उचित कर्तव्यपालन के लिए आवश्यक है सामंजस्यपूर्ण सहयोग

उचित कर्तव्यपालन के लिए सामंजस्यपूर्ण सहयोग आवश्यक है। क्योंकि सभी लोगों का स्वभाव भ्रष्ट होता है और किसी के पास सत्य नहीं होता, केवल सामंजस्यपूर्ण सहयोग से ही वे अपने कर्तव्यों को ठीक से निभा सकते हैं। सामंजस्यपूर्ण सहयोग न केवल लोगों के जीवन प्रवेश के लिए बल्कि उनके उचित कर्तव्यपालन और कलीसिया के कार्य के लिए भी फायदेमंद होता है। जो लोग सामंजस्यपूर्ण सहयोग करते हैं उनमें अपेक्षाकृत अच्छी मानवता और ईमानदारी होती है, लेकिन अगर किसी की मानवता अच्छी नहीं है, अगर वे बहुत अहंकारी और आत्म-तुष्ट हैं, या बहुत कुटिल और चालाक हैं, तो वे दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं कर पाएँगे। कुछ लोग ईमानदारी का कार्य नहीं करते, अपना कर्तव्य निभाने के दौरान कर्तव्यनिष्ठ नहीं होते, और हमेशा कुछ अच्छा नहीं कर पाते। इस तरह के लोग दूसरों के साथ सहयोग नहीं कर सकते, और न ही किसी के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से या मिल-जुलकर रह सकते हैं। ऐसे लोगों में कोई मानवता नहीं होती, वे जंगली जानवर और राक्षस और शैतान होते हैं। अच्छी मानवता वाले सभी आज्ञाकारी और विनम्र लोगों को अपना कर्तव्य निभाने पर निश्चित रूप से परिणाम मिलेंगे, और वे आसानी से दूसरों के साथ सहयोग कर सकेंगे। जहाँ तक उन लोगों की बात है जो ईमानदारी से अपना कर्तव्य नहीं निभाते, जो बुरा आचरण करते हैं या यहाँ तक कि जो अन्य लोगों के कर्तव्य पालन में बाधा डालते हैं—अगर वे कई उपदेशों के बाद भी सुधार से परे रहते हैं, और कभी पश्चात्ताप के लिए तैयार नहीं होते, हमेशा अपने कर्तव्यों में विघ्न-बाधाएँ डालते हैं, और जिनकी मानवता की गुणवत्ता खराब है, उन्हें बिना कोई देरी किए बाहर निकाल देना चाहिए, ताकि कलीसिया के कार्य पर कोई परेशानी या आपदा आने से बचाया जा सके। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को यह समस्या अवश्य हल करनी चाहिए।

कुछ लोग अपना कर्तव्य निभाते समय गैर-जिम्मेदार होते हैं, जिसके कारण कार्य को हर बार नए सिरे से करना पड़ता है। इससे कार्य की प्रभावशीलता पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। किसी व्यक्ति में विशेषज्ञ ज्ञान की कमी और अनुभव की कमी के अलावा, क्या ऐसी समस्या दिखने के कोई अन्य कारण होते हैं? (जब कोई व्यक्ति तुलनात्मक रूप से अहंकारी और आत्म-तुष्ट होता है, खुद ही फैसले लेता है और सिद्धांत के अनुसार अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता है।) विशेषज्ञ ज्ञान और अनुभव धीरे-धीरे सीखा और जमा किया जा सकता है, लेकिन अगर किसी के स्वभाव में ही समस्या है, तो क्या तुम लोगों को लगता है कि उसे हल करना आसान है? (नहीं, यह आसान नहीं है।) तो इसे कैसे हल किया जाना चाहिए? (व्यक्ति को न्याय, ताड़ना और काट-छाँट का अनुभव करना चाहिए।) उन्हें न्याय, ताड़ना और काट-छाँट का अनुभव करने की जरूरत है—ये वचन सही हैं, लेकिन केवल सत्य का अनुसरण करने वाले ही इनका अनुसरण कर सकते हैं। जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, क्या वे काट-छाँट को स्वीकार सकते हैं? नहीं, वे ऐसा नहीं कर सकते। जब लोगों द्वारा किए गए काम को फिर से करना पड़ता है, सबसे बड़ी समस्या विशेषज्ञ ज्ञान या अनुभव की कमी नहीं होती, बल्कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे बहुत आत्माभिमानी और अहंकारी होते हैं, वे सामंजस्यपूर्ण तरीके से काम नहीं करते, बल्कि अकेले निर्णय लेकर कार्य करते हैं—परिणामस्वरूप वे काम में गड़बड़ी कर देते हैं, और कुछ हासिल नहीं होता, सारा प्रयास बर्बाद हो जाता है। इसमें सबसे गंभीर समस्या लोगों का भ्रष्ट स्वभाव है। जब लोगों का भ्रष्ट स्वभाव बहुत गंभीर होता है, तो वे अच्छे लोग नहीं होते, वे बुरे लोग होते हैं। बुरे लोगों का स्वभाव सामान्य भ्रष्ट स्वभावों की तुलना में कहीं अधिक गंभीर होता है। बुरे लोग बुरे कार्य ही करते हैं, वे कलीसिया के कार्य में हस्तक्षेप कर उसमें विघ्न-बाधा डालते हैं। जब बुरे लोग कोई कार्य करते हैं, तो वे कार्य को बुरे ढंग से करते हैं और काम को बिगाड़ देते हैं; उनका श्रम अच्छाई के बजाय परेशानी बन जाता है। कुछ लोग बुरे तो नहीं होते, लेकिन वे अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं—और इस तरह, वे अपना कार्य ठीक से नहीं कर पाते। संक्षेप में, भ्रष्ट स्वभाव लोगों के ठीक से कार्य करने में अत्यंत बाधक होता है। तुम लोगों के अनुसार, इंसान के भ्रष्ट स्वभाव का कौन-सा पहलू उसके कार्य की प्रभावशीलता में सबसे ज्यादा बुरा असर डालता है? (अहंकार और आत्म-संतुष्टि।) अहंकार और आत्म-संतुष्टि की मुख्य अभिव्यक्तियाँ क्या होती हैं? अकेले निर्णय लेना, अपने हिसाब से चलना, दूसरों के सुझाव न सुनना, दूसरों के साथ परामर्श न करना, सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग न करना और हमेशा चीज़ों के बारे में अंतिम निर्णय लेने की कोशिश करना। भले ही काफी भाई-बहन किसी विशेष कर्तव्य का पालन करने के लिए सहयोग कर रहे हों, सभी अपना-अपना कार्य कर रहे हों, कुछ समूह अगुआ पर्यवेक्षक हमेशा अंतिम निर्णय लेना चाहते हैं; वे जो भी कर रहे होते हैं, वे सामंजस्यपूर्ण ढंग से दूसरों के साथ सहयोग नहीं करते और संगति में संलग्न नहीं होते, और वे दूसरों के साथ सर्वसम्मति पर पहुँचने से पहले ही बिना सोचे-विचारे काम करते हैं। वे सबको केवल अपनी बात सुनने के लिए मजबूर करते हैं, और समस्या इसी में है। इतना ही नहीं, दूसरे जब समस्या को देख लेते हैं, और फिर भी वे प्रभारी व्यक्ति को रोकने के