15. झूठ के बाद
सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं, "तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है। मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अत: उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं। ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और परमेश्वर से लाभ उठाने मात्र के लिए काम न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। प्रभु यीशु ने यह भी कहा, "मैं तुम से सच कहता हूँ कि जब तक तुम न फिरो और बालकों के समान न बनो, तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने नहीं पाओगे" (मत्ती 18:3)। परमेश्वर के वचनों से हम देख सकते हैं कि वह निष्ठावान है, वह ईमानदार को पसंद करता है और कपटी से घृणा करता है, सिर्फ ईमानदार इंसान ही बचाए जा सकते हैं और स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हैं। इसीलिए परमेश्वर बारम्बार यह अपेक्षा करते हैं कि हम ईमानदार हों, हम अपने झूठ बोलने और छल-कपट की मंशाओं को छोड़ दें। मगर असल ज़िंदगी में, जब कभी किसी चीज़ ने मेरे नाम और आन-बान को आंच पहुंचाई है, मैं झूठ बोलने और छल-कपट करने से खुद को रोक नहीं पायी। परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रकाशन के बिना, उसकी ताड़ना और अनुशासन के बिना, मैं कभी भी सच्चाई से पश्चाताप नहीं कर पाती, झूठ से दूर नहीं रह पाती, और एक ईमानदार इंसान की तरह सत्य का अभ्यास नहीं कर पाती।
कई साल पहले, मैं एक कलीसिया अगुआ का कर्तव्य निभा रहा थी। एक दिन मेरे अगुआ ने मुझे एक सह-कर्मी सभा में भाग लेने को कहा। मुझे बड़ी खुशी हुई थी। मैंने सोचा कि मैंने हाल के दिनों में हर रोज़ सभाएं और संगति करते हुए, कलीसिया में कितनी मेहनत की है, और ज़्यादातर भाई-बहन भी अपने काम-काज में सक्रियता से जुटे रहते थे। कुछ समूहों ने बहुत तरक्की की थी, तो मैंने सोचा कि यह सभा मुझे सबकी नज़र में आने का अवश्य मौक़ा देगी। मैं अगुआ और सह-कर्मियों को दिखा पाऊंगी कि मैं कितनी सक्षम हूँ, और मैं बाकी लोगों से बेहतर हूँ। जब मैं पहुंची, तो मैंने देखा कि बहन ल्यू के चेहरे पर परेशानी की लकीरें खिंची हुई थीं, और उन्होंने आह भरते हुए कहा, "भाई-बहनों की मदद और सिंचन का आपका काम कैसा चल रहा है? हमें तो बहुत मुश्किल हो रही है। मुझमें शायद सत्य की वास्तविकता की कमी है। ऐसे बहुत-से मसले हैं जिनको मैं सुलझा नहीं पा रही हूँ।" मैंने मुस्करा कर कहा, "हमारी कलीसिया में सिंचन का काम बखूबी चल रहा है, पहले से बहुत बेहतर।" उसी वक्त अगुआ आ गए और कलीसियाओं में सिंचन के काम के बारे में पूछने लगे। मैंने सोचा मुझे अपनी खूबी दिखाने का मौक़ा मिला है, तो शानदार प्रस्तुति करनी चाहिए। हैरानी की बात थी कि उन्होंने हमसे सिंचन के काम में हमारी सफलताओं के बारे में पूछा ही नहीं, बल्कि पूछा कि कैसी दिक्कतें पेश आयीं, उन्हें सत्य के बारे में संगति करके कैसे सुलझाया गया, और कौन-सी ऐसी दिक्कतें थीं जो सुलझायी नहीं जा सकीं। मैं बुरी तरह घबरा गयी। सामान्य रूप से, मैंने सिर्फ काम को संगठित किया था, और पूरा ब्योरा जानती ही नहीं थी, इसलिए मैंने वास्तविक सिंचन का कोई काम किया ही नहीं था। मुझे समझ नहीं आया क्या करूं। अगुआ जब मुझसे सवाल करें तो क्या कहूं? यदि मैं सत्य बताऊँ तो क्या वे सोचेंगी कि मैं व्यवहारिक काम नहीं कर रही हूँ? मैं बहन ल्यू के आगे बस डींग मार रही थी, यह कह कर कि मेरी जिम्मेदारी का काम बढ़िया चल रहा है। यदि मैं विस्तार से उत्तर नहीं दे पायी तो क्या वे कहेंगी कि मैं बिना कुछ किये डींग हांक रही थी? मैं क्या करूं? मैं और ज़्यादा चिंतित हो गयी। उसी वक्त, भाई झोउ ने अपनी कलीसिया में सिंचन के काम में उठे कुछ मसलों, और अपने काम के दौरान उजागर हुई भ्रष्टता के बारे में चर्चा की। फिर उन्होंने समझाया कि इन मसलों को सुलझाने के लिए उन्होंने सत्य की मदद कैसे ली। उन्होंने