जब बीमारी फिर से आए
यांग यी, चीन1998, मैंने अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को स्वीकारा और प्रभु के लौटने का स्वागत किया। परमेश्वर के वचन पढ़कर,...
हम परमेश्वर के प्रकटन के लिए बेसब्र सभी साधकों का स्वागत करते हैं!
मुझे 28 साल की उम्र में एलर्जी वाला दमा हो गया। जब भी यह बढ़ता था, मैं साँस नहीं ले पाती थी, और मेरा दम ऐसा घुटने लगता कि मेरा सिर चकराने लगता था। रात में, मैं लेट भी नहीं पाती थी; मुझे किसी चीज के सहारे सीधे बैठना पड़ता था और मुझे पूरी रात ऐसे ही रहना पड़ता था। उन दिनों, मुझे इलाज के लिए अक्सर अस्पताल में भर्ती होना पड़ता था मेरी बीमारी की पीड़ा ने मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से थका दिया था। मुझे याद है, एक बार मैं बहुत बीमार थी और साँस नहीं ले पा रही थी और दस दिनों से ज्यादा अस्पताल में रहने के बाद भी मेरी हालत में सुधार नहीं हुआ और ड्रिप और ऑक्सीजन लगने पर भी मेरा दम घुट रहा था और मैं पसीने से तर थी। अस्पताल वाले मेरी दशा का इलाज नहीं कर पाए, इसलिए उन्होंने मुझे एक बड़े अस्पताल में भेजने की व्यवस्था की। मेरे घरवाले मुझे स्ट्रेचर पर ले गए और जैसे ही हम अस्पताल के गेट पर पहुँचे, मैं बेहोश हो गई। उस समय, मैंने सोचा कि शायद मेरा अंत आ गया है, लेकिन दस दिनों के आपातकालीन इलाज के बाद, मेरी हालत काबू में आ गई। छुट्टी मिलने के बाद, मैं घर पर स्वास्थ्य लाभ करने लगी। मैं हर दिन सावधानी से जीती थी, डरती थी कि कहीं जरा-सी चूक से मेरी बीमारी फिर से न बढ़ जाए। एक दिन, मैं डॉक्टर के पास गई। डॉक्टर ने कहा : “आपकी बीमारी एक चिकित्सीय चुनौती है। यह अच्छा है कि लक्षणों को नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन इसके ठीक होने की कोई संभावना नहीं है। आपको हमेशा अपने साथ आपातकालीन दवा रखनी चाहिए, क्योंकि अगर इलाज में देरी हुई तो यह जानलेवा हो सकता है।” यह सुनकर मुझे बहुत निराशा हुई। इतनी कम उम्र में मुझे ऐसी बीमारी कैसे हो सकती थी? जब भी मैं उस समय के बारे में सोचती जब मैं गंभीर रूप से बीमार और मौत के करीब थी, मैं डर से काँप जाती थी। अगले दस से ज्यादा सालों तक, मैंने हर जगह इलाज करवाया, लेकिन किसी से भी जड़ से इलाज नहीं हुआ। बीमारी की पीड़ा ने मुझसे जीने की उम्मीद छीन ली थी। 2009 में, मेरी माँ ने मुझे परमेश्वर के अंत के दिनों के सुसमाचार का प्रचार किया। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं समझ गई कि यह मानवता के लिए परमेश्वर के उद्धार के कार्य का अंतिम चरण है। अपने जीवनकाल में परमेश्वर के अंत के दिनों के कार्य को स्वीकार कर पाना एक बहुत बड़ा आशीष था। मैंने सोचा : “जब तक मैं ठीक से अनुसरण करती हूँ, मेरी बीमारी को ठीक करना परमेश्वर के लिए एक छोटी-सी बात होनी चाहिए। शायद मुझे राज्य की सुंदरता देखने को भी मिल जाए!” यह रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसा था—और मुझे जीने की उम्मीद फिर से मिल गई। उसके बाद, मैंने कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे, मुझे लगने लगा कि मेरी बीमारी पहले जितनी गंभीर नहीं रही। हालाँकि यह अभी भी अक्सर बढ़ जाती थी, पर मैं कुछ दवा से उसे सँभाल लेती थी। मैं मन ही मन परमेश्वर को धन्यवाद देती रही और अपने कर्तव्य में और भी अधिक प्रेरित हो गई। एक बार, मैं एक बहन से मिली जो लंबे समय से परमेश्वर में विश्वास करती थी। उसने बताया कि परमेश्वर को पाने से पहले उसे भी मेरी जैसी ही बीमारी थी। परमेश्वर को पाने के बाद, वह कलीसिया में अपना कर्तव्य करती रही और अनजाने में ही वह अपनी बीमारी से ठीक हो गई थी। मैंने मन ही मन सोचा : “परमेश्वर उसे ठीक कर सकता है, तो वह मुझे भी निश्चित रूप से ठीक कर सकता है। बस मैंने अभी तक पर्याप्त कीमत नहीं चुकाई है और मैं योग्य नहीं हूँ। एक बार जब मैं खुद को और ज्यादा खपाऊँगी, तो परमेश्वर मुझे निराश नहीं करेगा।”
बाद में, मैंने पाठ-आधारित कर्तव्य सँभाल लिए। मैंने मन ही मन सोचा : “पाठ-आधारित कर्तव्य कर पाना परमेश्वर का अनुग्रह और ऊँचा उठाना है, इसलिए मुझे इसे पूरे दिल से करना है। शायद परमेश्वर मेरी कीमत चुकाने की इच्छा देखेगा और मेरे दुख को कम कर देगा। परमेश्वर सर्वशक्तिमान है और शायद वह मेरी बीमारी को पूरी तरह से ठीक कर सकता है।” इस मानसिकता के साथ, मैं हर दिन सुबह से लेकर शाम तक काम करती थी और मेरे कर्तव्य के कुछ नतीजे भी मिले। 