मद आठ : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं (भाग एक)

परिशिष्ट : उपदेशों का प्रतिलेखन करते समय उत्पन्न होने वाली समस्याओं का विश्लेषण

मैंने कुछ लोगों को यह कहते सुना कि प्रतिलेखकों ने पिछले कुछ धर्मोपदेशों के शुरुआती हिस्से से कहानियाँ हटा दीं और केवल उनके बाद के धर्मोपदेशों की औपचारिक सामग्री को रहने दिया। क्या वास्तव में ऐसा है? वे कौन सी कहानियाँ हैं जो उनके आगे के धर्मोपदेशों से अलग की गईं? (डैबेयो और शाओबेयो की कहानी, डैमिंग और शाओमिंग की कहानी, और पूंजी पर चर्चा: “जैसा है वैसा रहने दो!”) इन तीन कहानियों को धर्मोपदेशों की सामग्री से अलग किया गया था, लेकिन क्यों? इसका क्या कारण था? जाहिर है कि प्रतिलेखकों को लगा कि इन कहानियोँ का धर्मोपदेशों की सामग्री के साथ मेल नहीं है, इसलिए उन्होंने उन्हें अलग कर दिया। क्या यह उचित था? प्रतिलेखकों ने यही किया था। वे बहुत अहंकारी और आत्मतुष्ट थे, उन्होंने कहानियों को निकालकर धर्मोपदेशों की सामग्री के बिना अलग-अलग अध्यायों में डाल दिया था। तुम लोग क्या कहोगे कि ऐसा करने का परिणाम अच्छा था या बुरा? इसके अलावा, क्या तुम लोग कहोगे कि पहले सुनाई गई कहानी का मेल और तारतम्य उसके बाद के धर्मोपदेश से होना चाहिए? क्या वास्तव में ऐसा होना आवश्यक है? (नहीं।) तो फिर, धर्मोपदेश का प्रतिलेखन करने वालों ने काम को इस गलत तरह से क्यों समझा? वे ऐसा विश्वास कैसे कर सके? यहाँ समस्या क्या है? उन्होंने सोचा : “तुमने जो कहानियाँ सुनाईं, वे विषय से हटकर हैं। मैं तुम्हारे लिए उन्हें परखूँगा और उनका वितरण करते समय मैं उन्हें एक साथ नहीं रखूँगा। धर्मोपदेश धर्म का उपदेश हैं; उन्हें एक दूसरे से सुसंगत होना चाहिए। उनके पहले की कहानियों का धर्मोपदेशों की सामग्री में दखल नहीं होना चाहिए। तुम्हारे लिए मुझे उन्हें परखना पड़ता है क्योंकि तुम स्वयं इस मुद्दे को नहीं समझते।” क्या यह अच्छा इरादा है? उनमें यह अच्छा इरादा कहाँ से आता है? क्या यह मानवीय धारणाओं से आता है? (हाँ।) धर्मोपदेश देते हुए क्या मुझे हर बात पर इतने व्यापक तरीके से विचार करने की आवश्यकता है? क्या मेरी सुनाई प्रत्येक कहानी को उसके बाद की सामग्री से मेल खाना चाहिए? (नहीं।) इसकी कोई जरूरत नहीं है; इसे एक तरह का विनियम, एक धारणा कहा जाता है। प्रतिलेखकों ने क्या गलतियाँ कीं? (अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर काम करना।) और क्या? (असावधानी और मनमाने ढंग से काम करना।) इस तरह के व्यवहार की प्रकृति यह है कि इसमें थोड़ी असावधानी और मनमानापन होता है; उनमें परमेश्वर का भय मानने वाला हृदय नहीं होता। ऐसा कहना उचित है, लेकिन यह अभी भी मामले के सार से अलग बात है। धर्मोपदेश का प्रतिलेखन करते समय उन्होंने परमेश्वर द्वारा कही गई हर बात को देखने का कैसा रवैया और दृष्टिकोण अपनाया? वे कहानियाँ रही हों या धर्मोपदेश, उन्होंने किस तरह का रवैया अपनाया और कही गई इन बातों को उन्होंने किस कोण से देखा और सुना? (ज्ञान और सीखने के कोण से।) ठीक है। सुनाई गई कहानियों और उपदेशों की सामग्री को ज्ञान के दृष्टिकोण से देखने से यह समस्या पैदा होगी। उनका मानना है कि मैं जब भी कोई धर्मोपदेश दूँ, तो मैं चाहे जिस खंड पर बोलना चाहूँ, उसमें कथ्य को एक निश्चित क्रम का पालन करना चाहिए; हर वाक्य तार्किक होना चाहिए, हर वाक्य सभी की धारणाओं के अनुरूप होना चाहिए, और हर खंड का एक दृढ़ उद्देश्य होना चाहिए। वे मेरे धर्मोपदेशों को इस धारणा से नापते हैं। क्या यह आध्यात्मिक समझ की कमी को दर्शाता है? (हाँ।) यह वास्तव में आध्यात्मिक समझ की कमी है! मैंने जो कुछ कहा उसे ज्ञान के दृष्टिकोण से समझने के लिए तर्क और तार्किक अनुमान का उपयोग करना एक गंभीर गलती है। मैं सत्य की संगति कर रहा हूँ, भाषण नहीं गढ़ रहा हूँ; तुम लोगों को यह स्पष्ट होना चाहिए। तुम लोगों में से जिन्होंने सभा में उपदेश सुने और बाद में उन लोगों द्वारा प्रतिलिखित धर्मोपदेश को फिर से सुना, तो क्या तुमने किसी ऐसी महत्वपूर्ण बात या चीज पर ध्यान दिया जो मूल उपदेश में बोली गई थी लेकिन जिसे प्रतिलेखकों ने हटा दिया था? क्या ऐसा कुछ हुआ था? उदाहरण के लिए, हो सकता है कि तुमने सभा में कोई ऐसा अंश सुना हो जो बहुत ही मार्मिक और शिक्षाप्रद रहा हो, लेकिन बाद में जब तुमने उपदेश की रिकॉर्डिंग सुनी तो पाया कि वह अंश उसमें था ही नहीं; उसे हटा दिया गया था। क्या तुम्हारे साथ ऐसा हुआ है? यदि तुम लोगों ने ध्यान से नहीं सुना होगा, तो तुम्हें शायद इसका एहसास न हुआ हो, इसलिए भविष्य में ध्यान से सुनना सुनिश्चित करो। मैंने एक बार एक रिकॉर्डिंग सुनी और जहाँ मैंने मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर चर्चा बस शुरू ही की थी, उन्हें एक से पंद्रह तक सूचीबद्ध किया था, प्रतिलेखकों ने उनमें से हरेक के विस्तृत स्पष्टीकरण और व्याख्याएँ हटा दी थीं और उनके स्थान पर केवल पहली अभिव्यक्ति, दूसरी अभिव्यक्ति, तीसरी अभिव्यक्ति, आदि को सूचीबद्ध कर दिया था। रिकार्डिंग में प्रत्येक अभिव्यक्ति के बारे में बहुत तेजी से एक के बाद एक बात की गई थी, जो किसी स्कूल शिक्षक द्वारा कक्षा में पढ़ाए जाने से भी ज्यादा जल्दी कही गई थी। ज्यादातर लोग जिन्होंने पहले उस धर्मोपदेश को नहीं सुना था और उससे परिचित नहीं थे, उन्हें इसे सुनते हुए चिंतन करने का मौका नहीं मिला होगा। अगर वे ध्यान से सुनना चाहेंगे, तो उन्हें हमेशा रोक-रोक कर सुनना पड़ेगा, एक वाक्य को सुन कर उसे जल्दी से लिख लेना होगा, फिर उस वाक्य के मतलब पर विचार करने के बाद अगला वाक्य सुनना होगा। अन्यथा, कथन की गति बहुत तेज़ होगी और वे तालमेल नहीं रख पाएँगे। यह धर्मोपदेश की रिकॉर्डिंग का संपादन करने वालों की गंभीर गलती थी। कोई भी धर्मोपदेश एक बातचीत जैसा होता है, चर्चा होता है। धर्मोपदेशों का कथ्य क्या होता है? उनमें विभिन्न सत्यों और लोगों की विभिन्न स्थितियों पर चर्चा होती है; उन सभी में सत्य शामिल होता है। तो, क्या लोगों के लिए सत्य से जुड़ी इन विषय-वस्तुओं को स्वीकार करना और समझना आसान है, या उन्हें धीरे-धीरे प्रतिक्रिया देने से पहले विचार, मंथन और मानसिक प्रसंस्करण की आवश्यकता होती है? (उन्हें विचार, मंथन और मानसिक प्रसंस्करण की आवश्यकता होती है।) इस स्थिति के आधार पर देखें, तो धर्मोपदेश देने वाले को कैसी गति रखनी चाहिए? यदि वे मशीन गन की तरह तेजी से बोलें, तो क्या यह कारगर होगा? (नहीं।) जैसे कोई शिक्षक पढ़ा रहा हो? (नहीं।) जैसे कोई भाषण दे रहा हो? (नहीं।) यह बिल्कुल नहीं चलेगा। धर्मोपदेश के दौरान प्रश्न और उत्तर होने चाहिए, चिंतन के लिए जगह होनी चाहिए, लोगों को प्रतिक्रिया देने का समय दिया जाना चाहिए—यही गति उपयुक्त है। उन्होंने इस सिद्धांत को समझे बिना धर्मोपदेशों का प्रतिलेखन किया; क्या यह आध्यात्मिक समझ की कमी दर्शाता है? (हाँ।) उनमें वास्तव में आध्यात्मिक समझ की कमी है। उन्होंने सोचा : “तुम जिन चीजों के बारे में बात कर रहे हो, मैं उन्हें पहले ही सुन चुका हूँ। एक बार सुनने के बाद मैं उनका निष्कर्ष याद रख सकता हूँ, और मुझे पता है कि तुम किस बारे में बात कर रहे हो। धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग को बहुत बार संपादित करने से प्राप्त उत्कृष्ट कौशल और अनुभव का उपयोग करते हुए मैं इसे इस तरह से संपादित करूँगा और इसकी गति बढ़ा दूँगा।” गति बढ़ाना अपने आप में कोई बड़ी समस्या नहीं लगती—लेकिन धर्मोपदेश के प्रतिलेखन पर इसका क्या असर पड़ता है? वह धर्मोपदेश को एक निबंध में बदल देता है। जब यह निबंध में बदल जाता है, तो इसमें से व्यक्तिगत रूप से सुनने का भाव समाप्त हो जाता है; क्या यह तब भी उतना ही प्रभावी हो सकता है? इसमें अंतर होना निश्चित है। यह अंतर इसे बेहतर बनाता है या बदतर? (बदतर।) यह इसे बदतर बनाता है। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, वे अपनी मर्जी से काम करते हैं और खुद को चतुर समझते हैं। वे मानते हैं कि वे शिक्षित, कुशल, प्रतिभाशाली और बुद्धिमान हैं, लेकिन वे अंततः अनुचित चीजें करते हैं। क्या यह ऐसा नहीं है? (हाँ, है।) अपने धर्मोपदेशों में मैं कभी-कभी तुम लोगों से प्रश्न क्यों पूछता हूँ? कुछ लोग कहते हैं कि “शायद तुम डरते हो कि हम सो जाएँगे।” क्या यही बात है? मैं कभी-कभी दूसरे मामलों के बारे में बात क्यों करता हूँ, विषय से हटकर हल्की-फुल्की और खुशनुमा बातें क्यों करता हूँ? यह इसलिए है कि तुम लोग थोड़ा सहज हो सको, तुम लोगों को चिंतन करने की थोड़ी जगह दे सकूँ। ऐसा करना तुम लोगों को सत्य के एक निश्चित पहलू की व्यापक समझ रखने की भी संभावना पैदा करता है, ताकि तुम अपनी समझ को शब्दों, शाब्दिक अर्थों, सिद्धांतों या व्याकरणिक संरचना तक सीमित न रखो—यह इन तक सीमित नहीं होनी चाहिए। इसीलिए मैं कभी-कभी अन्य चीजों के बारे में बात करता हूँ; कभी-कभी माहौल को हल्का करने के लिए चुटकुले सुनाता हूँ, लेकिन वास्तव में मैं ऐसा मुख्य रूप से एक निश्चित परिणाम प्राप्त करने के लिए करता हूँ—तुम्हें यह समझना चाहिए।

देखो, जब कोई धार्मिक पादरी धर्मोपदेश देता है तो वह मंच पर खड़ा होकर केवल उन उबाऊ विषयों पर बात करता है जिनका लोगों के वास्तविक जीवन, उनकी मानसिक स्थितियों या उनकी मौजूदा समस्याओं से जरा भी लेना-देना नहीं होता। वे सब मृत शब्द और धर्म-सिद्धांत होते हैं। वे अच्छे लगने वाले थोड़े से शब्दों के अलावा कुछ नहीं कहते और थोड़े से खोखले नारे लगाते हैं। इससे श्रोता ऊब जाते हैं और उन्हें इससे कुछ हासिल नहीं होता। अंत में, यह ऐसी स्थिति में परिणत होता है जिसमें पादरी ऊपर से बोल रहा होता है और नीचे कोई ध्यान नहीं दे रहा होता; कोई संवाद ही नहीं होता। क्या पादरी निरर्थक श्रम नहीं कर रहा है? पादरी केवल अपनी आजीविका चलाने के लिए, अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए इस तरह से धर्मोपदेश देते हैं; वे संगत की जरूरतों पर विचार नहीं करते। जहाँ तक अब हमारा सवाल है, हमारा धर्मोपदेश देना कोई धार्मिक समारोह करने या किसी तरह का काम पूरा करने के लिए नहीं है—यह कई परिणाम पाने से संबंधित है। परिणाम पाने के लिए सभी पहलुओं पर विचार किया जाना चाहिए—सभी प्रकार के लोगों की जरूरतों, उनकी धारणाओं, कल्पनाओं और स्थितियोँ, और उनके दृष्टिकोण आदि सभी पर विचार किया जाना चाहिए। इस पर भी विचार किया जाना चाहिए कि विभिन्न सामाजिक वर्गों के लोग धर्मोपदेश में इस्तेमाल की गई भाषा को किस हद तक स्वीकार कर सकते हैं। कुछ शिक्षित लोग जिन्हें औपचारिक भाषा ज्यादा पसंद है, वे थोड़े साहित्यिक शब्द सुनना चाहते हैं जो अपेक्षाकृत व्याकरण-सम्मत और तार्किक हों। वे उन्हें समझने में सक्षम होते हैं। समाज के निचले तबके के कुछ साधारण लोग भी होते हैं जो ऐसी औपचारिक भाषा से परिचित नहीं हैं; तो मुझे क्या करना चाहिए? मुझे थोड़ी स्थानीय भाषा में बात करनी होगी। पहले, मैं ज्यादा स्थानीय भाषा का इस्तेमाल नहीं करता था, लेकिन पिछले कुछ सालों में मैंने इसे थोड़ा-बहुत सीख लिया है, और अब मैं कभी-कभी दो-हिस्सों वाली कहावतें भी बोल देता हूँ या कभी चुटकुले सुना देता हूँ। इस तरह सुनने के बाद हर किसी को महसूस होगा कि मैं जो भी बात करता हूँ उसे समझना आसान है, चाहे उनका सामाजिक वर्ग कोई भी हो, यह उनसे ज्यादा निकटता से जुड़ी हुई है। लेकिन अगर यह सब स्थानीय बोली में होता, तो धर्मोपदेश की विषय-वस्तु इतनी गहन नहीं लगती, इसलिए इसमें कुछ औपचारिक भाषा का उपयोग होना चाहिए जिसे दैनिक जीवन की भाषा में व्यक्त किया गया हो; तभी न्यूनतम मानक पूरा होगा। एक बार जब स्थानीय भाषा का उपयोग शुरू हो जाता है तो “बस कह रहा हूँ,” “जैसे,” “मेरा मतलब है,” इत्यादि बहुत सी अभिव्यक्तियों को शामिल करने के कारण सत्य के व्यक्त करने की सीमा प्रभावित हो सकती है। यद्यपि, अगर पूरी भाषा ही औपचारिक होती तो प्रत्येक चरण में व्याकरणिक तर्क और कार्य-कारण तर्कों का पालन करते हुए, कोई छोटी सी भी गलती किए बिना, सब कुछ इतना व्यवस्थित और औपचारिक रूप से बोला जाता मानो किसी निबंध या किसी कक्षा का कोई पाठ पढ़ा जा रहा हो, जैसे यह सब शुरू से अंत तक शब्द दर शब्द, यहाँ तक कि विराम चिह्न तक पहले से लिखा रखा हो, क्या तुम लोगों को लगता है कि वह काम करता? वह बहुत परेशानी भरा होता, और मेरे पास ऐसा करने की ऊर्जा नहीं है। यह एक पहलू है। यह भी कि सुनने वाले चाहे शिक्षित हों या अशिक्षित, प्रत्येक अपनी मानवता के विभिन्न पक्षों को दर्शाता है, और मानवता की ये अभिव्यक्तियाँ वास्तविक जीवन से जुड़ी होती हैं। दूसरी ओर दैनिक जीवन की भाषा वास्तविक जीवन से अलग नहीं होती; यह तुम्हारे जीवन के वातावरण से अलग नहीं है। जीवन का यह वातावरण ऐसी दैनंदिन भाषा से भरा है, जिसमें कुछ स्थानीय भाषा के साथ ही कुछ साहित्यिक स्वरूप वाली सरल शब्दावली भी होती है। यह पर्याप्त है; मूल रूप से यह चिंता के समूचे दायरे को समेटता और शामिल कर लेता है। चाहे वे बूढ़े हों या युवा, अशिक्षित हों या थोड़ा ज्ञानी, हर कोई इसे अनिवार्य रूप से समझ सकता है, अर्थ ग्रहण कर सकता है; इससे वे ऊब महसूस नहीं करेंगे, और उन्हें नहीं लगेगा कि यह भाषा उनकी समझ से परे है। लोगों की जरूरतों के सभी पहलुओं पर विचार करते हुए, संगति करते हुए और धर्मोपदेश देते समय इसी बात का ध्यान रखा जाना चाहिए। यदि किसी धर्मोपदेश से परिणाम प्राप्त करना है, तो तुम्हें इन सभी पहलुओं पर विचार करना चाहिए : बोलने की गति, शब्दों का चयन और अभिव्यक्ति का तरीका। इसके अलावा, तुम जब कोई बात बोल रहे हो और सत्य के किसी पहलू पर संगति कर रहे हो, तो उसे किस बिंदु पर पूरी तरह से सम्प्रेषित किया गया है? किस बिंदु पर उसमें पर्याप्त विस्तार नहीं है? किन पहलुओं को जोड़ा जाना चाहिए? इन सभी पर विचार किया जाना चाहिए। यदि तुम इन पहलुओं पर विचार भी नहीं करते, तो तुम्हारी सोचने की क्षमता में बहुत कमी है। जहाँ दूसरे लोग दो आयामों में कल्पना करते हैं, वहाँ तुम्हें तीन आयामों में सोचने में सक्षम होना चाहिए। तुम्हें दूसरों की तुलना में अधिक व्यापक और अधिक सटीक रूप से देखना चाहिए, सभी तरह के मुद्दों को साफ-साफ देखने में सक्षम होना चाहिए, और इसमें शामिल सत्य सिद्धांतों को भी महसूस करना चाहिए। इस तरह, भ्रष्ट स्वभाव के जिन सभी पहलुओं के बारे में लोग सोच सकते हैं, व्यक्त कर सकते हैं या प्रकट कर सकते हैं, साथ ही उनमें शामिल स्थितियाँ आदि सभी मूल रूप से इसके अंदर आ जाती हैं और सभी लोगों द्वारा समझी जा सकती हैं। क्या प्रतिलेखकों में भी ये काबिलियतें और सोचने के तरीके होने चाहिए? यदि उनके पास ये नहीं होंगी, इसके बजाय वे हमेशा धर्मोपदेश के मुख्य बिंदु, उसके केंद्रीय विचार, प्रत्येक खंड के सार को संक्षेप में प्रस्तुत करने के बारे में सीखे हुए ज्ञान पर भरोसा करेंगे, तो यह वैसा होगा जैसे चीनी छात्र साहित्यिक ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। शिक्षक पहले उन्हें पूरे पाठ का पूर्वावलोकन करवाता है, फिर उसे ध्यान से पढ़ने को कहता है। पहले औपचारिक पाठ में शिक्षक पहले परिच्छेद के सार के बारे में बात करता है, नई शब्दावली का परिचय देता है, और उसमें शामिल व्याकरण पर चर्चा करता है। जब सभी खंडों का अध्ययन कर लिया जाता है, तब भी तुम्हें उनको याद रखना होता है, और अंत में नई शब्दावली के साथ वाक्य बनाना होता है, और पाठ के केंद्रीय विचार एवं इसे लिखने के पीछे लेखक के मंतव्य को समझना होता है। इस तरह, तुम पूरी तरह समझ जाओगे कि पाठ क्या बताने की कोशिश कर रहा था। सभी ने इन चीजों का अध्ययन किया है, सभी उन्हें जानते हैं, लेकिन अगर तुम इन चीजों को किसी धर्मोपदेश के प्रतिलेखन में लागू करते हो, तो यह बहुत प्राथमिक स्तर की बात होती है। मैं बता रहा हूँ कि अगर तुम कोई निबंध लिख रहे हो, तो इनका उपयोग कर सकते हो; यह लिखने का बुनियादी सामान्य ज्ञान भर होता है। लेकिन अगर तुम इस सोच, इस सिद्धांत, इस पद्धति को किसी धर्मोपदेश के प्रतिलेखन में लागू करते हो, तो क्या तुम गलत नहीं हो सकते? तुम निश्चित रूप से गलत हो सकते हो। तुम नहीं जानते कि मैं यह कहानी क्यों बताना चाहता हूँ, इस कहानी से जो सत्य तुम्हें समझना चाहिए, तुम उसे समझने की कोशिश नहीं करते—यह एक गलती है। यह भी कि क्या तुम कहानी और धर्मोपदेश की सामग्री दोनों में सत्य को समझने में सक्षम हो? अगर तुम इसे नहीं समझ सकते, तो तुम में आध्यात्मिक समझ नहीं है। आध्यात्मिक समझ न रखने वाले किसी व्यक्ति में धर्मोपदेशों का प्रतिलेखन करने की कौन सी संभावित योग्यताएँ हो सकती हैं?

तुम सभी लोगों को क्यों लगता है कि मैं कहानियाँ सुनाता हूँ? धर्मोपदेश प्रतिलेखक इसका कारण नहीं जानते, इसलिए वे अपने दृष्टिकोण जोड़ देते हैं। उनका मानना है कि अगर मैं कहानियाँ सुनाना चाहता हूँ तो यह बाद में आने वाली विषय-वस्तु के साथ मेल खाना चाहिए—वे नहीं जानते कि मैं कहानियाँ क्यों सुनाता हूँ। तुम लोग भी नहीं जानते, है न? चूँकि तुम लोग नहीं जानते, इसलिए मैं तुम लोगों को इसका कारण बताता हूँ। शुरुआत से लेकर अब तक मैंने लगभग दस बार मसीह-विरोधी लोगों की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर चर्चा की है, और मैंने उनमें से केवल आधे पर ही बात की है। अगर मैं इस विषय-वस्तु पर एक बार में ही पूरी बात कह दूँ, तो विषय काफी नीरस हो जाएगा, है न? अगर मैं हर बार बोलना शुरू करने पर सीधे-सीधे बात करता—सबसे पहले सभी से पिछली बार की चर्चा की समीक्षा करने को कहता, और तब बोलना शुरू करता, तुम सभी लोग जल्दी-जल्दी नोट्स लेते, लिखते और लिखते हुए अपनी पलकें खुली रखने के लिए संघर्ष करते—और अगर मैं अपनी बात समाप्त होने के बाद सभी से सारांश बनवाता, और हर कोई अपनी आंखें मलते हुए अपने लिखे पन्ने पलटता और आज की संगति का कथ्य सुनाता, फिर जब मुझे लगता कि सभी ने इसे मोटे तौर पर याद कर लिया है, तो मैं कहता, “आज के लिए इतना बहुत है, अब इसे बंद करते हैं और अगली बार इसके बारे में बात करना जारी रखेंगे,” तो हर कोई थोड़ा परेशान हो जाता : “हर सभा हमेशा इन्हीं चीजों के बारे में होती है, यही एक विन्यास होता है; कथ्य बहुत लंबा और नीरस होता है।” इसके अलावा, सत्य की संगति बहुआयामी होनी चाहिए जिसमें लोग सत्य के सभी पक्षों पर एक साथ प्रगति कर सकें। यह ठीक मनुष्य के जीवन प्रवेश करने जैसा ही है : व्यक्ति को आत्म-ज्ञान, स्वभावगत परिवर्तन, परमेश्वर के ज्ञान, अपनी विभिन्न अवस्थाओं के बारे में जागरूकता, तथा अपनी मानवता, अंतर्दृष्टि, तथा अन्य सभी पहलुओं के संदर्भ में विकसित होना चाहिए—इन सभी में एक साथ प्रगति होनी चाहिए। इस दौरान यदि मैं केवल मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों को समझने पर चर्चा करूँ, तो संभव है कि लोग सत्य के अन्य पहलुओं को एक तरफ रख कर दिन भर सोचते रहें कि “कौन मसीह-विरोधी लगता है? क्या मैं मसीह-विरोधी हूँ? मेरे आसपास ऐसे कितने लोग हैं?” ऐसा करने से सत्य के अन्य पक्षों में उनके प्रवेश पर प्रभाव पड़ेगा। इसलिए, मैं इस बारे में सोचता हूँ कि धर्मोपदेश की विषय-वस्तु में एक और सत्य को कैसे शामिल किया जा सकता है, ताकि लोग एक अतिरिक्त सत्य को समझ सकें; यानी “मसीह-विरोधियों को उजागर करना” विषय पर चर्चा करते समय लोग संयोगवश कुछ अन्य पहलुओं को भी समझने में सक्षम हो सकें। ऐसे धर्मोपदेश का परिणाम बेहतर होता है, है न? (हाँ।) उदाहरण के लिए, भोजन करते हुए कभी-कभी उसके साथ एक सेब भी खा लेना। इससे अतिरिक्त पोषण मिलता है, है न? (हाँ।) तो फिर, मुझे बताओ कि क्या मेरे लिए कहानियाँ सुनाना जरूरी है? (हाँ।) यह तो पक्का है। अगर यह जरूरी नहीं होता, तो मैं उन्हें क्यों सुनाता? कुछ हल्के-फुल्के और खुशनुमा विषयों पर चर्चा करने के लिए कहानियों का इस्तेमाल करने से लोगों को सत्य के दूसरे पहलुओं में कुछ हासिल करने और पाने का मौका मिलता है। यह अच्छी बात है। इन हल्के-फुल्के विषयों पर चर्चा करने के बाद मैं मुख्य विषय पर लौट आता हूँ। इसे इस तरह व्यवस्थित करना उचित है। मुख्य भोजन से पहले तुम क्या खाते हो? (क्षुधावर्धक।) यह एक क्षुधावर्धक है। क्षुधावर्धक आमतौर पर बहुत स्वादिष्ट होते हैं और भूख बढ़ाते हैं, है न? इसलिए, जब मैं कोई कहानी सुनाता हूँ, तो तुम उस कहानी से सत्य का कोई एक पक्ष हासिल कर सकते हो, अपने ज्ञान या समझ को गहरा कर सकते हो। यह सब अच्छा है। अलबत्ता, जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, वे कहानियाँ सुनते हैं और केवल ऊपरी परत ही सुन पाते हैं, वे अंदर का वह सत्य नहीं देख पाते जिसे समझा जाना चाहिए। उनमें आध्यात्मिक समझ की कमी होती है—इसके बारे में कुछ नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए, “डैबेयो और शाओबेयो की कहानी” सुनते हुए कुछ लोगों को केवल यह याद रहता है कि डैबेयो बुरा था और शाओबेयो मूर्ख था। उन्हें डैबेयो और शाओबेयो नाम याद रहते हैं, लेकिन यह याद नहीं रहता कि कहानी में उस आदमी ने किन परिस्थितियों में भ्रष्ट स्वभाव का खुलासा किया, किस तरह के स्वभाव का खुलासा हुआ, यह स्वभाव क्या होता है, या इसका सत्य से क्या संबंध है। तुम खुद किन परिस्थितियों में इस तरह का स्वभाव प्रकट करोगे? क्या तुम ऐसे शब्द बोलोगे? अगर तुम कहते हो कि, “मैं ऐसे शब्द नहीं बोलूँगा,” तो यह परेशानी वाली बात है, क्योंकि इससे साबित होता है कि तुमने सत्य को नहीं समझा है। कुछ लोग कहते हैं : “मैं कुछ खास परिस्थितियों का सामना करते समय ऐसे शब्द बोल सकता हूँ, यह ऐसा स्वभाव है जो एक निश्चित स्थिति में सामने आता है।” एक बार जब तुम यह जान लोगे, तो इस कहानी को सुनना व्यर्थ नहीं जाएगा। कहानी सुनने के बाद कुछ लोग कहते हैं : “डैबेयो किस तरह का व्यक्ति है? वह छोटे बच्चे को भी धमकाता और धोखा देता है। वह नीच है! मैं बच्चों को इस तरह धोखा नहीं दूँगा।” क्या यह आध्यात्मिक समझ की कमी नहीं है? वे केवल मामले के बारे में बात कर रहे हैं, लेकिन संगति की जा रही कहानी में शामिल सत्य को नहीं समझते। वे हालात से खुद को नहीं जोड़ पाते; यह आध्यात्मिक समझ की कमी, आध्यात्मिक समझ की गंभीर कमी को दिखाता है। धर्मोपदेशों के प्रतिलेखकों को इस समस्या का सामना करना पड़ता है। जैसे ही कोई चीज सत्य से जुड़ी होती है, कुछ लोग छद्म-विश्वासी के विचार प्रकट करते हैं; जैसे ही सत्य शामिल होता है, कुछ लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी हो जाती है; जैसे ही सत्य शामिल होता है, कुछ लोग विकृतियों की ओर उन्मुख हो जाते हैं, कुछ अड़ियल हो जाते हैं, कुछ दुष्ट हो जाते हैं, और कुछ इसके प्रति विमुख हो जाते हैं। तो धर्मोपदेश प्रतिलेखकों का स्वभाव कैसा होता है? कम से कम वे अभिमानी और दंभी होते हैं, अपनी मर्जी से काम करते हैं, समझते नहीं हैं और न ही समझने की कोशिश करते हैं। उन लोगों ने इसके बारे में पूछा भी नहीं; उन्होंने सीधे कहानियों को उसके बाद की सामग्री से अलग कर दिया। वे सोचते हैं, “ये धर्मोपदेश मुझे प्रतिलेखन के लिए दिए गए थे, इसलिए मुझे यह निर्णय लेने का अधिकार है। अपनी कुल्हाड़ी के एक वार से मैं कहानियों को पूरी तरह से काट डालूँगा। मैं तुम्हारे दिए धर्मोपदेशों के साथ बिलकुल यही व्यवहार करूँगा। अगर तुम्हें यह पसंद नहीं है, तो इस काम के लिए मेरा उपयोग न करो।” क्या यह अहंकार और दंभ नहीं है? वे सत्य को ग्रहण नहीं कर सकते, वे सत्य को नहीं समझते। वे नहीं जानते कि उनका कर्तव्य क्या है या उन्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए—वे इनमें से कुछ भी नहीं जानते। जिन लोगों में आध्यात्मिक समझ की कमी होती है, वे केवल अनुचित, अमानवीय और अशोभनीय चीजें ही कर सकते हैं। वे केवल सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले काम करते हैं, खुद को चतुर समझते हैं और उनमें समर्पण की कमी होती है। मेरे धर्मोपदेशों की रिकॉर्डिंग उन्हें प्रतिलेखन के लिए दी गई थी, और इस पर काम करने के बारे में उनके जो भी विचार या धारणाएँ रही हों उनके बारे में उन्होंने मुझसे नहीं पूछा। क्या यह समस्या बहुत गंभीर नहीं है? (हाँ, है।) किस हद तक गंभीर है? (इसकी प्रकृति परमेश्वर के वचनों के साथ छेड़छाड़ करने की है।) इसमें कुछ हद तक यही प्रकृति है।

मैं एक कहानी सुनाता हूँ, जिसमें सत्य के एक खास पहलू पर चर्चा की जाती है, और फिर उसके बाद मैं अन्य पहलुओं पर धर्मोपदेश देता हूँ। क्या मैं इन दोनों बातों के आपस में मेल खाने की बात पर विचार करता हूँ? मुझे पहले इस पर विचार करना चाहिए, लेकिन मैंने इस बात पर जोर क्यों नहीं दिया कि इन दोनों पहलुओं का एक दूसरे से मेल होना चाहिए? क्या मैं इस बारे में सजग हूँ? (हाँ।) तो, यह धर्मोपदेश प्रतिलेखकों के लिए समस्या क्यों बन गई है? मुझे पता है कि मैं जो कहानी सुना रहा हूँ उसका उसके बाद दिए जाने वाले धर्मोपदेश से कोई संबंध नहीं है। क्या उन्हें इस बारे में जानकारी है? वे नहीं जानते। उन्होंने इस मामले पर ध्यानपूर्वक विचार तक नहीं किया है। वे सोचते हैं, “तुम पवित्र आत्मा द्वारा निर्देशित हो; जब तक यह सत्य जैसा लगता है, तब तक यह ठीक है। उस दिन तुमने एक कहानी सुनाई, और फिर उसके बाद विशिष्ट विषय पर चर्चा की। इन दोनों बातों के बीच क्या संबंध है? इस तरह से क्यों बात करें? बोलने के बाद इससे क्या लाभ हो सकता है? तुम इनमें से कुछ भी नहीं जानते। यह नहीं चलेगा!” सबसे पहले, मुझे किस बारे में बोलना है, मैं कैसे बोलता हूँ, और मैं किस विशिष्ट विषय को संबोधित करता हूँ—मुझे बताओ कि क्या मैं इन बिंदुओं पर निर्णय लेते समय स्पष्ट सोच रखता हूँ? (हाँ।) मैं वास्तव में स्पष्ट सोच रखता हूँ, मैं निश्चित रूप से भ्रमित अवस्था में नहीं हूँ; मेरे मन में विचारों की एक स्पष्ट धारा है। यदि किसी में आध्यात्मिक समझ की कमी है, वह नहीं जानता कि सत्य की खोज कैसे की जाए, और यह सोचते हुए कि वह काफी अच्छा है आँख मूंदकर विश्लेषण करता है और आँख मूंदकर चीजों का वर्गीकरण करता है, तो क्या वह ठीक-ठीक एक फरीसी नहीं है? उन्हें केवल भव्य खोखले सिद्धांत सुनना पसंद होता है, वे वास्तविक और व्यावहारिक धर्मोपदेश सुनना पसंद नहीं करते। इसका परिणाम यह होता है कि वे उथले से उथले सत्य को भी नहीं समझते। यह आध्यात्मिक समझ की गंभीर कमी को दर्शाता है! परमेश्वर का भय मानने वाले हृदय के बिना लोग अभिमानी और आत्मतुष्ट होंगे, विशेष रूप से दुस्साहसी बनेंगे; और यह सोचते हुए कि वे सब कुछ समझते हैं, वे किसी भी मामले में फैसला लेने का दुस्साहस करेंगे। भ्रष्ट मानव जाति बिल्कुल ऐसी ही है; यही उसका स्वभाव है। क्या निर्भीक होना और बिना ध्यान दिए काम करना अच्छी बात है या बुरी बात? (बुरी बात है।) साहसी या डरपोक होना वास्तव में मायने नहीं रखता; जो मायने रखता है वह यह है कि किसी के दिल में परमेश्वर का कोई भय है या नहीं। बाद में, जब तुम लोग धर्मोपदेश की रिकॉर्डिंग सुनो, तो ध्यान रखो कि कहीं प्रतिलेखन में कोई महत्वपूर्ण बातें हटा तो नहीं दी गई हैं। बिना आध्यात्मिक समझ वाले ये दुष्ट कभी-कभी अनजाने में जो कुछ करते हैं, उससे गड़बड़ी और नुकसान हो सकता है। वे कहते हैं कि यह जानबूझकर नहीं किया गया है—अगर यह जानबूझकर नहीं किया गया है, तो क्या इसका मतलब यह है कि उनका स्वभाव भ्रष्ट नहीं है? यह फिर भी भ्रष्ट स्वभाव है। इस विषय पर फिलहाल इतना ही।

परिशिष्ट :

शाओगैंग के सपने

आज मैं फिर एक कहानी के साथ शुरुआत करूँगा। क्या तुम लोगों का मन कहानियाँ सुनने का है? क्या तुम इन कहानियों से कुछ हासिल कर पाते हो? कहानियों में घटनाएं होती हैं, और उन घटनाओं में सत्य होता है। कहानियों में शामिल लोगों की कुछ दशाएँ होती हैं, कुछ प्रकाशन, कुछ इरादे और भ्रष्ट स्वभाव होते हैं। तथ्य यह है कि ये चीजें सभी में मौजूद हैं और सभी से जुड़े हुए हैं। यदि तुम कहानियों की इन बातों को समझ लेते हो और उनकी पहचान करने में सक्षम हो, तो इससे सिद्ध होता है कि तुममें आध्यात्मिक समझ है। कुछ लोग कहते हैं : “तुम कहते हो कि मेरे पास आध्यात्मिक समझ है—क्या इसका अर्थ यह है कि मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जो सत्य से प्रेम करता है?” ऐसा आवश्यक नहीं है; वे दो अलग चीजें हैं। कुछ लोगों के पास आध्यात्मिक समझ तो होती है लेकिन वे सत्य से प्रेम नहीं करते। वे बस इसे समझते हैं और इससे अधिक कुछ नहीं करते, और वे सत्य से अपनी तुलना नहीं करते और सत्य का अभ्यास भी नहीं करते। कुछ लोगों के पास आध्यात्मिक समझ होती है, और कहानियाँ सुनने के बाद वे जान लेते हैं कि उनमें भी वही समस्याएँ हैं और वे विचार करते हैं कि उसमें कैसे प्रवेश करें और आगे चलकर बदलाव कैसे करें—ये लोग वांछित परिणाम प्राप्त कर चुके हैं। तो, आज मैं एक कहानी कहने जा रहा हूँ। इसकी विषय-वस्तु हल्की है और हर कोई इसे सुनना चाहेगा। पिछले दो दिनों से मैं इस पर सोच-विचार कर रहा हूँ कि कौन सी कहानी ऐसी होगी जिससे अधिकांश लोगों को कुछ हासिल हो सके और जो सुनने के बाद शिक्षाप्रद रहे, और इसके अलावा सुनने वालों पर सत्य के एक पहलू की गहरी छाप छोड़े; साथ ही, उन्हें इसे वास्तविकता से जोड़ने में सक्षम बनाए और वे सत्य के एक पहलू में प्रवेश करने या एक तरह के भटकाव को ठीक करने का लाभ ले सकें। मैं पिछली कहानी को नाम देना भूल गया था, इसलिए आज हम उस कहानी को एक नाम देंगे। तुम लोगों क्या लगता है कि इसे क्या नाम दिया जाना चाहिए? (खास खूबियाँ।) चलो “खास” शब्द को छोड़ देते हैं; इसे “खूबियाँ” कहते हैं। यहां “खास” शब्द थोड़ा अजीब लग रहा था, और लोग इसी पर अपना ध्यान केंद्रित कर देते। “खूबियाँ” शब्द का अर्थ अधिक अस्पष्ट है। तो, आज मैं कौन सी कहानी सुनाऊंगा? आज की कहानी का नाम है “शाओगैंग के सपने।” जैसा कि तुम सब जानते हो कि “शाओ” का अर्थ है “छोटा” और “गैंग” का क्या मतलब है? (“पद”।) बिलकुल ठीक। इस नाम को सुनकर तुम लोगों को कहानी की विषय-वस्तु का पता चल जाना चाहिए—तुम्हें इसका लगभग ठीक अनुमान लगा लेना चाहिए। अब मैं कहानी सुनाना शुरू करता हूँ।

शाओगैंग एक उत्साही, अध्ययनशील और मेहनती युवक है, और वह काफी चतुर भी है। उसे पढ़ना पसंद है, इसलिए उसने आजकल की कुछ लोकप्रिय कंप्यूटर टेक्नोलॉजी थोड़ी-बहुत सीख ली है, और उसे परमेश्वर के घर में स्वाभाविक रूप से वीडियो संपादन टीम में अपना कर्तव्य निभाने के लिए नियुक्त किया गया। पहली बार वीडियो संपादन टीम में शामिल होने पर शाओगैंग बहुत खुश और गौरवान्वित हुआ। युवा होने और कुछ तकनीकों पर पकड़ होने के कारण उसे लगता है कि वीडियो का काम उसकी विशेषता होने के साथ-साथ उसका शौक भी है, और वह वहां अपना कर्तव्य निर्वाह करते हुए अपनी विशेषज्ञता का उपयोग कर सकेगा और इस दौरान लगातार पढ़ाई करते हुए वह इस क्षेत्र में प्रगति भी कर सकेगा। इसके अलावा, काम की जगह पर जिन लोगों से उसकी मुलाकात होती है, उनमें से ज्यादातर युवा हैं और उन्हें यहां का माहौल बहुत पसंद है और वे अपने कर्तव्य का आनंद लेते हैं। तो, वह हर दिन काम में व्यस्त रहते हुए लगन से पढ़ाई करता है। इस क्रम में शाओगैंग हर दिन जल्दी जागकर काम शुरू करता है और कभी-कभी देर रात तक आराम नहीं कर पाता है। शाओगैंग अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए कई कीमतें चुकाता है और थोड़ी कठिनाइयों का सामना करता है, और स्वाभाविक रूप से इसमें वह पर्याप्त पेशेवर ज्ञान भी अर्जित करता है; उसे लगता है कि वह हर दिन बहुत ही उत्पादक तरीके से बिताता है। शाओगैंग अक्सर संगति भी करता है और अपने भाई-बहनों के साथ सभाओं में भाग लेता है। उसे लगता है कि यहां आने के बाद उसने तब की तुलना में अधिक प्रगति की है जब वह अपने गृहनगर में रहते हुए परमेश्वर में विश्वास करता था और अब वह बड़ा हो गया है और कुछ काम कर सकता है। वह बहुत खुश और संतुष्ट महसूस करता है। जब उसने कंप्यूटर टेक्नोलॉजी का अध्ययन शुरू किया था, तो उसे उम्मीद थी कि एक दिन वह कंप्यूटर पर काम करेगा, और अब उसकी इच्छा अंततः पूरी हो गई है, इसलिए वह इस अवसर को बहुत महत्वपूर्ण मानता है। समय बीतता गया और शाओगैंग का काम और उसका पद नहीं बदला। वह अपने काम पर बरकरार है और अपनी इस जिम्मेदारी और कर्तव्य पर कायम है; वह पहले से कहीं अधिक परिपक्व दिखाई देता है। उसने जीवन प्रवेश में भी प्रगति की है, वह अक्सर सभाओं में भाई-बहनों के साथ संगति करता है और परमेश्वर के वचनों का पाठ करता है; परमेश्वर में विश्वास करने में उसकी रुचि दृढ़तर होती जा रही है। यह भी कहा जा सकता है कि शाओगैंग की आस्था धीरे-धीरे बढ़ रही है। तो, उसका एक नया सपना है: “कितना अच्छा हो कि मैं कंप्यूटर पर काम करते हुए अधिक उपयोगी व्यक्ति बन पाऊँ!”

दिन-ब-दिन समय इसी तरह बीतता रहा और शाओगैंग वही कर्तव्य निभाता रहा। एक दिन उसने एक फिल्म देखी जिसका उस पर गहरा प्रभाव पड़ा। क्यों? फिल्म में शाओगैंग जैसी ही उम्र का एक युवक है, और उसे उस फिल्म के युवा अभिनेता का प्रदर्शन, अभिनय, बोलचाल और व्यवहार का तरीका प्रशंसनीय लगता है, और उसे थोड़ी ईर्ष्या भी होने लगती है। फिल्म देखने के बाद, वह कभी-कभी कल्पना करने लगता है : “कितना अच्छा होता अगर फिल्म में उस युवा की भूमिका मैंने निभाई होती। मैं रोज कंप्यूटर पर हर तरह के वीडियो बनाता और अपलोड करता हूँ, और मैं कितना ही व्यस्त या थका हुआ होऊं, या मैं कितनी भी मेहनत करूं, मैं तो सिर्फ पर्दे के पीछे काम करने वाला व्यक्ति हूँ। किसी को क्या पता कि हम कितनी मेहनत कर रहे हैं? अगर मैं किसी दिन फिल्म के उस युवा लड़के की तरह बड़े पर्दे पर आ सकूं और ज्यादा लोग मुझे देख और जान सकें, तो बहुत अच्छा होगा!” शाओगैंग इस फिल्म को बार-बार देखता है, साथ ही उस युवक से जुड़े सभी अलग-अलग दृश्यों को भी देखता है। जितना अधिक वह देखता है, उतना ही उस अभिनेता के प्रति ईर्ष्या बढ़ती जाती है, और उतना ही अधिक उसके दिल में अभिनेता बनने की लालसा तीव्र होती जाती है। इस तरह से, शाओगैंग के मन में नए सपने का जन्म होता है। उसका नया सपना क्या है? “मैं अभिनय कला का अध्ययन करना चाहता हूँ और योग्य अभिनेता बनने का प्रयास करना चाहता हूँ, बड़े पर्दे पर दिखना चाहता हूँ, उस युवा अभिनेता की तरह के हाव-भाव दिखाना चाहता हूँ, और चाहता हूँ अधिक लोग मुझसे ईर्ष्या करें और मेरे जैसा बनने के लिए लालायित हों।” उस समय से शाओगैंग अपने सपने को साकार करने की दिशा में काम करना शुरू कर देता है। अपने खाली समय में शाओगैंग ऑनलाइन जाकर अभिनय के बारे में सभी प्रकार की सामग्री देखता-तलाशता है। वह सभी प्रकार की फिल्में और टेलीविजन शो भी देखता और उनसे सीखता है, साथ ही अभिनेता बनने का अवसर पाने की कल्पना करता है। इस तरह एक-एक करके दिन बीतते जा रहे हैं—शाओगैंग अपने पद पर काम करते हुए अभिनय पेशे का अध्ययन भी कर रहा है। अंततः, अपनी लगन और परिश्रम के कारण शाओगैंग अभिनय की कुछ बुनियादी बातों का गहरा ज्ञान हासिल कर लेता है। उसने दूसरों की नकल उतारना, दूसरों के सामने बोलना और प्रदर्शन करना सीख लिया है, और उसे मंच से ज़रा भी डर नहीं लगता। बार-बार अनुरोध करने पर अंततः उसे एक अवसर मिला : एक फिल्म में प्रमुख भूमिका के लिए एक युवा व्यक्ति की आवश्यकता थी। ऑडिशन के दौरान फिल्म निर्देशक को लगता है कि उसका चेहरा-मोहरा, उसकी श्रेणी और उसका बुनियादी अभिनय कौशल अच्छा है। यदि उसे थोड़ा और प्रशिक्षण मिले, तो उसे फिल्म में अपेक्षित भूमिका निभाने योग्य होना चाहिए। यह खबर सुनकर शाओगैंग बहुत खुश हुआ, और मन ही मन उसने सोचा : “आखिरकार मैं पर्दे के पीछे से निकलकर पर्दे पर आ सकूंगा—मेरा एक और सपना साकार होने वाला है!” इसके बाद शाओगैंग को कर्तव्य निर्वाह के लिए फिल्म निर्माण टीम में तबादला कर दिया जाता है।

फिल्म निर्माण टीम में तबादला होने के बाद शाओगैंग को नए कामकाजी माहौल में ताजगी और जीवन शक्ति मिलती है। उसे लगता है कि यहां हर दिन बहुत खुशी से बीतता है, और यहां पर जीवन पहले की तरह नीरस, बेजान और बँधा हुआ नहीं है, क्योंकि वह वहीं रहता और काम करता है और हर दिन वह जिन चीजों के संपर्क में आता है उनमें से कई चीजें उसके कंप्यूटर के काम से बिल्कुल अलग हैं—वह कामकाज के दूसरे क्षेत्र में, एक अलग दुनिया में रहता है। इस तरह शाओगैंग पूरी ताकत से फिल्म निर्माण कार्य में लग गया। हर दिन वह अभिनय करने और अपने संवादों की पंक्तियां याद करने, निर्देशक के निर्देश सुनने और कथानक के विश्लेषण में लगे भाई-बहनों की बातें सुनने में व्यस्त रहता। शाओगैंग के लिए सबसे कठिन काम था खुद को दिए गए चरित्र में ढालना, इसलिए वह अपने संवादों को बार-बार याद करता है और अपने चरित्र के बारे में सोचता रहता है कि उसे कैसे बोलना और अभिनय करना चाहिए, उसे कैसे चलना चाहिए और कैसे खड़े होना या बैठना चाहिए, उसे ये सभी चीजें नए सिरे से सीखनी पड़ रही हैं। कुछ समय तक इस जटिल और विविधतापूर्ण काम में लगे रहने के बाद, शाओगैंग को अंततः एहसास हुआ कि अभिनेता बनना कितना कठिन है। हर दिन उसे वही संवाद याद करने पड़ते हैं। कभी-कभी वह उन्हें बिलकुल ठीक-ठीक सुनाने की स्थिति में होता है, लेकिन जब वास्तविक प्रदर्शन की बात आती है तो हर बार उससे गलतियाँ होती हैं और दृश्य को फिर से करना पड़ता है। उसका कोई काम या संवाद ठीक न होने के कारण उसे अक्सर निर्देशक की फटकार सुननी पड़ती है। उसके कई प्रदर्शनों के लगातार खराब होने पर उसे काट-छाँट से गुजरना होगा, बदनामी झेलनी पड़ेगी, कष्ट सहना पड़ेगा, और यहाँ तक कि लोग उसे अजीब निगाहों देख और चिढ़ा भी सकते हैं। इन सबका मुकाबला करते हुए शाओगैंग थोड़ा निराश है, “अगर मुझे पता होता कि बड़े पर्दे पर अभिनेता बनना इतना कठिन होगा, तो मैं यहां नहीं आता, लेकिन अब तो मैं दलदल में फँस गया हूँ। अब मैं यहां आ ही चुका हूँ, तो फिल्मांकन पूरा होने से पहले हार मान लेना अनुचित होगा, और मैं इस बारे में लोगों को क्या जवाब दूँगा। यह मेरा सपना था, मुझे इसे साकार करना ही होगा, लेकिन आगे का रास्ता कितना लंबा है? क्या मैं आगे बढ़ सकता हूँ?” इस सोच-विचार के बीच शाओगैंग डगमगाने लगता है। आगे के दिनों में शाओगैंग अपने दैनिक कार्यों और जीवन के बीच तालमेल बनाने के लिए संघर्ष करता है। हर दिन पिछले दिन से अधिक असहनीय होता है, फिर भी उसे यह सब सहना पड़ता है और आगे बढ़ने के लिए खुद पर दबाव डालना पड़ता है। कोई भी अनुमान लगा सकता है कि आगे चलकर शाओगैंग को बहुत से मामलों में निश्चित रूप से समस्याएँ होंगी। अब वह सौंपे गए कामों को बहुत अनिच्छा से करने लगता है। जब निर्देशक उसे बताता है कि क्या करना है, तो वह सिर्फ सुनकर रह जाता है। इसके बाद, वह जो भी हासिल कर सकता है उसके लिए अपनी पूरी शक्ति लगाता है, लेकिन वैसा कुछ करने में असफल रहने पर वह अपने प्रति गंभीर नहीं होता। इस समय शाओगैंग किस स्थिति में है? अब वह हर दिन बहुत अनिच्छा से, बहुत नकारात्मकता से और बहुत निष्क्रियता से गुजारता है, और निर्देशक या अपने भाई-बहनों के ईमानदार मार्गदर्शन और मदद को दिल से स्वीकार नहीं करता। उसका मानना है, “मैं ऐसा ही हूँ, इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। तुम लोग मुझे मेरी क्षमताओं से आगे धकेल रहे हो। यदि हम इसे फिल्मा सकते हैं, तो इसे बनाएं; यदि ऐसा नहीं कर सकते, तो इसे भूल जाएं। मैं अपना कर्तव्य निभाने के लिए वापस वीडियो संपादन टीम में वापस चला जाऊंगा।” वह सोचता है कि हर दिन कंप्यूटर के सामने बैठकर वीडियो संपादन टीम में काम करना कितना अच्छा था। वह बहुत आरामदायक और आसान था; उन दिनों वह कितना खुश था! उसका पूरा अस्तित्व और उसकी पूरी दुनिया एक कीबोर्ड पर होती थी, वह बस एक स्पेशल एफेक्ट डालकर जो कुछ भी चाहता, कर लेता था। वह आभासी दुनिया शाओगैंग को बहुत आकर्षक लग रही है। इस समय, शाओगैंग को अपने अतीत और वीडियो संपादन टीम में अपना कर्तव्य निभाने में बिताया गया समय और भी अधिक याद आ रहा है। दिन इसी तरह गुजरते रहे, फिर, एक रात शाओगैंग को नींद नहीं आई। वह क्यों नहीं सो सका? मन ही मन वह सोच रहा था : “क्या मैं अभिनेता बनने के लिए बना हूँ? यदि मैं इसके लिए नहीं बना हूँ, तो मुझे तुरंत वीडियो संपादन टीम में वापस लौट जाना चाहिए। वीडियो संपादन टीम में मेरा कर्तव्य आरामदेह और आसान है, मैं कंप्यूटर के सामने बैठ जाता हूँ और आधा दिन तो यूँ ही बीत जाता है, और मुझे अपना खाना भी खुद नहीं बनाना पड़ता। वह काम कठिन नहीं है, की-बोर्ड छूते ही मेरे लिए सब कुछ संभव है, वहाँ काम करते हुए चीजें सिर्फ अकल्पित हैं, कुछ भी असंभव नहीं है। जबकि आजकल, अभिनेता होने के कारण मुझे हर दिन अपने संवाद याद करने पड़ते हैं और उन्हें बार-बार रटना होता है। इतने पर भी मेरा प्रदर्शन अभी अच्छा नहीं है, निर्देशक अक्सर मुझे डाँटते हैं, और भाई-बहन अक्सर मेरी आलोचना करते हैं। यह काम करना बहुत कठिन है, वीडियो संपादन टीम पर काम करना कहीं बेहतर है!” इस बारे में वह जितना अधिक सोचता है, उतना ही ज्यादा वह उसे याद करता है। वह आधी रात तक करवटें बदलता रहता है, सो नहीं पाता, और आधी रात के बाद तभी सो पाता है जब वह इतना थक गया हो कि जागते रहना कठिन हो जाए। अगली सुबह जब शाओगैंग की आँखें खुलीं, तो उसके मन में पहला विचार यह आया : “आखिर, मुझे इसे छोड़ देना चाहिए या नहीं? क्या मुझे वापस वीडियो संपादन टीम में लौट जाना चाहिए? मैं यहां रहता हूँ, तो पता नहीं कि फिल्म की शूटिंग खत्म होने पर फिल्म को मानक के अनुरूप समझा जाएगा या नहीं, और कौन जानता है कि इस दौरान मुझे कितनी मुश्किलें उठानी पड़ेंगी? मैं अभिनेता होने के लिए बना ही नहीं हूँ! उस समय, यह एक क्षणिक आवेग और सनक में मैं अभिनेता बनना चाहता था, मैं वाकई भ्रमित हो गया था! देखो, मेरे बस एक गलत कदम उठाने के बाद अब चीजों को सँभालना बहुत मुश्किल हो गया है, और कोई ऐसा नहीं है जिसके साथ मैं इस कठिनाई के बारे में बात कर सकूं। वर्तमान स्थिति के आधार पर मुझे नहीं लगता कि अच्छा अभिनेता बनना मेरे लिए आसान होगा, तो जितनी जल्दी हो सके मुझे हार मान लेनी चाहिए। मैं निर्देशक को तुरंत बता दूँगा कि मैं वापस जा रहा हूँ, ताकि मेरी वजह से उनके काम में देरी न हो।” फिर, शाओगैंग ने निर्देशक से यह कहने का साहस जुटाया : “देखो, मैं अभिनेता बनने के लिए नहीं बना हूँ, लेकिन तुम लोगों ने मुझे चुन लिया—क्यों न तुम मुझे वापस वीडियो संपादन टीम में जाने दो?” निर्देशक कहते हैं : “बिल्कुल नहीं, हम पहले ही इस फिल्म की आधी शूटिंग कर चुके हैं। अगर हम अभिनेता बदलते हैं, तो हमारे काम में देरी होगी कि नहीं?” शाओगैंग फिर भी अड़ा रहता है और कहता है : “तो क्या? तुम जिसे चाहो मेरी जगह ले लो, इससे मुझे कोई लेना-देना नहीं है। चाहे जो हो, तुम्हें मुझे जाने देना ही होगा। अगर तुम मुझे नहीं जाने दोगे तो मैं अभिनय में कोई प्रयास नहीं करूंगा!” यह देखकर कि शाओगैंग छोड़कर जाने की जिद पर अड़ा है और वे फिल्म की शूटिंग पूरी नहीं कर सकेंगे, निर्देशक ने उसे जाने की अनुमति दे दी।

