क्या त्रित्व का अस्तित्व है?

यीशु के देहधारी होने का सत्य अस्तित्व में आने के बाद, मनुष्य ने विश्वास कर लिया कि स्वर्ग में न केवल पिता है, बल्कि पुत्र भी है और यहां तक कि आत्मा भी है। यह पारंपरिक धारणा है, जिसे मनुष्य धारण किए है कि इस तरह का एक परमेश्वर स्वर्ग में है : एक त्रयात्मक परमेश्वर जो पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा है। समस्त मानवजाति की ये धारणाएं हैं : परमेश्वर एक परमेश्वर है, पर उसमें तीन भाग शामिल हैं, जिसे कष्टदायक रूप से पारंपरिक धारणाओं में जकड़े वे सभी पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा मानते हैं। केवल इन्हीं तीनों एकाकार हुए भाग से संपूर्ण परमेश्वर बनता है। पवित्र पिता के बिना परमेश्वर संपूर्ण नहीं होगा। इसी प्रकार से, न ही पुत्र और पवित्र आत्मा के बिना परमेश्वर संपूर्ण होगा। अपनी धारणाओं में वे यह विश्वास करते हैं कि न तो अकेले पिता को और न अकेले पुत्र को ही परमेश्वर माना जा सकता है। केवल पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा को एक साथ मिलाकर परमेश्वर स्वयं माना जा सकता है। अब, सभी धार्मिक विश्वासी और तुम लोगों में से प्रत्येक अनुयायी भी इस बात पर विश्वास करता है। फिर भी, जैसे यह विश्वास सही है कि नहीं, कोई नहीं समझा सकता, क्योंकि तुम लोग हमेशा स्वयं परमेश्वर के मामलों को लेकर भ्रम के कोहरे में रहते हो। हालांकि ये धारणाएं हैं, तुम लोग नहीं जानते कि ये सही हैं या ग़लत क्योंकि तुम लोग धार्मिक धारणाओं से बुरी तरह संक्रमित हो गए हो। तुम लोगों ने धर्म की इन पारंपरिक धारणाओं को बहुत गहराई से स्वीकार कर लिया है और यह ज़हर तुम्हारे भीतर बहुत गहरे रिसकर चला गया है। इसलिए इस मामले में भी तुम इन हानिकारक प्रभाव के आगे झुक गए हो क्योंकि त्रयात्मक परमेश्वर का अस्तित्व ही नहीं है। इसका मतलब यह है कि पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा का त्रित्व अस्तित्व में ही नहीं है। ये सब मनुष्य की पारंपरिक धारणाएं हैं और मनुष्य के भ्रामक विश्वास हैं। कई सदियों से मनुष्य का इस त्रित्व पर विश्वास रहा है, ये मनुष्य के मन में धारणाओं से जन्मी, मनुष्य द्वारा गढ़ी गई और मनुष्य द्वारा पहले कभी नहीं देखी गई हैं। इन अनेक वर्षों के दौरान बाइबल के कई प्रतिपादक हुए हैं, जिन्होंने त्रित्व का “सही अर्थ” समझाया है, पर तीन अभिन्न तत्व व्यक्तियों वाले त्रयात्मक परमेश्वर की ऐसी व्याख्याएं अज्ञात और अस्पष्ट रहे हैं और लोग परमेश्वर की “रचना” के बारे में पूरी तरह संभ्रमित हैं। कोई भी महान व्यक्ति कभी भी इसकी पूर्ण व्याख्या प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं रहा है; अधिकांश व्याख्याएं, तर्क के मामले में और कागज़ पर जायज़ ठहरते हैं, परंतु किसी भी मनुष्य को इसके अर्थ की पूरी तरह साफ़ समझ नहीं है। यह इसलिए क्योंकि यह महान त्रित्व, जो मनुष्य अपने हृदय में धारण किए है, वह अस्तित्व में है ही नहीं। क्योंकि कभी भी किसी ने परमेश्वर के सच्चे स्वरूप को नहीं देखा है न ही कभी कोई प्राणी इतना भाग्यशाली रहा कि परमेश्वर के घर यह देखने जाए कि जहाँ परमेश्वर रहता है वहां क्या-क्या चीज़ें है, ताकि इसका निर्धारण कर सके कि “परमेश्वर के घर” में कितनी दसियों हज़ार या सैकड़ों लाख पीढ़ियाँ हैं या यह जांच सके कि परमेश्वर की निहित रचना कितने भागों से निर्मित है। जिसकी मुख्यतः जांच होनी चाहिए, वह है : पिता और पुत्र की आयु, साथ ही पवित्र आत्मा की आयु; प्रत्येक व्यक्ति के संबंधित प्रकटन; वास्तव में यह कैसे होता है कि वे अलग हो जाते हैं और यह कैसे होता है कि वे एक हो जाते हैं। दुर्भाग्यवश, इन सभी वर्षों में, कोई एक भी मनुष्य इस मामले में सत्य का निर्धारण नहीं कर पाया है। वे बस अनुमान लगाते हैं, क्योंकि कोई भी व्यक्ति स्वर्ग के दौरे पर नहीं गया और न समस्त मानवजाति के लिए “जांच रिपोर्ट” लेकर वापस आया है ताकि वह इस मामले के सत्य का उन उत्साही और निष्ठावान धार्मिक विश्वासियों से बयान कर सके, जो त्रित्व के बारे में चिंतित हैं। निश्चय ही, ऐसी धारणाएं बनाने के लिए मनुष्य को दोष नहीं दिया जा सकता कि क्यों पिता यहोवा ने पुत्र यीशु को मानवजाति की सृष्टि के समय अपने साथ नहीं रखा था? यदि आरंभ में, सभी कुछ यहोवा के नाम से हुआ होता, तो यह बेहतर होता। यदि दोष देना ही है तो, यह यहोवा परमेश्वर की क्षणिक चूक पर डालना चाहिए, जिसने सृष्टि के समय पुत्र और पवित्र आत्मा को अपने सामने नहीं बुलाया, बल्कि अपना कार्य अकेले क्रियान्वित किया। यदि उन सभी ने एक साथ कार्य किया होता, तो क्या वे एक ही नहीं बन गए होते? यदि उत्पत्ति से लेकर अंत तक, केवल यहोवा का ही नाम होता और अनुग्रह के युग से यीशु का नाम न होता या तब भी उसे यहोवा ही पुकारा जाता, तो क्या परमेश्वर मानवजाति के इस भेदभाव की यातना से बच नहीं जाता? सच तो यह है कि इस सबके लिए यहोवा को दोषी नहीं ठहराया जा सकता; यदि दोष ही देना है तो पवित्र आत्मा को देना चाहिए, जो यहोवा, यीशु और यहां तक कि पवित्र आत्मा के नाम से हज़ारों सालों से अपना कार्य करता रहा है और उसने मनुष्य को ऐसा भ्रमित और चकरा दिया है कि वह जान ही