2017 तक, क्योंकि कुछ दवाएँ लंबे समय तक इस्तेमाल करने पर कम असरदार हो गईं और अधिक प्रभावकारी दवाएँ मेरे लिए बहुत महँगी थीं, इसलिए मैं अपनी बीमारी को नियंत्रण में रखने के लिए केवल हार्मोन वाली दवा पर ही निर्भर रह सकती थी। मैंने मन ही मन सोचा : “इतने सालों में, मैं इस बीमारी से बाधित नहीं हुई और अपने कर्तव्य में बनी रही। शायद परमेश्वर मेरा खपना देखेगा और एक दिन मेरी बीमारी ठीक कर देगा। तब मैं एक सामान्य इंसान की तरह अपना कर्तव्य निभा पाऊँगी। यह कितना अद्भुत होगा!” जैसे ही मैं यह सपना देख रही थी, मेरी बीमारी न केवल ठीक नहीं हुई, बल्कि और भी बदतर हो गई। चूँकि मैं लंबे समय से हार्मोन वाली दवा ले रही थी, इसलिए उसके दुष्प्रभाव दिखने लगे और मेरे शरीर में सूजन आने लगी। मेरी हालत देखकर, पर्यवेक्षक को मजबूरन मेरे इलाज के लिए मुझे घर भेजने की व्यवस्था करनी पड़ी। मैं बेहद नकारात्मक और दुखी महसूस कर रही थी, सोच रही थी : “मेरी बीमारी इतनी गंभीर हो गई है। मुझे यह भी नहीं पता कि मैं कल का दिन देख पाऊँगी या नहीं, भविष्य में परमेश्वर के राज्य के सुंदर दृश्यों की तो बात ही छोड़ दो।” यह सोचते-सोचते, अनजाने में ही मेरी आँखों से आँसू बहने लगे और मैं मन ही मन शिकायत करने लगी : “हे परमेश्वर! इतने सालों तक, मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए आँधी-बारिश का सामना किया है, अनगिनत मुश्किलें सहीं और कीमत चुकाई है। मेरे कर्तव्य के नतीजे भी मिले हैं, तो फिर तुमने मेरी रक्षा क्यों नहीं की? अगर मैं ऐसे ही मर गई, तो क्या मेरा सारा खपना व्यर्थ नहीं हो जाएगा? परमेश्वर, क्या तुम मेरा खुलासा करने और हटाने के लिए इस बीमारी का इस्तेमाल कर रहे हो? अगर मुझे पता होता कि ऐसा होगा, तो मैंने अपनी बीमारी का इलाज करने और अपने शरीर का ध्यान रखने पर ध्यान दिया होता। तब मेरी ऐसी हालत न हुई होती।” मैं जितना इस बारे में सोचती, उतना ही मुझे लगता कि मेरे साथ अन्याय हुआ है। उसके बाद, मैंने न तो परमेश्वर के वचन खाए-पिए और न ही प्रार्थना की। मैं हर दिन सुध-बुध खोई एक चलती-फिरती लाश की तरह जी रही थी। मुझे परमेश्वर से बहुत दूरी महसूस हुई, जैसे उसने मुझे त्याग दिया हो। मैं काफी डर गई थी, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर, मैं जानती हूँ कि मेरी अवस्था गलत है, लेकिन मुझे नहीं पता कि मुझे क्या सबक सीखना चाहिए। कृपया मुझे मेरी समस्या समझने के लिए प्रबुद्ध कर और मेरा मार्गदर्शन कर।”
एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचन पढ़े : “जब लोग परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ करते हैं, तब उनमें से किसके पास अपने लक्ष्य, कारण, और महत्वाकांक्षाएँ नहीं होती हैं? उनका एक भाग भले ही परमेश्वर के अस्तित्व में विश्वास करता है और परमेश्वर के अस्तित्व को देख चुका होता है, फिर भी वे कारण परमेश्वर में उनके विश्वास में अब भी समाए होते हैं, और परमेश्वर में विश्वास करने में उनका अंतिम लक्ष्य उसके आशीष और अपनी मनचाही चीजें प्राप्त करना होता है। लोगों के जीवन अनुभवों में, वे प्रायः मन ही मन सोचते हैं : ‘मैंने परमेश्वर के लिए अपने परिवार और जीविका का त्याग कर दिया है, और उसने मुझे क्या दिया है? मुझे इसमें अवश्य जोड़ना, और इसकी पुष्टि करनी चाहिए—क्या मैंने हाल ही में कोई आशीष प्राप्त किया है? मैंने इस दौरान बहुत कुछ दिया है, मैं बहुत दौड़ा-भागा हूँ, मैंने बहुत अधिक सहा है—क्या परमेश्वर ने बदले में मुझे कोई प्रतिज्ञाएँ दी हैं? क्या उसने मेरे अच्छे कर्म याद रखे हैं? मेरा अंत क्या होगा? क्या मैं परमेश्वर के आशीष प्राप्त कर सकता हूँ? ...’ प्रत्येक व्यक्ति अपने हृदय में निरंतर ऐसा गुणा-भाग करता है, और वे परमेश्वर से ऐसी माँगें करते हैं जिनमें उनकी प्रेरणाएँ, महत्वाकांक्षाएँ और लेन-देन की मानसिकता निहित होती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य अपने हृदय में लगातार परमेश्वर की परीक्षा लेता रहता है और परमेश्वर के बारे में साजिशें रचता रहता है और अपने व्यक्तिगत परिणाम के लिए परमेश्वर के साथ लगातार बहस करता रहता है और परमेश्वर से बयान माँगता है और यह देखने की कोशिश करता है कि परमेश्वर उसे वह दे सकता है या नहीं जो वह चाहता है। परमेश्वर का अनुसरण करने के साथ ही साथ, मनुष्य परमेश्वर को परमेश्वर नहीं मानता। मनुष्य ने परमेश्वर के साथ हमेशा सौदेबाजी करने की कोशिश की है, उससे अनवरत माँगें की हैं, और हर क़दम पर उस पर दबाव डालते हुए, एक इंच दिए जाने पर एक मील लेने की कोशिश भी करते रहे हैं। परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश करते हुए साथ ही साथ, मनुष्य उसके साथ तर्क-वितर्क भी करता है, और यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं जो, जब परीक्षाएँ उन पर पड़ती हैं या जब वे अपने आप को किन्हीं खास स्थितियों में पाते हैं, तो प्रायः