इस बात को बहुत ही व्यवहारिक, और विस्तृत रूप से समझाया जिसने हमें अभ्यास का मार्ग दिखाया। उनकी सहभागिता को सुनने के बाद मुझे वाकई शर्मिंदगी का एहसास हुआ। यह जानते हुए कि मैंने कोई भी व्यवहारिक काम नहीं किया था, मैंने अपना सर झुका लिया और मेरा चेहरा तपने लगा। तब अगुआ ने मुझसे बोलने को कहा। पल भर को मेरे दिल की धड़कन थम गयी। मैं क्या बोलूँ? मेरे पास विस्तार से साझा करने को कुछ था ही नहीं, और सिर्फ संक्षिप्त विवरण देने से उजागर होगा कि मैं व्यवहारिक काम नहीं कर रही। मैंने सच बताया तो लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? मुझे लगा कि मैं बेबाक नहीं हो सकती। तो मैंने बस इतना ही कहा, "मेरी हालत बहुत-कुछ भाई झोउ जैसी ही है। इसको दोहराने की ज़रूरत नहीं है।" अगुआ ने सुना और कुछ नहीं कहा, फिर उन्होंने परमेश्वर के वचनों को पढ़ कर सभा शुरू की। उस सभा में, मुझे लगा कि मैंने किसी की कोई चीज़ चुरा ली है। मैं वाकई घबराई हुई थी, उस दिन को लेकर डरी हुई जब मेरी अगुआ मेरे काम की जांच या पर्यवेक्षण करेंगी, ताड़ लेंगी कि मेरा अभ्यास भाई झोउ जैसा नहीं है, और व्यवहारिक काम न करने, झूठ बोलने और धोखा देने के कारण मुझे मेरे काम से निकाल देंगी। मेरी व्यग्रता बढ़ गयी पर तब भी मैं सच बोलने का साहस नहीं जुटा पायी। मैंने मन ही मन संकल्प किया, "मुझे आज की इस बेईमानी की भरपाई करने के लिए बिल्कुल भाई झोउ की तरह काम करना है।"
जब मैं कलीसिया में वापस आयी, तो लौटते ही छोटे पादरियों और समूह अगुआओं से मिली, उनसे रूबरू विस्तार से संगति की, और उन्हें तुरंत काम में लगाया। फिर मैं बाइक सवारी कर बहन ल्यू के घर गयी। मैंने उन्हें भाई झोउ के मार्ग के बारे में विस्तार से बताया, और उनसे यह सिंचन के काम में लगे अन्य भाई-बहनों से साझा करने को कहा। तीन दिन बस यूं ही गुज़र गए और मैं अपनी मेहनत का फल पानेके लिए खुशी-खुशी इंतज़ार कर रही थी। ताज्जुब हुआ जब उन्होंने मुझे बताया कि अपने सिंचन के काम में उन्हें बहुत-सी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है, जिनमें से कुछ को वे सुलझा नहीं पाए, और नए लोग सीसीपी और धार्मिक पादरियों की झूठी बातों के लपेटे में आ गए, क्योंकि समय पर उनका सिंचन नहीं हुआ, और इसलिए वे अब सभाओं में आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं। मेरा दिमाग़ चकरा रहा था। ऐसा कैसे हो सकता था? मैं फ़ौरन बहन ल्यू के घर गयी और जैसे ही उन्होंने मुझे देखा, बेचैनी से कहा, "अब हम अपने सिंचन के काम की इन समस्याओं को लेकर क्या करें? मैं सचमुच कुछ नहीं जानती।" मुझे कुछ समझ नहीं आया क्या कहूं। मैंने संगति के जरिये उन्हें विशेष रूप से निर्देश दिए थे और अपनी संगति में मैंने बहुत विस्तार से बताया था, फिर भी वे समझ नहीं पायीं। मुझे हैरत हुई कि इन लोगों के साथ क्या गड़बड़ है। मैंने इतने स्पष्ट रूप से संगति की थी, फिर भी वे समझ नहीं पाए। मेरा काम ठीक से नहीं किया गया तो अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेंगी? इस बारे में मैं जितना ज़्यादा सोचती उतना ही ज़्यादा निराश और उदास महसूस करती। उस रात नींद गायब थी, मैं बिस्तर पर करवटें बदलती रही, पूरी तरह ऊर्जाहीन महसूस कर रही थी। आखिरकार मैं परमेश्वर के सामने प्रार्थना करने आ पहुँची : "हे परमेश्वर, इन कुछ दिनों में मैंने अपने कर्तव्य में इतनी कड़ी मेहनत की है, मगर मैं कुछ भी हासिल नहीं कर पायी। मुझे आपके मार्गदर्शन का अनुभव नहीं हो रहा, और मैं अंधकार में जी रही हूँ। हे परमेश्वर, क्या मैं आपकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम कर रही हूँ, जो आपके असंतोष और घृणा को जगा रहा है? मुझे प्रबुद्ध करें ताकि मैं अपनी स्थिति के बारे में जान सकूं।"