नहीं पाया कि असल में परमेश्वर कौन है। यदि स्वयं पवित्र आत्मा ने किसी रूप या छवि के बिना कार्य किया होता और इसके अलावा यीशु जैसे नाम के बिना कार्य किया होता और मनुष्य उसे न छू पाता न देख पाता, केवल गर्जना की आवाज़ सुन पाता तो क्या इस प्रकार का कार्य मनुष्यों के लिए और अधिक फायदेमंद नहीं होता? तो अब क्या किया जा सकता है? मनुष्य की धारणाएं एकत्रित होकर पर्वत के समान ऊँची और समुद्र के समान व्यापक हो गई हैं, इस हद तक कि आज का परमेश्वर उन्हें अब और नहीं सह सकता और उलझन में है। अतीत में जब केवल यहोवा, यीशु और उन दोनों के मध्य पवित्र आत्मा था, तो मनुष्य पहले ही हैरान था कि कैसे इनका सामना करे और अब उसमें सर्वशक्तिमान भी जुड़ गया है, जिसे भी परमेश्वर का ही एक भाग कहा जाता है। कौन जानता है कि वह कौन है और त्रित्व के किस व्यक्तित्व के साथ कितने सालों से परस्पर मिश्रित है या भीतर छिपा हुआ है? मनुष्य इसे कैसे सह सकता है? पहले तो अकेले त्रयात्मक परमेश्वर ही मनुष्य के लिए जीवनभर व्याख्या के लिए काफ़ी था, पर अब यहां “एक परमेश्वर में चार व्यक्तित्व” है। इसकी व्याख्या कैसे की जा सकती है? क्या तुम इसकी व्याख्या कर सकते हो? भाइयो और बहनो! तुम लोगों ने आज तक इस प्रकार के परमेश्वर पर विश्वास कैसे किया है? मैं तुम लोगों से बेहद प्रभावित हूँ। त्रयात्मक परमेश्वर ही झेलने के लिए पर्याप्त था; तुम लोग इस एक परमेश्वर के चार रूपों पर अटूट विश्वास कैसे करते रहे? तुम लोगों को बाहर निकलने के लिए आग्रह किया गया है, फिर भी तुम मना करते हो। समझ से परे है! तुम लोग कमाल हो! एक व्यक्ति चार परमेश्वरों पर विश्वास तक कर जाता है और उसमें कुछ समझ नहीं पाता; तुम्हें नहीं लगता कि यह एक चमत्कार है? तुम लोगों को देखकर, कोई नहीं जान सकता कि तुम लोग इतना महान चमत्कार करने में सक्षम हो! मैं बताता हूँ कि वास्तव में, ब्रह्मांड में कहीं भी त्रयात्मक परमेश्वर का अस्तित्व नहीं है। परमेश्वर का न पिता है और न पुत्र, और इस ख्याल का तो और भी वजूद नहीं है कि पिता और पुत्र संयुक्त तौर पर पवित्र आत्मा का उपकरण के रूप में उपयोग करते हैं। इस संसार में यह सब बड़ा भ्रम है और इसका कोई अस्तित्व नहीं है! फिर भी इस प्रकार के भ्रम का अपना मूल है और यह पूरी तरह निराधार नहीं है, क्योंकि तुम लोगों के मन इतने साधारण नहीं हैं और तुम्हारे विचार तर्कहीन नहीं हैं। बल्कि, वे काफी उपयुक्त और चतुर हैं, इतने कि किसी शैतान द्वारा भी अभेद्य हैं। अफ़सोस यह कि ये विचार बिल्कुल भ्रामक हैं और बस इनका अस्तित्व नहीं है! तुम लोगों ने वास्तविक सत्य को देखा ही नहीं है; तुम लोग केवल अटकलें और कल्पनाएं लगा रहे हो, फिर धोखे से दूसरों का विश्वास प्राप्त करने या सबसे अधिक बुद्धिहीन या तर्कहीन लोगों पर प्रभाव जमाने के लिए इस सबको कहानी में पिरो रहे हो, ताकि वे तुम लोगों की महान और प्रसिद्ध “विशेषज्ञ शिक्षाओं” पर विश्वास करें। क्या यह सच है? क्या यह जीवन का तरीका है, जो मनुष्य को प्राप्त करना चाहिए? यह सब बकवास है! एक शब्द भी उचित नहीं है! इतने सालों में, तुम लोगों के द्वारा परमेश्वर इस प्रकार विभाजित किया गया है, हर पीढ़ी द्वारा इसे इतना बारीक़ी से विभाजित किया गया है कि एक परमेश्वर को खुलकर तीन हिस्सों में बांट दिया गया है। और अब मनुष्य के लिए यह पूरी तरह असंभव है कि इन तीनों को फिर से एक परमेश्वर बना पाए, क्योंकि तुम लोगों ने उसे बहुत ही सूक्ष्मता से बांटा है! यदि मेरा कार्य सही समय पर शुरू न हुआ होता तो कहना कठिन है कि तुम लोग कब तक इसी तरह ढिठाई करते रहते! इस प्रकार से परमेश्वर को विभाजित करना जारी रखने से, वह अब तक तुम्हारा परमेश्वर कैसे रह सकता है? क्या तुम लोग अब भी परमेश्वर को पहचान सकते हो? क्या तुम अभी भी अपना उद्गम स्त्रोत खोज पाते? यदि मैं थोड़ा और बाद में आता, तो हो सकता है कि तुम लोग “पिता और पुत्र”, यहोवा और यीशु को इस्राएल वापस भेज चुके होते और दावा करते कि तुम लोग स्वयं ही परमेश्वर का एक भाग हो। भाग्यवश, अब ये अंत के दिन हैं। अंततः वह दिन आ गया है, जिसकी मुझे बहुत प्रतीक्षा थी और मेरे अपने हाथों से इस चरण के कार्य को क्रियान्वित करने के बाद ही तुम लोगों द्वारा परमेश्वर स्वयं को बांटने का कार्य रुका है। यदि यह नहीं होता, तो तुम लोग और आगे बढ़ जाते, यहां तक कि अपने बीच सभी शैतानों को तुमने आराधना के लिए अपनी मेज़ों पर रख लिया होता। यह तुम लोगों की चाल है! परमेश्वर को बांटने के तुम्हारे तरीके! क्या तुम सब अभी भी ऐसा ही करोगे? मैं तुमसे पूछता हूँ : कितने परमेश्वर हैं? कौन सा परमेश्वर तुम लोगों के लिए उद्धार लाएगा? पहला परमेश्वर, दूसरा या फिर तीसरा, जिससे तुम सब हमेशा प्रार्थना करते हो? तुम लोग हमेशा किस पर विश्वास करते हो? पिता पर? या फिर पुत्र पर? या फिर आत्मा पर? मुझे बताओ कि तुम किस पर विश्वास करते हो। हालांकि तुम्हारे हर शब्द में परमेश्वर पर विश्वास दिखता है, लेकिन तुम लोग जिस पर वास्तव में विश्वास करते हो, वह तुम्हारा दिमाग़ है। तुम लोगों के हृदय में परमेश्वर है ही नहीं! फिर भी तुम सबके दिमाग़ में इस प्रकार के कई त्रित्व हैं! क्या तुम लोग इससे सहमत नहीं हो?

