35. शोहरत और दौलत के पीछे भागने के दिन

ली मिन, स्पेन

"अपने जीवन में, यदि मनुष्य शुद्ध होकर अपने स्वभाव में परिवर्तन लाना चाहता है, यदि वह एक सार्थक जीवन बिताना चाहता है, और एक प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाना चाहता है, तो उसे परमेश्वर की ताड़ना और न्याय को स्वीकार करना चाहिए, और उसे परमेश्वर के अनुशासन और प्रहार को अपने-आपसे दूर नहीं होने देना चाहिए, ताकि वह खुद को शैतान की चालाकी और प्रभाव से मुक्त कर सके, और परमेश्वर के प्रकाश में जीवन बिता सके। यह जान लो कि परमेश्वर की ताड़ना और न्याय प्रकाश है, मनुष्य के उद्धार का प्रकाश है, और मनुष्य के लिए इससे बेहतर कोई आशीष, अनुग्रह या सुरक्षा नहीं है"("मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ" में 'परमेश्वर की ताड़ना और न्याय है मनुष्य की मुक्ति का प्रकाश')। परमेश्वर के वचनों के इस भजन ने मुझे भावुक कर दिया। मैं शैतान की इन ज़हरीली बातों के सहारे जी रहा था, जैसे कि "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो," और "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है।" मैं लगातार प्रसिद्धि और रुतबे की तलाश में, शैतान के हाथों मूर्ख बन रहा था, नाम कमाने के लिए हानि-लाभ की फ़िक्र किया करता था। ये जीने का दुखदायी तरीका था। परमेश्वर के वचनों के न्याय, ताड़ना और अनुशासन का अनुभव करने के बाद ही मुझे अपनी भ्रष्ट प्रकृति के बारे में थोड़ी समझ आयी, तब मैंने शोहरत और रुतबे के पीछे भागने के सार और नतीजों के बारे में थोड़ी-बहुत स्पष्टता हासिल की। आखिरकार मैं जागने लगा और मुझे मलाल होने लगा। मैं फिर उस तरह से नहीं जीना चाहता था, बल्कि चाहता था कि मैं सत्य का अनुसरण और परमेश्वर की संतुष्टि के लिए अपने कर्तव्य का निर्वहन करूँ।

मुझे याद है, सितम्बर 2016 में मैंने भजन बनाने का काम शुरू कर दिया। उसके तुरंत बाद, हमारे अगुआ ने हमसे टीम के अगुआ के चयन के लिए चर्चा की। यह सुनकर मैं बहुत खुश हो गया और सोचने लगा कि कौन-कौन लोग भावी उम्मीदवार हो सकते हैं। मेरे साथ यही काम करने वाले बाकी भाई-बहन या तो काफी युवा थे या उतने कुशल नहीं थे। सिर्फ भाई ली ही ऐसा था, सत्य पर जिसकी संगति काफी व्यवहारिक थी और उसे काम की थोड़ी-बहुत समझ भी थी। इसके अलावा, वो शांत-स्वभाव का था। मुझे लगा उसके चुने जाने के अवसर काफी अच्छे हैं, लेकिन मेरी सहभागिता भी उतनी बुरी नहीं थी, मैं खास तौर से एक अच्छा शिक्षार्थी था और नई चीज़ों को बहुत जल्दी सीखता था। मैं आगे की सोचकर काम करने वाला इंसान था। तो, मुझे लगा कि मेरे चुने जाने के अवसर उससे बेहतर हैं। लेकिन उस काम के लिए टीम का हर व्यक्ति नया था और हम लोग बहुत अधिक समय से साथ में काम नहीं कर रहे थे, इसलिए एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते भी नहीं थे। वे लोग मुझे चुनेंगे भी या नहीं, मुझे पता नहीं था। इसलिए, मैंने अगुआ को राय दी कि पहले लोगों के उन कामों का मिलान कर लिया जाए, जो वे पूरा कर चुके हैं, उसके बाद किसी एक को अस्थायी तौर पर टीम के अगुआ का पदभार सौंप दिया जाए। सभी इस बात से सहमत हो गए। मैं मन ही मन खुश हुआ; मुझे लगा कि कामकाज का मेरा रिकॉर्ड काफी अच्छा है, इसलिए ये चुनाव तो मेरी जेब में है। अगले दिन, मैं सभा में पूरे आत्म-विश्वास से गया। लेकिन मुझे आश्चर्य तब हुआ जब भाई ली को चुन लिया गया। मुझे वाकई उस वक्त मायूसी हुई, लेकिन अपनी लाज बचाने के लिए, मैंने परेशान न दिखने का बहाना किया और कहा, "परमेश्वर का धन्यवाद। आज से, चलो हम सब मिलकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें।" जबकि अंदर ही अंदर, मैं इसे बिल्कुल स्वीकार नहीं कर पा रहा था। मैं बोझिल कदमों से घर पहुँचा। मैं इस बात को गले नहीं उतार पा रहा था। भाई ली मुझसे किस मामले में बेहतर है? मैं इस बात को हज़म नहीं कर पाया। मुझे अच्छी तरह पता था कि मैं बहुत प्रतिभाशाली हूँ, क्या मेरा न चुना जाना उस प्रतिभा का व्यर्थ हो जाना नहीं है? इसलिए मुझे लगा कि मुझे खुद को साबित करना और दिखाना होगा कि मैं किस काबिल हूँ। हालाँकि उसके बाद ऊपर से मैं शांत दिखता था, लेकिन मैं चुपचाप खुद को भाई ली के खिलाफ तैयार कर रहा था। मैंने अपनी योग्यता बढ़ाने और उसे पछाड़ने के लिए खुद को अध्ययन में झोंक दिया। मैंने चुपचाप इस बात की खुशी मनाई कि उसके सीखने और सोचने की क्षमता धीमी है, "तो सच्चाई बाहर आ ही गयी! आखिरकार तुम इतने काबिल नहीं हो! आने वाले समय में, हमारे भाई-बहनों को भी पता चल ही जाएगा कि कौन बेहतर है।" मैं उसकी छोटी-छोटी गलतियों पर खुश होता और मन ही मन सोचता, "क्या तुम्हारे पास इसकी काबिलियत है? अब उन्हें तुम्हारी सच्चाई पता चल जाएगी!" भाई ली को दूसरों की समस्याएँ सुलझाते देख, मेरा जी जलता था। मुझे लगता था कि उस तरह का व्यवहारिक अनुभव तो मेरे पास भी है, अगर मैं टीम का अगुआ होता, तो मैं सहभागिता में भी अच्छा होता। खास तौर से जब हम लोग काम के बारे में चर्चा कर रहे होते, तो भाई ली कुछ भी सुझाव क्यों न देता, मैं झपटकर एक गहरी दृष्टि के साथ विस्तार से समझाने लगता।

मुझे याद है, एक सभा में, हम लोग एक भजन की विषय-वस्तु पर चर्चा कर रहे थे, भाई ली ने वाकई एक अच्छा सुझाव दिया। लेकिन मुझे लगा, अगर मैंने इसे स्वीकार कर लिया, तो क्या वो मुझसे बेहतर नज़र नहीं आएगा? फिर मैं कैसे सिर उठाकर चल सकूँगा? मैंने तपाक से उसकी बात का खंडन कर दिया और एक दूसरा सुझाव दिया, लेकिन समूह ने उसके सुझाव को अधिक पसंद किया। जैसे मेरे मुँह पर तमाचा पड़ा हो। भाई-बहनों को पूरे जोश से उस पर चर्चा करते देख, मैंने भाई ली का और भी ज़ोरदार विरोध किया, उसके आगे मुझे सुनने में भी कोई रुचि नहीं रही। मुझे अपना पिछला कामकाज याद आया; आखिर, मैं टीम का अगुआ रहा था, सभी भाई-बहन मुझे इज़्ज़त देते थे। लेकिन अब, मैं टीम का अगुआ नहीं था, और फिर वो हर मामले में मुझसे बेहतर साबित हो रहा था। अगर मुझे इसका एहसास होता, तो मैं कभी यहाँ अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए न आता। सभा के बाद, मेरे अंदर विचार-मंथन चल रहा था, और मुझे अपने भीतर सचमुच एक अंधकार महसूस हो रहा था। मुझे धुँधला-सा याद है कि मेरी मानसिक अवस्था ठीक नहीं थी, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और मेरे मन में परमेश्वर के ये वचन आए : "मुझे प्रत्येक सृजित प्राणी के हृदय की अशुद्धियों की गहरी जानकारी है, और तुम लोगों को सृजित करने से पहले से ही मैं मानव-हृदय में गहराई से विद्यमान अधार्मिकता को जानता था, और मुझे मानव-हृदय के सभी धोखों और कुटिलता की जानकारी थी। इसलिए, भले ही जब लोग अधार्मिक कार्य करते हैं, तब उसका बिलकुल भी कोई निशान दिखाई न देता हो, किंतु मुझे तब भी पता चल जाता है कि तुम लोगों के हृदयों में समाई अधार्मिकता उन सभी चीजों की प्रचुरता को पार कर जाती है, जो मैंने बनाई हैं। तुम लोगों में से हर एक अधिकता के शिखर तक उठ चुका है; तुम लोग बहुतायत के पितरों के रूप में आरोहण कर चुके हो। तुम लोग अत्यंत स्वेच्छाचारी हो, और आराम के स्थान की तलाश करते हुए और अपने से छोटे भुनगों को निगलने का प्रयास करते हुए उन सभी भुनगों के बीच पगलाकर दौड़ते हो। अपने हृदयों में तुम लोग द्वेषपूर्ण और कुटिल हो, और समुद्र-तल में डूबे हुए भूतों को भी पीछे छोड़ चुके हो। तुम गोबर की तली में रहते हो और ऊपर से नीचे तक भुनगों को तब तक परेशान करते हो, जब तक कि वे बिलकुल अशांत न हो जाएँ, और थोड़ी देर एक-दूसरे से लड़ने-झगड़ने के बाद शांत होते हो। तुम लोगों को अपनी जगह का पता नहीं है, फिर भी तुम लोग गोबर में एक-दूसरे के साथ लड़ाई करते हो। इस तरह की लड़ाई से तुम क्या हासिल कर सकते हो? यदि तुम लोगों के हृदय में वास्तव में मेरे लिए आदर होता, तो तुम लोग मेरी पीठ पीछे एक-दूसरे के साथ कैसे लड़ सकते थे? तुम्हारी हैसियत कितनी भी ऊँची क्यों न हो, क्या तुम फिर भी गोबर में एक बदबूदार छोटा-सा कीड़ा ही नहीं हो? क्या तुम पंख उगाकर आकाश में उड़ने वाला कबूतर बन पाओगे?