अंततः शाओगैंग फिल्म निर्माण टीम से वीडियो संपादन टीम में लौट आया। वह अपने जाने-परखे पुराने कार्यस्थल पर लौट आया। जब वह अपनी कुर्सी और अपने कंप्यूटर को छूता है, तो वे उसे परिचित से लगते हैं। उसे यह जगह ज्यादा पसंद है। वह जाकर बैठ जाता है; कुर्सी नरम है और कंप्यूटर काम के लिए तैयार है। “वीडियो बनाना बेहतर है, यह थका देने वाला काम नहीं है। पर्दे के पीछे काम करने के अपने फायदे हैं, अगर आपसे कोई गलती हो जाए तो किसी को पता भी नहीं चलता, और कोई आपकी आलोचना नहीं करता, आप उसे तुरंत सुधार लेते हैं और काम खत्म।” शाओगैंग ने आखिरकार पर्दे के पीछे का कार्यकर्ता होने के फायदे जान लिए। इस समय उसकी मनोदशा कैसी है? वह बेहद सुकून और खुशी महसूस करता है, और सोचता है : “मैंने सही चुनाव किया है। परमेश्वर ने मुझे एक अवसर दिया और मुझे इस काम में वापस आने की अनुमति दी। मैं यह विशेष लाभ पाकर सम्मानित महसूस कर रहा हूँ!” उसे खुशी है कि उसने अंत में सही चुनाव किया। आगे के दिनों में शाओगैंग वीडियो संपादन टीम के दैनिक कार्यवृत्त में शामिल रहता है। इस दौरान कुछ खास नहीं होता और शाओगैंग का हर दिन सामान्य तरीके से गुजरता है।

एक दिन, एक वीडियो पर काम करते समय शाओगैंग की मुलाकात एक नृत्य कार्यक्रम में अचानक एक विनोदी और आला दर्जे के युवक से होती है जो बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रहा होता है। वह सोचता है : “वह लगभग मेरी उम्र का है; ऐसा क्या है कि वह नृत्य कर सकता है और मैं नहीं?” नतीजतन, शाओगैंग फिर से प्रलोभन में पड़ गया। उसके मन में क्या विचार आता है? (नृत्य करने का।) शाओगैंग अब नृत्य का अध्ययन करने पर विचार कर रहा है। वह इस वीडियो क्लिप और युवक के प्रदर्शन को बार-बार देखता है। फिर, वह इस बारे में कुछ पूछताछ करता है कि नृत्य का अध्ययन कहाँ किया जाए, इसे कैसे सीखा जाए और सबसे बुनियादी नृत्य कौन से हैं। वह कम्प्यूटर पर काम करने दौरान नृत्य से संबंधित शिक्षण सामग्री, वीडियो और अध्ययन संसाधनों की खोज करने की सुविधा का भी उपयोग करता है। बेशक यह खोज करते समय शाओगैंग न केवल देख रहा होता है, बल्कि वह अभ्यास करके सीखता भी है। नृत्य सीखने के लिए, शाओगैंग हर दिन बहुत जल्दी उठता है और बहुत देर रात सोने जाता है। जिमनास्टिक नृत्य की अपनी बहुत ही सीमित जानकारी को आगे बढ़ाते हुए उसने औपचारिक रूप से लोक नृत्य का अध्ययन करना शुरू कर दिया है, और वह हर दिन जल्दी उठकर शरीर को लचीला बनाने के लिए व्यायाम करने लगा है। नृत्य के अध्ययन की प्रक्रिया में शाओगैंग को बहुत सारी शारीरिक पीड़ा सहनी होती है, और बहुत सारा समय लगाना होता है, जिसका उसे अंततः थोड़ा बहुत लाभ होता है। शाओगैंग को लगता है कि आखिरकार उसका मौका आ गया है, वह मंच पर नृत्य कर सकता है क्योंकि उसका मानना है कि उसका शरीर थोड़ा अधिक लचीला है और वह कुछ नृत्य कलाओं का प्रदर्शन कर सकता है। इसके अलावा, दूसरों की नकल और अध्ययन के सहारे उसने संगीत बजाकर कुछ धुनों पर नृत्य करने में महारत हासिल कर ली है। इन परिस्थितियों में शाओगैंग को लगता है कि कलीसिया में अपना कर्तव्य बदलने के लिए आवेदन करने का समय आ गया है। एक बार फिर, बार-बार अनुरोध करने के बाद, आखिरकार शाओगैंग की इच्छा पूरी हो गई और वह नर्तक बनने के लिए नृत्य दल में शामिल हो गया। तब से, अन्य नर्तकों की ही तरह शाओगैंग सुबह के प्रशिक्षण के लिए जल्दी उठता है, नृत्य कार्यक्रम का अभ्यास करता है, नियमित रूप से सभाओं और संगतियों में भाग लेता है और विश्लेषण करते हुए इन लोगों के साथ नृत्य कार्यक्रम की योजना बनाता है। वह हर दिन बस यही काम करता है, और जब दिन खत्म होता है तो वह इतना थक जाता है कि उसकी पीठ दुखने लगती है और उसके पैरों में दर्द होने लगता है। बारिश हो या धूप, उसका हर दिन ऐसा ही बीतता है। शाओगैंग ने जब यह सब शुरू किया था तो वह नृत्य के बारे में जिज्ञासा से भरा था, लेकिन एक बार नर्तक के जीवन और विभिन्न पहलुओं को समझ लेने और उससे परिचित हो जाने पर शाओगैंग को लगता है कि यह सब कुछ नृत्य के लिए ही है। किसी नृत्य कला को बार-बार दोहराना, कभी टखने का मुड़ जाना, कभी-कभार पीठ के निचले हिस्से में खिंचाव हो जाना, और चोट लगने का खतरा तो होता ही है। नृत्य करते हुए वह सोचता है, “अरे नहीं, नर्तक के रूप में काम करना भी कठिन है। हर दिन मैं खुद को इतना थकाता हूँ कि मेरे पूरे शरीर से पसीने की बदबू आने लगती है। यह इतना आसान नहीं है। यह वीडियो वाले काम से कठिन है! नहीं, मुझे दृढ़ता से इसमें लगे रहना होगा!” इस बार वह आसानी से हार नहीं मानता, और तब तक डटा रहता है जब तक कि वह अंततः नृत्य कार्यक्रम के लिए ड्रेस रिहर्सल में नहीं पहुंच जाता, जिसके बाद उनके नृत्य को समीक्षा के लिए भेजा जाता है। समीक्षा के दिन, शाओगैंग किस मनोदशा में है? वह अपनी कड़ी मेहनत का परिणाम जानने के लिए इतना उत्साहित और उम्मीद से भरा हुआ है कि उसने दोपहर का खाना भी नहीं खाया है। “उसने बहुत मेहनत की है, है ना?” अंत में, जब परिणाम जारी होते हैं, तो उनका नृत्य समीक्षाओं के पहले दौर में सफल नहीं होता है। यह खबर शाओगैंग पर बिजली की तरह गिरी, और उसका मन बेहद खराब हो गया। वह कुर्सी पर धम्म से गिर जाता है, “हमने इस नृत्य पर इतना ज्यादा समय लगाया, और तुम इसे सिर्फ एक शब्द के साथ अस्वीकार कर रहे हो? क्या नृत्य के बारे में तुम कुछ जानते भी हो? हम सिद्धांतों के साथ नृत्य करते हैं, हम सब ने इसकी कीमत चुकाई है, और तुम हमारे नृत्य को ऐसे ही ठुकरा रहे हो?” फिर वह सोचता है, “फैसला उनके हाथ में है, और यदि वे हमारे नृत्य को स्वीकार नहीं करते, तो हमें इसे फिर से सुधार करना होगा। इस पर किसी से बहस नहीं हो सकती। हम और कुछ नहीं कर सकते, तो चलो फिर से शुरू करते हैं।” जिस दिन शाओगैंग के नृत्य को समीक्षाओं के पहले दौर में खारिज कर दिया गया, उसने दोपहर का भोजन नहीं किया, और रात में उसने अनिच्छा से केवल थोड़ा सा खाना खाया। क्या तुम लोगों को लगता है कि वह उस रात सो पाया होगा? (वह सो नहीं सकता।) उसे फिर से नींद नहीं आ रही है, उसके मन में मंथन चल रहा है, “मैं जहां भी जाता हूँ, वहां चीजें सफल क्यों नहीं होतीं? परमेश्वर ने मुझे आशीष नहीं दिया। जिस नृत्य पर हम दो महीने से काम कर रहे थे वह समीक्षा के पहले दौर में सफल नहीं हुआ। मैं नहीं जानता कि समीक्षाओं के दूसरे दौर में यह कब सफल होगा और मुझे यह भी नहीं पता कि ऐसा कर पाने के लिए हमें कितना समय लगाना होगा। मैं कब मंच पर आकर आधिकारिक तौर पर प्रस्तुति दे पाऊंगा? मेरे मशहूर होने की कोई उम्मीद नहीं है!” उसका दिमाग आगे-पीछे भटकता है, वह सोच-विचार में लगा रहता है और सोचता है, “वीडियो का काम ही बेहतर है। मैं बस वहां जाता हूँ और बैठ जाता हूँ, की-बोर्ड पर बटन दबाते ही फूल, पौधे, पेड़ सभी दिखाई देने लगते हैं। जब मैं इशारा करता हूँ तो पक्षी बोलने लगते हैं, जब मैं दौड़ाता हूँ तो घोड़े दौड़ते हैं, जो कुछ भी मैं चाहता हूँ, वह सब वहां मौजूद होता है। लेकिन नृत्य में, हमें समीक्षाओं से गुजरना पड़ता है, और हर दिन मैं खुद इतना थक जाता हूँ कि मुझसे पसीने की बदबू आने लगती है। कभी-कभी मैं इतना थक जाता हूँ कि न तो खा पाता हूँ और न ही ठीक से सो पाता हूँ, फिर भी हमारा नृत्य समीक्षाओं के पहले दौर में भी सफल नहीं हो पाता। यह काम भी कठिन है। क्या यह बेहतर नहीं होगा कि मैं वीडियो संपादन टीम में काम पर वापस चला जाऊं?” वह लगातार सोचता जाता है, “लेकिन यह बहुत बुरी स्थिति है, मैं फिर से क्यों डगमगा रहा हूँ? मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए, चलो सो जाता हूँ!” वह हैरान-परेशान सो जाता है। अगले दिन उठने पर वह लगभग सब कुछ भूल जाता है, इसलिए वह नृत्य करना और ड्रेस रिहर्सल में भाग लेना जारी रखता है। जब समीक्षा के दूसरे दौर का दिन आता है, तो शाओगैंग फिर से घबरा जाता है। वह पूछता है : “क्या हमारा नृत्य समीक्षा के इस दौर में सफल हो सकता है?” हर कोई कहता है : “कौन जाने? यदि ऐसा नहीं होता है, तो यह साबित होगा कि हमारा नृत्य उतना अच्छा नहीं है, और हम इस पर काम करना जारी रखेंगे। जब यह सफल हो जाएगा, तभी हम आधिकारिक तौर पर इसका प्रदर्शन और फिल्मांकन करेंगे। चलो, जो चीज जैसे हो रही है उसे वैसे होने दें और इस मामले से सही ढंग से निपटें।” शाओगैंग कहता है : “नहीं, तुम लोग इससे सही तरीके से निपट सकते हो, लेकिन मेरे पास इसके लिए समय नहीं है।” अंत में, दूसरे दौर के परिणाम सामने आते हैं, और उनका नृत्य फिर से सफल नहीं होता। शाओगैंग कहता है : “हूँ..., मैं जानता था! इस कार्य क्षेत्र में सफल होना आसान नहीं है! हम युवा हैं, अच्छे दिखते हैं और नृत्य कर सकते हैं। क्या ये हमारी ताकत नहीं है? वे समीक्षक हमसे ईर्ष्या करते हैं क्योंकि वे नृत्य नहीं कर सकते, इसलिए वे हमारे नृत्य को स्वीकृति नहीं देंगे। ऐसा लगता है जैसे यह कभी सफल नहीं होगा, नृत्य करना आसान नहीं है, मैं वापस जा रहा हूँ।” उस रात शाओगैंग बहुत शांति से सोया, क्योंकि उसने अगले दिन अपना सामान समेटकर, वहां से जाने और अलविदा कहने का मन बना लिया था।

जो भी हो, अंततः शाओगैंग की इच्छा फिर से पूरी हो गई और वह वीडियो संपादन टीम में लौट कर फिर से अपने कंप्यूटर के सामने बैठा है। वह अतीत की उन जानी-पहचानी भावनाओं पर आत्मचिंतन करता है और सोचता है, “मेरा जन्म पर्दे के पीछे काम करने के लिए ही हुआ है। मैं बस गुमनाम नायक ही हो सकता हूँ, इस जीवन में मेरे पास मंच पर आने या प्रसिद्ध होने का कोई मौका नहीं है। मैं जो कर रहा हूँ बस वही करूँगा और की-बोर्ड पर उंगलियाँ चलाता रहूँगा। यही मेरा कर्तव्य है, इसलिए मैं बस यही काम करूँगा।” विचारों में इस तरह आगे-पीछे झूलने के बाद उसने खुद को स्थिर किया। उसका दूसरा सपना भी टूट गया, अपूर्ण रह गया। शाओगैंग एक “मेहनती और अध्ययनशील” व्यक्ति है, “उत्साही और महत्वाकांक्षी” व्यक्ति है—क्या तुम लोगों को लगता है कि वह कंप्यूटर पर बैठकर इतना थकाऊ काम करने को इतना तैयार होगा? नहीं, संभवतः वह ऐसा नहीं करेगा।

हाल ही में शाओगैंग पर गायन का जुनून सवार हुआ है। इतनी जल्दी वह कैसे बदल सकता है? उसे इसका जुनून क्यों है, वह मंच से दूर क्यों नहीं रह सकता? उसके दिल में कुछ तो छिपा है। इस बार वह बिना सोचे-समझे अपना कर्तव्य बदलने का अनुरोध नहीं करता; वह हर दिन बस नए जुनून से जुड़ी सामग्री खोजता है और अपने गायन कौशल को विकसित करने के लिए अभ्यास करता है। वह अक्सर तब तक गायन का अभ्यास करता रहता है जब तक कि उसका गला बैठ न जाए, कभी-कभी तो उसकी आवाज निकलनी बंद हो जाती है। इतने पर भी, शाओगैंग अब तक हतोत्साहित नहीं है क्योंकि इस बार उसने रणनीति बदल दी है। वह कहता है, “इस बार मैं वास्तविक स्थिति को समझे बिना अपना कर्तव्य नहीं बदल सकता। मुझे सचमुच सावधान रहना होगा, नहीं तो लोग मेरा मजाक उड़ाएँगे। यदि मैं हमेशा अपना काम बदलता रहूँगा, तो वे मेरे बारे में क्या सोचेंगे? वे मुझे नीची निगाह से देखेंगे। इस बार मुझे तब तक अभ्यास जारी रखना होगा जब तक मुझे यह नहीं लगता कि मैं कलीसिया के गायकों जितना अच्छा गायक बन सकता हूँ, और तब मैं भजन गायन दल में चला जाऊँगा।” खाली समय में और कार्यस्थल पर वह हर दिन इस तरह अभ्यास करने का अथक प्रयास करता है। एक दिन जब शाओगैंग काम कर रहा था, तो उसके टीम लीडर ने अचानक उससे कहा : “शाओगैंग, तुम कैसा काम कर रहे हो? तुमने फिर से ऐसी बेपरवाही बरती और अपने काम को बेहतर करने का प्रयास नहीं किया तो तुम्हें आगे से यह कर्तव्य करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।” शाओगैंग ने कहा : “मैंने कुछ नहीं किया।” फिर, हर कोई उसे घेर कर कहने लगता है, “शाओगैंग, क्या हुआ है? ओह, तुमने इतनी बड़ी गलती की है! ऊपरवाले ने तुम्हारी ऐसी गलतियों को कई बार सुधारा है, फिर भी तुम बार-बार वही कैसे कर सकते हो? इसकी वजह यह है कि तुम हर दिन गायन के अभ्यास में लगे रहते हो और वीडियो संपादन पर ध्यान नहीं देते, इसीलिए तुम गलतियाँ करते हो और महत्वपूर्ण मामलों में देरी करते हो। अगर तुम दोबारा ऐसी गलती करोगे, तो कलीसिया तुम्हें निष्कासित कर देगा। वह तुम्हें आगे नहीं रखेगा, और हम सब तुम्हें खारिज कर देंगे!” शाओगैंग समझाता रहता है : “मैंने जान-बूझकर ऐसा नहीं किया है, मैं अब से सावधान रहूँगा, मुझे एक और मौका दे दो। मुझे निष्कासित मत करो, मैं तुम लोगों से विनती करता हूँ कि मुझे निष्कासित मत करो! परमेश्वर मेरी रक्षा कर!” जब वह चिल्लाता है, तभी उसे महसूस होता है कि एक बड़ा सा हाथ उसका कंधा थपथपा रहा है और कह रहा है, “शाओगैंग, उठो! जागो, शाओगैंग!” क्या हुआ? (वह सपना देख रहा है।) वह सपना देख रहा है। उसकी आँखें बंद हैं और वह अचंभित है, उसके हाथ हवा में कुछ पकड़ रहे हैं और कुछ खरोंच रहे हैं। हर कोई चकित है कि क्या हुआ और फिर वे देखते हैं कि शाओगैंग अपने कीबोर्ड पर झुका हुआ सो रहा है। एक भाई उसे थपथपाता है, और थोड़ा हिलाने-डुलाने के बाद आखिरकार शाओगैंग जाग जाता है। जब वह जागता है, तो कहता है : “ओह, यह सब कितना डरावना था, मुझे निष्कासित किया जाने वाला था।” “किस लिए?” शाओगैंग इसके बारे में सोचता है और देखता है कि वास्तव में कुछ भी नहीं हुआ है। उसे पता चलता है कि वह एक सपना था, वह सपने में डर गया था। यह “शाओगैंग के सपने” नाम की इस कहानी का अंत है।

इस कहानी में किस समस्या के बारे में बात की गई है? सच तो यह है कि सपने और वास्तविकता अक्सर आपस में विरोधी होते हैं। बहुत बार लोग सोचते हैं कि उनके सपने खरे हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि सपने और वास्तविकता एक ही चीज नहीं होते। सपने केवल तुम्हारी इच्छित सोच हैं, तुम्हारी अस्थायी रुचि भर होते हैं। ज्यादातर मौकों पर वे लोगों की प्राथमिकताएँ, महत्वाकांक्षाएँ और इच्छाएँ होते हैं जो उनके निरंतर प्रयासों का लक्ष्य बन जाते हैं। लोगों के सपने वास्तविकता से पूरी तरह असंगत होते हैं। यदि लोगों के सपने बहुत सारे हों, तो वे अक्सर कौन सी गलतियाँ करेंगे? वे अपने सामने के उस काम पर ध्यान नहीं देंगे जो उन्हें उस समय करना चाहिए। वे वास्तविकता को नजरअंदाज कर देंगे, और उन कर्तव्यों को एक किनारे कर देंगे जो उन्हें करने चाहिए, जो काम उन्हें पूरा करना चाहिए, और उन दायित्वों और जिम्मेदारियों को एक किनारे कर देंगे जो उन्हें उस समय पूरे करने चाहिए। वे इन चीजों को गंभीरता से नहीं लेंगे और बस अपने सपनों के पीछे दौड़ते रहेंगे, उन्हें साकार करने के लिए लगातार भागदौड़ और कड़ी मेहनत करते रहेंगे, और बहुत सारी निरर्थक चीजें करते रहेंगे। इस तरह, वे न केवल अपने कर्तव्यों को ठीक से निभाने में विफल रहेंगे, बल्कि वे कलीसिया के काम में भी देरी और व्यवधान डाल सकते हैं। बहुत से लोग सत्य को नहीं समझते या सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे कर्तव्य पालन के प्रति किस प्रकार का आचरण करते हैं? वे इसे एक तरह का काम, एक तरह का शौक या अपने हित में निवेश मानते हैं। वे इसे परमेश्वर द्वारा बताया गया कोई मिशन या कार्य या किसी ऐसी जिम्मेदारी की तरह नहीं मानते जो उन्हें पूरी करनी चाहिए। इससे भी कम प्रयास वे अपने कर्तव्यों का पालन करते समय सत्य को खोजने या परमेश्वर के इरादों को समझने में करते हैं ताकि अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभा सकें और परमेश्वर के आदेश को पूरा कर सकें। इसीलिए, अपने कर्तव्यों को निभाने की प्रक्रिया में कुछ लोग थोड़ी सी कठिनाई सहते ही उसे करने के अनिच्छुक हो जाते हैं और उसे छोड़कर बच निकलना चाहते हैं। जब उन्हें कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है या कुछ असफलताओं का सामना करना पड़ता है, तो वे पीछे हट जाते हैं, और फिर से भाग जाना चाहते हैं। वे सत्य की खोज नहीं करते; वे बस बच निकलने के बारे में सोचते हैं। कुछ भी गलत होने पर वे बस कछुओं की तरह अपने खोल में छिप जाते हैं, फिर से बाहर आने के लिए समस्या खत्म होने तक इंतजार करते हैं। ऐसे बहुत सारे लोग हैं। विशेष रूप से, कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनसे जब किसी खास काम की जिम्मेदारी लेने के लिए कहा जाता है, तो वे इस बात पर विचार नहीं करते कि वे अपनी निष्ठा कैसे साबित कर सकते हैं, या इस कर्तव्य को कैसे निभा सकते हैं और उस काम को अच्छी तरह से कैसे कर सकते हैं। बल्कि वे इस बात पर विचार करते हैं कि जिम्मेदारी से कैसे भागा जाए, काट-छाँट से कैसे बचा जाए, किसी जिम्मेदारी को उठाने से कैसे बचा जाए, और समस्याएँ या गलतियाँ होने पर कैसे बेदाग बच निकला जाए। वे पहले अपने बच निकलने का रास्ता और अपनी प्राथमिकताओं और हितों को पूरा करने पर विचार करते हैं, न कि इस पर कि अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से कैसे निभाएँ और अपनी निष्ठा कैसे प्रस्तुत करें। क्या ऐसे लोग सत्य प्राप्त कर सकते हैं? वे सत्य के संबंध में प्रयास नहीं करते, और जब अपने कर्तव्यों के निर्वाह की बात आती है तो सत्य का अभ्यास नहीं करते। उन्हें हमेशा दूसरे की रोटी ज्यादा चुपड़ी नजर आती है। आज वे यह करना चाहते हैं, कल कुछ और करना चाहते हैं, और उन्हें लगता है कि हर दूसरे आदमी का कर्तव्य उनके अपने कर्तव्य से बेहतर और आसान है। और तब भी, वे सत्य के लिए प्रयासरत नहीं होते। वे यह नहीं सोचते कि उनके इन विचारों में क्या समस्याएँ हैं, और वे समस्याओं के समाधान के लिए सत्य की खोज नहीं करते। उनके दिमाग हमेशा इस बात पर लगे रहते हैं कि उनके अपने सपने कब साकार होंगे, कौन सुर्खियों में है, किसे ऊपरवाले से मान्यता मिल रही है, कौन बिना काट-छाँट के काम करता है और पदोन्नत हो जाता है। उनके दिमाग इन चीजों से भरे हुए हैं। क्या जो लोग हमेशा इन चीजों के बारे में सोचते रहते हैं, वे अपने कर्तव्यों का उचित ढंग से पालन कर सकते हैं? वे इसे कभी पूरा नहीं कर सकते। तो, किस तरह के लोग अपने कर्तव्यों का पालन इस तरह से करते हैं? क्या ये वे लोग हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं? सबसे पहले, एक बात तो तय है : इस तरह के लोग सत्य का अनुसरण नहीं करते। वे कुछ आशीषों का आनंद लेना चाहते हैं, प्रसिद्ध होना चाहते हैं, और परमेश्वर के घर में प्रमुखता पाना चाहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे जब वे सामान्य समाज में रह रहे थे। सार की दृष्टि से, वे कैसे लोग हैं? वे छद्म-विश्वासी हैं। छद्म-विश्वासी परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्यों का वैसे ही पालन करते हैं जैसे वे बाहरी दुनिया में करते हैं। उन्हें पदोन्नतियों की परवाह होती है, इस बात की चिंता होती है कि कौन टीम का अगुआ बन रहा है, कौन कलीसिया का अगुआ बन रहा है, किसके काम की सभी लोग प्रशंसा कर रहे हैं, किसकी बड़ाई हो रही है, और किसका उल्लेख किया जा रहा है। उन्हें इन चीजों की चिंता होती है। यह बिल्कुल किसी कंपनी की तरह है : किसकी पदोन्नति हो रही है, किसका वेतन बढ़ रहा है, अगुआ किसकी प्रशंसा कर रहा है, और कौन अगुआ से परिचित हो रहा है—लोग इन बातों की परवाह करते हैं। यदि वे परमेश्वर के घर में भी इन चीजों को खोजते हैं, और सारा दिन इन्हीं बातों में व्यस्त रहते हैं, तो क्या वे एकदम अविश्वासियों जैसे नहीं हैं? सार रूप से, वे अविश्वासी हैं; वे खांटी छद्म-विश्वासी हैं। वे जो भी कर्तव्य निभाएँगे, वे केवल मेहनत करेंगे और बेमन से काम करेंगे। वे चाहे जो भी धर्मोपदेश सुनें, वे सत्य को फिर भी नहीं स्वीकारेंगे, और वे सत्य को अभ्यास में तो बिल्कुल भी नहीं लाएँगे। बिना किसी तरह के बदलाव का अनुभव किए वे कई वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते रहे हैं, और वे चाहे जितने वर्षों तक अपने कर्तव्यों का पालन करें, वे वफादार होने में सक्षम नहीं होंगे। परमेश्वर में उनकी सच्ची आस्था नहीं होती, उनमें निष्ठा नहीं होती, वे छद्म-विश्वासी होते हैं।

कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते हुए जिम्मेदारी उठाने से डरते हैं। यदि कलीसिया उन्हें कोई काम देती है, तो वे पहले इस बात पर विचार करेंगे कि इस कार्य के लिए उन्हें कहीं उत्तरदायित्व तो नहीं उठाना पड़ेगा, और यदि उठाना पड़ेगा, तो वे उस कार्य को स्वीकार नहीं करेंगे। किसी काम को करने के लिए उनकी शर्तें होती हैं, जैसे सबसे पहले, वह काम ऐसा होना चाहिए जिसमें मेहनत न हो; दूसरा, वह व्यस्त रखने या थका देने वाला न हो; और तीसरा, चाहे वे कुछ भी करें, उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। इन शर्तों के साथ वे कोई काम हाथ में लेते हैं। ऐसा व्यक्ति किस प्रकार का होता है? क्या ऐसा व्यक्ति धूर्त और कपटी नहीं होता? वह छोटी से छोटी जिम्मेदारी भी नहीं उठाना चाहता। उन्हें यहाँ तक डर लगता है कि पेड़ों से झड़ते हुए पत्ते कहीं उनकी खोपड़ी न तोड़ दें। ऐसा व्यक्ति क्या कर्तव्य कर सकता है? परमेश्वर के घर में उनका क्या उपयोग हो सकता है? परमेश्वर के घर का कार्य शैतान से युद्ध करने के कार्य के साथ-साथ राज्य के सुसमाचार फैलाने से भी जुड़ा होता है। ऐसा कौन-सा काम है जिसमें उत्तरदायित्व न हो? क्या तुम लोग कहोगे कि अगुआ होना जिम्मेदारी का काम है? क्या उनकी जिम्मेदारियाँ भी बड़ी नहीं होतीं, और क्या उन्हें और ज्यादा जिम्मेदारी नहीं उठानी चाहिए? चाहे तुम सुसमाचार फैलाते हो, गवाही देते हो, वीडियो बनाते हो, या कुछ और करते हो—इससे फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या करते हो—जब तक इसका संबंध सत्य सिद्धांतों से है, तब तक उसमें उत्तरदायित्व होंगे। यदि तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में कोई सिद्धांत नहीं हैं, तो उसका असर परमेश्वर के घर के कार्य पर पड़ेगा, और यदि तुम जिम्मेदारी उठाने से डरते हो, तो तुम कोई काम नहीं कर सकते। अगर किसी को कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी लेने से डर लगता है तो क्या वह कायर है या उसके स्वभाव में कोई समस्या है? तुम्हें अंतर बताने में समर्थ होना चाहिए। दरअसल, यह कायरता का मुद्दा नहीं है। यदि वह व्यक्ति धन के पीछे भाग रहा है, या वह अपने हित में कुछ कर रहा है, तो वह इतना बहादुर कैसे हो सकता है? वह कोई भी जोखिम उठा लेगा। लेकिन जब वह कलीसिया के लिए, परमेश्वर के घर के लिए काम करता है, तो वह कोई जोखिम नहीं उठाता। ऐसे लोग स्वार्थी, नीच और बेहद कपटी होते हैं। कर्तव्य निर्वहन में जिम्मेदारी न उठाने वाला व्यक्ति परमेश्वर के प्रति जरा भी ईमानदार नहीं होता, उसकी वफादारी की क्या बात करना। किस तरह का व्यक्ति जिम्मेदारी उठाने की हिम्मत करता है? किस प्रकार के इंसान में भारी बोझ वहन करने का साहस है? जो व्यक्ति अगुआई करते हुए परमेश्वर के घर के काम के सबसे महत्वपूर्ण पलों में बहादुरी से आगे बढ़ता है, जो अहम और अति महत्वपूर्ण कार्य देखकर बड़ी जिम्मेदारी उठाने और मुश्किलें सहने से नहीं डरता। ऐसा व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार होता है, मसीह का अच्छा सैनिक होता है। क्या बात ऐसी है कि लोग कर्तव्य की जिम्मेदारी लेने से इसलिए डरते हैं, क्योंकि उन्हें सत्य की समझ नहीं होती? नहीं; समस्या उनकी मानवता में होती है। उनमें न्याय या जिम्मेदारी की भावना नहीं होती, वे स्वार्थी और नीच लोग होते हैं, वे परमेश्वर के सच्चे विश्वासी नहीं होते, और वे सत्य जरा भी नहीं स्वीकारते। इन कारणों से उन्हें बचाया नहीं जा सकता। परमेश्वर के विश्वासियों को सत्य हासिल करने के लिए बहुत भारी कीमत चुकानी ही होगी, उसे अभ्यास में लाने के लिए उन्हें बहुत-सी कठिनाइयों से गुजरना होगा। उन्हें बहुत-सी चीजों का त्याग करना होगा, दैहिक-सुखों को छोड़ना होगा और कष्ट उठाने पड़ेंगे। तब जाकर वे सत्य का अभ्यास करने योग्य बन पाएंगे। तो, क्या जिम्मेदारी लेने से डरने वाला इंसान सत्य का अभ्यास कर सकता है? यकीनन वह सत्य का अभ्यास नहीं कर सकता, सत्य हासिल करना तो दूर की बात है। वह सत्य का अभ्यास करने और अपने हितों को होने वाले नुकसान से डरता है; उसे अपमानित और उपेक्षित होने का डर होता है, उसे आलोचना का डर होता है, और वह सत्य का अभ्यास करने की हिम्मत नहीं करता। नतीजतन, वह उसे हासिल नहीं कर सकता। परमेश्वर में उसका विश्वास चाहे जितना पुराना हो, वह उसका उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। परमेश्वर के घर में कर्तव्य करने वाले लोग ऐसे होने चाहिए जो कलीसिया के काम को अपना दायित्व समझें, जो जिम्मेदारी लें, सत्य सिद्धांत कायम रखें, और जो कष्ट सहकर कीमत चुकाएँ। अगर कोई इन क्षेत्रों में कम होता है, तो वह कर्तव्य करने के अयोग्य होता है, और कर्तव्य करने की शर्तों को पूरा नहीं करता है। कई लोग ऐसे होते हैं, जो कर्तव्य पालन की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। उनका डर मुख्यतः तीन तरीकों से प्रकट होता है। पहला यह है कि वे ऐसे कर्तव्य चुनते हैं, जिनमें जिम्मेदारी लेने की आवश्यकता नहीं होती। अगर कलीसिया का अगुआ उनके लिए किसी कर्तव्य पालन की व्यवस्था करता है, तो पहले वे यह पूछते हैं कि क्या उन्हें इसकी जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी : अगर ऐसा होता है, तो वे उसे स्वीकार नहीं करते। अगर उन्हें उसकी जिम्मेदारी लेने और उसके लिए जिम्मेदार होने की आवश्यकता नहीं होती, तो वे उसे अनिच्छा से स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन फिर भी वे यह देख लेते हैं कि काम थका देने वाला या परेशान करने वाला तो नहीं, और कर्तव्य को अनिच्छा से स्वीकार कर लेने के बावजूद, वे उसे अच्छी तरह से करने के लिए प्रेरित नहीं होते, उस स्थिति में भी वे बेपरवाह बने रहना पसंद करते हैं। आराम, कोई मेहनत नहीं, और कोई शारीरिक कठिनाई नहीं—यह उनका सिद्धांत होता है। दूसरा तरीका यह है कि जब उन पर कोई कठिनाई आती है या किसी समस्या से उनका सामना होता है, तो उनकी टालमटोल का पहला तरीका यह होता है कि उसकी रिपोर्ट किसी अगुआ को कर दी जाए और अगुआ को ही उसे सँभालने और हल करने दिया जाए, और आशा की जाए कि उनके आराम में कोई खलल नहीं पड़ेगा। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि अगुआ उस मुद्दे को कैसे सँभालता है, वे खुद उस पर कोई ध्यान नहीं देते—अगर उनकी जिम्मेदारी नहीं है, तो उनके लिए सब ठीक है। क्या ऐसा कर्तव्य-पालन परमेश्वर के प्रति निष्ठा है? इसे अपनी जिम्मेदारी दूसरे के सिर मढ़ना, कर्तव्य की उपेक्षा करना, चालाकियाँ करना कहा जाता है। यह केवल बातें बनाना है; वे कुछ भी वास्तविक नहीं कर रहे हैं। वे मन में कहते हैं, “अगर यह चीज मुझे ही सुलझानी है, तो अगर मैं गलती कर बैठा तो होगा? जब वे देखेंगे कि किसे दोष देना है, तो क्या वे मुझे नहीं पकड़ेंगे? क्या इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले मुझ पर नहीं आएगी?” उन्हें इसी बात की चिंता रहती है। लेकिन क्या तुम मानते हो कि परमेश्वर सबकी जाँच करता है? गलतियाँ सबसे होती हैं। अगर किसी नेक इरादे वाले व्यक्ति के पास अनुभव की कमी है और उसने पहले कोई मामला नहीं सँभाला है, लेकिन उसने पूरी मेहनत की है, तो यह परमेश्वर को दिखता है। तुम्हें विश्वास करना चाहिए कि परमेश्वर सभी चीजों और मनुष्य के हृदय की जाँच करता है। अगर कोई इस पर भी विश्वास नहीं करता, तो क्या वह छद्म-विश्वासी नहीं है? फिर ऐसे व्यक्ति के कर्तव्य निभाने के मायने ही क्या हैं? इससे वाकई कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे यह कर्तव्य निभाते हैं या नहीं, है न? वे जिम्मेदारी लेने से डरते हैं और जिम्मेदारी से भागते हैं। जब कुछ होता है, तो पहला काम जो वे करते हैं, वह यह नहीं होता कि समस्या से निपटने का तरीका सोचने की कोशिश करें, बल्कि पहला काम वे यह करते हैं कि अगुआ को कॉल करके इसकी सूचना देते हैं। निस्संदेह, कुछ लोग अगुआ को सूचित करते हुए खुद समस्या से निपटने का प्रयास करते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं करते, और उनका पहला काम होता है अगुआ को कॉल करना, और कॉल करने के बाद वे बस निष्क्रिय रहकर निर्देशों की प्रतीक्षा करते हैं। जब अगुआ उन्हें कोई कदम उठाने का निर्देश देता है, तो वे वह कदम उठाते हैं; अगर अगुआ कुछ करने के लिए कहता है, तो वे वैसा करते हैं। अगर अगुआ कुछ नहीं कहता या कोई निर्देश नहीं देता, तो वे कुछ नहीं करते और बस टालते रहते हैं। बिना किसी के प्रेरित किए या बिना निगरानी के वे कोई काम नहीं करते। बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति कर्तव्य निभा रहा है? अगर वह मेहनत कर भी रहा हो, तो भी उसमें निष्ठा नहीं होती! एक और तरीका है, जिससे किसी व्यक्ति का कर्तव्य निर्वहन करते समय जिम्मेदारी लेने का डर प्रकट होता है। जब ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाते हैं, तो उनमें से कुछ लोग बस थोड़ा-सा सतही, सरल कार्य करते हैं, ऐसा कार्य जिसमें जिम्मेदारी लेना शामिल नहीं होता। जिस कार्य में कठिनाइयाँ और जिम्मेदारी लेना शामिल होता है, उसे वे दूसरों पर डाल देते हैं, और अगर कुछ गलत हो जाता है, तो दोष उन लोगों पर मढ़ देते हैं और अपना दामन साफ रखते हैं। जब कलीसिया के अगुआ देखते हैं कि वे गैर-जिम्मेदार हैं, तो वे धैर्यपूर्वक मदद की पेशकश करते हैं, या उनकी काट-छाँट करते हैं, ताकि वे जिम्मेदारी लेने में सक्षम हो सकें। लेकिन फिर भी, वे ऐसा नहीं करना चाहते, और सोचते हैं, “यह कर्तव्य करना कठिन है। चीजें गलत होने पर मुझे जिम्मेदारी लेनी होगी, और हो सकता है कि मुझे निकालकर हटा भी दिया जाए, और यह मेरे लिए अंत होगा।” ये कैसा रवैया है? अगर उन्हें अपना कर्तव्य निभाने में जिम्मेदारी का एहसास नहीं है, तो वे अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभा सकते हैं? जो लोग वास्तव में खुद को परमेश्वर के लिए नहीं खपाते, वे कोई कर्तव्य अच्छी तरह से नहीं निभा सकते, और जो लोग जिम्मेदारी लेने से डरते हैं, वे अपने कर्तव्य निभाने पर सिर्फ देरी ही करेंगे। ऐसे लोग विश्वसनीय या भरोसेमंद नहीं होते; वे सिर्फ पेट भरने के लिए अपना कर्तव्य निभाते हैं। क्या ऐसे “भिखारियों” को निकाल देना चाहिए? बेशक निकाल देना चाहिए। परमेश्वर के घर को ऐसे लोगों की जरूरत नहीं। ये उन लोगों की तीन अभिव्यक्तियाँ हैं जो अपना कर्तव्य निभाने की जिम्मेदारी लेने से डरते हैं। जो लोग अपने कर्तव्य में जिम्मेदारी उठाने से डरते हैं वे एक निष्ठावान मजदूर के स्तर तक भी नहीं पहुँच पाते, और कर्तव्य निभाने के लायक नहीं होते हैं। कुछ लोगों को अपने कर्तव्य के प्रति इस प्रकार के रवैये के कारण हटा दिया जाता है। अब भी वे इसका कारण नहीं जानते और शिकायत करते हुए कहते हैं, “मैंने अपना कर्तव्य पूरे जोश के साथ निभाया, तो भी उन्होंने मुझे इतनी बेरुखी से बाहर क्यों निकाल दिया?” उनकी समझ में यह बात अब भी नहीं आती। जो लोग सत्य को नहीं समझते वे जीवन भर यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि उन्हें क्यों हटाया गया था। वे अपने लिए बहाने बनाते हैं, और अपना बचाव करते रहते हैं, सोचते हैं, “किसी के लिए अपनी रक्षा करना स्वाभाविक है, और उन्हें ऐसा करना चाहिए। किसे अपना थोड़ा सा ख्याल नहीं रखना चाहिए? किसे अपने बारे में थोड़ा सा नहीं सोचना चाहिए? किसे अपने बच निकलने का रास्ता खोल कर रखने की जरूरत नहीं है?” अगर कोई समस्या आने पर तुम अपनी रक्षा करते हो और अपने लिए बचने का रास्ता रखते हो, पिछले दरवाजे से निकलना चाहते हो, तो क्या ऐसा करके तुम सत्य का अभ्यास कर रहे हो? यह सत्य का अभ्यास करना नहीं है—यह धूर्त होना है। अब तुम परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। कोई कर्तव्य निभाने का पहला सिद्धांत क्या है? वह यह है कि पहले तुम्हें भरसक प्रयास करते हुए अपने पूरे दिल से वह कर्तव्य निभाना चाहिए, और परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करनी चाहिए। यह एक सत्य सिद्धांत है, जिसे तुम्हें अभ्यास में लाना चाहिए। अपने लिए बचाव का रास्ता छोड़ना, पिछला दरवाजा रखना, अविश्वासियों द्वारा अपनाए गए अभ्यास का सिद्धांत है, और उनका सबसे ऊँचा फलसफा है। सभी मामलों में सबसे पहले अपने बारे में सोचना और अपने हित बाकी सब चीजों से ऊपर रखना, दूसरों के बारे में न सोचना, परमेश्वर के घर के हितों और दूसरों के हितों के साथ कोई संबंध न रखना, अपने हितों के बारे में पहले सोचना और फिर बचाव के रास्ते के बारे में सोचना—क्या यह एक अविश्वासी नहीं है? एक अविश्वासी ठीक ऐसा ही होता है। इस तरह का व्यक्ति कोई कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं है। अभी भी कुछ लोग कहानी के शाओगैंग जैसे हैं—वह एक विशिष्ट उदाहरण है। वे सामान्य तरीके से कुछ नहीं कर सकते। वे अपने हर काम में परेशानी से बचना चाहते हैं। वे थोड़ी सी भी कठिनाई या निराशा का सामना नहीं करना चाहते। उनकी देह को आराम चाहिए, उन्हें नियमित समय पर खाना और सोना चाहिए, और न तो उन्हें हवा लगे न सूरज उन्हें झुलसाए। इसके अलावा, वे अपने काम के लिए कोई जिम्मेदारी नहीं लेते। उन्हें कुछ ऐसा करना होता है जो उन्हें पसंद हो, कुछ ऐसा जिसमें वे अच्छे हों, कुछ ऐसा जिसे करने की उनमें तीव्र इच्छा हो। यदि उनके पास मनपसंद काम नहीं होता, तो वे थोड़े से भी आज्ञाकारी नहीं होते। वे लगातार झिझकते हैं और दुविधा में पड़े रहते हैं। वे जो करते हैं उसमें कभी भी प्रतिबद्ध नहीं होते—हमेशा उनका एक पैर अंदर और एक पैर बाहर होता है। जब उन्हें कष्ट होता है, तो वे पीछे हट जाना चाहते हैं। वे काट-छाँट सहन नहीं कर पाते। उनसे ऊँची मांगें नहीं की जा सकतीं। वे कष्ट नहीं उठा सकते। वे जो करते हैं वह पूरी तरह से उनकी अपनी रुचि और योजना पर निर्भर होता है—उनके भीतर रत्ती भर भी आज्ञाकारिता नहीं होती। इस प्रकार का व्यक्ति यदि सत्य की खोज नहीं कर सकता और आत्मचिंतन नहीं कर सकता, तो इन आदतों और भ्रष्ट स्वभावों का बदलना मुश्किल होता है। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले के रूप में कर्तव्य निभाने के लिए कम से कम थोड़ी सी ईमानदारी चाहिए। क्या तुम लोग सोचते हो कि ये लोग ईमानदार हैं? जब गंभीर प्रयास की आवश्यकता होती है, तो वे कायरता दिखाते हैं। उनमें रत्ती भर भी ईमानदारी नहीं होती। यह बहुत परेशानी वाली बात है और इससे निपटना मुश्किल होता है। उन्हें लगता है कि वे महान हैं, और जब उन्हें बरखास्त किया जाता है या उनकी काट-छाँट की जाती है, तब भी उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। यदि लोग सत्य की खोज नहीं करते या सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं करते, तो यह बहुत परेशानी वाली बात होती है। इस विषय पर इतना ही काफी है—चलो, मुख्य बिंदु पर आते हैं।

मसीह-विरोधियों द्वारा दूसरों से सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं बल्कि केवल अपने प्रति समर्पण करवाने का गहन विश्लेषण

आज की संगति आठवें मद को लेकर है जिसमें मसीह-विरोधी विभिन्न तरीकों से अभिव्यक्त होते हैं : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं। क्या तुम लोग इस मद को समझने में सक्षम हो? पहले विचार करो कि इस मद की कौन-सी अभिव्यक्तियाँ ऐसी हैं जिनका तुम उनसे मेल कर सकते हो जिन्हें तुम सचमुच समझते हो। वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं—इसका शाब्दिक अर्थ आसानी से समझ आ जाता है, लेकिन इसके भीतर अनेक अवस्थाएँ हैं, विभिन्न स्वभाव हैं, जिन्हें तमाम तरह के लोग प्रदर्शित करते हैं, या विभिन्न व्यवहार हैं जो ये विभिन्न स्वभाव दर्शाते हैं। यह एक बड़ा विषय है; हमें इसकी कुछ छोटी विशेषताओं पर संगति करनी होगी। जो लोग वचनों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, वे इस मद के शाब्दिक अर्थ के अनुसार इसे समझाने के लिए अक्सर कहेंगे : “इसका अर्थ सभी चीजों में उनकी बात पर ध्यान देना है—वे लोगों से अपनी बात पर ध्यान दिलवाते हैं, तब भी जब उनकी बात सत्य के अनुसार नहीं होती। जब वे कुछ वचनों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं, तो वे दूसरों से अपनी बात पर ध्यान दिलवाते हैं; जब वे कोई वाक्यांश कहते हैं, तो वे उस पर दूसरों से ध्यान दिलवाते हैं। वे हमेशा दूसरों को आदेश देने, दूसरों को काम सौंपने को प्रवृत्त रहते हैं, और दूसरों को उन पर ध्यान देने को मजबूर करते हैं।” इसके शाब्दिक अर्थ पर कुछ बात करते समय क्या वे अक्सर ऐसा ही नहीं कहते? और कुछ? “वे सोचते हैं कि वे सभी चीजों के बारे में सही हैं। वे हरेक से अपनी बात पर ध्यान दिलवाते हैं, और लोगों से अपनी बात के आगे समर्पण करवाते हैं, हालाँकि वह सत्य के अनुसार नहीं होती है। वे समझते हैं कि वे सत्य और परमेश्वर की तरह हैं, और उनकी बात पर ध्यान देकर लोग सत्य और परमेश्वर के प्रति समर्पण कर रहे हैं। इसका यही अर्थ है।” विचार करो कि यदि तुम लोग इस विषय पर बोल रहे होते, तो तुम कैसे बोलते। अगर तुम लोगों को अपनी आँखों देखी या खुद अनुभव की हुई चीजों से शुरू करना होता, तो तुम किस अंश से शुरू करते? जैसे ही हम वास्तविकता के बारे में बोलते हैं, तुम लोगों के पास कहने के लिए कुछ नहीं होता। तो क्या तुम लोगों के पास भाई-बहनों के साथ सामान्य संगति में भी कुछ कहने को नहीं होता? बातें किए बिना तुम अच्छी तरह से अपना काम कैसे कर सकते हो? पहले इस अभिव्यक्ति के कुछ ठोस तौर-तरीकों और व्यवहारों पर चर्चा करते हैं। इनमें से तुम लोग पहले किनको देख चुके हो या किनके साक्षी रह चुके हो? क्या तुम्हें कुछ पता है? (जब मैं अपना कर्तव्य कर रहा होता हूँ, उस समय मुझे कुछ ऐसे विचार आते हैं जो काफी सशक्त होते हैं, और मैं वास्तव में उन पर कार्य करना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि मेरे वे विचार अच्छे और सही हैं, और जब दूसरे उनके बारे में शंका जताते हैं तो मैं कहता हूँ कि इस मामले में देर नहीं करनी चाहिए, और इस पर तुरंत फैसला करना जरूरी है। फिर मैं जो करना चाहता था वह जबरन करता हूँ। दूसरे शायद इस बारे में खोजना चाहें, लेकिन मैं उन्हें समय नहीं देना चाहता—मैं चाहता हूँ कि वे मेरे विचारों के अनुरूप ही वह काम करें।) यह एक ठोस अभिव्यक्ति है। दूसरी कौन बताएगा? (एक बार मैं भाई-बहनों से किसी व्यक्ति को पदोन्नत करने और उसे पोषित करने के मामले पर संगति कर रहा था। असल में मैं पहले ही उस व्यक्ति को पदोन्नत करने का मन बना चुका था। मुझे लगा कि मैं पहले ही ऊपर वाले से पूछ चुका हूँ और उसे पदोन्नत करने को लेकर कोई दिक्कत नहीं थी। कुछ भाई-बहन अभी भी इस मामले को बहुत अच्छी तरह से नहीं समझ पाए थे, और मैंने इस बारे में संगति नहीं की कि हमें उस व्यक्ति को पदोन्नत क्यों करना चाहिए, इसके सिद्धांत क्या थे, या सत्य क्या था—मैंने बस उन्हें दृढ़तापूर्वक बताया कि वह व्यक्ति किन बातों में अच्छा है, और यह कि उसे पदोन्नत करना सिद्धांतों के अनुरूप है। मैंने उन्हें आज्ञा मानने और इस बात पर यकीन करने के लिए मजबूर किया कि मैं जो कर रहा हूँ वह सही है।) तुम लोग समस्याओं की एक श्रेणी, अवस्थाओं की एक श्रेणी के बारे में बात कर रहे हो, जो कुल मिलाकर इस मद से मेल खाते हैं। ऐसा लगता है कि यह थोड़ी-सी शाब्दिक समझ उतनी ही है जितना तुम लोग सत्य को समझ पाए हो, इसलिए मुझे इस बारे में संगति करनी होगी। यदि तुम लोग इस मद को अच्छी तरह समझ गए हो, तो हम इसे छोड़ देंगे और अगले के बारे में संगति करेंगे। हालाँकि लगता है कि अभी हम ऐसा नहीं कर सकते और हमें इस पर योजना के अनुसार ही संगति करनी होगी।