फिर मैंने परमेश्वर के इन प्रकटनपूर्ण वचनों को पढ़ा : "क्या तुम्हारे लक्ष्य और इरादे मुझे ध्यान में रखकर बनाए गए हैं? क्या तुम्हारे शब्द और कार्य मेरी उपस्थिति में कहे और किए गए हैं? मैं तुम्हारी सभी सोच और विचारों की जाँच करता हूँ। क्या तुम दोषी महसूस नहीं करते? तुम दूसरों को झूठा चेहरा दिखाते हो और शांति से आत्म-धार्मिकता का दिखावा करते हो; तुम यह अपने बचाव के लिए करते हो। तुम यह अपनी बुराई छुपाने के लिए करते हो, और किसी दूसरे पर उस बुराई को थोपने के तरीके भी सोचते हो। तुम्हारे दिल में कितना विश्वासघात भरा हुआ है!" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 13)। "लोगों के सामने एक तरह से और उनकी पीठ पीछे दूसरी तरह से काम न करो; तुम जो कुछ भी करते हो, उसे मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ, तुम दूसरों को भले ही मूर्ख बना लो, लेकिन तुम मुझे मूर्ख नहीं बना सकते। मैं यह सब स्पष्ट रूप से देखता हूँ। तुम्हारे लिए कुछ भी छिपाना संभव नहीं है; सबकुछ मेरे हाथों में है। अपनी क्षुद्र और छोटी-छोटी गणनाओं को अपने फायदे के लिए कर पाने के कारण खुद को बहुत चालाक मत समझो। मैं तुमसे कहता हूँ : इंसान चाहे जितनी योजनाएँ बना ले, हजारों या लाखों, लेकिन अंत में मेरी पहुँच से बच नहीं सकता। सभी चीज़ें और घटनाएं मेरे हाथों से ही नियंत्रित होती हैं, एक इंसान की तो बिसात ही क्या! मुझसे बचने या छिपने की कोशिश मत करो, फुसलाने या छिपाने की कोशिश मत करो। क्या ऐसा हो सकता है कि तुम अभी भी नहीं देख सकते कि मेरा महिमामय मुख, मेरा क्रोध और मेरा न्याय सार्वजनिक रूप से प्रकट किये गए हैं? मैं तत्काल और निर्ममता से उन सभी का न्याय करूँगा जो मुझे निष्ठापूर्वक नहीं चाहते। मेरी सहानुभूति समाप्त हो गई है; अब और शेष नहीं रही। अब और पाखंडी मत बनो, और अपने असभ्य एवं लापरवाह चाल-चलन को रोक लो" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 44)। इन वचनों को पढ़ने के बाद मैंने आत्मचिंतन किया। मैं छोटे पादरियों और समूह अगुआओं के साथ बड़ी हड़बड़ी में सभाएं आयोजित कर संगति कर रही थी, मगर ये सब किसलिए था? क्या मैं ये सब वाकई कलीसिया के काम के लिए, अपने भाई-बहनों के जीवन के लिए कर रही थी? क्या मैं ये सब उनकी व्यवहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए कर रही थी? फिर मैंने सोचा कि उस अमुक सभा में मैंने किस तरह झूठ बोला था। जब अगुआ ने सिंचन के काम के बारे में पूछा, तब मैं जानती थी कि मैंने कोई व्यवहारिक काम नहीं किया है, मगर मैं कपटी थी, ताकि मैं मूर्ख न लगूं, ताकि लोग मेरी असलियत न जान लें या मुझे नीची नज़र से न देखें। मैं अपने काम की कमियों को पाटने के लिए तेज़ी से लौट आयी थी, ताकि अगुआ ये न जान पायें कि मैंने झूठ बोला है। तब मैंने यह महसूस किया कि मैंने सिर्फ अपने झूठ को बनाए रखने के लिए कड़ी मेहनत की थी, इस सच को छिपाने के लिए कि मैंने व्यवहारिक काम नहीं किया है, और मेरे अपने नाम और आन-बान को बचाने के लिए। मैंने भाई-बहनों की असल दिक्कतों को सही तरह से समझने और सत्य पर संगति करके उनके मसलों को सुलझाने के बजाय सिर्फ भाई झोउ द्वारा संगति में बताये गए मार्ग का इस्तेमाल किया था। मैं उस घृणित मंशा को दिल में छुपाये अपने कर्तव्य को लेकर लापरवाह थी। यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कैसे हो सकता है? परमेश्वर की दृष्टि हमारे हृदय के अंतरतम में होती है, तो इस तरह उनसे छल करने, उन्हें धोखा देने, मूर्ख बनाने के मेरे इन प्रयासों से वे कैसे असंतुष्ट न होते? मैं जिस अंधकार में गिर गयी थी वह परमेश्वर द्वारा मेरी ताड़ना और मुझे अनुशासित करने का कार्य था। इस एहसास के बाद मुझमें एक डर-सा पैदा हो गया और मैंने सत्य के अभ्यास के बारे में और अगली सभा में खुल कर कहने के बारे में सोचा। लेकिन मुझे यह सोच कर थोड़ी चिंता हुई, कि मैंने क्योंकर इतना बड़ा झूठ बोला था। यदि मैंने इसे स्वीकार कर लिया तो बाकी लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? क्या वे कहेंगे कि मैं धूर्त हूँ?