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जब झड़ते हुए पत्ते अपनी जड़ों की ओर लौटेंगे, तो तुम्हें अपनी की हुई सभी बुराइयों पर पछतावा होगा)। परमेश्वर के वचनों ने नाम और पैसे के पीछे भागने की मेरी सारी बदसूरती उजागर कर दी। इस काम की जिम्मेदारी लेने के समय से ही, मैं महत्वाकांक्षा का शिकार हो गया था, मैं कुछ हासिल करने के लिए मरा जा रहा था, ताकि भाई-बहन और अगुआ की नज़रों में मेरा सम्मान बढ़े और मैं टीम में अपनी जगह बना सकूँ। चयन-प्रक्रिया में मैंने फायदा उठाने के लिए अपनी चतुराई दिखाने की कोशिश की थी, अगुआ से कहकर हमारे पिछले कामकाज के आधार पर अंतरिम चुनाव भी करवाए थे। लेकिन जब भाई ली का चयन हो गया, तो मैं जल उठा और उसके प्रति मन में एक स्पर्धा की भावना पाल ली। जब मुझे उसके काम में कुछ गड़बड़ नज़र आई, तो मैंने कलीसिया के हितों का ख्याल रखने या उसकी मदद करने की कोशिश नहीं की, बल्कि पागलों की तरह अयोग्यता के कारण उसे हटाए जाने की राह देखता रहा, जिससे कि मुझे उस पद पर बैठने का मौका मिल जाए। मैं षडयंत्र में फँसकर, नाम और पैसे के पीछे भाग रहा था, मेरे चाल-चलन में न तो ज़मीर था, न विवेक। ये सचमुच घिनौना और ज़हरीला था। इसका एहसास होने पर मैं बहुत बेचैन हो गया और मैंने खुद को लताड़ा। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और सत्य पर अमल करने के लिए राह दिखाने को कहा, ताकि मैं अब अपने भ्रष्ट और शैतानी स्वभाव के बंधन में न रहूँ।

एक दिन, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : "अपने कर्तव्य को निभाने वालो, चाहे तुम सत्य को कितनी भी गहराई से क्यों न समझो, यदि तुम सत्य-वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हो, तो अभ्यास का सबसे सरल तरीका यह है कि तुम जो भी काम करो, उसमें परमेश्वर के घर के हित के बारे में सोचो, अपनी स्वार्थी इच्छाओं, व्यक्तिगत अभिलाषाओं, इरादों, सम्मान और हैसियत को त्याग दो। परमेश्वर के घर के हितों को सबसे आगे रखो—तुम्हें कम से कम यह तो करना ही चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने वाला कोई व्यक्ति अगर इतना भी नहीं कर सकता, तो उस व्यक्ति को कर्तव्य करने वाला कैसे कहा जा सकता है? यह अपने कर्तव्य को पूरा करना नहीं है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपना सच्चा हृदय परमेश्वर को दो, और तुम सत्य को प्राप्त कर सकते हो')। परमेश्वर के वचन मुझे अपने कर्तव्यों के निर्वहन में उन सिद्धांतों और दिशा की ओर संकेत कर रहे थे जिनसे मैं नाम और पैसे की ख्वाहिश से मुक्त होकर, हर स्थिति में कलीसिया के कार्य को सबसे ऊपर रखूँ, और पूरी योग्यता से अपने कर्तव्य का निर्वहन करूँ। तब जाकर मैं एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों का निर्वहन कर पाऊँगा और थोड़ा-बहुत इंसान के समान बन पाऊँगा। अगर नाम और रुतबे के पीछे भागकर, मैंने अपने मुख्य काम को नज़रंदाज़ कर दिया, तो वो मेरा अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना नहीं होगा; वो मेरा परमेश्वर का विरोध और दुष्टता करना होगा। उसके बाद, मैंने एक सभा में सभी भाई-बहनों से खुलकर बातचीत की और उनके सामने अपनी भ्रष्टता को उजागर कर दिया। उन्होंने मुझे नीची नज़रों से नहीं देखा, भाई ली और मेरे बीच जो दीवार थी, वो भी गिर गयी। उसके बाद मैं उसके द्वारा आयोजित सभाओं में सक्रिय रूप से संगति में चर्चा करने लगा, अगर मुझे उसके काम में कोई कमी दिखती, तो मैं उसका मज़ाक नहीं उड़ाता था। बल्कि अपने सुझाव और सहयोग देता था। अगर मैं उसे भाई-बहनों की समस्याएं सुलझाते देखता, तो मुझे पहले की तरह ईर्ष्या नहीं होती थी, बल्कि मुझे लगता था कि परमेश्वर के घर में, हमारी भूमिकाएँ अलग हैं, हमारी स्थिति नहीं। मैं बस अपने कर्तव्यों का निर्वहन अच्छे से करना चाहता था। जब मैं इन बातों को अमल में लाने लगा, तो मुझे बड़ा सुकून मिलने लगा, बाद में मुझे परमेश्वर का आशीष दिखा। हालाँकि पहले हमारी टीम की संगीत-संबंधी बुनियाद बेहद खराब थी, लेकिन हमें पहला स्पेनी गीत तैयार करने में अधिक वक्त नहीं लगा, अन्य भाई-बहनों ने उसकी बहुत प्रशंसा की।