यदि त्रित्व की इस अवधारणा के अनुसार काम के तीन चरणों का मूल्यांकन किया जाना है, तो तीन परमेश्वर होने चाहिए क्योंकि प्रत्येक द्वारा क्रियान्वित कार्य एकसमान नहीं हैं। यदि तुम लोगों में से कोई भी कहता है कि त्रित्व वास्तव में है, तो समझाओ कि तीन व्यक्तियों में यह एक परमेश्वर क्या है। पवित्र पिता क्या है? पुत्र क्या है? पवित्र आत्मा क्या है? क्या यहोवा पवित्र पिता है? क्या यीशु पुत्र है? फिर पवित्र आत्मा का क्या? क्या पिता एक आत्मा नहीं है? पुत्र का सार भी क्या एक आत्मा नहीं है? क्या यीशु का कार्य पवित्र आत्मा का कार्य नहीं था? एक समय आत्मा द्वारा क्रियान्वित यहोवा का कार्य क्या यीशु के कार्य के समान नहीं था? परमेश्वर में कितने आत्माएं हो सकते हैं? तुम्हारे स्पष्टीकरण के अनुसार, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के तीन व्यक्ति एक हैं; यदि ऐसा है, तो तीन आत्माएं हैं, लेकिन तीन आत्माओं का अर्थ है कि तीन परमेश्वर हैं। इसका मतलब है कि कोई भी एक सच्चा परमेश्वर नहीं है; इस प्रकार के परमेश्वर में अभी भी परमेश्वर का निहित सार कैसे हो सकता है? यदि तुम मानते हो कि केवल एक ही परमेश्वर है, तो उसका एक पुत्र कैसे हो सकता है और वह पिता कैसे हो सकता है? क्या ये सब केवल तुम्हारी धारणाएं नहीं हैं? केवल एक परमेश्वर है, इस परमेश्वर में केवल एक ही व्यक्ति है, और परमेश्वर का केवल एक आत्मा है, वैसा ही जैसा बाइबल में लिखा गया है कि “केवल एक पवित्र आत्मा और केवल एक परमेश्वर है।” जिस पिता और पुत्र के बारे में तुम बोलते हो, वे चाहे अस्तित्व में हों, कुल मिलाकर परमेश्वर एक ही है और पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा का सार, जिसे तुम लोग मानते हो, पवित्र आत्मा का सार है। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर एक आत्मा है लेकिन वह देहधारण करने और मनुष्यों के बीच रहने के साथ-साथ सभी चीजों से ऊँचा होने में सक्षम है। उसका आत्मा समस्त-समावेशी और सर्वव्यापी है। वह एक ही समय पर देह में हो सकता है और पूरे विश्व में और उसके ऊपर हो सकता है। चूंकि सभी लोग कहते हैं कि परमेश्वर एकमात्र सच्चा परमेश्वर है, फिर एक ही परमेश्वर है, जो किसी की इच्छा से विभाजित नहीं होता! परमेश्वर केवल एक आत्मा है और केवल एक ही व्यक्ति है; और वह परमेश्वर का आत्मा है। यदि जैसा तुम कहते हो, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा, तो क्या वे तीन परमेश्वर नहीं हैं? पवित्र आत्मा एक तत्व है, पुत्र दूसरा है, और पिता एक और है। उनके व्यक्तित्व अलग हैं और उनके सार अलग हैं, तो वे एक इकलौते परमेश्वर का हिस्सा कैसे हो सकते हैं? पवित्र आत्मा एक आत्मा है; यह मनुष्य के लिए समझना आसान है। यदि ऐसा है तो, पिता और भी अधिक एक आत्मा है। वह पृथ्वी पर कभी नहीं उतरा और कभी भी देह नहीं बना है; वह मनुष्यों के दिल में यहोवा परमेश्वर है और निश्चित रूप से वह भी एक आत्मा है। तो उसके और पवित्र आत्मा के बीच क्या संबंध है? क्या यह पिता और पुत्र के बीच का संबंध है? या यह पवित्र आत्मा और पिता के आत्मा के बीच का रिश्ता है? क्या प्रत्येक आत्मा का सार एकसमान है? या पवित्र आत्मा पिता का एक साधन है? इसे कैसे समझाया जा सकता है? और फिर पुत्र और पवित्र आत्मा के बीच क्या संबंध है? क्या यह दो आत्माओं का संबंध है या एक मनुष्य और आत्मा के बीच का संबंध है? ये सभी ऐसे मामले हैं, जिनकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती! यदि वे सभी एक आत्मा हैं, तो तीन व्यक्तियों की कोई बात नहीं हो सकती, क्योंकि वे एक आत्मा के अधीन हैं। यदि वे अलग-अलग व्यक्ति होते, तो उनकी आत्माओं की शक्ति भिन्न होती और बस वे एक ही आत्मा नहीं हो सकते थे। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा की यह अवधारणा सबसे बेतुकी है! यह परमेश्वर को खंडित करती है और प्रत्येक को एक ओहदा और आत्मा देकर उसे तीन व्यक्तियों में विभाजित करती है; तो कैसे वह अब भी एक आत्मा और एक परमेश्वर हो सकता है? मुझे बताओ कि क्या स्वर्ग, पृथ्वी और सभी चीज़ें पिता, पुत्र या पवित्र आत्मा द्वारा बनाई गई थीं? कुछ कहते हैं कि उन्होंने यह सब मिलकर बनाया। फिर किसने मानवजाति को छुटकारा दिलाया? क्या यह पवित्र आत्मा था, पुत्र था या पिता? कुछ कहते हैं कि वह पुत्र था, जिसने मानवजाति को छुटकारा दिलाया था। तो फिर सार में पुत्र कौन है? क्या वह परमेश्वर के आत्मा का देहधारण नहीं है? एक सृजित मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से देहधारी स्वर्ग में परमेश्वर को पिता के नाम से बुलाता है। क्या तुम्हें पता नहीं कि यीशु का जन्म पवित्र आत्मा