तब मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश पढ़ा। "जब तुम कोई झूठ बोलते हो, तो उसी क्षण तुम्हारा सम्मान नहीं घट जाता, लेकिन तुम अपने हृदय में अनुभव करते हो कि तुम्हारी साख पूरी तरह गिर चुकी है, और तुम्हारा अन्त:करण तुम पर कपटी होने का आरोप लगाएगा। तुम अपने अन्तरतम की गहराई में स्वयं से घृणा करने लगोगे और खुद को तुच्छ समझोगे, और सोचोगे, 'मैं ऐसा दयनीय जीवन क्यों जी रहा हूँ? क्या सत्य बोलना सचमुच इतना मुश्किल है? क्या मुझे महज़ अपनी प्रतिष्ठा की ख़ातिर ये झूठ बोलने चाहिए? जीवन मेरे लिए इस क़दर उबा देने वाला क्यों है?' तुम्हें उबाऊ जीवन जीना ज़रूरी नहीं है, लेकिन तुमने सरलता और स्वतन्त्रता का मार्ग नहीं चुना है। तुमने अपनी प्रतिष्ठा और अपने दम्भ को बचाये रखने का का मार्ग चुना है, इसलिए जीवन तुम्हारे लिए बहुत थका देने वाला है। झूठ बोल कर तुम किस तरह की ख्याति हासिल करते हो? ख्याति एक खोखली चीज़ है, और उसकी क़ीमत दस सेण्ट भी नहीं होती। झूठ बोल कर तुम अपना ईमान और आत्म-सम्मान बेच देते हो। इन झूठों की वजह से तुम अपनी गरिमा खो देते हो और परमेश्वर के समक्ष तुम्हारा कोई ईमान नहीं रह जाता। परमेश्वर इससे आनन्दित नहीं होता और वह इससे नफ़रत करता है। तब इसका क्या महत्व है? क्या यह मार्ग सही है? नहीं, यह सही नहीं है, और इस मार्ग पर चलते हुए तुम प्रकाश में नहीं रहते हो। जब तुम प्रकाश में नहीं रह रहे होते हो, तो तुम क्लान्त महसूस करते हो। तुम हमेशा झूठ बोलते रहते हो और उन झूठों को इस तरह दिखाने की कोशिश करते हो कि वे सत्य का आभास दें, अपने दिमाग़ पर मूर्खतापूर्ण बातें सोचने के लिए ज़ोर डालते रहते हो, और इस तरह खुद को तब तक दुखी बनाते रहते हो जब तक कि तुम अन्तत: यह नहीं सोचने लगते कि 'मुझे अब और झूठ नहीं बोलना चाहिए। मैं चुप रहूँगा और कम-से-कम बात करूँगा।' लेकिन यह तुम्हारे वश में नहीं रह जाता। ऐसा क्यों है? चूँकि तुम अपनी प्रतिष्ठा और ख्याति जैसी चीज़ों को तज नहीं सकते, इसलिए तुम उन्हें झूठ के सहारे थामे रखते हो। तुम्हें लगता है कि झूठ का उपयोग कर तुम इन चीज़ों को थामे रख सकते हो, लेकिन दरअसल तुम ऐसा कर नहीं सकते। तुम्हारे असत्य न केवल तुम्हारी सत्यनिष्ठा और गरिमा को बनाये रखने में सफल नहीं हुए, बल्कि, इससे भी ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि तुमने सत्य को अमल में लाने का अवसर भी गँवा दिया है। अगर तुमने अपनी ख्याति और प्रतिष्ठा को बचा भी लिया है, तब भी तुमने सत्य को तो गँवा ही दिया है; तुमने इसे अमल में लाने का अवसर, साथ ही एक ईमानदार व्यक्ति होने का अवसर भी गँवा दिया है। यह सबसे बड़ी क्षति है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'ईमानदार होकर ही कोई सच्ची मानव सदृशता जी सकता है')। परमेश्वर का प्रत्येक वचन सीधे मेरे हृदय में उतर गया। झूठ बोलने के बाद मैंने अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखी थी, पर मुझे लेशमात्र भी खुशी नहीं महसूस हो रही थी। बल्कि मुझे अपने किये पर बुरा लग रहा था, मैं बेचैन थी। कभी-कभी बोलते समय मैं लोगों से नज़रें नहीं मिला पा रही थी, इस डर से कि वे मेरा कपट समझ जायेंगे और आगे कभी मुझ पर विश्वास नहीं करेंगे। मैंने अपना झूठ छिपाने के लिए, इसे विश्वसनीय बनाने के लिए कई हथकंडे अपनाए। यह जीने का एक कठिन और थका देने वाला तरीका था, और मुझे ज़रा-सी भी राहत नहीं मिली। मैंने झूठ बोला था, छल-कपट किया था, मैं एक घृणित और अभद्र जीवन जी रही थी। स्वयं को और अधिक न छिपाने की इच्छा से, मैंने परमेश्वर के समक्ष अपने पाप को स्वीकार कर प्रायश्चित करने के लिए प्रार्थना की और यह संकल्प किया कि मैं अपनी देह को भूल जाऊंगी और अगली बार भाई-बहनों के सामने आने पर खुल कर अपनी बात कहूंगी।