छह महीनों में, मैं कामकाज से काफी परिचित हो चुका था। काम पर चर्चा के दौरान भाई-बहन मेरे सुझावों को स्वीकार करने लगे। और टीम के मासिक कार्य पर विचार-विमर्श की अगुआई आम तौर पर मैं करता था। नाम और रुतबे की मेरी ज़रूरत काफ़ी हद तक पूरी हो चुकी थी। इसके अलावा, उसी दौरान, हमारे अगुआ ने मुझसे कहा कि मैं कार्य को आगे बढ़ाने के लिए और मेहनत करूँ। अगुआ की नज़रों में चढ़ने के बाद मुझे और भी लगने लगा कि मैं प्रतिभा का धनी हूँ। एक मुकाम पर, अतिरिक्त काम का ज़िम्मा लेने के लिए हमें किसी और की ज़रूरत पड़ी, हालाँकि ये काम मेरी रुचि के अनुसार था, लेकिन मैंने मन ही मन अनुमान लगाया कि इससे मेरा नाम तो कुछ होगा नहीं, बल्कि मेरा काफी वक्त ज़ाया हो जाएगा। अगर मैंने इस पर काम किया, तो शायद लोगों का ध्यान मेरी तरफ से थोड़ा कम हो जाएगा। लेकिन अगर भाई ली ने किया, तो मैं यहाँ अपनी जगह बना सकता हूँ ... मैंने पूरी बहानेबाज़ी करके, उस काम को ठुकरा दिया और भाई ली के नाम की सिफारिश कर दी। लेकिन सच्चाई ये है कि उस वक्त मेरे अंदर एक अपराध-बोध था और मैं बेचैन हो गया, लेकिन मैं ज़िद पर अड़े रहकर, अपना पद बचाए रखना चाहता था। भाई ली ने उस अनजान काम को हाथ में ले लिया। उसे बहुत मुश्किलें पेश आयीं और वो मायूस हो गया, इसका असर उसके काम पर पड़ा। ये सुनकर भी, मैंने आत्म-चिंतन नहीं किया। हमारी टीम जो काम करती थी, भाई ली अक्सर उसमें भाग नहीं ले पाता था, इसलिए, छोटे-बड़े सारे काम मेरे ज़िम्मे आ गए। नतीजा ये हुआ कि नाम और रुतबे की मेरी ख्वाहिश ने फिर सिर उठा लिया। मैंने भाई-बहनों के काम में थोड़ा भटकाव और कमियाँ पायीं जिनके कारण काम आगे नहीं बढ़ पा रहा था, और इससे मैं वाकई बेचैन हो गया। मैं इस काम का इंचार्ज था, इसलिए अगर कोई गड़बड़ हुई, तो पता नहीं अगुआ मेरे बारे में क्या सोचेगा। क्या वो मुझे अयोग्य समझेगा? मुझे गुस्सा आ गया और मैं भाई-बहनों पर भड़क गया, "इसे तुम लोग अपने कर्तव्यों का निर्वहन कैसे कह सकते हो? क्या तुम लोग ध्यान नहीं दे सकते? क्या अपनी कमियों पर लगाम लगा सकते हो?" वे सब खुद को मेरे आगे सचमुच लाचार महसूस कर रहे थे। एक बार, मैं अपने काम के सिलसिले में, कुछ दिनों के लिए बाहर गया हुआ था, जब मैं वापस आया, तो मैंने देखा कि एक बहन ने मुझसे चर्चा किए बिना ही कार्य-योजना बना ली थी। इससे मैं वाकई नाराज़ हो गया। मैंने सोचा, "ये तो कुछ ज़्यादा ही हो गया! तुम्हारे मन में मेरे लिए कोई इज़्ज़त ही नहीं है।" मैंने उसे आड़े हाथों लिया। इस दौरान, टीम के अंदर कोई न कोई समस्या आती ही रही। भाई-बहन मेरे सुझावों को नहीं अपना रहे थे, बल्कि मुझे प्रतिक्रिया भी दे रहे थे। मुझे लगा कि ये मेरा अपमान है, और मेरा गुस्सा भड़क गया। "चूँकि तुम लोगों के विचार अलग हैं, इसलिए तुम्हें जो ठीक लगे, करो! और अगर कोई गड़बड़ी हो गयी, तो उसकी ज़िम्मेदारी भी तुम लोग ही लेना!" इतना कह देने के बाद, मैं बहुत ज़्यादा डर गया और मैंने खुद को लताड़ा। मैंने विचार किया कि मैं किस तरह अपने अहंकारी स्वभाव में जी रहा हूँ, भाई-बहनों पर हमेशा भड़कता रहता हूँ। क्या परमेश्वर इसे स्वीकार करेगा? लेकिन फिर मैंने सोचा, क्या मैं ये सब अपने कर्तव्य के निर्वहन के लिए नहीं कर रहा हूँ? और फिर ऐसा कौन है जिसकी भ्रष्टता कभी उजागर न हुई हो? मैंने सच्चे रूप में आत्म-मंथन नहीं किया था। अगले दिन, बास्केटबॉल खेलते समय, मेरे टखने की नस खिंच गयी; मेरा पाँव गुब्बारे की तरह फूल गया और उसमें बहुत ज़्यादा दर्द होने लगा। मैं न तो चल पा रहा था, न ही कोई काम कर पा रहा था। मैं समझ गया कि यह परमेश्वर का अनुशासन है, और उसके बाद ही मैंने आत्म-मंथन करना शुरू किया। इतने समय तक, मैं केवल नाम और रुतबे के पीछे भाग रहा था, मैं अहंकारी हो गया था, और अपने भाई-बहनों को डाँट रहा था। सारे दृश्य मेरे मन में किसी फिल्म की तरह चल रहे थे। मुझे खुद से नफरत हो गयी, मैंने सोचा : मेरे अंदर कभी बदलाव क्यों नहीं आया? मैं खुद को परमेश्वर के प्रति विद्रोह और उसके विरोध से दूर क्यों नहीं रख पाया?