मसीह-विरोधियों की विभिन्न अभिव्यक्तियों का आठवाँ मद है : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं। इसमें किसी मसीह-विरोधी के सार की अनेक अभिव्यक्तियाँ हैं। यह निश्चित रूप से सिर्फ एकल मामला, एकल वाक्यांश, एकल दृष्टिकोण, या चीजें सँभालने का एकल तरीका नहीं है; बल्कि यह एक स्वभाव है। तो फिर यह कौन-सा स्वभाव है? यह कई तरीकों में प्रकट होता है। पहला तरीका यह है कि ऐसे लोग किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते। क्या यह चीजें करने का तरीका है? (नहीं, यह एक स्वभाव है।) बिल्कुल सही—यह एक स्वभाव का प्रकाशन है, एक ऐसा स्वभाव जिसका सार अहंकार और आत्मतुष्टता है। ऐसे लोग किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर पाते। यह पहला है। दूसरे जिस तरीके में यह अभिव्यक्त होता है वह यह है कि उनमें लोगों पर नियंत्रण करने और उन पर विजय पाने की लालसा और महत्वाकांक्षा होती है। क्या यह एक स्वभाव है? (हाँ।) क्या यह चीजें करने का एक तरीका है? (नहीं।) तुम लोगों ने जो बातें कही हैं, क्या यह उनसे अलग है? तुम लोगों ने एकल घटनाओं, चीजें करने के एकल तरीकों पर बात की—वे कोई सार नहीं हैं। क्या यह अभिव्यक्ति तुम लोगों की कही हुई बातों से अधिक गंभीर नहीं है? (हाँ।) यह मूल तक जाती है। और तीसरा तरीका है कि दूसरों को उनके लिए गए किसी भी काम में दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकना। क्या यह एक सार है? (हाँ।) इनमें से प्रत्येक सार में अनेक व्यवहार और चीजें करने के कई तरीके निहित हैं। फिर से, यह सार भी आठवें मद से मेल खाता है, है कि नहीं? चौथा तरीका यह है कि वे थोड़ा अनुभव और ज्ञान हासिल कर लेने और कुछ सबक सीख लेने के बाद वे सत्य का प्रतिरूप होने का दिखावा करते हैं, जिसका अर्थ है कि यदि वे सत्य पर थोड़ी संगति कर पाते हैं, तो वे खुद को सत्य वास्तविकता से युक्त मानते हैं और दूसरों को दिखाना चाहते हैं कि वे ऐसे व्यक्ति हैं जिनके पास सत्य है—ऐसा व्यक्ति जो सत्य का अभ्यास करता है, सत्य से प्रेम करता है, और जिसके पास सत्य वास्तविकता है। वे सत्य के प्रतिरूप होने का ढोंग करते हैं—क्या यह गंभीर प्रकृति का मामला नहीं है? (बिल्कुल है।) क्या यह अभिव्यक्ति आठवें मद से मेल खाती है? (हाँ।) बिल्कुल मेल खाती है। आठवाँ मद मूल रूप से इन चार तरीकों से अभिव्यक्त होता है। पहले तरीके से शुरू करके उनके बारे में बताओ। (पहला यह है कि ऐसे लोग किसी के भी साथ सामंजस्य में सहयोग करने में सक्षम नहीं होते।) “सामंजस्य में” का संदर्भ सहयोग करने में सक्षम होने से है; ऐसे लोग किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं हो पाते। वे अपनी मर्जी से अपने काम करते हैं, अपने कामों में एकल रहते हैं; “एकल” पहली अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता है। अब दूसरे को लें। (उनमें लोगों पर नियंत्रण करने और उन पर विजय पाने की महत्वाकांक्षा और लालसा होती है।) क्या यह एक गंभीर अभिव्यक्ति है? (बिल्कुल है।) ठीक है, दूसरी अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता क्या है? उसका एक शब्द में वर्णन करो। (दुष्ट।) “दुष्ट” एक विशेषण है; यह उनके स्वभाव का वर्णन करता है। शब्द होना चाहिए “नियंत्रण”। “नियंत्रण” करना एक इस प्रकार का कार्यकलाप है, जो ऐसे स्वभाव से उत्पन्न होता है। और तीसरी अभिव्यक्ति। (वे दूसरों को उनके लिए गए किसी भी काम में दखल देने, उसमें वे दूसरों को दखल देने, पूछताछ करने या उनकी निगरानी करने से रोकते हैं।) क्या यह वह स्वभाव नहीं है जो मसीह-विरोधियों में आम होता है? (बिल्कुल है।) यह वह अभिलाक्षणिक स्वभाव है जो मसीह-विरोधियों के लिए विशेष है। क्या इस अभिव्यक्ति को संक्षेप में बताने के लिए कोई उपयुक्त शब्द होता है? हाँ—“प्रतिरोध।” जो भी आता है वे उसका प्रतिरोध करते हैं; भाई-बहनों और साधारण लोगों द्वारा उनकी निगरानी और पूछताछ को स्वीकार करने की बात तो भूल ही जाओ—वे परमेश्वर की पड़ताल को भी स्वीकार नहीं करेंगे। क्या यह प्रतिरोध नहीं है? (बिल्कुल है।) और चौथी अभिव्यक्ति। (एक बार थोड़ा अनुभव और ज्ञान प्राप्त कर लेने और कुछ सबक सीख लेने के बाद वे सत्य के प्रतिरूप होने का दिखावा करते हैं।) हम इसे एक उपयुक्त शब्द से सारांशित करेंगे : “दिखावा।” दिखावा करना छल से ज्यादा गंभीर है। आठवें मद से संबंधित बुनियादी, अभिलाक्षणिक व्यवहार, चीजें करने के तौर-तरीके और स्वभाव, सबके सब इन चार अभिव्यक्तियों में देखने को मिलते हैं। पहली अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता है “एकल।” वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं करते, बल्कि अपने ही दम पर कार्य करना चाहते हैं। वे स्वयं के सिवाय किसी पर ध्यान नहीं देते और ऐसा करते हैं कि दूसरे किसी और पर नहीं बल्कि केवल उन्हीं पर ध्यान दें। या तो उनकी सुनो वरना अपना रास्ता पकड़ो। दूसरी अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता है “नियंत्रण।” वे लोगों को नियंत्रित करना चाहते हैं, और वे तुम्हें, तुम्हारे विचारों, तुम्हारे काम करने के तरीकों, तुम्हारे हृदय और तुम्हारे दृष्टिकोणों को नियंत्रित करने के लिए तमाम उपाय साधते हैं। वे तुम्हारे साथ सत्य पर संगति नहीं करते। वे तुम्हें सत्य सिद्धांत नहीं समझने देते, और वे तुम्हें परमेश्वर के इरादे नहीं समझने देते। वे अपने उपयोग के लिए तुम पर नियंत्रण करना चाहते हैं, ताकि तुम उनकी ओर से बात करो, उनके लिए काम करो, उनके लिए श्रम करो, उन्हें उत्कर्षित करो, और उनके लिए गवाही दो। वे तुम्हें अपने गुलाम, अपनी कठपुतली के तौर पर नियंत्रित करना चाहते हैं। तीसरी अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता है “प्रतिरोध,” यानी हर चीज का प्रतिरोध करना—हर चीज जो उनकी करनी और कथनी को पहचान सकती हो, या उसकी निगरानी कर सकती हो, या उसके लिए खतरा हो, उसका वे पूरी तरह से प्रतिरोध और विरोध करते हैं। चौथी अभिव्यक्ति की निर्धारक विशेषता है “दिखावा”—वे क्या होने का दिखावा करते हैं? वे सत्य के प्रतिरूप होने का दिखावा करते हैं, यानी वे लोगों से अपेक्षा करते हैं कि वे उनकी बातों और कामों को याद रखें, और यहाँ तक कि वे उन्हें अपनी नोटबुक में दर्ज भी करें। वे कहते हैं, “सिर्फ याद रखने भर से कैसे काम चलेगा? तुम्हें इन्हें नोटबुक में लिखना चाहिए। तुम लोगों में से कोई भी नहीं समझता कि मैं क्या कह रहा हूँ—ये अत्यंत गहरी और गूढ़ बातें हैं।” वे अपने कथनों को किस रूप में लेते हैं? सत्य। अब इसके आगे हम बारी-बारी से इन अभिव्यक्तियों के बारे में संगति करेंगे।

I. किसी के साथ सहयोग करने में मसीह-विरोधियों की अक्षमता का गहन विश्लेषण

पहला मद यह है कि मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते। यह मसीह-विरोधियों की दूसरों से सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं, केवल अपने प्रति समर्पण करवाने को ले कर पहली अभिव्यक्ति होती है। वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते—इस “किसी” में सभी लोग सम्मिलित हैं। चाहे उनके व्यक्तित्व किसी अन्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के साथ सुसंगत हों या नहीं, और परिस्थितियाँ चाहे जो हों, वे बस सहयोग नहीं कर पाते। यह भ्रष्टता के साधारण प्रकाशन का प्रश्न नहीं है—यह उनकी प्रकृति की समस्या है। कुछ लोग कहते हैं, “कुछ खास लोग ऐसे होते हैं जिनके व्यक्तित्व मुझसे मेल नहीं खाते, और इस वजह से मैं उनके साथ सहयोग नहीं कर सकता।” यह व्यक्तित्वों का सरल मसला नहीं, बल्कि भ्रष्ट स्वभाव का मसला है। भ्रष्ट स्वभाव होना एक मसीह-विरोधी के स्वभाव का होना है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उस व्यक्ति में मसीह-विरोधी का सार है। यदि कोई व्यक्ति सत्य को खोज सकता है, और सत्य के अनुरूप होने पर दूसरों की बातों का, चाहे वे कोई भी हों, पालन कर सकता है, तो क्या उस व्यक्ति के लिए दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर पाना आसान नहीं होगा? (होगा।) सत्य के प्रति समर्पण कर सकने वाले लोगों के लिए दूसरों के साथ सहयोग करना आसान होता है; जो लोग सत्य के प्रति समर्पण नहीं कर पाते, वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर पाते। उदाहरण के लिए, कुछ लोग अत्यंत अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे सत्य को लेश मात्र भी नहीं स्वीकारते, और किसी भी व्यक्ति के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं कर पाते। अब यह एक गंभीर समस्या है—उनमें मसीह-विरोधी प्रकृति होती है, और वे सत्य या परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं कर सकते। लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होता है : यदि वे सत्य को स्वीकार कर सकें, तो उनके लिए बचाया जाना आसान होगा; लेकिन अगर वे मसीह-विरोधी प्रकृति वाले हैं, और सत्य को स्वीकार नहीं कर पाते, तो वे मुसीबत में हैं—उनके लिए बचाया जाना आसान नहीं होगा। अनेक मसीह-विरोधियों का खुलासा मुख्य रूप से इस कारण से हुआ है कि वे किसी के भी साथ सहयोग करने में अक्षम होते हैं, हमेशा तानाशाही से कार्य करते हैं। क्या यह किसी भ्रष्ट स्वभाव का प्रकाशन है, या यह किसी मसीह-विरोधी का प्रकृति सार है? किसी के भी साथ सहयोग न कर पाना—यह कौन-सी समस्या है? इसका सत्य या परमेश्वर के प्रति समर्पण न करवा कर केवल अपने प्रति समर्पण करवाने से क्या लेना-देना है? यदि हम इस मद पर स्पष्ट रूप से संगति करें, तो तुम यह समझ पाओगे कि मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार वाले लोग किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते, वे जिसके साथ भी सहयोग कर रहे हैं उससे किनारा कर लेंगे, और यहाँ तक कि वे कटु प्रतिद्वंद्वी भी बन जाएँगे। ऊपर से लग सकता है जैसे कुछ मसीह-विरोधियों के सहायक या साझेदार होते हैं, लेकिन तथ्य यह है कि कुछ घटित होने पर दूसरे लोग चाहे जितने भी सही हों, मसीह-विरोधी उनकी बात कभी नहीं सुनते। उस बारे में चर्चा करना या उस पर संगति करना तो दूर, वे उस पर ध्यान भी नहीं देते हैं। वे बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते हैं मानो दूसरे वहाँ हों ही नहीं। जब मसीह-विरोधी दूसरों की बातें सुनते हैं, तो वे महज खानापूर्ति कर रहे होते हैं, या दूसरों के दिखाने के लिए नाटक कर रहे होते हैं। लेकिन अंततः जब अंतिम निर्णय का समय आता है, तो फैसले मसीह-विरोधी ही लेते हैं; किसी दूसरे व्यक्ति के कथन व्यर्थ होते हैं, उनके बिल्कुल भी कोई मायने नहीं होते। उदाहरण के लिए, जब दो लोग किसी काम के लिए जिम्मेदार होते हैं, और उनमें से एक में मसीह-विरोधी सार होता है, तो उस व्यक्ति में क्या प्रदर्शित होता है? चाहे कोई भी काम हो, वह और सिर्फ वह है जो उसकी शुरुआत करता है, जो सवाल पूछता है, जो चीजें सुलझाता है, और जो समाधान सुझाता है। और ज्यादातर समय वह अपने साथी को पूरी तरह से अँधेरे में रखता है। उसकी नजर में उसका साथी क्या होता है? उसका सहायक नहीं, बल्कि सिर्फ सजावट का सामान। मसीह-विरोधी की नजर में, उनका साझेदार होता ही नहीं। जब भी कोई समस्या आती है, तो मसीह-विरोधी उस पर विचार करता है, और जब वह तय कर लेता कि कार्य कैसे करना है, तो बाकी सभी को सूचित कर देता है कि उसे कैसे करना है, और किसी को उस पर सवाल नहीं उठाने दिया जाता। दूसरों के साथ उनके सहयोग का सार क्या होता है? मूल रूप से यह अपनी बात मनवाना, समस्याओं पर किसी और के साथ चर्चा न करना, काम की अकेले जिम्मेदारी लेना और अपने सहयोगियों को सजावटी सामान में बदलना है। वे हमेशा अकेले ही काम करते हैं और कभी किसी के साथ सहयोग नहीं करते। वे अपने काम के बारे में कभी किसी और के साथ चर्चा या संवाद नहीं करते, वे अक्सर अकेले निर्णय लेते हैं और अकेले ही मुद्दों से निपटते हैं, और कई चीजों में, दुसरे लोगों को काम पूरा होने के बाद ही पता चलता है कि चीजें कैसे पूरी हुईं या सँभाली गईं। दूसरे लोग उनसे कहते हैं, “सभी समस्याओं पर हमारे साथ चर्चा होनी चाहिए। तुमने उस व्यक्ति को कब संभाला था? तुमने उसे कैसे संभाला? हमें इसके बारे में कैसे पता नहीं चला?” वे न तो कोई स्पष्टीकरण देते हैं और न ही इस पर कोई ध्यान देते हैं; उनके लिए उनके साथियों का कोई उपयोग नहीं है, और वे सिर्फ सजावट की वस्तुएँ हैं। जब कुछ घटित होता है, तो वे उस पर विचार करते हैं, अपना मन बनाते हैं, और जैसा भी चाहें वैसा ही करते हैं। उनके आसपास चाहे जितने भी लोग हों, ऐसा लगता है मानो वे लोग वहाँ हों ही नहीं। मसीह-विरोधी के लिए वे लोग हवा की तरह अदृश्य होते हैं। इसे देखते हुए, क्या दूसरों के साथ उसकी साझेदारी का कोई असली पहलू भी है? बिल्कुल नहीं, वह बस बेमन से काम करता है और एक भूमिका निभाता है। दूसरे उससे कहते हैं, “जब तुम्हारे सामने कोई समस्या आती है, तो तुम बाकी सबके साथ सहभागिता क्यों नहीं करते?” वह उत्तर देता है, “वे क्या जानते हैं? मैं टीम-अगुआ हूँ, निर्णय मुझे लेना है।” दूसरे कहते हैं, “और तुमने अपने साथी के साथ संगति क्यों नहीं की?” वह जवाब देता है, “मैंने उनसे कहा था, उनकी कोई राय नहीं थी।” वह दूसरे लोगों की कोई राय न होने या उनके खुद सोचने में सक्षम न होने का उपयोग इस तथ्य को ढकने के बहाने के रूप में करता है कि वह खुद को ऐसे दिखा रहा है मानो वह अपने आप में एक कानून हो। और इसके बाद थोड़ा-सा भी आत्मनिरीक्षण नहीं किया जाता। ऐसे व्यक्ति के लिए सत्य स्वीकारना असंभव होगा। मसीह-विरोधी की प्रकृति के साथ यह एक समस्या है।

“सहयोग” शब्द की व्याख्या और उसका अभ्यास कैसे किया जाए? (चीजें सामने आने पर उन पर विचार-विमर्श करके) हाँ, इसका अभ्यास करने का यह एक तरीका है। इसके अलावा क्या? (अपनी कमजोरियों की दूसरों की खूबियों से पूर्ति करना, एक-दूसरे की निगरानी करना।) यह पूरी तरह से सटीक है; इस तरह से अभ्यास करना सामंजस्य में सहयोग करना है। क्या और भी कुछ है? चीजों के घटित होने पर दूसरे की राय माँगना—क्या यह सहयोग नहीं है? (बिल्कुल है।) यदि एक व्यक्ति अपनी, और दूसरा व्यक्ति अपनी संगति करता है, और फिर अंत में, वे बस पहले व्यक्ति की संगति को मान लेते हैं, तो फिर खानापूर्ति क्यों करनी? यह सहयोग नहीं है—यह सिद्धांतों के अनुरूप नहीं है, और इससे सहयोग के नतीजे नहीं मिलते। यदि तुम मशीन गन की तरह धड़ाधड़ बोलते ही जाते हो, और जो दूसरे बोलना चाहते हैं उन्हें मौका नहीं देते, और अपने सभी विचार बता देने के बाद भी दूसरों की बातें नहीं सुनते हो, तो क्या यह विचार-विमर्श है? क्या यह संगति है? यह खानापूर्ति करना है—यह सहयोग नहीं है। तो फिर सहयोग क्या है? यह तब होता है जब अपने विचार और फैसले बता देने के बाद तुम दूसरों की राय और विचार पूछ सको, फिर अपने और उनके वक्तव्यों और दृष्टिकोणों की परस्पर तुलना कर सको, कुछ लोग मिलकर इन पर अपनी समझ व्यक्त कर सकें, और सिद्धांतों को खोज सकें, और इस तरह से एक सामान्य समझ पर पहुँचकर अभ्यास का सही मार्ग तय कर सकें। विचार-विमर्श करने और संगति करने का यही अर्थ होता है—“सहयोग” का यही अर्थ होता है। अगुआओं के तौर पर कुछ लोग कुछ मामलों को गहराई से नहीं समझ पाते, लेकिन अपने विकल्प खत्म हो जाने तक वे दूसरों से विचार-विमर्श नहीं करते। फिर वे समूह से कहते हैं, “मैं इस मामले को निरंकुशता से नहीं सँभाल सकता; मुझे सभी के साथ सामंजस्य में सहयोग करने की जरूरत है। मैं तुम सब लोगों को इस बारे में अपनी राय व्यक्त कर उस पर विचार-विमर्श करने दूँगा, ताकि यह तय कर सकें कि हमारे लिए क्या करना सही है।” सभी के बोल लेने और अपनी पूरी बात कहने के बाद वे अगुआ से पूछते हैं कि वह इस बारे में क्या सोचता है। वह कहता है, “सभी लोग जो चाहते हैं, वही मैं भी चाहता हूँ—मैं भी यही सोच रहा था। मैंने शुरू से ही यही करने की योजना बनाई थी, और इस विचार-विमर्श से सर्वसम्मति सुनिश्चित हो गई है।” क्या यह एक खरी टिप्पणी है? इसमें एक धब्बा है। वह मामले को बिल्कुल नहीं समझ पाता, और उसकी बातों में लोगों को गुमराह करने और उनसे छल करने का इरादा छिपा हुआ है—यह इस आशय से है कि लोग उसका सम्मान करें। उसका सबकी राय पूछना केवल औपचारिकता होती है, इस मतलब से होता है कि लोगों से कहलवाना है कि वह तानाशाह या निरंकुश नहीं है। उस लेबल से बचने के लिए वह चीजों को छिपाने के लिए यह तरीका इस्तेमाल करता है। तथ्य यह है कि जब हर कोई बात कर रहा होता है, तो वह बिल्कुल भी नहीं सुनता, और वह उनकी बातों को बिल्कुल आत्मसात नहीं करता है। वह ऐसी ईमानदारी भी नहीं दिखाता कि सभी लोगों को बोलने दे। ऊपर से तो लगता है कि वह सभी को संगति और विचार-विमर्श करने दे रहा है, लेकिन वास्तविकता में वह सिर्फ लोगों को बात करने दे रहा है, ताकि उसे वह तरीका मिल जाए जो उसके इरादों के अनुरूप हो। और एक बार जब वह किसी काम को करने के लिए उपयुक्त तरीका तय कर लेता है, तो वह लोगों को यह मानने को मजबूर कर देगा कि सही हो या गलत, वे उसके इरादे को स्वीकार करें, और सब यह सोचने लगें कि उसका तरीका सही है, और सभी यही इरादा रखते हैं। अंत में, वह इसे बलपूर्वक कार्यान्वित कर देता है। क्या इसे तुम सहयोग कहोगे? नहीं—तो फिर तुम इसे क्या कहोगे? वह तानाशाही कर रहा है। चाहे वह सही हो या गलत, वह खुद ही एकल और अंतिम फैसला लेना चाहता है। इसके अलावा, जब कुछ घटित होता है और वह उसे नहीं समझ पाता, तो वह पहले बाकी सबको बोलने देता है। उनके बोल लेने के बाद वह उनके दृष्टिकोणों को संक्षेप में दोहराता है, और उनके भीतर वह तरीका ढूँढ़ता है जो उसे पसंद हो और उसे उपयुक्त लगे, और फिर सभी से उसे स्वीकार करवाता है। वह सहयोग का दिखावा करता है, और परिणामस्वरूप वह अभी भी जैसा चाहे वैसा ही करता है—अभी भी वही वह व्यक्ति है जिसका निर्णय ही एकल और अंतिम होता है। वह सबकी बातों में त्रुटियाँ ढूँढ़ता है और उनकी कमियाँ निकालता है, टिप्पणी करता है, माहौल बनाता है, और फिर सारी चीजों को एक पूर्ण, सही वक्तव्य में संश्लेषित कर देता है जिसके साथ वह अपना फैसला लेता है, और सबको दिखाता है कि वह दूसरों से ज्यादा श्रेष्ठ है। बाहर से देखने पर, ऐसा लगता है कि उसने सभी लोगों के संदेश सुने हैं, और वह सभी को बोलने देता है। हालाँकि तथ्य यह है कि अंत में केवल वही अकेला फैसला लेता है। वह फैसला वास्तव में सभी की अंतर्दृष्टियों और दृष्टिकोणों का उसका निकाला हुआ निचोड़ होता है, जिसे उसने थोड़े ज्यादा पूर्ण और सही ढंग से प्रस्तुत किया है। कुछ लोग इस बात को समझ नहीं सकते, इसलिए सोचते हैं कि वही अधिक श्रेष्ठ है। उसकी ओर से ऐसे कार्यकलाप का चरित्र क्या होता है? क्या यह अत्यधिक चतुराई नहीं है? वह सभी के संदेशों का सारांश बना कर उन्हें अपना बता देता है, ताकि लोग उसकी आराधना करें और उसकी आज्ञा मानें; और अंत में, सब लोग उसी की इच्छा के मुताबिक कार्य करें। क्या यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग है? यह अहंकार और आत्मतुष्टता है, तानाशाही है—वह सबका श्रेय खुद ले लेता है। ऐसे लोग दूसरों के साथ सहयोग में बहुत अधिक धूर्त, बड़े अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं, और अधिक समय मिलने पर लोग इसे समझ जाएँगे। कुछ लोग कहेंगे : “तुम कहते हो कि मैं किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं हूँ—अरे, मेरा एक साझेदार है! वह मेरे साथ अच्छा सहयोग करता है : मैं जहाँ भी जाता हूँ वह आता है; मैं जो भी करता हूँ वह भी वही करता है; वह वहीं जाता है जहाँ मैं उसे भेजता हूँ, वही करता है जो मैं उससे करवाता हूँ, जैसे भी करवाता हूँ।” क्या सहयोग का अर्थ यही है? नहीं। इसे नौकर होना कहा जाता है। नौकर तुम्हारा कहा करता है—क्या यह सहयोग है? स्पष्ट तौर पर ऐसे लोग प्यादे होते हैं, उनकी अपनी राय होना तो दूर की बात है, उनके पास कोई विचार या दृष्टिकोण नहीं होते। और इससे भी आगे, उनकी सोच लोगों को खुश करने वाली होती है। वे अपने किसी भी काम में सतर्क नहीं रहते, बल्कि अनमने ढंग से खानापूर्ति करते रहते हैं, और वे परमेश्वर के घर के हितों का मान नहीं रखते हैं। इस प्रकार के सहयोग से कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा? वे जिनके भी साथ साझेदारी करते हैं, वे सिर्फ उनका कहा ही करते हैं, हमेशा प्यादे बने रहते हैं। वे दूसरों की बातों पर ध्यान देते हैं और दूसरे उनसे जो करने को कहें वही करते हैं। यह सहयोग नहीं है। सहयोग क्या होता है? तुम्हें एक-दूसरे के साथ चीजों पर विचार-विमर्श करने और अपने विचार और राय व्यक्त करने में सक्षम होना चाहिए; तुम्हें एक-दूसरे का पूरक बनना चाहिए, परस्पर निगरानी करनी चाहिए, एक-दूसरे से माँगना चाहिए, एक-दूसरे से पूछताछ करनी चाहिए, और एक-दूसरे को प्रोत्साहित करना चाहिए। सामंजस्य के साथ सहयोग करना यही होता है। उदहारण के लिए मान लो, तुमने अपनी इच्छा के अनुसार किसी चीज को सँभाला, और किसी ने कहा, “तुमने यह गलत किया, पूरी तरह से सिद्धांतों के विरुद्ध। तुमने सत्य को खोजे बिना, जैसे चाहे वैसे इसे क्यों सँभाला?” जवाब में तुम कहते हो, “बिल्कुल सही—मुझे खुशी है कि तुमने मुझे सचेत किया! यदि तुमने नहीं चेताया होता, तो तबाही मच गई होती!” यही है एक-दूसरे को प्रोत्साहित करना। तो फिर एक-दूसरे की निगरानी करना क्या होता है? सबका स्वभाव भ्रष्ट होता है, और हो सकता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों की नहीं, बल्कि केवल अपने रुतबे और गौरव की सुरक्षा करते हुए अपना कर्तव्य निभाने में लापरवाह हो जाएँ। प्रत्येक व्यक्ति में ऐसी अवस्थाएँ होती हैं। यदि तुम यह जान जाते हो कि किसी व्यक्ति में कोई समस्या है, तो तुम्हें उसके साथ संगति करने की पहल करनी चाहिए, उसे सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाने की याद दिलानी चाहिए, और साथ ही इसे अपने लिए एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए। यही है पारस्परिक निगरानी। पारस्परिक निगरानी से कौन-सा कार्य सिद्ध होता है? इसका उद्देश्य परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा करना होता है, और साथ ही लोगों को गलत मार्ग पर कदम रखने से रोकना होता है। एक-दूसरे को प्रोत्साहन देने और एक-दूसरे की निगरानी करने के अलावा सहयोग का एक और कार्य होता है : एक-दूसरे से पूछताछ करना। उदाहरण के लिए, जब तुम किसी व्यक्ति को सँभालना चाहते हो, तो तुम्हें अपने साझेदार से संगति करनी चाहिए और उससे पूछताछ करनी चाहिए : “मेरा पहले ऐसी किसी चीज से सामना नहीं हुआ। मैं नहीं जानता कि इसे कैसे सँभालूँ। इसे सँभालने का अच्छा तरीका क्या है? मैं तो इसे सुलझा नहीं सकता!” वे कहते हैं, “मैंने पहले ऐसी समस्याओं को सँभाला है। उस वक्त संदर्भ इस व्यक्ति के मामले से जरा अलग था; अगर हम इसे उसी ढंग से सँभालें, तो यह लीक पर चलने जैसा होगा। अब मुझे भी इसे सँभालने का कोई अच्छा तरीका नहीं मालूम।” तुम कहते हो, “मेरे पास एक विचार है जो मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। उसके चरित्र को देखें तो यह व्यक्ति बुरा लग रहा है, लेकिन फिलहाल हम इस बारे में सुनिश्चित नहीं हो सकते। हालाँकि यह मेहनत कर सकता है, इसलिए अभी के लिए इसे करने देते हैं। यदि वह मेहनत न कर सका, और चीजों में विघ्न-बाधाएँ डालता रहा, तब हम उसे सँभालेंगे।” यह सुन कर वे कहते हैं, “यह बढ़िया तरीका है। यह विवेकपूर्ण है, और पूरी तरह से सिद्धांतों के अनुरूप है, यह न तो दमनात्मक है, न ही निजी क्रोध का गुबार निकालने का तरीका है। चलो, फिर इसे इसी तरह से सँभालते हैं।” तुम दोनों ने विचार-विमर्श के जरिए सहमति बना ली। इस प्रकार किया गया कार्य सुचारू रूप से चलता रहता है। मान लो कि तुम दोनों सहयोग नहीं कर रहे हो, चीजों पर विचार-विमर्श नहीं करते, और जब तुम्हारे साझेदार को पता नहीं होता कि किसी चीज को कैसे सँभालना है, तो वह यह सोच कर इसे तुम्हीं पर डाल देता है, “तुम इसे जैसे चाहो, वैसे सँभालो। अगर कुछ गलत हुआ तो किसी भी स्थिति में यह तुम्हारी जिम्मेदारी होगी—मैं इसे तुम्हारे साथ साझा नहीं करूँगा।” तुम देख सकते हो कि तुम्हारा साझेदार जिम्मेदारी लेने की अनिच्छा के साथ कार्य कर रहा है, फिर भी तुम उसे यह नहीं बताते, बल्कि यह सोच कर अपनी मर्जी से जल्दबाजी में कार्य करते हो, “तुम जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते हो? तुम चाहते हो कि इसे मैं सँभालूँ? ठीक है, फिर इसे मैं ही सँभालूँगा—मैं उन्हें निष्कासित कर दूँगा।” तुम दोनों एकमत नहीं होते हो; प्रत्येक का दृष्टिकोण अलग है—और परिणामस्वरूप, मामले को बेतरतीबी और लापरवाही से सिद्धांतों का उल्लंघन करके सँभाला जाता है, और मेहनत करने के काबिल एक व्यक्ति को मनमाने ढंग से निकाल दिया जाता है। क्या यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग है? सकारात्मक परिणाम हासिल करने का एकमात्र तरीका सामंजस्यपूर्ण सहयोग ही है। यदि एक व्यक्ति जिम्मेदारी नहीं लेता और दूसरा मनमानी से कार्य करता है, तो यह उनके बीच सहयोग न करने के ही सामान है। वे दोनों अपनी ही इच्छा से काम कर रहे हैं। किसी के कर्तव्य का ऐसा निर्वहन संतोषजनक कैसे हो सकता है?

जब सहयोग के दौरान कोई चीज सामने आती है, तो तुम्हें एक-दूसरे से पूछताछ करनी चाहिए और एक-दूसरे से विचार-विमर्श करना चाहिए। क्या मसीह-विरोधी इस प्रकार अभ्यास कर सकते हैं? मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते; वे हमेशा एकाकी शासन स्थापित करने की कामना करते हैं। इस अभिव्यक्ति का लक्षण है “एकल।” इसका वर्णन करने के लिए “एकल” शब्द का उपयोग क्यों करें? इस कारण से कि कार्रवाई करने से पहले वे परमेश्वर के समक्ष आ कर प्रार्थना नहीं करते, न ही वे सत्य सिद्धांतों को खोजते हैं, संगति करने के लिए किसी को ढूँढ़ कर उससे यह कहना तो दूर की बात है कि “क्या यह सही मार्ग है? कार्य व्यवस्थाओं में क्या निर्धारित किया गया है? इस प्रकार की चीज को कैसे सँभाला जाए?” वे अपने सहकर्मियों और साझेदारों के साथ कभी विचार-विमर्श नहीं करते, न ही उनके साथ सहमति बनाने का प्रयास करते हैं—वे चीजों पर खुद ही सोच-विचार कर केवल अपने ही दम पर उपाय करते हैं, अपनी ही योजनाएँ और व्यवस्थाएँ बनाते हैं। परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं पर सिर्फ सरसरी नजर डाल कर वे सोचते हैं कि उन्होंने उन्हें समझ लिया है, और फिर वे आँखें मूँद कर काम की व्यवस्था करते हैं—और जब तक दूसरों को इसकी खबर लगती है, तब तक काम की व्यवस्था हो चुकी होती है। किसी भी व्यक्ति के लिए उनके अपने मुँह से उनके विचारों या भावनाओं को पहले से सुन पाना असंभव होता है, क्योंकि वे कभी भी अपने मन में छिपे विचारों या नजरियों के बारे में किसी को नहीं बताते। कोई पूछ सकता है, “क्या सभी अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साझेदार नहीं होते हैं?” नाममात्र के लिए वे किसी को साझेदार बना सकते हैं, लेकिन काम का समय आने पर उनका कोई साझेदार नहीं होता—वे अकेले काम करते हैं। हालाँकि अगुआओं और कार्यकर्ताओं के साथी होते हैं, और कर्तव्य निभाने वाले प्रत्येक व्यक्ति का एक साझेदार होता है, मसीह-विरोधी मानते हैं कि उनमें अच्छी क्षमता है और वे आम लोगों से बेहतर हैं, इसलिए आम लोग उनके साथी बनने लायक नहीं हैं, वे उनसे कमतर हैं। इसीलिए मसीह-विरोधी अधिकार अपने हाथों में रखते हैं, किसी और से चर्चा करना पसंद नहीं करते। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से वे नाकाबिल और निकम्मे जैसे नजर आएँगे। यह किस प्रकार का दृष्टिकोण है? यह कैसा स्वभाव है? क्या यह अहंकारी स्वभाव है? उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ सहयोग और चर्चा करना, उनसे कुछ पूछना और उनसे कुछ खोजने का प्रयास करना, उनकी गरिमा को कम करता है, अपमानजनक है, उनके आत्म-सम्मान को चोट पहुँचाता है। तो अपने आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए, वे जो कुछ भी करते हैं उसमें पारदर्शिता नहीं आने देते, न ही वे इस बारे में किसी को बताते हैं, उनसे उस पर चर्चा करना तो दूर की बात है। उन्हें लगता है कि दूसरों के साथ चर्चा करना खुद को अक्षम दिखाना है; हमेशा लोगों की राय माँगने का मतलब है कि वे मूर्ख हैं और अपने आप सोचने में असमर्थ हैं; उन्हें लगता है कि किसी कार्य को पूरा करने में या किसी समस्या को सुलझाने में दूसरों के साथ काम करने से वे नाकारा दिखने लगेंगे। क्या यह उनकी अहंकारी और बेतुकी मानसिकता नहीं है? क्या यह उनका भ्रष्ट स्वभाव नहीं है? उनके भीतर का अहंकार और आत्माभिमान बहुत स्पष्ट होता है; वे सामान्य मानवीय विवेक पूरी तरह गँवा चुके होते हैं और उनका दिमाग भी ठिकाने पर नहीं होता। वे हमेशा सोचते हैं कि उनके पास काबिलियत है, वे स्वयं चीजों को समाप्त कर सकते हैं, और उन्हें दूसरों के साथ सहयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है। चूंकि उनके स्वभाव इतने भ्रष्ट हैं, इसलिए वे सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर पाने में असमर्थ होते हैं। वे मानते हैं कि दूसरों के साथ सहयोग करना अपनी ताकत को कम और खंडित करना है, जब काम दूसरों के साथ साझा किया जाता है, तो उनकी अपनी शक्ति घट जाती है और वे सब कुछ स्वयं तय नहीं कर सकते यानी उनकी असली ताकत भी कम हो जाती है, जो उनके लिए एक जबरदस्त नुकसान होता है। और इसलिए, चाहे वे उनके साथ कुछ भी हो, अगर उन्हें भरोसा है कि वे समझते हैं और जानते हैं कि इसे संभालने का उपयुक्त तरीका क्या है, तो वे किसी और के साथ इस पर चर्चा नहीं करेंगे, और सारे फैसले वे खुद लेंगे। वे दूसरों को जानने देने के बजाय गलतियाँ करना पसंद करेंगे, किसी और के साथ सत्ता साझा करने के बजाय वे गलत साबित होना पसंद करेंगे, अपने काम में दूसरों का हस्तक्षेप बर्दाश्त करने के बजाय, वे बर्खास्त होना पसंद करेंगे। ऐसा होता है मसीह-विरोधी। वे किसी और के साथ अपनी सत्ता साझा नहीं करते, फिर भले ही परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचे, भले ही परमेश्वर के घर के हित दांव पर लग जाएँ। उन्हें लगता है कि जब वे कोई काम कर रहे होते हैं या किसी मामले को संभाल रहे होते हैं, तो यह किसी कर्तव्य का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि खुद को प्रदर्शित करने और दूसरों से अलग दिखने का मौका होता है, और शक्ति का प्रयोग करने का मौका होता है। इसलिए, हालाँकि वे कहते हैं कि वे दूसरों के साथ सौहार्दपूर्ण ढंग से सहयोग करेंगे और जब कोई मामला आएगा तो वे दूसरों के साथ मिलकर उस पर चर्चा करेंगे, लेकिन सच्चाई यह है कि, अपने दिल की गहराई में, वे अपनी शक्ति या हैसियत छोड़ने को तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है कि अगर उन्हें सिद्धांतों की समझ है और वे स्वयं उस काम को करने में सक्षम हैं, तो उन्हें किसी और के साथ सहयोग करने की आवश्यकता नहीं है; वे सोचते हैं कि उन्हें उस काम को अकेले ही पूरा करना चाहिए, तभी वे काबिल कहलाएँगे। क्या यह नजरिया सही है? उन्हें पता नहीं होता कि अगर वे सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, तो वे अपने कर्तव्य नहीं कर रहे हैं, वे परमेश्वर के आदेश का कार्यान्वयन नहीं कर पा रहे हैं और वे मात्र मेहनत कर रहे हैं। अपना कर्तव्य करते समय सत्य सिद्धांतों की खोज करने के बजाय, वे अपने विचारों और इरादों के अनुसार सत्ता का उपयोग करते हैं, दिखावा और आडंबर करते हैं। उनका साथी कोई भी हो या वे कुछ भी कर रहे हों, वे कभी चीजों पर चर्चा नहीं करना चाहते, हमेशा मनमर्जी करना और अपनी बात ही मनवाना चाहते हैं। जाहिर है वे सत्ता से खेल रहे होते हैं और हर काम को करने के लिए सत्ता का उपयोग करते हैं। सभी मसीह-विरोधी सत्ता से प्यार करते हैं और जब उनके पास रुतबा होता है, तो वे और भी अधिक सत्ता चाहते हैं। जब मसीह-विरोधियों के पास सत्ता होती है, तब उनकी अपनी हैसियत का उपयोग अपना दिखावा करने और आडंबर करने, ताकि दूसरों से अपना आदर करवा सकें और भीड़ से अलग दिखने का अपना लक्ष्य हासिल कर सकें। इस तरह, मसीह-विरोधी सत्ता और हैसियत से चिपके रहते हैं, और अपनी सत्ता को कभी नहीं छोड़ेंगे। वे जो भी कर्तव्य कर रहे होते हैं, चाहे वह पेशेवर ज्ञान के किसी भी क्षेत्र से जुड़ा हुआ हो, यह स्पष्ट होने पर भी कि वे नहीं जानते, वे उसके बारे में जानने का दिखावा करेंगे। और यदि कोई उन पर न समझने और केवल दिखावा करने का आरोप लगाए तो वे कहेंगे, “भले ही मैं इस बारे में अभी पढ़ना शुरू करूँ, मैं इसे तुमसे बेहतर समझ लूँगा। यह सिर्फ ऑनलाइन जा कर संसाधन सामग्रियों पर गौर करने की बात है, है कि नहीं?” मसीह-विरोधी इतने अधिक अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं। वे हर चीज को एक सरल मामले के रूप में देखते हैं, और वे इसे अंधाधुंध और अकेले सँभालने की हिम्मत करते हैं। और परिणामस्वरूप जब ऊपरवाला काम की जाँच करता है और पूछता है कि काम कैसा हो रहा है, तो वे कहते हैं कि इसका लगभग ध्यान रखा गया है। तथ्य यह है कि वे किसी के भी साथ विचार-विमर्श किए बिना अकेले काम कर रहे हैं—तमाम फैसले खुद ही लेते रहे हैं। यदि तुम उनसे पूछो, “तुम्हारे कार्य के क्या कोई सिद्धांत हैं?” तो वे यह साबित करने के लिए सिद्धांतों का पूरा गट्ठर पेश कर देंगे कि वे जो कर रहे हैं वह सही है और सिद्धांतों के अनुरूप है। वास्तविकता में, उनकी सोच विकृत और गलत होती है। उन्होंने चीजों के बारे में दूसरों से बिल्कुल विचार-विमर्श नहीं किया होता, बल्कि हमेशा अंतिम निर्णय खुद लिया है, खुद फैसले किए हैं। एक अकेले व्यक्ति द्वारा लिए गए फैसलों में अधिकांश समय भटकाव अवश्यंभावी है, तो फिर खुद को सही और सटीक समझने का यह कैसा स्वभाव है? यह स्पष्ट रूप से अहंकार का स्वभाव है। उनका स्वभाव अहंकारी है, इसीलिए वे तानाशाह प्रवृत्ति के हैं—इसीलिए बेरोकटोक खराब चीजें करते रहते हैं। यह निरंकुशता है—एकाधिकार। मसीह-विरोधियों का यही स्वभाव होता है। वे कभी किसी व्यक्ति के साथ सहयोग करने को तैयार नहीं होते, बल्कि इसे असंगत और गैर-जरूरी मानते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं, कोई भी दूसरा व्यक्ति उनकी बराबरी नहीं कर सकता है। इसीलिए दिल से मसीह-विरोधियों के मन में दूसरों के साथ सहयोग करने की कोई कामना या इच्छा नहीं होती है। वे जो कहते हैं उसे हासिल करना चाहते हैं; वे एकाधिकार चाहते हैं। केवल तभी उन्हें आनंद महसूस होता है—केवल तभी वे अपनी श्रेष्ठता दर्शा सकते हैं, दूसरों को अपने प्रति आज्ञाकारी बना सकते हैं, उन्हें अपने प्रति आराधनापूर्ण बना सकते हैं।

इसका एक और हिस्सा है, जो यह है कि मसीह-विरोधी हमेशा परम सत्ता की कामना करते हैं, ताकि उनकी ही बात एकल और निर्णायक हो। उनके स्वभाव का यह पहलू उन्हें दूसरों से सहयोग करने में सक्षम भी नहीं रहने देता। यदि तुम उनसे पूछो कि कि क्या वे सहयोग करने को तैयार हैं, तो वे हाँ कहते हैं, लेकिन जब करने का समय आता है, तो वे नहीं कर पाते। यह उनका स्वभाव है। वे ऐसा क्यों नहीं कर पाते? मान लो कि यदि कोई मसीह-विरोधी सहायक समूह प्रमुख हो, और कोई दूसरा समूह प्रमुख, तो मसीह-विरोधी के प्रकृति सार वाला वह व्यक्ति सहायक से प्रमुख बन जाएगा और फिर समूह प्रमुख उसका सहायक बन जाएगा। वह अदला-बदली कर लेगा। वह यह कैसे हासिल करेगा? उसके पास अनेक तकनीकें होती हैं। उसकी तकनीकों का एक अंश यह होता है कि वह उन मौकों का उपयोग करता है जब वह भाई-बहनों के सामने क्रियाकलाप कर रहा होता है—वे मौके जब ज्यादातर सभी लोग उसे देख सकें—बहुत बोलने, कार्य करने और अपना दिखावा करने के लिए, ताकि लोग उसका सम्मान करें, और स्वीकार करें कि वह समूह प्रमुख से काफी बेहतर है, और वह समूह प्रमुख से आगे निकल चुका है। फिर समय के साथ भाई-बहन आ कर कहते हैं कि समूह प्रमुख सहायक समूह प्रमुख जितना अच्छा नहीं है। मसीह-विरोधी यह सुन कर आनंदित होता है; वह सोचता है, “आखिरकार, वे मानते हैं कि मैं उससे बेहतर हूँ। मैंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है।” सामान्य परिस्थितियों में वे कौन-सी जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं, जो किसी सहायक समूह प्रमुख को पूरे करने चाहिए? ये हैं कलीसिया द्वारा व्यवस्थित कार्य को कार्यान्वित करने और लागू करने में समूह प्रमुख के साथ सहयोग करना, और समूह प्रमुख तक मामले उठाना और उसे प्रोत्साहित कर उसकी निगरानी करना—और उसके साथ विचार-विमर्श कर साथ-साथ कार्य करना। समूह प्रमुख को प्रमुख अगुआ की भूमिका निभानी चाहिए; सहायक समूह प्रमुख को उसका साथ देना चाहिए और प्रत्येक कार्य परियोजना की भली-भांति देखरेख सुनिश्चित करने में उसके साथ सहयोग करना चाहिए। चीजों को नुकसान न पहुँचाने के अलावा सभी चीजें समूह प्रमुख के सहयोग से की जानी चाहिए, ताकि जो काम किया जाना है वह अच्छे ढंग से किया जा सके। यदि समूह प्रमुख के कार्यकलापों से सिद्धांतों का उल्लंघन होता है, तो सहायक समूह प्रमुख को उसके सामने यह बात उठानी चाहिए, उसकी मदद करनी चाहिए, और गलती सुधारनी चाहिए। और समूह प्रमुख जो कुछ भी सही और अच्छे ढंग से करता है, और जो सत्य सिद्धांतों के अनुरूप है, उस पर सहायक समूह प्रमुख को उसका समर्थन और सहयोग करना चाहिए, और उसकी सेवा में जी-तोड़ प्रयास करना चाहिए, और कार्य अच्छे ढंग से करने में एक दिल और एक मन से समूह प्रमुख के साथ होना चाहिए। यदि कोई समस्या आती है, या कोई समस्या दिखाई पड़ती है, तो दोनों को इसके समाधान के लिए विचार-विमर्श करना चाहिए। कभी-कभी एक साथ दो चीजें करनी पड़ती हैं; जब दोनों ने उस पर बात कर ली हो, तो उन दोनों में से प्रत्येक को अलग-अलग अपना कार्य अच्छी तरह सँभालना चाहिए। यही सहयोग है—सामंजस्यपूर्ण सहयोग। क्या मसीह-विरोधी दूसरों के साथ इसी तरह सहयोग करते हैं? बिल्कुल नहीं। यदि कोई मसीह-विरोधी सहायक समूह प्रमुख के तौर पर सेवारत हो, तो वह यह पता लगाने में लग जाएगा कि उसे समूह प्रमुख के साथ पदों की अदला-बदली करने के लिए क्या करना होगा, समूह प्रमुख को सहायक और सहायक को समूह प्रमुख बनाने और इस तरह प्रभार सँभालने के लिए क्या करना होगा। वह समूह प्रमुख को अमुक-अमुक काम करने का आदेश देता है, और इस तरह सबको दिखाता है कि वह समूह प्रमुख से बेहतर है, और वह समूह प्रमुख बनने योग्य है। इस प्रकार दूसरों के बीच उसकी इज्जत बढ़ जाती है, और फिर वे स्वाभाविक रूप से समूह प्रमुख के तौर पर चुन लिए जाते हैं। वे जान-बूझ कर समूह प्रमुख को मूर्ख दिखाते हैं कि उसकी नाक कट जाए, ऐसे कि दूसरे उसे नीची नजरों से देखें। फिर, वे अपनी बातों से उसका मखौल उड़ाते हैं, उसका उपहास करते हैं, और उसे उजागर कर उसे नीचा दिखाते हैं। धीरे-धीरे, दोनों के बीच असमानता बढ़ती जाती है, और लोगों के दिलों में उनका स्थान ज्यादा-से-ज्यादा भिन्न होता जाता है। इस तरह से अंत में मसीह-विरोधी समूह प्रमुख बन जाता है—वह लोगों को जीत कर अपनी ओर कर चुका होता है। अपने ऐसे स्वभाव के साथ क्या फिर वह दूसरों के साथ सामंजस्य के साथ सहयोग कर सकेगा? नहीं। वह चाहे किसी भी जगह पर हो, वह स्वयं प्रमुख रहना चाहता है, एकाधिकार चाहता है, सत्ता अपने ही हाथों में रखना चाहता है। तुम्हारा पदनाम चाहे प्रमुख हो या सहायक हो, छोटा हो या बड़ा हो, उसकी दृष्टि में रुतबा और सत्ता, देर-सवेर उसकी ही होनी चाहिए। उसके साथ कर्तव्य करने वाला या कोई कार्य परियोजना करने वाला, या उसके साथ किसी मसले पर वाद-विवाद करने वाला चाहे जो भी हो, वह अपने ही ढंग से कार्य करने वाला एकाकी बना रहता है। वह किसी के भी साथ सहयोग नहीं करता। किसी को भी अनुमति नहीं होती कि वह उस जैसी इज्जत पाए या पद पर रहे, या उसे वही क्षमता या प्रतिष्ठा मिले। जैसे ही कोई उससे आगे निकल कर उसके रुतबे के लिए खतरा बनता है, वह स्थिति को किसी भी तरह से अपने दम पर पलटने की कोशिश करेगा। उदाहरण के लिए सभी लोग किसी मामले पर चर्चा कर रहे होते हैं, और जब विचार-विमर्श का कोई निष्कर्ष निकलने को होता है, तो वह इसे एक ही नजर में समझ लेगा और जान लेगा कि क्या करना है। वह कहेगा, “क्या इसे सँभालना सचमुच इतना मुश्किल है? क्या इसके लिए अभी भी इतनी चर्चा की जरूरत है? तुम लोगों की किसी भी बात में दम नहीं है!” और फिर वह कोई अनोखा सिद्धांत या कोई आडंबरी विचार पेश कर देगा जिसके बारे में किसी ने भी नहीं सोचा था, और आखिरकार सभी के विचारों को काट देगा। एक बार उसके ऐसा करने से लोग सोच में पड़ जाएँगे, “ये तो ऊँचे विचार हैं, सही है; उस बारे में हमने क्यों नहीं सोचा? हम लोग अज्ञानी भीड़ हैं। यह ठीक नहीं है—हम चाहते हैं कि आप शीर्ष पर रहें!” मसीह-विरोधी को यही परिणाम चाहिए; वह हमेशा बड़ी-बड़ी आडंबरी बातें करता है, ताकि लोग उसकी मौजूदगी की सराहना करें और वह दूसरों का सम्मान जीत ले। और फिर लोगों के मन में उसकी कौन-सी छाप पड़ती है? यह कि उसके विचार साधारण लोगों की पहुँच से ऊपर हैं, साधारण लोगों के विचारों से अधिक उन्नत हैं। कितने उन्नत? यदि वह वहाँ न हो, तो समूह कोई निर्णय नहीं कर सकता, किसी चीज को अंतिम रूप नहीं दे सकता, इसलिए उसके आने और कुछ कहने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। एक बार उसके ऐसा करने पर सब उसकी सराहना करते हैं और अगर उसकी बात भ्रामक हुई, तो भी सब लोग कहते हैं कि यह उन्नत है। ऐसी बातों से क्या वह लोगों को गुमराह नहीं कर रहा है? तो वह किसी के साथ सहयोग क्यों नहीं कर सकता? उसे लगता है, “लोगों के साथ सहयोग करने का मतलब खुद को उनके स्तर पर रखना है। क्या एक ही जंगल में दो शेर रह सकते हैं? जंगल का एक ही राजा हो सकता है, और वह राज्य उसी का होता है जो उस पर कब्जा रख सकता है—और मुझ जैसा काबिल इंसान ही यह कर सकता है। तुम सब लोग इतने प्रखर बुद्धि के नहीं हो; तुम्हारी काबिलियत कमजोर है, और तुम डरपोक हो। और ऊपर से तुमने दुनिया में लोगों को धोखा नहीं दिया है या उन्हें मूर्ख नहीं बनाया है—बस दूसरों ने तुम्हें मूर्ख बनाया है। एकमात्र मैं ही यहाँ अगुआ बनने के योग्य हूँ!” इस तरह से उसके लिए बुरी चीजें भी अच्छी बन जाती हैं। वह अपनी इन बुरी चीजों का दिखावा करता है—क्या यह बेशर्मी नहीं है? वह ये चीजें क्यों कहता है? और फिर उसके इस तरह से कार्य करने का क्या प्रयोजन है? यह अगुआ बनने के लिए है, लोगों का समूह चाहे जितना बड़ा क्यों न हो, उसमें सबसे ऊँचा स्थान लेने के लिए है। क्या उसका इरादा यह नहीं है? (हाँ, है।) तो वह सभी को नीचा दिखाने, बेइज्जत करने, उनका मखौल उड़ाने और फिर बड़ी-बड़ी आडंबरी बातें करने, सभी को विश्वास दिलाने और सबसे अपना कहा करवाने के तमाम तरीके सोचता है। क्या यह सहयोग है? नहीं—तो यह क्या है? यह आठवें मद से मेल खाता है, जिस पर हम बात कर रहे हैं : वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं। यह सहयोग को लेकर कहा गया है। क्या मसीह-विरोधी—वे अपनी भाषा या अपने तरीकों में चाहे जो कर रहे हों—दूसरों से सहयोग कर अपना कर्तव्य कर सकते हैं? (नहीं।) वे सहयोग नहीं करते, बल्कि बस माँग कर सकते हैं कि दूसरे उनके कथनों और तरीकों में सहयोग करें। तो फिर क्या वे दूसरों से परामर्श ले सकते हैं? बिल्कुल नहीं। दूसरे उन्हें चाहे जो भी परामर्श दें, वे उसके प्रति बिल्कुल बेरुखी दिखाते हैं। वे विवरण या कारण नहीं पूछते, और न ही यह पूछते हैं कि चीजों को सचमुच कैसे सँभाला जाए, सत्य सिद्धांतों को खोजना तो बड़ी दूर की बात है। इससे भी बदतर जब मैं उनके सामने होता हूँ तो वे मुझसे भी नहीं पूछते—वे मुझे हवा की तरह समझते हैं। मैं उनसे पूछता हूँ कि क्या उन्हें कोई समस्या है, तो वे कहते हैं, नहीं है। साफ तौर पर वे नहीं जानते कि जो चीज अभी-अभी घटी है उसको लेकर क्या करें, फिर भी वे मुझसे नहीं पूछते, हालाँकि मैं उनके सामने ही होता हूँ। फिर क्या वे किसी भी दूसरे के साथ सहयोग कर सकते हैं? कोई भी उनका साझेदार बनने योग्य नहीं होता है, बस उनका गुलाम और नौकर होता है। क्या ऐसा नहीं है? उनमें से कुछ लोगों के साझेदार हो सकते हैं, लेकिन दरअसल उनके वे साझेदार उनके नौकर होते हैं, बहुत हद तक कठपुतलियों जैसे। वह कहता है, “इधर जाओ,” और उसका साझेदार इधर जाता है; “उधर जाओ,” और उसका साझेदार उधर जाता है; उसके साझेदार को पता है कि वह उसे क्या जानने देना चाहता है, और जो वह नहीं जानने देना चाहता, उसे वह पूछने की हिम्मत भी नहीं करता है। चीजें वैसी ही होती हैं जैसी वह कहता है। कोई उससे कह सकता है, “इससे काम नहीं चलेगा। कुछ ऐसी चीजें हैं जिनका प्रभार तुम अकेले नहीं सँभाल सकते। तुम्हें सहयोग करने के लिए किसी को ढूँढ़ना होगा, ऐसा जो तुम्हारी निगरानी करे। इसके अलावा, पहले एक काम ऐसा था जिसे तुमने ज्यादा अच्छे ढंग से नहीं सँभाला था। तुम्हें किसी काबिलियत वाले व्यक्ति को ढूँढ़ना होगा, जिसमें काम करने, तुम्हारे साथ सहयोग करने और तुम्हारी मदद करने की क्षमता हो—तुम्हें कलीसिया के कार्य और परमेश्वर के घर के हितों की सुरक्षा करनी चाहिए!” जवाब में वह क्या कहेगा? “अगर तुम मेरे साझेदार को बरखास्त करते हो, तो दूसरा कोई भी नहीं है जो मेरे साथ सहयोग कर सके।” वह यह क्या कह रहा है? क्या ऐसा है कि उसका कोई साझेदार नहीं होगा, या उसे वैसा नौकर या गुलाम नहीं मिलेगा? उसे डर है कि उसे ऐसा गुलाम या नौकर, ऐसा “साझेदार” नहीं मिल पाएगा जो केवल उसकी बात सुने। तुम लोगों के अनुसार उसकी इस चुनौती का समाधान कैसे किया जाए? तुम कह सकते हो, “अच्छा, तुम्हें कोई साझेदार नहीं मिल रहा है? तो फिर तुम्हें इस परियोजना पर काम करने की कोई जरूरत नहीं है—जिसके साथ कोई साझेदार होगा वह कर सकता है।” क्या समस्या इस तरह नहीं सुलझ जाती? अगर कोई भी तुम्हारा साझेदार बनने लायक न हो, और कोई भी तुम्हारे साथ सहयोग न कर सके, तो फिर तुम कैसे व्यक्ति हो? तुम एक दैत्य हो, एक अजूबा हो। जिन लोगों में सचमुच समझ होती है, वे कम-से-कम औसत व्यक्ति के साथ सहयोग करने में सक्षम होते हैं, जब तक कि उसकी काबिलियत बहुत ही कम न हो। उससे काम नहीं चलेगा। समझदार लोगों को सबसे पहले यह करना चाहिए कि वे अपना कर्तव्य निभाने में दूसरों के साथ सहयोग करना सीखें। उन्हें किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम होना चाहिए, जब तक कि वह व्यक्ति कमजोर दिमाग का या दानव न हो, उस स्थिति में उसके साथ सहयोग करने का कोई तरीका नहीं होगा। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि अधिकतर लोगों के साथ सहयोग करने में सक्षम होना—यह एक सामान्य समझ की निशानी है।