कुछ दिनों बाद अगुआ हम लोगों के साथ एक सभा में भाग लेने आयीं और मुझे लगा परमेश्वर मुझे सत्य का अभ्यास करने का एक मौक़ा दे रहे हैं। मैंने प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं अपना झूठ और कपट उजागर करना चाहती हूँ। मुझे सत्य का अभ्यास करने की दृढ़ता प्रदान करें।" जब मैं पहुंची तो मालूम हुआ कि वे हम कलीसिया अगुआओं में से एक कार्य-संगी चुनने के लिए आयी थीं। मेरे अंदर एक संघर्ष शुरू हो गया : हम कलीसिया अगुआओं में से, मेरी योग्यता और उपलब्धियां बाकी लोगों से बेहतर थीं, तो शायद उन्होंने मुझे पहले ही एक उपयुक्त उम्मीदवार समझ लिया हो। लेकिन अगर मैं सच बोलकर अपने झूठ को प्रकट कर दूं, तो वे मेरे बारे में ख़राब राय तो नहीं बना लेंगी? क्या वे मुझे बड़ा धूर्त समझ कर छोड़ देंगी? यदि किसी दूसरे को चुन लिया गया तो फिर मैं अपनी शक्ल दोबारा कैसे दिखा पाऊंगी? मुझे लगा मैं इस बारे में नहीं बता सकती। मैं सिर झुकाए सोच में डूबी थी कि अगुआ ने मुझसे हाल के मेरे अनुभव साझा करने को कहा। लड़खड़ाते शब्दों में मैंने यूं ही लीपापोती कर दी। "मेरी स्थिति ठीक है। मुश्किलों के समय, मैं परमेश्वर से प्रार्थना करना जानती हूँ और उनसे छुटकारे के लिए सत्य को खोजती हूँ।" यह कहने के बाद, मैंने महसूस किया कि मैंने एक शर्मनाक काम किया है और मैं व्यग्रता से भर गयी। मैं पसीने से सराबोर हो गयी। मुझे पसीना पोंछते देख कर, अगुआ ने मुझे एक प्याली गर्म पानी दिया और स्नेहपूर्वक पूछा कि क्या मुझे ज़ुकाम हुआ है। मैंने कहा, "न जाने क्यों मैं बेचैनी-सी महसूस कर रही हूँ और पसीना रुक नहीं रहा।" दरअसल, मैं अच्छी तरह जानती थी कि यह मेरे फिर से झूठ बोलने और सत्य का अभ्यास न करने के कारण था। मैंने परमेश्वर से एक मौन प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैंने सत्य का अभ्यास करने से इनकार कर धृष्टता से बार-बार झूठ बोला है। मैं बेहद अकड़ू, बहुत विद्रोही हूँ। मेरा मार्गदर्शन करें ताकि मैं सत्य का अभ्यास करूं और एक ईमानदार इंसान बनूँ।"
बहन ल्यू ने तब सुझाव दिया कि हम परमेश्वर के वचनों का एक भजन गायें। "ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और परमेश्वर से लाभ उठाने मात्र के लिए काम न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना। यदि तुम्हारी बातें बहानों और महत्वहीन तर्कों से भरी हैं, तो मैं कहता हूँ कि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अभ्यास करने से घृणा करता है। यदि तुम्हारे पास ऐसी बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे। यदि सत्य का मार्ग खोजने से तुम्हें प्रसन्नता मिलती है, तो तुम सदैव प्रकाश में रहने वाले व्यक्ति हो"("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर उन्हें आशीष देता है जो ईमानदार हैं')। भजन गाते वक्त मैंने बेचैनी और शर्मिंदगी महसूस की। मैंने सभा से पहले प्रार्थना की थी क्योंकि मैं अपने झूठ बोलने और छल-कपट करने को लेकर खुल जाना चाहती थी, लेकिन जब मैंने देखा कि अगुआ अपने साथ काम करने के लिए किसी को चुन रही हैं, तो मैं कोई खुलासा नहीं करना चाहती थी। मुझे इस बात का डर था कि अगुआ और सह-कर्मी जान जायेंगे कि मैंने व्यवहारिक काम नहीं किया है और झूठ तक बोला है, वे कहेंगे कि मैं बहुत धूर्त हूँ और मुझे उस पद के लिए नहीं चुनेंगे। तब मैं अगुआ बनने का अपना मौक़ा खो दूंगी। मैं इतनी मक्कार हो गयी थी! परमेश्वर सब-कुछ देखते हैं। मैं दूसरे लोगों को मूर्ख बना सकती हूँ, लेकिन परमेश्वर को धोखा नहीं दे सकती। ये वचन वाकई उत्कृष्ट हैं : "यदि तुम्हारे पास ऐसी बहुत-से गुप्त भेद हैं जिन्हें तुम साझा