कुछ दिनों के बाद, कुछ भाई-बहन मुझसे मिलने आए और मुझसे परमेश्वर की इच्छा के बारे में संगति की। उन्होंने परमेश्वर के वचनों के एक अंश को पढ़कर भी सुनाया जिसमें विशेष रूप से मेरी स्थिति को बयाँ किया गया था : "अगर कुछ लोग किसी व्यक्ति को अपने से बेहतर पाते हैं, तो वे उस व्यक्ति को दबाते हैं, उसके बारे में अफ़वाह फैलाना शुरू कर देते हैं, या किसी तरह के अनैतिक साधनों का प्रयोग करते हैं जिससे कि दूसरे व्यक्ति उसे अधिक महत्व न दे सकें, और यह कि कोई भी किसी दूसरे व्यक्ति से बेहतर नहीं है, तो यह अभिमान और दंभ के साथ-साथ धूर्तता, धोखेबाज़ी और कपट का भ्रष्ट स्वभाव है, और इस तरह के लोग अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। वे इसी तरह का जीवन जीते हैं और फिर भी यह सोचते हैं कि वे महान हैं और वे नेक हैं। लेकिन, क्या उनके पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय है? सबसे पहले, इन बातों की प्रकृति के परिप्रेक्ष्य से बोला जाये, तो क्या इस तरीके से काम करने वाले लोग बस अपनी मनमर्ज़ी से काम नहीं कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर के परिवार के हितों पर विचार करते हैं? वे परमेश्वर के परिवार के कार्य को होने वाले नुकसान की परवाह किये बिना, सिर्फ़ अपनी खुद की भावनाओं के बारे में सोचते हैं और वे सिर्फ़ अपने लक्ष्यों को हासिल करने की बात सोचते हैं। इस तरह के लोग न केवल अभिमानी और आत्मतुष्ट हैं, बल्कि वे स्वार्थी और घिनौने भी हैं; वे परमेश्वर के इरादों की बिलकुल भी परवाह नहीं करते, और निस्संदेह, इस तरह के लोगों के पास परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। यही कारण है कि वे वही करते हैं जो करना चाहते हैं और बेतुके ढंग से आचरण करते हैं, उनमें दोष का कोई बोध नहीं होता, कोई घबराहट नहीं होती, कोई भी भय या चिंता नहीं होती, और वे परिणामों पर भी विचार नहीं करते। यही वे अकसर करते हैं, और इसी तरह उन्‍होंने हमेशा आचरण किया होता है। इस तरह के लोग कैसे परिणाम भुगतते हैं? वे मुसीबत में पड़ जाएँगे, ठीक है? हल्‍के-फुल्‍के ढंग से कहें, तो इस तरह के लोग बहुत अधिक ईर्ष्‍यालु होते हैं और उनमें निजी प्रसिद्धि और हैसियत की बहुत प्रबल आकांक्षा होती है; वे बहुत धोखेबाज और धूर्त होते हैं। और अधिक कठोर ढंग से कहें, तो मूल समस्‍या यह है कि इस तरह के लोगों के दिलों में परमेश्‍वर का तनिक भी डर नहीं होता। वे परमेश्वर का भय नहीं मानते, वे अपने आपको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानते हैं, और वे अपने हर पहलु को परमेश्वर से ऊंचा और सत्य से बड़ा मानते हैं। उनके दिलों में, परमेश्वर जिक्र करने के योग्य नहीं है और बिलकुल महत्वहीन है, उनके दिलों में परमेश्वर का बिलकुल भी कोई महत्व नहीं होता। क्‍या उन लोगों ने सत्‍य में प्रवेश पा लिया है जिनके हृदयों में परमेश्‍वर के लिए कोई जगह नहीं है, और जो परमेश्‍वर में श्रद्धा नहीं रखते? (नहीं।) इसलिए, जब वे सामान्‍यत: मुदित मन से और ढेर सारी ऊर्जा खर्च करते हुए खुद को व्‍यस्‍त बनाये रखते हैं, तब वे क्‍या कर रहे होते हैं? ऐसे लोग यह तक दावा करते हैं कि उन्‍होंने परमेश्‍वर के लिए खपाने की ख़ातिर सब कुछ त्‍याग दिया है और बहुत अधिक दुख झेला है, लेकिन वास्‍तव में उनके सारे कृत्‍यों के पीछे निहित प्रयोजन, सिद्धान्‍त और लक्ष्‍य, सभी खुद को लाभान्वित करने के लिए हैं; वे केवल अपने सारे निजी हितों की रक्षा करने का प्रयास कर रहे हैं। तुम लोग ऐसे व्यक्ति को बहुत ही बेकार कहोगे या नहीं कहोगे? जो व्‍यक्ति परमेश्‍वर में श्रद्धा नहीं रखता वह