कसम खाई कि मैं शारीरिक इच्छाओं को त्याग कर कर्तव्य में खुद को झोंक दूँगी।

फिर, मैंने सच्चे मन से यह विचार किया कि सुसमाचार का प्रचार अच्छे से कैसे किया जाये। सिद्धांत न समझ पाने पर, मैं अपने भाई-बहनों के साथ खोजती और दूसरों के साथ मिलकर अध्ययन के लिए समय निकालती। बाद में, जब सुसमाचार के प्रचार में और भी कई चीज़ें करनी थी, मुझे ऐसा नहीं लगा वे मुश्किल थे। इसके बजाय, मुझे लगा कि ये मेरी जिम्मेदारी है जो मुझे पूरी करनी ही चाहिए। भले ही मैं हर दिन बहुत व्यस्त रहती, मगर खुद को समृद्ध महसूस करती।

अचानक एक दिन, मेरी अगुआ ने मेरे पास आकर मुझे अपने स्पेशल इफेक्ट के काम पर लौटने को कहा। यह खबर सुनकर, मैं बहुत रोमांचित हो गई। परमेश्वर की आभार देने के अलावा क्या कहूँ समझ नहीं पा रही थी। मैं पहले शारीरिक सुख की परवाह करते हुए अपना काम लापरवाही से पूरा करती थी, मैंने खास तौर पर खुद को परमेश्वर की ऋणी पाया। मैं अपनी पिछली गलतियों की भरपाई तो नहीं कर सकती, मगर अब अपने कर्तव्य में परमेश्वर के प्रेम का मूल्य तो चुका सकती थी। तब से, अपने कर्तव्य में मुश्किलों का सामना होने पर, मैं सच्चे मन से परमेश्वर से प्रार्थना करती और उन्हें हल करने का तरीका ढूंढती। एक बार, मेरा स्पेशल इफेक्ट का एक प्रोजेक्ट बहुत अच्छा नहीं हुआ, टीम की अगुआ और काम की जिम्मेदारी उठाने वाले व्यक्ति को इसे ठीक करना नहीं आता था। मैं भी मुश्किल में उलझ गई, समझ नहीं आ रहा था कि इसे कैसे ठीक करूँ। मैंने सोचा, "अगर मैं इसे ठीक करने की कोशिश करती रही, समय लगाकर इस पर काम करती रही, तो मुझे नहीं पता कि मैं इसे ठीक कर भी पाऊँगी या नहीं, ऐसे में किसी और को यह काम करना चाहिए।" फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं एक बार फिर मुश्किलों से बच निकलने की कोशिश में थी, तो मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की। मुझे परमेश्वर के ये इन वचन याद आए, "जब कोई कर्तव्य तुम्हारे सामने हो, और वह तुम्हें सौंपा गया हो, तो यह मत सोचो कि कठिनाई से कैसे बचा जाए; अगर कोई चीज कठिन है, तो पहले उसे एक तरफ रखकर अनदेखा मत करो। तुम्हें उसका डटकर सामना करना चाहिए। तुम्हें हर समय यह याद रखना चाहिए कि परमेश्वर तुम्हारे साथ है, कि परमेश्वर के साथ होने पर कुछ भी कठिन नहीं है। तुम्हें यह विश्वास होना चाहिए" ("अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन" में 'अपना कर्तव्‍य करते हुए गैरज़िम्‍मेदार और असावधान होने की समस्‍या का समाधान कैसे करें')। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास का मार्ग मिला। हमारे कर्तव्य में चाहे कोई भी समस्या और परेशानी का सामना करना पड़े, हमें परमेश्वर पर भरोसा करके उसे हल करने का तरीका ढूंढना चाहिए। हमें मुश्किलों से बचने या शारीरिक कष्ट के कारण अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। यह परमेश्वर से विश्वासघात और बेईमानी है। इस बात का एहसास होने पर, मैंने खुद से वादा किया कि इस बार मैं परमेश्वर पर भरोसा करके शारीरिक सुख त्याग दूँगी और समस्या को हल करूँगी। फिर मैंने मन को शांत करके उसमें बार-बार संशोधन किया और अंत में ज़रूरी बदलाव कर दिये। इसे देखने के बाद, सभी को लगा कि यह बेहतर है, किसी ने और सुझाव नहीं दिए। इस तरह अभ्यास करने पर, मेरे दिल को सुकून और शांति मिली। मुझे लगा कि अपने कर्तव्य में कीमत चुकाना सचमुच परमेश्वर की आशीष है। परमेश्वर का धन्यवाद!

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

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