लिए आगे नहीं आते, तो अंततः यह ऐसी स्थिति में परिणत हो जाता है, जहाँ लोग अपने कर्तव्यों में प्रभावशाली नहीं होते, काम पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो जाता है, और इसमें शामिल हरेक व्यक्ति को अपना कार्य फिर से करना पड़ता है, और उस प्रक्रिया में स्वयं को थकाना पड़ता है। ऐसे गंभीर परिणाम के लिए कौन जिम्मेदार है? (प्रभारी व्यक्ति।) क्या इसमें शामिल दूसरे लोग भी जिम्मेदार हैं? (हाँ।) प्रभारी व्यक्ति ने खुद ही फैसले लिए, अपने तरीके से चीजों को करने पर जोर दिया, और दूसरों ने समस्या देखकर भी उन्हें रोकने के लिए कुछ नहीं किया, और इससे भी गंभीर बात यह है कि वे उसके साथ चलते भी हैं; क्या यह उन्हें सह-अपराधी नहीं बनाता? यदि तुम इस व्यक्ति को नहीं रोकते, टोकते या उसकी असलियत सामने नहीं लाते, बल्कि इसके बजाय उसका अनुसरण करते हो और उसे स्वयं को बहकाने देते हो, तो क्या तुम शैतान को कलीसिया के कार्य में बाधा डालने की खुली छूट नहीं दे रहे? यह निश्चित रूप से तुम्हारी समस्या है। जब तुम लोग कोई समस्या देखकर भी उसे रोकने के लिए कुछ नहीं करते, उसके बारे में संगति नहीं करते, उसे सीमित करने की कोशिश नहीं करते और इसके अलावा, तुम उसकी रिपोर्ट अपने वरिष्ठों को नहीं करते, बल्कि खुशामदी इंसान बनने की कोशिश करते हो, तो क्या यह विश्वासघात की निशानी है? क्या खुशामदी लोग परमेश्वर के प्रति वफादार होते हैं? बिल्कुल नहीं होते। ऐसा व्यक्ति न केवल परमेश्वर के प्रति विश्वासघाती होता है, बल्कि वह शैतान का सहयोगी, उसका अनुचर और अनुयायी होता है। वे अपने कर्तव्य और जिम्मेदारी में विश्वासघाती होते हैं, बल्कि शैतान के प्रति वफादार होते हैं। समस्या का सार इसी में निहित है। जहाँ तक व्यावसायिक अयोग्यता की बात है, अपना कर्तव्य निभाते हुए निरंतर सीखना और अपने अनुभवों को एक-साथ लाना संभव है। ऐसी समस्याओं को आसानी से हल किया जा सकता है। परंतु जिस चीज़ का हल निकालना सबसे कठिन है, वह है मनुष्य का भ्रष्ट स्वभाव। अगर तुम लोग सत्य का अनुसरण या अपने भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नहीं करते, बल्कि हमेशा खुशामदी व्यक्ति बने रहते हो, और उन लोगों की काट-छाँट या उनकी मदद नहीं करते जिन्हें तुमने सिद्धांतों का उल्लंघन करते देखा है, न ही उन्हें उजागर या प्रकट करते हो, बल्कि हमेशा पीछे हट जाते हो, जिम्मेदारी नहीं लेते, तो तुम जैसे कर्तव्य निभाते हो, उससे केवल कलीसिया के काम का नुकसान और उसमें देरी ही होगी। रत्ती भर भी जिम्मेदारी लिए बिना अपने कर्तव्य के निर्वहन को तुच्छ मानने से न केवल कार्य की प्रभावशीलता पर प्रभाव पड़ता है, बल्कि कलीसिया के कार्य में बार-बार देरी भी होती है। इस तरह से अपना कर्तव्य निभाकर क्या तुम लापरवाह नहीं हो रहे हो और परमेश्वर को धोखा नहीं दे रहे हो? क्या इससे परमेश्वर के प्रति थोड़ा सी भी निष्ठा दिखती है? अगर तुम अपना कर्तव्य निभाते हुए लगातार लापरवाह रहते हो, और कभी पश्चात्ताप नहीं करना चाहते, तो तुम्हें अवश्य हटा दिया जाएगा।

अपना कर्तव्य निभाते समय तुम्हें आने वाली कठिनाइयों से कैसे निपटना चाहिए? किसी समस्या को हल करने और आम सहमति पर पहुँचने का सबसे अच्छा तरीका है कि सभी साथ मिलकर सत्य खोजें। अगर तुम्हें सिद्धांतों की समझ होगी, तो यह भी पता होगा कि आगे क्या करना है। यह समस्याएँ हल करने का बेहतरीन तरीका है। अगर तुम किसी समस्या को हल करने के लिए सत्य नहीं खोजते, बल्कि केवल अपनी व्यक्तिगत धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर कार्य करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा रहे हो। इसमें और अविश्वासियों के समाज या शैतान की दुनिया में काम करने में क्या अंतर है? परमेश्वर के घर में सत्य और परमेश्वर का शासन होता है। चाहे कोई भी समस्या सामने आए, उसे हल करने के लिए सत्य खोजना ही चाहिए। चाहे कितनी भी अलग-अलग राय हों या उनमें आपस में कितने ही मतभेद क्यों न हों, उन सभी को सामने लाकर संगति की जानी चाहिए। फिर आम सहमति होने के बाद ही सिद्धांतों के अनुसार कार्रवाई की जानी चाहिए। इस तरह तुम न केवल समस्या का समाधान कर सकते हो, बल्कि तुम सत्य का अभ्यास करके अपना कर्तव्य भी ठीक से पूरा कर सकते हो। तुम समस्या हल करने की प्रक्रिया के दौरान सामंजस्यपूर्ण सहयोग भी प्राप्त कर सकते हो। अगर अपना कर्तव्य निभाने वाले सभी लोग सत्य से प्रेम करते हैं, तो उनके लिए सत्य को स्वीकारना और उसके आगे समर्पण करना आसान होता है; लेकिन अगर वे अहंकारी और आत्म-तुष्ट होते हैं, तो उनके लिए सत्य स्वीकारना आसान नहीं होता, भले ही लोग उस पर संगति करें। ऐसे लोग भी हैं जो सत्य को नहीं समझते, फिर भी हमेशा यही चाहते हैं कि दूसरे उनकी बात सुनें। ऐसे लोग केवल अपना कर्तव्य निभाने वाले दूसरे लोगों को परेशान ही करते हैं। यही समस्या की जड़ है, और अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए इसे सुलझाया जाना जरूरी है। अगर कोई व्यक्ति अपना कर्तव्य निभाने में हमेशा अहंकार दिखाता है या मनमर्जी करता है, हमेशा खुद ही फैसले लेता है, हर काम लापरवाही से और अपनी मर्जी से करता है, दूसरों के साथ सहयोग या चीजों पर चर्चा नहीं करता, और सत्य सिद्धांतों को नहीं खोजता—तो यह अपने कर्तव्य के प्रति कैसा रवैया है? क्या इस तरह अपना कर्तव्य ठीक से पूरा किया जा सकता है? अगर ऐसा व्यक्ति कभी काट-छाँट को नहीं स्वीकारता, सत्य बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करता, और अभी भी बिना किसी पश्चात्ताप या बदलाव के, बेतरतीब ढंग से और मनमर्जी से, बस अपने तरीके से काम