के गर्भधारण से हुआ था? उसके भीतर पवित्र आत्मा है; तुम कुछ भी कहो, वह अभी भी स्वर्ग में परमेश्वर के साथ एकसार है, क्योंकि वह परमेश्वर के आत्मा का देहधारण है। पुत्र का यह विचार केवल असत्य है। यह एक आत्मा है जो सभी कार्य क्रियान्वित करता है; केवल परमेश्वर स्वयं, यानी परमेश्वर का आत्मा अपना कार्य क्रियान्वित करता है। परमेश्वर का आत्मा कौन है? क्या यह पवित्र आत्मा नहीं है? क्या यह पवित्र आत्मा नहीं है, जो यीशु में कार्य करता है? यदि कार्य पवित्र आत्मा (अर्थात, परमेश्वर का आत्मा) द्वारा क्रियान्वित नहीं किया गया था, तो क्या उसका कार्य स्वयं परमेश्वर का प्रतिनिधित्व कर सकता था? जब प्रार्थना करते हुए यीशु ने स्वर्ग में परमेश्वर को पिता के नाम से बुलाया, तो यह केवल एक सृजित मनुष्य के परिप्रेक्ष्य से किया गया था, केवल इसलिए कि परमेश्वर के आत्मा ने एक सामान्य और साधारण देह का चोला धारण किया था और उसका वाह्य आवरण एक सृजित प्राणी का था। भले ही उसके भीतर परमेश्वर का आत्मा था, उसका बाहरी प्रकटन अभी भी एक सामान्य व्यक्ति का था; दूसरे शब्दों में, वह “मनुष्य का पुत्र” बन गया था, जिसके बारे में स्वयं यीशु समेत सभी मनुष्यों ने बात की थी। यह देखते हुए कि वह मनुष्य का पुत्र कहलाता है, वह एक व्यक्ति है (चाहे पुरुष हो या महिला, किसी भी हाल में एक इंसान के बाहरी चोले के साथ) जो सामान्य लोगों के साधारण परिवार में पैदा हुआ। इसलिए, यीशु का स्वर्ग में परमेश्वर को पिता बुलाना, वैसा ही था जैसे तुम लोगों ने पहले उसे पिता कहा था; उसने सृष्टि के एक व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से ऐसा किया। क्या तुम लोगों को अभी भी प्रभु की प्रार्थना याद है, जो यीशु ने तुम लोगों को याद करने के लिए सिखाई थी? “स्वर्ग में हमारे पिता...” उसने सभी मनुष्यों से स्वर्ग में परमेश्वर को पिता के नाम से बुलाने को कहा। और चूँकि वह भी उसे पिता कहता था, उसने ऐसा उस व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य से किया, जो तुम सभी के साथ समान स्तर पर खड़ा था। चूंकि तुम लोगों ने स्वर्ग में परमेश्वर को पिता के नाम से बुलाया था, यीशु ने स्वयं को तुम सबके साथ समान स्तर पर देखा और पृथ्वी पर परमेश्वर द्वारा चुने गए व्यक्ति (अर्थात परमेश्वर के पुत्र) के रूप में देखा। यदि तुम लोग परमेश्वर को पिता कहते हो, तो क्या यह इसलिए नहीं कि तुम सब सृजित प्राणी हो? पृथ्वी पर यीशु का अधिकार चाहे जितना अधिक हो, क्रूस पर चढ़ने से पहले, वह मात्र मनुष्य का पुत्र था, पवित्र आत्मा (यानी परमेश्वर) द्वारा नियंत्रित था और पृथ्वी के सृजित प्राणियों में से एक था क्योंकि उसे अभी भी अपना कार्य पूरा करना था। इसलिए, स्वर्ग में परमेश्वर को पिता बुलाना पूरी तरह से उसकी विनम्रता और आज्ञाकारिता थी। परमेश्वर (अर्थात स्वर्ग में आत्मा) को उसका इस प्रकार संबोधन करना हालांकि यह साबित नहीं करता कि वह स्वर्ग में परमेश्वर के आत्मा का पुत्र है। बल्कि, यह केवल यही है कि उसका दृष्टिकोण अलग था, न कि वह एक अलग व्यक्ति था। अलग व्यक्तियों का अस्तित्व एक मिथ्या है! क्रूस पर चढ़ने से पहले, यीशु मनुष्य का पुत्र था, जो देह की सीमाओं से बंधा था और उसमें पूरी तरह आत्मा का अधिकार नहीं था। यही कारण है कि वह केवल एक सृजित प्राणी के परिप्रेक्ष्य से परमपिता परमेश्वर की इच्छा तलाश सकता था। यह वैसा ही है जैसा गतसमनी में उसने तीन बार प्रार्थना की थी : “जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।” क्रूस पर रखे जाने से पहले, वह बस यहूदियों का राजा था; वह मसीह मनुष्य का पुत्र था और महिमा का शरीर नहीं था। यही कारण है कि एक सृजित प्राणी के दृष्टिकोण से, उसने परमेश्वर को पिता बुलाया। अब तुम यह नहीं कह सकते कि सभी जो परमेश्वर को पिता बुलाते हैं, पुत्र हैं। यदि ऐसा होता, तो क्या यीशु द्वारा प्रभु की प्रार्थना सिखाए जाने के बाद, क्या तुम सभी पुत्र नहीं बन गए होते? यदि तुम लोग अभी भी आश्वस्त नहीं हो तो मुझे बताओ, वह कौन है जिसे तुम सब पिता कहते हो? यदि तुम यीशु की बात कर रहे हो तो तुम सबके लिए यीशु का पिता कौन है? एक बार जब यीशु चला गया तो पिता और पुत्र का यह विचार नहीं रहा। यह विचार केवल उन वर्षों के लिए उपयुक्त था जब यीशु देह में था; अन्य सभी परिस्थितियों में, जब तुम परमेश्वर को पिता कहते हो, तो यह वह रिश्ता है, जो सृष्टि के परमेश्वर और सृजित प्राणी के बीच होता है। ऐसा कोई समय नहीं, जिस पर पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के त्रित्व का विचार खड़ा रह सके; यह भ्रांति है, जो युगों तक शायद ही कभी समझी गई है और इसका अस्तित्व नहीं है!