कमजोर, नकारात्मक होकर अपने कार्य में ढिलाई करते हैं और परमेश्वर के बारे में शिकायतों से भरे होते हैं। मनुष्य ने जब पहले-पहल परमेश्वर में विश्वास करना आरंभ किया था, उसी समय से मनुष्य ने परमेश्वर को एक अक्षय पात्र, एक सर्व-उपयोगी उपकरण माना है और अपने आपको परमेश्वर का सबसे बड़ा साहूकार माना है, मानो परमेश्वर से आशीष और प्रतिज्ञाएँ प्राप्त करने की कोशिश करना उसका जन्मजात अधिकार और दायित्व है, जबकि मनुष्य की रक्षा, परवाह और उसकी आपूर्ति करना परमेश्वर कि जिम्मेदारियाँ हैं जो परमेश्वर को पूरी करनी चाहिए। ऐसी है ‘परमेश्वर में विश्वास’ की मूलभूत समझ, उन सब लोगों की जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और ऐसी है परमेश्वर में विश्वास की अवधारणा की उनकी गहनतम समझ” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। “परमेश्वर के साथ मनुष्य का संबंध केवल नग्न स्वार्थ पर आधारित है। यह आशीष लेने वाले और देने वाले के मध्य का संबंध है। स्पष्ट रूप से कहें तो यह एक कर्मचारी और एक नियोक्ता के मध्य का संबंध है। कर्मचारी केवल नियोक्ता द्वारा दिए जाने वाले प्रतिफल प्राप्त करने के लिए कठिन परिश्रम करता है। इस प्रकार के हित-आधारित संबंध में कोई आत्मीय स्नेह नहीं होता, केवल एक लेन-देन होता है। प्रेम करने या प्रेम पाने जैसी कोई बात नहीं होती, केवल दान और दया होती है। कोई समझ नहीं होती, केवल असहाय दबा हुआ आक्रोश और धोखा होता है। कोई अंतरंगता नहीं होती, केवल एक अगम खाई होती है। अब जबकि चीजें इस बिंदु तक आ गई हैं तो ऐसी राह को कौन उलट सकता है? और कितने लोग इस बात को वास्तव में समझने में सक्षम हैं कि यह संबंध कितना गंभीर बन चुका है? मेरा मानना है कि जब लोग आशीष प्राप्त होने के आनंद में निमग्न हो जाते हैं तो कोई यह कल्पना नहीं कर सकता कि परमेश्वर के साथ ऐसा संबंध कितना अटपटा और भद्दा है” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 3 : मनुष्य को केवल परमेश्वर के प्रबंधन के बीच ही बचाया जा सकता है)। परमेश्वर ने जो उजागर किया वह मेरी असली अवस्था थी। ऐसा लगा जैसे मेरा दिल भेद दिया गया हो, मैं परेशान, शर्मिंदा और अपमानित थी। परमेश्वर में विश्वास करने के इन सालों में, ऊपर से तो बीमारी से पीड़ित होने पर भी, मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए सुबह जल्दी उठती और देर रात तक काम करती थी और भले ही मैं परमेश्वर के प्रति समर्पित, उसके इरादों के प्रति विचारशील और उसे संतुष्ट करने की कोशिश करती हुई दिखती थी, मेरा असली इरादा अपने खपने और उपलब्धियों को पूँजी के रूप में इस्तेमाल करके परमेश्वर से अपनी बीमारी ठीक करवाना था। मैंने इन चीजों को उद्धार सुनिश्चित करने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए सौदेबाजी का जरिया समझा। मैंने जो कुछ भी किया वह अपने आशीषों और लाभों के लिए था और मैं परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश कर रही थी। मैं सचमुच परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर रही थी। मेरी बीमारी लाइलाज थी, और सालों के दर्द और पीड़ा ने मुझसे जीने की इच्छा छीन ली थी, लेकिन मेरे दर्द और निराशा में, परमेश्वर का सुसमाचार मेरे पास आया। परमेश्वर का अधिकार और सामर्थ्य देखकर, मैंने अपनी आशा उस पर रखी। खासकर जब मैंने एक बहन को परमेश्वर को पाने के बाद ठीक होते देखा, तो मैंने सोचा कि जब तक मैं अपने कर्तव्य में दुख सहने को तैयार हूँ, परमेश्वर मुझे निराश नहीं करेगा। मेरा मानना था कि वह न केवल मेरी बीमारी को ठीक करेगा बल्कि मुझे अनंत जीवन का आनंद लेने के लिए अपने राज्य में भी ले जाएगा। इसलिए, कलीसिया ने मेरे लिए जो भी कर्तव्य तय किया, मैंने उसे स्वीकार किया और समर्पण किया और मैंने अपनी बीमारी को सँभालने के लिए दवा ली और अपने कर्तव्य में कभी देरी नहीं की। लेकिन जब मेरी बीमारी सुधरने के बजाय और बिगड़ गई यहाँ तक कि मौत का खतरा भी सामने आ गया, मैं तुरंत परमेश्वर के खिलाफ हो गई, मुझे लगा कि परमेश्वर मेरे प्रति अधार्मिक हो रहा है। मैं एक नकारात्मक अवस्था में जी रही थी, परमेश्वर के बारे में शिकायत कर उसे गलत समझ रही थी। मैंने न तो परमेश्वर के वचन पढ़े और न ही प्रार्थना की और मुझे अपने पिछले खपने पर भी पछतावा हुआ। परमेश्वर के वचनों के खुलासे के प्रकाश में खुद को देखते हुए, मुझे एहसास हुआ कि परमेश्वर के साथ मेरा रिश्ता निपट स्वार्थ का था, जैसे एक कर्मचारी और एक नियोक्ता का होता है। मेरी मेहनत और बलिदान सब परमेश्वर से लाभ पाने के लिए थे और मैं परमेश्वर का इस्तेमाल कर रही थी और उसे धोखा दे रही थी। मैंने कभी सचमुच परमेश्वर को परमेश्वर