करता रहता है—तो यह केवल रवैये की समस्या नहीं है, बल्कि उसकी मानवता और चरित्र की समस्या है। यह ऐसा व्यक्ति है जिसमें मानवता नहीं है। क्या बिना मानवता वाला कोई अपना कर्तव्य ठीक से पूरा कर सकता है? जाहिर है कि नहीं। अगर अपना कर्तव्य निभाते हुए कोई व्यक्ति सभी प्रकार के घृणित काम करता है और कलीसिया के कार्य में बाधा डालता है, तो वह एक बुरा व्यक्ति है। ऐसे लोग अपना कर्तव्य निभाने के योग्य नहीं होते। उनके कर्तव्य निर्वहन से केवल गड़बड़ी और नुकसान ही होता है, वे काम सँभालते कम और बिगाड़ते ज्यादा हैं, इसलिए उन्हें अपने कर्तव्य निर्वहन से अयोग्य बताकर कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए। इसीलिए अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभाने की क्षमता केवल व्यक्ति की काबिलियत पर निर्भर नहीं करती, बल्कि मुख्य रूप से अपने कर्तव्य के प्रति उसके रवैये, उसके चरित्र, उसकी मानवता अच्छी है या बुरी, और क्या वे सत्य स्वीकारने में सक्षम हैं, इस पर निर्भर करती है। ये मूल मुद्दे हैं। तुम्हारा दिल अपने कर्तव्य में लगा है या नहीं, क्या तुम अपना सर्वश्रेष्ठ कर रहे हो और पूरा दिल लगाकर काम कर रहे हो, अपने कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया गंभीर और ईमानदार है या नहीं, तुम सच्चे और कड़ी मेहनत करने वाले इंसान हो या नहीं : परमेश्वर इन्हीं चीजों पर ध्यान देता है, और परमेश्वर हर किसी की पड़ताल करता है। क्या लोगों के कर्तव्य ठीक से पूरे किए जा सकते हैं अगर उनमें से ज्यादातर गैर-जिम्मेदार हैं और कोई भी ईमानदार नहीं है, और अपने दिल में यह जानने के बाद भी कि क्या करना सही है, वे सिद्धांतों के लिए कोशिश नहीं करते, और कोई भी इसे गंभीरता से नहीं लेता है? इस तरह की स्थिति में, अगुआओं और कार्यकर्ताओं को आगे की कार्रवाई करनी चाहिए, निरीक्षण करना चाहिए और मार्गदर्शन देना चाहिए, या समूह का अगुआ या प्रभारी बनाने के लिए किसी जिम्मेदार व्यक्ति की तलाश करनी चाहिए। इस तरह अधिकांश लोगों को कार्य करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है, और जब वे अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं तो अच्छा परिणाम प्राप्त किया जा सकता है। अगर कोई व्यक्ति कार्य में बाधा डालता या नुकसान पहुँचाता दिखता है, तो उसे सीधे हटा दिया जाना चाहिए, क्योंकि मूल समस्या हल हो जाने से लोगों के लिए अपने कर्तव्य में प्रभावी होना आसान हो जाएगा। कुछ लोगों में थोड़ी काबिलियत हो सकती है, लेकिन वे अपने कर्तव्य निर्वहन में गैर-जिम्मेदार होते हैं। उनके पास तकनीकी कौशल या पेशेवर ज्ञान हो सकता है, लेकिन वे इसे दूसरे लोगों को नहीं सिखाते। अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इस समस्या का समाधान करना चाहिए। उनके साथ संगति करनी चाहिए, और उन्हें दूसरों को अपना कौशल सिखाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि दूसरे लोग जल्द से जल्द कौशल सीख सकें, और पेशेवर ज्ञान में महारत पा सकें। पेशेवर ज्ञान में माहिर होने के नाते तुम्हें अपनी योग्यता का दिखावा नहीं करना चाहिए या उनके बारे में बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बताना चाहिए; तुम्हें नौसिखियों को अपना कौशल और ज्ञान आगे बढ़कर सिखाना चाहिए, ताकि हर कोई मिलकर अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह पालन कर सके। ऐसा हो सकता है कि तुम अपने पेशे के बारे में सबसे अधिक जानकार हो और कौशल में सबसे आगे हो, लेकिन यह खूबी तुम्हें परमेश्वर ने दी है, तो तुम्हें इसका उपयोग अपने कर्तव्य को निभाने और अपनी खूबियों के सही इस्तेमाल में करना चाहिए। चाहे तुम कितने भी कुशल या प्रतिभाशाली क्यों न हो, तुम अकेले काम नहीं कर सकते; किसी कर्तव्य को सबसे अधिक प्रभावी ढंग से तभी किया जाता है जब हर कोई उस पेशे के कौशल और ज्ञान को समझने में सक्षम हो। जैसे कि कहावत है, एक सक्षम इंसान को तीन अन्य लोगों का सहारा चाहिए होता है। कोई व्यक्ति कितना भी काबिल क्यों न हो, एक-दूसरे की मदद के बिना वह काफी नहीं होता। इसलिए किसी को भी अहंकारी नहीं होना चाहिए और किसी को भी खुद ही काम करने या फैसले लेने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। लोगों को दैहिक इच्छाओं से विद्रोह करना चाहिए, अपने विचारों और मतों को किनारे रखकर सबके साथ मिलकर सामंजस्य में काम करना चाहिए। जिसके पास पेशेवर ज्ञान है, उसे प्रेम से दूसरों की मदद करनी चाहिए, ताकि वे भी इन कौशल और ज्ञान में महारत पा सकें। यह कर्तव्य निर्वहन के लिए फायदेमंद है। अगर तुम अपने कौशल को एक अवसर के रूप में देखते और मानते हो, और इसे दूसरों को सिखाने से पीछे हटते हो तो इससे तुम्हारा ही नुकसान होगा—यह अविश्वासियों का दृष्टिकोण है। यह एक स्वार्थी और घटिया तरीका है, जो परमेश्वर के घर में नहीं चल सकता। अगर तुम कभी सत्य स्वीकारने में सक्षम नहीं होते, और कभी श्रम करने के लिए तैयार नहीं होते, तो तुम्हें हटा दिया जाएगा। अगर तुम परमेश्वर के इरादों के प्रति विचारशील हो और उसके घर के कार्य के प्रति वफादार रहने को तैयार हो, तो तुम्हें अपनी खूबियों और कौशल को अर्पित कर देना चाहिए, ताकि दूसरे लोग उन्हें सीख और समझकर अपने कर्तव्यों को बेहतर ढंग से निभा सकें। यह परमेश्वर के इरादों के अनुरूप है; केवल ऐसे ही लोगों में मानवता होती है, और उन्हें ही परमेश्वर का प्रेम और आशीष प्राप्त होता है।

अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? इसे पूरे मन और पूरी ताकत से निभाना चाहिए। अपने पूरे मन और ताकत का उपयोग करने का अर्थ है कि अपने सभी विचारों को अपना कर्तव्य निभाने पर केंद्रित करना और अन्य चीजों को हावी न होने देना, और फिर अपनी सारी ताकत लगाना, अपनी संपूर्ण सामर्थ्य का प्रयोग करना, और कार्य संपादित करने के लिए अपनी क्षमता, गुण, खूबियों और उन चीजों का प्रयोग करना जो समझ आ गई हैं। अगर तुम्हारे पास समझने-बूझने की योग्यता है और तुम्हारे पास कोई अच्छा विचार है, तो तुम्हें इस बारे में दूसरों को बताना चाहिए। मिल-जुलकर सहयोग करने का यही अर्थ होता है। इस तरह तुम अपने कर्तव्य का पालन अच्छी तरह से करोगे, इसी तरह अपने कर्तव्य को संतोषजनक ढंग से कर पाओगे। यदि तुम हमेशा सब-कुछ अपने ऊपर लेना चाहते हो, यदि तुम हमेशा बड़े कार्य अकेले करना चाहते हो, यदि तुम हमेशा यह चाहते हो कि ध्यान तुम पर केंद्रित हो, दूसरों पर नहीं, तो क्या तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो? तुम जो कर रहे हो उसे तानाशाही कहते हैं; यह दिखावा करना है। यह शैतानी व्यवहार है, कर्तव्य का निर्वहन नहीं। किसी की क्षमता, गुण या विशेष प्रतिभा कुछ भी हो, वह सभी कार्य स्वयं नहीं कर सकता; यदि उसे कलीसिया का काम अच्छी तरह से करना है तो उसे सद्भाव में सहयोग करना सीखना होगा। इसलिए सौहार्दपूर्ण सहयोग, कर्तव्य के निर्वहन के अभ्यास का एक सिद्धांत है। अगर तुम अपना पूरा मन, सारी ऊर्जा और पूरी निष्ठा लगाते हो, और जो हो सके, वह अर्पित करते हो, तो तुम अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभा रहे हो। यदि तुम्हारे पास कोई खयाल या विचार है, तो उसे दूसरों को बताओ; इसे स्वयं तक न रखो या रोके मत रहो—यदि तुम्हारे पास सुझाव हैं, तो उन्हें पेश करो; जिसका भी विचार सत्य के अनुरूप हो, उसे स्वीकार किया जाना और उसका पालन किया जाना चाहिए। ऐसा करोगे तो तुम सद्भाव में सहयोग प्राप्त कर लोगे। अपने कर्तव्य को निष्ठापूर्वक निभाने का यही अर्थ है। अपने कर्तव्य का पालन करने में, तुम लोगों को सब कुछ अपने ऊपर लेने की जरूरत नहीं है, न ही अत्यधिक कार्य करने की जरूरत है, या “खिलने वाला एकमात्र फूल” या सबसे अलग सोचने वाला बनने की जरूरत नहीं है; इसके बजाय तुम्हें सीखना है कि दूसरों के साथ मिल-जुलकर कैसे सहयोग करना है, जो बन पड़े वो कैसे करना है, अपनी जिम्मेदारियाँ कैसे पूरी करनी हैं और अपनी सारी ऊर्जा कैसे लगानी है। अपने कर्तव्य के निर्वहन का यही अर्थ है। अपना कर्तव्य निभाना यानी परिणाम प्राप्त करने के लिए तुम्हारे पास जो भी सामर्थ्य और रोशनी है, उसे इस्तेमाल में लाना। बस इतना ही करना काफी है। हमेशा दिखावा करने, ऊँची-ऊँची बातें करने, चीजें खुद करने की कोशिश मत करो। तुम्हें दूसरों के साथ काम करना सीखना चाहिए, दूसरों के सुझाव सुनने और उनकी क्षमताएँ खोजने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस तरह मिल-जुलकर सहयोग करना आसान हो जाता है। यदि तुम हमेशा दिखावा करने और अपनी बात ही मनवाने की कोशिश करते हो, तो तुम मिल-जुलकर सहयोग नहीं कर रहे हो। तुम क्या कर रहे हो? तुम रुकावट पैदा कर रहे हो और दूसरों को कमजोर कर रहे हो। रुकावट पैदा करना और दूसरों को कमजोर करना शैतान की भूमिका निभाना है; यह कर्तव्य का निर्वहन नहीं है। यदि तुम हमेशा ऐसे काम करते हो जो रुकावट पैदा करते हैं और दूसरों को कमजोर करते हैं, तो तुम कितना भी प्रयास करो या ध्यान रखो, परमेश्वर इसे याद नहीं रखेगा। तुम कम सामर्थ्यवान हो सकते हो, लेकिन अगर तुम दूसरों के साथ काम करने में सक्षम हो, और उपयुक्त सुझाव स्वीकार सकते हो, और अगर तुम्हारे पास सही प्रेरणाएँ हैं, और तुम परमेश्वर के घर के कार्य की रक्षा कर सकते हो, तो तुम एक सही व्यक्ति हो। कभी-कभी तुम एक ही वाक्य से किसी समस्या का समाधान कर सकते हो और सभी को लाभान्वित कर सकते हो; कभी-कभी सत्य के एक ही कथन पर तुम्हारी संगति के बाद हर किसी के पास अभ्यास करने का एक मार्ग होता है, और वह एक-साथ मिलकर काम करने में सक्षम होता है, और सभी एक समान लक्ष्य के लिए प्रयास करते हैं, और समान विचार और राय रखते हैं, और इसलिए काम विशेष रूप से प्रभावी होता है। हालाँकि यह भी हो सकता है कि किसी को याद ही न रहे कि यह भूमिका तुमने निभाई है, और शायद तुम्हें भी ऐसा महसूस न हो मानो तुमने कोई बहुत अधिक प्रयास किए हों, लेकिन परमेश्वर देखेगा कि तुम वह इंसान हो जो सत्य का अभ्यास करता है, जो सिद्धांतों के अनुसार कार्य करता है। तुम्हारे ऐसा करने पर परमेश्वर तुम्हें याद रखेगा। इसे कहते हैं अपना कर्तव्य निष्ठापूर्वक निभाना। अपना कर्तव्य निभाने में तुम्हारे सामने चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएँ, वास्तव में उन सभी को आसानी से हल किया जा सकता है। जब तक तुम एक ईमानदार व्यक्ति बने रहते हो जिसका दिल परमेश्वर की ओर झुका हुआ है, और सत्य खोज करने में सक्षम हो, तब तक ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसे हल नहीं किया जा सकता। अगर तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम्हें आज्ञापालन करना सीखना चाहिए। अगर कोई ऐसा है जो सत्य समझता है या सत्य के अनुरूप बोलता है, तो तुम्हें उसे स्वीकार कर उसकी बात माननी चाहिए। किसी भी तरीके से तुम्हें ऐसी चीजें नहीं करनी चाहिए जो बाधा डालती या कमजोर करती हों, और न ही मनमर्जी से काम करना या फैसले लेना चाहिए। इस तरह से तुम कोई बुराई नहीं करोगे। तुम्हें याद रखना चाहिए : कर्तव्य-निर्वहन का मतलब यह नहीं है कि सारे उद्यम तुम करो या सारा प्रबंधन अपने सिर पर ले लो। यह तुम्हारा निजी कार्य नहीं है, यह कलीसिया का कार्य है, और तुम उसमें केवल अपनी उस क्षमता का योगदान करते हो जो