यह अधिकांश लोगों को उत्पत्ति में परमेश्वर के वचनों की याद दिला सकता है : “हम मनुष्य को अपने स्वरूप के अनुसार अपनी समानता में बनाएँ” (उत्पत्ति 1:26)। यह देखते हुए कि परमेश्वर कहता है, “हम मनुष्य को अपनी छवि में बनाएँ,” तो “हम” इंगित करता है दो या अधिक; चूंकि उसने “हम” कहा, तो फिर सिर्फ़ एक ही परमेश्वर नहीं है। इस तरह, मनुष्य ने अलग व्यक्तियों के अमूर्त पर सोचना शुरू कर दिया, और इन वचनों से पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा का विचार उभरा। तो फिर पिता कैसा है? पुत्र कैसा है? और पवित्र आत्मा कैसा है? क्या संभवतः यह हो सकता है कि आज की मानवजाति ऐसी छवि में बनाई गई थी, जो तीनों से मिलकर बनती है? तो मनुष्य की छवि क्या पिता की तरह है, या पुत्र की तरह या पवित्र आत्मा की तरह है? मनुष्य परमेश्वर के किस व्यक्ति की छवि है? मनुष्य का यह विचार बिल्कुल ग़लत और बेतुका है! यह केवल एक परमेश्वर को कई परमेश्वरों में विभाजित कर सकता है। जिस समय मूसा ने उत्पत्ति ग्रंथ लिखा था, उस समय तक दुनिया की सृष्टि के बाद मानवजाति का सृजन हो चुका था। बिल्कुल शुरुआत में, जब दुनिया शुरू हुई, तो मूसा मौजूद नहीं था। और मूसा ने बहुत बाद में बाइबल लिखी तो वह यह कैसे जान सकता था कि स्वर्ग में परमेश्वर ने क्या बोला? उसे ज़रा भी भान नहीं था कि परमेश्वर ने कैसे दुनिया बनाई। बाइबिल के पुराने नियम में, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा का उल्लेख नहीं है, केवल एक ही सच्चे परमेश्वर यहोवा का है, जो इस्राएल में अपने कार्य को क्रियान्वित कर रहा है। जैसे युग बदलता है, उसके अनुसार उसे अलग-अलग नामों से बुलाया जाता है, लेकिन इससे यह साबित नहीं हो सकता कि प्रत्येक नाम एक अलग व्यक्ति का हवाला देता है। यदि ऐसा होता तो क्या परमेश्वर में असंख्य व्यक्ति न होते? पुराने नियम में जो लिखा है, वह यहोवा का कार्य है, व्यवस्था के युग की शुरुआत के लिए स्वयं परमेश्वर के कार्य का एक चरण है। यह परमेश्वर का कार्य था और जहाँ वह जैसा कहता था, वैसा ही होता था और जैसी उसने आज्ञा दी, वैसे स्थिर रहा। यहोवा ने कभी नहीं कहा कि वह पिता है जो कार्य क्रियान्वित करने आया है, न ही उसने कभी पुत्र के मानवजाति के छुटकारे के लिए आने की भविष्यवाणी की। जब यीशु के समय की बात आई, तो केवल यह कहा गया कि परमेश्वर समस्त मानवजाति को छुड़ाने के लिए देह बन गया था, न कि यह कि पुत्र आया था। चूंकि युग एक जैसे नहीं होते और जो कार्य परमेश्वर स्वयं करता है, वह भी अलग होता है, उसे अपने कार्य को अलग-अलग क्षेत्रों में क्रियान्वित करना होता है। इस तरह, वह पहचान भी अलग होती है, जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है। मनुष्य का मानना है कि यहोवा यीशु का पिता है, लेकिन यह वास्तव में यीशु ने स्वीकार नहीं किया था, जिसने कहा : “हम पिता और पुत्र के रूप में कभी अलग नहीं थे; मैं और स्वर्ग में पिता एक हैं। पिता मुझ में है और मैं पिता में हूँ; जब मनुष्य पुत्र को देखता है, तो वे स्वर्गिक पिता को देख रहे हैं।” जब यह सब कहा जा चुका है, पिता हो या पुत्र, वे एक आत्मा हैं, अलग-अलग व्यक्तियों में विभाजित नहीं हैं। जब मनुष्य समझाने की कोशिश करता है, तो अलग-अलग व्यक्तियों के विचार के साथ ही मामला जटिल हो जाता है, साथ ही पिता, पुत्र और आत्मा के बीच का संबंध भी। जब मनुष्य अलग-अलग व्यक्तियों की बात करता है, तो क्या यह परमेश्वर को मूर्तरूप नहीं देता? यहां तक कि मनुष्य व्यक्तियों को पहले, दूसरे और तीसरे के रूप में स्थान भी देता है; ये सभी बस मनुष्य की कल्पनाएं हैं, संदर्भ के योग्य नहीं हैं और पूरी तरह अवास्तविक हैं! यदि तुमने उससे पूछा : “कितने परमेश्वर हैं?” वह कहेगा कि परमेश्वर पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा का त्रित्व है : एक सच्चा परमेश्वर। यदि तुमने आगे पूछा : “पिता कौन है?” वह कहेगा : “पिता स्वर्ग में परमेश्वर का आत्मा है; वह सबका प्रभारी है और स्वर्ग का स्वामी है।” “तो क्या यहोवा आत्मा है?” वह कहेगा : “हाँ!” यदि तुमने फिर उससे पूछा, “पुत्र कौन है?” तो वह कहेगा कि निश्चित रूप से यीशु पुत्र है। “तो यीशु की कहानी क्या है? वह कहाँ से आया था?” वह कहेगा : “यीशु का जन्म पवित्र आत्मा के द्वारा मरियम के गर्भधारण करने से हुआ था।” तो क्या उसका सार भी आत्मा नहीं है? क्या उसका कार्य भी पवित्र आत्मा का प्रतिनिधित्व नहीं करता? यहोवा आत्मा है और उसी तरह यीशु का सार भी है। अब अंत के दिनों में, यह कहने की ज़रूरत कम है कि अभी भी आत्मा कार्य कर रहा है; वे अलग-अलग व्यक्ति कैसे हो सकते हैं? क्या यह महज़ परमेश्वर का आत्मा नहीं जो आत्मा के कार्य को अलग-अलग परिप्रेक्ष्यों से क्रियान्वित कर रहा है? ऐसे तो, व्यक्तियों के बीच कोई अंतर नहीं है। यीशु पवित्र आत्मा द्वारा गर्भ में आया था और सुनिश्चित रूप से, उसका कार्य बिल्कुल पवित्र आत्मा के जैसा था। यहोवा द्वारा क्रियान्वित किए गए कार्य के पहले चरण में, वह न तो देह बना और न मनुष्य के सामने प्रकट हुआ। तो मनुष्य ने कभी उसके प्रकटन को नहीं देखा। कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि वह कितना बड़ा और कितना ऊँचा था, वह फिर भी आत्मा था, स्वयं परमेश्वर जिसने आरंभ में मनुष्य को बनाया था। अर्थात, वह परमेश्वर का आत्मा था। वह बादलों में से मनुष्य से बात करता था, केवल एक आत्मा, और किसी ने भी उसका प्रकटन नहीं देखा। केवल अनुग्रह के युग में जब परमेश्वर का आत्मा देह में आया और यहूदिया में देहधारी हुआ, तो मनुष्य ने पहली बार एक यहूदी के रूप में देहधारण की छवि देखी। उसमें यहोवा जैसा कुछ भी नहीं था। हालांकि, वह पवित्र आत्मा द्वारा गर्भ में आया था, अर्थात स्वयं यहोवा के आत्मा के गर्भ में आया था, और यीशु का जन्म तब भी परमेश्वर के आत्मा के मूर्तरूप में हुआ था। मनुष्य ने जो सबसे पहले देखा वह यह था कि पवित्र आत्मा यीशु पर एक कबूतर की तरह उतर रहा है; यह यीशु के लिए विशेष आत्मा नहीं था, बल्कि पवित्र आत्मा था। तो क्या यीशु का आत्मा पवित्र आत्मा से अलग हो सकता है? अगर यीशु यीशु है, पुत्र है, और पवित्र आत्मा पवित्र आत्मा है, तो वे एक कैसे हो सकते हैं? यदि ऐसा है तो कार्य क्रियान्वित नहीं किया जा सकता। यीशु के भीतर का आत्मा, स्वर्ग में आत्मा और यहोवा का आत्मा सब एक हैं। इसे पवित्र आत्मा, परमेश्वर का आत्मा, सात गुना सशक्त आत्मा और सर्वसमावेशी आत्मा कहा जाता है। परमेश्वर का आत्मा बहुत से कार्य क्रियान्वित कर सकता है। वह दुनिया को बनाने और पृथ्वी को बाढ़ द्वारा नष्ट करने में सक्षम है; वह सारी मानव जाति को छुटकारा दिला सकता है और इसके अलावा वह सारी मानवजाति को जीत और नष्ट कर सकता है। यह सारा कार्य स्वयं परमेश्वर द्वारा क्रियान्वित किया गया है और उसके स्थान पर परमेश्वर के किसी अन्य व्यक्तित्व द्वारा नहीं किया जा सकता है। उसके आत्मा को यहोवा और यीशु के नाम से, साथ ही सर्वशक्तिमान के नाम से भी बुलाया जा सकता है। वह प्रभु और मसीह है। वह मनुष्य का पुत्र भी बन सकता है। वह स्वर्ग में भी है और पृथ्वी पर भी है; वह ब्रह्मांडों के ऊपर और बहुलता के बीच में है। वह स्वर्ग और पृथ्वी का एकमात्र स्वामी है! सृष्टि के समय से अब तक, यह कार्य स्वयं परमेश्वर के आत्मा द्वारा क्रियान्वित किया गया है। यह कार्य स्वर्ग में हो या देह में, सब कुछ उसकी आत्मा द्वारा क्रियान्वित किया जाता है। सभी प्राणी, चाहे स्वर्ग में हों या पृथ्वी पर, उसकी सर्वशक्तिमान हथेली में हैं; यह सब स्वयं परमेश्वर का कार्य है और उसके स्थान पर किसी अन्य के द्वारा नहीं किया जा सकता। स्वर्ग में वह आत्मा है, लेकिन स्वयं परमेश्वर भी है; मनुष्यों के बीच वह देह है, पर स्वयं परमेश्वर बना रहता है। यद्यपि उसे सैकड़ों-हज़ारों नामों से बुलाया जा सकता है, तो भी वह स्वयं है, आत्मा की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। उसके क्रूसीकरण के माध्यम से सारी मानव जाति का छुटकारा उसके आत्मा का प्रत्यक्ष कार्य था और वैसे ही अंत के दिनों के दौरान सभी देशों और सभी भूभागों के लिए उसकी घोषणा भी। हर समय, परमेश्वर को केवल सर्वशक्तिमान और एक सच्चा परमेश्वर, सभी समावेशी स्वयं परमेश्वर कहा जा सकता है। अलग-अलग व्यक्ति अस्तित्व में नहीं हैं, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा का यह विचार तो बिल्कुल नहीं है! स्वर्ग में और पृथ्वी पर केवल एक ही परमेश्वर है!