नहीं माना। मैंने अपनी 20 साल की उम्र में हुई गंभीर बीमारी के बारे में सोचा और मैं जानती थी कि परमेश्वर की सुरक्षा के बिना, मैं बहुत पहले मर चुकी होती। मैं और कैसे जीती रह सकती थी? यह परमेश्वर ही था जिसने मुझे दूसरा जीवन दिया और मुझे इस मुकाम तक जीने दिया था। लेकिन आभारी होने के बजाय, मैंने अपने खपने का इस्तेमाल परमेश्वर से आशीष और अनुग्रह माँगने के लिए किया। मुझमें सचमुच मानवता की कमी थी और मैं परमेश्वर के उद्धार के लायक नहीं थी। मैंने पौलुस के बारे में सोचा। हालाँकि उसने मेहनत की और बलिदान दिया, उसने ऐसा परमेश्वर को संतुष्ट करने के लिए नहीं बल्कि आशीष और मुकुट पाने के लिए किया था। अंत में, अपने विद्रोहीपन में, उसने कहा, “मैं अच्छी कुश्ती लड़ चुका हूँ, मैं ने अपनी दौड़ पूरी कर ली है, मैं ने विश्वास की रखवाली की है। भविष्य में मेरे लिये धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है” (2 तीमुथियुस 4:7-8)। उसने परमेश्वर के स्वभाव का अपमान किया। अगर मैं पश्चात्ताप न करती और न बदलती और परमेश्वर से आशीष और अनुग्रह की माँग करती रहती, तो अंततः पौलुस की तरह परमेश्वर द्वारा ठुकरा दी जाती और हटा दी जाती। यह एहसास होने पर, मुझे और भी अधिक पछतावा हुआ और मुझे खुद से नफरत हुई कि मैंने बिना सत्य का अनुसरण किए इतने सालों तक परमेश्वर में विश्वास किया। मैं आशीषों का अनुसरण करने के गलत रास्ते पर चली गई थी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर, तुझ पर विश्वास करने के इन सभी सालों में, मैंने तेरे प्रति कोई प्रेम नहीं दिखाया है और न ही तेरा प्रतिदान करने की कोशिश की है। मैंने हमेशा केवल तेरा इस्तेमाल करने की कोशिश की है। मुझमें मानवता नाम की कोई चीज ही नहीं रही! परमेश्वर, मैं चाहती हूँ कि अपने गलत इरादे के खिलाफ विद्रोह करूँ और तुझसे सौदेबाजी न करूँ।”
उसके बाद, दवा और इन्हेलर उपचार के माध्यम से, मेरी बीमारी अपेक्षाकृत अच्छी तरह से नियंत्रित हो गई। अप्रैल 2022 में, मैंने अपने पाठ-आधारित कर्तव्य फिर से शुरू कर दिए। मैंने इस अवसर को संजोया। इस दौरान, मैंने अपना कर्तव्य अपनी पूरी क्षमता और पूरे दिल से निभाया और मेरे कर्तव्य के परिणाम काफी अच्छे थे। पलक झपकते ही, सितंबर 2023 आ गया और मेरा दमा अचानक बढ़ गया। दवा और इंजेक्शन बेअसर साबित हुए और मेरे पास इलाज के लिए प्रांतीय अस्पताल जाने के अलावा कोई चारा नहीं था। बहुत मुश्किल के बाद, मेरी हालत आखिरकार स्थिर हो गई। लेकिन जल्द ही, मेरा दमा फिर से बढ़ गया। मैं केवल साँस अंदर ले सकती थी, बाहर नहीं छोड़ सकती थी, जिससे मुझे चक्कर और सिर घूमने जैसा महसूस हो रहा था और मुझे लगा कि मेरी जान जाने का खतरा लगातार बना हुआ है। मेरे पास ठीक होने के लिए घर लौटने के अलावा कोई चारा नहीं था। घर जाने के विचार ने मुझे बेहद हतोत्साहित और निराश कर दिया और मैं रोए बिना नहीं रह सकी। मैंने मन ही मन सोचा : “मैंने अपने कर्तव्य में इतनी मेहनत की है, इतना दुख सहा है और एक बड़ी कीमत चुकाई है, तो मेरी बीमारी ही क्यों बद से बदतर होती जा रही है? परमेश्वर मेरे कर्तव्य करने की तत्परता पर विचार क्यों नहीं करता और मेरी रक्षा करके मुझे ठीक क्यों नहीं करता? क्या परमेश्वर मेरा दिल नहीं देखता?” मैं जितना इस बारे में सोचती, उतना ही मुझे लगता कि मेरे साथ अन्याय हुआ है और मेरा मानना था कि परमेश्वर मेरे प्रति अधार्मिक है। मुझे भविष्य को लेकर पूरी तरह से निराशा महसूस हुई। न केवल मेरी बीमारी के ठीक होने की संभावना नहीं थी, बल्कि मुझे लगा कि उद्धार पाने और राज्य में प्रवेश करने की मेरी उम्मीदें और भी कम हो गई हैं। उस समय, एक बहन ने मेरी अवस्था के आधार पर मेरे लिए परमेश्वर के वचनों का एक अंश ढूँढ़ा : “जब परमेश्वर किसी को छोटी या बड़ी बीमारी देने की व्यवस्था करता है, तो ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य तुम्हें बीमार होने के पूरे विवरण, बीमारी से तुम्हें होने वाली हानि, बीमारी से तुम्हें होने वाली असुविधाओं और मुश्किलों और तुम्हारे मन में उठने वाली विभिन्न भावनाओं को समझने देना नहीं है—उसका प्रयोजन यह नहीं है कि तुम बीमार होकर ही बीमारी का एहसास करो। इसके बजाय उसका प्रयोजन यह है कि बीमारी से तुम सबक सीखो, सीखो कि परमेश्वर के इरादों को कैसे पकड़ें, अपने द्वारा प्रकट भ्रष्ट स्वभावों और बीमार होने पर परमेश्वर के प्रति अपनाए गए अपने गलत रवैयों को जानो और सीखो कि परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति कैसे समर्पित हों, ताकि तुम परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण प्राप्त कर सको और अपनी गवाही में अडिग रह