मसीह-विरोधी के सार की सबसे स्पष्ट विशेषताओं में से एक यह होती है कि वे अपनी सत्ता का एकाधिकार और अपनी तानाशाही चलाते हैं : वे किसी की नहीं सुनते हैं, किसी का आदर नहीं करते हैं, और लोगों की क्षमताओं की परवाह किए बिना, या इस बात की परवाह किए बिना कि वे क्या सही विचार या बुद्धिमत्तापूर्ण मत व्यक्त करते हैं और कौन-से उपयुक्त तरीके सामने रखते हैं, वे उन पर कोई ध्यान नहीं देते; यह ऐसा है मानो कोई भी उनके साथ सहयोग करने या उनके किसी भी काम में भाग लेने के योग्य न हो। मसीह-विरोधियों का स्वभाव ऐसा ही होता है। कुछ लोग कहते हैं कि यह बुरी मानवता वाला होना है—लेकिन यह सिर्फ सामान्य बुरी मानवता कैसे हो सकती है? यह पूरी तरह से एक शैतानी स्वभाव है; और ऐसा स्वभाव अत्यंत क्रूरतापूर्ण है। मैं क्यों कहता हूँ कि उनका स्वभाव अत्यंत क्रूरतापूर्ण है? मसीह-विरोधी परमेश्वर के घर और कलीसिया की संपत्ति से सब-कुछ हर लेते हैं और उससे अपनी निजी संपत्ति के समान पेश आते हैं जिसका प्रबंधन उन्हें ही करना हो, और वे इसमें किसी भी दूसरे को दखल देने की अनुमति नहीं देते हैं। कलीसिया का कार्य करते समय वे केवल अपने हितों, अपनी हैसियत और अपने गौरव के बारे में ही सोचते हैं। वे किसी को भी अपने हितों को नुकसान नहीं पहुँचाने देते, किसी योग्य व्यक्ति को या किसी ऐसे व्यक्ति को, जो अनुभवजन्य गवाही देने में सक्षम है, अपनी प्रतिष्ठा और हैसियत को खतरे में डालने तो बिल्कुल भी नहीं देते। और इसलिए, वे उन लोगों को दमित करने और प्रतिस्पर्धियों के रूप में बाहर करने की कोशिश करते हैं, जो अनुभवजन्य गवाही के बारे में बोलने में सक्षम होते हैं, जो सत्य पर संगति कर सकते हैं और परमेश्वर के चुने हुए लोगों को पोषण प्रदान कर सकते हैं, और वे हताशा से उन लोगों को बाकी सबसे पूरी तरह से अलग करने, उनके नाम पूरी तरह से कीचड़ में घसीटने और उन्हें नीचे गिराने की कोशिश करते हैं। सिर्फ तभी मसीह-विरोधी शांति का अनुभव करते हैं। अगर ये लोग कभी नकारात्मक नहीं होते और अपना कर्तव्य निभाते रहने में सक्षम होते हैं, अपनी गवाही के बारे में बात करते हैं और दूसरों की मदद करते हैं, तो मसीह-विरोधी अपने अंतिम उपाय की ओर रुख करते हैं, जोकि उनमें दोष ढूँढ़ना और उनकी निंदा करना है, या उन्हें फँसाना और उन्हें सताने और दंडित करने के लिए कारण गढ़ना है, और ऐसा तब तक करते रहते हैं, जब तक कि वे उन्हें कलीसिया से बाहर नहीं निकलवा देते हैं। सिर्फ तभी मसीह-विरोधी पूरी तरह से आराम कर पाते हैं। मसीह-विरोधियों की सबसे कपटी और द्वेषपूर्ण चीज यही है। उन्हें सबसे अधिक भय और चिंता उन्हीं लोगों से होती है, जो सत्य का अनुसरण करते हैं और जिनके पास सच्ची अनुभवात्मक गवाही होती है, क्योंकि जिन लोगों के पास ऐसी गवाही होती है, उन्हीं का परमेश्वर के चुने हुए लोग सबसे अधिक अनुमोदन और समर्थन करते हैं, न कि उन लोगों का, जो शब्दों और सिद्धांतों के बारे में खोखली बकवास करते हैं। मसीह-विरोधियों के पास सच्ची अनुभवात्मक गवाही नहीं होती, न ही वे सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होते हैं; ज्यादा से ज्यादा वे लोगों की चापलूसी करने के लिए कुछ अच्छे काम करने में सक्षम होते हैं। लेकिन चाहे वे कितने भी अच्छे काम करें या कितनी भी कर्णप्रिय बातें कहें, वे फिर भी उन लाभों और फायदों का मुकाबला नहीं कर सकते, जो एक अच्छी अनुभवात्मक गवाही से लोगों को मिल सकते हैं। अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करने में सक्षम लोगों द्वारा परमेश्वर के चुने हुए लोगों को प्रदान किए जाने वाले पोषण और सिंचन के परिणामों का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए, जब मसीह-विरोधी किसी को अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करते देखते हैं, तो उनकी निगाह खंजर बन जाती है। उनके दिलों में क्रोध प्रज्वलित हो उठता है, घृणा उभर आती है, और वे वक्ता को चुप कराने और आगे कुछ भी कहने से रोकने के लिए अधीर हो जाते हैं। अगर वे बोलते रहे, तो मसीह-विरोधियों की प्रतिष्ठा पूरी तरह से नष्ट हो जाएगी, उनके बदसूरत चेहरे पूरी तरह से सबके सामने आ जाएँगे, इसलिए मसीह-विरोधी गवाही देने वाले व्यक्ति को बाधित करने और दमित करने का बहाना ढूँढ़ते हैं। मसीह-विरोधी सिर्फ खुद को शब्दों और सिद्धांतों से लोगों को गुमराह करने देते हैं, वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को अपनी अनुभवजन्य गवाही देकर परमेश्वर को महिमामंडित नहीं करने देते, जो यह इंगित करता है कि किस प्रकार के लोगों से मसीह-विरोधी सबसे अधिक घृणा करते और डरते हैं। जब कोई व्यक्ति थोड़ा कार्य करके अलग दिखने लगता है, या जब कोई सच्ची अनुभवजन्य गवाही बताने में सक्षम होता है, और इससे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को लाभ, शिक्षा और सहारा मिलता है और इसे सभी से बड़ी प्रशंसा प्राप्त होती है, तो मसीह-विरोधियों के मन में ईर्ष्या और नफरत पैदा हो जाती है, और वे उस व्यक्ति को अलग-थलग करने और दबाने की कोशिश करते हैं। वे किसी भी परिस्थिति में ऐसे लोगों को कोई काम नहीं करने देते, ताकि उन्हें अपने रुतबे को खतरे में डालने से रोक सकें। सत्य-वास्तविकताओं से युक्त लोग जब मसीह-विरोधियों के पास होते हैं, तो उनकी दरिद्रता, दयनीयता, कुरूपता और दुष्टता उजागर करने का काम करते हैं, इसलिए जब मसीह-विरोधी कोई साझेदार या सहकर्मी चुनता है, तो वह कभी सत्य-वास्तविकता से युक्त व्यक्ति का चयन नहीं करता, वह कभी ऐसे लोगों का चयन नहीं करता जो अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात कर सकते हों, और वह कभी ईमानदार लोगों या ऐसे लोगों का चयन नहीं करता, जो सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हों। ये वे लोग हैं, जिनसे मसीह-विरोधी सबसे अधिक ईर्ष्या और घृणा करते हैं, और जो मसीह-विरोधियों के जी का जंजाल हैं। सत्य का अभ्यास करने वाले ये लोग परमेश्वर के घर के लिए कितना भी अच्छा या लाभदायक काम क्यों न करते हों, मसीह-विरोधी इन कर्मों पर पर्दा डालने की पूरी कोशिश करते हैं। यहाँ तक कि वे खुद को ऊँचा उठाने और दूसरे लोगों को नीचा दिखाने के लिए अच्छी चीजों का श्रेय खुद लेने और बुरी चीजों का दोष दूसरों पर मढ़ने के लिए तथ्यों को तोड़-मरोड़ भी देते हैं। मसीह-विरोधी सत्य का अनुसरण करने और अपनी अनुभवात्मक गवाही के बारे में बात करने में सक्षम लोगों से बहुत ईर्ष्या और घृणा करते हैं। वे डरते हैं कि ये लोग उनकी हैसियत खतरे में डाल देंगे, इसलिए वे उन पर हमला कर उन्हें निकालने के हर संभव प्रयास करते हैं। वे भाई-बहनों को से संपर्क करने, उनके करीब होने, या अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बात करने में सक्षम इन लोगों का समर्थन या प्रशंसा करने से रोकते हैं। इसी से मसीह-विरोधियों की शैतानी प्रकृति का सबसे ज्यादा खुलासा होता है, जो कि सत्य से विमुख होती है और परमेश्वर से घृणा करती है। और इसलिए, इससे यह भी साबित होता है कि मसीह-विरोधी कलीसिया में एक दुष्ट विपरीत धारा हैं, वे कलीसिया के काम में बाधा और परमेश्वर की इच्छा में अवरोध पैदा करने के दोषी हैं। इसके अलावा मसीह-विरोधी अक्सर भाई-बहनों के बीच झूठ गढ़ते हैं और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं, अपनी अनुभवजन्य गवाही पर बोलने वाले लोगों को नीचा दिखाते हैं और उनकी निंदा करते हैं। वे लोग चाहे जो भी काम करते हों, मसीह-विरोधी उन्हें अलग-थलग करने और उनका दमन करने के बहाने ढूँढ़ लेते हैं, और यह कहते हुए उनकी आलोचना भी करते हैं कि वे घमंडी और आत्मतुष्ट हैं, कि वे दिखावा करना पसंद करते हैं, और कि वे महत्वाकांक्षाएँ पालते हैं। वास्तव में, उन लोगों के पास कुछ अनुभवजन्य गवाही होती है और उनमें थोड़ी सत्य वास्तविकता होती है। वे अपेक्षाकृत अच्छी मानवता वाले, जमीर और विवेक युक्त होते हैं, और सत्य को स्वीकारने में सक्षम होते हैं। और भले ही उनमें कुछ कमियाँ, खामियाँ, और कभी-कभी भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे हों, फिर भी वे आत्मचिंतन कर प्रायश्चित्त करने में सक्षम होते हैं। यही वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर बचाएगा, और जिन्हें परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने की उम्मीद है। कुल मिलाकर ये लोग कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त हैं, ये कर्तव्य करने की अपेक्षाओं और सिद्धांतों को पूरा करते हैं। लेकिन मसीह-विरोधी मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं इसे कतई बरदाश्त नहीं करूँगा। तुम मेरे साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए मेरे क्षेत्र में एक भूमिका पाना चाहते हो। यह असंभव है; इसके बारे में सोचना भी मत। तुम मुझसे अधिक शिक्षित हो, मुझसे अधिक मुखर हो, और मुझसे अधिक लोकप्रिय हो, और तुम मुझसे अधिक परिश्रम से सत्य का अनुसरण करते हो। अगर मुझे तुम्हारे साथ सहयोग करना पड़े और तुम मेरी सफलता चुरा लो, तो मैं क्या करूँगा?” क्या वे परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करते हैं? नहीं। वे किस बारे में सोचते हैं? वे केवल यही सोचते हैं कि अपनी हैसियत कैसे बनाए रखें। हालाँकि मसीह-विरोधी जानते हैं कि वे वास्तविक कार्य करने में असमर्थ हैं, फिर भी वे सत्य का अनुसरण करने वाले और अच्छी योग्यता वाले लोगों को विकसित नहीं करते या बढ़ावा नहीं देते; वे केवल उन्हीं को बढ़ावा देते हैं जो उनकी चापलूसी करते हैं, जो दूसरों की आराधना करने को तत्पर रहते हैं, जो अपने दिलों में उनका अनुमोदन और सराहना करते हैं, जो सहज संचालक हैं, जिन्हें सत्य की कोई समझ नहीं और जो अच्छे-बुरे की पहचान करने में असमर्थ हैं। मसीह-विरोधी अपनी सेवा करवाने, अपने लिए दौड़-भाग करवाने, और हर दिन अपने चारों ओर घूमते रहने के लिए इन लोगों को अपनी ओर ले आते हैं। इससे मसीह-विरोधियों को कलीसिया में सामर्थ्य मिलती है, और इसका अर्थ होता है कि बहुत-से लोग उनके करीब आते हैं, उनका अनुसरण करते हैं, और कोई उनका अपमान करने की हिम्मत नहीं करता है। ये सभी लोग, जिन्हें मसीह-विरोधी विकसित करते हैं, वे सत्य का अनुसरण नहीं करते। उनमें से ज्यादातर लोगों में आध्यात्मिक समझ नहीं होती है और वे नियम-पालन के सिवा कुछ नहीं जानते हैं। वे रुझानों और शक्तिशाली लोगों का अनुसरण करना पसंद करते हैं। वे ऐसे लोग होते हैं जो शक्तिशाली मालिक के होने से हिम्मत पाते हैं—भ्रमित लोगों की मंडली होते हैं। अविश्वासियों की उस कहावत में क्या कहा गया है? किसी बुरे आदमी का आराधित पूर्वज होने की तुलना में किसी अच्छे इंसान का अनुचर होना बेहतर है। मसीह-विरोधी ठीक इसका उल्टा करते हैं—वे ऐसे लोगों के आराधित पूर्वजों के तौर पर कार्य करते हैं, और उन्हें अपना झंडा लहराने वालों और प्रोत्साहित करने वालों के रूप में पालते हैं। जब भी कोई मसीह-विरोधी किसी कलीसिया में सत्ता में होता है, तो वह हमेशा अपने सहायकों के रूप में भ्रमित लोगों और आँखें मूँद कर समय गँवाने वालों को भर्ती करता है, और उन काबिलियत वाले लोगों को छोड़ देता है और दबाता है, जो सत्य को समझकर उसका अभ्यास कर सकते हैं, जो काम सँभाल सकते हैं—विशेष रूप से उन अगुआओं और कार्यकर्ताओं को, जो वास्तविक कार्य करने में सक्षम होते हैं। इस प्रकार कलीसिया में दो खेमे बन जाते हैं : एक खेमे में वे लोग होते हैं जो अपेक्षाकृत ईमानदार मानवता वाले होते हैं, जो ईमानदारी से अपना कर्तव्य करते हैं, और सत्य का अनुसरण करने वाले होते हैं। दूसरे खेमे में ऐसे लोगों की मंडली होती है जो भ्रमित होते हैं और मसीह-विरोधियों की अगुआई में आँखें मूँद कर बेवकूफियाँ करते फिरते हैं। ये दोनों खेमे एक-दूसरे से तब तक झगड़ते रहेंगे जब तक मसीह-विरोधियों का खुलासा नहीं हो जाता और वे हटा नहीं दिए जाते। मसीह-विरोधी हमेशा उन लोगों के खिलाफ लड़ते और कार्य करते हैं जो अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाते हैं और सत्य का अनुसरण करते हैं। क्या इससे कलीसिया का कार्य गंभीर रूप से बाधित नहीं होता? क्या यह परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी कर उसे बाधित नहीं करता? क्या मसीह-विरोधियों की यह शक्ति कलीसिया में परमेश्वर की इच्छा को कार्यान्वित करने में एक रोड़ा और बाधा नहीं है? क्या यह परमेश्वर का विरोध करने वाली दुष्ट शक्ति नहीं है? मसीह-विरोधी इस तरह से कार्य क्यों करते हैं? क्योंकि उनके दिमाग में यह स्पष्ट होता है कि यदि ये सकारात्मक चरित्र खड़े हो कर अगुआ और कार्यकर्ता बन गए, तो वे मसीह-विरोधियों के प्रतिस्पर्धी बन जाएँगे; वे मसीह-विरोधियों का विरोध करने वाली शक्ति बन जाएँगे और वे मसीह-विरोधियों की बातों को बिल्कुल भी नहीं सुनेंगे या उनकी आज्ञा नहीं मानेंगे; वे मसीह-विरोधियों के हर बोल का बिल्कुल पालन नहीं करेंगे। ये लोग मसीह-विरोधियों के रुतबे के लिए खतरा बनने को काफी होंगे। जब मसीह-विरोधी इन लोगों को देखते हैं, तो उनके दिलों में घृणा उमड़ती है; और अगर वे इन लोगों को अलग-थलग करके पराजित नहीं करते, और उनका नाम बदनाम नहीं करते, तो उनके दिलों को सुकून और आश्वस्ति नहीं होती। इसलिए उन्हें अपनी सत्ता को बढ़ा कर अपनी श्रेणी को शक्तिमान बनाने के लिए तेजी से काम करना होगा। इस तरह से वे परमेश्वर के चुने हुए ज्यादा लोगों को काबू में कर सकेंगे, और फिर उन्हें सत्य का अनुसरण करने वाले मुट्ठी भर लोगों से अपने रुतबे के लिए होने वाले खतरे की चिंता नहीं करनी पड़ेगी। मसीह-विरोधी कलीसिया में उन सब लोगों को साथ ले कर अपनी शक्ति बनाते हैं, जो उनकी बात सुनते हैं, उनकी आज्ञा मानते हैं और उनकी चापलूसी करते हैं, और उन्हें काम के हर पहलू का प्रभारी बना देते हैं। क्या ऐसा करना परमेश्वर के घर के कार्य के लिए लाभकारी है? नहीं। न सिर्फ यह लाभकारी नहीं है, इससे कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा होती है। यदि इस दुष्ट शक्ति के पास आधे से ज्यादा लोग हो जाएँ, तो हो सकता है कि यह कलीसिया को गिरा दे। यह इस वजह से है क्योंकि कलीसिया में सत्य का अनुसरण करने वाले अल्पसंख्यक होते हैं, जबकि मेहनत करने वाले और छद्म-विश्वासी जो वहाँ सिर्फ रोटी तोड़ने के लिए होते हैं, उनकी संख्या कम-से-कम आधी होती है। ऐसी स्थिति में, अगर मसीह-विरोधी इन लोगों को गुमराह कर उन्हें अपनी तरफ खींचने में अपनी शक्ति लगाते हैं, तो कलीसिया द्वारा अगुआओं को चुनते समय स्वाभाविक रूप से उनका पलड़ा भारी होगा। इसलिए परमेश्वर का घर हमेशा जोर देता है कि चुनावों के दौरान सत्य पर तब तक संगति की जानी चाहिए, जब तक वह स्पष्ट समझ न आ जाए। यदि तुम सत्य पर संगति करके मसीह-विरोधियों को उजागर और पराजित करने में असमर्थ रहते हो, तो मसीह-विरोधी लोगों को गुमराह करके अगुआ के तौर पर चुने जा सकते हैं, और कलीसिया पर कब्जा कर उस पर नियंत्रण कर सकते हैं। क्या यह खतरनाक चीज नहीं होगी? यदि एक या दो मसीह-विरोधी कलीसिया में दिखते हैं, तो इससे भय नहीं होगा, लेकिन अगर मसीह-विरोधियों की शक्ति तैयार हो जाए और वे एक विशेष स्तर तक प्रभाव हासिल कर लेते हैं, तो उससे भय होगा। इसलिए मसीह-विरोधी उस स्तर तक प्रभाव हासिल करें, इससे पहले ही उन्हें उखाड़ फेंकना चाहिए और कलीसिया से निष्कासित कर देना चाहिए। यह कार्य सर्वोच्च प्राथमिकता का है, और यह करना जरूरी है। इसके अलावा, कलीसिया के वे छद्म-विश्वासी, खासतौर से वे जो मनुष्य की आराधना और उसका अनुसरण करने का रुझान रखते हों, जो शक्ति के पीछे चलना चाहते हों, जो दानवों के साथी और अनुचर बनना पसंद करते हों, जो गुट बनाना चाहते हों—उन जैसे छद्म-विश्वासियों और दानवों को जल्द से जल्द निकाल देना चाहिए। इस भीड़ को कलीसिया को बाधित और नियंत्रित करने वाली शक्ति बनाने से रोकने का यही एक तरीका है। यह ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को स्पष्ट रूप से देखना चाहिए, ऐसी चीज जिसकी जिम्मेदारी सत्य को समझने वाले लोगों को उठानी चाहिए। वे सभी जो कलीसिया के कार्य की जिम्मेदारी उठाते हैं, जो परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील हैं, उन्हें इन चीजों की असलियत समझनी चाहिए। उन्हें खास तौर पर मसीह-विरोधियों के लोगों और साथ ही उन तुच्छ दानवों की असलियत समझ लेनी चाहिए, जो लोगों की चापलूसी और आराधना करना पसंद करते हैं, और फिर उन पर पाबंदियां लगाते हैं या उन्हें कलीसिया से निकाल देते हैं। ऐसे अभ्यास की बहुत ज्यादा जरूरत है। मसीह-विरोधियों जैसे लोग विशेष रूप से ऐसे भ्रमित लोगों, घटिया और फिजूलखर्च लोगों से अच्छे संबंध बनाने की तैयारी करते हैं, जो सत्य को स्वीकार नहीं करते, या उससे प्रेम नहीं करते हैं। वे उनका दिल जीत लेते हैं और उनके साथ अत्यंत सामंजस्यपूर्ण ढंग से, अंतरंगता और उत्साह से “सहयोग” करते हैं। वे लोग किस प्रकार के प्राणी हैं? क्या वे मसीह-विरोधी गिरोहों के सदस्य नहीं हैं? यदि ऊपर वाले को उनके “आराधित पूर्वजों” का स्थान लेना पड़े, तो ये कर्तव्यपरायण संतान उसका साथ नहीं देंगे—वे अनुचित कह कर ऊपर वाले की आलोचना करेंगे, और वे मसीह-विरोधियों के बचाव में उनके साथ खड़े हो जाएँगे। क्या परमेश्वर का घर उन्हें जीतने दे सकता है? वह बस इतना कर सकता है कि उन सभी पर अपना जाल बिछा कर उन्हें बाहर निकाल दे। वे मसीह-विरोधियों के गिरोहों के राक्षस हैं, और उनमें से किसी को भी नहीं छोड़ा जा सकता। मसीह-विरोधियों जैसे लोग विरले ही अकेले कार्य करते हैं; अधिकतर समय वे क्रियाकलापों के लिए दो या तीन लोगों का एक समूह बनाते हैं। लेकिन कुछ व्यक्तिगत मामलों में मसीह-विरोधी अकेले कार्य करते हैं। ऐसा इसलिए कि उनमें कोई प्रतिभा नहीं होती, और शायद उन्हें मौका नहीं मिला होता। हालाँकि उनमें और दूसरों में जो बात एक सामान है वह रुतबे से उनका विशेष प्रेम है। यह मत समझो कि कोई कौशल या शिक्षा न होने के कारण वे रुतबे से प्रेम नहीं करते। यह गलत है। तुम मसीह-विरोधी के सार की असलियत को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाए हो—जब तक कोई मसीह-विरोधी है, उसे रुतबा पसंद होता है। यह देखकर कि मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते हैं, तो फिर ऐसा क्यों है कि वे अपने तलवे चटवाने के लिए ऐसे भ्रमित, निकम्मे लोगों और परजीवियों के समूह को पालते हैं? क्या उनकी नीयत उन लोगों के साथ सहयोग करने की होती है? यदि वे सचमुच उनके साथ सहयोग कर सकते, तो यह कथन कि “मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग करने में सक्षम नहीं होते” सही नहीं ठहरता। वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते—इस “किसी के भी” का संदर्भ मुख्य रूप से सकारात्मक लोगों से है, लेकिन किसी मसीह-विरोधी के स्वभाव पर ध्यान दें, तो वह अपने साथियों से भी सहयोग नहीं कर सकता। तो वे इन लोगों को पाल कर क्या कर रहे हैं? वे भ्रमित लोगों के एक समूह को पाल रहे हैं जिन पर हुक्म चलाना आसान है, जिनके साथ चालाकी करना आसान है, जिनके अपने कोई नजरिए नहीं होते, और जो मसीह-विरोधी कहते हैं वे वही करते हैं—जो मसीह-विरोधियों के रुतबे को बचाने के लिए साथ-साथ चलेंगे। यदि कोई मसीह-विरोधी खुद पर भरोसा करता है, तो वह बिल्कुल एकाकी रहेगा और उसके लिए अपने रुतबे को बचाना आसान नहीं होगा। इसीलिए वे भ्रमित लोगों के एक समूह को खड़ा कर लेते हैं ताकि वे हर दिन उसके चारों ओर रहें और उसकी खातिर चीजें करें। वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को भी गुमराह करते हैं : वे इस बारे में बात करते हैं कि कैसे ये लोग सत्य का अनुसरण करते हैं और कैसे कष्ट सहते हैं; वे कहते हैं कि वे पोषण करने लायक हैं; वे यह भी कहते हैं कि जब इन लोगों के सामने कोई समस्या आती है, तो वे उनसे उस बारे में पूछते हैं, बात करते हैं—कि वे सभी आज्ञाकारी और समर्पित लोग हैं। क्या वे सहयोग से अपना कर्तव्य कर रहे हैं? मसीह-विरोधी लोगों के एक समूह को ढूँढ़ रहा होता है, जो उसके लिए कार्य करे, जो उसके गुर्गे हों, उसके साथी हों, ताकि वह अपना रुतबा मजबूत कर सके। यह सहयोग नहीं होता—यह अपना ऑपरेशन चलाना है। मसीह-विरोधियों की इतनी शक्ति होती है।

तुम लोग बताओ, क्या लोगों के साथ सहयोग करना कठिन होता है? वास्तव में, यह कठिन नहीं होता। तुम यह भी कह सकते हो कि यह आसान होता है। लेकिन फिर भी लोगों को यह मुश्किल क्यों लगता है? क्योंकि उनका स्वभाव भ्रष्ट होता है। जिन लोगों में मानवता, अंतःकरण और विवेक होता है, उनके लिए दूसरों के साथ सहयोग करना अपेक्षाकृत आसान है और वे महसूस कर सकते हैं कि यह सुखदायक चीज है। इसका कारण यह है कि किसी भी व्यक्ति के लिए अपने दम पर कार्य पूरे करना इतना आसान नहीं होता और चाहे वह किसी भी क्षेत्र से जुड़ा हो या कोई भी काम कर रहा हो, अगर कोई बताने और सहायता करने वाला हो तो यह हमेशा अच्छा होता है—यह अपने बलबूते कार्य करने से कहीं ज्यादा आसान होता है। फिर, लोगों में कितनी काबिलियत है या वे स्वयं क्या अनुभव कर सकते हैं, इसकी भी सीमाएं होती हैं। कोई भी इंसान हरफनमौला नहीं हो सकता; किसी एक व्यक्ति के लिए हर चीज को जानना, हर चीज में सक्षम होना, हर चीज को पूरा करना असंभव होता है—यह असंभव है और सबमें यह विवेक होना चाहिए। इसलिए तुम चाहे जो भी काम करो, यह महत्वपूर्ण हो या न हो, तुम्हें अपनी मदद करने के लिए हमेशा किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत पड़ेगी जो तुम्हें सुझाव और सलाह दे सके या तुम्हारे साथ सहयोग करते हुए काम कर सके। काम को ज़्यादा सही ढंग से करने, कम गलतियाँ करने और कम भटकने का यही एकमात्र तरीका है—यह अच्छी बात है। विशेष रूप से परमेश्वर की सेवा करना बहुत बड़ी बात है और अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान न करना तुम्हें खतरे में डाल सकता है! जब लोगों में शैतानी स्वभाव होता है तो वे कभी भी और कहीं भी परमेश्वर के प्रति विद्रोह कर उसका विरोध कर सकते हैं। शैतानी स्वभाव को जीने वाले लोग कभी भी परमेश्वर को नकार सकते हैं, उसका विरोध कर उसे धोखा दे सकते हैं। मसीह-विरोधी बहुत मूर्ख होते हैं, उन्हें इस बात का एहसास नहीं होता और वे सोचते हैं, “मैंने बड़ी मुश्किल से सत्ता हथियाई है तो मैं इसे किसी और के साथ क्यों साझा करूँ? इसे दूसरों को सौंपने का मतलब है कि मेरे पास अपने लिए कुछ नहीं बचेगा, है न? बिना सत्ता के मैं अपनी प्रतिभाओं और क्षमताओं को कैसे दिखा पाऊँगा?” वे नहीं जानते कि परमेश्वर ने लोगों को जो सौंपा है वह सत्ता या रुतबा नहीं बल्कि कर्तव्य है। मसीह-विरोधी केवल सत्ता और रुतबा स्वीकारते हैं, वे अपने कर्तव्यों को दरकिनार कर देते हैं और वास्तविक कार्य नहीं करते। बल्कि सिर्फ प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, और सिर्फ सत्ता हथियाकर परमेश्वर के चुने हुए लोगों को नियंत्रित करना और रुतबे के फायदे उठाने में लगे रहना चाहते हैं। इस तरह से काम करना बहुत खतरनाक होता है—यह परमेश्वर का विरोध करना है! जो लोग अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के बजाय प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे के पीछे भागते हैं, वे आग से खेल रहे हैं और अपने जीवन से खेल रहे हैं। आग और जीवन से खेलने वाले लोग कभी भी बर्बाद हो सकते हैं। आज अगुआ या कर्मी के तौर पर तुम परमेश्वर की सेवा कर रहे हो, जो कोई सामान्य बात नहीं है। तुम किसी व्यक्ति के लिए काम नहीं कर रहे हो, अपने खर्चे उठाने और रोजी-रोटी कमाने का काम तो बिल्कुल भी नहीं कर रहे हो; बल्कि तुम कलीसिया में अपना कर्तव्य निभा रहे हो। खासकर यह देखते हुए कि तुम्हें परमेश्वर के आदेश से यह कर्तव्य मिला है, इसे निभाने का क्या अर्थ है? यही कि तुम अपने कर्तव्य के लिए परमेश्वर के प्रति जवाबदेह हो, फिर चाहे तुम इसे अच्छी तरह से निभाओ या न निभाओ; अंततः परमेश्वर को हिसाब देना ही होगा, एक परिणाम होना ही चाहिए। तुमने जिसे स्वीकारा है वह परमेश्वर का आदेश है, एक पवित्र जिम्मेदारी है, इसलिए वह कितनी भी अहम या छोटी जिम्मेदारी क्यों न हो, यह एक गंभीर मामला है। यह कितना गंभीर है? छोटे पैमाने पर देखें तो इसमें यह बात शामिल है कि तुम इस जीवन-काल में सत्य प्राप्त कर सकते हो या नहीं और यह भी शामिल है कि परमेश्वर तुम्हें किस तरह देखता है। बड़े पैमाने पर देखें तो यह सीधे तुम्हारी संभावनाओं और नियति से जुड़ा है, तुम्हारे परिणाम से जुड़ा है; यदि तुम दुष्टता कर परमेश्वर का विरोध करते हो, तो तुम्हें निंदित और दंडित किया जाएगा। अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम जो कुछ भी करते हो उसे परमेश्वर दर्ज करता है, और इसकी गणना और मूल्यांकन करने के लिए परमेश्वर के अपने सिद्धांत और मानक हैं; अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम जो कुछ भी प्रकट करते हो, उसके आधार पर परमेश्वर तुम्हारा परिणाम तय करता है। क्या यह कोई गंभीर मामला है? बिल्कुल है! इसलिए अगर तुम्हें कोई काम सौंपा जाता है तो क्या इसे संभालना तुम्हारा अपना मामला है? (नहीं।) यह कार्य ऐसा नहीं है जो तुम अपने दम पर पूरा कर सको, लेकिन यह जरूरी है कि तुम इसकी जिम्मेदारी लो। यह जिम्मेदारी तुम्हारी है; यह सौंपा हुआ कार्य तुम्हें पूरा करना है। इसका संबंध किस चीज से है? इसका संबंध सहयोग से है, इस बात से है कि सेवा में सहयोग कैसे करें, अपना कर्तव्य निभाने में सहयोग कैसे करें, खुद को सौंपा गया कार्य पूरा करने के लिए कैसे सहयोग करें, किस तरह सहयोग करें कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चला जाए। इसका संबंध इन सब चीजों से है।

सामंजस्यपूर्ण सहयोग में कई चीजें शामिल होती हैं। कम से कम, इन कई चीजों में से एक है दूसरों को बोलने देना और विभिन्न सुझाव देने देना। अगर तुम वास्तव में विवेकशील हो, तो चाहे तुम जिस भी तरह का काम करते हो, तुम्हें पहले सत्य सिद्धांतों की खोज करना सीखना चाहिए, और तुम्हें दूसरों की राय लेने की पहल भी करनी चाहिए। अगर तुम हर सुझाव गंभीरता से लेते हो, और फिर एकदिल हो कर समस्याएँ हल करते हो, तो तुम अनिवार्य रूप से सामंजस्यपूर्ण सहयोग प्राप्त करोगे। इस तरह, तुम्हें अपने कर्तव्य में बहुत कम कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। चाहे जो भी समस्याएँ आएँ, उन्हें हल करना और उनसे निपटना आसान होगा। सामंजस्यपूर्ण सहयोग का यह परिणाम होता है। कभी-कभी छोटी-छोटी बातों पर विवाद हो जाते हैं, लेकिन अगर काम पर उनका असर नहीं पड़ता, तो कोई समस्या नहीं होगी। लेकिन, महत्वपूर्ण मामलों और कलीसिया के काम से जुड़े प्रमुख मामलों में तुम्हें आम सहमति पर पहुँचना चाहिए और उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजना चाहिए। एक अगुआ या एक कार्यकर्ता के तौर पर अगर तुम हर समय अपने को तुम्हें दूसरों से ऊपर समझोगे और अपने कर्तव्य में एक सरकारी ओहदे की तरह मजे करोगे, हमेशा अपने रुतबे के फायदे उठाने में लगे रहोगे, हमेशा अपनी ही योजनाएँ बनाते रहोगे, अपनी प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की सोचकर मजे लेते रहोगे, हमेशा अपना ही अभियान चलाते रहोगे, और हमेशा ऊँचा रुतबा पाने, अधिकाधिक लोगों का प्रबंधन और उन पर नियंत्रण करने और अपनी सत्ता का दायरा बढ़ाने के प्रयास करोगे तो यह मुसीबत वाली बात है। एक महत्वपूर्ण कर्तव्य को एक सरकारी अधिकारी की तरह अपने पद का आनंद लेने का मौका मानना बहुत खतरनाक है। यदि तुम हमेशा इस तरह पेश आकर दूसरों के साथ सहयोग नहीं करना चाहते, अपनी सत्ता को कम कर इसे किसी दूसरे के साथ साझा नहीं करना चाहते, और यह नहीं चाहते कि कोई दूसरा तुम्हें पीछे धकेलकर शोहरत लूट ले, यदि तुम अकेले ही सत्ता के मजे लेना चाहते हो तो तुम एक मसीह-विरोधी हो। लेकिन अगर तुम अक्सर सत्य खोजते हो, अपने देह-सुख, अपनी प्रेरणाओं और विचारों से विद्रोह करने का अभ्यास करते हो, और दूसरों के साथ सहयोग करने की जिम्मेदारी ले पाते हो, दूसरों से राय लेने और खोजने के लिए अपना दिल खोलते हो, दूसरों के विचारों और सुझावों को ध्यान से सुनते हो और चाहे सलाह किसी ने भी दी हो, सही और सत्य के अनुरूप होने पर इसे स्वीकार लेते हो तो फिर तुम बुद्धिमानी के साथ और सही तरीके से अभ्यास कर रहे हो और तुम गलत मार्ग अपनाने से बच जाते हो, जो कि तुम्हारे लिए सुरक्षा कवच है। तुम्हें अगुआई की उपाधियाँ छोड़नी होंगी, हैसियत की गंदी अकड़ छोड़नी होगी, खुद को एक साधारण व्यक्ति समझना होगा, दूसरों के समान स्तर पर खड़े होना होगा, और अपने कर्तव्य के प्रति एक जिम्मेदार रवैया रखना होगा। अगर तुम हमेशा अपने कर्तव्य को एक आधिकारिक पदवी और हैसियत, या एक तरह की प्रतिष्ठा समझते हो, और कल्पना करते हो कि दूसरे लोग काम करने और तुम्हारे पद की सेवा के लिए हैं, तो यह तकलीफदेह है, और परमेश्वर तुमसे घृणा करेगा और तुमसे नाराज होगा। अगर तुम मानते हो कि तुम दूसरों के बराबर हो, तो तुम्हारे पास परमेश्वर की ओर से थोड़ा ज्यादा आदेश और जिम्मेदारी है, अगर तुम खुद को उनके साथ समान स्तर पर रखना सीख सको, यहाँ तक कि झुककर पूछ सको कि दूसरे लोग क्या सोचते हैं, और अगर तुम ईमानदारी, बारीकी और ध्यान से उनकी बात सुन सको, तो तुम दूसरों के साथ सामंजस्य में सहयोग करोगे। इस सामंजस्यपूर्ण सहयोग का क्या परिणाम होगा? परिणाम बहुत बड़ा है। तुम वे चीजें प्राप्त करोगे जो तुम्हारे पास पहले कभी नहीं थीं, जो सत्य की रोशनी और जीवन की वास्तविकताएँ हैं; तुम्हें दूसरों के गुण पता लगेंगे और तुम उनकी खूबियों से सीखोगे। कुछ और भी है : तुम दूसरे लोगों को मूर्ख, मंदबुद्धि, नासमझ, अपने से कमतर समझते हो, लेकिन जब तुम उनकी राय सुनोगे, या दूसरे लोग तुमसे खुलकर बात करेंगे, तो अनजाने ही तुम्हें पता चलेगा कि कोई भी उतना साधारण नहीं है जितना तुम समझते हो, कि हर व्यक्ति भिन्न विचार और मत पेश कर सकता है, और सबकी अपनी खूबियाँ होती हैं। अगर तुम सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना सीखते हो, तो दूसरों की खूबियों से सीखने में मदद करने के अलावा, यह तुम्हारे अहंकार और आत्म-तुष्टि को प्रकट कर सकता है, और तुम्हें यह कल्पना करने से रोक सकता है कि तुम चतुर हो। जब तुम खुद को बाकी सबसे ज्यादा होशियार और बेहतर नहीं मानते, तो तुम इस आत्म-मुग्धता और आत्म-प्रशंसा की अवस्था में रहना बंद कर दोगे। और यह तुम्हारी रक्षा करेगा, है न? दूसरों के साथ सहयोग करने से तुम्हें ऐसा सबक सीखना और यह लाभ प्राप्त करना चाहिए।

लोगों से अपने व्यवहार के दौरान मैं ज्यादातर लोगों की बातें ध्यान से सुनता हूँ। मैं हर तरह के लोगों की जाँच करने, उनकी बातें सुनने और ऐसा करते हुए उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा और शैली का अध्ययन करने का प्रयास करता हूँ। उदाहरण के लिए, तुम माना करते थे कि ज्यादातर लोग बहुत कम ही शिक्षित होते हैं, वे किसी व्यवसाय के कौशल नहीं जानते और इसलिए उनसे बातचीत करने की जरूरत नहीं है। दरअसल, यह सही नहीं है। जब तुम इन लोगों के या कुछ विशेष लोगों के संपर्क में आते हो, तो तुम उनके दिलों की गहराई की उन चीजों को समझ पाते हो, जिन्हें तुम देख या महसूस नहीं कर सकते—जैसे कि उनके विचार और नजरिए, जिनमें से कुछ विकृत होते हैं, और कुछ उचित होते हैं। बेशक, यह “उचित होना” शायद सत्य से बहुत दूर हो; इसका उसके साथ कोई लेना-देना न हो। लेकिन तुम इंसानी प्रकृति के ज्यादा पहलुओं को जान पाओगे। क्या यह तुम्हारे लिए अच्छी बात नहीं है? (बिल्कुल है।) अंतर्दृष्टि यही होती है; यह तुम्हारी अंतर्दृष्टि को बढ़ाने का तरीका है। कुछ लोग कह सकते हैं, “हमारी अंतर्दृष्टि को बढ़ाने का क्या फायदा है?” यह तरह-तरह के लोगों के बारे में तुम्हारी समझ के लिए, तरह-तरह के लोगों को पहचानने और उनका गहन विश्लेषण करने के लिए, और इससे भी अधिक तरह-तरह के लोगों की मदद करने की तुम्हारी क्षमता के लिए यह लाभकारी है। यह वह मार्ग है जिस पर बहुत-सा कार्य किया जाता है। कुछ लोग झूठे तौर पर आध्यात्मिक होते हैं, और मानते हैं, “अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, इसलिए प्रसारण या समाचार नहीं सुनता, और अखबार नहीं पढ़ता। मैं बाहरी दुनिया से बातचीत नहीं करता। सभी वर्गों और पेशों के सभी लोग शैतान हैं!” खैर, तुम गलत हो। यदि तुम्हारे पास सत्य है, तो क्या तुम अभी भी शैतानों से बातचीत करने से डरते हो? यहाँ तक कि परमेश्वर को भी कभी-कभी आध्यात्मिक क्षेत्र में शैतान से निपटना पड़ता है। क्या इसके लिए वह बदल जाता है? जरा भी नहीं। तुम दानवों से निपटने से डरते हो, और उस भय के भीतर एक समस्या है। तुम्हें वास्तव में जिस बात से डरना चाहिए वह यह है कि तुम सत्य को नहीं समझते, परमेश्वर में विश्वास और सत्य को लेकर तुम्हारी समझ और दृष्टिकोण गलत है, तुम्हारे मन में अनेक धारणाएँ और कल्पनाएँ हैं, और तुम अत्यधिक कट्टर हो। इसीलिए चाहे तुम अगुआ हो, कार्यकर्ता हो या समूह प्रमुख, तुम जिस भी काम के लिए जिम्मेदार हो, और चाहे जो भी भूमिका निभाते हो, तुम्हें दूसरों के साथ सहयोग करना और निपटना सीखना चाहिए। लोगों का ध्यान खींचने के लिए बड़े-बड़े आडंबरी विचार मत बताओ, और हमेशा कुलीनता मत झाड़ो। अगर तुम हमेशा बड़े-बड़े आडंबरी विचार पेश करते हो, और कभी भी सत्य को अभ्यास में नहीं ला पाते, या दूसरों के साथ सहयोग नहीं करते, तो फिर तुम खुद को मूर्ख बना रहे हो। तब तुम्हारी बात पर कौन ध्यान देगा? फरीसियों का पतन कैसे हुआ? वे हमेशा धर्म सिद्धांतों का उपदेश देते थे, और बड़े-बड़े आडंबरी विचार पेश करते थे। जब वे ऐसा करते गए, तो उनके दिलों में फिर परमेश्वर का निवास नहीं रहा—उन्होंने उसे नकार दिया, और यहाँ तक कि परमेश्वर की निंदा और विरोध करने और उसे क्रूस पर कीलों से लटकाने के लिए उन्होंने मनुष्य की धारणाओं, व्यवस्थाओं और नियमों का भी उपयोग किया। वे पूरा दिन अपनी बाइबल पकड़े रहते, उसे पढ़ते और शोध करते, और धर्मग्रंथ का धाराप्रवाह पाठ करने में सक्षम हो जाते। और अंत में इन सबका क्या नतीजा निकला? वे नहीं जानते थे कि परमेश्वर कहाँ है, न ही यह कि उसका स्वभाव क्या है, और हालाँकि उसने अनेक सत्य व्यक्त किए थे, उन्होंने उन्हें जरा भी स्वीकार नहीं किया, बल्कि परमेश्वर का विरोध और निंदा की। क्या यह उनका अंत नहीं था? तुम लोग स्पष्ट तौर पर जानते हो कि उसके परिणाम क्या थे। क्या परमेश्वर में अपने विश्वास को लेकर तुम लोगों के मन में ऐसे भ्रांतिपूर्ण विचार हैं? क्या तुम लोगों की नाकाबंदी नहीं की गई है? (हाँ, की गई है।) क्या तुम लोग मुझे खामोश होते देख सकते हो? मैं कभी-कभी खबरें पढ़ता हूँ, कभी-कभी विशेष अतिथियों के साथ साक्षात्कार और ऐसे ही दूसरे कार्यक्रम देखता हूँ; कभी-कभी मैं भाई-बहनों के साथ सुस्ताते हुए बात करता हूँ, और कभी-कभी ऐसे किसी के साथ बात करता हूँ जो खाना बना रहा है या सफाई कर रहा है। मुझे जो भी नजर आता है, उसके साथ थोड़ी बातें कर लेता हूँ। यह मत सोचो कि कोई काम सँभालने, तुममें कोई विशेष प्रतिभा होने, या यहाँ तक कि किसी विशेष उद्देश्य में लगे होने के कारण तुम दूसरों से ज्यादा विशेष हो। यह गलत है। जैसे ही तुम सोचोगे कि तुम दूसरों से ज्यादा विशेष हो, यह गलत सोच अनजाने ही तुम्हें एक पिंजड़े में कैद कर देगी—यह बाहरी दुनिया और तुम्हारे बीच लोहे और कांसे की दीवार बना देगी। तब तुम्हें लगेगा कि तुम सबसे ऊँचे हो, फलाँ-फलाँ काम नहीं कर सकते, फलाँ-फलाँ व्यक्ति से बात नहीं कर सकते या उसके संपर्क में नहीं रह सकते, यहाँ तक कि तुम हँस भी नहीं सकते। और अंत में क्या होता है? तुम क्या बन जाते हो? (एक अलग-थलग एकाकी।) तुम एक अलग-थलग एकाकी बन जाते हो। गौर करो कि कैसे पुराने जमाने के सम्राट हमेशा ऐसी बातें कहते थे, “मैं, अकेला, ऐसा और वैसा हूँ”; “मैं, अलग-थलग, यह और वह हूँ”; “मैं, अकेला, सोचता हूँ”—हमेशा खुद को एकाकी घोषित करते रहते थे। यदि तुम खुद को हमेशा एकाकी घोषित करते हो, तो तुम खुद को कितना महान मानते होगे? इतने महान कि तुम वास्तव में स्वर्ग के पुत्र बन गए हो? क्या तुम वैसे ही हो? सार में, तुम एक साधारण व्यक्ति हो। यदि तुम खुद को हमेशा महान और असाधारण मानते हो, तो तुम मुसीबत में हो। यह पतन ही लाएगा। यदि तुम ऐसी गलत सोच के साथ अपने सांसारिक आचरण करते हो, तो तुम्हारे क्रियाकलापों के तरीके और साधन बदल जाएँगे—तुम्हारे सिद्धांत बदल जाएँगे। अगर तुम हमेशा खुद को अलग समझते हो, दूसरे सभी लोगों से ऊँचा समझते हो, सोचते हो कि तुम्हें इस या उस तरह की चीज नहीं करनी चाहिए, या ऐसी चीज नहीं करनी चाहिए, कि ऐसी चीजें करना तुम्हारे रुतबे और प्रतिष्ठा के नीचे की बात है, तो फिर क्या चीजें पतन की ओर नहीं चली गई हैं? (हाँ, चली गई हैं।) तुम्हें लगेगा, “अपने जैसे रुतबे के साथ मैं बस दूसरों से सब-कुछ नहीं बोल सकता।” “अपने जैसे रुतबे के साथ मैं दूसरों को नहीं बता सकता कि मैं विद्रोही हूँ!” “अपनी जैसी प्रतिष्ठा के साथ मैं दूसरों से ऐसी अपमानजनक बातें नहीं बता सकता जैसे मेरी कमजोरियाँ, खामियाँ, त्रुटियाँ और शिक्षा की कमी—मैं किसी को भी उन चीजों के बारे में बिल्कुल जानने नहीं दे सकता हूँ!” यह बहुत थका देना वाला होगा, है कि नहीं? (बिल्कुल।) यदि तुम ऐसे थकाऊ ढंग से जीते हो, तो क्या तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकोगे? (नहीं।) समस्या कहाँ से पैदा होती है? यह अपने कर्तव्य और रुतबे के बारे में तुम्हारे नजरियों से उत्पन्न होती है। तुम चाहे जितने भी बड़े “अधिकारी” क्यों न हो, किसी भी पद पर क्यों न हो, जितने भी लोगों के प्रभारी हो, वास्तव में यह एक अलग कर्तव्य से बढ़ कर कुछ भी नहीं है। तुम दूसरों से अलग नहीं हो। तुम इसे वैसे नहीं देख सकते जैसा यह है, लेकिन हमेशा दिल में महसूस करते हो, “यह कोई अलग कर्तव्य नहीं है—यह वास्तव में प्रतिष्ठा का अंतर है। मुझे दूसरों से ऊपर होना चाहिए; मैं दूसरों के साथ सहयोग कैसे कर सकता हूँ? वे अवश्य मेरे साथ सहयोग कर सकते हैं—मैं उनके साथ सहयोग नहीं कर सकता!” यदि तुम हमेशा इसी तरह सोचते हो, हमेशा बाकी सबसे ऊपर रहने की कामना करते हो, हमेशा दूसरों से ऊपर रहते हुए, उन्हें नीची नजर से देखते हुए उनके कंधों पर खड़े होना चाहते हो, तो तुम्हारे लिए दूसरों के साथ सहयोग करना आसान नहीं होगा। तुम हमेशा सोचते रहोगे, “वह आदमी क्या जानता है? अगर वह चीजों को जानता होता, तो भाई-बहनों ने उसे अगुआ के तौर पर चुना होता। तो उन्होंने मुझे क्यों चुना? इस वजह से कि मैं उससे बेहतर हूँ। इसलिए मुझे उससे विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए। यदि मैंने यह किया, तो इसका अर्थ होगा कि मैं महान नहीं हूँ। यह साबित करने के लिए कि मैं महान हूँ, मैं किसी के भी साथ चीजों के बारे में विचार-विमर्श नहीं कर सकता। काम के बारे में मेरे साथ विचार-विमर्श करने लायक कोई नहीं है—कोई भी नहीं!” मसीह-विरोधी इसी तरह सोचते हैं।

मुख्यभूमि चीन में, कम्युनिस्ट पार्टी धार्मिक विश्वास का दमन करती है। बहुत ही खराब माहौल है। परमेश्वर के विश्वासियों को किसी भी समय गिरफ्तार होने का खतरा बना रहता है, इसलिए अगुआ और कार्यकर्ता बार-बार इकट्ठा नहीं होते हैं। कभी-कभी तो वे महीने में एक बार भी सहकर्मियों की सभाएँ आयोजित नहीं कर पाते; वे तब तक प्रतीक्षा करते हैं जब तक स्थितियाँ सभा करने के लिए उपयुक्त न हो जाएँ, या उन्हें कोई उपयुक्त स्थान न मिल जाएँ। फिर कामकाज कैसे किया जाता है? जब कार्य से जुड़ी कुछ चीजें होती हैं, तो उन्हें पहुँचाने के लिए किसी को ढूँढ़ना पड़ता है। एक बार हमने एक क्षेत्रीय अगुआ तक कार्य से जुड़ी चीजें पहुँचाने के लिए पास के एक भाई को ढूँढ़ा। यह भाई एक साधारण विश्वासी था, और जब उसने कार्य से जुड़ी चीजें पहुँचाईं, तो क्षेत्रीय अगुआ ने उन्हें पढ़ा और कहा, “हूँ, मुझे इसी की अपेक्षा थी।” उस भाई के सामने वह क्या दिखावा कर रहा था? वह ऐसे दिखा रहा था मानो उसके पास बहुत अधिक सामर्थ्य या अधिकार है, ताकि सभी देखने वाले कहें, “वाह, यह बहुत गरिमापूर्ण था। क्या अंदाज है!” यह तो कुछ भी नहीं—इसके ठीक बाद उसने कहा, “उन्होंने कार्य से जुड़ी चीजें मुझ तक पहुँचाने के लिए इस आदमी को भेजा? इसका ओहदा ज्यादा ऊँचा नहीं है!” इसका अर्थ था : “मैं एक क्षेत्रीय अगुआ हूँ, एक महत्वपूर्ण अगुआ। मुझ तक चीजें पहुँचाने के लिए एक साधारण विश्वासी को कैसे भेजा गया? क्या यह ज्यादती नहीं है? ऊपर वाला सचमुच मुझे हेय दृष्टि से देखता है। मैं एक क्षेत्रीय अगुआ हूँ, तो उन्हें ये चीजें पहुँचाने के लिए किसी जिला अगुआ को भेजना चाहिए था, फिर भी इस काम के लिए उन्हें एक बिल्कुल निचला साधारण विश्वासी ही मिला—इसका ओहदा ज्यादा ऊँचा नहीं है!” यह अगुआ किस प्रकार का व्यक्ति है! यह कहने के लिए कि चीजें पहुँचाने वाला ज्यादा ऊँचे ओहदे वाला नहीं है, वह अपने रुतबे को कितना अधिक महत्व देता है? वह अपना अधिकार जताने के लिए अपनी पदवी को बहाने के रूप में लेता है। क्या वह दानवी चीज नहीं है? (बिल्कुल है।) वह सचमुच दानवी चीज है। कलीसिया के कार्य में क्या हम चीजें पहुँचाने या सूचनाएँ देने के लिए किसे भेजा जाए, इसको लेकर मीन-मेख निकालते हैं? मुख्यभूमि चीन जैसे माहौल में चीजें पहुँचाने के लिए जाते समय भाई-बहन बहुत बड़े-बड़े खतरों का सामना करते हैं, फिर भी जब यह भाई कार्य से जुड़ी चीजें ले कर पहुँचा, तो अगुआ ने उससे कहा कि वह ज्यादा ऊँचे ओहदे का नहीं है, यह जताते हुए कि पर्याप्त ओहदे के किसी व्यक्ति को ढूँढ़ा जाना चाहिए, कोई ऐसा जो प्रतिष्ठा और रुतबे में अगुआ के बराबर हो, और इसके अलावा कुछ और करना अगुआ को नीची नजर से देखना है—क्या यह मसीह-विरोधी का स्वभाव नहीं है? (बिल्कुल है।) यह मसीह-विरोधी का स्वभाव है। यह दानवी व्यक्ति कोई भी वास्तविक कार्य नहीं कर सकता, और उसमें कोई कौशल नहीं है, फिर भी वह ऐसी माँगें करता है—वह अभी भी रुतबे पर इतना जोर देता है। उसका सूत्रवाक्य क्या है? “इसका ओहदा ज्यादा ऊँचा नहीं है।” उससे चाहे जो भी बात करे, वह पहले पूछता है, “तुम किस स्तर के अगुआ हो? किसी छोटे समूह के प्रमुख? दूर हट जाओ—तुम्हारा ओहदा ज्यादा ऊँचा नहीं है!” यदि ऊपर वाला भाई कोई सभा कर रहा होगा, तो वह यह कह कर हमेशा आगे खिसकता रहेगा, “यह भाई कलीसिया अगुआओं में सबसे महान है, और इसके बाद मैं हूँ। वह जहाँ भी बैठता है, मैं ओहदे के अनुसार ठीक उसके बगल में बैठता हूँ।” उसके दिमाग में यह बात इतनी ज्यादा साफ है। क्या यह बेशर्मी नहीं है? (है।) यह बड़ी बेशर्मी है—उसे बिल्कुल आत्म-ज्ञान नहीं है! वह कितना बेशर्म है? लोगों के घृणा करने के लिए काफी है। भले ही उसके पास अगुआ की पदवी है, पर वह क्या करने में सक्षम है? वह यह काम कितने अच्छे ढंग से करता है? अपनी योग्यताओं का दिखावा करने से पहले उसके पास दिखाने के लिए कुछ परिणाम होने चाहिए—यही उपयुक्त होगा; यही तर्कसंगत होगा। फिर भी वह बिना कोई परिणाम हासिल किए, बिना कोई कार्य किए लोगों में ओहदे के अनुसार भेद करता है! तो फिर उसका ओहदा क्या है? एक क्षेत्रीय अगुआ के तौर पर उसने कोई ज्यादा वास्तविक कार्य नहीं किया है—वह इस ओहदे से नीचे का ही है। यदि मुझे ओहदे के अनुसार लोगों के बीच भेद करना हो तो क्या ऐसा कोई है जो मेरे करीब भी आ सके? नहीं। जब मैं लोगों से बातचीत करता हूँ तो क्या तुम लोग मुझे ओहदे के आधार पर भेद करते हुए देखते हो? नहीं—मैं जिससे भी मिलता हूँ, अगर हो सका तो उससे थोड़ी बातें करता हूँ, और मेरे पास समय न हो तो मैं उसका अभिवादन करता हूँ, बस। हालाँकि यह मसीह-विरोधी ऐसा नहीं सोचता है। वह प्रतिष्ठा, रुतबे और सामाजिक मूल्य को किसी भी चीज से अधिक महत्वपूर्ण मानता है, उसके अपने जीवन से ज्यादा अनमोल। तुम लोग जब साथ मिल कर अपने कर्तव्य निभाते हो, तब क्या ओहदे के आधार पर भेद करते हो? कुछ लोग अपने हर काम में ओहदे के आधार पर भेद करते हैं; पलक झपकते ही वे कहेंगे कि दूसरे लोग अपने काम में और सूचनाएँ देने में अपने ओहदे के पार जा रहे हैं। वे कौन-से ओहदे के पार जा रहे हैं? पहले अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाओ। तुम कोई भी कर्तव्य या कोई भी काम अच्छे ढंग से नहीं कर सकते, फिर भी ओहदे के आधार पर अभी भी भेद कर रहे हो—तुमसे ऐसा करने को किसने कहा? अभी ओहदे के आधार पर भेद करने का समय नहीं आया है। तुम बहुत जल्दी मचा रहे हो; तुम्हें कोई आत्म-ज्ञान नहीं है। कई बार ऐसा होता है जब हम कहीं जाते हैं और हमें किसी समस्या के समाधान के लिए लोग मिल जाते हैं। क्या हम ओहदे के आधार पर उपयुक्त लोगों को ढूँढ़ते हैं? हम मूल रूप से ऐसा नहीं करते। यदि तुम कार्य के प्रभारी हो, तो हम तुम्हें खोजते हुए वहाँ जाएँगे, और अगर तुम वहाँ नहीं हो, तो हम किसी और को ढूँढ़ लेंगे। हम ओहदे के आधार पर भेद नहीं करते, न ही ऊँचे या निचले रुतबे के आधार पर करते हैं। यदि कोई ऐसा भेदभाव कर रहा है, तो उसे कोई आत्म-ज्ञान नहीं है, और उसे सिद्धांतों की समझ नहीं है। यदि तुम परमेश्वर के घर में रुतबे, ओहदे और पदनामों के आधार पर गैर-विश्वासियों की तरह बारीकी से भेदभाव करते हो, तो सचमुच तुममें समझ का अभाव है! तुम सत्य को नहीं समझते; तुममें बहुत कमी है। तुम नहीं समझते कि परमेश्वर में विश्वास रखना क्या होता है।