नहीं करना चाहते, और यदि तुम प्रकाश के मार्ग की खोज करने के लिए दूसरों के सामने अपने राज़ और अपनी कठिनाइयाँ उजागर करने के विरुद्ध हो, तो मैं कहता हूँ कि तुम्हें आसानी से उद्धार प्राप्त नहीं होगा और तुम सरलता से अंधकार से बाहर नहीं निकल पाओगे।" मैं और अधिक बेचैनी महसूस करने लगी। क्या जैसा कि परमेश्वर ने कहा, मैं अपनी अनेक गोपनीय बातों को छिपाने वाली इंसान नहीं हूँ? मैं अच्छी तरह से जानती थी कि मैं सिंचन के काम को विस्तार से नहीं जानती थी, लेकिन जब अगुआ ने मुझसे उस बारे में पूछा, तो मैंने इधर-उधर की बातें बनाईं और जान-बूझ कर झूठ बोला, और जब मैं कलीसिया में वापस आयी तो मैंने दूसरों के सामने अपनी भ्रष्टता और अपने काम की खामियों का खुलासा करने के लिए खुल कर कुछ नहीं कहा। इसके बजाय मैंने अपना झूठ छिपाने की कोशिश की और अपना काम करने का दिखावा कर उनको जारी रखा। यह मेरा कर्तव्य निभाना कैसे हुआ? यह सब मेरे नाम और आन-बान की रक्षा के लिए था। मैं परमेश्वर को मूर्ख बनाने और लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रही थी। और फिर एक बार, इस नए पद को जीतने के लिए, मैं धृष्टता से अपने शपथ से मुकर गयी और इस तरह परमेश्वर और इंसान दोनों को धोखा दिया। मैं बार-बार, झूठ बोल रही थी और छल कर रही थी। तब परमेश्वर के ये वचन मुझे याद आये : "परन्तु तुम्हारी बात 'हाँ' की 'हाँ,' या 'नहीं' की 'नहीं' हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है" (मत्ती 5:37)। "तुम अपने पिता शैतान से हो और अपने पिता की लालसाओं को पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से हत्यारा है और सत्य पर स्थिर न रहा, क्योंकि सत्य उसमें है ही नहीं। जब वह झूठ बोलता, तो अपने स्वभाव ही से बोलता है; क्योंकि वह झूठा है वरन् झूठ का पिता है" (यूहन्ना 8:44)। मैं अच्छी तरह से जान गयी थी कि परमेश्वर ईमानदार इंसानों को पसंद करते हैं, लेकिन मैंने झूठ बोला था और बार-बार अपने झूठ को छिपाया था, परमेश्वर और अपने भाई-बहनों को धोखा देने की कोशिश की थी। मैं शैतान से किसी भी तरह से भिन्न कैसे थी? क्या मुझमें ज़रा-सी भी इंसानियत थी? यदि मैंने प्रायश्चित करके स्वयं को नहीं बदला, तो मैं जानती थी कि मैं भी शैतान जैसे ही अंत की भागी बनूंगी। इस विचार ने मुझे भयभीत कर दिया, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और मैंने अपनी ही प्रतिष्ठा को छिन्न-भिन्न करने का साहस जुटा लिया। मैंने अपने झूठ बोलने, लीपापोती करने और अपनी घृणित छल-कपट से भरी मंशाओं का विस्तार से खुलासा कर दिया, कुछ भी नहीं छोड़ा। कुछ भी न छिपाने के बाद लगा जैसे मेरे कंधों से बहुत बड़ा बोझ उतर गया है और मैंने अचानक काफी सुकून महसूस किया। मैंने आज़ाद महसूस किया और अपने दिल में सुकून।
भाई-बहनों ने मेरा तिरस्कार नहीं किया और अगुआ ने मुझे परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ कर सुनाया। "जब लोग छल-कपट में संलग्न होते हैं, तब इससे किस तरह के प्रयोजन सामने आते हैं? वे किस तरह के स्वभाव को प्रकट करते हैं? वे क्यों इस तरह के स्वभाव को अभिव्यक्त कर पाते हैं? इसकी जड़ क्या है? जड़ यह है कि लोग अपने स्वार्थों को बाक़ी सब चीज़ों से ज़्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं। वे अपना स्वार्थ साधने के लिए छल-कपट में संलग्न होते हैं, और इससे उनके कपटपूर्ण स्वभाव प्रकट हो जाते हैं। इस समस्या का समाधान कैसे किया जाना चाहिए? सबसे पहले तुम्हें अपने स्वार्थों को तजना अनिवार्य है। लोगों को उनके स्वार्थों को त्यागने के लिए तैयार करना सबसे मुश्किल काम है। ज़्यादातर लोग मुनाफ़े के सिवा और कुछ नहीं चाहते; लोगों के स्वार्थ ही उनके जीवन हैं, और