तुम्हारे पास है। तुम परमेश्वर के प्रबंधन कार्य में जो कुछ करते हो वह मनुष्य के सहयोग का एक छोटा-सा हिस्सा है। किसी कोने में तुम्हारी सिर्फ एक छोटी-सी भूमिका है। यही तुम्हारी जिम्मेदारी है। तुम्हारे मन में यह समझ होनी चाहिए। और इसलिए, चाहे कितने भी लोग अपने कर्तव्य साथ मिलकर निभा रहे हों या वे कैसी भी समस्याओं का सामना कर रहे हों, सबसे पहले सभी को परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और मिलकर संगति करनी चाहिए, सत्य खोजना चाहिए, और फिर यह निर्धारित करना चाहिए कि अभ्यास के सिद्धांत क्या हैं। जब वे इस तरीके से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे, तो उनके पास अभ्यास का मार्ग होगा। कुछ लोग दिखावा करने की कोशिश करते रहते हैं, और जब उन्हें काम की कोई जिम्मेदारी दी जाती है, तो वे चाहते हैं कि अंतिम निर्णय उन्हीं का हो। यह किस तरह का व्यवहार है? यह अपने आप को कानून मानना है। वे अपने तरीके से अपने काम की योजना बनाते हैं, वे दूसरों को न तो सूचित करते हैं और न ही किसी से अपने विचारों पर चर्चा करते हैं; वे न तो उन्हें किसी से साझा करते हैं और न ही किसी को बताते हैं, बल्कि उन्हें अपने तक ही सीमित रखते हैं। और जब काम करने का समय आता है, तो वे हमेशा अपने शानदार करतब से दूसरों को विस्मित करना चाहते हैं, सभी को आश्चर्यचकित कर देना चाहते हैं ताकि लोग उनका सम्मान करें। क्या यह अपने कर्तव्य का निर्वहन करना है? वे दिखावा करने की कोशिश कर रहे हैं; और जब उनके पास रुतबा और ख्याति होती है, तो वे अपना संचालन शुरू कर देते हैं। क्या ऐसे लोग अति-महत्वाकांक्षी नहीं होते? तुम किसी को यह क्यों नहीं बताते कि तुम क्या कर रहे हो? चूँकि यह कार्य अकेले तुम्हारा नहीं है, तुम उसे बिना किसी से चर्चा किए क्यों करोगे और अपने आप निर्णय कैसे लोगे? तुम गुप्त रूप से सारी जानकारी छिपाकर काम क्यों करोगे, जिससे कि किसी को उसके बारे में पता न चले? तुम हमेशा ऐसी कोशिश क्यों करते हो कि सबका ध्यान सिर्फ तुम्हारी ओर ही हो? जाहिर है कि तुम इसे अपना निजी कार्य समझते हो। तुम मालिक हो और बाकी सब कार्यकर्ता हैं—वे सभी तुम्हारे लिए काम करते हैं। जब लगातार तुम्हारी मानसिकता ऐसी होती है, तो क्या यह परेशानी वाली बात नहीं है? क्या इस प्रकार का व्यक्ति शैतान के स्वभाव को प्रकट नहीं करता है? जब इस तरह के लोग कोई कार्य करते हैं, तो देर-सवेर उन्हें हटा दिया जाएगा।

यह जानना आवश्यक है कि जब लोगों को अपने कर्तव्य के दौरान दूसरों के साथ सहयोग करने में समस्याएँ आएँ, तो वे इसे कैसे सँभालें। उन्हें सँभालने का सिद्धांत क्या है? क्या प्रभाव हासिल किया जाना चाहिए? सभी के साथ सद्भाव से काम करना सीखें, लोगों के साथ सत्य, परमेश्वर के वचनों और सिद्धांतों के अनुसार बातचीत करें, न कि भावनाओं या उतावलेपन से। इस तरह, क्या कलीसिया में सत्य का बोलबाला न होगा? अगर सत्य का बोलबाला होगा, तो क्या सभी चीजें उचित और न्यायपूर्ण तरीके से नहीं संभाली जाएँगी? क्या तुम्हें नहीं लगता कि सामंजस्यपूर्ण समन्वय सभी के लिए फायदेमंद होता है? (हाँ, बिल्कुल।) इस तरह से काम करना तुम लोगों के लिए बहुत फायदेमंद होता है। सबसे पहली बात, कर्तव्यों का पालन करते समय, यह तुम लोगों के लिए सकारात्मक रूप से शिक्षाप्रद और मूल्यवान होता है। इसके अलावा, यह तुम्हें गलतियाँ करने, व्यवधान और गड़बड़ी पैदा करने और मसीह-विरोधी रास्ते पर चलने से बचाता है। क्या तुम लोग मसीह-विरोधी के मार्ग पर चलने से डरते हो? (हाँ।) क्या डर अपने आप में उपयोगी है? नहीं—अकेले डर से समस्या का समाधान नहीं हो सकता। मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलने से डरना एक सामान्य बात है। यह दिखाता है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है, सत्य के लिए प्रयास करने और उसका अनुसरण करने को तैयार है। यदि तुम्हारे मन में भय है, तो तुम्हें सत्य की खोज कर उसके अभ्यास का मार्ग ढूँढ़ना चाहिए। तुम्हें इसकी शुरुआत लोगों के साथ सद्भावपूर्वक सहयोग करना सीखने से करनी चाहिए। यदि कोई समस्या आए, तो उसे संगति और चर्चा से हल करो, ताकि सभी को सिद्धांतों की जानकारी हो, साथ ही उसके समाधान के बारे में विशिष्ट तर्क और कार्यक्रम का पता चल सके। क्या यह तुम्हें अकेले ही फैसले लेने से नहीं रोकता है? साथ ही, अगर तुम्हारे पास परमेश्वर से भय मानने वाला दिल है, तो तुम स्वाभाविक रूप से परमेश्वर की जाँच-पड़ताल पाने में सक्षम होगे, पर तुम्हें परमेश्वर के चुने हुए लोगों की निगरानी को स्वीकार करना भी सीखना होगा, जिसके लिए तुममें सहिष्णुता और स्वीकृति होनी जरूरी है। अगर तुम किसी को तुम्हारे काम की निगरानी करते, निरीक्षण करते, या बिना तुम्हारी जानकारी के जाँच करते देखते हो, और अगर तुम गुस्से में तमतमा जाते हो, उस व्यक्ति से दुश्मन की तरह पेश आते हो, उससे घृणा करते हो, और उस पर वार भी कर बैठते हो, उसे विश्वासघाती की तरह देखते हो, उसके वहाँ न रहने की कामना करते हो, तो यह एक समस्या है। क्या यह अत्यंत दुष्टतापूर्ण नहीं है? इसमें और एक राक्षस राजा में क्या फर्क है? क्या यह लोगों से उचित ढंग से पेश आना है? अगर तुम सही रास्ते पर चलते हो और सही काम करते हो, तो तुम्हें लोगों की जाँच से डरने की क्या जरूरत है? अगर तुम डरे हुए हो, तो यह दिखाता है कि तुम्हारे दिल में कोई चोर है। अगर तुम अपने दिल में जानते हो कि कुछ समस्या है, तो तुम्हें परमेश्वर के न्याय और ताड़ना को स्वीकार करना चाहिए। इसी में समझदारी है। अगर तुम जानते हो कि तुम्हारे साथ कुछ समस्या है, पर तुम किसी को तुम्हारी निगरानी, तुम्हारे काम के निरीक्षण या तुम्हारी समस्या की छानबीन करने देना नहीं चाहते, तब तुम बहुत ज्यादा अनुचित हो रहे हो, तुम परमेश्वर से विद्रोह और उसका प्रतिरोध कर रहे हो, और इस मामले में, तुम्हारी समस्या और भी गंभीर है। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों ने भाँप लिया कि तुम एक कुकर्मी या छद्म-विश्वासी हो, तो नतीजे और भी बड़ी मुसीबत वाले होंगे। इसलिए जो लोग दूसरों की निगरानी, जाँच और निरीक्षण को स्वीकार कर सकते हैं, वे सबसे समझदार लोग होते हैं, उनमें सहिष्णुता और सामान्य मानवता होती है। जब तुम्हें पता चलता है कि तुम कुछ गलत कर रहे हो, या भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हो, तो अगर तुम दूसरे लोगों के साथ खुलकर बात करने में सक्षम होते हो, तो इससे तुम्हारे आसपास के लोगों को तुम पर नजर रखने में आसानी होगी। पर्यवेक्षण को स्वीकार करना निश्चित रूप से आवश्यक है, लेकिन मुख्य बात है परमेश्वर से प्रार्थना करना, उस पर भरोसा करना और खुद को निरंतर जाँच के अधीन रखना। खासकर जब तुम गलत मार्ग पर चले पड़े हो, कुछ गलत कर दिया हो या जब तुम कोई काम खुद ही करने या खुद ही फैसला लेने वाले हो और आस-पास का कोई व्यक्ति इस बात का उल्लेख कर तुम्हें सचेत कर दे, तो तुम्हें इसे स्वीकार कर तुरंत आत्मचिंतन करना चाहिए और अपनी गलती को स्वीकार कर उसे सुधारना चाहिए। इससे तुम मसीह-विरोधी मार्ग पर चलने से बच जाओगे। अगर कोई इस तरह तुम्हारी मदद कर तुम्हें सचेत कर रहा है, तो क्या तुम्हारे जाने बगैर ही तुम्हें सुरक्षित नहीं रखा जा रहा है? तुम हो—यही तुम्हारी सुरक्षा है। इसलिए तुम्हें हमेशा अपने भाई-बहनों या अपने आस-पास के लोगों से बचकर नहीं रहना चाहिए। दूसरों को तुम्हें समझने न देकर या तुम कौन हो यह न जानने देकर हमेशा खुद को छिपाने और ढँकने की कोशिश मत करो। अगर तुम्हारा दिल हमेशा दूसरों से अपनी रक्षा करता रहेगा, तो इसका असर तुम्हारी सत्य की खोज पर पड़ेगा, और तुम पवित्र आत्मा के कार्य के साथ ही पूर्ण किए जाने के कई अवसरों को आसानी से गँवा दोगे। अगर तुम हमेशा अपने आपको दूसरों से बचाते फिरोगे, तो तुम दिल में रहस्य रखोगे, और तुम लोगों के साथ सहयोग नहीं कर पाओगे। तुम्हारे लिए गलत चीजें करना और गलत रास्ते पर चलना आसान हो जाएगा, और जब तुम गलतियाँ करोगे तो भौचक्के रह जाओगे। तुम उस समय क्या सोचोगे? “अगर मुझे पता होता, तो मैं शुरू से ही अपना कर्तव्य निभाने के लिए अपने भाई-बहनों के साथ सहयोग करता, और निश्चित रूप से मुझे कोई समस्या नहीं होती। लेकिन क्योंकि मैं हमेशा इस बात से डरता था कि दूसरे मेरी असलियत जान जाएँगे, इसलिए मैंने खुद को दूसरों से बचाकर रखा। लेकिन आखिरकार किसी और ने गलती नहीं की—पहली गलती मुझसे ही हुई। कितनी शर्मनाक और मूर्खतापूर्ण बात है!” अगर तुम सत्य खोजने पर ध्यान केंद्रित कर सकते हो, और कठिनाइयाँ आने पर अपने भाई-बहनों के साथ संगति में खुलकर बात कर सकते हो, तो तुम्हारे भाई-बहन तुम्हारी मदद कर सकते हैं, और अभ्यास के सही मार्ग और अभ्यास के सिद्धांतों को तुम्हें समझने में सक्षम बना सकते हैं। यह तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय गलत रास्ते पर चलने से बचा सकता है, ताकि तुम असफल न हो या गिरो नहीं, या परमेश्वर तुम्हें ठुकरा कर हटा न दे। इसके बजाय तुम्हें सुरक्षा मिलेगी, तुम अपना कर्तव्य उचित ढंग से निभाओगे, और परमेश्वर की स्वीकृति प्राप्त करोगे। सामंजस्यपूर्ण सहयोग से लोगों को कितना बड़ा लाभ मिलता है!

“सौहार्दपूर्ण सहयोग” शब्दों को अक्षरशः समझना तो आसान है, लेकिन उन्हें व्यवहार में लाना मुश्किल है। इन शब्दों के व्यावहारिक पक्ष को जीना कोई आसान बात नहीं है। आसान क्यों नहीं है? (लोगों के भ्रष्ट स्वभाव के कारण।) सही कहा। इंसान के अंदर अहंकार, दुष्टता, अकर्मण्यता इत्यादि भ्रष्ट स्वभाव हैं और ये उसके सत्य के अभ्यास में बाधा डालते हैं। जब तुम दूसरों के साथ सहयोग करते हो, तो तुम्हारे अंदर हर तरह का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट होता है। उदाहरण के लिए, तुम सोचते हो : “तुम चाहते हो कि मैं उस व्यक्ति के साथ सहयोग करूँ, लेकिन क्या वह इस योग्य है? अगर मैं किसी ऐसे व्यक्ति के साथ सहयोग करूँ जिसमें कोई काबिलियत न हो, तो क्या लोग मुझे हिकारत से नहीं देखेंगे?” और कभी-कभी तुम यह भी सोच सकते हो, “वह व्यक्ति इतना मूर्ख है कि मेरी बात ही नहीं समझता!” या “मेरी बातों में विचारशीलता और अंतर्दृष्टि है। अगर मैंने उसे बताया और उसने उसे अपना लिया, क्या तब भी मेरी अलग पहचान बनेगी? मेरा प्रस्ताव सबसे अच्छा है। अगर मैं अपना प्रस्ताव बता दूँ और वह उसे ले उड़े, तो कौन जानेगा कि यह मेरा योगदान था?” ऐसे विचार और मत—ऐसी शैतानी बातें—आमतौर पर देखी-सुनी जाती हैं। अगर तुम्हारे विचार और राय ऐसी हो, तो क्या तुम लोगों के साथ सहयोग करने के इच्छुक हो? क्या तुम सौहार्दपूर्ण सहयोग कर पाओगे? यह आसान नहीं है; इसमें भी अलग-अलग तरह की चुनौतियाँ हैं! “सौहार्दपूर्ण सहयोग” बोलने में तो आसान हैं—मुँह खोला और फौरन बोल दिया। लेकिन जब उन पर अमल करने की बात आती है, तो तुम्हारे अंदर ही रुकावटें उभरकर आ खड़ी होती हैं। तुम्हारे विचार इधर-उधर डोलने लगते हैं। अगर कभी तुम्हारी मनोदशा अच्छी हुई, तो हो सकता है कि तुम दूसरों के साथ थोड़ी-बहुत संगति कर पाओ; लेकिन अगर तुम्हारी मनोदशा खराब हुई और भ्रष्ट स्वभाव तुम्हें बाधित करे, तो तुम इसका बिल्कुल अभ्यास नहीं कर पाओगे। कुछ लोग, बतौर अगुआ किसी के साथ सहयोग नहीं कर सकते। वे हमेशा दूसरों को हिकारत से देखते