अभी-अभी हमने दूसरों के साथ सहयोग करने के अभ्यास के बारे में चर्चा की। क्या यह करना आसान है? जो भी व्यक्ति सत्य को खोज सकता है, जिसमें थोड़ी बहुत शर्म की भावना, और मानवता, जमीर और विवेक है, वह दूसरों के साथ सहयोग का अभ्यास कर सकता है। बस वे लोग जो मानवता विहीन हैं, जो हमेशा रुतबे पर एकाधिकार रखना चाहते हैं, जो हमेशा अपनी गरिमा, रुतबे, शोहरत और लाभ के बारे में सोचते रहते हैं, वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते। बेशक, मसीह-विरोधियों की मुख्य अभिव्यक्तियों में से यह भी एक है : वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं करते, न ही वे किसी के भी साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग हासिल कर सकते हैं। वे उस सिद्धांत का अभ्यास नहीं करते हैं। इसका कारण क्या है? वे सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं होते हैं; वे दूसरों को यह जानने देने को तैयार नहीं होते कि कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें वे नहीं समझते और कुछ ऐसी बातें हैं जिनके बारे में उन्हें परामर्श लेने की जरूरत है। वे लोगों के सामने भ्रांति प्रस्तुत करते हैं, जिस कारण से उन्हें लगता है कि ऐसा कुछ भी नहीं है जो वे नहीं कर सकते, ऐसा कुछ भी नहीं जो वे नहीं जानते, ऐसा कुछ नहीं जिसके बारे में वे अनभिज्ञ हैं, और उनके पास हर सवाल का जवाब है, और उनके लिए सब कुछ करने योग्य, संभव, और हासिल करने योग्य है—कि उन्हें दूसरों की जरूरत नहीं है, न उन्हें दूसरों से मदद, याद दिलाने और परामर्श की जरूरत है। यह एक कारण है। इसके अलावा मसीह-विरोधियों का सबसे स्पष्ट स्वभाव कौन-सा होता है? यानी वह कौन-सा स्वभाव है जिसकी असलियत तुम उनसे संपर्क में आने पर और उनके एक या दो वक्यांश सुनने पर समझ सकोगे? अहंकार। वे कितनी अहंकारी होते हैं? समझ से परे अहंकारी—जैसे कि एक मानसिक रोग। उदाहरण के लिए, यदि वे पानी का एक घूँट पीते समय शानदार हाव-भाव दिखाते हैं, वे इसे डींग मारने की किसी बात के रूप में उठाएँगे : “देखो, पानी पीते वक्त मेरे हाव-भाव कितने सुंदर होते हैं।” वे अकड़ दिखाने और दिखावा करने में खासे अच्छे होते हैं; वे खास तौर पर बेशर्म और बेपरवाह होते हैं। मसीह-विरोधी इसी किस्म के होते हैं। उनकी दृष्टि में कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता है। वे दिखावा करने में खासे अच्छे होते हैं, और उन्हें बिल्कुल भी आत्म-ज्ञान नहीं होता है। कुछ मसीह-विरोधी खास तौर पर कुरूप होते हैं, फिर भी उन्हें लगता है कि वे अच्छे दिखते हैं, वे अंडाकार चेहरे, बादामी आँखों और धनुषाकार भौंहों वाले होते हैं। उन्हें रत्ती भर भी आत्म-ज्ञान नहीं होता। 30-40 की उम्र के आते-आते एक औसत इंसान को अपने रंग-रूप और क्षमताओं का सही भान हो जाता है। लेकिन मसीह-विरोधियों में ऐसी तार्किकता नहीं होती। यहाँ कौन-सी समस्या चल रही है? समस्या यह है कि उनका अहंकारी स्वभाव सामान्य तार्किकता की सीमाएँ लांघ चुका है। वे कितने अहंकारी होते हैं? भले ही वे मेढक जैसे दिखते हों, वे कहेंगे कि वे हंस जैसे दिखते हैं। इसमें जो है और जो नहीं है, के बीच भेद कर पाने और चीजों को पलटने की अक्षमता जैसी कोई चीज है। इस सीमा तक का अहंकार बेशर्मी के बिंदु तक जाता है; यह अदम्य है। जब साधारण लोग अपने रंग-रूप को लेकर अच्छी बातें कहते हैं तो वे इन्हें बताने लायक नहीं समझते और शर्मिंदा हो जाते हैं। एक बार बता देने के बाद वे दिन भर शर्मिंदा महसूस करते हैं और उनका चेहरा लाल हो जाता है। मसीह-विरोधी नहीं शरमाते। वे अपने किए हुए अच्छे कृत्यों, अपनी खूबियों और जिस भी तरह से वे अच्छे और दूसरों से बेहतर हैं उसके लिए वे अपनी प्रशंसा करते रहेंगे—ये बातें उनके मुँह से बस धाराप्रवाह निकल पड़ती हैं मानो यह कोई बोलचाल की बात हो। वे शरमाते भी नहीं! यह किसी भी माप, शर्म या तार्किकता से परे का अहंकार है। इसीलिए मसीह-विरोधियों की दृष्टि में प्रत्येक सामान्य व्यक्ति—विशेष रूप से सत्य को खोजने वाला प्रत्येक व्यक्ति जिसमें सामान्य मानवता की जमीर और विवेक, और सामान्य सोच है—वह औसत दर्जे का है, उसमें बताने लायक कोई प्रतिभा नहीं है, वह उनसे निचले स्तर का है, और उसमें उनकी खूबियों और गुणों का अभाव है। यह कहना उचित है कि चूँकि वे अकड़बाज हैं, और मानते हैं कि उनकी बराबरी का कोई नहीं है—और इसी वजह से वे अपने किसी भी काम में किसी के भी साथ सहयोग या विचार-विमर्श नहीं करना चाहते। वे धर्मोपदेश सुन सकते हैं, परमेश्वर के वचन पढ़ सकते हैं, कभी-कभी खुद को उसके वचनों से उजागर होते देख सकते हैं और काट-छाँट से गुजर सकते हैं, लेकिन किसी भी स्थिति में वे स्वीकार नहीं करेंगे कि उन्होंने भ्रष्टता प्रकट की है और अपराध किया है, अहंकारी और आत्मतुष्ट होना तो दूर की बात है। वे यह नहीं समझ पाते कि वे बस एक साधारण इंसान हैं, साधारण काबिलियत वाले। वे ऐसी चीजें नहीं समझ सकते। चाहे तुम उनकी जैसे भी काट-छाँट करो, फिर भी उन्हें लगेगा कि उनकी काबिलियत अच्छी है, और वे साधारण लोगों से ऊँचे स्तर के हैं। क्या यह उम्मीद से परे नहीं है? (बिल्कुल है।) यह उम्मीद से परे है। यह मसीह-विरोधी होता है। उसकी काट-छाँट जैसे भी की जाए, वे अपना सिर झुका कर यह नहीं मान पाएँगे कि वे अच्छे नहीं हैं, वे नाकाबिल हैं। उनकी दृष्टि में अपनी समस्याओं, दोषों या भ्रष्टता को स्वीकार लेना निंदित होने जैसा है, बरबाद किए जाने जैसा है। वे इसी तरह सोचते हैं। वे सोचते हैं कि जैसे ही दूसरे उनके दोषों को देखेंगे, जैसे ही वे यह मानेंगे कि उनकी काबिलियत कमजोर है, और उनमें आध्यात्मिक समझ नहीं है, वे परमेश्वर में विश्वास में अपनी ऊर्जा गँवा देंगे और यह उन्हें निरर्थक लगेगा, क्योंकि अब उनका रुतबा सुनिश्चित नहीं रह पाएगा—वे अपना रुतबा खो चुके होंगे। वे सोचते हैं, “क्या रुतबे के बिना जीने का कोई तुक है? इससे बेहतर तो मर जाना है!” और अगर उनके पास रुतबा हो, तो वे अपने अहंकार में अदम्य होते हैं, पागलों की तरह बुराई करते घूमते हैं; और अगर वे ठोकर खाते हैं, उनकी काट-छाँट होती है, तो वे अपना पद छोड़ देना चाहेंगे, निराश हो कर ढीले पड़ जाएँगे। तुम चाहते हो कि वे सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करें? इस बारे में सोचो भी मत। वे किस चीज में विश्वास रखते हैं? “यह कैसा रहेगा कि तुम मुझे कोई पद दो और फिर मुझे अपनी मर्जी से कार्य करने दो? तुम चाहते हो कि मैं दूसरों के साथ सहयोग करूँ? यह असंभव है! मेरे लिए साझेदार मत ढूँढ़ो—मुझे किसी की जरूरत नहीं है; कोई भी मेरा साझेदार बनने लायक नहीं है। या बस मेरा उपयोग मत करो—किसी और को यह काम करने दो!” यह किस किस्म का प्राणी है? “सिर्फ एक अल्फा पुरुष हो सकता है”—यह मसीह-विरोधियों की मानसिकता होती है, और यही उनकी अभिव्यक्तियाँ हैं। क्या यह उम्मीद से परे नहीं है? (बिल्कुल है।)

पहले मद में कहा गया है कि मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते हैं, इसमें “नहीं कर सकते” में क्या निहित है? यह कि वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं करते हैं, और वे दूसरों के सहयोग हासिल नहीं कर सकते हैं—क्या ये दोनों उसके सूत्र नहीं हैं? मसीह-विरोधियों के सार द्वारा निर्धारित ये दो अर्थ उसमें निहित हैं। हालाँकि लोग उनके साथ ताल-मेल में काम कर सकते हैं, उसका सार सच्चा सहयोग नहीं है—वे सिर्फ नौकर हैं, जो पीछे-पीछे काम करते हैं, उनके लिए दौड़भाग करते हैं, और मामले संभालते हैं। यह किसी भी तरह से सहयोग की श्रेणी में नहीं आता। तो फिर “सहयोग” को कैसे परिभाषित किया जाता है? तथ्य यह है कि सहयोग का अंतिम लक्ष्य सत्य सिद्धांतों की समझ हासिल करना, उनके अनुसार कार्य करना, हर समस्या को सुलझाना, सही फैसले लेना है—फैसले जो बिना किसी भटकाव के सिद्धांतों के अनुरूप हों, काम में गलतियाँ घटाएँ, ताकि तुम्हारा सारा काम कर्तव्य निर्वहन का हो, न कि मनमानी करने का और अनियंत्रित हो जाने का। मसीह-विरोधियों द्वारा दूसरों से सत्य या परमेश्वर नहीं बल्कि केवल अपने प्रति समर्पण करवाने की पहली अभिव्यक्ति यह है कि वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर पाते हैं। कुछ लोग कह सकते हैं, “किसी के भी साथ सहयोग न कर पाना केवल अपने प्रति समर्पण करवाने के समान नहीं होता।” किसी के भी साथ सहयोग न कर पाने का अर्थ है कि वे किसी की बातों पर ध्यान नहीं देते या किसी से भी सुझाव नहीं माँगते—वे परमेश्वर के इरादे या सत्य सिद्धांत भी नहीं खोजते हैं। वे सिर्फ अपनी मर्जी से कार्य करते और व्यवहार करते हैं। इसमें क्या निहित है? वे खुद ही अपने काम पर काबू करते हैं, सत्य, या परमेश्वर नहीं। इसलिए उनके काम का सिद्धांत दूसरों को यों बनाना है कि उन लोगों का ध्यान इनकी बातों पर जाए और वे उसे सत्य और परमेश्वर के रूप में लें। क्या इसकी प्रकृति यह नहीं है? कुछ लोग कह सकते हैं, “यदि वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते हैं, तो कदाचित इसलिए कि वे सत्य को समझते हैं और उन्हें सहयोग करने की जरूरत नहीं है।” क्या ऐसी ही बात है? कोई व्यक्ति सत्य को जितना ज्यादा समझता और उसका अभ्यास करता है, वह काम करते समय उतने ही अधिक स्रोतों से पूछताछ करता है और खोजता है। वह नुकसान कम करने और गलतियाँ करने से बचने के लिए लोगों से चीजों के बारे में अधिक विचार-विमर्श और संगति करता है। कोई व्यक्ति सत्य को जितना अधिक समझता है, उसमें उतना ही अधिक विवेक होता है, और वह दूसरों के साथ सहयोग करने को उतना ही अधिक तैयार और सक्षम होता है। क्या ऐसा नहीं है? और यदि कोई दूसरों के साथ सहयोग करने को कम तैयार और सक्षम हो, जो किसी की भी बात पर ध्यान न दे, जो किसी के भी सुझावों पर विचार न करे, जो काम करते समय परमेश्वर के घर के हितों पर ध्यान न दे, और यह खोजने को तैयार न हो कि क्या उसके कार्यकलाप सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं—ऐसे लोग सत्य को उतना ही कम खोजते और समझते हैं। वह क्या है जो वे गलती से मानते हैं? “भाई-बहनों ने मुझे अपने अगुआ के तौर पर चुना है; परमेश्वर ने मुझे अगुआ होने का यह मौका दिया है। इसलिए मैं जो भी करता हूँ, वह सत्य के अनुरूप ही होता है—मैं जो भी करता हूँ, वह सही होता है।” क्या यह गलतफहमी नहीं है? उन्हें ऐसी गलतफहमी कैसे हो सकती है? एक बात तो पक्की है : ऐसे लोग सत्य से प्रेम नहीं करते हैं। इसके अलावा भी कुछ है : ऐसे लोग सत्य को बिल्कुल नहीं समझते हैं। इसमें जरा भी शक नहीं है।

मसीह-विरोधी किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर पाते हैं। यह एक गंभीर समस्या है। मसीह-विरोधी चाहे कोई भी कर्तव्य कर रहा हो, चाहे उसकी किसी के भी साथ साझेदारी हो, हमेशा झगड़े और विवाद होंगे। कुछ लोग कह सकते हैं, “अगर वे सफाई कार्य के प्रभारी हैं, और वे हर दिन अंदर साफ-सफाई कर देते हैं, तो दूसरों के साथ उनके असहयोगी होने की बात कैसे हो सकती है?” इसमें एक स्वभावगत समस्या है : वे जिसके साथ भी बातचीत कर रहे हों, या कोई काम कर रहे हों, वे उन्हें हमेशा डांटेंगे, हमेशा उन्हें खरी-खोटी सुनाना चाहेंगे, उनसे वही करवाना चाहेंगे जो वे कहेंगे। क्या तुम लोग कहोगे कि ऐसा व्यक्ति दूसरों के साथ सहयोगी हो सकता है? वह किसी के भी साथ सहयोगी नहीं हो सकता है; ऐसा इसलिए कि उसमें अत्यंत गंभीर भ्रष्ट स्वभाव होता है। न सिर्फ वह दूसरों के साथ सहयोग नहीं कर सकता है, वह ऊपर बैठ कर हमेशा दूसरों को खरी-खोटी सुना कर बेबस भी करता रहता है—वह हमेशा लोगों के कंधों पर बैठ कर उन्हें आज्ञा पालन के लिए मजबूर करने की कामना करता है। यह सिर्फ एक स्वभावगत समस्या नहीं है—यह उसकी मानवता के साथ भी एक गंभीर समस्या है। उसमें जरा भी जमीर या विवेक नहीं होता है। बुरे लोग ऐसे ही होते हैं। वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते; वे किसी के भी साथ मिल-जुल कर नहीं रह सकते। लोगों के बीच मानवता में कौन-सी चीजें साझा की जाती हैं? उनमें से कौन-सी चीजें संगत होती हैं? जमीर और विवेक, और सत्य से प्रेम करने का उनका रवैया—ये साझा की जाती हैं। यदि दोनों पक्षों में ऐसी सामान्य मानवता हो, तो वे मिल-जुल कर रह सकते हैं; यदि न हो, तो वे नहीं रह सकते; और यदि एक के पास हो और दूसरे के पास न हो, तो भी वे नहीं रह सकते। अच्छे लोग और बुरे लोग मिल-जुल कर नहीं रह सकते—उदार लोग और बुरे लोग मिल-जुल कर नहीं रह सकते। लोगों के एक दूसरे के साथ सामान्य रूप से मिल-जुल कर रहने के लिए कुछ खास शर्तों का पूरा होना जरूरी है : वे एक-दूसरे से सहयोग कर सकें, इससे पहले उनमें कम-से-कम जमीर और विवेक होना चाहिए, और उन्हें धैर्यवान और सहनशील होना चाहिए। कोई कर्तव्य निभाने में सहयोग कर पाने के लिए लोगों को एकमत होना चाहिए; उन्हें दूसरों की खूबियों का लाभ ले कर अपनी कमजोरियों की भरपाई करनी चाहिए, और उनके आचरण की एक आधाररेखा होनी चाहिए। इसी तरह से सामंजस्य में मिल-जुल कर रहने के लिए, भले ही समय-समय पर झगड़े और विवाद हों, सहयोग जारी रह सकता है, और कम से कम कोई शत्रुता पैदा नहीं होगी। यदि उनमें से एक के पास ऐसी आधाररेखा न हो, और वह कर्तव्यनिष्ठ या समझदार न हो, और वह लाभ-केंद्रित तरीके से काम करता हो, सिर्फ लाभ खोजता हो, हमेशा दूसरों की कीमत पर फायदा उठाना चाहता हो, तो सहयोग असंभव होगा। बुरे लोगों और दानव राजाओं के बीच ऐसा ही होता है, जो बिना किसी विराम के एक-दूसरे से युद्ध करते रहते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र की विभिन्न बुरी आत्माएँ एक-दूसरे से मिल-जुल कर नहीं रहतीं। हालाँकि दानव कभी-कभी संघ बना लेते हैं, मगर यह सब अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए परस्पर शोषण करने को लेकर होता है। उनके संघ अस्थायी होते हैं, और जल्द ही वे खुद-ब-खुद बिखर जाते हैं। लोगों के बीच भी ऐसा ही होता है। मानवता विहीन लोग सड़े हुए सेब की तरह होते हैं जो पूरे गुच्छे को नष्ट कर देते हैं; सिर्फ सामान्य मानवता वाले लोगों को ही दूसरों से सहयोग करने, धैर्यवान और सहनशील होने में आसानी होती है, वे दूसरों की राय पर ध्यान दे पाते हैं, और अपने काम में अपने रुतबे को दूर रख पाते हैं, और इसे दूसरों के साथ विचार-विमर्श के बाद करते हैं। उनका भी स्वभाव भ्रष्ट होता है, और वे हमेशा चाहते हैं कि लोग उनकी बातों पर ध्यान दें—उनका भी यही इरादा होता है—लेकिन चूँकि उनके पास जमीर और विवेक होता है, वे सत्य को खोज सकते हैं, खुद को जानते हैं, उन्हें लगता है कि ऐसा करना अनुचित है जिसके लिए उनका दिल उन्हें धिक्कारता है, और वे खुद को रोक पाते हैं, इसलिए चीजें करने के उनके तौर-तरीके थोड़ा-थोड़ा करके बदल जाएँगे। और इस तरह वे दूसरों के साथ सहयोग करने में सक्षम हो पाएँगे। वे भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं लेकिन वे बुरे लोग नहीं हैं, और उनमें मसीह-विरोधियों का सार नहीं है। उन्हें दूसरों के साथ सहयोग करने में कोई बड़ी समस्या नहीं होगी। यदि वे बुरे लोग या मसीह-विरोधी होते, तो दूसरों के साथ सहयोग नहीं कर पाते। परमेश्वर के घर द्वारा निकाले गए सभी बुरे लोग और मसीह-विरोधी ऐसे ही होते हैं। वे किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर पाते, और परिणामस्वरूप उन सभी का खुलासा हो जाता है और हटा दिए जाते हैं। फिर भी मसीह-विरोधियों के स्वभाव वाले अनेक लोग होते हैं जो मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हैं, और जो काफी काट-छाँट से गुजरने के बाद सत्य को स्वीकार सकते हैं, सचमुच प्रायश्चित्त कर सकते हैं, और दूसरों के साथ धैर्यवान और सहनशील हो सकते हैं। ऐसे लोग दूसरों के साथ धीरे-धीरे सामंजस्यपूर्ण सहयोग करने में सक्षम होते हैं। केवल मसीह-विरोधी ही किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर पाते हैं। चाहे वे अपने भ्रष्ट स्वभाव का जितना भी खुलासा करें, वे उसे दूर करने के लिए सत्य को नहीं खोजेंगे, बल्कि अनैतिक और असंयमित हो कर अपने ही तौर-तरीकों पर अड़े रहेंगे। बात बस इतनी नहीं है कि वे दूसरों के साथ सामंजस्य में सहयोग नहीं कर सकते हैं—यदि वे देखते हैं कि किसी ने उन्हें पहचान लिया है और उनसे नाखुश है, तो वे उस व्यक्ति को सताने पर भी उतारू हो जाते हैं, और उसके प्रति बहिष्कारपूर्ण और शत्रुतापूर्ण रवैया अपना लेते हैं। वे कलीसिया के कार्य में हस्तक्षेप होने की कीमत पर भी उसके प्रति शत्रुतापूर्ण बने रहेंगे। यह मसीह-विरोधियों के प्रकृति सार से निर्धारित होता है।

सामंजस्य में सहयोग करने के प्रशिक्षण में तुम लोगों को कौन-से सबक सीखने चाहिए? सहयोग करना सीखना सत्य से प्रेम करने के अभ्यास का एक अंश और साथ ही उसका एक लक्षण भी है। यह एक तरीका है जिससे किसी व्यक्ति में जमीर और तार्किकता होने की अभिव्यक्ति होती है। तुम कह सकते हो कि तुम्हारे पास जमीर, गरिमा और तार्किकता है, लेकिन अगर तुम किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकते, और अपने परिवार, बाहर के लोगों या दोस्तों के साथ मिल-जुल कर नहीं रह सकते, तुम्हारी बातचीत बिखर जाती है, और तुम साझा कामों में अंतहीन विवादों में उलझ जाते हो, जिनके कारण तुम दुश्मन बन जाते हो—इस तरह से अगर तुम कभी किसी के भी साथ मिल-जुल कर नहीं रह सकते, तो तुम खतरे में हो। यदि ऐसा व्यवहार तुम्हारे तमाम भ्रष्ट स्वभावों के व्यवहारों में से एक है, या यह तुम्हारे उन सभी व्यवहारों में से एक है जो सत्य के अनुरूप नहीं हैं और तुम्हारी जानकारी में यह एक व्यवहार से बढ़ कर कुछ नहीं है, और जिसके बारे में तुम निरंतर खोज कर रहे हो और बदल रहे हो, तो तुम्हारे पास अभी भी एक मौका है। अभी भी उद्धार की गुंजाइश है; यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन अगर तुम स्वभावतः ऐसे इंसान हो, स्वभावतः किसी के भी साथ मिल-जुल कर नहीं रह पाते, और उसके बारे में चर्चा का कोई फायदा न हो—तुम इसे रोक नहीं पाते हो—तो फिर यह एक गंभीर समस्या है। तुम्हारे साथ सत्य पर चाहे जैसे भी संगति की जाए, यदि तुम इसे कोई महत्व नहीं देते, बल्कि महसूस करते हो कि यह समस्या कोई बड़ी बात नहीं है, कि यह तुम्हारा सामान्य जीवन है, यह वह मुख्य तरीका है जिससे तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव अभिव्यक्त होता है, तो फिर तुममें मसीह-विरोधी का सार है। और यदि वह तुम्हारा सार है, तो यह तुम्हारे मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने की अपेक्षा एक अलग बात है। कुछ लोग मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हैं, और कुछ स्वयं मसीह-विरोधी होते हैं। क्या इनमें अंतर नहीं है? (बिल्कुल है।) जो मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हैं, वे अपने कार्यकलापों में मसीह-विरोधियों के ये व्यवहार दर्शाते हैं; वे एक औसत व्यक्ति के मुकाबले मसीह-विरोधी का स्वभाव थोड़ा अधिक स्पष्ट रूप से और जाहिर तौर पर प्रकट करते हैं, लेकिन वे अभी भी वह कार्य कर सकते हैं जो सत्य के अनुरूप हो, जिसमें मानवता और तार्किकता हो। यदि कोई व्यक्ति बिल्कुल भी कोई सकारात्मक कार्य नहीं कर पाता, और इसके बजाय उसके कार्य पूरी तरह से मसीह-विरोधियों के ये व्यवहार होते हैं, मसीह-विरोधी के सार के ये प्रकाशन होते हैं—यदि उसके द्वारा किए जाने वाले सभी काम और किए जाने वाले सभी कर्तव्य ऐसे ही प्रकाशन हैं, और इनमें सत्य के अनुरूप कोई भी चीज न हो—तो ऐसी स्थिति में वह मसीह-विरोधी है।

कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं ने अतीत में अक्सर मसीह-विरोधी का स्वभाव प्रकट किया था : वे आवारा और स्वेछाचारी थे, वे जो कहें हमेशा वही होता था या फिर परिणाम झेलना पड़ता था। लेकिन उन्होंने कोई स्पष्ट बुराई नहीं की और उनकी मानवता भयानक नहीं थी। काट-छाँट से गुजर कर, भाई-बहनों द्वारा मदद किए जाने से, तबादला किए जाने या बदले जाने के माध्यम से, कुछ समय के लिए नकारात्मक होकर वे अंततः इस बात से अवगत हो जाते हैं कि उन्होंने जो पहले प्रकट किया था, वह भ्रष्ट स्वभाव था, वे पश्चात्ताप करने के लिए तैयार हो जाते और सोचते हैं, “चाहे जो हो, अपना कर्तव्य निभाते रहना सबसे महत्वपूर्ण है। हालाँकि मैं मसीह-विरोधी के मार्ग पर चल रहा था, लेकिन मुझे उस श्रेणी में नहीं रखा गया। यह परमेश्वर की दया है, इसलिए मुझे अपने विश्वास और अपने अनुसरण में कड़ी मेहनत करनी चाहिए। सत्य के अनुसरण के मार्ग में कुछ भी गलत नहीं है।” धीरे-धीरे, वे खुद को बदल लेते हैं, और फिर वे पश्चात्ताप करते हैं। उनमें अच्छी अभिव्यक्तियाँ होती हैं, वे अपने कर्तव्य निभाते समय सत्य सिद्धांतों को खोज पाते हैं, और दूसरों के साथ कार्य करते समय भी वे सत्य सिद्धांतों को खोजते हैं। हर लिहाज से वे एक सकारात्मक दिशा में प्रवेश कर रहे होते हैं। तब क्या वे बदले नहीं हैं? वे मसीह-विरोधी के मार्ग से सत्य के अभ्यास और उसको खोजने के मार्ग की ओर मुड़ गए हैं। उनके लिए उद्धार पाने की आशा और मौका है, वे खुद को वापस मोड़ सकते हैं। क्या तुम ऐसे लोगों को इसलिए मसीह-विरोधी की श्रेणी में डाल सकते हो, कि उन्होंने एक बार मसीह-विरोधी के कुछ लक्षण प्रदर्शित किए थे, या वे मसीह-विरोधी के मार्ग पर चले थे? नहीं। मसीह-विरोधी पश्‍चात्ताप करने के बजाय मरना पसंद करेंगे। उनमें शर्म की कोई भावना नहीं होती; इसके अलावा वे शातिर और दुष्ट स्वभाव के होते हैं, और वे सत्य से अत्यधिक विमुख होते हैं। क्या सत्य से इतना ज्यादा विमुख व्यक्ति उसे अभ्यास में ला सकता है, या पश्‍चात्ताप कर सकता है? यह असंभव होगा। सत्य से उसके बेहद विमुख होने का यह अर्थ है कि वह कभी पश्चात्ताप नहीं करेगा। जो लोग पश्चात्ताप करने में सक्षम होते हैं, उनके बारे में एक बात तो निश्चित है कि उन्होंने भूलें तो की होती हैं, लेकिन परमेश्वर के न्याय और उसकी ताड़ना को स्वीकार करने में वे सक्षम होते हैं, सत्य को स्वीकार करने में सक्षम होते हैं, और परमेश्वर के वचनों को अपनी व्यक्तिगत सूक्तियों के रूप में लेकर, और परमेश्वर के वचनों को अपने जीवन की वास्तविकता बनाकर, वे अपने कर्तव्य निभाते समय सहयोग करने की भरसक कोशिश करने में सक्षम होते हैं। वे सत्य को स्वीकार करते हैं, और भीतर गहराई में, वे इससे विमुख नहीं रहते हैं। क्या यह अंतर नहीं है? यही अंतर है। लेकिन मसीह-विरोधी काट-छाँट किए जाने से इनकार किए जाने पर ही नहीं रुकते—वे उस किसी भी व्यक्ति की नहीं सुनते जिसकी बातें सत्य के अनुसार होती हैं, और वे नहीं मानते हैं कि परमेश्वर के वचन ही सत्य हैं, न ही वे उन्हें सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी यह प्रकृति किस प्रकार की है? यह सत्य से विमुख होने और उससे तीव्र घृणा करने की है। जब कोई सत्य पर संगति करता है, या अनुभवजन्य गवाही के बारे में बोलता है, तो उनमें तीव्र अस्वीकार पैदा होता है, और वे संगति करने वाले व्यक्ति के प्रति शत्रुतापूर्ण हो जाते हैं। यदि कलीसिया का कोई व्यक्ति विभिन्न ऊटपटांग और बुरी दलीलें फैलाता है, बेतुकी ऊटपटांग बातें बोलता है, तो उन्हें बड़ी खुशी मिलती है; वे फौरन साथ हो लेते हैं और करीबी सहयोग में बेहूदगी में लोटते-पोटते हैं। यह चोर-चोर मौसेरे भाई, एक ही थैली के चट्टे बट्टे वाला मामला है। यदि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को सत्य पर संगति करते हुए या अपने आत्म-ज्ञान और सच्चे प्रायश्चित्त के बारे में अनुभवजन्य गवाही देते हुए सुन लेते हैं, तो इससे वे उद्विग्न हो कर खीझने लगते हैं, और वे यह विचार करने लगते हैं कि कैसे उस व्यक्ति को अलग-थलग कर उस पर हमला किया जाए। संक्षेप में कहें तो वे सत्य का अनुसरण करने वाले किसी भी व्यक्ति को स्नेह से नहीं देखते। वे उसे अलग-थलग कर उसका दुश्मन बनना चाहते हैं। जो भी व्यक्ति शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देकर दिखावा करने में निपुण होता है, वे उसे बहुत पसंद करते हैं, और उसे पूरी स्वीकृति देते हैं, मानो उन्हें कोई विश्वासपात्र सहयात्री मिल गया हो। यदि कोई कहे, “जो भी व्यक्ति सर्वाधिक कार्य करेगा है और सर्वोत्तम योगदान देगा, उसे सर्वाधिक पुरस्कार देकर ताज पहनाया जाएगा, और वह परमेश्वर के साथ मिलकर शासन करेगा,” तो वे बेहद उत्साहित होकर जबरदस्त जोश में आ जाएँगे। उन्हें लगेगा कि वे दूसरों से सर्वश्रेष्ठ हैं, वे अंततः भीड़ से अलग हैं, और अब उनके लिए अपना प्रदर्शन करने और अपनी योग्यता दर्शाने को स्थान मिल गया है। तब वे काफी संतुष्ट हो जाएँगे। क्या यह सत्य से विमुख होना नहीं है? मान लो कि तुम उनसे संगति में कहते हो, “परमेश्वर पौलुस जैसे लोगों को पसंद नहीं करता, और वह उन लोगों से सबसे ज्यादा नाराज होता है जो मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलते हैं और जो सारा दिन यह कहते हुए घूमते रहते हैं, ‘प्रभु, प्रभु, क्या मैंने तुम्हारे लिए ज्यादा काम नहीं किया है?’ वह उन लोगों से ज्यादा नाराज होता है जो सारा दिन घूमते हुए उससे पुरस्कार और ताज की भीख माँगते हैं।” ये बातें निश्चित रूप से सत्य हैं, लेकिन ऐसी संगति सुनने पर उनके मन में कैसी भावनाएँ रह जाती हैं? क्या वे आमीन कह कर ऐसे शब्दों को स्वीकारते हैं? उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है? दिल में अस्वीकृति और सुनने को लेकर अनिच्छा—उसका यह अर्थ होता है कि, “तुम अपनी बात को लेकर इतने सुनिश्चित कैसे हो सकते हो? क्या तुम्हारी बात ही अंतिम है? तुम जो कह रहे हो उसे मैं नहीं मानता! मुझे जो करना है मैं वही करूँगा। मैं पौलुस जैसा ही रहूँगा और परमेश्वर से ताज माँगूँगा। उस तरह से मैं धन्य हो पाऊँगा और मुझे अच्छी मंजिल मिलेगी!” वे पौलुस के नजरिए बनाए रखने पर जोर देंगे। क्या इस तरह से वे परमेश्वर के विरुद्ध लड़ नहीं रहे हैं? क्या यह परमेश्वर का स्पष्ट विरोध नहीं है? परमेश्वर ने पौलुस के सार को उजागर कर उसका गहन विश्लेषण किया है; उसने उस बारे में काफी कुछ कहा है, और उसका प्रत्येक अंश सत्य है—फिर भी ये मसीह-विरोधी सत्य को या इस तथ्य को नहीं स्वीकारते कि पौलुस के तमाम कार्यकलाप और व्यवहार परमेश्वर के विरुद्ध थे। अपने मन में वे अभी भी सवाल उठाते हैं : “यदि तुम कुछ कहते हो, तो इसका अर्थ यह है कि यह सही है? किस आधार पर? मुझे तो पौलुस ने जो कहा और किया वह सही लगता है। उसमें कुछ भी गलत नहीं है। मैं एक ताज और पुरस्कार का अनुसरण कर रहा हूँ—और मैं इसके काबिल हूँ। क्या तुम मुझे रोक सकते हो? मैं काम करने का प्रयास करूँगा; काफी काम कर लेने के बाद, मेरे पास पूँजी होगी—तब मैं योगदान कर चुका होऊँगा, और ऐसा होने पर मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कर पुरस्कार प्राप्त कर पाऊँगा। उसमें कुछ गलत नहीं है!” वे इतने ज्यादा अड़ियल होते हैं। वे सत्य को लेशमात्र भी स्वीकार नहीं करते। तुम उनसे सत्य पर संगति कर सकते हो, लेकिन यह उनके दिमाग में नहीं उतरेगा; वे उससे विमुख हैं। परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति मसीह-विरोधियों का यही रवैया होता है, और यही परमेश्वर के प्रति भी उनका रवैया होता है। तो सत्य को सुनने के बाद तुम लोगों को क्या महसूस होता है? तुम्हें लगता है कि तुम सत्य का अनुसरण नहीं कर रहे हो, और तुम उसे नहीं समझते हो। तुम्हें लगता है कि तुम अभी भी बहुत पीछे हो, और तुम्हें सत्य वास्तविकता की ओर प्रयास करने की जरूरत है। और जब कभी तुम खुद को परमेश्वर के वचनों की तुलना में देखते हो तभी तुम्हें लगता है कि तुममें बहुत कमी है, तुम्हारी काबिलियत कमजोर है, और तुममें आध्यात्मिक समझ का अभाव है—तुम अभी भी लापरवाह हो, और तुममें अभी भी दुष्टता है। और फिर तुम निराश हो जाते हो। क्या तुम्हारी यह अवस्था नहीं है? दूसरी ओर, मसीह-विरोधी कभी निराश नहीं होते। वे हमेशा बहुत उत्साही होते हैं, कभी भी आत्म-चिंतन नहीं करते, न खुद को जानते हैं, लेकिन सोचते हैं कि उनमें कोई बड़ी समस्या नहीं है। जो लोग हमेशा अहंकारी और आत्मतुष्ट होते हैं, वे ऐसे ही होते हैं—जैसे ही उनके हाथों में सत्ता आती है, वे मसीह-विरोधियों में तब्दील हो जाते हैं।

II. मसीह-विरोधियों का हमेशा लोगों को नियंत्रित करने और जीतने की इच्छा और महत्वाकांक्षा रखने का गहन विश्लेषण

हम अगले मद पर संगति करके अपनी बात जारी रखेंगे : मसीह-विरोधियों का हमेशा लोगों को नियंत्रित करने और जीतने की इच्छा और महत्वाकांक्षा रखने का गहन विश्लेषण। यह समस्या उनके किसी के साथ सहयोग कर पाने में अक्षमता से ज्यादा गंभीर है। तुम लोगों के अनुसार वे किस प्रकार के लोग हैं जो दूसरों को नियंत्रित करना और जीतना पसंद करते हैं? किस प्रकार के व्यक्ति में दूसरों को नियंत्रित करने और जीतने की महत्वाकांक्षा और इच्छा होती है? मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ। क्या जो लोग खास तौर पर रुतबा पसंद करते हैं, वे दूसरों को नियंत्रित करने और जीतने में आनंद लेते हैं? क्या वे मसीह-विरोधियों की तरह नहीं हैं? वे दूसरे लोगों को गुमराह करते, नियंत्रित करते और दबाते हैं, जो फिर उनकी आराधना कर उनकी बातों पर ध्यान देते हैं। वे इस तरह से लोगों का सम्मान और आदर प्राप्त करते हैं और लोगों से अपनी आराधना और सम्मान करवाते हैं। तो फिर क्या लोगों के दिलों में उनके लिए जगह नहीं होती है? यदि लोगों को उनकी बातों पर विश्वास न हो और वे उन्हें स्वीकृति न दें, तो क्या वे उनकी आराधना करेंगे? बिल्कुल नहीं। तो रुतबा पाने के बाद भी इन लोगों को दूसरों को विश्वास दिलाना होता है, उन्हें पूरी तरह जीतना होता है, और उनसे अपनी सराहना करवानी होती है। सिर्फ तभी लोग उनकी आराधना करेंगे। यह एक प्रकार का व्यक्ति है। एक दूसरे प्रकार का व्यक्ति भी होता है—जो खासा अहंकारी होता है। वह लोगों से इसी तरह पेश आता है : वह लोगों को दबाने और सभी से अपनी आराधना और सराहना करवाने से शुरू करता है। तभी वह संतुष्ट होता है। अत्यंत क्रूर लोग भी दूसरों को नियंत्रित करना, अपनी बातों पर लोगों से ध्यान दिलवाना, अपने दायरे में रखना और अपने लिए चीजें करवाना पसंद करते हैं। जब बात अत्यंत अहंकारी और क्रूर स्वभाव के लोगों की आती है, तो एक बार सत्ता हथिया लेने पर वे मसीह-विरोधी बन जाते हैं। मसीह-विरोधियों में हमेशा दूसरों को नियंत्रित करने और जीतने की महत्वाकांक्षा और इच्छा होती है; लोगों से अपनी मुलाकातों में वे हमेशा यह पता लगाना चाहते हैं कि दूसरे उन्हें किस दृष्टि से देखते हैं, और क्या दूसरों के दिलों में उनके लिए जगह है, और क्या दूसरे उनकी सराहना और आराधना करते हैं। यदि उनकी मुलाकात किसी ऐसे व्यक्ति से हो जो तलवे चाटने, चापलूसी करने और खुशामद करने में अच्छा है, तो वे बहुत खुश होते हैं; फिर वे ऊँचे स्थान पर खड़े हो कर लोगों को बड़े-बड़े आडंबरी विचारों पर भाषण देते हैं, लोगों के मन में विनियम, तरीके, धर्म-सिद्धांत और धारणाएँ बिठाते हैं। वे लोगों से इन चीजों को सत्य के रूप में स्वीकार करवाते हैं, और उन्हें एक सुंदर रूप से सँवारते हैं : “यदि तुम ये चीजें स्वीकार कर सको, तो तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य से प्रेम करता है, उसका अनुसरण करता है।” नासमझ लोग सोचेंगे कि वे जो कह रहे हैं वह उचित है, और हालाँकि यह उनके लिए स्पष्ट नहीं है, और वे यह नहीं जानते कि क्या यह सत्य के अनुरूप है, उन्हें सिर्फ यह लगता है कि वे जो कह रहे हैं उसमें कुछ गलत नहीं है, और इससे सत्य का उल्लंघन नहीं होता है। और इसलिए वे मसीह-विरोधी की आज्ञा का पालन करते हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी मसीह-विरोधी को पहचान कर उसे उजागर कर दे, तो इससे मसीह-विरोधी को गुस्सा आ जाएगा, और वह उस पर अनाप-शनाप दोष थोपेगा, उसकी निंदा करेगा, और शक्ति प्रदर्शन कर उसे धमकाएगा। जिन लोगों में समझ नहीं होती, वे मसीह-विरोधी से पूरी तरह दब जाते हैं और अपने दिल की गहराई से उसकी सराहना करते हैं, जिससे उनके भीतर मसीह-विरोधी की आराधना, उस पर भरोसा और उससे डर भी पैदा हो जाता है। उनके मन में मसीह-विरोधी का गुलाम होने का भाव पैदा हो जाता है, मानो मसीह-विरोधी की अगुआई, शिक्षाएँ और भर्त्सनाएं गँवाने पर वे दिल में अशांत हो जाएँगे। ऐसा होता है जैसे इन चीजों के बिना उनमें सुरक्षा का कोई एहसास नहीं बचेगा, और फिर परमेश्वर उन्हें नहीं चाहेगा। तब कार्य करते समय हर कोई मसीह-विरोधी की अभिव्यक्ति देखना सीख लेता है, इस डर से कि मसीह-विरोधी नाखुश हो जाएगा। वे सब उसे खुश करने की कोशिश करते हैं; ऐसे लोग मसीह-विरोधी का अनुसरण करने में जी-जान से जुटे होते हैं। मसीह-विरोधी अपने काम में शब्दों और धर्म-सिद्धांतों का उपदेश देते हैं। वे लोगों को कुछ खास विनियमों का पालन करने की सीख देने में अच्छे होते हैं; वे लोगों को कभी नहीं बताते कि वे सत्य सिद्धांत कौन-से हैं, जिनका उन्हें पालन करना चाहिए, उन्हें इस तरह काम क्यों करना चाहिए, परमेश्वर के इरादे क्या हैं, और परमेश्वर के घर ने काम के लिए कौन-सी व्यवस्थाएँ की हैं, सबसे अनिवार्य और महत्वपूर्ण काम कौन-सा है, और वह कौन-सा प्राथमिक कार्य है जो किया जाना है। इन महत्वपूर्ण चीजों के बारे में मसीह-विरोधी कुछ भी नहीं कहते हैं। काम करते समय और उसकी व्यवस्था करते समय वे सत्य पर कभी संगति नहीं करते। वे स्वयं सत्य सिद्धांतों को नहीं समझते हैं, इसलिए वे बस इतना ही कर सकते हैं कि लोगों को कुछ विनियमों और धर्म-सिद्धांतों का पालन करना सिखा दें—और अगर लोग उनकी कहावतों और विनियमों के खिलाफ जाएँ तो उन्हें मसीह-विरोधियों की फटकार और डाँट का सामना करना पड़ेगा। मसीह-विरोधी अक्सर परमेश्वर के घर की ध्वजा के अधीन काम करते हैं, और ऊँची पदवी से दूसरों को डाँटते और फटकार लगाते हैं। कुछ लोग उनकी फटकार से इतने घबरा जाते हैं कि उन्हें लगता है कि मसीह-विरोधियों की अपेक्षाओं के अनुसार कार्य न करने से वे परमेश्वर के ऋणी हैं। क्या ऐसे लोग मसीह-विरोधियों के नियंत्रण में नहीं हैं? (बिल्कुल हैं।) मसीह-विरोधियों की ओर से यह किस प्रकार का व्यवहार है? यह दासता का व्यवहार है। बड़े लाल अजगर के राष्ट्र के शब्दों में “दासता” को “मतारोपण” कहा जाता है। यह ऐसा ही है जब बड़ा लाल अजगर परमेश्वर के विश्वासियों को पकड़ लेता है। उन्हें सताने के अलावा वह एक दूसरी तकनीक का उपयोग करता है : मतारोपण। वे चाहे किसान हों, कार्यकर्ता हों या बुद्धिजीवी, बड़ा लाल अजगर लोगों में मतारोपण करने के लिए नास्तिकता, विकासवाद, और मार्क्सवाद-लेनिनवाद जैसे ढेर सारे विधर्मों और भ्रांतियों का उपयोग करता है; भले ही उन लोगों को ये जितना भी गुस्सा दिलाने वाले या घृणित क्यों न लगें, वह उनके मन में जबरन ये चीजें बैठाता है, और फिर लोगों के हाथ-पैर जकड़ने और उनके दिलों को नियंत्रित करने के लिए इन विचारों और सिद्धांतों का उपयोग करता है। बड़ा लाल अजगर इसी तरह से लोगों को परमेश्वर में विश्वास रखने, और बचाए जाने और पूर्ण बनाए जाने के लिए सत्य को स्वीकारने और सत्य का अनुसरण करने से रोकता है। इसी तरह से मसीह-विरोधियों द्वारा नियंत्रित लोग चाहे जितने भी धर्मोपदेश सुनें, वे सत्य को नहीं समझ सकते, या यह नहीं समझ सकते कि परमेश्वर में विश्वास वास्तव में किसलिए रखा जाता है, या उन्हें किस प्रकार के मार्ग पर चलना चाहिए या प्रत्येक कार्य करने में क्या सही नजरिया या कौन-सा रुख अपनाना चाहिए। वे इनमें से कुछ भी नहीं समझते; उनके दिलों में बस शब्द और धर्म-सिद्धांत और उन मसीह-विरोधियों के खोखले सिद्धांत होते हैं। लंबे समय तक मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह और नियंत्रित होने के बाद वे पूरी तरह से उन्हीं के जैसे हो जाते हैं : वे ऐसे लोग बन जाते हैं जो परमेश्वर में विश्वास तो रखते हैं, लेकिन सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते, यहाँ तक कि परमेश्वर का विरोध करते हैं और खुद को उसके विरुद्ध खड़ा करते हैं। मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह और नियंत्रित होने वाले लोग किस प्रकार के होते हैं? निस्संदेह उनमें से कोई भी सत्य का प्रेमी नहीं है—वे सभी पाखंडी हैं, ऐसे लोग जो परमेश्वर में अपने विश्वास में सत्य का अनुसरण नहीं करते, और जो अपने कर्तव्य निर्वहन में उचित मामलों पर ध्यान नहीं देते हैं। परमेश्वर में अपने विश्वास में ये लोग परमेश्वर का अनुसरण नहीं करते; इसके बजाय मसीह-विरोधियों का अनुसरण करते हैं, मसीह-विरोधियों के दास बन जाते हैं, और परिणामस्वरूप वे सत्य को प्राप्त नहीं कर पाते। यह परिणाम अपरिहार्य होता है।

वह कौन-सा सिद्धांत है जिससे परमेश्वर लोगों से व्यवहार करता है? क्या शक्ति से? क्या नियंत्रण से? नहीं—यह नियंत्रण का ठीक उल्टा होता है। लोगों के साथ पेश आने के तरीके में परमेश्वर का कौन-सा सिद्धांत होता है? (वह उन्हें स्वतंत्र इच्छा प्रदान करता है।) हाँ, वह तुम्हें स्वतंत्र इच्छा प्रदान करता है। वह अपने द्वारा निर्मित परिवेशों में तुम्हें अपनी खुद की समझ तक पहुँचने लायक बनाता है, ताकि तुम स्वाभाविक रूप से मानवीय समझ और अनुभव पैदा कर सको। वह तुम्हें स्वाभाविक रूप से सत्य के एक पहलू को समझने योग्य बनाता है, ताकि जब तुम्हारा ऐसे परिवेश से दोबारा सामना हो, तो तुम जान सको कि तुम्हें क्या करना है और क्या चुनना है। वह तुम्हें अपने दिल की गहराई से यह समझने योग्य भी बनाता है कि क्या सही है और क्या गलत, ताकि तुम अंततः सही मार्ग चुनो। परमेश्वर तुम्हें नियंत्रित नहीं करता है, और वह तुम्हें मजबूर नहीं करता है। लेकिन एक मसीह-विरोधी ठीक विपरीत ढंग से कार्य करता है : वह तुम्हें गुमराह कर मतारोपित करेगा और तुम्हें अपने दृष्टिकोण से प्रभावित करेगा, और फिर तुम्हें अपना दास बना लेगा। मैं “दास” शब्द का उपयोग क्यों करता हूँ? दास क्या होता है? इसका अर्थ है कि तुम पहचान नहीं पाओगे कि मसीह-विरोधी सही है या गलत, और तुम पहचानने की हिम्मत भी नहीं करोगे—तुम नहीं जान पाओगे कि वह सही है या गलत; तुम दिल में उलझे हुए और भ्रमित रहोगे। तुम्हें स्पष्टता नहीं होगी कि क्या सही है और क्या नहीं है; तुम नहीं जान पाओगे कि तुम्हें क्या करना चाहिए और क्या नहीं। तुम बस एक कठपुतली की तरह मसीह-विरोधी के निर्देशों की प्रतीक्षा करोगे, और अगर मसीह-विरोधी आदेश न दे तो कार्यवाही करने की हिम्मत नहीं करोगे, और उसके आदेश सुनने के बाद ही कार्यवाही करने की हिम्मत करोगे। तुम अपनी अंतर्जात क्षमताएँ खो चुके होगे, और तुम्हारी स्वतंत्र इच्छा अपनी भूमिका नहीं निभाएगी। तुम एक मृत व्यक्ति बन चुके होगे। तुम्हारा अपना दिल होगा, लेकिन तुम सोच नहीं पाओगे; तुम्हारा अपना दिमाग होगा, लेकिन तुम समस्याओं पर विचार नहीं कर पाओगे—तुम नहीं जानोगे कि सही क्या है और गलत क्या है, या कौन-सी चीजें सकारात्मक हैं और कौन-सी नकारात्मक, या कार्य करने का सही तरीका क्या है और गलत तरीका क्या है। अनजाने ही मसीह-विरोधी तुम पर नियंत्रण कर चुका होगा। वह क्या चीज है जिसे वह नियंत्रित करेगा? तुम्हारे दिल को या फिर तुम्हारे दिमाग को? यह तुम्हारा दिल होगा; फिर दिमाग स्वाभाविक रूप से उसके नियंत्रण में आ जाएगा। वह तुम्हारे हाथ-पैर कस कर, जोर से और मजबूती से बाँध देगा, ताकि अपने प्रत्येक कदम पर तुम संकोच और संदेह में फँसो और बाद में पीछे हट जाओ; और फिर तुम एक और कदम उठाना चाहते हो, थोड़ा कार्य करना चाहते हो, मगर तुम फिर पीछे हट जाते हो। तुम्हारे हर कृत्य में तुम्हारा दर्शन धुंधला और अस्पष्ट होगा। यह मसीह-विरोधियों की गुमराह करने वाली बातों से अभिन्न है। वह मुख्य तकनीक कौन-सी होती है जिससे मसीह-विरोधी लोगों को नियंत्रित करते हैं? वे जो भी बातें कहते हैं वे लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं, मानवीय भावनाओं और मानवीय तार्किकता के अनुसार होती हैं। जब वे बोलते हैं तो लगता है कि उनमें थोड़ी मानवता है, लेकिन उनमें कोई सत्य वास्तविकताएँ नहीं होतीं। मुझे बताओ, क्या वे लोग जो मसीह-विरोधियों द्वारा नियंत्रित होते हैं और उनका अनुसरण करते हैं, परमेश्वर के घर में पूरा दिल लगा कर और पूरी शक्ति से कर्तव्य निभा सकते हैं? (नहीं।) इसके पीछे क्या कारण होता है? वे सत्य को नहीं समझते—यह मुख्य कारण होता है। और एक और कारण होता है : मसीह-विरोधी सत्ता के खेल खेलते हैं; वे अपने कर्तव्य निर्वहन में सत्य का अभ्यास नहीं करते, न ही वे इसे पूरा दिल लगा कर पूरी शक्ति से निभाते हैं। तो फिर क्या उनके नौकर सत्य का अभ्यास कर सकते हैं? मसीह-विरोधी जैसा भी होता है, उसके पीछे चलने वाले नौकर भी उसके जैसे ही होंगे। मसीह-विरोधी सत्य का अभ्यास न करने, सिद्धांतों के विरुद्ध जाने, परमेश्वर के घर के हितों के साथ विश्वासघात करने, अनुचित होने और तानाशाहों की तरह काम करने में अगुआई करते हैं। क्या इससे उसके नौकर प्रभावित हुए बिना रह सकेंगे? ऐसा हो ही नहीं सकता कि असर न हो। तो उन लोगों का क्या होगा जिन्हें वे बेबस और नियंत्रित करते हैं? वे एक-दूसरे से सतर्क रहेंगे, वे एक-दूसरे पर शक करेंगे और एक-दूसरे से लड़ेंगे—प्रसिद्धि और लाभ के लिए प्रतिस्पर्धा करते हुए, शान से चमकने के मौके और पूँजी के लिए प्रतिस्पर्धा करेंगे। गहराई में मसीह-विरोधी द्वारा नियंत्रित सभी लोगों के बीच अनबन होती है और अब वे एकमत नहीं होते हैं। वे अपने कार्यकलापों में सावधान और चौकस होते हैं; वे एक-दूसरे के साथ खुल कर नहीं रहते, और उनमें आपस में सामान्य मानवीय रिश्ते नहीं होते। उनके बीच सामान्य संगति नहीं होती, वे प्रार्थना-पाठ नहीं करते, और उनका कोई सामान्य आध्यात्मिक जीवन नहीं होता। वे खंडित होते हैं, ठीक वैसे जैसे दुनिया के गैर-विश्वासी शैतानी समूह होते हैं। मसीह-विरोधी के सत्ता में होने पर ऐसा ही होता है। लोगों के बीच सतर्कता होती है, खुले और छिपे हुए संघर्ष, साजिशें, ईर्ष्या, आलोचना, और तुलनाएँ होती हैं कि कौन कम जिम्मेदारी उठा रहा है : “यदि तुम जिम्मेदारी नहीं लोगे, तो मैं भी नहीं लूँगा। तुम किस आधार पर चाहोगे कि मैं परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान रखूँ जब तुम स्वयं उनका ध्यान नहीं रखते हो? फिर मैं भी ध्यान नहीं रखूँगा!” क्या ऐसा स्थान परमेश्वर का घर होता है? नहीं। यह कैसी जगह है? यह शैतान की छावनी है। यहाँ सत्य का राज्य नहीं है; यहाँ पवित्र आत्मा का कार्य, परमेश्वर का आशीष या उसकी अगुआई नहीं है। और इसलिए वहाँ के सभी लोग छोटे दानव जैसे होते हैं। ऊपर से तो वे दूसरों के बारे में प्रशंसा के जो शब्द बोलते हैं वे सुनने में अच्छे लगते हैं : “ओह, वे सचमुच परमेश्वर से प्रेम करते हैं; वे सचमुच भेंटें चढ़ाते हैं; वे अपना कर्तव्य निभाने में सचमुच कष्ट सहते हैं!” लेकिन उनसे किसी व्यक्ति का मूल्यांकन करवाओ, तो वे उसकी पीठ पीछे तुम्हें जो बताएँगे वह उनकी मौजूदगी में बताई हुई बातों से अलग होगा। यदि भाई-बहन किसी झूठे अगुआ के हत्थे चढ़ गए, तो वे अपने कर्तव्य निर्वहन में ढीली रेत के टीले की तरह चूर-चूर हो जाएँगे—उन्हें नतीजे नहीं मिलेंगे, उन्हें पवित्र आत्मा का कार्य प्राप्त नहीं होगा, और उनमें से ज्यादातर लोग सत्य का अनुसरण नहीं करेंगे। तो फिर यदि वे किसी मसीह-विरोधी के नियंत्रण के अधीन आ गए तो क्या होगा? उन लोगों को अब एक कलीसिया नहीं कहा जा सकता है। वे पूरी तरह से शैतान की छावनी के हैं और मसीह-विरोधी के गिरोह से संबंधित हैं।