सको—यह बिल्कुल अहम है। परमेश्वर बीमारी के जरिए तुम्हें बचाना और स्वच्छ करना चाहता है। वह तुम्हारी किस चीज को स्वच्छ करना चाहता है? वह परमेश्वर से तुम्हारी तमाम अत्यधिक आकांक्षाओं और माँगों, और यहाँ तक कि हर कीमत पर जीवित रहने और जीने की तुम्हारे अलग-अलग हिसाबों, फैसलों और योजनाओं को स्वच्छ करना चाहता है। परमेश्वर तुमसे नहीं कहता कि योजनाएँ बनाओ, वह तुमसे नहीं कहता कि न्याय करो, और उससे अत्यधिक आकांक्षाएँ रखो; उसकी बस इतनी अपेक्षा होती है कि तुम उसके प्रति समर्पित रहो, और समर्पण करने के अपने अभ्यास और अनुभव में, तुम बीमारी के प्रति अपने रवैये को जान लो, और उसके द्वारा तुम्हें दी गई शारीरिक स्थितियों के प्रति अपने रवैये को और साथ ही अपनी निजी कामनाओं को जान लो। जब तुम इन चीजों को जान लेते हो, तब तुम समझ सकते हो कि तुम्हारे लिए यह कितना फायदेमंद है कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए बीमारी की परिस्थितियों की व्यवस्था की है, या उसने तुम्हें ये शारीरिक दशाएँ दी हैं; और तुम समझ सकते हो कि तुम्हारा स्वभाव बदलने, तुम्हारे उद्धार हासिल करने, और तुम्हारे जीवन-प्रवेश में ये कितनी मददगार हैं। इसीलिए जब बीमारी दस्तक देती है, तो तुम्हें हमेशा यह नहीं सोचना चाहिए कि उससे कैसे बच निकलें, दूर भाग जाएँ या उसे ठुकरा दें। ... तुम यह नहीं कह सकते, ‘अगर इस बीमारी से मैं ठीक हो गया, तो मैं विश्वास कर लूँगा कि यह परमेश्वर की महान सामर्थ्य है, लेकिन अगर मैं ठीक नहीं हो पाया, तो परमेश्वर से प्रसन्न नहीं होऊँगा। परमेश्वर ने मुझे यह बीमारी क्यों दी? वह यह बीमारी ठीक क्यों नहीं करता? यह बीमारी मुझे ही क्यों हुई, किसी और को क्यों नहीं? मुझे यह नहीं चाहिए! इतनी छोटी उम्र में, इतनी जल्दी मेरी मृत्यु क्यों होनी चाहिए? दूसरे लोगों को कैसे जीते रहने का मौका मिलता है? क्यों?’ मत पूछो क्यों, यह परमेश्वर का आयोजन है। कोई कारण नहीं है, और तुम्हें नहीं पूछना चाहिए कि क्यों। सवाल उठाना विद्रोहपूर्ण बात है, और यह प्रश्न किसी सृजित प्राणी को नहीं पूछना चाहिए। मत पूछो क्यों, क्यों का प्रश्न ही नहीं है। परमेश्वर ने इस तरह चीजों की व्यवस्था की है, चीजों को यूँ नियोजित किया है। अगर तुम पूछोगे क्यों, तो फिर केवल यही कहा जा सकता है कि तुम बहुत ज्यादा विद्रोही हो, बहुत हठी हो। जब तुम किसी बात से असंतुष्ट होते हो, या परमेश्वर तुम्हारे चाहे अनुसार नहीं करता, या तुम्हें अपनी मनमानी नहीं करने देता, तो तुम नाखुश हो जाते हो, नाराज हो जाते हो, और हमेशा पूछते हो क्यों। तो परमेश्वर तुमसे पूछता है, ‘एक सृजित प्राणी के रूप में तुमने अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से क्यों नहीं निभाया? तुमने वफादारी से अपना कर्तव्य क्यों नहीं निभाया?’ फिर तुम उसका क्या जवाब दोगे? तुम कहते हो, ‘क्यों का प्रश्न नहीं है। मैं बस ऐसा ही हूँ।’ क्या यह स्वीकार्य है? (नहीं।) परमेश्वर के लिए तुमसे इस तरह बात करना स्वीकार्य है, मगर तुम्हारा परमेश्वर से इस तरह बात करना स्वीकार्य नहीं है। तुम गलत स्थान पर खड़े हो, तुम बेहद नासमझ हो” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में, सत्य का अनुसरण कैसे करें (3))। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मुझे परमेश्वर के इरादे की कुछ समझ मिली। परमेश्वर नहीं चाहता था कि मैं अपनी बीमारी में जीऊँ और बीमार होने की बारीकियों में ही उलझी रहूँ, न ही वह चाहता था कि मैं चिंता के साथ अपनी बीमारी से बचने की कोशिश करूँ। बीमारी का इलाज किया जा सकता है, लेकिन क्या यह ठीक हो सकती है या क्या यह मेरे जीवन के लिए खतरा बनेगी, यह इंसानों के बस में नहीं है। यह सब परमेश्वर की संप्रभुता और पूर्वनियति के अधीन है। मुझे जो करना था वह था परमेश्वर की संप्रभुता और आयोजनों के प्रति समर्पण करना, इस बात पर विचार करना कि मैंने अपनी बीमारी में कौन से भ्रष्ट स्वभाव और गलत विचार प्रकट किए और इन चीजों को हल करने के लिए सत्य खोजना। यह विवेक का वह भाव था जो मुझमें होना चाहिए था। मैंने सोचा कि कैसे अपनी बीमारी में मुझमें परमेश्वर के प्रति कोई समर्पण नहीं था। जब मेरी हालत बिगड़ गई और मैं अपने कर्तव्य नहीं कर सकी, या जब मेरी जान को भी खतरा था, मैंने सत्य नहीं खोजा, बल्कि शिकायत की। मैंने परमेश्वर से शिकायत की कि उसने मेरे दुख और खपने पर विचार नहीं किया और मेरी रक्षा नहीं की और मेरा मानना था कि परमेश्वर अधार्मिक है। भले ही पिछले अनुभवों के माध्यम से मुझे परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की अपनी गलत मानसिकता की कुछ समझ मिली थी, पर कोई सच्चा बदलाव नहीं आया। परमेश्वर