परमेश्वर की प्रबंधन योजना छह हजार वर्षों तक फैली है और उसके कार्य में अंतर के आधार पर तीन युगों में विभाजित है : पहला युग पुराने नियम का व्यवस्था का युग है; दूसरा अनुग्रह का युग है; और तीसरा वह है जो कि अंत के दिनों का है—राज्य का युग। प्रत्येक युग में एक अलग पहचान का प्रतिनिधित्व किया जाता है। यह केवल कार्य में अंतर यानी कार्य की आवश्यकताओं के कारण है। व्यवस्था के युग के दौरान कार्य का पहला चरण इस्राएल में क्रियान्वित किया गया था और छुटकारे के कार्य के समापन का दूसरा चरण यहूदिया में क्रियान्वित किया गया था। छुटकारे के कार्य के लिए पवित्र आत्मा के गर्भधारण से और एकमात्र पुत्र के रूप में यीशु का जन्म हुआ। यह सब कार्य की आवश्यकताओं के कारण था। अंत के दिनों में, परमेश्वर अपने कार्य को अन्यजाति राष्ट्रों में विस्तारित करना और वहाँ के लोगों पर विजय प्राप्त करना चाहता है ताकि उनके बीच उसका नाम महान हो। वह सभी सत्य को समझने और उसमें प्रवेश करने में मनुष्य का मार्गदर्शन करना चाहता है। यह सब कार्य एक आत्मा द्वारा क्रियान्वित किया जाता है। हालाँकि वह अलग-अलग दृष्टिकोण से ऐसा कर सकता है तो भी, कार्य की प्रकृति और सिद्धांत एक समान रहते हैं। एक बार जब तुम उन कार्यों के सिद्धांतों और प्रकृति को देखते हो, जो उन्होंने क्रियान्वित किया है, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि यह सब एक आत्मा द्वारा किया जाता है। फिर भी कुछ कह सकते हैं : “पिता पिता है; पुत्र पुत्र है; पवित्र आत्मा पवित्र आत्मा है और अंत में वे एक बनेंगे।” तो तुम उन्हें एक कैसे बना सकते हो? पिता और पवित्र आत्मा को एक कैसे बनाया जा सकता है? यदि वे मूल रूप से दो थे, तो चाहे वे एक साथ कैसे भी जोड़ें जाएं, क्या वे दो हिस्से नहीं बने रहेंगे? जब तुम उन्हें एक बनाने को कहते हो, तो क्या यह बस दो अलग हिस्सों को जोड़कर एक बनाना नहीं है? लेकिन क्या पूरे किए जाने से पहले वे दो भाग नहीं थे? प्रत्येक आत्मा का एक विशिष्ट सार होता है और दो आत्माएं एक नहीं बन सकतीं। आत्मा कोई भौतिक वस्तु नहीं है और भौतिक दुनिया की किसी भी अन्य वस्तु के समान नहीं है। जैसे मनुष्य इसे देखता है, पिता एक आत्मा है, बेटा दूसरा, और पवित्र आत्मा एक और, फिर तीन आत्माएं एक साथ पूरे तीन गिलास पानी की तरह मिलकर पूरा एक बनते हैं। क्या यह तीन को एक बनाना नहीं है? यह एक शुद्ध रूप से गलत और बेतुकी व्याख्या है! क्या यह परमेश्वर को विभाजित करना नहीं है? पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा सभी को एक कैसे बनाया जा सकता है? क्या वे भिन्न प्रकृति वाले तीन भाग नहीं हैं? अन्य लोग हैं, जो कहते हैं, “क्या परमेश्वर ने स्पष्ट रूप से यह नहीं बताया कि यीशु उसका प्रिय पुत्र है?” यीशु परमेश्वर का प्रिय पुत्र है, जिस पर वह प्रसन्न है—यह निश्चित रूप से परमेश्वर ने स्वयं ही कहा था। यह परमेश्वर की स्वयं के लिए गवाही थी, लेकिन केवल एक अलग परिप्रेक्ष्य से, स्वर्ग में आत्मा के अपने स्वयं के देहधारण को गवाही देना। यीशु उसका देहधारण है, स्वर्ग में उसका पुत्र नहीं। क्या तुम समझते हो? यीशु के वचन, “मैं पिता में हूँ और पिता मुझ में है,” क्या यह संकेत नहीं देते कि वे एक आत्मा हैं? और यह देहधारण के कारण नहीं है कि वे स्वर्ग और पृथ्वी के बीच अलग हो गए थे? वास्तव में, वे अभी भी एक हैं; चाहे कुछ भी हो, यह केवल परमेश्वर की स्वयं के लिए गवाही है। युग में परिवर्तन, कार्य की आवश्यकताओं और उसकी प्रबंधन योजना के विभिन्न चरणों के कारण, जिस नाम से मनुष्य उसे बुलाता है, वह भी अलग हो जाता है। जब वह कार्य के पहले चरण को क्रियान्वित करने आया था, तो उसे केवल यहोवा कहा जा सकता था, जो इस्राएलियों का चरवाहा है। दूसरे चरण में, देहधारी परमेश्वर को केवल प्रभु और मसीह कहा जा सकता था। परंतु उस समय, स्वर्ग में आत्मा ने केवल यह बताया था कि वह परमेश्वर का प्यारा पुत्र है और उसके परमेश्वर का एकमात्र पुत्र होने का कोई उल्लेख नहीं किया था। ऐसा हुआ ही नहीं था। परमेश्वर की एकमात्र संतान कैसे हो सकती है? तब क्या परमेश्वर मनुष्य नहीं बन जाता? क्योंकि वह देहधारी था, उसे परमेश्वर का प्रिय पुत्र कहा गया और इससे पिता और पुत्र के बीच का संबंध आया। यह बस स्वर्ग और पृथ्वी के बीच जो विभाजन है, उसके कारण हुआ। यीशु ने देह के परिप्रेक्ष्य से प्रार्थना की। चूंकि उसने इस तरह की सामान्य मानवता की देह को धारण किया था, यह उस देह के परिप्रेक्ष्य से है, जो उसने कहा : “मेरा बाहरी आवरण एक सृजित प्राणी का है। चूंकि मैंने इस धरती पर आने के लिए देहधारण किया है, अब मैं स्वर्ग