ऐसा क्यों होता है कि मसीह-विरोधी हमेशा लोगों को नियंत्रित करना चाहते हैं? इस वजह से कि वे परमेश्वर के घर के हितों की सुरक्षा नहीं करते, न ही उन्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश की कोई परवाह होती है। उनका एकमात्र ध्यान अपनी सत्ता, रुतबे और प्रतिष्ठा पर होता है। वे मानते हैं कि अगर लोगों के दिलों पर उनका नियंत्रण होगा और वे सबसे अपनी आराधना करवाते रहेंगे, तो उनकी महत्वाकांक्षा और इच्छा पूरी होती रहेगी। जहाँ तक परमेश्वर के घर के हितों या कलीसिया के कार्य या परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन प्रवेश को प्रभावित करने वाले मामलों की बात है, वे इन बातों की जरा भी परवाह नहीं करते। समस्याओं के उत्पन्न होने पर भी वे उन्हें देख नहीं पाते। वे ऐसी समस्याएँ नहीं देख पाते जैसे कि परमेश्वर के घर में कहाँ कर्मचारियों की उपयुक्त व्यवस्था नहीं है; या कहाँ परमेश्वर के घर की संपत्ति अनुचित रूप से आवंटित की गई है, और उसका काफी अंश नष्ट हो चुका है, और साथ ही किसने उसे बरबाद किया है; या कौन उनके कार्य में गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा कर रहा है; या कौन लोगों का अनुपयुक्त ढंग से उपयोग कर रहा है, या कौन अपने काम में लापरवाही दिखा रहा है—और ऐसी समस्याएँ सँभालना तो उनके लिए दूर की बात है। वे क्या सँभालते हैं? वे किन मामलों में दखल देते हैं? (तुच्छ मामलों में।) किस प्रकार के मामले तुच्छ मामले होते हैं? कुछ विवरण दो। (कुछ अगुआ खास भाई-बहनों के घरेलू मामलों का समाधान करने में लग जाते हैं—उदाहरण के लिए, उसके परिवार के किसी व्यक्ति की किसी और से नहीं बनती। ये बस दैनिक जीवन के मामले हैं।) यह ऐसी चीज है जो झूठे अगुआ करते हैं। और मसीह-विरोधी क्या करते हैं? (वे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश पर कोई ध्यान नहीं देते, न ही उन चीजों पर ध्यान देते हैं जो सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध होती हैं; वे सिर्फ उन चीजों पर ध्यान देते हैं जो उनके नाम और रुतबे को प्रभावित करती हैं—उदाहरण के लिए, लोगों का अपनी बात पर टिके न रहना, या कुछ लोगों का उन्हें नापसंद करना। वे ऐसी चीजें सँभालते हैं।) यह उसका एक अंश है। ऐसी चीजें होती हैं। मसीह-विरोधी यह देखने के लिए जाँच करते हैं कि किसकी मौजूदगी उनके लिए अवाँछित है, कौन उनके प्रति सम्मानपूर्ण नहीं है, और कौन उन्हें पहचान सकता है। वे ये चीजें देखते हैं और अपने मन में उनकी सूची बना लेते हैं; ऐसी चीजें उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण होती हैं। और क्या? (यदि किसी कलीसिया में चुना गया व्यक्ति उसे पहचानता है, और उसके साथ एकमत नहीं है, तो वह उस व्यक्ति की खामियाँ निकालने के तरीके खोजेगा, और उसे बदलवा देगा। वह ऐसे काम करना पसंद करता है।) भले ही बुरे काम करने वाले किसी व्यक्ति में जैसी भी खामियाँ या समस्याएँ हों, या वे जैसी भी गड़बड़ियाँ या बाधाएँ पैदा करें, मसीह-विरोधी उन पर कोई ध्यान नहीं देता—वह खास तौर पर अपना कर्तव्य निभाने वाले और सत्य का अनुसरण करने वाले लोगों में खामियाँ ढूँढ़ता है, और उन लोगों को बदलवाने के लिए औचित्य और बहाने तलाशता है। एक और भी तरीका है जिससे मसीह-विरोधियों का दूसरों पर नियंत्रण अभिव्यक्त होता है : साधारण भाई-बहनों को नियंत्रित करने के अलावा, वे कार्य के प्रत्येक पहलू के प्रभारी लोगों को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। वे हमेशा चाहते हैं कि संपूर्ण सत्ता उनकी पकड़ में रहे। इसलिए वे हर चीज के बारे में पूछताछ करते हैं; हर चीज पर नजर रखते हैं और सब कुछ देखते हैं, यह समझने के लिए लोग किस तरह काम करते हैं। वे लोगों के साथ सत्य सिद्धांतों पर बिल्कुल भी संगति नहीं करते, न ही लोगों को कार्य करने की स्वतंत्रता देते हैं। वे चाहते हैं कि सभी लोग उनके कहे अनुसार काम करें और उनके प्रति समर्पण करें। वे हमेशा डरते रहते हैं कि उनकी सत्ता बिखर जाएगी और दूसरे लोग उसे हथिया लेंगे। किसी मसले पर विचार-विमर्श करते समय, चाहे जितने भी लोग इस बारे में संगति करें, या उनकी संगति के जो भी परिणाम निकले, उनके पास पहुँचने पर वे सारे परिणामों को ठुकरा देंगे और विचार-विमर्श फिर से शुरू करना पड़ेगा। और इसका अंतिम परिणाम क्या होता है? चीजें तब तक पूरी नहीं होतीं जब तक सभी लोग उनकी बात पर ध्यान न दें, और यदि ऐसा न हुआ हो, तो उन्हें संगति करते रहना पड़ता है। यह संगति कभी-कभी आधी रात तक चलती है, और किसी को भी सोने की इजाजत नहीं मिलती; यह तब तक समाप्त नहीं होती जब तक दूसरे उनकी बात पर ध्यान नहीं देते हैं। यह ऐसी चीज है जो मसीह-विरोधी करते हैं। क्या ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि ऐसा करके मसीह-विरोधी कार्य की जिम्मेदारी ले रहा है? कार्य की जिम्मेदारी लेने और मसीह-विरोधियों की निरंकुशता के बीच क्या अंतर है? (यह इरादे का अंतर है।) जब लोग जमीर वाले और अपने कार्य के प्रति जिम्मेदार होते हैं, वे सत्य सिद्धांतों पर स्पष्टता से संगति करने के लिए ऐसा करते हैं, ताकि हर कोई सत्य को समझ सके। दूसरी ओर, मसीह-विरोधी सत्ता पर बने रहने के लिए, आधिपत्य स्थापित करने के लिए, और उन सभी नजरियों को काटने के लिए जो उनकी राय से भिन्न हों और जिनसे उनकी नाक कटती है, तानाशाहों की तरह कार्य करते हैं। क्या इन इरादों के बीच कोई अंतर नहीं है? (हाँ, है।) उनके बीच क्या अंतर है? क्या तुम लोग उसे पहचान सकते हो? लोगों को संगति के जरिए सत्य सिद्धांतों को समझने देना और सम्मान के लिए होड़ करना—इन दोनों के बीच क्या अंतर है? (इरादों का।) सिर्फ इरादे नहीं—बेशक इरादे अलग-अलग हैं। (इनमें से एक दृष्टिकोण परमेश्वर के घर को अधिक लाभ देगा।) इनमें से एक तरीका परमेश्वर के घर को अधिक लाभ पहुँचाना है और दूसरा अंतर है—परमेश्वर के घर के हितों पर विचार करना। वैसे मुख्य अंतर क्या है? जब कोई व्यक्ति सत्य पर सही मायनों में संगति कर रहा हो, तो उसे सुनने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह व्यक्तिगत औचित्य या बचाव करना नहीं है। उनकी पूरी संगति सभी को परमेश्वर के इरादों को समझाने के आशय से होती है, यह सब परमेश्वर के इरादों की गवाही होती है। ऐसी संगति सत्य सिद्धांतों को स्पष्ट कर देती है और इसे सुनने के बाद लोगों को आगे का मार्ग मिल जाता है—वे जान जाते हैं कि सिद्धांत क्या हैं, वे जान जाते हैं कि उन्हें भविष्य में क्या करना चाहिए, अपना कर्तव्य निभाने में उनके सिद्धांतों के विरुद्ध जाने की आशंका नहीं होगी, और उनके अभ्यास का लक्ष्य और अधिक सही होगा। ऐसी संगति लेशमात्र भी व्यक्तिगत औचित्य या बचाव से दूषित नहीं होती है। लेकिन ऐसे लोग कैसे उपदेश देते हैं, जो अपने पक्ष में चीजें मोड़ना चाहते हैं और दूसरों को अपने नियंत्रण में लाना पसंद करते हैं? वे किस बारे में उपदेश देते हैं? वे अपने आत्म-औचित्यों, अपने कृत्यों के पीछे के विचारों, इरादों और लक्ष्यों के बारे में उपदेश देते हैं, ताकि लोग इसे स्वीकार कर लें, अपनाएँ और उन्हें गलत न समझें। ये सब बस आत्म-औचित्य होता है; उसमें जरा भी सत्य नहीं होता। यदि तुम बारीकी से सुनोगे, तो सुनोगे कि उनकी संगति में बिल्कुल भी सत्य नहीं होता—सिर्फ इंसानी कहावतें, बहाने और औचित्य होते हैं। बस इतना ही होता है। और उनके बोलने के बाद क्या सभी लोग सिद्धांतों को समझ पाते हैं? नहीं—लेकिन वे वक्ता के इरादों को काफी हद तक समझ चुके होते हैं। यह मसीह-विरोधियों का तरीका होता है। इसी तरीके से वे लोगों को नियंत्रित करते हैं। जैसे ही उन्हें लगता है कि उनके रुतबे और प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचा है, और समूह में इन पर असर पड़ा है, तो जैसे भी हो सके वे उन्हें बचाने की कोशिश में तुरंत सभा बुला लेते हैं। और वे उन चीजों को कैसे बचाते हैं? बहाने बना कर, औचित्य जता कर, और यह बता कर कि वे उस वक्त क्या सोच रहे थे। ये बातें कहने के पीछे उनका लक्ष्य क्या होता है? हरेक के मन में जो तमाम गलतफहमियाँ हैँ, उन्हें दूर करना। यह ठीक बड़े लाल अजगर जैसा ही है : किसी को सताने और दंड देने के बाद वह उन्हें सही ठहराएगा और जो भी आरोप उन पर लगाए गए हैं, उन्हें हटा देगा। यह करने का लक्ष्य क्या है? (लीपापोती करना।) तुम्हारे साथ कुछ बुरा कर लेने के बाद वह तुम्हें निर्दोष ठहराता है, और उसकी भरपाई करता है, ताकि तुम सोचो कि आखिरकार बड़ा लाल अजगर वास्तव में अच्छा और भरोसेमंद है। इस प्रकार उसके शासन को कोई खतरा नहीं होता है। मसीह-विरोधी भी ऐसे ही होते हैं : उनकी कही हुई एक भी ऐसी बात नहीं होती या एक भी ऐसा काम नहीं होता जो उनकी अपनी खातिर नहीं होता; वे सत्य की खातिर कुछ भी नहीं कहते, परमेश्वर के घर के हितों की खातिर कुछ कहना और करना तो दूर की बात है। उनकी कथनी और करनी सब कुछ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए होती है। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम्हारा उन्हें मसीह-विरोधियों के रूप में परिभाषित करना अनुचित है, क्योंकि वे बहुत कठिन परिश्रम करते हैं, बड़ी मेहनत से अपना काम करते हैं, सुबह से शाम तक परमेश्वर के घर के लिए काम करते और दौड़ते-भागते हैं। कभी-कभी वे इतने व्यस्त होते हैं कि खाना भी नहीं खा पाते। उन्होंने बहुत कष्ट सहे हैं!” और वे किसके लिए कष्ट सहते हैं? (अपने लिए।) अपने लिए। यदि उनके पास कोई रुतबा न होता, तो क्या वे यही काम करते? वे अपनी खुद की प्रतिष्ठा और रुतबे के लिए इस तरह दौड़ते-भागते हैं—वे पुरस्कार के लिए यह करते हैं। यदि उन्हें पुरस्कार न मिलता, या उनकी कोई प्रसिद्धि, लाभ या रुतबा न होता, तो वे बहुत पहले ही पीछे हट गए होते। वे ये चीजें दूसरों के सामने करते हैं, और यह करते समय वे चाहते हैं कि परमेश्वर इस बारे में जाने और जो कुछ उन्होंने किया है उसके प्रकाश में परमेश्वर उन्हें उसका उचित पुरस्कार दे। अंततः वे जो चाहते हैं वह है पुरस्कार; वे सत्य हासिल नहीं करना चाहते। तुम्हें इस बिंदु को समझना चाहिए। जब उन्हें लगता है कि उन्होंने पर्याप्त पूँजी जमा कर ली है, जब उन्हें दूसरों के बीच बोलने का मौका मिलता है, तो उनकी बातों की विषयवस्तु क्या होती है? पहले तो वे अपने योगदान का दिखावा करते हैं—एक मनोवैज्ञानिक हमला। मनोवैज्ञानिक हमला क्या होता है? यह सभी को उनके दिलों की गहराई में जताना है कि उन्होंने परमेश्वर के घर की ओर से बहुत-से अच्छे काम किए हैं, योगदान किए हैं, जोखिम मोल लिए हैं, खतरनाक काम किए हैं, काफी भाग-दौड़ की है, और कम कष्ट नहीं सहे हैं—यह दूसरों के सामने अपनी साख पेश करना और अपनी पूँजी के बारे में बताना है। दूसरे, वे कुछ अवास्तविक सिद्धांतों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर और अनर्गल ढंग से बताते हैं, जिससे लोगों को लगता है कि वे इन सिद्धांतों को जानते हैं, हालाँकि वे नहीं जानते। ये सिद्धांत सुनने में अत्यंत गूढ़, रहस्यमय और अस्पष्ट लगते हैं, और जो लोगों को मसीह-विरोधियों की आराधना करने पर मजबूर कर देते हैं। फिर वे किसी ऐसी चीज के बारे में शानदार और भ्रमित करने वाले ढंग से बोलते हैं जो वे मानते हैं कि किसी ने पहले कभी नहीं समझा है—उदाहरण के लिए टेक्नॉलॉजी और बाहरी अंतरिक्ष, वित्त और लेखे, और समाज और राजनीति के मामले—और यहाँ तक कि अपराध लोक के मामले और धांधलियाँ। वे अपना निजी इतिहास बयान करते हैं। तो फिर यह क्या है? वे दिखावा कर रहे हैं? और दिखावा करने का उनका लक्ष्य मनोवैज्ञानिक हमला करना है। क्या तुम सबको लगता है कि वे बेवकूफ हैं? यदि उनकी कही इन बातों का लोगों पर कोई असर न होता, तो भी क्या वे यह कहते? नहीं कहते। इन्हें कहने के पीछे उनका एक लक्ष्य है : यह उनकी अपनी साख पेश करने, दिखावा करने, और शान दिखाने के लिए है।

इसके अलावा, मसीह-विरोधी अक्सर कौन-से तौर-तरीके अपनाते हैं? वे जहाँ भी जाते हैं, घर के मुखिया के तौर-तरीके अपनाते हैं—वे जहाँ भी जाते हैं, कहते हैं, “तुम लोग किस चीज पर काम कर रहे हो? कैसा चल रहा है? क्या कोई कठिनाई है? जल्दी करो और वे काम सँभालो जो तुम लोगों को सौंपे गए हैं! लापरवाही मत बरतो। परमेश्वर के घर का सारा काम महत्वपूर्ण है, और इसमें देर नहीं की जा सकती!” वे बस घर के मुखिया जैसे होते हैं, हमेशा अपने घर के लोगों के काम की निगरानी करते रहते हैं। इस बात के क्या मायने हैं कि वे किसी घर के मुखिया हैं? इसके मायने हैं कि उनके घर का कोई भी व्यक्ति गलती कर सकता है, या गलत मार्ग पर कदम रख सकता है, इसलिए उस पर उन्हें नजर रखने की जरूरत है; यदि वे न रखें तो कोई भी अपना कर्तव्य नहीं निभाएगा—सब के सब लड़खड़ा जाएँगे। मसीह-विरोधी मानते हैं कि बाकी सभी लोग बेवकूफ हैं, बच्चे हैं, और अगर वे उनको लेकर हो-हल्ला न मचाएँ, अगर वे उन्हें पल भर के लिए नजरों से ओझल होने दें, तो उनमें से कुछ लोग गलतियाँ करेंगे और गलत मार्ग पकड़ लेंगे। यह किस प्रकार की सोच है? क्या वे घर के मुखिया के तौर-तरीके नहीं अपना रहे हैं? (हाँ, अपना रहे हैं।) तो फिर क्या वे ठोस काम करते हैं? वे कभी नहीं करते; वे दूसरों के लिए सारे काम करने की व्यवस्था करते हैं, और खुद सिर्फ नौकरशाह और मालिक बनने पर ध्यान देते हैं, और जब दूसरों ने अपना काम कर लिया होता है, तो ऐसा होता है मानो उन्होंने खुद ही वह काम किया हो—सारा श्रेय उन्हीं को जाता है। वे बस अपने रुतबे के लाभों का आनंद लेते हैं; वे कभी ऐसा कुछ नहीं करते जो परमेश्वर के घर को लाभ पहुँचाता हो, और भले ही वे देखें कि कोई अपने कर्तव्य निर्वहन में लापरवाह है या उसने उसका परित्याग कर दिया है, कोई कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा कर रहा है, तो वे बस उससे प्रोत्साहन और तसल्ली के कुछ बोल बोलते हैं, लेकिन वे उसे कभी उजागर या प्रतिबंधित नहीं करते—वे कभी किसी को नाराज नहीं करते। यदि कोई उनकी बात न सुनना चाहे, तो वे कहेंगे, “तुम सबके बारे में चिंता करके मेरा दिल चूर-चूर हो गया है; मैं इतना बोल चुका हूँ कि मेरा मुँह सूख गया—मैं खुद को इतना ज्यादा थका चुका हूँ कि इससे मैं दो टुकड़े हो गया हूँ! तुम लोग मुझसे इतनी अधिक चिंता करवाते हो!” क्या उनके लिए यह कहना बेशर्मी नहीं है? क्या तुम लोगों को यह सुन कर घृणा नहीं होती? यह एक तरीका है जिससे लोगों को नियंत्रित करने की मसीह-विरोधियों की निरंतर इच्छा अभिव्यक्त होती है। ऐसे मसीह-विरोधी लोगों के साथ संगति कैसे करते हैं? उदाहरण के लिए, वे मुझसे कहते हैं, “मेरे नीचे वाले लोग वैसा नहीं करते जैसा उन्हें बताया जाता है। वे कलीसिया के कार्य को गंभीरता से नहीं लेते। वे लापरवाह हैं, और वे परमेश्वर के घर का पैसा अंधाधुंध खर्च करते हैं। वे लोग सचमुच जानवर हैं—कुत्तों से भी गए-गुजरे हैं!” यहाँ उनका लहजा क्या है? वे अपने आपको अपवाद की तरह रखते हैं; उनका अर्थ होता है, “मैं परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान रखता हूँ—वे नहीं रखते।” मसीह-विरोधी खुद को किस रूप में ले रहे हैं? एक “ब्रांड अम्बेसडर।” ब्रांड अम्बेसडर क्या होता है? कुछ देशों के ब्रांड अम्बेसडरों को लो—वे किस प्रकार के लोग होते हैं? वे अपने सौंदर्य के लिए चुने जाते हैं; वे बहुत खूबसूरत होते हैं, बढ़िया बोल सकते हैं, और सब प्रशिक्षण पा चुके हैं। परदे के पीछे, उन सबके लंबे-चौड़े, अमीर और सुंदर पुरुषों से, ऊँची श्रेणी के अधिकारियों और धनवान कारोबारियों से संबंध और लेन-देन होते हैं—इसीलिए वे ब्रांड अम्बेसडर हैं। ब्रांड अम्बेसडर बनने के लिए वे किस पर भरोसा करते हैं? क्या यह विशुद्ध रूप से उनका सुंदर रंग-रूप, छरहरा बदन और वाक्पटुता होती है? वे मुख्य रूप से परदे के पीछे के अपने संबंधों पर भरोसा करते हैं। क्या यह सब इसी तरह से नहीं चलता है? (हाँ।) हाँ, यह इसी तरह से चलता है। मसीह-विरोधी, जो हमेशा किसी अगुआ या घर के मुखिया के तौर-तरीके अपनाते हैं, हमेशा इन तौर-तरीकों, इस भंगिमा का उपयोग लोगों को गुमराह करने और उन्हें नियंत्रित करने के लिए करना चाहते हैं। क्या यह थोड़ा ब्रांड अम्बेसडर की शैली की तरह नहीं है? वे वहाँ पीठ के पीछे हाथ बांधे खड़े रहते हैं, और जब भाई-बहन सिर हिला कर उनके सामने सिर झुकाते हैं, तो वे कहते हैं, “खूब—बढ़िया काम करो!” ऐसा कहने वाले वे कौन होते हैं? उन्होंने खुद को किस पद पर नियुक्त कर लिया है? मैं जहाँ भी जाता हूँ, ऐसी बातें नहीं कहता—क्या तुम लोगों ने मुझे कभी भी ऐसी बात कहते हुए सुना है? (नहीं।) कभी-कभार मैं कहूँगा, “तुम लोगों को मन की शांति के साथ अपना कर्तव्य निभाने का जो यह अवसर मिला है वह आसानी से नहीं मिलता! तुम लोगों को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए और अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना चाहिए—बुरे काम करने और बाधाएँ पैदा करने की वजह से दूर न भेजे जाओ।” वैसे मैं किस कारण से ऐसा कह रहा हूँ? ईमानदारी से। लेकिन क्या कोई मसीह-विरोधी इस तरह सोचता है? वह ऐसा नहीं सोचता है, और वह इस तरह से कार्य नहीं करता। वह दूसरों को अच्छा काम करने को कहता है—क्या वह खुद ऐसा करता है? वह ऐसा नहीं करता। वह दूसरों से अच्छा काम करवाता है, उनसे जी-तोड़ मेहनत करवाता है, मजदूरी करवाता है, और अंत में वही सारा श्रेय ले जाता है। क्या तुम लोग अभी अपने कर्तव्य निभाते हुए मेरे लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हो? (नहीं।) तुम लोग मेरे लिए मजदूरी भी नहीं कर रहे हो; तुम लोग अपने कर्तव्य और दायित्व निभा रहे हो, और फिर परमेश्वर का घर तुम लोगों को पोषण देता है। क्या यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि मैं तुम लोगों का पोषण करता हूँ? (नहीं।) यह गलत वक्तव्य नहीं है, और असल में, चीजें सचमुच ऐसी ही हैं। लेकिन यदि तुम चाहो कि मैं ऐसा कहूँ, तो मैं नहीं कहूँगा—यह बात कभी मेरे होंठों पर नहीं आएगी। मैं बस इतना कहूँगा कि परमेश्वर का घर तुम लोगों का पोषण करता है : तुम लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य निभाते हो, और परमेश्वर तुम सबका पोषण करता है। तो फिर तुम लोग किसके लिए अपने कर्तव्य निभा रहे हो? (अपने लिए।) तुम लोग अपने ही कर्तव्य और दायित्व निभा रहे हो; सृजित प्राणियों के रूप में तुम्हें यह जिम्मेदारी पूरी करनी ही चाहिए। तुम लोग यह परमेश्वर की मौजूदगी में कर रहे हो। तुम लोगों को बिल्कुल नहीं कहना चाहिए कि तुम मेरे लिए काम कर रहे हो—मुझे इसकी जरूरत नहीं है। मेरे लिए किसी का काम करना जरूरी नहीं है; मैं अधीक्षक नहीं हूँ, न ही किसी कंपनी का अध्यक्ष। मैं तुम लोगों से पैसे नहीं बना रहा हूँ, और तुम लोग मेरा भोजन नहीं खा रहे हो। हम बस एक-दूसरे के साथ सहयोग कर रहे हैं। मैं तुम्हारे साथ उन सत्यों की संगति करता हूँ जिन पर मुझे तुम लोगों के साथ संगति करनी चाहिए ताकि तुम लोग उन्हें समझ सको और सही मार्ग पर कदम रख सको, और इसके साथ मेरे दिल को सुकून मिलता है—मेरी जिम्मेदारी और दायित्व पूर्णता तक क्रियान्वित हो चुके हैं। यह पारस्परिक सहयोग है, सभी लोग अपनी भूमिका निभा रहे हैं। यह इस बात से बहुत दूर है कि कौन किसका शोषण कर रहा है, कौन किसका इस्तेमाल कर रहा है, और कौन किसे खाना खिला रहा है। इस तरह मत करो—यह बेकार है, और इससे घृणा पैदा होती है। सचमुच अच्छे ढंग से काम करो, इस तरह कि सबको स्पष्ट नजर आए, और अंत में परमेश्वर के समक्ष अपना हिसाब चुकाने के लिए तुम सही जगह पर होगे। क्या मसीह-विरोधियों के पास ऐसी समझ होती है? नहीं। यदि वे थोड़ी जिम्मेदारी ले लें, थोड़ा योगदान कर दें, और कुछ काम कर दें, तो वे उस बारे में दिखावा करते हैं, इस तरह से कि वह बिल्कुल घिनौना लगता है—यहाँ तक कि वे ब्रांड अम्बेसडर भी बनना चाहते हैं। यदि तुम ब्रांड अम्बेसडर बनने की कोशिश न करो, और कुछ वास्तविक कार्य करने में जुट जाओ, तो सबके मन में तुम्हारे लिए थोड़ा सम्मान होगा। यदि तुम ब्रांड अम्बेसडर की भंगिमा अपना लेते हो, मगर कोई ठोस काम नहीं कर पाते, और ऐसा करते हो कि ऊपर वाले को सभी कामों के लिए खुद चिंता करनी पड़े और स्वयं निर्देश देने पड़ें, और तुम्हारी निगरानी कर, तुम्हें मार्गदर्शन दे कर काम की जाँच करनी पड़े, और ऊपर वाले को काम का हर पहलू खुद करना पड़े, और फिर भी तुम खुद को सक्षम मानते हो, कि तुम ज्यादा कुशल हो गए हो और सोचते हो कि तुम्हीं ने सब-कुछ किया है—तो क्या यह बेशर्मी नहीं है? मसीह-विरोधी ऐसा करने में काबिल होते हैं। वे परमेश्वर की गरिमा लूट लेते हैं। जब सामान्य लोग कुछ चीजों का अनुभव कर लेते हैं, तो वे सत्य को थोड़ा समझ पाते हैं, और समझ सकते हैं कि, “मेरी काबिलियत बहुत खराब है—मैं कुछ भी नहीं हूँ। ऊपर वाला मेरी चिंता और निगरानी न करे, मेरी मदद के लिए मेरा हाथ न पकड़े, तो उसके बिना मैं कुछ भी नहीं कर पाऊँगा। मैं बस एक पुतला हूँ। मैं अब खुद को थोड़ा जान गया हूँ। मैं अपनी छोटी-सी औकात जानता हूँ। मुझे कोई शिकायत नहीं होगी यदि ऊपर वाला भविष्य में फिर से मेरी काट-छाँट करता है। मैं बस समर्पण कर दूँगा।” अपनी छोटी-सी औकात के बारे में जानते हुए तुम वह काम अच्छे बर्ताव के साथ करोगे जो तुम्हें करना चाहिए और तुम्हारे पैर जमीन पर रहेंगे। ऊपर वाला तुम्हें जो भी काम सौंपे, वह तुम पूरे मन से और पूरी शक्ति लगा कर अच्छे ढंग से करोगे। क्या मसीह-विरोधी ऐसा करते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं करते—वे परमेश्वर के घर के हितों का या परमेश्वर के घर के कार्य का ध्यान नहीं रखते। परमेश्वर के घर का सर्वोच्च हित क्या है? क्या यह कलीसिया की संपत्ति है? क्या यह परमेश्वर को चढ़ाई गई भेंटें हैं? नहीं। तो फिर वह क्या है? प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य निर्वहन कार्य के किस पहलू के चारों ओर घूमता है? सुसमाचार को फैलाना और परमेश्वर की गवाही देना, ताकि संपूर्ण मानव जाति परमेश्वर को समझे और उसके पास लौट जाए। यही परमेश्वर के घर का सर्वोच्च हित है। और यह सर्वोच्च हित नीचे की ओर शाखाएँ बनाता है, प्रत्येक समूह और कार्य के प्रत्येक पहलू में विभाजित होता है, और फिर और अधिक बारीकी से विभाजित हो कर प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले विभिन्न कर्तव्यों तक पहुँचता है। यही परमेश्वर के घर का हित है। क्या तुम लोगों ने पहले इसे समझा था? नहीं, तुमने नहीं समझा था! जब मैं परमेश्वर के घर के हितों की बात करता हूँ, तो तुम लोग सोचते हो कि यह पैसा, मकान और कारें हैं। ये किस प्रकार के हित हैं? क्या ये सिर्फ कुछ भौतिक चीजें नहीं हैं? तो फिर क्या कुछ लोग कहेंगे, “यह देख कर कि ये घर के हित नहीं हैं, चलो उन्हें जैसे चाहें बरबाद कर दें?” क्या यह सही है? (नहीं।) बिल्कुल नहीं! भेंटें बरबाद करना महा पाप है।

लोगों को नियंत्रित करने की अपनी इच्छा और महत्वाकांक्षा के अलावा मसीह-विरोधियों को किस बात में रुचि होती है? वास्तव में किसी चीज में नहीं। उन्हें किसी भी दूसरी चीज में ज्यादा रुचि नहीं होती। क्या प्रत्येक व्यक्ति उचित कर्तव्य कर रहा है, क्या उपयुक्त ढंग से कर्मचारियों की व्यवस्था की गई है, क्या ऐसा कोई है जो कलीसिया के कार्य में गड़बड़ी और बाधा पैदा कर रहा है, क्या कलीसिया के कार्य के प्रत्येक पहलू में सुगमता से प्रगति हो रही है, कार्य के किस अनुभाग में समस्या है, कौन-सा अनुभाग अभी भी कमजोर है, किस अनुभाग के बारे में अभी सोच-विचार नहीं किया गया है, कहाँ उचित ढंग से कार्य नहीं किया जा रहा है—मसीह-विरोधी खुद को ऐसी किसी चीज में शामिल नहीं करते, न ही वे उस बारे में पूछताछ करते हैं। वे उनके बारे में कभी परवाह नहीं करते; वे कभी यह ठोस कार्य नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, अनुवाद कार्य, वीडियो संपादन कार्य, फिल्म निर्माण कार्य, पाठ-आधारित कार्य, सुसमाचार फैलाने का कार्य, आदि-आदि—वे कार्य के किसी भी पहलू की मेहनत से जाँच नहीं करते। जब तक कोई चीज उनकी प्रसिद्धि, लाभ या रुतबे को प्रभावित नहीं करती, तो जैसे इसका उनसे कुछ भी लेना-देना नहीं होता। तो वह एकमात्र चीज कौन-सी है जो वे करते हैं? वे बस कुछ सामान्य मामले सँभालते हैं—सतही कार्य जिस पर लोग ध्यान देते हैं और जिसे देखते हैं। वे उसे पूरा कर लेते हैं और फिर उसे अपनी योग्यता के रूप में पेश करते हैं, और फिर वे अपने रुतबे के लाभों का आनंद लेना शुरू कर देते हैं। क्या मसीह-विरोधी परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन-प्रवेश की परवाह करते हैं? नहीं; वे परवाह करते हैं तो सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा और रुतबे की, उन मामलों की परवाह करते हैं जिनमें वे सबसे अलग दिख सकें, और लोगों से अपना सम्मान और आराधना करा सकें। इसलिए कलीसिया के कार्य में चाहे कोई भी समस्या आए, वे न तो उससे कोई सरोकार रखते हैं, न ही उसके बारे में पूछते हैं; समस्या चाहे जितनी भी गंभीर हो, चाहे इससे परमेश्वर के घर के हितों को जितना भी नुकसान हो, उन्हें नहीं लगता कि यह एक समस्या है। मुझे बताओ, क्या उनमें दिल होता भी है? क्या वे लोग वफादार होते हैं? क्या वे ऐसे लोग हैं जो सत्य से प्रेम कर उसे स्वीकारते हैं? इन चीजों के पीछे प्रश्नचिह्न लगाने चाहिए। अच्छा, वे दिन भर क्या करते होंगे कि कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त कर दें? यह चीज ये दिखाने के लिए काफी है कि वे परमेश्वर के इरादों के प्रति लेशमात्र भी विचारशील नहीं हैं। वे वह अनिवार्य कार्य नहीं करते जो परमेश्वर ने उन्हें सौंपा है, बल्कि खुद को पूरी तरह से सतही, सामान्य मामलों में व्यस्त रखते हैं, ताकि वे दूसरे लोगों को काम करते हुए-से दिखें; बाहर से वे एक कर्तव्य करने में व्यस्त हैं, लोगों को यह दिखाने के लिए कि उनमें जोश और आस्था है। यह कुछ लोगों की आँखों में धूल झोंकना होता है। लेकिन वे कलीसिया के आवश्यक कार्य का एक पहलू भी नहीं करते—वे सिंचन और सत्य प्रदान करने का जरा-सा भी कार्य नहीं करते। वे समस्याएँ सुलझाने के लिए सत्य का कभी उपयोग नहीं करते हैं; वे सिर्फ कुछ सामान्य मामले सँभालते हैं, और थोड़ा-सा काम करते हैं जो उन्हें अच्छा दिखाता है। कलीसिया के आवश्यक कार्य को लेकर वे बस लापरवाह और गैर-जिम्मेदार होते हैं—उन्हें जिम्मेदारी का न्यूनतम भान भी नहीं होता। चाहे जितनी भी समस्याएँ खड़ी हो जाएँ, वे उन्हें सुलझाने के लिए कभी भी सत्य को नहीं खोजते, और वे अपने कर्तव्यों में सिर्फ खानापूर्ति करते हैं। कुछ सतही, सामान्य मामले सँभालने के बाद वे सोचते हैं कि उन्होंने वास्तविक कार्य किया है। अपने कर्तव्य निभाते समय मसीह-विरोधी बुरे कार्य करते हैं और मनमाने और तानाशाही ढंग से कार्य करते हुए पागलों की तरह उत्पात मचाते हैं। वे कलीसिया के कार्य को बिल्कुल बेतरतीब और पूरी तरह अव्यवस्थित कर देते हैं। कार्य का एक भी पहलू पर्याप्त मानक स्तर तक और गलती के बिना नहीं किया जाता; कार्य का कोई भी पहलू ऊपर वाले के हस्तक्षेप, उसकी पूछताछ और निगरानी के बिना अच्छे ढंग से नहीं किया जाता। और फिर भी कुछ ऐसे होते हैं जो बदल दिए जाने के बाद शिकायतों और अवज्ञा से भर जाते हैं; वे अपनी ओर से कपटपूर्ण दलीलें देते हैं, और ऊपरी स्तर के अगुआओं और कार्यकर्ताओं पर जिम्मेदारी डाल देते हैं। क्या यह पूरी तरह से अनुचित नहीं है? सत्य के प्रति किसी व्यक्ति का सच्चा रवैया तब नहीं दिख सकता जब कुछ न घटा हो, लेकिन जब उनकी काट-छाँट कर उन्हें बदल दिया जाता है, तो सत्य के प्रति उनका सच्चा रवैया प्रकट हो जाता है। जो लोग सत्य को स्वीकारते हैं, वे किसी भी परिस्थिति में ऐसा करने में सक्षम होते हैं। गलत होने पर वे अपनी गलती मान सकते हैं; वे तथ्यों का सामना कर सत्य को स्वीकार कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे यह नहीं मानेंगे कि वे गलत हैं, भले ही उनकी गलती उजागर हो चुकी हो; यह स्वीकार करना तो दूर की बात है कि परमेश्वर का घर उन्हें सँभालेगा—और उनमें से कुछ लोग औचित्य के रूप में किस बात का उपयोग करेंगे? “मैं अच्छा करना चाहता था—बस मैंने नहीं किया। खराब ढंग से करने के लिए मुझे अब दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मेरा इरादा सही था, मैंने कष्ट सहे और कीमत चुकाई, और मैंने खुद को खपाया—कोई काम अच्छे ढंग से न करना बुराई करने जैसा नहीं है!” इस औचित्य, इस बहाने का उपयोग करना, परमेश्वर के घर द्वारा सँभाले जाने से इनकार करना—क्या यह उचित है? कोई व्यक्ति चाहे जो भी औचित्य या बहाने पेश करे, वह सत्य और परमेश्वर के प्रति अपना रवैया छिपा नहीं सकता है। इसका संबंध उसके प्रकृति सार से होता है, और यह सर्वाधिक प्रतीकात्मक चीज है। कोई चीज घटी हो या नहीं, सत्य के प्रति तुम्हारा रवैया तुम्हारा प्रकृति सार दर्शाता है। यह परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया है। तुम परमेश्वर के साथ कैसा व्यवहार करते हो यह सिर्फ यह देख कर जाना जा सकता है कि तुम सत्य के साथ कैसा व्यवहार करते हो।

लोगों को नियंत्रित करने के मसीह-विरोधियों के व्यवहार के बारे में अपनी चर्चा के दौरान अभी हमने क्या बात की? (मसीह-विरोधी केवल लोगों को नियंत्रित करने में रुचि रखते हैं।) बिल्कुल सही। जो लोग खास तौर पर अहंकारी होते हैं, और रुतबे से विशेष प्रेम करते हैं, उन्हें लोगों को नियंत्रित करने में काफी “रुचि” होती है। यह “रुचि” सकारात्मक नहीं होती—यह एक इच्छा और महत्वाकांक्षा है, यह नकारात्मक होती है, और यह निंदापूर्ण होती है। उन्हें लोगों को नियंत्रित करने में रुचि क्यों होती है? एक वस्तुपरक परिप्रेक्ष्य में, यह उनकी प्रकृति है, लेकिन एक और भी कारण है : जो लोग दूसरों को नियंत्रित करते हैं, उनमें रुतबे, प्रसिद्धि, लाभ, गुमान और सत्ता के लिए विशेष जूनून और लगाव होता है। क्या मैं इसे इस तरह कह सकता हूँ? (जरूर।) और क्या यह विशेष जूनून और लगाव शैतान के जैसा नहीं है? क्या यह शैतान का सार नहीं है? शैतान दिन भर सोच-विचार करता है कि लोगों को कैसे गुमराह और नियंत्रित करे; हर दिन वह लोगों में भ्रांतिपूर्ण विचार और दृष्टिकोण बैठाता है, चाहे निरंतर प्रयासों से मन में बिठाने या शिक्षा के जरिए, या पारंपरिक संस्कृति के जरिए, विज्ञान के जरिए, ऊँचे ज्ञान और सीखों से—और वह लोगों में जितना ये चीजें बैठाता है, वे उसकी उतनी ही आराधना करते हैं। लोगों के मन में ये चीजें बैठाने के पीछे शैतान का लक्ष्य क्या होता है? एक बार उसके ऐसा करने के बाद लोग उसके विचारों से युक्त हो जाते हैं; उसके फलसफों और जीवन जीने के तरीकों से युक्त हो जाते हैं। यह लोगों के दिलों में शैतान के जड़ें जमाने के बराबर होता है। वे शैतान के अनुसार जीते हैं और उनका जीवन शैतान का जीवन होता है—यह दानवों का जीवन है। क्या ऐसा नहीं है? क्या यही मसीह-विरोधियों की लोगों को नियंत्रित करने की प्रकृति नहीं है? वे हर किसी को अपने जैसे लोग बना देना चाहते हैं; वे चाहते हैं कि सभी लोग उनके लिए जिएँ, उनके अधीन हों, और उनके लिए काम करें। और सब-कुछ उनके नियंत्रण में ही हो : लोगों की सोच और बोली, उनके बोलने की शैली, विचार और दृष्टिकोण, उनके कार्य करने का परिप्रेक्ष्य और रवैया, यहाँ तक कि परमेश्वर के प्रति उनका रवैया, उनकी आस्था, और कर्तव्य निभाने की उनकी इच्छा और आकांक्षा—यह सब उनके नियंत्रण में होने चाहिए। यह नियंत्रण कितना गहरा होता है? वे पहले लोगों को मतारोपित कर उन्हें अपने विचारों में ढालते हैं, और फिर वे सभी लोगों से वही चीजें करवाते हैं जो वे खुद करते हैं। वे “गॉडफादर” बन जाते हैं। लोगों को ऐसा बनाने के लिए मसीह-विरोधी कई तरीके इस्तेमाल करते हैं : गुमराह करना, उनके मन में अपने विचार बैठाना, भयभीत करना, और क्या? (मनोवैज्ञानिक हमले।) यह गुमराह करने का हिस्सा है। और क्या? (जबरदस्ती करना और लोगों को खरीद लेना।) वे लोगों को कैसे खरीदते हैं? कुछ लोग परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य करते समय बुरे काम करते हुए पागलों की तरह उत्पात मचाते हैं। क्या मसीह-विरोधी इसे स्पष्ट रूप में समझ सकते हैं? यह उन्हें स्पष्ट दिखाई देता है। तो फिर क्या वे इससे निपटते हैं? वे इससे नहीं निपटते। और वे इससे क्यों नहीं निपटते? वे इस मामले का उपयोग लोगों को खरीदने के लिए करना चाहते हैं; वे उनसे कहते हैं, “तुमसे न निपटना तुम पर मेरा उपकार है। तुम्हें मुझे धन्यवाद देना चाहिए। मैंने तुम्हें एक बुरा काम करते देखा, लेकिन मैंने तुम्हारी शिकायत नहीं की, और मैं तुमसे नहीं निपटा। मैंने तुम्हारे साथ नरमी दिखाई। क्या अब तुम आगे मेरे प्रति आभार जताने के ऋणी नहीं हो?” ये लोग फिर उनके प्रति आभारी हो जाते हैं और उन्हें अपना हितकारी मानने लगते हैं। फिर मसीह-विरोधी और वे लोग बस एक ही बाड़े में लोटने वाले सूअरों की तरह हो जाते हैं। सत्ता में होने पर मसीह-विरोधी ऐसे लोगों को खरीद सकते हैं : जो लोग बुराई करते हैं, जो परमेश्वर के घर के हितों को हानि पहुँचाते हैं, जो अकेले में परमेश्वर की आलोचना करते हैं, और जो अकेले में परमेश्वर के घर के कार्य को नुकसान पहुँचाते हैं। मसीह-विरोधी इस तरह के बुरे लोगों के गिरोह की रक्षा करते हैं। क्या यह एक प्रकार का नियंत्रण नहीं है? (बिल्कुल है।) तथ्य यह है कि मसीह-विरोधी अपने दिल की गहराई में जानते हैं कि ये लोग वे नहीं हैं जो परमेश्वर के घर के हितों को सुरक्षित रखते हैं। वे सब यह जानते हैं—एक परोक्ष समझ होती है—और इसलिए वे आपस में घनिष्ठता से काम करते हैं। “हम एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। तुम परमेश्वर के घर के हितों का ध्यान नहीं रखते। तुम परमेश्वर को मूर्ख बनाते हो, और मैं भी; तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते, मैं भी नहीं करता।” मसीह-विरोधी ऐसे लोगों को खरीद लेते हैं। क्या यह उन्हें खरीद लेना नहीं है? (बिल्कुल है।) परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचने देने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती। परमेश्वर के घर के हितों की कीमत पर वे हिंसक होकर बुरे काम करने और परमेश्वर के घर में मुफ्त का खाने वाले इन लोगों को माफ कर देते हैं। यह ऐसा है मानो वे इन लोगों का पोषण कर रहे हों, और ये लोग अनजाने ही उनके कृतज्ञ हों। जब परमेश्वर के घर के लिए इन बुरे लोगों से निपटने का वक्त आता है, तो वे मसीह-विरोधियों को किस दृष्टि से देखते हैं? वे स्वयं से कहते हैं, “अरे नहीं। वे पहले ही बर्खास्त किए जा चुके हैं। अगर वे नहीं किए गए होते, तो हम कुछ ज्यादा समय तक मजे ले सकते थे—उनके कवच के साथ मुझसे कोई नहीं निपट सकता था।” वे अभी भी मसीह-विरोधियों से इतना अधिक जुड़ाव महसूस करते हैं! यह स्पष्ट है कि वे तमाम चीजें जो मसीह-विरोधी करते हैं, गड़बड़ियाँ और बाधाएँ हैं, ऐसी चीजें जो लोगों को गुमराह करती हैं, और परमेश्वर का विरोध करने वाले बुरे कर्म हैं। और कोई भी व्यक्ति जो सत्य से प्रेम नहीं करता, वह इन बुरे कर्मों से नफरत नहीं करेगा, और वह इन्हें छिपाएगा भी। उदाहरण के लिए, एक अगुआ था जो मसीह-विरोधियों की रक्षा करता था। ऊपरवाले ने उससे पूछा कि क्या कलीसिया में कोई गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा कर रहा है, या बुराई करते हुए हिंसक व्यवहार कर रहा है, या क्या कोई मसीह-विरोधी है जो लोगों को गुमराह कर रहा है। अगुआ ने कहा, “ठीक है, मैं पता लगाता हूँ। चलो, तुम्हारे लिए पता करूँगा।” क्या यह उसके काम का हिस्सा नहीं था? इस लहजे से—“चलो, तुम्हारे लिए पता करूँगा”—उसने ऊपरवाले से बात की, और फिर बाद में उन्हें इस बारे में कुछ नहीं पता चला। उसने पता नहीं लगाया था—वह उन लोगों को नाराज नहीं करना चाहता था! और जब ऊपरवाले ने दोबारा पूछा, “क्या तुमने पता लगाया?” तो उसने कहा, “मैंने पता लगाया—ऐसा कोई भी नहीं है।” क्या यह सच था? वह सबसे बड़ा मसीह-विरोधी था, कलीसिया के कार्य को बाधित करने वाला, और परमेश्वर के घर के हितों को हानि पहुँचाने वाला मुख्य अपराधी। वह स्वयं एक मसीह-विरोधी था—उसके लिए पता लगाने को क्या था? उसके वहाँ होते हुए, उसके नीचे के लोगों ने जो भी बुरी चीजें की हों, जो भी गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा की हों, कोई भी इन चीजों का पता नहीं लगा सकता था। उसने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया था। नतीजतन, ऐसी परिस्थितियों में क्या उसने अपने नीचे के लोगों को परमेश्वर से अलग नहीं कर दिया था? उसने किया था। और जब वे लोग उसके द्वारा परमेश्वर से अलग कर दिए गए तो उन्होंने किसकी बातें सुनीं? क्या उन्होंने उसकी बातें नहीं सुनीं? और इसलिए वह कस्बे का दादा, डाकू अगुआ, स्थानीय गुंडा-मवाली बन गया—उसने उन लोगों को अपने नियंत्रण में कर लिया। उसने कौन-से तरीकों का उपयोग किया था? उसने ऊपरवाले से चालबाजी की, और अपने नीचे वालों को धोखा दिया। अपने नीचे वाले लोगों को खरीद कर उनसे मीठे बोल बोले, और ऊपरवाले से उसने चालबाजी की—उसने ऊपरवाले को जानने नहीं दिया कि नीचे क्या चल रहा है। उसने उस बारे में ऊपरवाले को कुछ नहीं बताया, और एक मुखौटा लगा लिया। उसने कौन-सा मुखौटा लगाया? उसने ऊपरवाले से कहा, “हमारी कलीसिया में ऐसा कोई इंसान है जिसके बारे में सभी भाई-बहन शिकायत करते हैं कि उसमें मानवता की कमी है, वह अत्यधिक दुर्भावनापूर्ण है, और कोई भी कर्तव्य करने लायक नहीं है। आपका क्या कहना है—क्या मैं उसे निपटूं?” उसकी बात से, उसकी अभिव्यक्तियों से यह स्पष्ट था कि वह एक बुरी महिला थी जिससे निपटा जाना चाहिए। इसलिए ऊपरवाले ने कहा, “उस स्थिति में तुम उससे निपट सकते हो। क्या तुम लोग उससे निपट चुके हो?” उसने कहा, “पिछले महीने हम उससे निपटने के बाद उसे बाहर निकाल चुके हैं।” क्या तथ्य वही थे जो उसने कहे? और अधिक सवाल-जवाब के बाद पता चला कि सच में क्या चल रहा था? उस महिला की इससे नहीं बनती थी। और उनके बीच न बनने की एक वजह थी : यह अगुआ वास्तविक कार्य नहीं करता था, और वह हमेशा भाई-बहनों के बीच गिरोह और गुट बनाता रहता था—वह मसीह-विरोधी की अभिव्यक्तियाँ प्रदर्शित करता था, और उस महिला को इसकी पहचान थी और उसने उन समस्याओं की शिकायत कर उसे उजागर किया था। जैसे ही उस महिला ने वह रिपोर्ट तैयार की, अगुआ के सहयोगी मातहतों को उसके बारे में पता चल गया, और फिर परिणामस्वरूप उसने उसे दंड दिया और बाहर निकाल दिया। इस मसीह-विरोधी ने अपने नीचे वाले सभी लोगों से उस महिला के विरुद्ध खड़े होकर उसे ठुकराने में उसका साथ देने का जबरदस्त काम किया, और अंततः उसने उस महिला से निपट कर उसे बाहर निकाल दिया, और फिर यह “अच्छी खबर” ऊपरवाले को दी। वास्तव में ऐसा कुछ हो ही नहीं रहा था। क्या कलीसिया में ऐसी चीजें होती हैं? बिल्कुल होती हैं। ये मसीह-विरोधी भाई-बहनों का दमन करते हैं; वे उन्हें दबाते हैं जो उन्हें पहचान सकते हैं, और उनकी समस्याओं की शिकायत कर सकते हैं, और साथ ही जो उनके प्रकृति सार की असलियत को समझ सकते हैं। वे पीड़ितों के विरुद्ध शिकायत भी पहले दर्ज करते हैं, और ऊपरवाले को सूचित भी करते हैं कि ये ही वे लोग हैं जो बाधा पैदा कर रहे हैं। वास्तव में कौन बाधा पैदा कर रहा होता है? ये मसीह-विरोधी ही हैं जो कलीसिया को बाधित और नियंत्रित कर रहे हैं।

लोगों से अपने प्रति समर्पण करवाने के लिए मसीह-विरोधी कौन-सी तकनीकें उपयोग करते हैं? ऐसी ही एक तकनीक है तुम लोगों को नियंत्रित करने के विभिन्न साधनों का उपयोग करना—तुम्हारे विचारों, तरीकों, तुम्हारे चलने के मार्ग, और यहाँ तक कि अपने पास मौजूद सत्ता के जरिए तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले कर्तव्य को नियंत्रित करना। यदि तुम उनके करीब हो जाओ, तो वे तुम्हें एक आसान कर्तव्य दे देंगे जिससे तुम दूसरों से अलग दिखोगे; यदि तुम हमेशा उनकी अवज्ञा करते हो, हमेशा उनकी खामियाँ बताते हो, और उनकी भ्रष्टता की समस्या को उजागर करते हो, तो वे तुम्हारे लिए ऐसे काम की व्यवस्था करेंगे जो लोगों को पसंद नहीं होते—उदाहरण के लिए कुछ गंदा और थकाऊ काम करने के लिए किसी युवा बहन को लगा देना। वे उस व्यक्ति के लिए आसान और साफ-सुथरे कामों की व्यवस्था करते हैं, जो उनके करीब होता है, उनकी चापलूसी करता है, और हमेशा वो बातें कहता है जो वे सुनना चाहते हैं। मसीह-विरोधी लोगों से इसी तरह व्यवहार करते हैं, और उन्हें नियंत्रित करते हैं। यानी, कर्मचारियों की नियुक्ति और तबादलों की सामर्थ्य की बात आने पर कौन क्या काम करता है, यह सब उनके हाथ में होता है, इस पर उनका ही एकल नियंत्रण होता है। क्या यह महज एक प्रकार की महत्वाकांक्षा और इच्छा है? नहीं, बिल्कुल नहीं है। क्या यह मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों के मद आठ से ठीक-ठीक मेल नहीं खाता है : “वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं”? इस “वे दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं” का संदर्भ किससे है? इस अभिव्यक्ति में गलत क्या है? यह किस तरह से गलत है? बात यह है कि उन्होंने लोगों से जिसके प्रति समर्पण करवाया है, वह पूरी तरह सत्य के विरुद्ध है। यह सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं है। यह पूरी तरह से परमेश्वर के घर के हितों और परमेश्वर के इरादों के विरुद्ध है; इसका जरा-सा भी अंश परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा नहीं करता, और इसका जरा-सा भी अंश सत्य के अनुसार नहीं है। उन्होंने लोगों से जिनके प्रति समर्पण करवाया है, वे पूरी तरह से उनकी महत्वाकांक्षाएँ, इच्छाएँ, प्राथमिकताएँ, हित और धारणाएँ हैं। क्या यह समस्या का सार नहीं है? यह एक तरीका है जिससे मसीह-विरोधी का सार अभिव्यक्त होता है। क्या यह मामले की जड़ तक नहीं पहुँचता है? इस तरीके को पहचानना जिससे मसीह-विरोधी कार्य करते हैं, आसान होना चाहिए। ऐसे कुछ अगुआ और कार्यकर्ता होते हैं जो सही और सच्ची सोच पेश करते हैं, और हालाँकि कुछ लोगों को विश्वास नहीं होता और वे उसे स्वीकार नहीं कर पाते, ये अगुआ उन सही विचारों को क्रियान्वित करने और उन्हें अभ्यास में लाने में जुटे रहते हैं। इस व्यवहार और मसीह-विरोधियों के व्यवहार में क्या अंतर है? ये दोनों सतह पर तो एक समान लगते हैं, लेकिन उनके सार में अंतर होता है। मसीह-विरोधी जो करते हैं वह जानबूझ कर सत्य और परमेश्वर के घर के कार्य सिद्धांतों के विरुद्ध जाना है, परमेश्वर के घर के लिए कर्तव्य करने और सत्य के प्रति समर्पण करने की आड़ में लोगों से वह काम करवाना है जो वे कहते हैं। यह गलत है—भयानक और बेतुके तौर पर गलत। कुछ अगुआओं और कार्यकर्ताओं के विचार सही होते हैं। जो बात सत्य सिद्धांतों के अनुसार हो उसका बनाए रखना चाहिए; यह अहंकार और आत्मतुष्टि नहीं है, न ही यह लोगों को बेबस करना है—यह सत्य को बनाए रखना है। ये दोनों व्यवहार बाहर से एक जैसे लगते हैं, लेकिन उनके सार भिन्न हैं : एक सत्य सिद्धांतों को बनाए रखना है, और दूसरा गलत नजरियों को बनाए रखना है। मसीह-विरोधी जो भी करते हैं वह पूरी तरह से सत्य का उल्लंघन है, उसके साथ शत्रुता है, और पूरी तरह से उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं से अभिप्रेरित है—इसीलिए मसीह-विरोधी लोगों से सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं, बल्कि केवल अपने प्रति समर्पण करवाते हैं। यही इस मद का निचोड़ है। अभी हमने जिस बारे में चर्चा की वह एक स्थापित तथ्य है। यहाँ इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं का संदर्भ किससे है? इनका संदर्भ उन कुछ लोगों से है जो वे जाहिर चीजें नहीं करते जो एक मसीह-विरोधी करेगा, फिर भी उनमें ये प्रवृत्तियाँ होती हैं। उनमें ये प्रवृत्तियाँ और अभिव्यक्तियाँ होती हैं, यानी उनमें ये इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ होती हैं। वे जिस भी समूह में होते हैं, हमेशा लोगों पर एक अधिकारी की तरह हुक्म चलाना चाहते हैं : “तुम जा कर खाना बनाओ!” “तुम जा कर अमुक को सूचित करो!” “अपने कर्तव्य में कड़ी मेहनत करो, और ज्यादा वफादारी रखो—परमेश्वर देख रहा है!” क्या उन्हें ऐसा कहने की जरूरत है? यह कैसा लहजा है? हमेशा एक प्रभु और मालिक की तरह पेश आने वाले वे कौन हैं? वे कुछ भी नहीं हैं, फिर भी वे ऐसी बातें कहने की हिम्मत करते हैं—क्या इसमें विवेक का अभाव नहीं दिखता? कुछ लोग कह सकते हैं, “वे लोग बेवकूफ हैं।” लेकिन वे कोई साधारण बेवकूफ लोग नहीं हैं—वे विशेष लोग हैं। विशेष कैसे? जब वे किसी मामले पर किसी के साथ बहस करते हैं या विचार-विमर्श करते हैं, तो चाहे वे सही हों या गलत, उन्हें ही अंततः विजयी होना है; वे सही हों या गलत, उन्हीं का फैसला चलेगा, उन्हीं की बात चलेगी और निर्णय वही लेंगे। उनका रुतबा चाहे जो हो, फैसले वे ही लेना चाहते हैं। यदि सही राय व्यक्त कर कोई दूसरा व्यक्ति विजयी हो जाता है, तो वे नाराज हो जाते हैं; वे अपना पद छोड़ कर काम बंद कर देते हैं—वे यह कह कर छोड़ देते हैं : “तुम लोग जो चाहे कह सकते हो—वैसे भी तुम लोग मेरा कहा करते ही कहाँ हो!” क्या उनमें वह महत्वाकांक्षा और इच्छा नहीं है? ऐसे लोगों के प्रभु और मालिक होने, प्रभारी होने और अगुआ बन जाने के नतीजे क्या होते हैं? वे मानक मसीह-विरोधी बन जाते हैं। क्या तुम लोगों में ऐसी अभिव्यक्तियाँ हैं? यह अच्छी बात नहीं होगी! क्या यह एक महा विपत्ति नहीं होगी कि परमेश्वर का कोई विश्वासी सत्य हासिल करने के बजाय मसीह-विरोधी बन जाए?