मेरी कमियों और खामियों को जानता था और मेरी बीमारी के बार-बार होने के माध्यम से, उसने उस पर विश्वास करने के मेरे घिनौने इरादों को फिर से उजागर किया। तभी मुझे एहसास हुआ कि आशीष पाने के मेरे इरादे कितने गहरे थे। मेरी बीमारी के बार-बार होने में परमेश्वर का अच्छा इरादा था और यह मेरी भ्रष्टता और अशुद्धियों को शुद्ध करने के लिए हुआ था। लेकिन मैंने परमेश्वर के कार्य को नहीं समझा और शिकायत की कि परमेश्वर अधार्मिक है। मैंने परमेश्वर को गलत समझा, यह सोचते हुए कि वह मेरी बीमारी के माध्यम से मुझे हटाने का इरादा रखता है और मैंने देखा कि इतने सालों की आस्था के बाद भी, मैं अभी भी परमेश्वर को बिल्कुल नहीं जानती थी। मैं सचमुच दरिद्र, दयनीय और अंधी थी! अब मैं समझ गई कि हालाँकि सतह पर मैंने इस बीमारी से बहुत दुख उठाया, लेकिन इसके पीछे परमेश्वर का श्रमसाध्य इरादा था, यह मेरे लिए परमेश्वर का उद्धार था और यह इसलिए था ताकि मैं अपनी बीमारी में आत्मचिंतन करूँ और खुद को जानूँ। अगर ऐसा न होता, तो मैं अपने अनुसरण के पीछे की गलत परिप्रेक्ष्य के साथ ही चलती रहती और मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं से और दूर होती जाती और अंततः ऐसे रास्ते पर चली जाती जहाँ से वापसी न होती। यह एहसास होने पर, मेरा दिल रोशन हो गया और मैंने फिर परमेश्वर से शिकायत नहीं की या उसे गलत नहीं समझा।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों के बारे में सोचा : “धार्मिकता किसी भी तरह से निष्पक्षता या तर्कसंगतता नहीं है; यह समतावाद नहीं है, या तुम्हारे काम के लिए वह देना नहीं है जिसके तुम लायक हो, या तुमने जो भी काम किया हो उसके बदले भुगतान करने, या तुम्हारे किए प्रयास के अनुसार तुम्हारा देय चुकाने का मामला नहीं है। यह धार्मिकता नहीं है, यह केवल निष्पक्ष और विवेकपूर्ण होना है। बहुत कम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को जान पाते हैं। मान लो कि अय्यूब द्वारा उसके लिए गवाही देने के बाद परमेश्वर अय्यूब का विनाश कर देता : क्या यह धार्मिक होता? वास्तव में, यह धार्मिक होता। इसे धार्मिकता क्यों कहा जाता है? लोग धार्मिकता को कैसे देखते हैं? अगर कोई चीज लोगों की धारणाओं के अनुरूप होती है, तब उनके लिए यह कहना बहुत आसान हो जाता है कि परमेश्वर धार्मिक है; परंतु, अगर वे किसी चीज को अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं पाते—अगर यह कुछ ऐसा है जिसे वे समझ नहीं पाते—तो उनके लिए यह कहना मुश्किल होगा कि परमेश्वर धार्मिक है। अगर परमेश्वर ने पहले तभी अय्यूब को नष्ट कर दिया होता, तो लोग यह नहीं कहते कि वह धार्मिक है। वास्तव में, चाहे लोग भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, वे बुरी तरह से भ्रष्ट कर दिए गए हों या नहीं, उन्हें नष्ट करते समय क्या परमेश्वर को इसका औचित्य सिद्ध करना पड़ता है? क्या उसे लोगों को समझाना चाहिए कि वह ऐसा किस आधार पर करता है? क्या परमेश्वर को लोगों को बताना चाहिए कि उसने कौन से कानून बनाए हैं? इसकी आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर की नजरों में, जो व्यक्ति भ्रष्ट है, और जो परमेश्वर का प्रतिरोध कर सकता है वह बेकार है; परमेश्वर चाहे जैसे भी उससे निपटे, वह उचित ही होगा, और यह सब परमेश्वर की व्यवस्थाओं के अनुसार है। अगर तुम लोग परमेश्वर की निगाहों में अप्रिय होते, और अगर वह कहता कि तुम्हारी गवाही के बाद तुम उसके किसी काम के नहीं हो और इसलिए उसने तुम लोगों को नष्ट कर दिया होता, तो क्या यह उसकी धार्मिकता होती? हाँ, यह भी होती। तुम इसे तथ्यों के दृष्टिकोण से इस समय भले न समझ सको, लेकिन तुम्हें इसे धर्म-सिद्धांत में समझना ही चाहिए। तुम लोग क्या कहोगे—परमेश्वर द्वारा शैतान का विनाश क्या उसकी धार्मिकता की अभिव्यक्ति है? (हाँ।) अगर वह शैतान को बने रहने दे तो? तुम यह कहने का दुस्साहस नहीं करते, है ना? परमेश्वर का सार धार्मिकता है। हालाँकि वह जो करता है उसे समझना आसान नहीं है, तब भी वह जो कुछ भी करता है वह सब धार्मिक है; बात सिर्फ इतनी है कि लोग समझते नहीं हैं। जब परमेश्वर ने पतरस को शैतान के सुपुर्द कर दिया था, तब पतरस की प्रतिक्रिया क्या थी? ‘तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्हारे अच्छे इरादे शामिल हैं; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्भव है कि मैं तुम्हारी बुद्धि और कर्मों की सराहना न करूँ?’ अब तुम्हें यह देखना चाहिए कि मनुष्य के उद्धार के समय परमेश्वर द्वारा शैतान को नष्ट न किए जाने का कारण यह है कि मनुष्य स्पष्ट रूप से देख सकें कि शैतान ने उन्हें कैसे और किस हद तक भ्रष्ट किया है, और परमेश्वर कैसे उन्हें शुद्ध करके बचाता है। अंततः, जब लोग सत्य समझ लेंगे और शैतान का भयंकर चेहरा स्पष्ट रूप से देख लेंगे, और शैतान द्वारा उन्हें भ्रष्ट किए जाने का महापाप देख लेंगे, तो परमेश्वर उन्हें अपनी धार्मिकता दिखाते हुए शैतान को नष्ट कर देगा। शैतान के विनाश के समय में परमेश्वर का स्वभाव और बुद्धि निहित है। वह सब जो परमेश्वर करता है धार्मिक है। भले ही लोग यह समझ न पाएँ, तब भी उन्हें मनमाने ढंग से आलोचना नहीं करनी चाहिए। अगर मनुष्यों को उसका कोई कृत्य अतर्कसंगत प्रतीत होता है, या उसके बारे में उनकी कोई धारणाएँ हैं, और फिर वे कहते हैं कि वह धार्मिक नहीं है, तो वे सर्वाधिक विवेकहीन साबित हो रहे हैं” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, भाग तीन)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने देखा कि मैं परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को नहीं समझी थी। मैंने परमेश्वर की धार्मिकता को वह निष्पक्षता और तर्कसंगतता माना था जिसे भ्रष्ट मानवता समझती है। मैंने सोचा कि चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास करती थी, कीमत चुकाई थी और खुद को खपाया था, इसलिए परमेश्वर को मेरी बीमारी ठीक करनी चाहिए और मुझे अनुग्रह और आशीष देना चाहिए। जब चीजें मेरी धारणाओं के अनुरूप होती थीं, तो मैं परमेश्वर को धार्मिक मानती थी, लेकिन जब परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया और चीजें मेरी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुरूप नहीं हुईं, तो मैंने सोचा कि परमेश्वर अधार्मिक है। मैंने परमेश्वर की धार्मिकता को पूरी तरह से इस बात पर मापा कि मुझे आशीष और लाभ मिलते हैं या नहीं, जो सत्य के पूरी तरह से असंगत है। ये विचार सचमुच विकृत थे! वास्तव में, परमेश्वर को पाने के बाद कोई कितना भी त्याग करे या खपे, कितना भी दुख सहे या कितनी भी बड़ी कीमत चुकाए, यह सब वही है जो एक सृजित प्राणी को करना चाहिए। जहाँ तक इसकी बात है कि परमेश्वर लोगों से कैसे पेश आता है—चाहे वह अनुग्रह और आशीष दे, या शरीर की बीमारी को ठीक करे—यह परमेश्वर का अधिकार है और भ्रष्ट मानवता को यह माँग करने का कोई अधिकार नहीं है कि परमेश्वर यह करे या वह करे। लोगों को जो करना चाहिए वह है स्वीकार और समर्पण करना, क्योंकि यही वह विवेक है जो उनमें होना चाहिए। लेकिन मैंने खुद को सही मानकर अपने खपने के कारण परमेश्वर से मुझे ठीक करने की माँग की। क्या मैं परमेश्वर से वसूली करने की कोशिश नहीं कर रही थी? यह विचार कि परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, मैंने बलिदान दिया और खुद को खपाया और इसलिए परमेश्वर को सुनिश्चित करना था कि मेरे लिए सब कुछ सुचारू रूप से हो और उसे मेरी बीमारी ठीक करनी थी और अगर उसने ऐसा नहीं किया तो वह अधार्मिक था—क्या यह सिर्फ मेरी अपनी धारणाएँ नहीं थीं? अगर परमेश्वर मुझे ठीक करता है, तो यह उसकी धार्मिकता है और अगर वह मुझे ठीक नहीं करता है, तो यह भी उसकी धार्मिकता है। चाहे मेरी बीमारी कितनी भी गंभीर हो जाए, भले ही परमेश्वर मुझे मरने दे, यह परमेश्वर की धार्मिकता है। मुझे परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को व्यक्तिगत हितों के नजरिए से नहीं, बल्कि उसके सार के नजरिए से देखना था। परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और उसका सार धार्मिकता है। हमारे साथ जैसा व्यवहार होता है, हम उसी के लायक हैं और यही धार्मिक है। मैंने सोचा कि कैसे परमेश्वर ने पतरस को शैतान के हवाले कर दिया था। पतरस परमेश्वर के बारे में शिकायत किए या उसे गलत समझे बिना स्वीकार कर सका और उसने यह भी कहा, “तुम जो भी करते हो उसकी थाह तो मनुष्य नहीं पा सकता, लेकिन तुम जो भी करते हो उस सब में तुम्हारे अच्छे इरादे शामिल हैं; उस सब में धार्मिकता है। यह कैसे सम्भव है कि मैं तुम्हारी बुद्धि और कर्मों की सराहना न करूँ?” मैं तो बस एक छोटी-सी सृजित प्राणी हूँ और परमेश्वर मेरे साथ जो कुछ भी करता है, वह उचित है। चाहे वह मुझे ठीक करे या न करे, चाहे वह मुझे एक अच्छा परिणाम या मंज़िल दे या न दे, मुझे स्वीकार करना और समर्पण करना चाहिए, क्योंकि यह मानवता और समझ से युक्त होने को दर्शाता है। यह एहसास होने पर, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर, मैं पहले तेरे धार्मिक स्वभाव को नहीं समझती थी और मैंने इसे अपनी धारणाओं और कल्पनाओं से मापा। अब मैं समझ गई हूँ कि तू जो कुछ भी करता है वह धार्मिक है। भले ही मेरी बीमारी ठीक न हो और मैं मर जाऊँ, तू फिर भी धार्मिक है और मैं फिर भी तेरा धन्यवाद और तेरी स्तुति करूँगी!”