किस तरह का व्‍यक्ति है? क्‍या वह अहंकारी नहीं है? क्‍या ऐसा व्‍यक्ति शैतान नहीं है? वे किस तरह के प्राणी होते हैं जो परमेश्‍वर में श्रद्धा नहीं रखते? पशुओं की बात छोड़ दें, तो परमेश्‍वर में श्रद्धा न रखने वाले प्राणियों में, दैत्‍य, शैतान, प्रधान स्वर्गदूत, और परमेश्‍वर के साथ विवाद करने वाले, सभी शामिल हैं"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। परमेश्वर के कठोर वचन सीधे मेरे दिल में आकर लगे। मैंने जाना कि मैं कितना अहंकारी, स्वार्थी और धूर्त हो चुका हूँ, मेरे अंदर परमेश्वर के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है। जब कलीसिया के काम में सहयोग चाहिए था, तो मैं अच्छी तरह जानता था कि मैं इसके लिए किसी और के मुकाबले अधिक उपयुक्त हूँ, लेकिन अपने नाम और रुतबे को बनाए रखने के लिए, मैंने अपनी चालबाज़ियों के बारे में ज़रा भी विचार नहीं किया, जिससे परमेश्वर के घर के काम को नुकसान हुआ। जब मेरे सामने भाई-बहनों के काम से संबंधित मसले आए, जिनसे हमारी प्रगति रुक रही थी, तो मैंने समस्याएँ सुलझाने के लिए उनके साथ मिलकर काम नहीं किया; बल्कि मुझे लगा कि वो लोग मुझे पीछे खींच रहे हैं और अलग दिखने के मेरे अवसर पर असर डाल रहे हैं, इसलिए मैंने उन्हें डाँटने के लिए अपने पद का दुरुपयोग किया, इस कारण उन्हें लाचारी और पीड़ा की स्थिति में जीना पड़ा। मैं उनके सुझाव भी नहीं मानता था। मैं बदमिज़ाज हो गया, गुस्सा करने लगा, अपनी भड़ास निकालने के लिए अपने कामकाज का इस्तेमाल किया, बिना इस बात का विचार किए कि मेरी इस हरकत का कलीसिया के काम पर कितना बुरा असर पड़ेगा। दरअसल, मुझमें असली प्रतिभा नहीं थी; मेरे अंदर बस थोड़ा-बहुत संगीत के प्रति लगाव था और थोड़ा जोश था, फिर भी परमेश्वर बहुत दयालु था जो उसने मुझे यह अवसर दिया, ताकि मैं अपने कामकाज और सत्य की अपनी खोज में आगे बढ़ सकूँ। हालांकि, इसे संजोने के बजाय, मैं अड़ियल बनकर रुतबे और प्रतिष्ठा के लिए जूझता रहा। अपने कर्तव्य का निर्वहन करने के बहाने, मैं अपने हित साध रहा था, आगे बढ़ने के लिए मैं औज़ारों की तरह अपने भाई-बहनों का शोषण कर रहा था। मेरे अंदर मानवता का पूरी तरह से अभाव था। मैं अपने सारे कर्मों में, दुष्टता कर रहा था और परमेश्वर के स्वभाव का अपमान कर रहा था। यह परमेश्वर की दृष्टि में घृणित और निंदनीय था! इस बात का एहसास होते ही, मैं डर गया और मैंने खुद को बहुत धिक्कारा। मैंने नम आँखों से परमेश्वर से प्रार्थना की : "हे परमेश्वर, मैंने बहुत गलत किया है! मैं विद्रोही बने रहकर तुझसे स्पर्धा नहीं करना चाहता, और निजी स्वार्थों के लिए लड़ते नहीं रहना चाहता। मैं पश्चाताप करने के लिए तैयार हूँ।"

बाद में मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े; "शैतान मनुष्य को मजबूती से अपने नियन्त्रण में रखने के लिए किस का उपयोग करता है? (प्रसिद्धि एवं लाभ का।) तो, शैतान मनुष्य के विचारों को नियन्त्रित करने के लिए प्रसिद्धि एवं लाभ का तब तक उपयोग करता है जब तक लोग केवल और केवल प्रसिद्धि एवं लाभ के बारे में सोचने नहीं लगते। वे प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए संघर्ष करते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए कठिनाइयों को सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए अपमान सहते हैं, प्रसिद्धि एवं लाभ के लिए जो कुछ उनके पास है उसका बलिदान करते हैं, और प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते वे किसी भी प्रकार की धारणा बना लेंगे या निर्णय ले लेंगे। इस तरह से, शैतान लोगों को अदृश्य बेड़ियों