गैर-विश्वासी लोगों को किस दृष्टि से देखते हैं? जब वे किसी व्यक्ति से मिलते हैं, तो वे पहले उसके रंग-रूप और पोशाक पर गौर करते हैं; जब वे दूसरों को बोलते हुए सुनते हैं, तो हमेशा यह देखना चाहते हैं कि क्या उन्हें ज्ञान है। यदि वे पाते हैं कि तुम्हारा रंग-रूप और पोशाक कोई खास देखने लायक नहीं हैं, और तुम कोई बढ़िया शिक्षा-प्राप्त या जानकार नहीं हो, तो वे तुम्हारा उपहास करते हैं, और तुम्हारे साथ बात करते समय वे तुम्हें दबाना चाहते हैं। मैं कहता हूँ, “यदि तुम बहस करना चाहते हो, तो शुरू करो—तुम बोलो।” मैं नहीं बोलता; मैं उसे बोलने देता हूँ। परमेश्वर के घर में मैं जहाँ भी जाता हूँ, ज्यादातर लोग मुझे सुनते हैं। मैं ऐसे अवसर ढूँढ़ता हूँ जहाँ मुझे दूसरों की बात सुनने को मिले, दूसरे ज्यादा बोलें—मैं कोशिश करता हूँ कि सभी को अपने दिल से बोलने दूँ, और वे अपने भीतर की कठिनाइयों और अपने ज्ञान के बारे में बताएँ। सुनते वक्त मुझे कुछ भटकाव सुनाई पड़ते हैं। मैं सुन सकता हूँ कि उनकी कुछ समस्याएँ और कमियाँ हैं, जिस मार्ग पर वे चल रहे हैं उसमें क्या समस्याएँ खड़ी हो रही हैं, और कलीसिया के कार्य का कौन-सा क्षेत्र अच्छे ढंग से काम नहीं कर रहा है, उसमें कौन-सी समस्याएँ शेष हैं, और क्या उनका समाधान जरूरी है, मैं इन चीजों के बारे में सुनने पर ध्यान देता हूँ। यदि हम किसी मसले पर वाद-विवाद कर रहे हों—उदाहरण के लिए यदि मैं कहूँ कि कप कागज है, और तुम जोर देते हो कि यह प्लास्टिक है, तो मैं कहूँगा, “ठीक है, तुम सही हो।” मैं तुम्हारे साथ बहस नहीं करूँगा। कुछ लोग सोचते हैं, “यदि तुम सही हो, तो बहस क्यों नहीं करते हो?” यह मसले पर निर्भर करता है। यदि यह ऐसी कोई चीज है जिससे सत्य प्रभावित होता है, तो तुम्हारे लिए यही ठीक है कि तुम मेरी बात पर ध्यान दो; यदि यह कोई बाहरी मामला है, तो चाहे तुम लोग कुछ भी कहो, मैं उसमें शामिल नहीं होऊँगा—ऐसी चीजों का मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। कुछ लोग देश के कुछ विषयों पर चर्चा करते हैं। मैं उनसे कहता हूँ, “मेरी समझ से वह चीज ऐसी है।” मैं शुरू में “मेरी समझ से” जोड़ देता हूँ; इसमें थोड़ा आत्म-ज्ञान शामिल होता है। मैं मामले को स्पष्ट करने के लिए एक तथ्य सामने रखता हूँ, कहता हूँ, “फिलहाल स्थिति ऐसी है, लेकिन अगर कुछ विशेष परिस्थितियाँ आईं, तो मुझे उनके बारे में नहीं मालूम।” मैं ऐसे तथ्य के साथ मामले का आकलन करने के लिए बस यही कर सकता हूँ, लेकिन मैं यह दिखावा नहीं कर रहा हूँ कि मैं कितना जानता हूँ। मैं उन्हें एक संदर्भ के तौर पर थोड़ी-सी सूचना दे रहा हूँ—मैं उनसे ऊँचे स्थान पर आसीन हो कर उन्हें दबाना नहीं चाहता, उन्हें यह दिखाने के लिए कि मैं कितना बुद्धिमान हूँ, कि मैं सब-कुछ जानता हूँ, और वे कुछ भी नहीं जानते। यह मेरा परिप्रेक्ष्य नहीं है। जब कुछ लोग मेरे साथ बात कर रहे होते हैं, तो मैं थोड़ी ऐसी जानकारी का उल्लेख करता हूँ जिसे वे नहीं जानते, और कहते हैं, “तुम सारा दिन भीतर रहते हो—तुम्हें क्या पता?” उनके पास वह जानकारी नहीं है फिर भी वे उस बारे में मुझसे बहस करना और झगड़ा करना चाहते हैं। मैं कहता हूँ, “बिल्कुल सही। मैं बाहर नहीं जाता हूँ, लेकिन मैं बस यह एक चीज जानता हूँ। मैं तुम्हें बस इस बारे में बता रहा हूँ, और कुछ नहीं—मानो या न मानो।” उस बारे में बहस करने की क्या बात है? ऐसी चीज के बारे में बहस करना एक स्वभाव है। बाहरी मामले की बात पर कुछ लोग यह कह कर श्रेष्ठता के लिए स्पर्धा भी करना चाहते हैं, “तुम्हें इस बारे में कैसे पता चला? मैं इस बारे में क्यों नहीं जानता? तुम इसके अर्थ के बारे में इतना कैसे बोल सकते हो, जबकि मैं नहीं बोल सकता हूँ?” उदाहरण के लिए मैं कहता हूँ, “इतने वर्षों से मैं यहाँ रह रहा हूँ, मुझे जलवायु के बारे में एक विशेष चीज पता चली है : यहाँ काफी उमस है।” लंबे समय तक यहाँ रहने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ—यह एक तथ्य है। फिर भी कुछ लोग यह सुन कर कहते हैं, “क्या चीजें वास्तव में ऐसी हैं? फिर मुझे उमस क्यों महसूस नहीं हुई?” सिर्फ इस वजह से कि तुमने उमस महसूस नहीं की है, इसका यह अर्थ नहीं है कि उमस नहीं है। तुम सिर्फ इस आधार पर आगे नहीं बढ़ सकते कि तुम क्या महसूस करते हो—तुम्हें आंकड़े देखने होंगे। दैनिक मौसम पूर्वानुमानों में काफी विस्तार से ब्योरा दिया जाता है, और एक बार तुम कई पूर्वानुमान पढ़ लो, तो तुम्हें पता चल जाएगा कि यहाँ वास्तव में उमस है। यह ऐसी चीज नहीं है जिसकी मैंने बस कल्पना कर ली, और मैं महसूस करने के आधार पर बोल ही नहीं रहा हूँ। और ऐसा क्यों है? दीवारों के छायादार आधार में साल भर फफूंदी जमी रहती है; वसंत ऋतु के समय ऐसी कुछ जगहें होती हैं जहाँ मैं चलने की हिम्मत नहीं करता, वहाँ इतनी फिसलन होती है। यह निरीक्षण इस कारण से है कि मैं इससे गुजर चुका हूँ, इसका अनुभव कर चुका हूँ, खुद अपनी आँखों से देख चुका हूँ, और इसे स्वयं महसूस कर चुका हूँ। इस तरह बात करना तथ्यों के विरुद्ध जाना नहीं है, ठीक है न? लेकिन कुछ लोग ऐसे हैं जो मुझसे बात करते समय इन चीजों को ले कर मुझे चुनौती देते हैं—मैं कहता हूँ कि यहाँ उमस है, और वे कहते हैं, नहीं है। क्या ये लोग भ्रमित नहीं हैं? (हाँ, वे हैं।) कुछ वक्तव्य वास्तविकता के आधार पर दिए जाते हैं, क्योंकि वे अनुभव से आते हैं, और कोरी कल्पनाएँ नहीं होते। मैं क्यों कहता हूँ कि ये कल्पनाएँ नहीं हैं? इस वजह से कि वे विवरणों को स्पष्ट रूप से, पूरी तरह से और व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत करते हैं, और जब कोई व्यक्ति इन वक्तव्यों में वर्णित बातों को देखता और अनुभव करता है, तो वह बताई हुई चीज से बिल्कुल मेल खाता है। तो फिर क्या ये वक्तव्य सही नहीं होते? (होते हैं।) फिर भी इन सही वक्तव्यों के साथ भी कुछ लोग ऐसे हैं जो हमेशा विवादग्रस्त रहते हैं, और मुझसे इसी तरह बहस करते रहते हैं। वे किस चीज के लिए बहस कर रहे हैं? क्या यह नश्वर संघर्ष है? क्या वे अपने जीवन के लिए लड़ रहे हैं? वे उसके लिए बहस नहीं कर रहे हैं, वे सिर्फ इस बात पर स्पर्धा कर रहे हैं कि कौन अधिक जानता है। वे बस बहस करना चाहते हैं—यह एक स्वभाव है। तुम लोगों को क्या लगता है ऐसे लोगों से कैसा बरताव किया जाना चाहिए? क्या उन्हें उजागर किया जाना चाहिए, और उनसे तब तक बहस करनी चाहिए जब तक तुम गुस्से से लाल न हो जाओ? (नहीं।) ऐसे अज्ञानी लोगों के साथ बहस करने का कोई फायदा नहीं है। यह अपमानजनक है, उन्हें जाने दो। क्या इससे काम नहीं चलेगा? ऐसे बेवकूफ और जल्दबाज लोगों के साथ बहस करने का क्या फायदा? अगर सत्य को प्रभावित करने वाले किसी मामले को न समझ पाने के कारण कोई व्यक्ति बहस करे, तो ठीक है—लेकिन क्या इन बाहरी मामलों के बारे में बहस करना अज्ञानता नहीं है? मसीह-विरोधियों का स्वभाव मुख्य रूप से सत्य को न समझने का होता है, अहंकारी और आत्मतुष्ट होने का है, सत्य से विमुख होने का होता है। मसीह-विरोधी तथ्यों के अनुरूप रहने वाले कोई सही शब्द, बातें या कहावतें भी स्वीकार नहीं करते हैं, और वे उन पर शोध करेंगे और उनके बारे में तुमसे वाद-विवाद और बहस करेंगे—और यह सत्य के बारे में कुछ बोलने के लिए नहीं होता। क्या यह स्वभाव नहीं है? (हाँ, है।) यह कैसा स्वभाव है? अहंकार। उनका मतलब होता है, “तुम थोड़ा-सा सत्य समझते हो, है कि नहीं? तुम बाहरी मामलों को नहीं समझते हो, इसलिए तुम मुझसे उनके बारे में सुनो तो तुम्हारे लिए ठीक रहेगा! तुम अपना मुँह मत खोलो—इससे मुझे वास्तव में गुस्सा आता है! ये बाहरी मामले तुम्हारे प्रबंध करने के लिए नहीं हैं। तुम्हारी जिम्मेदारियों के साथ सत्य बोलने पर मैं तुम्हारी बात सुनूँगा—लेकिन इन बाहरी मामलों के बारे में बताना बंद करो। चुप रहो, चुप क्यों नहीं रहते हो! तुमने कभी इन मामलों का सामना नहीं किया है, तो तुम्हें क्या मालूम? तुम्हें मेरी बात सुननी होगी!” हर चीज में वे चाहेंगे कि लोग उनकी ही बात सुनें। वे सभी को जीतना चाहते हैं, यह देखे बिना कि सामने कौन है। यह कैसा स्वभाव है? क्या इन सबमें कोई विवेक है? (नहीं।)

मुझे बताओ, मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान है या मुश्किल? (आसान है।) तुम कैसे बता सकते हो? तुम क्यों कहते हो कि यह आसान है? मैं तुम लोगों को बताता हूँ, और तुम समझ सकते हो कि अपने बारे में मेरा स्पष्टीकरण सही और सटीक है या नहीं। अव्वल तो मेरी तार्किकता सामान्य है। इस सामान्यता को कैसे समझाया जा सकता है? इसका अर्थ है कि सभी मामलों को ले कर मेरे मानक और नजरिए सटीक हैं। इस तरह से, क्या हर प्रकार की चीज के बारे में मेरे विचार और वक्तव्य और हर प्रकार की चीज के प्रति मेरा रवैया पूरी तरह से सामान्य नहीं है? (बिल्कुल है।) वे सामान्य हैं—कम-से-कम वे सामान्य मानवता के मानकों के अनुसार हैं। दूसरे, सत्य मुझे काबू में रखता है। ये वे दो चीजें हैं जिनसे सामान्य तार्किकता कम-से-कम युक्त होती है। और इसका एक और पहलू भी है : जिस कारण से तुम लोग यह देख पाते हो कि मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान है, वह यह है कि प्रत्येक किस्म के लोगों को ले कर मेरा मापदंड सही होता है और मुझे मानक ज्ञात हैं। मेरे पास सही मापदंड है, और साथ ही वे तरीके और उपाय हैं कि मैं अगुआओं और साधारण भाई-बहनों से कैसा व्यवहार करूँ, प्रत्येक किस्म के व्यक्ति जैसे कि उम्रदराज लोगों और युवाओं के साथ कैसे पेश आऊँ, दिखावा करने की प्रवृत्ति वाले अहंकारी लोगों से कैसा व्यवहार करूँ, और ऐसे लोगों से कैसा व्यवहार करूँ जिन्हें आध्यात्मिक समझ है और नहीं है, आदि-आदि। मुख्य रूप से यह सही मापदंड, और ये तरीके और उपाय क्या हैं? ये हैं सत्य सिद्धांतों के साथ चलना, बिना सोचे-समझे कुछ न करना। उदाहरण के लिए, मान लो कि एक विश्वविद्यालय के छात्र होने के नाते मैं तुम्हारा सम्मान करता, या एक किसान होने के नाते तुम्हारा तिरस्कार करता—तो ये सिद्धांत नहीं हैं। तो मैं इन सिद्धांतों को कैसे समझूँ? किसी व्यक्ति की काबिलियत और मानवता, उसके कर्तव्य, परमेश्वर में उसकी आस्था और सत्य के प्रति उसके रवैये को देखकर। मैं इन विभिन्न पहलुओं के संयोजन के आधार पर लोगों की कद्र करता हूँ। एक और भी कारण से तुम लोगों को मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान लगता है, जो ऐसी चीज है जिसके बारे में बहुत-से लोगों की धारणाएँ होती हैं, और वे उसे स्वीकार करने में असमर्थ होते हैं। वे सोचते हैं, “तुम्हारे पास रुतबा है, लेकिन तुम ऐसे क्यों नहीं लगते हो कि तुम कोई रुतबे वाले हो? तुम अपना रुतबा जताते नहीं हो; तुम बिल्कुल घमंडी नहीं हो। लोग अपने मन में सोचते हैं कि उन्हें तुम्हें आदर से देखना चाहिए—लेकिन ऐसा क्यों होता है कि जब लोग तुम्हें देखते हैं, तो उन्हें यह अत्यंत उपयुक्त लगता है कि तुम्हें समान स्तर पर रखें या यहाँ तक कि तुम्हें नीची नजर से देखें?” और इसलिए, उन्हें लगता है कि मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान है, और वे सुकून से रहते हैं। क्या बात ऐसी नहीं है? बात ऐसी ही है। नतीजतन वे सोचते हैं कि मैं ऐसा नहीं हूँ कि मुझसे डरा जाए, और मेरे साथ इस तरह मिल-जुलकर रहना बढ़िया है। मुझे बताओ, यदि हर मोड़ पर मैं तुम लोगों को दबाऊँ, और बिना किसी विशेष कारण के तुम्हारी काट-छाँट करूँ, चेहरे पर दिन भर गुस्सैल हाव-भाव के साथ तुम्हें डाँटूं-फटकारूं, घुट्टी पिलाऊँ, तो क्या चीजें भिन्न नहीं होंगी? तुम लोग सोचोगे, “तुम्हारे सनकीपन और तेजी से बदलते हुए मिजाज को देखें तो तुम्हारे साथ मिल-जुल कर रहना बहुत मुश्किल है!” तो फिर मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान नहीं होगा। ऐसा इसलिए कि मैं अपने सभी पहलुओं, अपने व्यक्तित्व, अपनी खुशियों और गुस्से, अपने सुख-दुख में तुम लोगों को सामान्य लगता हूँ, और चूँकि तुम लोगों को मन की दृष्टि में लगता है कि साख और ऊँचे रुतबे वाले लोगों को घमंडी होना चाहिए, फिर भी तुम लोग मुझे जिस रूप में देखते हो वह अत्यंत साधारण है—ठीक इसी वजह से तुम मुझसे सतर्क नहीं रहते हो, और तुम्हें लगता है कि मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान है। इसके अलावा, क्या तुम लोगों को लगता है कि बात करते समय मैं नौकरशाही वाली शब्दावली बोलता हूँ? (नहीं।) मैं नहीं बोलता—जब उन चीजों की बात आती है, जिन्हें तुम लोग नहीं समझते, तो मैं जितनी हो सके, तुम्हारी भरसक मदद करता हूँ, और विरले ही तुम लोगों की हँसी उड़ाता हूँ। मैं ऐसा विरले ही क्यों करता हूँ? कभी-कभी ऐसा वक्त आता है कि मैं बहुत हताश महसूस करता हूँ, और तुम्हारी हँसी उड़ाने के कुछ शब्द बोले बिना नहीं रह पाता, लेकिन मुझे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि तुम कमजोर पड़ सकते हो, और इसलिए मैं तुमसे ऐसी बातें कम-से-कम करता हूँ। इसके बजाय, मैं सहनशील, क्षमावान और धैर्यवान रहता हूँ। मैं तुम लोगों की जहाँ तक हो सके, जहाँ हो सके, भरसक मदद करता हूँ, और जितना और जो सिखा सकता हूँ, वह भरसक सिखाता हूँ—अधिकतर परिस्थितियों में मैं यही करता हूँ। और ऐसा क्यों है? इस वजह से कि परमेश्वर की गवाही देने और सत्य को समझने के मामले में ज्यादातर लोग अत्यंत अभावग्रस्त होते हैं—लेकिन खाने-पीने और मौज करने, पोशाकों और सजने-सँवरने, या खेलने और ऐसे ही सांसारिक मामलों की बात आती है, लोग इन चीजों के बारे में सब-कुछ जानते हैं। दूसरी ओर, परमेश्वर में आस्था के मामलों में, सत्य को स्पर्श करने वाले मामलों में, लोग अज्ञानी बने रहते हैं; जब परमेश्वर की गवाही देने और परमेश्वर की गवाही का थोड़ा कार्य करने, परमेश्वर की गवाही देनेवाला कुछ काम पूरा करने के लिए अपने पेशेवर कौशल, खूबियों और अपने गुणों का उपयोग करने की बात आती है, तो उनके पास कहने को कुछ नहीं होता। ऐसी स्थिति देख कर मुझे क्या करना चाहिए? मुझे तुम्हें सिखाना चाहिए, थोड़ा-थोड़ा करके अनुशिक्षण देना चाहिए, और जितना हो सके उतना अच्छा सिखाना चाहिए। मैं वे चीजें चुनता हूँ, जो मुझे समझ आती हैं, जिन्हें मैं जानता हूँ, और जिन्हें मैं कर सकता हूँ, और मैं वे तुम्हें बार-बार सिखाता रहता हूँ, जब तक कि एक काम पूरा न हो जाए। मैं वह सब तुम्हें सिखाता हूँ जो सिखा सकता हूँ, और जितना सिखा सकता हूँ—और जहाँ तक उन चीजों का सवाल है जो मैं नहीं सिखा सकता या जो सीखी नहीं जा सकतीं, तुम लोग उनके बारे में जो कुछ भी समझ सकते हो, बस उतना ही समझते हो। इसे अपने स्वाभाविक ढंग से चलने दो। मैं तुम्हें उन चीजों को समझने के लिए मजबूर नहीं करूँगा। आखिरकार, कुछ लोग हैं जो कहते हैं, “हममें से जो लोग किसी एक पेशे को समझते हैं, वे एक आम आदमी के आगे झुक गए हैं। हम लोग जो इस पेशे को समझते हैं, वे कुछ भी नहीं करवा पाए हैं, और इस पेशे के बारे में कुछ भी न जानने वाला यह व्यक्ति हमेशा हमें सिखाता है। यह बहुत अपमानजनक है!” यह अपमानजनक नहीं है। एक विश्वासी के रूप में परमेश्वर की गवाही देने की बात पर पूरी मानव जाति खाली हाथ रह जाती है—यदि लोग पैदाइशी तौर पर परमेश्वर की गवाही देने में सक्षम होते, तो कोई भी परमेश्वर का विरोध न करता! यह इस वजह से है कि लोग शैतान के समान हैं, और उनका प्रकृति सार ऐसा है कि वह परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण है, और वे ऐसी चीजें करने में अक्षम होते हैं जो सत्य और परमेश्वर की गवाही से जुड़ी हैं। तो फिर लोगों को क्या करना चाहिए? जब तक वे जो काम कर सकते हैं अगर उसके लिए सर्वोत्तम प्रयास करते हैं, तो इतना काफी है। यदि मुझमें मदद करने और सिखाने की ऊर्जा होती है तो मैं मदद करता हूँ। यदि नहीं होती, या मैं दूसरी चीजों में व्यस्त होता हूँ, और समय न निकाल सकूँ, तो तुम लोग बस वही करो जो तुम कर सकते हो। यह सिद्धांतों के अनुरूप है, है कि नहीं? यही एकमात्र तरीका हो सकता है। मैं तुम्हें अपनी क्षमताओं से परे जाने को मजबूर नहीं करता। यह बेकार होता है—यह नहीं किया जा सकता। अंत में, लोग सोचते हैं : “तुम्हारे साथ मिल-जुल कर रहना बहुत आसान है, तुम्हारी अपेक्षाएँ पूरी करना आसान है। तुम हमें बताओ कि क्या करना है, और हम वैसा ही करेंगे जैसा तुम कहोगे।” कभी-कभी कुछ लोगों की काट-छाँट हो सकती है। ज्यादातर लोग उससे सही समझ पा कर ठीक से निकलते हैं। कुछ लोग अपना काम छोड़ देते हैं, और कुछ लोग चोरी-छिपे बाधाएँ पैदा करते हैं, अपना कर्तव्य निभाने में कड़ी मेहनत नहीं करते, और वास्तविक कार्य नहीं करते। फिर ऐसे लोग बदल दिए जाते हैं। यदि तुम काम करने को तैयार नहीं हो, तो पद छोड़ दो। इस काम के लिए तुम्हें ही क्यों लगाया जाना चाहिए? हम तुम्हें बदल देंगे—बस इतनी ही बात है। सरल है, है न? यदि भविष्य में वे लोग प्रायश्चित्त करके बदल जाएँ और अपना काम अच्छे ढंग से करें, तो उन्हें एक और मौका दिया जाएगा—और यदि वे अभी भी उसी तरह से गड़बड़ियाँ और बाधाएँ पैदा करें, तो फिर कभी उनका उपयोग नहीं किया जाएगा। किसी आज्ञाकारी व्यक्ति का उपयोग करना मेरे लिए बेहतर होगा। सारा समय ऐसे लोगों के साथ उलझे रहने का क्या लाभ? सही है न? यह उनके लिए कठिन और मेरे लिए थकाऊ होगा। मैं इन चीजों को कैसे सँभालता हूँ उसके लिए सिद्धांत हैं, और दूसरों के साथ मैं मिल-जुल कर कैसे रहता हूँ, इसके भी सिद्धांत हैं। मेरे साथ मिल-जुल कर रहना आसान क्यों है, इसका एक और कारण यह है कि मैं उनसे कड़ी मेहनत वाली चीजों की कभी अपेक्षा नहीं करता। तुम जो कर सकते हो, वही करो; जो चीजें तुम नहीं कर सकते, मैं उनके बारे में बारी-बारी से तुमसे बात करूँगा। तुम जो कर सकते हो, वह दिल लगा कर करो; अगर तुम दिल लगा कर नहीं करोगे तो मैं तुम्हें ऐसा करने पर मजबूर नहीं करूँगा। जहाँ तक बाकी चीजों की बात है, यानी तुम परमेश्वर में कैसे विश्वास रखते हो, यह तुम्हारा अपना मामला है। अगर तुम्हें अंत में कुछ भी प्राप्त नहीं होता, तो तुम किसी को भी दोष नहीं दे सकते। लोगों से मेरे बर्ताव के सिद्धांतों के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या तुम्हें लगता है कि ये थोड़े पक्षपातपूर्ण हैं? ऐसा बिल्कुल भी नहीं है—मैं इसे कैसे सँभालता हूँ यह सिद्धांतों के बिल्कुल अनुरूप है। वे सिद्धांत कौन-से हैं? मेरी बात सुनो, और तुम लोग समझ जाओगे।

मैं, देहधारी परमेश्वर, मानवता के भीतर कार्य करता हूँ—क्या मैं कार्य करने में पूरी तरह से पवित्र आत्मा या परमेश्वर के आत्मा का स्थान ले सकता हूँ? नहीं, मैं नहीं ले सकता। इसलिए मैं यह कह कर अपनी सीमाओं से परे जाने की कोशिश नहीं करता हूँ कि मैं स्वर्ग में परमेश्वर का स्थान ले कर उसका सारा कार्य करना चाहता हूँ। यह मेरा खुद को बड़ा करके दिखाना होगा—मैं इस काबिल नहीं हूँ। मैं एक साधारण व्यक्ति हूँ। मैं वही करता हूँ, जो कर सकता हूँ। मैं वही करता हूँ जो अच्छे ढंग से कर सकता हूँ। मैं उसे करने में अपना दिल और शक्ति लगा देता हूँ। यही काफी है। यही कार्य है जो मेरे जिम्मे है। फिर भी यदि मैं इसे समझ न सकूँ, और इस तथ्य के प्रति अवज्ञापूर्ण महसूस करता रहूँ, और उसे स्वीकार न करूँ, बल्कि हमेशा महान होने का बहाना बनाने की कोशिश करूँ, हमेशा चमकने की कोशिश करता रहूँ, हमेशा कुछ अविश्वसनीय कौशल दिखाने की कोशिश करूँ, तो क्या यह सिद्धांतों के अनुसार होगा? नहीं। क्या तुम लोग सोचते हो कि मैं इस मामले को समझता हूँ? हाँ, मैं अच्छी तरह समझता हूँ! परमेश्वर का देह जो कह सकता है और कार्य कर सकता है वही उस कार्य का दायरा है जो वह देहधारी हो कर करता है। इस दायरे से परे लोगों का अकेले में परमेश्वर के अनुशासन और काट-छाँट का अनुभव करना और पवित्र आत्मा के प्रबोधन और मार्गदर्शन को स्वीकार करना, परमेश्वर का उन्हें दर्शन प्रदान करना और परमेश्वर किसे पूर्ण बनाएगा और किसे हटाएगा, और सभी लोगों के बारे में परमेश्वर का नजरिया और रवैया क्या है—ये चीजें पूरी तरह से परमेश्वर का मामला हैं। यदि तुम लोग मेरे निकट संपर्क में हो, तो मैं भी ये चीजें देख सकता हूँ—लेकिन मैं चाहे जैसे गौर करूँ, उनमें से कितने लोगों को देख सकता हूँ? मैं कितने लोगों को देख सकता हूँ, कितने लोगों के संपर्क में आ सकता हूँ, उसकी एक सीमा है—इसमें भला प्रत्येक व्यक्ति को कैसे शामिल किया जा सकता है? यह नामुमकिन होगा। क्या तुम्हें इस मामले में स्पष्ट नहीं होना चाहिए? मुझे बताओ, क्या मैं इस मामले में स्पष्ट हूँ? बिल्कुल हूँ। एक सामान्य व्यक्ति को यही करना चाहिए। मैं उन चीजों के बारे में नहीं सोचता जो मुझे नहीं करनी चाहिए। क्या लोग ऐसा करने में सक्षम हैं? नहीं हैं—उनमें वह तार्किकता नहीं है। कुछ लोग मुझसे पूछते हैं, “क्या तुम हमेशा चोरी-छिपे चीजों पर गौर नहीं करते? क्या तुम हमेशा यह पूछताछ नहीं करते कि कौन क्या कर रहा है, और वे तुम्हारे बारे में अकेले में कैसी खराब बातें कर रहे हैं, या कौन चोरी-छिपे तुम्हारी आलोचना कर रहा है, और तुम्हारे बारे में शोध कर रहा है?” मैं तुम्हारे साथ ईमानदार रहूँगा : मैंने उन चीजों के बारे में कभी पूछताछ नहीं की है। उन चीजों का प्रभारी कौन है? परमेश्वर का आत्मा—परमेश्वर सबकी पड़ताल करता है; वह समस्त पृथ्वी की पड़ताल करता है और वह लोगों के दिलों की पड़ताल करता है। यदि तुम परमेश्वर की पड़ताल में विश्वास नहीं रखते, तो क्या तुम्हारा विवेक असामान्य नहीं है? (हाँ, है।) तो फिर तुम वैसे व्यक्ति नहीं हो, जो सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखता है, तुम गलत स्थान ले रहे हो, और एक बड़ी समस्या हो गई है। मैं तुम लोगों से परमेश्वर में विश्वास रखने की अपेक्षा रखता हूँ, और मैं इसमें पूर्ण रूप से विश्वास रखता हूँ। तो मेरे वचन और कार्य इस नींव पर निर्मित हैं। मैं अपनी सीमाओं से परे कोई चीज नहीं करता; मैं अपनी क्षमताओं के दायरे से परे कोई चीज नहीं करता। क्या यह एक स्वभाव नहीं है? (हाँ, है।) कुछ लोग इसे उस तरह से नहीं देखते। वे सोचते हैं कि मेरी यह पहचान है, यह रुतबा है, यह सामर्थ्य है, इसलिए वे सोच में पड़ जाते हैं कि मैं उस तरह से कार्य क्यों नहीं करता। वे सोचते हैं कि मुझे और अधिक चीजों को समझने की जरूरत है, और ज्यादा चीजों पर पकड़ बनानी चाहिए, ताकि ऐसा लगे कि मेरी साख ज्यादा है, मेरा रुतबा बड़ा है, मुझमें अधिक क्षमताएँ हैं, और मेरे पास अधिक अधिकार है। परमेश्वर मुझे चाहे जितना अधिकार दे दे, चाहे जितनी क्षमताएँ दे दे, मेरे पास बस इतना ही है। ये वे चीजें नहीं हैं, जिनके लिए मैं संघर्ष करता हूँ, न ही ये वे चीजें हैं जिन्हें मैं छीनता हूँ। परमेश्वर का अधिकार, उसकी क्षमताएँ और उसकी सर्वशक्तिमत्ता वे चीजें नहीं हैं जिन्हें एक तुच्छ देह द्वारा दर्शाया जा सके। यदि तुम इस बारे में स्पष्ट नहीं हो, तो तुम्हारे विवेक के साथ कुछ गड़बड़ है। यदि परमेश्वर में विश्वास रखने के अनेक वर्षों के बाद भी तुम इस मामले की असलियत नहीं समझ पाते, तो तुम काफी मूर्ख और अज्ञानी हो। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जिनके बारे में मैं नहीं पूछता—लेकिन क्या इनके बारे में मैं अपने दिल में जानता हूँ? (तुम जानते हो।) मैं क्या जानता हूँ? क्या मैं प्रत्येक का नाम जानता हूँ? क्या मैं जानता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति ने परमेश्वर में कितने वर्ष विश्वास रखा है? मुझे ये चीजें जानने की जरूरत नहीं है। मेरे लिए यह जानना काफी है कि प्रत्येक की दशा क्या है, प्रत्येक में किस चीज की कमी है, उन्होंने किस सीमा तक जीवन-प्रवेश प्राप्त किया है, और कौन-से सत्य सभी को सुनने चाहिए, और किनसे उनका सिंचन और पोषण होना चाहिए। ये चीजें जानना पर्याप्त है। क्या मेरे जिम्मे ये चीजें नहीं हैं? मेरे जिम्मे क्या है यह जानने के लिए—मुझे क्या कहना चाहिए और कौन-सा कार्य करना चाहिए—क्या यह तार्किकता नहीं है? (हाँ, है।) ऐसी तार्किकता कैसे आती है? यदि देहधारी परमेश्वर में ऐसी तार्किकता भी न होती, यदि सभी चीजों और सभी घटनाओं को मापने के लिए वह मानक भी न होता, तो फिर उसके पास बोलने के लिए कौन-सा सत्य होता? यदि देहधारी परमेश्वर को रुतबे के लिए परमेश्वर के आत्मा से झगड़ना पड़ता और रुतबे के लिए स्पर्धा करनी पड़ती, तो क्या कुछ गलत नहीं होता? क्या यह गलत नहीं होता? क्या चीजें ऐसी हो सकती हैं? नहीं—यह ऐसी चीज है जो कभी नहीं हो सकती।

कुछ लोग हमेशा चिंता करते हैं और कहते हैं, “क्या तुम हमेशा हमारे बारे में पूछताछ करते रहते हो और चोरे-छिपे हमारे बारे में शोध करते रहते हो? क्या परमेश्वर हमेशा यह जानने की कोशिश कर रहा है कि हम उसके बारे में क्या सोचते हैं और अपने दिलों में उसे किसे दृष्टि से देखते हैं?” मैं ऐसी चीजों के बारे में नहीं सोचता। ये फालतू हैं! इन चीजों के बारे में सोचने का क्या फायदा? ये तमाम चीजें परमेश्वर की जाँच-पड़ताल में हैं। परमेश्वर के आत्मा के कार्यकलापों का एक दायरा है और देहधारी परमेश्वर के कार्यकलापों के लिए तो और भी ज्यादा है। देहधारी परमेश्वर परमेश्वर है, वह सत्य का निकास और अभिव्यक्ति है, और इस चरण में वह जो कार्य करता है, वह इस चरण का प्रतिनिधि है, अंतिम का नहीं। देहधारी परमेश्वर केवल वही कार्य कर सकता है जो इस अवधि और इस दायरे के भीतर है। फिर क्या यह कार्य अगले चरण का प्रतिनिधि हो सकता है? खैर, हम नहीं जानते कि भविष्य में क्या होगा। वह परमेश्वर का अपना मामला है। मैं ज्यादा आगे नहीं जाता। मैं वही करता हूँ जो मुझे करना है; मैं वही चीजें करता हूँ जो मुझे करनी चाहिए और जो मैं कर सकता हूँ। मैं यह कह कर कभी भी खुद को अपनी सीमाओं से परे नहीं धकेलता, “मैं सर्वशक्तिमान हूँ! मैं महान हूँ!” यह परमेश्वर का आत्मा है; देहधारी परमेश्वर केवल उस कार्य की एक अभिव्यक्ति और निकास को दर्शाता है जो परमेश्वर इस दौरान कर रहा है। उसके कार्य का दायरा और जो कार्य उसे करना है, वे परमेश्वर द्वारा पहले ही निर्धारित किए जा चुके हैं। यदि तुम्हें कहना होता, “देहधारी मसीह सर्वशक्तिमान है,” तो तुम सही होते या गलत? आधा सही, आधा गलत। परमेश्वर का आत्मा सर्वशक्तिमान है; मसीह को सर्वशक्तिमान नहीं कहा जा सकता। तुम्हें कहना चाहिए कि परमेश्वर सर्वशक्तिमान है। यह इसे कहने का एक सही और सटीक तरीका है, और ऐसा है जो तथ्यों के अनुसार है। मुझे कौन-सी तार्किकता से युक्त होना चाहिए? प्रत्येक व्यक्ति कहता है कि मैं परमेश्वर हूँ, स्वयं परमेश्वर हूँ, कि मैं देहधारी परमेश्वर हूँ, तो क्या मैं मान लूँ कि फिर तो मैं स्वयं परमेश्वर का या उसके आत्मा का स्थान ले सकता हूँ? मैं नहीं ले सकता। यहाँ तक कि अगर परमेश्वर मुझे वह सामर्थ्य और क्षमता दे दे, फिर भी मैं इसे पूरा नहीं कर सकता। यदि मैं उस तरह से परमेश्वर का स्थान ले लेता, तो क्या यह उसके स्वभाव और सार के विरुद्ध परोक्ष ईशनिंदा नहीं होती? देह कितनी सीमित है! यह उसे समझने का तरीका नहीं है; यह वह पहलू नहीं है जिससे इस विषय को देखना चाहिए। क्या ऐसी बात नहीं है? (हाँ, है।) इसलिए, चूँकि मेरे मन में ये चीजें करने के लिए ये विचार और सिद्धांत हैं, और प्रत्येक चीज के लिए यह ध्यान रहता है, इसलिए मैं बहुत-से लोगों को परमेश्वर जैसा प्रतीत नहीं होता, और कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मेरे साथ संपर्क में आने से पहले, कुछ फंतासियाँ, कल्पनाएँ और धारणाएँ पाल लेते हैं, जो अपने कार्यकलापों में सावधान और सतर्क रहते हैं, और फिर जैसे ही मुझसे मिलते हैं, वे सोचते हैं, “यह तो बस एक इंसान है, है कि नहीं? इससे डरने जैसी कोई बात नहीं है।” इसके बाद, वे शिथिल पड़ जाते हैं—वे साहसी हो जाते हैं, और बुरे काम करते हुए पागलों की तरह उत्पात मचाते हैं। उन्हें क्या कहा जाता है? छद्म-विश्वासी। यदि तुम सिर्फ देहधारी परमेश्वर में विश्वास रखते हो, और परमेश्वर के आत्मा में नहीं, तो फिर तुम छद्म-विश्वासी हो; और यदि तुम केवल परमेश्वर के आत्मा में विश्वास रखते हो, देहधारी परेश्वर में नहीं, तो भी तुम एक छद्म-विश्वासी ही हो। देहधारी परमेश्वर और परमेश्वर का आत्मा एक हैं—वे एक ही हैं। वे एक-दूसरे से लड़ते नहीं है, एक-दूसरे से अलग रहना तो दूर की बात है, और प्रत्येक की अपनी अलग इकाई बनना तो और भी दूर की बात है। वे एक हैं—बात बस इतनी है कि देहधारी परमेश्वर को अपने कार्य और परमेश्वर को देह के नजरिए से देखना चाहिए। यह देह का मामला है, और इसका तुम लोगों से कोई लेना-देना नहीं है—यह मसीह का मामला है, और इसका मानव जाति से कोई लेना-देना नहीं है। तुम नहीं कह सकते, “तो तुम सोचते हो कि तुम भी एक साधारण इंसान हो। ठीक है, तो फिर हम एक जैसे लोग ही हैं—हम सभी एक समान हैं।” क्या ऐसा कहना ठीक है? यह एक गलती है। कुछ लोग कहते हैं, “तुम्हारे साथ मिल-जुल कर रहना बहुत आसान लगता है, तो चलो औपचारिकताएँ छोड़ दें। एक-दूसरे से जिगरी दोस्तों और मित्रों जैसा बर्ताव करें; चलो एक-दूसरे के विश्वासपात्र बनें—चलो एक-दूसरे से मित्रता करें।” क्या यह ठीक है? जिन लोगों को आध्यात्मिक समझ नहीं होती; वे छद्म-विश्वासी होते हैं। जितना अधिक तुम उनके साथ अपनी भावनाएँ साझा करोगे, और सत्य, तथ्यों और सत्य वास्तविकता के बारे में जितनी ज्यादा बात करोगे, उतना ही वे तुम्हारा तिरस्कार करेंगे—ये लोग छद्म-विश्वासी हैं। जितना अधिक तुम गूढ़ रहस्यों के बारे में बोलोगे, और सूत्रवाक्य, धर्म-सिद्धांत और अस्पष्ट बातें कहोगे, और जितना तुम अपना रुतबा जताओगे, जितना दिखावा करोगे, शेखी बघारोगे, वे तुम्हारा उतना ही ज्यादा सम्मान करेंगे—वे छद्म-विश्वासी हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो सिद्धांत-युक्त है, और अपने कार्यकलापों में नपा-तुला रहता है, जिसके कार्यकलाप सत्य के अनुसार होते हैं, जो सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को स्पष्ट सीमाओं और पहचान से देख सकता है—अगर कोई जितना उस व्यक्ति जैसा होता है तो वे उसे उतनी ही ज्यादा नीची नजर से देखते हैं, और उसे तुच्छ समझते हैं—ये छद्म-विश्वासी होते हैं।

जब मैं लोगों के संपर्क में आता हूँ, और उनसे बातचीत करता हूँ, वे चाहे जो भी हों या बातचीत जितनी भी देर चले, क्या उनमें से किसी को भी लगता है : “वह हमेशा मुझे नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है, वह मेरे घर के तमाम मामलों का प्रभार ले लेता है, वह हमेशा मुझे जीतने की कोशिश कर रहा है?” मैं तुम्हें जीत नहीं रहा हूँ! उससे भला क्या लाभ होगा? तुम परमेश्वर के वचन स्वयं पढ़ो, उन पर चिंतन करो और धीरे-धीरे उनमें प्रवेश करो। यदि तुम ऐसे व्यक्ति हो जो सत्य का अनुसरण करता है, तो पवित्र आत्मा तुम पर कार्य करेगा, और परमेश्वर के पास तुम्हारे लिए आशीष और मार्गदर्शन होगा। यदि तुम ऐसे व्यक्ति नहीं हो जो सत्य का अनुसरण करता है, यदि तुम मेरी हर बात के प्रति अवज्ञापूर्ण रहते हो, और उसे सुनना नहीं चाहते, और स्वीकार नहीं करते, तो फिर अंत में तुम हमेशा बेनकाब हो जाओगे और कार्य करते समय चीजें हमेशा गलत हो जाएँगी—तुम्हें परमेश्वर की अगुआई नहीं मिलेगी। ऐसा कैसे होता है? (परमेश्वर सभी की पड़ताल करता है।) बात इतनी ही नहीं है कि परमेश्वर सभी की जाँच-पड़ताल करता है। इससे गुजरो और खुद इसका अनुभव करो। जब मैं कुछ कहता हूँ, तो भले ही लोग इससे सहमत हों या न हों, चाहे वे उसे स्वीकार करें या न करें, क्या पवित्र आत्मा उसे बनाए रखता है, या उसे कोई परवाह नहीं होती? (वह उसे बनाए रखता है।) पवित्र आत्मा यकीनन उसे बनाए रखता है और वह बिल्कुल भी इसे कमतर नहीं करेगा। तुम लोगों के लिए यह बात याद रखना ठीक होगा। मेरी बातों को चाहे लोग स्वीकारें या नहीं, एक दिन जरूर आएगा जब तथ्य आसान बना दिए जाएँगे, और एक ही झलक में प्रत्येक व्यक्ति कहेगा, “तुमने जो कहा वह हमेशा से सही था! तुमने यह बात बहुत पहले कही थी—मेरा ध्यान इस बारे में क्यों नहीं गया?” चाहे तुमने उस वक्त उसे माना हो या नहीं मेरे वचन मेरी कल्पना से, मेरे दिमाग से, या मेरे ज्ञान से आए—एक दिन कुछ चीजों का अनुभव करने के बाद तुम सोचोगे, “तुमने जो कहा वह हमेशा से सत्य रहा है!” और तुम इस समझ तक कैसे पहुँचे होगे? अनुभव से। यदि तुम यह ज्ञान हासिल करने में सक्षम हो, तो क्या यह मानसिक विश्लेषण के जरिए होगा? बिल्कुल नहीं; पवित्र आत्मा ने तुम्हारी अगुआई की होगी—यह परमेश्वर का कार्य होगा। गैर-विश्वासी अपना पूरा जीवन स्वर्ग और पृथ्वी और सभी चीजों के कुछ नियमों के थोड़े-से ज्ञान के साथ बिता देते हैं, लेकिन क्या वे सत्य हासिल कर पाते हैं? (नहीं।) तो कौन-सी चीज उनके पास नहीं है? (उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है।) सही। उनके पास पवित्र आत्मा का कार्य नहीं है—यही वह चीज है जो उनके पास नहीं है। इसलिए चाहे तुम मुझे किसी भी तरह से देखो, एक इंसान के रूप में मेरा आकलन करो, और तुम मेरे कहे गए वचनों और मेरे द्वारा की गई चीजों से चाहे जैसे पेश आओ, उसका अंततः कोई नतीजा निकलना चाहिए। परमेश्वर कार्य करेगा, और वह खुलासा करेगा कि क्या तुम्हारा चुनाव सही था या गलत, तुम्हारा रवैया सही था या गलत और क्या तुम्हारी सोच के साथ कुछ गलत हुआ है। परमेश्वर अपने देह के कार्य को कायम रखता है। तो फिर परमेश्वर दूसरे लोगों का साथ क्यों नहीं देता? वह मसीह-विरोधियों का साथ क्यों नहीं देता? इस वजह से कि आत्मा और देह एक हैं; उनका स्रोत एक है। दरअसल, यह कायम रखना नहीं है—यानी एक बार तुमने अंत तक अनुभव कर लिया हो, तो वे चाहे देहधारी परमेश्वर द्वारा बोले गए वचन हों, या वे तुम तक पवित्र आत्मा के प्रबोधन से पहुँचे हों, वे एक जैसे होंगे। वे कभी भी एक-दूसरे के विपरीत नहीं होंगे; वे सुसंगत होंगे। क्या तुम लोगों के पास इस बात की पुष्टि है? कुछ लोगों के पास है, जबकि दूसरे अपने अनुभव में इस बिंदु तक नहीं पहुँच पाए हैं, और उनके पास इसकी पुष्टि नहीं है। इसका अर्थ है कि उनकी आस्था अभी तक इस बिंदु पर नहीं पहुँची है; यह अभी भी बहुत छोटी है। दूसरे शब्दों में, जब तुम्हारा विश्वास एक निश्चित सीमा तक पहुँच जाता है, तो एक दिन आएगा जब तुम्हें लगेगा कि इस साधारण देह द्वारा बोला गया एक साधारण-सा वाक्यांश, ऐसा वाक्यांश जिसे सुन कर तुम्हें नहीं लगा कि यह ज्यादा प्रभावशाली है, वह तुम्हारा जीवन बन गया है। यह तुम्हारा जीवन कैसे बन जाएगा? तुम अपने कार्यकलापों में अनजाने ही उस पर भरोसा करने लगोगे। यह तुम्हारे दैनिक जीवन के लिए एक मार्गदर्शक बन गया होगा। और जब तुम्हारे पास कोई मार्ग नहीं होगा, तो यह वाक्यांश तुम्हारी वास्तविकता बन जाएगा, और यह एक लक्ष्य बन जाएगा जो तुम्हें रास्ता दिखाएगा; जब तुम पीड़ा में होगे, तो यह वाक्यांश तुम्हें नकारात्मकता से उबरने और यह समझने में मदद करेगा कि तुम्हारी समस्या क्या है। ऐसे अनुभव के बाद तुम देखोगे कि वह वाक्यांश जितना साधारण है, उसके शब्दों में उतना ही वजन और जीवन है—कि यह सत्य है! यदि तुम सत्य का अनुसरण करने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, और सत्य से प्रेम नहीं करते, तो तुम परमेश्वर और उसके देहधारण और उसके द्वारा व्यक्त सत्यों की निंदा कर सकते हो। यदि तुम सत्य का अनुसरण करने वाले व्यक्ति हो, तो तुम्हारे अनुभव में एक दिन आएगा जब तुम कहोगे, “परमेश्वर के साथ मिल-जुल कर रहना बहुत आसान है। देहधारी परमेश्वर के साथ मिल-जुल कर रहना बहुत आसान है”—लेकिन कोई नहीं कहेगा, “मैं उसके साथ मिल-जुल कर ऐसे रह रहा हूँ जैसे कि वह इंसान हो।” ऐसा क्यों है? इस वजह से कि मसीह के वचनों का और अपने दैनिक जीवन में जब तुम उसे देख नहीं पाते, और पवित्र आत्मा द्वारा तुम्हारे भीतर किए गए कार्य का तुम्हारा अनुभव एक समान होते हैं। यह “समान होना” तुम्हारे भीतर किस चीज का आह्वान करता है? तुम कहोगे, “परमेश्वर ने एक साधारण, सामान्य बाहरी रूप, एक देह की छवि अपना ली है, इसलिए लोगों ने उसके सार की अनदेखी की है। यह ठीक इस वजह से है कि स्वभाव भ्रष्ट होने के कारण लोग परमेश्वर के उस पक्ष को नहीं देख पाते जो उसका सार होता है। वे बस वही पक्ष देखते हैं जो मनुष्य देखने में सक्षम होता है। लोगों में वास्तव में सत्य की कमी होती है!” क्या बात ऐसी नहीं है? (हाँ, है।) ऐसा ही होता है। उदाहरण के लिए कुछ कार्य के यदि कई पहलू हैं जो मैं नहीं कर सकता, तो बहुत-से लोग निश्चित रूप से धारणाएँ बना लेंगे। लेकिन जब मैं कार्य के प्रत्येक पहलू का कुछ अंश करने में सक्षम होता हूँ, तो सभी लोग थोड़े शांत रहते हैं, और उनके दिल में थोड़ा सुकून रहता है : “ठीक है। वह परमेश्वर जैसा प्रतीत होता है—मैं बस इतना ही कह सकता हूँ। वह देहधारी परमेश्वर जैसा लगता है, वह मसीह जैसा प्रतीत होता है। संभवतः वह मसीह है।” यही एक प्रकार की परिभाषा है जो लोगों के मन में होती है। फिर भी यदि मैं केवल सत्य पर संगति करता और परमेश्वर के कुछ वचन व्यक्त करता और उससे अधिक कुछ न करता—यदि मैं किसी भी कार्य के बारे में कोई व्यावहारिक सलाह नहीं देता, और व्यावहारिक सलाह देने में असमर्थ होता, तो इससे उस देह के प्रति लोगों का सम्मान और जो महत्व वे उसे देते हैं, वह कम हो जाता। लोग मानते हैं कि देह को कुछ विशेष क्षमताओं और कुछ प्रतिभाओं से युक्त होना चाहिए। क्या वास्तव में यह प्रतिभा है? नहीं। परमेश्वर लोगों को हर प्रकार की प्रतिभा, गुण और क्षमताएँ दे सकता है, तो मुझे बताओ, क्या स्वयं परमेश्वर इनसे युक्त है? बहुतायत में! इसलिए कुछ ऐसे लोग हैं जो इस पहेली को नहीं सुलझा सकते और कहते हैं, “तुम जब स्वयं नहीं गा सकते तो हमें गाने का निर्देश कैसे दे सकते हो? क्या यह आम आदमी का पेशेवरों को निर्देश देना नहीं है? क्या यह सिद्धांतों के विरुद्ध नहीं है?” मैं तुम्हें बताता हूँ, मैं एक अपवाद हूँ। ऐसा क्यों है? यदि तुम लोग कुछ अच्छा नहीं कर सकते हो, तो मुझे तुम्हारी तरफ मदद का हाथ बढ़ाना होगा; यदि तुम लोग कोई काम कर सकते हो, तो मुझे दूर रहने में कोई परेशानी नहीं है, मैं दखल नहीं देना चाहता—ऐसा करने से मुझे थकान हो जाएगी। यदि तुम लोग कोई चीज अच्छे ढंग से नहीं कर सकते, तो मुझे तुम्हारी तरफ मदद का हाथ बढ़ाने की क्या जरूरत है? मैं यहाँ दिखावा नहीं कर रहा हूँ, और मैं ऊँचे आडंबरी विचार नहीं उगल रहा हूँ। मैं बस तुम लोगों को पेशेवर कौशल में और सत्य सिद्धांतों के क्षेत्रों में दोनों में समान ढंग से सिखाना चाहता हूँ। एक बार जब तुम लोगों ने कौशल सीख लिए होंगे और सिद्धांत समझ लिए होंगे, तो मेरे दिल से एक बड़ा बोझ उतर जाएगा, क्योंकि वे चीजें मेरे जिम्मे के कार्यों के दायरे से बाहर हैं। कुछ लोग कहते हैं, “यदि यह तुम्हारे जिम्मे का कार्य नहीं है, तो तुम इसे क्यों करते हो?” इसे करना ही होगा और लोग इस कार्य को करने में सक्षम नहीं हैं। यदि मैं उन्हें सलाह न दूँ जैसे कि दिया करता हूँ, तो किए गए कार्य कुछ विशेष नहीं होंगे, और परमेश्वर की गवाही देने के मामूली नतीजे निकलेंगे। यदि मेरे पास दिखाने को कोई महत्वपूर्ण कार्य न होता, तो मैं थोड़ा असावधान और असहज भी रहता, इसलिए मैं उतना थोड़ा-सा कार्य करता हूँ, जिसकी अनुमति मेरी ऊर्जा और शारीरिक हालत देती है। क्यों? इसके कई कारण हैं। जब पूरी मानव जाति लोगों की बनाई हुई चीजें देखती है, और उन्हें आत्मसात करती है, तो लोगों के परिप्रेक्ष्य, नजरिए और समझ की क्षमताएँ केवल इस संदर्भ में अलग होती हैं कि वे कितने समय से विश्वासी रहे हैं, उनका अनुभव, उनकी काबिलियत, लेकिन उन सबके आरंभ बिंदु मूल रूप से एक ही होते हैं। उनके आरंभ बिंदु सत्य की उनकी समझ के आधार पर सत्य वास्तविकताओं के उनके अनुभव होते हैं। ये वे चीजें हैं जो मानव जाति बना सकती है। मैं एक साधारण इंसान के परिप्रेक्ष्य से चीजें नहीं कर सकता या चीजें तैयार नहीं कर सकता। तो फिर मेरा परिप्रेक्ष्य क्या होना चाहिए? देह का? मैं यह भी नहीं कर सकता। क्या तुम्हें नहीं लगता है कि यह अनुपयुक्त होगा? निस्संदेह मैं वे वचन कहने, वे कार्य करने और उन नजरियों को व्यक्त करने के लिए देह के भीतर परमेश्वर और उसके कार्य का परिप्रेक्ष्य अपना लूँगा। क्या इन चीजों के मूल्य को मानव जाति के बीच पैसे से मापा जा सकता है? (नहीं।) नहीं मापा जा सकता। इस वजह से कि जब ये चीजें पूर्ण आकार ले लेंगी तो ये मानव जाति के लिए सदा के लिए बनी रहेंगी। वो साधारण कार्य भी बेशक सदा के लिए बने रहेंगे। लेकिन चूँकि ये साधारण कार्य सदा के लिए भविष्य में भी बने रहेंगे, और पूरी मानव जाति को योगदान देंगे, चाहे वे परमेश्वर में विश्वास रखने की मार्गदर्शिकाएं हों, या पोषण और मदद के, मुझे कुछ अधिक वजनदार काम करने चाहिए, ठीक है? इसी वजह से मुझे उस परिप्रेक्ष्य से वचन बोलने होंगे और वैसी चीजें बनानी होंगी जिसे मानव जाति नहीं अपना सकती। मैं किसके लिए ऐसा करता हूँ? कलीसिया की प्रसिद्धि बढ़ाने के लिए। क्या यह मंशा सही है? (हाँ, है।) मुझे बताओ, कलीसिया की प्रसिद्धि ज्यादा होने पर क्या परमेश्वर की गवाही देना फायदेमंद होता है? (हाँ।) क्या इससे इसे बढ़ावा मिलता है, या इससे रोक लगती है। (इससे बढ़ावा मिलता है।) यह सुनिश्चित है—इसे इससे निश्चित रूप से बढ़ावा मिलता है। जब कुछ गैर-विश्वासी और धार्मिक समूह इन कामों को देखते हैं, तो वे चकित रह जाते हैं कि ये फिल्में कितनी बढ़िया बनाई गई हैं, और वे हमेशा परदे के पीछे के फिल्म-निर्माता से मिलना चाहते हैं। मैं इन लोगों से नहीं मिलूँगा। मेरे पास इन लोगों से मिलने का समय नहीं है, और मैं नहीं जानता कि मुझसे मिलने का उनका प्रयोजन क्या होगा। तो फिर मेरे उनसे मिलने का क्या लाभ होगा? यदि ये फिल्में देखने वाले लोग सत्य को स्वीकार सकें, तो यह काफी है, और यदि वे सच्चे मार्ग की खोजबीन करना चाहें तो यह और भी अच्छा है। उनका मुझसे मिलना जरूरी नहीं है। संक्षेप में कहूँ, तो मैं कुछ वजनदार चीजें बनाता हूँ, ताकि जब मानव जाति इन चीजों को देखे तो यह कुछ हद तक उनके लिए अधिक लाभकारी हो। मानव जाति पर इन चीजों को छोड़ देना अच्छा है या खराब? (अच्छा है।) यह सार्थक है; यह करने योग्य है।