बाद में, मैंने परमेश्वर के और वचन पढ़े : “अय्यूब ने परमेश्वर से किन्हीं लेन-देनों की बात नहीं की, और परमेश्वर से कोई याचनाएँ या माँगें नहीं कीं। उसका परमेश्वर के नाम की स्तुति करना भी सभी चीज़ों पर शासन करने की परमेश्वर की महान सामर्थ्य और अधिकार के कारण था, और वह इस पर निर्भर नहीं था कि उसे आशीषें प्राप्त हुईं या उस पर आपदा टूटी। वह मानता था कि परमेश्वर लोगों को चाहे आशीष दे या उन पर आपदा लाए, परमेश्वर की सामर्थ्य और उसका अधिकार नहीं बदलेगा, और इस प्रकार, व्यक्ति की परिस्थितियाँ चाहे जो हों, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। मनुष्य को धन्य किया जाता है तो परमेश्वर की संप्रभुता के कारण किया जाता है, और इसलिए जब मनुष्य पर आपदा टूटती है, तो वह भी परमेश्वर की संप्रभुता के कारण ही टूटती है। परमेश्वर की सामर्थ्य और अधिकार मनुष्य से संबंधित सब कुछ पर शासन करते हैं और उसे व्यवस्थित करते हैं; मनुष्य के भाग्य के उतार-चढ़ाव परमेश्वर की सामर्थ्य और उसके अधिकार की अभिव्यंजना हैं, और तुम इसे चाहे जिस दृष्टिकोण से देखो, परमेश्वर के नाम की स्तुति की जानी चाहिए। यही वह है जो अय्यूब ने अपने जीवन के वर्षों के दौरान अनुभव किया था और जानने लगा था। अय्यूब के सभी विचार और कार्यकलाप परमेश्वर के कानों तक पहुँचे थे, और परमेश्वर के सामने आए थे, और परमेश्वर द्वारा महत्वपूर्ण माने गए थे। परमेश्वर ने अय्यूब के इस ज्ञान को सँजोया, और ऐसा हृदय होने के लिए अय्यूब को सँजोया। यह हृदय सदैव, और सर्वत्र, परमेश्वर के आदेश की प्रतीक्षा करता था, और समय या स्थान चाहे जो हो, उस पर जो कुछ भी टूटता उसका स्वागत करता था। अय्यूब ने परमेश्वर से कोई माँगें नहीं कीं। उसने स्वयं अपने से जो माँगा वह यह था कि परमेश्वर से आई सभी व्यवस्थाओं की प्रतीक्षा करे, इन्हें स्वीकार करे, इनका सामना करे और इनके प्रति समर्पण करे; अय्यूब इसे अपना कर्तव्य मानता था, और यह ठीक वही था जो परमेश्वर चाहता था” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर II)। परमेश्वर के वचन पढ़ने के बाद, मेरा दिल रोशन हो गया और मुझे अभ्यास का मार्ग मिल गया। अय्यूब ने परमेश्वर के साथ सौदेबाजी करने की कोशिश किए बिना उस पर विश्वास किया और चाहे उसे आशीष मिली या विपत्तियाँ झेलनी पड़ीं, वह परमेश्वर की स्तुति करने में सक्षम था। ऐसा इसलिए था क्योंकि उसने सभी चीजों से और अपने अनुभवों से परमेश्वर के अधिकार को पहचाना और वह जानता था कि यह परमेश्वर की महान सामर्थ्य थी जो हर चीज की व्यवस्था कर रही थी और उस पर संप्रभुता से शासन कर रही थी। चाहे किसी व्यक्ति को अंततः आशीष मिले या दुख झेलना पड़े, उसे बिना शर्त सृष्टिकर्ता की संप्रभुता और आयोजन के प्रति समर्पण करना चाहिए। अय्यूब में मानवता और विवेक था; उसने परमेश्वर से कुछ भी करने के लिए नहीं कहा। इसके बजाय, उसने खुद से अपेक्षा की कि वह हमेशा इंतजार करे और परमेश्वर से आने वाली हर चीज को स्वीकार करे और उसके प्रति समर्पण करे। अय्यूब ईमानदार, दयालु था और परमेश्वर में सच्ची आस्था रखता था; अंततः, वह परीक्षणों के दौरान अपनी गवाही में दृढ़ रहा और उसे परमेश्वर की स्वीकृति मिली। मैं भी अय्यूब का अनुकरण करना चाहती थी और चाहे मेरी बीमारी में सुधार हो या न हो, या मेरा परिणाम कुछ भी हो, मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण करूँगी और खुद से चुनाव नहीं करूँगी। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर, अतीत में मैं सत्य को नहीं समझती थी। मैं हमेशा इस बात को लेकर परेशान रहती थी कि मेरी बीमारी ठीक होगी या नहीं या मेरा कोई अच्छा परिणाम या मंज़िल होगी या नहीं और मैं बहुत दुख में जीती थी। आज, मैं खुद को तेरे हाथों में सौंपने को तैयार हूँ और चाहे मुझे आशीष मिले या दुख झेलना पड़े, मैं तेरी संप्रभुता और आयोजनों के प्रति समर्पण करूँगी।” जब मेरा नजरिया कुछ बदला, तो मुझे बहुत सहजता और मुक्ति का एहसास हुआ। बाद में, मैंने अपने स्वास्थ्य लाभ के लिए एक पारंपरिक चीनी घरेलू उपचार आजमाया और अप्रत्याशित रूप से, मेरी हालत सचमुच नियंत्रण में आ गई और मैं सामान्य रूप से अपने कर्तव्य निभा सकी। इस अनुभव के माध्यम से, मुझे एहसास हुआ कि बीमारी के माध्यम से प्रकट हुए बिना, मैं आशीषों का अनुसरण करने के अपने घिनौने इरादों को नहीं पहचान सकती थी। भले ही मैंने अपनी बीमारी के कारण कुछ शारीरिक दर्द सहा, मैंने अपने अनुसरण के पीछे के अपने भ्रामक दृष्टिकोणों की कुछ समझ हासिल की और मैंने कुछ बदलाव का अनुभव किया। यह मेरे लिए परमेश्वर का प्रेम और उद्धार था! परमेश्वर का धन्यवाद!
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?
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