हैं, लोगों को पसंद-नापसंद करते हैं और अगर किसी में कमियाँ नजर आ जाएँ, तो वे उन लोगों की आलोचना कर उन पर हमला करते हैं। ये चीज अगुआओं को घटिया बना देती है और उन्हें हटा दिया जाता है। क्या वे “सौहार्दपूर्ण सहयोग” शब्दों का अर्थ नहीं समझते? अच्छी तरह समझते हैं, बस असल में उन्हें व्यवहार में नहीं ला पाते। वे उन्हें व्यवहार में क्यों नहीं ला पाते? क्योंकि वे हैसियत को बहुत अधिक महत्व देते हैं और उनका स्वभाव भी बहुत अहंकारी होता है। वे दिखावा करना चाहते हैं और जब हैसियत उनकी मुट्ठी में आ जाती है, तो वे उसे छोड़ना नहीं चाहते, उन्हें डर होता है कि वह किसी और के हाथ में पड़ जाएगी और उनके पास असल सत्ता नहीं बचेगी। वे डरते हैं कि लोग उन्हें छोड़ देंगे और उनका सम्मान नहीं करेंगे, उनकी बातों में कोई सामर्थ्य या अधिकार नहीं रह जाएगा। उन्हें इसी बात का डर होता है। उनका अहंकार कहाँ तक जाता है? वे समझ खो बैठते हैं और मनमानी करते हुए जल्दबाजी में कार्रवाई करते हैं। और इससे क्या होता है? न केवल उनका काम खराब होता है, बल्कि उनके क्रियाकलापों से व्यवधान और गड़बड़ी पैदा होती है, उन्हें हटाकर कहीं और लगा दिया जाता है। अच्छा बताओ, क्या ऐसा व्यक्ति, जिसका स्वभाव ऐसा है, कहीं भी कर्तव्य निभाने योग्य होता है? मुझे लगता है कि ऐसे व्यक्ति को कहीं भी लगा दिया जाए, वह अपना काम ठीक से नहीं करेगा। वह किसी के भी साथ सहयोग नहीं कर सकता—अच्छा, तो क्या इसका मतलब यह है कि वह अकेले अपना काम अच्छे से कर सकता है? हरगिज नहीं। अगर वह अकेले अपना काम करेगा, तो उस पर और भी कम पाबंदियाँ होंगी, वह और भी अधिक मनमानी करेगा, हड़बड़ी के काम करेगा। तुम अपना काम अच्छे से कर सकते हो या नहीं, यह तुम्हारे कौशल, तुम्हारी क्षमता की गुणवत्ता, तुम्हारी मानवता, योग्यता या तुम्हारे हुनर का मामला नहीं है; यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या तुम सत्य स्वीकार सकते हो और क्या उसे व्यवहार में ला सकते हो। अगर तुम सत्य को अमल में लाने और दूसरों के साथ उचित व्यवहार करने में सक्षम हो, तो तुम दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर सकते हो। व्यक्ति अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकता है या नहीं और दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहयोग कर सकता है या नहीं, इसकी कुंजी इसमें निहित है कि वह सत्य स्वीकार कर उसको समर्पित हो सकता है या नहीं। लोगों की क्षमता, गुण, अभिवृत्ति, उम्र आदि मुख्य चीजें नहीं हैं, वे सभी गौण हैं। सबसे महत्वपूर्ण चीज यह देखना है कि व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं, और वह सत्य का अभ्यास कर सकता है या नहीं। उपदेश सुनने के बाद, जो लोग सत्य से प्रेम करते हैं और सत्य का अभ्यास कर सकते हैं, वे स्वीकार करेंगे कि यह सही है। वास्तविक जीवन में, जब उनका सामना लोगों, घटनाओं और चीजों से होता है, तो वे ये सत्य लागू करेंगे। वे सत्य अमल में लाएँगे, वह उनकी वास्तविकता और उनके जीवन का एक हिस्सा बन जाएगा। यह वे मानदंड और सिद्धांत बन जाएँगे, जिनके द्वारा वे आचरण और कार्य करते हैं; यह वह चीज बन जाएगी, जिसे वे जीते और प्रकट करते हैं। उपदेश सुनते समय, जो लोग सत्य से प्रेम नहीं करते, वे भी उसे सही मानते हैं, और सोचते हैं कि वे सब समझते हैं। उन्होंने अपने दिल में सिद्धांत दर्ज कर लिए हैं, लेकिन कोई काम करते समय उस पर विचार करने के लिए वे किन सिद्धांतों और मानदंड का उपयोग करते हैं? वे हमेशा चीजों पर अपने हितों के अनुसार विचार करते हैं; वे सत्य का उपयोग करके चीजों पर विचार नहीं करते। वे डरते हैं कि सत्य का अभ्यास करने पर वे हार जाएँगे, और वे दूसरों के द्वारा न्याय किए जाने और नीचा दिखाए जाने से डरते हैं—इज्जत खोने से डरते हैं। वे बार-बार विचार करते हैं, फिर अंत में सोचते हैं, “मैं सिर्फ अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और हितों की रक्षा करूँगा, यही मुख्य बात है। जब ये चीजें प्राप्त हो जाएँगी, मैं संतुष्ट हो जाऊँगा। अगर ये चीजें प्राप्त नहीं होतीं, तो मुझे सत्य का अभ्यास करने में खुशी नहीं होगी, और न ही यह सुखद लगेगा।” क्या यह वह व्यक्ति है, जो सत्य से प्रेम करता है? बिलकुल नहीं। कुछ लोग धर्मोपदेश सुनते समय बहुत गंभीर होते हैं, और नोट्स भी लेते हैं। जब भी वे कोई अहम शब्द या महत्वपूर्ण वाक्यांश सुनते हैं, तो वे इसे नोटबुक में दर्ज कर लेते हैं, मगर बाद में इसका उपयोग नहीं करते या प्रयोग में नहीं लाते। चाहे जितना भी समय बीत गया हो, कोई वास्तविक बदलाव दिखाई नहीं देता। क्या यह सत्य से प्रेम करने वाला व्यक्ति मालूम पड़ता है? जो सत्य से प्रेम करता और उसे समझता है, वह इसे अभ्यास में लाने में सक्षम होता है, जबकि जो सत्य समझता है पर उससे प्रेम नहीं करता, वह इसे अभ्यास में नहीं लाता। कोई व्यक्ति सत्य से प्रेम करता है या नहीं, इसका सबसे बड़ा संकेत यह है कि वह इसे अभ्यास में ला सकता है या नहीं। क्या तुम लोगों को लगता है कि जो सत्य से प्रेम नहीं करता वह सही-गलत में अंतर कर सकता है? (वे ऐसा नहीं कर सकते।) दरअसल, वे कर सकते हैं। उदाहरण के लिए अगर वे अतीत में किसी के प्रति दयालु थे, लेकिन फिर वह व्यक्ति उनके हितों को ठेस पहुँचाता है, तो वे कहेंगे, “वह व्यक्ति विवेकहीन है। मैंने पहले उसकी मदद की थी, और अब वह मेरे साथ ऐसा बर्ताव कर रहा है!” तुमने देखा, वे अंतरात्मा के बारे में बात करते हैं, लेकिन किसी व्यक्ति की अंतरात्मा या सही-गलत को मापने के लिए वे किस मानक का उपयोग करते हैं? जो कोई भी उनके लिए उपयोगी हो, और जिन वचनों