से बाँध देता है और उनके पास इन्हें उतार फेंकने की न तो सामर्थ्‍य होती है न ही साहस होता है। वे अनजाने में इन बेड़ियों को ढोते हैं और बड़ी कठिनाई से पाँव घसीटते हुए आगे बढ़ते हैं। इस प्रसिद्धि एवं लाभ के वास्ते, मनुष्यजाति परमेश्वर को दूर कर देती है और उसके साथ विश्वासघात करती है, तथा निरंतर और दुष्ट बनती जाती है। इसलिए, इस प्रकार से एक के बाद दूसरी पीढ़ी शैतान के प्रसिद्धि एवं लाभ के बीच नष्ट हो जाती है" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VI)। परमेश्वर के वचनों के इस प्रकाशन ने मुझे इंसान को भ्रष्ट करने के लिए शैतान की घिनौनी चाल और नाम तथा पैसे के इस्तेमाल के दुष्ट मंसूबों की कुछ समझ दी। यह लोगों को इसी तरह से बंधन में डालकर नुकसान पहुँचाता है, ताकि इंसान परमेश्वर को धोखा दे और उससे दूर हो जाए। शैतान लोगों को फँसाने के लिए औज़ार के तौर पर नाम और रुतबे का इस्तेमाल करता है। मैं बचपन से ही शैतान से प्रभावित था और उसी के द्वारा शिक्षित था और उसके इन फलसफों में फँस गया था "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "भीड़ से ऊपर उठो और अपने पूर्वजों का नाम करो," और "आदमी ऊपर की ओर जाने के लिए संघर्ष करता है; पानी नीचे की ओर बहता है।" इन्हें मैंने अपना आदर्श-वाक्य मान लिया था। मैं अधिक से अधिक अहंकारी होता चला गया, मैं किसी भी समूह में हमेशा रुतबे के लिए होड़ करता था, ताकि लोग मेरा सम्मान करें। विश्वासी बनने के बाद भी, मैं हमेशा नाम और रुतबे के पीछे भागता रहा क्योंकि मैं सत्य की खोज नहीं कर रहा था। इन चीज़ों के लिए मैंने कष्ट उठाए और अपने कर्तव्य के निर्वहन में कीमत चुकाई, अपने कौशल को बढ़ाने के लिए मेहनत की। मैंने दूसरों से होड़ और स्पर्धा की, मैं कोई भी उपलब्धि हासिल करता तो मुझे लगता कि मैं वाकई कुछ हूँ, मैं बड़े गुरूर से भाई-बहनों को डाँट देता था। मैं बेहद अहंकारी और दंभी था; मेरे जीने के तौर-तरीके में इंसानियत की ज़रा-सी भी झलक नहीं थी। मैं शैतानी फलसफों के सहारे जी रहा था, नाम और रुतबा पाने के लिए मैं खुद को पूरी तरह से झोंक रहा था। मैं न केवल दूसरों को आहत कर रहा था, बल्कि मैंने ऐसे बहुत से काम किए जो परमेश्वर की नज़र में घृणित थे। मैंने अपने अपराधों और दुष्कर्मों से कलीसिया के कार्य को प्रभावित किया था। नाम और रुतबे ने मुझे बहुत नुकसान पहुँचाया है। तब जाकर मैं समझा कि "भीड़ से ऊपर उठो," और "दूसरों से बेहतर होना," जैसी सारी बातें भ्रांतियाँ हैं, इन झूठों के सहारे जीने से इंसान और भी भ्रष्ट और दुष्ट बन जाता है, इंसान परमेश्वर से विद्रोह और उसका विरोध करने लगता है और आखिरकार उसके हाथों सज़ा पाता है। इन सब बातों का एहसास होने पर, मुझे लगा कि मैं नाम और रुतबे को ऐसा मानकर चल रहा था जैसे कि वे जीवन-रेखाएँ हैं जिनसे मुझे हर हाल में चिपके रहना है। मैं वाकई अंधा और अहंकारी हो गया था। मैंने यह भी जाना कि यह मार्ग परमेश्वर का विरोधी है। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और प्रायश्चित किया। उसके बाद, जब कभी मैं अपने कर्तव्य के निर्वहन में इन चीज़ों के पीछे भागने की सोचता, तो मैं सचमुच डर जाता, परमेश्वर से प्रार्थना करता और देह-सुख का त्याग कर देता। इसले अलावा, मैं खुलकर अपने भाई-बहनों के सामने अपनी भ्रष्टता उजागर करता था। कुछ समय के बाद, मुझे लगा कि मेरे अंदर नाम और रुतबे की ललक कम हो गयी है, और मैं आंतरिक सुकून महसूस करने लगा।