उन्हें उन चीज़ों को त्यागने के लिए तैयार करना उनको जीवन त्याग देने को बाध्य करने के बराबर है। तब तुम्हें क्या करना चाहिए? जिन स्वार्थों से तुम प्रेम करते हो तुम्हें उनसे छुटकारा पाना, उनको तज देना, और उनसे अलग हो जाने की पीड़ा को भोगना और सहना सीखना अनिवार्य है। एक बार जब तुम यह पीड़ा सह लोगे और अपने कुछ स्वार्थों को तज दोगे, तुम थोड़ी-सी राहत और कुछ मुक्ति का अनुभव करने लगोगे, और इस तरह तुम अपने शरीर पर विजय प्राप्त कर लोगे। लेकिन, अगर तुम अपने स्वार्थों से चिपके रहते हो और यह कहते हुए उन्हें छोड़ने में विफल रहते हो कि 'मैंने छल-कपट किया है, तो क्या हुआ? परमेश्वर ने तो मुझे सज़ा नहीं दी, फिर लोग मेरा क्या बिगाड़ सकते हैं? मैं कुछ भी नहीं त्यागूँगा!' जब तुम कुछ भी नहीं त्यागते, तो इससे किसी का कोई नुकसान नहीं होता; ये तो तुम हो जो अन्तत: घाटे में होते हो। जब तुम स्वयं अपने भ्रष्ट स्वभाव को पहचान लेते हो, तो यह, वस्तुत:, तुम्हारे लिए ही प्रवेश करने, प्रगति करने, और बदलने का सुअवसर होता है; यह तुम्हारे लिए परमेश्वर के समक्ष उपस्थित होने का और उसके परीक्षण और उसके न्याय और उसकी ताड़ना को स्वीकार करने का सुअवसर होता है। यही नहीं बल्कि यह तुम्हारे लिए उद्धार हासिल करने का भी सुअवसर होता है। अगर तुम सत्य की खोज करना बन्द कर देते हो, तो यह उद्धार हासिल करने और न्याय तथा ताड़ना को स्वीकार करने का अवसर गँवा देने के बराबर है। यदि तुम्हें लाभ चाहिए, सत्य नहीं, यदि तुमने सत्य का ही चयन किया है, तो अंत में तुम्हें लाभ ही मिलेगा, हालाँकि तुम सत्य का त्याग कर चुके होगे। मुझे बताइये : यह लाभ है या हानि? लाभ शाश्वत नहीं होता। रुतबा, आत्म-सम्मान, धन, कोई भी भौतिक चीज़—सब क्षणभंगुर हैं। जब तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव से इस तत्व को समाप्त कर देते हो, सत्य के इस पहलू को हासिल करके उद्धार प्राप्त कर लेते हो, तो तुम परमेश्वर के सामने मूल्यवान हो जाते हो। इसके अलावा, लोगों द्वारा प्राप्त सत्य शाश्वत होता है; शैतान उनसे यह सत्य छीन नहीं सकता, न ही कोई और उनसे यह छीन सकता है। तुमने अपने हितों का त्याग कर दिया, लेकिन तुमने सत्य और उद्धार प्राप्त कर लिया; ये तुम्हारे अपने परिणाम हैं। इन्हें तुमने अपने लिए प्राप्त किया है। अगर लोग सत्य पर अमल करने का चुनाव करते हैं, तो वे अपने स्वार्थों को गँवा देने के बावजूद परमेश्वर का उद्धार और शाश्वत जीवन हासिल कर रहे होते हैं। वे सबसे ज़्यादा बुद्धिमान लोग हैं। अगर लोग सत्य की क़ीमत पर लाभान्वित होते हैं, तो वे जीवन और परमेश्वर के उद्धार को गँवा देते हैं; वे सबसे ज़्यादा बेवकूफ़ लोग हैं। जहाँ तक इसका सवाल है कि कोई व्यक्ति अन्तत: क्या चुनेगा—स्वार्थ या सत्य—यह व्यक्ति को सबसे ज़्यादा उजागर करने वाली चीज़ है। जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं वे सत्य को चुनेंगे; वे परमेश्वर के समक्ष समर्पण का चुनाव करेंगे, और उसका अनुसरण करेंगे। वे अपने निजी हितों को त्याग देना पसन्द करेंगे। उन्हें कितना ही दुख क्यों न झेलना पड़े, वे परमेश्वर को सन्तुष्ट करने की ख़ातिर उसकी गवाही देने के संकल्प पर अडिग बने रहते हैं। यह सत्य पर अमल करने और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने का मूलभूत रास्ता है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपने स्वभाव का ज्ञान उसमें बदलाव की बुनियाद है')। इन वचनों को सुन कर मेरा दिल प्रकाशमान हो गया। मैंने आत्मचिंतन किया कि मैंने किस तरह बार-बार झूठ बोला और धोखा दिया था मुख्य रूप से इसलिए क्योंकि मैं नाम और आन-बान की बड़ी परवाह करती थी, और मैं कपटी स्वभाव की थी। छोटी उम्र से मेरी