तुम लोगों के साथ मिल-जुल कर रहने का मेरा यही तरीका है। तुम सबके साथ मेरा जो रिश्ता है, वह यही है जिसे तुम लोग देखते और महसूस करते हो। तो तुम लोगों के साथ परमेश्वर का रिश्ता किस प्रकार का है? क्या इसे महसूस किया जा सकता है? यह वैसा ही है। यह सोचते मत रहो, “देहधारी परमेश्वर एक व्यक्ति है; उसके साथ मिल-जुल कर रहना आसान है। लेकिन स्वर्ग के परमेश्वर के साथ आसान नहीं है, अपने प्रताप और क्रोध के साथ—वह भयानक है!” परमेश्वर वैसा ही है जैसा मैं हूँ। वह किसी टिप्पणी, किसी तरीके या शक्ति से तुम्हें नहीं जीतेगा या नियंत्रित नहीं करेगा। वह ऐसा नहीं करेगा। वह तुम्हारे साथ उसी तरह मिल-जुल कर रहेगा जैसे तुम लोगों को लगता है कि मैं तुम लोगों के साथ मिल-जुल कर रहता हूँ : मैं तुम लोगों को जो सिखा सकता हूँ वह सिखाता हूँ, और जितना भी बन पड़े, उतना मैं तुम लोगों को समझने योग्य बनाता हूँ। जहाँ तक उन चीजों का सवाल है जिन्हें तुम लोग नहीं समझ सकते, मैं तुम लोगों के मन में वे चीजें जबरन नहीं बिठाता। कुछ लोग कह सकते हैं, “तुम कहते हो कि तुम हमारे भीतर अपने विचार जबरन नहीं बिठाते हो—ठीक है फिर, तुम सारा वक्त सत्य का उपदेश दे कर क्या कर रहे हो?” क्या यह विचार बिठाना है? इसे तुम्हारे लिए प्रावधान करना कहते हैं—यह तुम्हें तरक्की करने को मजबूर कराना नहीं है, यह सिंचन है। सिंचन उचित है; यह सकारात्मक चीज है। कुछ लोग कहेंगे, “क्या मसीह-विरोधियों की लोगों पर जीत परमेश्वर की जीत के समान नहीं है?” (नहीं है।) किस तरह से नहीं है? लोगों पर मसीह-विरोधियों की जीत और परमेश्वर की जीत, दोनों के लिए एक ही शब्द प्रयुक्त होता है; उस शब्द के इन दो प्रयोगों के बीच सार में क्या अंतर है? क्या तुम लोग इसे स्पष्ट तौर पर समझा सकते हो? यदि तुम लोग इतना भी नहीं कर सकते, तो तुम लोगों की सत्य की समझ बस बेहद कमजोर है। (लोगों पर शैतान की जीत जबरन नियंत्रण है, जबकि परमेश्वर की जीत सत्य उपलब्ध कराना है—यह लोगों को सत्य सिद्धांत बताना है, जिसका लोग फिर अभ्यास कर सकते हैं और इस प्रकार जीवन प्राप्त कर सकते हैं।) इसलिए मैं तुम लोगों से पूछता हूँ : शैतान लोगों को नियंत्रित करता और जीतता है, लेकिन क्या उसके पास सत्य है? (नहीं।) शैतान क्या है? वह किस आधार पर लोगों को जीतता है? दूसरे शब्दों में, वह क्या चीज है जो शैतान को इस योग्य बनाती है कि वह लोगों को जीते और उन्हें प्राप्त करने की कोशिश करे? शैतान के पास कुछ भी नहीं है। तो वह लोगों को जीतने के लिए किस चीज का उपयोग करता है? वह लोगों को जीत लेने के बाद उन्हें क्या उपलब्ध करा सकता है? वह तुम्हें सिर्फ भ्रष्ट बना सकता है; वह तुम्हारे साथ सिर्फ खिलवाड़ कर सकता है, और तुम्हें बरबाद कर सकता है, और अंत में तुम्हें पूरी तरह बरबाद कर देने के बाद वह तुम्हें नरक में भेज देगा। उसकी जीत और नियंत्रण का यह कैसा तरीका है? यह सिर्फ दुर्व्यवहार है। तुम्हें नियंत्रित करने और जीतने का उसका लक्ष्य तुम्हें परमेश्वर और सत्य के प्रति समर्पण करने से रोक कर तुमसे अपने प्रति समर्पण करवाना है। शैतान की दृष्टि में तुम्हारा परमेश्वर के प्रति समर्पण गलत है, और उसके प्रति समर्पण सही है। यदि तुम उसके प्रति समर्पण कर देते हो, और उसके द्वारा नियंत्रित हो जाते और जीत लिए जाते हो, तो तुमने परमेश्वर को छोड़ दिया होगा और उसे पूरी तरह से अस्वीकार कर दिया होगा। तो फिर लोगों पर परमेश्वर की जीत कैसे काम करती है? परमेश्वर स्वयं ही सत्य है; वह सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है, सभी सकारात्मक चीजों का स्रोत है, सत्य का स्रोत है। तो फिर लोग क्या हैं? लोग शैतान द्वारा भ्रष्ट प्रकार के हैं। उनके पास सत्य नहीं है। इसलिए परमेश्वर को लोगों का न्याय कर उन्हें ताड़ना देनी चाहिए, और सत्य व्यक्त करके और मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों को उजागर करके उनकी परीक्षा ले कर उनका शोधन करना चाहिए, ताकि लोग परमेश्वर की बातों को समझ सकें और उसे सृष्टिकर्ता और खुद को सृजित प्राणियों के रूप में स्वीकार कर पाएँ, उसके समक्ष आ पाएँ, उसके समक्ष दंडवत हो पाएँ, और उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं को स्वीकार कर पाएँ। क्या यह सब सत्य के अनुरूप नहीं हैं? (बिल्कुल है।) तो फिर यह जीत क्या है? यह लोगों को प्राप्त करना है, यह उद्धार है; यह सकारात्मक चीज है। यह तुम्हें नुकसान पहुँचाना नहीं है। क्या इसमें और शैतान की जीत के बीच कोई अंतर नहीं है? लोगों को जीतना परमेश्वर के लिए उचित है। वह सत्य है, सभी सकारात्मक चीजों का स्रोत। यह कहना कि वह “मानव जाति को जीतता है”, इस बात को कहने का अत्यंत उपयुक्त तरीका है! मानव जाति के पास सत्य नहीं है, उसे शैतान ने गहराई से भ्रष्ट कर अपने समान बना लिया है। इसीलिए लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण नहीं करते, उसे नकारते हैं, और उसे अस्वीकार करते हैं। इस बारे में क्या किया जा सकता है? परमेश्वर को सत्य व्यक्त करना चाहिए, और ताड़ना और न्याय के तरीकों का उपयोग करना चाहिए ताकि लोग समझें पाएँ कि परमेश्वर कौन है, सृष्टिकर्ता कौन है, सृजित प्राणी कौन हैं, और शैतान कौन है, और वे प्रभु को पहचान कर उसके पास लौट जाएँ, सृष्टिकर्ता को स्वीकारें और उसकी मौजूदगी में खुद को उसके सृजित प्राणी के रूप में स्वीकार करें। यही जीत का अर्थ है। क्या परमेश्वर द्वारा जीते हुए लोग सत्य को समझते हैं या वे नहीं समझते? (वे समझते हैं।) और शैतान द्वारा जीते हुए लोग—वे क्या प्राप्त करते हैं? वे किसी भी सत्य को नहीं समझते, वे परमेश्वर से दूर भागते हैं, उससे विश्वासघात करते हैं, और उसे अस्वीकार करते हैं, उसके बारे में धारणाएँ रखते हैं, और यहाँ तक कि शैतान और मसीह-विरोधियों का अनुसरण करते हैं। वे शायद परमेश्वर की आलोचना भी करें, उसके विरुद्ध विद्रोह करें, और उसे कोसें, उसके प्रति समर्पण करना तो दूर की बात है, उसकी संप्रभुता को स्वीकारने से भी इनकार कर दें। क्या ये लोग स्वीकार्य सृजित प्राणी हैं? (नहीं।) ये परमेश्वर द्वारा जीते हुए लोगों के ठीक विपरीत हैं; और इसका प्रभाव लोगों पर परमेश्वर की जीत के बिल्कुल विपरीत होता है।

यदि मसीह-विरोधी जैसा कोई रुतबे वाला व्यक्ति हो, और वह ऐसी किसी जगह जाए जहाँ लोग न जानते हों कि वह अगुआ है, तो क्या वह इस बात से खुश रहेगा? नहीं। वह जहाँ भी जाएगा, सबको बताने के लिए अपने बूते किसी भी उपाय का प्रयोग करेगा, “मैं अगुआ हूँ; मेरे लिए कुछ खाना बनाओ। मुझे कुछ बढ़िया खाना खाना है!” तुम लोगों के ख्याल से रुतबे के बारे में मेरी सोच क्या है? (तुम्हें इसमें रुचि नहीं है।) यह रुचि का अभाव किस तरह अभिव्यक्त होता है? जब मैं कहीं जाता हूँ, तो वहाँ जितना हो सके लोगों को बताता हूँ कि मेरी पहचान के बारे में खुलकर खबर न फैलाएँ, या लोगों को जानने न दें। मैं ऐसा क्यों करता हूँ? इस वजह से कि जब लोग इस बारे में जान जाते हैं, तो वास्तविक पीड़ा होती है। यदि वे न जानते हों तो हो सकता है वे मुझसे अपने दिल की बात कह दें; एक बार जान जाएँगे तो इससे पीड़ा होती है—वे मेरे सामने अपना मुँह बंद कर लेते हैं। मुझे बताओ, अगर कोई अपने दिल की बात मुझसे न कहे तो क्या मुझे अकेलापन महसूस नहीं होगा? मैं भरसक कोशिश करता हूँ कि लोगों को न पता चलने दूँ, ताकि लोग मुझसे ऐसा व्यवहार करें जैसे कि मैं आम आदमी हूँ, और वे जो चाहें मुझसे कहें। लोगों का आजाद और मुक्त महसूस करना बहुत अच्छा है, कि मैं उन्हें हमेशा बांधकर न रखूँ और वे मेरी मौजूदगी में हमेशा अत्यंत श्रद्धापूर्ण न रहें। उनके लिए ऐसा करना जरूरी नहीं है; मुझे यह अच्छा नहीं लगता। जो लोग सत्य को नहीं समझते, वे सोचते हैं, “निश्चित रूप से तुम्हें यह पसंद है, इसलिए मैं तुमसे इसी तरह बर्ताव करूँगा।” जब मैं ऐसे लोगों को देखता हूँ, तो छिप जाता हूँ। जब मैं किसी को हमेशा सिर झुकाते और दंडवत होते देखता हूँ, तो मैं जल्दी से छिप जाता हूँ। मैं ऐसे लोगों के संपर्क में बिल्कुल नहीं रहना चाहता—इसमें बड़ा झंझट है, बहुत मुसीबत है! हालाँकि मसीह-विरोधी अलग होते हैं। उन्हें उम्मीद होती है कि उन्हें लोगों का सम्मान मिलेगा, वे जहाँ भी जाएँगे उनसे विशेष व्यवहार किया जाएगा। और इससे भी ज्यादा वे किसकी उम्मीद करते हैं? यह कि अगर वे आसपास हों, तो उनकी अगुआई वाले लोग पूरी तरह से उनके आदेशों का पालन करेंगे और बिना किसी समझौते के पूर्णता की सीमा तक उनकी आज्ञा मानेंगे; फिर वे सोचते हैं, “देखो—तुम उन सिपाहियों, उस टीम के बारे में क्या सोचते हो जिसकी मैं अगुआई करता हूँ? वे सब आज्ञाकारी हो कर मेरा कहा करते हैं।” वे उपलब्धि की विशेष भावना का अनुभव करते हैं। वे लोगों को प्रशिक्षण देते हैं कि वे कठपुतली बनें, दास जैसे बनें, अपनी कोई स्वतंत्र सोच, राय या दृष्टिकोण न रखें; वे उनमें से प्रत्येक को संवेदनहीन और मंद-बुद्धि बना देते हैं। तब मसीह-विरोधी दिल की गहराई में आनंदमय और खुश महसूस करते हैं, उन्हें ऐसा लगता है कि उनके काम के नतीजे मिल गए हैं, कि उनकी इच्छाएँ और महत्वाकांक्षाएँ साकार हो गई हैं। यदि चीजें ऐसी न हों, तो वे दिल से दुखी हो जाते हैं : “लोग बस वह क्यों नहीं करते जो मैं कहता हूँ? मुझे उनसे अपनी आज्ञा मनवाने के लिए क्या करना चाहिए? ठीक है—यदि तुम नहीं जानते हो कि मैं कमाल का आदमी हूँ, तो मुझे तुम्हें दिखाना ही होगा! मेरे पास स्नातक उपाधि है; मैं हर दिन अपने साथ अपना डिप्लोमा ले कर चलता हूँ, ताकि तुम देख सको। मैंने अंग्रेजी मेजर आठवीं श्रेणी की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली है, और मैं छात्र संघ का प्रमुख था। यह देख कर कि तुम लोग मुझे अच्छी तरह से नहीं समझते, मैं तुम लोगों के लिए थोड़ा दिखावा करूँगा!” जब भी वे काम पर विचार-विमर्श करते हैं, तो कहते हैं, “तुम सबके मन में जो भी विचार हों, बता दो; अपने विचार खुल कर व्यक्त करो—मुझसे बेबस मत रहो।” और इसलिए वहाँ लोग अपने विचार व्यक्त करने लगते हैं। उनके व्यक्त करने के बाद स्नातक उपाधि वाला यह “श्रेष्ठ व्यक्ति” कहता है, “तुम लोगों के विचार अच्छे नहीं हैं। वे सब बहुत साधारण हैं, आम लोगों के विचार हैं। मुझे सच में दखल देना होगा—देखो : तुम लोग काम नहीं कर सकते! मैं दरअसल यह काम हाथ में नहीं लेना चाहता, लेकिन अगर मैं यहाँ नहीं होता, तो तुम लोग यह जिम्मेदारी उठाने में सक्षम न होते, इसलिए मुझे हाथ बँटाना पड़ेगा। मैंने इस मामले पर गहराई से सोचा है। हम इसे इस तरह से सँभालेंगे। तुम लोगों की बताई कोई भी तरकीब काम नहीं आएगी; मैं तुम लोगों को एक बेहतर तरीका बताऊँगा। अतीत में कार्य व्यवस्थाओं में हमसे यही करने की अपेक्षा की गई थी—अब से हम उन विनियमों से चिपके नहीं रहेंगे। हम अब इसे उस तरह से नहीं करेंगे।” कुछ लोग कहते हैं, “यदि हम कार्य व्यवस्थाओं के अनुसार कार्य न करें, तो परमेश्वर के घर को बहुत बड़ा नुकसान होगा।” वे जवाब देते हैं, “इस बारे में इतना ज्यादा मत सोचो—क्या परमेश्वर का घर इस थोड़ी-सी धनराशि की परवाह करेगा? चलो नतीजों पर ध्यान केंद्रित करते हैं—वही मायने रखते हैं। अब से मैं जैसा कहूँ वैसा करो। यदि कुछ गलत हो जाए, तो उसकी जिम्मेदारी मेरी है।” उन्हें कोई भी नहीं रोक सकता। क्या वे बस ऊँचे आडंबरी विचार नहीं उगल रहे हैं? ऐसा करने के पीछे उनका लक्ष्य क्या है? यह दिखावा करने के लिए है, और प्रत्येक व्यक्ति को हर समय अपने अस्तित्व और अपनी मेधा की याद दिलाना है। वे किस तरह से मेधावी हैं? साधारण लोगों को अपनी रहस्यमयता दिखाने में। भले ही मसीह-विरोधी दूसरे लोगों जैसा ही दृष्टिकोण रखें, फिर भी जब वह दृष्टिकोण दूसरे व्यक्त करते हैं, तो वे उसे अस्वीकार कर देते हैं, जिसके बाद वे उसे दोबारा व्यक्त कर फिर से शुरू करके आगे हो जाते हैं। उनकी बात सुन कर समूह कहता है : “क्या यह वही विचार नहीं है?” वे कहते हैं, “वही हो या न हो, यह बात मैंने कही है। तुम वे लोग नहीं हो जिन्होंने यह बात कही है। मैं ही इस विचार के साथ आगे रहा हूँ।” वे अपनी बात के साथ चाहे जैसे आगे-पीछे होते रहें, उनका लक्ष्य सभी को विश्वास दिलाना होता है, लोगों को जताना होता है : “मैं व्यर्थ ही अगुआ नहीं हूँ; मैं व्यर्थ ही समूह अगुआ और प्रभारी नहीं हूँ। मैं केवल बातों का पुलिंदा नहीं हूँ—प्रतिभाओं, गुणों और योग्यताओं के बिना मैं इस पद पर नहीं होता।” यदि उनकी अनुपस्थिति में कुछ हो जाए तो दूसरा कोई भी व्यक्ति लोगों को नहीं बता सकता कि क्या करना है, और यदि वे वहाँ हुए तो सारे फैसले वे ही लेंगे। सभी को उनकी भाव-भंगिमाओं पर नजर रखनी चाहिए। सभी लोग तभी राहत की साँस ले सकते हैं जब वे निर्णय ले रहे हों; यदि वे निर्णय न ले रहे हों, तो सभी लोग व्याकुल हो जाते है। यदि उन्हें फैसला न लेने दिया जाए, तो हाथ में जो काम है उसे करना संभव नहीं होता। क्या ऐसा करने के पीछे उनका कोई लक्ष्य नहीं होता? कभी-कभार वे मन-ही-मन सोचते हैं, “मैं जो कर रहा हूँ क्या वह सही है? बेहतर होगा मैं यह न करूँ—मैं अपना खूब मजाक उड़वा रहा हूँ। क्या यही वह तरीका नहीं है जिससे मसीह-विरोधी कार्य करते हैं? इससे काम नहीं चलेगा; मेरा गौरव ही मायने रखता है। ‘मसीह-विरोधी’? ऊपर वाले ने मेरी निंदा नहीं की है, इसलिए वह मैं नहीं हूँ!” और वे वही करते जाते हैं जो वे करते रहे हैं। कभी-कभी वे अच्छी तरह जानते हैं कि वे जो कर रहे हैं, उससे कार्य व्यवस्था और सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन होता है, कि वे स्पष्ट रूप से अपने गौरव और रुतबे का ध्यान रख रहे हैं, उनके अपने इरादे हैं—फिर भी वे परमेश्वर का भय मानने वाला दिल रखना तो दूर, नतीजों पर ध्यान दिए बिना वही करते जाते हैं जो वे करते रहे हैं। क्या यह स्वभावगत समस्या नहीं है? इस प्रकार का स्वभाव उन्हें किस ओर आगे बढ़ाता है? अत्यंत घमंडी होने, और बुरे काम करते हुए पागलों की तरह उत्पात मचाने की ओर। क्या अपने दिलों में वे सचमुच नहीं जानते कि कार्य करने का उचित तरीका क्या है? क्या वे वास्तव में नहीं समझते कि वे जो कर रहे हैं उससे सिद्धांतों का उल्लंघन होता है? क्या वे सचमुच नहीं जानते कि वे जो कर रहे हैं उससे दूसरे गुमराह और नियंत्रित हो रहे हैं, कि वे बुराई कर रहे हैं? वे इन चीजों को जानते और समझते हैं। कि फिर भी वे इसी तरह कार्य करते रह सकते हैं, इसका अर्थ यह है कि वे सत्य से प्रेम नहीं करते और उससे विमुख हैं। वे किसी भी दृष्टिकोण, तरीके, ढंग या वक्तव्य को अस्वीकार करते हैं, अगर वह उनके मुँह से न निकला हो। क्या यह महत्वाकांक्षा नहीं है? (बिल्कुल है।) इसके भीतर महत्वाकांक्षा और बुरी मंशाएँ हैं। कौन-सी बुरी मंशाएँ? इसके पीछे क्या छिपा हुआ है? (लोगों से वह करवाना जो वे कहें।) लोगों से वह करवाना जो वे कहें—वे कोई भी ऐसा फायदा या अलग दिखने का मौका नहीं गँवा सकते, या ऐसा नहीं होने दे सकते कि यह किसी दूसरे को मिल जाए। हर बार निर्णय उन्हें ही लेने होंगे; हर बार फैसले उन्हें ही लेने होते हैं; हर बार कार्य के फल उन्हीं को चाहिए होते हैं, और इनका श्रेय केवल उन्हीं को मिलना चाहिए। अंत में, वे सभी में एक प्रवृत्ति विकसित कर देते हैं। कौन-सी प्रवृत्ति? यह सोचने की प्रवृत्ति कि कार्य तभी परिचालित हो सकता है जब वे समूह में हों—मानो उनके बिना कोई भी दूसरा व्यक्ति जिम्मेदारी न उठा सकता हो। इसके साथ क्या उन्होंने अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लिया है? ये लोग उनके नियंत्रण में आ चुके हैं। नियंत्रित किए जाने से पहले क्या होता है? पूरी तरह से जीत लिया जाना और पराजित हो जाना—मसीह-विरोधी तुम्हें सताते हैं कि तुम उनके प्रति समर्पण कर दो, इस तरह कि तुम्हें सही और गलत का अंतर मालूम न हो, और उन्हें पहचानने की बिल्कुल कोशिश न करो, या सत्य का कोई भी पहलू उनके साथ न जोड़ो और दृढ़ता से मान लो कि वे जो भी करते हैं वह सही है, और अब विश्लेषण करने की हिम्मत न करो कि वे सही हैं या गलत। लोगों के मसीह-विरोधियों द्वारा गुमराह और नियंत्रित होने के बाद ये नतीजे निकलते हैं, और ठीक उसके बाद वे लोग मसीह-विरोधियों का अनुसरण करते हैं। क्या ऐसा नहीं होता? (बिल्कुल होता है।) क्या यह स्पष्ट रूप से इस बात की अभिव्यक्ति नहीं है कि मसीह-विरोधी दूसरों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाते हैं, सत्य या परमेश्वर के प्रति नहीं? (बिल्कुल है।) वे जो भी करते हैं उसके पीछे की मंशाएँ और बुरे इरादे क्या होते हैं, और उनके क्रियाकलापों, उनके तरीकों और साधनों और यहाँ तक कि उनके वक्तव्यों का स्रोत क्या होता है? यह होता है कि वे तुम्हें पराजित करना चाहते हैं, दबाना चाहते हैं, तुमसे अपने प्रति समर्पण करवाना चाहते हैं, और तुम्हें दिखाना चाहते हैं कि सत्ता किसके हाथ में है, कौन अगुआई करने योग्य है, वहाँ किसका निर्णय अंतिम होता है, और जिसका निर्णय अंतिम होता है वह सत्य नहीं होता—एकमात्र उनके सिवाय कोई भी दूसरा इन लोगों का प्रभु नहीं हो सकता, फैसले नहीं ले सकता या निर्णय नहीं कर सकता। तुम सत्य का उल्लेख करना चाहते हो, लेकिन तुम्हारे पास ऐसा करने का कोई रास्ता नहीं होता। तुम भिन्न मत उठाना चाहते हो—लेकिन उस बारे में सोचते भी नहीं हो। मसीह-विरोधियों का यह कौन-सा स्वभाव है? यह क्रूरता है; वे लोगों को जीतना और नियंत्रित करना चाहते हैं। तुम चाहे मसीह-विरोधियों की इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं पर गौर करो, या उनके वास्तविक कार्यकलापों पर, ये सब क्रूरता और सत्य से विमुख होने का उनका स्वभाव दर्शाते हैं। लोगों को जीतने और नियंत्रित करने के ये तरीके, खुलासे और अभिव्यक्तियाँ जिनसे मसीह-विरोधी युक्त होते हैं, और साथ ही उनके सार, पूरी तरह से हमारी संगति के मुख्य विषय से मेल खाते हैं। मसीह-विरोधी लोगों से केवल अपने प्रति समर्पण करवाते हैं—इसका निहितार्थ यह है कि लोगों को उनके कहे अनुसार करना चाहिए, और ऐसा करना परमेश्वर के प्रति समर्पण करना है। यदि कोई व्यक्ति भिन्न मत उठाए, और कहे कि वे जो कर रहे हैं वह सत्य के विपरीत है, तो वे पलट कर जवाब देंगे, “सत्य के विपरीत? हमें बताओ—सत्य क्या है? यदि तुम इसे स्पष्ट रूप से समझा सको, तो मैं तुम्हारी बात मान लूँगा—लेकिन यदि तुम नहीं समझा सके, तो मैं तुम्हें एक शर्मनाक स्थिति में डाल दूँगा!” जब वे ऐसा कहते हैं, तो कुछ लोग सचमुच डर जाते हैं, और कहते हैं, “मैं वास्तव में स्पष्ट रूप से इसे नहीं समझा सकता, इसलिए तुम जैसा कहोगे वैसा ही करूँगा।” ऐसा करके मसीह-विरोधियों ने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया होता है। क्या ऐसे लोग हैं जो यह करते हैं? (बिल्कुल हैं।) क्या तुम लोगों ने ऐसी चीजें की हैं? (नहीं।) मसीह-विरोधियों में यह कौशल होता है। जब एक साधारण व्यक्ति देखता है कि वह दूसरों को राजी नहीं कर सकता तो वह प्रयास करना छोड़ देता है; वह उस तकनीक से युक्त नहीं होता है। एक लिहाज से देखें, तो वह उस तरह से बोल और व्यक्त नहीं कर सकता—वह अच्छे ढंग से बोल और वाद-विवाद नहीं कर सकता। दूसरे लिहाज से देखें, तो वह दिल से उतना निष्ठुर नहीं होता। जो लोग ये चीजें कर सकते हैं, उनमें दुष्ट स्वभाव का होना जरूरी होता है। उन्हें क्रूर और पर्याप्त निष्ठुर होना चाहिए, किसी भी दूसरे की भावनाओं की परवाह नहीं करनी चाहिए। यदि कोई उनसे असहमत होगा, तो वे उसे सता कर मार डालेंगे, और वे चाहे जितनी भी क्रूरता से यह काम करें, इसके लिए उनका जमीर धिक्कार महसूस नहीं करेगा या उसके प्रति जागरूक नहीं होगा। कोई कहेगा, “वे पहले से ही दयनीय हैं; मैं उनसे अपना कहा क्यों करवा रहा हूँ? मैं उन्हें छोड़ दूँगा—वे परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, मुझमें नहीं। जो भी सत्य के अनुसार बोलता है वे उसकी बात पर ध्यान दे सकते हैं—कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कौन है। मैं इस बार इसे छोड़ दूँगा।” क्या मसीह-विरोधी इस प्रकार सोचते हैं? नहीं; मसीह-विरोधियों में ऐसी तार्किकता नहीं होती। वे अपनी महत्वाकांक्षाओं और इच्छाओं को ले कर अत्यंत स्पष्ट होते हैं। वे उनसे चिपके रहते हैं, उन्हें नहीं त्यागते, ठीक एक भेड़िये की तरह जिसके जबड़े में भेड़ फँसी हो। अगर तुम भेड़िये से बातचीत करने और उसे भेड़ को खाने से रोकने की कोशिश करोगे—तो क्या ऐसा होगा? नहीं होगा। क्यों नहीं होगा? इस वजह से कि यह उसका स्वभाव है। भेड़िया क्या मानता है? “मैं भूखा हूँ। मुझे भेड़ें खाना पसंद है। यह उचित है। चाहे मैं भेड़ खाऊँ या न खाऊँ, ठीक है।” यह उसका फलसफा, उसका मानक और उसके कार्यकलापों का स्रोत होता है। इसी तरह से, जब मसीह-विरोधी लोगों को जीतते और नियंत्रित करते हैं, तो क्या वे सोचते हैं, “मैं परमेश्वर नहीं हूँ। लोगों को नियंत्रित करना मेरे लिए कैसी शर्मिंदगी की बात है। यदि लोग मुझे पहचान लें, तो मैं मुँह कैसे दिखा सकूँगा?” क्या उनमें शर्म की ऐसी भावना होती है? (नहीं।) उन्हें शर्म का भान तक नहीं होता। तो उनकी मानवता में किस चीज की कमी होती है? शर्म, तार्किकता और जमीर। ये चीजें उनकी मानवता में नहीं होतीं। इन चीजों के बिना, क्या वे अभी भी इंसान हैं? वे नहीं हैं। वे तमाम लोग जो इंसान की खाल में हैं, जरूरी नहीं कि वे इंसान ही हों—कुछ राक्षस होते हैं, कुछ जिंदा लाशें हैं, और कुछ जानवर हैं। तो फिर मसीह-विरोधी किस प्रकार के लोग हैं? वे दानव हैं; उनमें से कुछ बुरे राक्षस हैं, और दूसरे कुछ बुरी आत्माएँ हैं। सारांश में, वे इंसान नहीं हैं। मसीह-विरोधी, खुद में सामान्य मानवता का विवेक, जमीर और शर्म न होने के कारण, लोगों और लोगों के दिलों के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम होते हैं। यह दिखाता है कि उनका प्रकृति सार दुष्ट है। रुतबे के लिए दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा करना उनके लिए न्यायोचित नहीं होता, रुतबे और लोगों के लिए परमेश्वर से प्रतिस्पर्धा करना तो दूर की बात है! यह और अधिक दर्शाता है कि वे प्रामाणिक मसीह-विरोधी हैं, कि वे दानव और शैतान हैं।

हमने अभी मद आठ तक मसीह-विरोधियों की अभिव्यक्तियों पर संगति कर ली है। क्या तुम लोग यह देखने के लिए कि तुम किस प्रकार के व्यक्ति हो, अब मसीह-विरोधियों और साथ ही मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने वाले और उनके स्वभाव से युक्त लोगों और अपने बीच संबंध स्थापित कर सकते हो? (बिल्कुल।) तुम इनमें से कुछ संबंध स्थापित कर सकते हो। ऐसा करने से लोगों की कौन-सी समस्याएँ दूर की जा सकती हैं? (यह हमें गलत मार्ग पर कदम रखने से रोक सकता है।) यह तुम्हें गलत मार्ग पर कदम रखने से रोक सकता है। इसके अलावा? (यह हमें हमारे आसपास के लोगों, घटनाओं और चीजों को पहचानने योग्य बनाता है।) यह तुम्हें तुम्हारे आसपास के कुछ लोगों को पहचानने योग्य बनाता है। दूसरों को पहचानने योग्य बनना उसका ही भाग है; हालाँकि मुख्य रूप से तुम्हें स्वयं को, अपने भीतर के मसीह-विरोधी स्वभाव को और जिस मार्ग पर कदम रखते हो, उसे पहचानना आना चाहिए। इससे तुम्हें मदद मिलेगी कि तुम अपने कर्तव्य निर्वहन में भटक न जाओ, और मसीह-विरोधियों के मार्ग पर कदम न रखो। जब एक बार कोई मसीह-विरोधियों के मार्ग पर कदम रख देता है, तो क्या उसके लिए लौटना आसान होता है? नहीं; एक बार कदम रख देने पर उसके लिए लौटना आसान नहीं होता। क्या तुम इसका कारण जानते हो? (उसके भीतर पवित्र आत्मा कार्य नहीं करता।) यही मुख्य कारण है। गलत मार्ग पर कदम रखना खतरनाक होता है, क्योंकि तुमने परमेश्वर के विरुद्ध संघर्ष करना चुना है, उसके चुने हुए लोगों के लिए उससे प्रतिस्पर्धा करना चुना है, और अंत तक उससे संघर्ष करने का चुनाव किया है; तुम सत्य को नहीं खोज रहे हो, या परमेश्वर के उद्धार को स्वीकारने का प्रयास नहीं कर रहे हो। ऐसे मार्ग पर कदम रखोगे तो तुम मुसीबत में पड़ जाओगे। तुम परमेश्वर के विरुद्ध खड़े रहोगे—तुम अपनी व्यक्तिपरक इच्छा से उसके विरुद्ध खड़े रहोगे; यानी, तुम्हारे विचार, सोच, राय और विकल्प, सभी परमेश्वर के प्रति शत्रुतापूर्ण होंगे। यदि इस मार्ग पर चलने से पहले तुममें कुछ वस्तुपरक अभिव्यक्तियाँ, स्वभाव और सार हैं, जो परमेश्वर के विपरीत और शत्रुतापूर्ण हैं, फिर भी तुम हर समय परमेश्वर से शत्रुता के मार्ग या मसीह-विरोधियों के मार्ग पर कदम न रखने को ले कर दिल से सावधान रहते हो, तो तुम्हारे पास बचाए जाने का मौका है। यदि तुम मसीह-विरोधियों के मार्ग पर, परमेश्वर से शत्रुता के मार्ग पर कदम रख ही देते हो, तो तुम खतरे में हो। खतरा कितना बड़ा है? इतना बड़ा कि तुम्हारे लिए लौटना आसान नहीं होगा। कुछ लोगों ने अभी-अभी कहा कि पवित्र आत्मा अब तुम्हारे भीतर कार्य नहीं करेगा—यह अत्यंत स्पष्ट है! पवित्र आत्मा ऐसे व्यक्ति के भीतर कैसे कार्य कर सकता है? जब एक बार तुम ऐसे मार्ग पर कदम रख देते हो, एक बार तुमने वह विकल्प चुन लिया है, तो तुम खतरे में होते हो। यदि तुम इस बात को दिल से समझने के बाद भी यही करते हो, उस रास्ते पर जाते हो, वह विकल्प चुनते हो, और कार्य करते समय, और पीछे मुड़े बिना या प्रायश्चित्त किए बिना, या अपना रास्ता पलटे बिना हमेशा अपने सिद्धांतों और अपने पुराने, पिछले तरीकों पर चलते हो तो यह तुम्हारा विकल्प दर्शाता है—तुमने परमेश्वर के प्रति शत्रुता में इस मार्ग पर चलने का मन बना लिया है। ऐसा नहीं है कि तुम नहीं जानते हो कि तुम क्या कर रहे हो—तुम जान-बूझ कर पाप कर रहे हो। यह बिल्कुल पौलुस जैसी बात है, जिसने कहा, “तुम कौन हो, प्रभु? तुम मुझे क्यों गिरा देना चाहते हो?” वह अच्छी तरह से जानता था कि प्रभु यीशु ही प्रभु है, कि वही मसीह था, लेकिन फिर भी उसने अंत तक उसका विरोध किया। यह जान-बूझ कर पाप करना है। पौलुस ने परमेश्वर की गवाही नहीं दी, न ही उसने उसे उत्कर्षित किया। उसने सोचा, “क्या तुम बस एक साधारण व्यक्ति नहीं हो? क्या तुम मुझे सिर्फ इस वजह से नहीं गिरा रहे हो कि तुम्हारे पास इसकी सामर्थ्य है? तुम्हारे पास सामर्थ्य हो सकती है, पर मैं अभी भी स्वर्ग के परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ। तुम देहधारी हो, परमेश्वर नहीं हो; तुम परमेश्वर से संबद्ध नहीं हो। तुम परमेश्वर के पुत्र हो, और तुम हमारे बराबर हो।” क्या यह उसकी सोच नहीं थी? पौलुस की इस सोच की बुनियाद क्या थी? यह जानने के बाद भी कि प्रभु यीशु देहधारी मसीह है, वह पहले की ही तरह इसी सोच पर कायम रहा। यह एक गंभीर समस्या थी, और इसके साथ उसके परिणाम का फैसला हो गया। यह देखते हुए कि वह सारा समय इस सोच पर कायम रहा, क्या उसके चलने का मार्ग बदल सकता था? किसी इंसान के चलने का मार्ग उसके विचारों पर आधारित होता है : तुम्हारे जो भी विचार होते हैं, तुम उसी मार्ग पर चलते हो। और इसके उलट तुम जिस भी मार्ग पर चलोगे, तुम्हारे भीतर वैसे ही विचार उत्पन्न होंगे, तुम्हारे विचार बनेंगे और वही विचार तुम्हें प्रभावित करेंगे और दिशा देंगे। जैसे ही तुम परमेश्वर से शत्रुता के मार्ग पर कदम रखोगे, वैसे ही ये विचार तुम्हारे भीतर आकार लेंगे और जड़ें जमा लेंगे, और फिर एक बात पक्की है : तुम अंत तक परमेश्वर का विरोध करने को बाध्य रहोगे; तुम हमेशा अपने गलत विचारों, ज्ञान और रवैये पर कायम रहने को बाध्य रहोगे, और अंत तक परमेश्वर के विरुद्ध हो-हल्ला मचाओगे। तुम अपना रास्ता बिल्कुल नहीं पलटोगे—अगर कोई तुमसे कहे, पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबोधन दे, भाई-बहन तुम्हें प्रोत्साहित करें या परमेश्वर तुम्हें रोशन करे, तब भी नहीं। इसके लिए कोई स्थान नहीं होगा। यह तुम्हारा चुनाव है। तुम्हें पहला, दूसरा और तीसरा मौका दिया जाएगा—प्रायश्चित्त करने के तीन मौकों के बाद भी यदि तुमने ऐसा नहीं किया, तो भविष्य में तुम्हें और कोई मौका नहीं मिलेगा। उस वक्त तुम चाहे जैसे काम करो और कीमत चुकाओ, इससे परमेश्वर द्रवित नहीं होगा—उसने तुम्हारे बारे में अपना मन बना लिया होगा। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए क्या फैसला किया होगा? कि तुमसे सेवा करवाई जाएगी, तुम्हारा उपयोग किया जाएगा; और तुम्हारा उपयोग हो जाने के बाद वह तुम्हें ऐसी किसी जगह रख देगा जहाँ तुम्हें उसके फैसले के अनुसार ताड़ना और दंड दिया जाएगा। ऐसा कैसे होता है, परमेश्वर इस तरह अपना मन कैसे बना लेता है? क्या यह तुम्हारी क्षणिक सोच के कारण होता है? क्या यह तुम्हारे क्षणभंगुर विचारों पर आधारित है? क्या यह तुम्हारे पल भर के लिए गलत मार्ग पर कदम रखने के कारण है? नहीं; परमेश्वर इसे तुम्हारे दिल की गहराई में जो विचार हैं, उन पर आधारित करता है, सत्य के प्रति लंबी अवधि के तुम्हारे रवैये पर और उस मार्ग पर आधारित करता है, जिस पर चलने का तुमने फैसला लिया है। तुमने इस तरह से कार्य करने का मन बना लिया है, और चाहे कोई कुछ भी बोले, इसका कोई फायदा नहीं है; तुमने भविष्य में चलने के मार्ग की बुनियाद के रूप में इस सिद्धांत का उपयोग करने का मन बना लिया है। और चूँकि तुमने अपना मन बना लिया है, तो क्या परमेश्वर को तुम्हारा परिणाम निर्धारित नहीं करना चाहिए? तुम्हारा परिणाम बहुत पहले ही निर्धारित किया जा चुका है; परमेश्वर को यह करने के लिए अंत तक प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं है। कुछ लोगों के मामले में, परमेश्वर हमेशा उनकी अभिव्यक्तियों पर गौर करता है—जब ये लोग राह के अंत तक पहुँच जाते हैं, तो आखिरकार उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियों के आधार पर उनके परिणाम निर्धारित किए जाते हैं। कुछ लोगों ने बुरे कर्मों की अपेक्षा अधिक अच्छे कर्म किए होते हैं; उन्होंने नकारात्मक और बुरे कर्मों वाले रवैयों की अपेक्षा अधिक अच्छे और सकारात्मक रवैये अपनाए हुए होते हैं, और उनके विभिन्न व्यवहारों और अभिव्यक्तियों के जोड़ के माप के आधार पर उनके अंतिम परिणाम निर्धारित किए जाते हैं। हालाँकि कुछ ऐसे भी हैं, जिनके परिणाम परमेश्वर उनके चलने के मार्ग पर नजर डाल कर निर्धारित करता है। तो फिर क्या उनके परिणाम निर्धारित करने से पहले परमेश्वर लोगों को मौके देता है? अवश्य देता है। कितने? संभवतः कोई ठोस संख्या नहीं है। यह किसी व्यक्ति के प्रकृति सार पर निर्भर करता है, और यह उनके अनुसरण पर भी आधारित होता है। कुछ लोगों को तीन मौके मिल सकते हैं। कुछ लोग सुधारे नहीं जा सकते, वे बेहद बेवकूफ और हठी होते हैं, और वे बिल्कुल भी सत्य स्वीकार नहीं कर पाते—तीन मौके मिलने से पहले ही उनके परिणाम तय हो चुके होते हैं। फिर भी कुछ लोगों के मामले में, परमेश्वर उनके लिए उनकी दशाओं के आधार पर कुछ परिवेशों की व्यवस्था करता है, और इस आधार पर उन्हें पाँच मौके दे सकता है कि उनकी उम्र क्या है और वे किन चीजों से हो कर गुजरे हैं। यह सत्य को स्वीकार करते समय उनकी प्रकृति, सार, और रवैये पर आधारित होता है। परमेश्वर इन चीजों के आधार पर किसी व्यक्ति का परिणाम और मंजिल निर्धारित करता है।

लोगों के साथ तमाम तरह की चीजें होती हैं, और अक्सर उन्हें पता नहीं होता कि उनका सामना कैसे करें; अगर वे सत्य को समझाने का प्रयास न करें तो क्या यह ठीक होगा? सत्य को न समझने पर लोगों के लिए गलत मार्ग पर कदम रखना आसान हो जाता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? लोग शैतान के भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं और जो चीजें उनके भीतर से निकलती हैं, ये वे चीजें होती हैं जो वे स्वाभाविक रूप से प्रकट करते हैं, और उनमें से एक भी सत्य के अनुसार नहीं होती, या परमेश्वर के विरुद्ध विश्वासघाती नहीं होती। तो फिर उन्हें हमेशा धर्मोपदेश क्यों सुनने चाहिए? हमेशा धर्मोपदेश सुनना, उन पर चिंतन करना और उन्हें आत्मसात करना; हमेशा प्रार्थना करना और खोजना; परमेश्वर का भय मानने वाले दिल के साथ परमेश्वर के समक्ष आना, पवित्रता का हृदय ले कर, सत्य के लिए तरसता हृदय ले कर; प्रतिदिन आध्यात्मिक भक्ति, प्रार्थना और परमेश्वर के वचनों को खाने-पीने, दूसरों के साथ संगति करने और कार्य करने के लिए दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग करने; प्रतिदिन इन सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने और प्रतिदिन उन पर कायम रहने के लिए समय तय करके—परमेश्वर देखता है कि लोगों के अभ्यास के इन विस्तृत तत्वों से कुछ नतीजे हासिल होते हैं या नहीं। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “क्या ये सिर्फ प्रक्रियाएँ नहीं हैं?” प्रक्रिया क्या है? ये बाहरी चीजें नहीं हैं—तुम इन चीजों पर तभी कायम रह सकते हो अगर तुम दिल से ऐसा करना चाहते हो। उस दिल के बिना तुम उन पर कितने दिनों तक कायम रह सकते हो? तुम उन पर कायम नहीं रह पाओगे। कुछ अगुआ कभी भी परमेश्वर के वचनों को नहीं खाते-पीते और कभी भी आध्यात्मिक भक्ति में शामिल नहीं होते। इसका अर्थ क्या है? यह कि वे सच्चे विश्वासी नहीं है। यदि वे नहीं हैं, तो वे अगुआ कैसे बन सकेंगे? कुछ जगहों पर कोई भी काम के लिए उपयुक्त नहीं होता, इसलिए कलीसिया को इन लोगों का उपयोग करके काम चलाना पड़ता है। वे गलत ढंग से सोचते हैं, “मुझे अगुआ के तौर पर चुना गया है। मैं यह काम परमेश्वर के वचनों को खाए-पिए बिना भी कर सकता हूँ—जब तक लोगों के पास टांगें और मुँह हैं, तो वे ये काम कर सकते हैं।” यह मूर्खता है। परमेश्वर यह नहीं देखता कि क्या तुम काम कर सकते हो—वह यह देखता है कि तुमने क्या काम किया है। तुम जो काम कर सकते हो, वह कोई और भी कर सकता है। थोड़ा-सा सामान्य अक्लमंद आदमी भी कर सकता है। यह मत सोचते रहो कि चूँकि तुम्हें अगुआ के तौर पर चुना गया है, और तुम वह काम कर सकते हो, इसलिए तुम्हारी सफलता सुनिश्चित है, कि तुम्हें पूर्ण बना दिया गया है, कि तुम्हारे पास जीवित रहने का मौका है। इस तरह से काम नहीं होता। परमेश्वर कभी नहीं देखता कि तुम कितना काम करते हो; वह इस बात पर गौर करता है कि तुमने कितना काम किया है, तुम किस मार्ग पर चलते हो। इस बारे में खुद को मूर्ख मत बनाओ। तुम सोच सकते हो, “बहुत-से लोगों को चुना नहीं गया, फिर भी मुझे चुना गया। ऐसा प्रतीत होता है कि मैं विलक्षण हूँ, और मुझमें ज्यादा काबिलियत है, और दूसरों से बेहतर है।” तुम्हारे बारे में अच्छी बात क्या है? भले ही तुम अच्छे हो, फिर भी निश्चित रूप से तुम सत्य का अभ्यास न करने, और सत्य का उल्लंघन करने वाले कार्य करने के हकदार नहीं हो? भले ही तुम अच्छे हो, निश्चित रूप से तुम आध्यात्मिक भक्ति और प्रार्थना में शामिल न होने और कार्य करते समय सत्य को न खोजने के हकदार नहीं हो? तुम इन चीजों के हकदार नहीं हो। कोई भी रुतबा या पदवी तुम्हारी पूँजी नहीं है। वे क्षणभंगुर चीजें हैं, बाहरी चीजें हैं। परमेश्वर तुम्हारी वफादारी को देखता है; वह सत्य के तुम्हारे अभ्यास, उसके अनुसरण और उसके प्रति तुम्हारा रवैया देखता है; वह तुम्हारे समर्पण पर गौर करता है; वह तुम्हारे कर्तव्य और तुम्हारे उद्देश्य के प्रति तुम्हारे रवैये पर गौर करता है। कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाने में बहुत अधिक मेहनत लगा सकते हैं, लेकिन वे इसे सत्य सिद्धांतों के अनुरूप नहीं करते। यदि तुम उन्हें बताते हो कि उन्हें सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करना चाहिए, तो वे प्रतिरोध करते हैं, नाराज हो जाते हैं, और उसे नहीं स्वीकारते। बस ऐसे ही उनका खुलासा हो जाता है। किस चीज का खुलासा हुआ है? यह कि वे सत्य को नहीं स्वीकारते। सत्य को न स्वीकारने वाले वे लोग किस प्रकार के होते हैं? छद्म-विश्वासी। छद्म-विश्वासी आँखें मूँद कर खुद को किस काम में व्यस्त रखते हैं? अपनी व्यस्तता में वे इतने अधिक ऊर्जावान क्यों रहते हैं? उनका एक लक्ष्य होता है—वे देखते हैं कि “मेरे पास यहाँ एक अधिकारी बनने का मौका है, और अगर मैं बन गया तो कलीसिया से फायदा उठा सकता हूँ, और सभी से आराधना करवा सकता हूँ। यह जगह बढ़िया है! भोजन-टिकट बड़ी आसानी से मिल जाता है, और वैसे ही प्रतिष्ठा और लाभ भी; यह रुतबा हासिल करना बहुत आसान है—यहाँ अधिकारी बनना बहुत आसान है!” उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि वे अपने जीवन काल में एक “अधिकारी” बन पाएँगे। लेकिन एक बार अपना “पद” खो देने के बाद वे अपना असली रंग दिखाते हैं। वे परमेश्वर के घर के लिए अब अधिक प्रयास नहीं करते। क्या वे अभी भी कष्ट सहने और कीमत चुकाने में सक्षम होंगे? नहीं। तब क्या उनका खुलासा नहीं होता? कुछ लोग रुतबा हासिल होने पर सब-कुछ करने लगते हैं, मेहनत करते हैं, पसीना बहाते हैं, कितने भी कष्ट सहें शिकायत नहीं करते—फिर भी जैसे ही रुतबा जाता है, वे निराश हो जाते हैं, इस सीमा तक कि उन पर नकारात्मकता हावी हो जाती है। तब फिर क्या उनका खुलासा नहीं हो जाता? रुतबे ने उनका खुलासा कर दिया है। क्या उनका परीक्षणों से गुजरना जरूरी है? नहीं। ठीक है, हम आज की संगति को यहीं समाप्त करेंगे।

1 अक्तूबर, 2019

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परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन मसीह-विरोधियों को उजागर करना अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ सत्य के अनुसरण के बारे में I सत्य के अनुसरण के बारे में न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन सत्य वास्तविकताएं जिनमें परमेश्वर के विश्वासियों को जरूर प्रवेश करना चाहिए मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 1) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 2) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 3) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 4) मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ (खंड 5) मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

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