बाद में, जब कलीसिया एक अगुआ का चयन कर रही थी, तो चुनाव के दौरान मेरे अंदर नाम और रुतबे की ख्वाहिश फिर से सिर उठाने लगी, और मेरे अंदर एक लड़ाई छिड़ गयी : "मुझे भाई ली के लिए वोट करना चाहिए या खुद के लिए? जहाँ तक मेरी बात है, मैं सत्य पर सहभागिता करके मसले को हल करने में उतना अच्छा नहीं हूँ। जहाँ तक उसकी बात है, अगर वो जीत गया, तो लोग मुझे किस नज़र से देखेंगे?" मुझे एहसास हुआ कि मैं फिर से नाम और रुतबे के पीछे भाग रहा हूँ, और उस किस्म की सोच सचमुच बहुत खराब है। मैंने उस तरह के विचारों को त्यागते और धिक्कारते हुए परमेश्वर से प्रार्थना की, बाद में, मेरे मन में परमेश्वर के ये वचन आए : "अगर तुम्‍हारा हृदय इस तरह के विचारों से भरा हुआ है कि ऊँचा पद कैसे हासिल किया जाए, या दूसरे लोगों के सामने ऐसा क्‍या किया जाए जिससे वे तुम्‍हारी सराहना करने लगें, तो तुम ग़लत मार्ग पर हो। इसका मतलब है कि तुम शैतान के लिए काम कर रहे हो; तुम उसकी सेवा में लगे हुए हो। अगर तुम्‍हारा हृदय इस तरह के विचारों से भरा हुआ है कि तुम कैसे अपने को इस तरह बदल लो कि तुम अधिक-से-अधिक मनुष्‍य जैसा स्‍वरूप हासिल कर सको, अगर तुम परमेश्‍वर के प्रयोजनों के अनुरूप हो, उसके प्रति स्‍वयं को समर्पित कर सकते हो, उसके प्रति श्रद्धा रखने में और अपने हर कृत्‍य में संयम बरतने सक्षम हो, और उसके परीक्षण को पूरी तरह स्‍वीकार कर सकते हो, तो तुम्‍हारी हालत उत्‍तरोत्‍तर सुधरती जाएगी। परमेश्‍वर के समक्ष जीने वाला व्‍यक्ति होने का अर्थ यही है। वैसे, मार्ग दो हैं : एक जो महज़ आचरण पर, अपनी महत्‍त्‍वाकांक्षाओं, आकांक्षाओं, प्रयोजनों, और योजनाओं को पूरा करने पर बल देता है; यह शैतान के समक्ष और उसके अधिकार-क्षेत्र के अधीन जीना है। दूसरा मार्ग इस पर बल देता है कि परमेश्‍वर की इच्‍छा को किस तरह सन्‍तुष्‍ट किया जाए, सत्‍य की वास्‍तविकता में कैसे प्रवेश किया जाए, परमेश्‍वर के समक्ष समर्पण कैसे किया जाए, कैसे उसको लेकर किसी भी तरह की ग़लतफ़हमियाँ न पाली जाएँ या अवज्ञाएँ न की जाएँ, यह सब इसलिए ताकि परमेश्‍वर के प्रति श्रद्धा अर्जित की जा सके और अपने कर्तव्‍य का ठीक से पालन किया जा सके। परमेश्‍वर के समक्ष जीने का यही अर्थ है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य का अभ्यास करके ही कोई सामान्य मानवता से युक्त हो सकता है')। परमेश्वर के वचनों पर गहराई से विचार करते हुए, मैं समझ गया कि वह लोगों के कर्मों में मंसूबे और संभावनाएँ देखता है—ये वाकई बहुत महत्वपूर्ण हैं। अगर मेरी प्रेरणा प्रतिष्ठा और रुतबा है, और मैं चाहता हूँ कि लोग मेरे बारे में ऊँची राय रखें, तो वह मार्ग परमेश्वर के विरुद्ध होगा और मुझे कभी भी सत्य की ओर या परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने की ओर नहीं ले जाएगा। मैं अपने मंसूबों को ठीक करने के लिए तैयार हो गया, भले ही मुझे कलीसिया का अगुआ चुना जाए या नहीं, लेकिन मैं परमेश्वर की व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने और अपने कर्तव्य का निर्वहन करने के लिए तैयार था। बाद में, जब वोट देने का समय आया, तो मैंने सिद्धांतों का आकलन किया और भाई ली को वोट दे दिया। आखिरकार, उसे कलीसिया के अगुआ के तौर पर चुन लिया गया। मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। भले ही मैं जीता नहीं था, लेकिन मुझे कोई मलाल नहीं था, क्योंकि अंतत: मैंने सत्य पर अमल किया था, और इस तरह मैं नाम और रुतबे के बंधनों से मुक्त हो गया था। सत्य पर अमल करने और परमेश्वर को संतुष्ट करने से मुझे अपने अंदर शांति और स्थायित्व एहसास हुआ, मुझे अनुभव हुआ कि परमेश्वर का न्याय और ताड़ना सचमुच मेरे लिए उद्धार हैं।

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