शिक्षा-दीक्षा शैतान द्वारा हुई थी और मैंने उसके बहुत-से विषों को समाहित कर लिया था जैसे "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "जैसे एक पेड़ अपनी छाल के लिए जीता है, उसी तरह एक मनुष्य अपनी इज्ज़त के लिए जीता है।" "एक झूठ को यदि दस हजार बार दोहराया जाए तो वह सत्य बन जाता है," "बिना झूठ बोले कोई बड़ा काम नहीं किया जा सकता," "आप बोलने से पहले सोचें और फिर आत्मसंयम के साथ बात करें" आदि-आदि। ये शैतानी फलसफे जीवन के मेरे विधि-विधान बन गए थे। मैं स्वार्थी, धोखेबाज़, और नकली बन कर उनके बूते पर जी रही थी। मैं हमेशा सिर्फ अपने हितों की ही बात सोचती थी और यह सब पाने के लिए मैंने झूठ बोले और छल-कपट किये। हालांकि मैं दोषी महसूस करती थी और झूठ बोलने के बाद खुद को धिक्कारती थी और मैं परमेश्वर के सामने प्रायश्चित कर दूसरों के सामने खुल कर बताना चाहती थी, परन्तु उपहास और शर्मिंदगी के डर से मैं अपने-आपको छिपाती रहती थी और एक मुखौटा पहने रहती थी। मैं अपनी धूर्त मंशाओं और कपटपूर्ण बर्ताव का खुलासा करने के लिए खुलकर सामने आने की इच्छुक नहीं थी। मैं ख़ास तौर से अपना मुखौटा उतार कर ईमानदार रहने की हिम्मत नहीं रखती थी, यह सोच कर कि जिस पल मैं सत्य बता दूंगी, लोग मेरा असली रूप देख लेंगे, और वे लोग मेरा सम्मान नहीं करेंगे। मैं अँधेरे और पीड़ा में संघर्ष करने को सत्य का अभ्यास करने और ईमानदार होने से ज़्यादा तरजीह देती थी। मैंने जाना कि मैं शैतान द्वारा कितनी गहराई से भ्रष्ट की जा चुकी हूँ! परमेश्वर द्वारा इस प्रकार मुझे उजागर किये बिना, उसके न्याय और उसके वचनों के प्रकाशन के बिना, मैं कभी नहीं समझ पाती कि मैं कितनी धूर्त प्रकृति की हूँ, और मैं सत्य का अभ्यास करने और अपनी असलियत उजागर करने को प्रेरित नहीं हुई होती। तब मैंने समझा कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना मेरी रक्षा और बचाव के लिए हैं, और मैंने महसूस किया कि सत्य का अनुसरण करना और ईमानदार रहने का अभ्यास करना कितना महत्वपूर्ण है।
उस वक्त से मैंने सत्य बोलने का अभ्यास करने और एक ईमानदार इंसान बने रहने पर अपने मन को स्थिर कर लिया। कुछ समय बाद, मैंने देखा कि एक अगुआ जो हमारी सभाओं में शामिल होती थीं वे कभी-कभार अहंकारी और दंभी हो जाती थीं और दूसरों के सुझावों को आसानी से स्वीकार नहीं कर पाती थीं। मैंने कई बार उनसे ये बात कहनी चाही, परन्तु मैंने सोचा, "अगर वे मेरा कहा मान लेंगी, तो सब-कुछ ठीक और अच्छा होगा, लेकिन अगर नहीं मानीं, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगी?" मैंने प्रतीक्षा कर देखने का फैसला किया। एक दिन उन्होंने मुझसे पूछा, "बहन, अब हम कुछ समय से एक-दूसरे को जानती हैं। यदि आपको मुझमें कुछ समस्याएँ नज़र आती हों तो प्लीज़ मुझे बताएं। इससे मुझे मदद मिलेगी।" मैंने उनकी ओर देखा और बस कहने ही वाली थी, "मैंने ऐसा कुछ नहीं देखा। आप बहुत अच्छी हैं।" परन्तु मैंने महसूस किया कि यह कपटपूर्ण होगा, इसलिए मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और खुद को उसकी जांच स्वीकार करने को तैयार किया। मैं निरंतर झूठ बोलती, धोखा देती और परमेश्वर के असंतोष को उकसाती नहीं रह सकती थी। इसलिए मैंने खुल कर उन्हें उनकी समस्या बता दी। उन्होंने ध्यान से सुना, फिर फ़ौरन सिर हिलाया और कहा, "परमेश्वर का धन्यवाद! यदि आप मुझे यह न बतातीं तो मैं कभी नहीं जान पाती। मुझे वाकई आत्मचिंतन करने और इसे समझने की ज़रूरत है।" उनको इसे स्वीकार करते देख मुझे बहुत खुशी हुई। मेरे भीतर शांति और सुकून की एक अविश्वसनीय भावना का संचार हुआ और मैंने वाकई महसूस किया कि सत्य का अभ्यास करना और एक ईमानदार इंसान बनना कितना अद्भुत होता है!