से बहुत दूर हूँ।” इस कारण से, वह केवल परमपिता परमेश्वर से देह के परिप्रेक्ष्य से ही प्रार्थना कर सकता था। यह उसका कर्तव्य था और यह वह था, जो परमेश्वर के देहधारी आत्मा में होना चाहिए। यह नहीं कहा जा सकता कि वह परमेश्वर नहीं था क्योंकि वह देह के दृष्टिकोण से पिता से प्रार्थना करता था। यद्यपि उसे परमेश्वर का प्रिय पुत्र कहा जाता था, वह अभी भी परमेश्वर था क्योंकि वह आत्मा का देहधारण था और उसका सार अब भी आत्मा का था। लोग ताज्जुब करते हैं कि वह क्यों प्रार्थना करता था, जब वह स्वयं परमेश्वर था। यह इसलिए क्योंकि वह देहधारी परमेश्वर था, देह के भीतर रह रहा परमेश्वर था, न कि स्वर्ग में आत्मा। जैसे मनुष्य इसे देखता है, पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा सभी परमेश्वर हैं। केवल तीनों से एक बनने वाला ही एक सच्चा परमेश्वर माना जा सकता है और इस तरह उसकी शक्ति असाधारण रूप से महान है। ऐसे लोग हैं, जो कहते हैं कि केवल इस तरह से वह सात गुना सशक्त आत्मा है। जब पुत्र ने अपने आने के बाद प्रार्थना की, तो उसने उस आत्मा से प्रार्थना की थी। वास्तव में, वह एक सृजित प्राणी होने के परिप्रेक्ष्य से प्रार्थना कर रहा था। क्योंकि देह पूर्ण नहीं है, वह पूर्ण नहीं था और जब वह देह में आया, तो उसमें कई कमजोरियां थीं और वह देह में अपना कार्य क्रियान्वित करते हुए बहुत परेशान था। यही कारण है कि क्रूस पर चढ़ने से पहले उसने परमपिता परमेश्वर से तीन बार प्रार्थना की और साथ ही उससे पहले भी कई बार प्रार्थना की थी। उसने अपने शिष्यों के बीच प्रार्थना की; अकेले एक पहाड़ पर प्रार्थना की; उसने मछली पकड़ने वाली नाव पर रहते हुए प्रार्थना की; उसने लोगों की भीड़ के बीच प्रार्थना की; खाना खाते वक्त प्रार्थना की; और दूसरों को आशीष देते समय उसने प्रार्थना की। उसने ऐसा क्यों किया? उसने आत्मा से प्रार्थना की थी; वह आत्मा से प्रार्थना कर रहा था, स्वर्ग में परमेश्वर से, देह के परिप्रेक्ष्य से। इसलिए मनुष्य के दृष्टिकोण से, यीशु कार्य के उस चरण में पुत्र बन गया। इस चरण में हालांकि वह प्रार्थना नहीं करता। ऐसा क्यों है? इसका कारण है कि वह जो उत्पन्न करता है, वह वचन का कार्य है और वचन का न्याय और ताड़ना है। उसे प्रार्थना की कोई आवश्यकता नहीं है और उसकी सेवकाई को बोलना है। वह क्रूस पर नहीं चढ़ाया जाता और लोग उसे उन्हें नहीं सौंपते, जो सत्ता में हैं। वह केवल अपना कार्य क्रियान्वित करता है। जिस वक्त यीशु ने प्रार्थना की, तो वह स्वर्ग के राज्य के अवतरण के लिए पिता की इच्छा पूरी होने और आने वाले कार्य के लिए परमपिता परमेश्वर से प्रार्थना कर रहा था। इस चरण में, स्वर्ग का राज्य पहले ही उतर चुका है, तो क्या उसे अब भी प्रार्थना करने की ज़रूरत है? उसका कार्य युग खत्म करने का है और अब कोई नया युग नहीं है, इसलिए क्या अगले चरण के लिए प्रार्थना करने की आवश्यकता है? अफ़सोस कि ऐसा नहीं है!

मनुष्य के स्पष्टीकरण में कई विरोधाभास हैं। वास्तव में, ये सभी मनुष्य की धारणाएं हैं; बिना किसी जाँच-पड़ताल के तुम सभी विश्वास कर लोगे कि वे सही हैं। क्या तुम नहीं जानते कि परमेश्वर के त्रित्व होने जैसे विचार केवल मनुष्य की धारणाएँ हैं? मनुष्य का कोई ज्ञान पूरा और संपूर्ण नहीं है। हमेशा अशुद्धियां होती हैं और मनुष्य के बहुत अधिक विचार हैं; यह दर्शाता है कि एक सृजन किया गया प्राणी, परमेश्वर के कार्य की व्याख्या कर ही नहीं सकता। मनुष्य के मन में बहुत कुछ है, सभी तर्क और विचार से आता है, जो सत्य के साथ संघर्ष करता है। क्या तुम्हारा तर्क परमेश्वर के कार्य का पूरी तरह से विश्लेषण कर सकता है? क्या तुम यहोवा के सभी कार्यों की अंतर्दृष्टि पा सकते हो? क्या यह तुम एक मानव होकर सब कुछ देख सकते हो या स्वयं परमेश्वर ही अनंत से अनंत तक देखने में सक्षम है? क्या तुम बीते अनंत काल से आने वाले अनंत काल तक देख सकते हो या यह परमेश्वर है, जो ऐसा कर सकता है? तुम्हारा क्या कहना है? परमेश्वर की व्याख्या करने के लिए तुम कैसे योग्य हो? तुम्हारे स्पष्टीकरण का आधार क्या है? क्या तुम परमेश्वर हो? स्वर्ग और पृथ्वी, और सभी चीज़ें स्वयं परमेश्वर द्वारा बनाई गई थीं। यह तुम नहीं थे जिसने यह किया था, तो तुम गलत व्याख्याएं क्यों दे रहे हो? अब, क्या तुम त्रयात्मक परमेश्वर में विश्वास करना जारी रखे हो? क्या तुम्हें नहीं लगता कि इस तरह यह बहुत बोझिल है? तुम्हारे लिए सबसे अच्छा होगा कि तुम एक परमेश्वर में विश्वास करो, न कि तीन में। हल्का होना सबसे अच्छा है क्योंकि प्रभु का भार हल्का है।

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