या कर्मों से उनका फायदा होता हो—ये चीजें सकारात्मक हैं, जबकि जो कुछ भी उनके लिए फायदेमंद नहीं है, वह नकारात्मक होता है। उनका दृष्टिकोण कितना स्वार्थी है। क्या तुम लोगों को लगता है कि इस प्रकार का व्यक्ति कभी सत्य प्राप्त कर सकता है? (नहीं, वे नहीं कर सकते।) क्यों नहीं? (वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि उनके कार्य सिद्धांतहीन हैं, और वे सत्य के अनुसार अभ्यास नहीं करते। इसके बजाय वे अपने फायदे के लिए काम करते हैं, और हर तरह से अपने लिए योजनाएँ बनाते हैं।) बिल्कुल सही। वे सत्य प्राप्त नहीं कर सकते। तो सत्य किस प्रकार के व्यक्ति के लिए बनाया गया है? यह उन लोगों के लिए बनाया गया है जो सत्य से प्रेम करते हैं और इसके लिए सब कुछ त्यागने में सक्षम हैं। यही वे लोग हैं जो सत्य प्राप्त कर सकते हैं, और आखिरकार सत्य इनके लिए ही है और इन्हें ही दिया जाता है। इसका अर्थ है सत्य को अभ्यास में लाना और हर कीमत पर सत्य को जीने में सक्षम होना, फिर चाहे इसके लिए तुम्हें अपने व्यक्तिगत हितों या जिन चीजों से तुम सबसे अधिक प्रेम करते हो उन्हें त्यागना और अर्पित करना पड़े। इस प्रकार सत्य प्राप्त किया जा सकता है।

तुम लोगों को क्या लगता है, लोग किस चीज को सबसे ज्यादा सँजोकर रखते हैं? क्या यह मानव जीवन है? (बिल्कुल।) दरअसल, ऐसा नहीं है। मान लो कि तुम्हें परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्यागने को कहा जाए। क्या तुम इसे त्याग दोगे? मान लो कि तुम्हें खुद को परमेश्वर को सौंपकर तुरंत मर जाने को कहा जाता है, क्या तुम ऐसा कर पाओगे? कुछ लोग हैं जो ऐसा कर सकते हैं। इसलिए, जीवन लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज नहीं है, क्योंकि वास्तव में कुछ लोग किसी भी समय और कहीं भी, खुद को परमेश्वर को सौंप देने या परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्यागने को तैयार होते हैं। मगर जब उनके अपने व्यक्तिगत हित या प्रतिष्ठा और हैसियत दाँव पर लगी होती है, खासकर जब इसमें उनका भविष्य और नियति शामिल होती है, तो क्या वे सत्य पर अमल करके अपनी दैहिक इच्छाओं के खिलाफ विद्रोह कर सकते हैं? यह करना सबसे कठिन काम है। इस स्थिति में किसी व्यक्ति के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है? (उसके हित, भविष्य और नियति।) बिल्कुल सही। यह जीवन नहीं, बल्कि उनके हित, हैसियत, भविष्य और नियति हैं—यही वे चीजें हैं जिन्हें लोग सबसे अधिक महत्व देते और सँजोते हैं। अगर कोई परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्याग सकता है, तो यह जरूरी नहीं कि वह सत्य से प्रेम करने और उसे अभ्यास में लाने वाला व्यक्ति हो। परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्याग देने में सक्षम होना बस एक नारा हो सकता है। तुम कहते हो कि तुम अपना जीवन परमेश्वर को सौंप सकते हो, पर क्या तुम रुतबे के फायदे त्याग सकते हो? अहंकार त्याग सकते हो? किसका त्याग करना आसान है? (अपने जीवन का त्याग करना आसान है।) बिल्कुल। जब कुछ लोगों को विकल्प चुनना पड़ता है, तो भले ही वे अपने जीवन का त्याग कर सकते हैं, पर वे रुतबे के फायदों या अपने गलत मार्ग का त्याग नहीं कर पाते। मान लो कि तुम्हें दो रास्तों में से एक चुनना है। पहला रास्ता है ईमानदार इंसान बनने, सच बोलने और अपने दिल की बात कहने का, दूसरों के साथ अपने दिल की बात साझा करने या अपनी गलतियों को स्वीकारने और तथ्यों को जस-का-तस सामने रखने, और दूसरों को अपनी भ्रष्ट कुरूपता दिखाकर खुद से घृणा करने का। दूसरा रास्ता है परमेश्वर के लिए शहादत में अपना जीवन त्याग देने और मरने पर स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने का। तुम किसे चुनोगे? कुछ लोग कह सकते हैं, “मैं परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्याग देने का विकल्प चुनता हूँ। मैं उसके लिए मरने को तैयार हूँ; मरने के बाद मुझे मेरा पुरस्कार मिल जाएगा और मैं स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करूँगा।” परमेश्वर के लिए अपना जीवन त्यागना दृढ़ संकल्प वाले लोगों के लिए बस एक जोर का धक्का देने की बात हो सकती है। लेकिन क्या सत्य का अभ्यास करना और एक ईमानदार इंसान बनना इस तरह के धक्के से पूरा किया जा सकता है? यह दो धक्कों में भी पूरा नहीं किया जा सकता। अगर कोई काम करते समय तुम्हारे अंदर इच्छाशक्ति है, तो तुम इसे एक ही झटके में अच्छी तरह से कर सकते हो; लेकिन बिना किसी झूठ के सिर्फ एक बार सच कहने से तुम हमेशा के लिए ईमानदार व्यक्ति नहीं बन जाओगे। ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए अपना स्वभाव बदलना जरूरी है, और इसके लिए दस-बीस वर्षों का अनुभव लगता है। ईमानदार व्यक्ति बनने के बुनियादी मानक को पूरा करने के लिए सबसे पहले, तुम्हें अपने झूठ और कपटपूर्ण स्वभाव को त्याग देना चाहिए। क्या यह सबके लिए कठिन नहीं है? यह एक बहुत बड़ी चुनौती है। परमेश्वर अब लोगों के एक समूह को पूर्ण बनाना और प्राप्त करना चाहता है, और सत्य का अनुसरण करने वाले सभी लोगों को न्याय और ताड़ना, परीक्षणों और शोधन को स्वीकारना चाहिए, जिसका उद्देश्य उनके कपटी स्वभावों का समाधान करना और उन्हें ऐसा ईमानदार व्यक्ति बनाना है जो परमेश्वर के प्रति समर्पित रहें। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे एक झटके में हासिल किया जा सकता है; इसके लिए सच्ची आस्था की आवश्यकता होती है, और इसे हासिल करने से पहले व्यक्ति को बहुत-से परीक्षणों और काफी शोधन से गुजरना पड़ता है। अगर परमेश्वर तुमसे अभी ईमानदार व्यक्ति बनने और सच बोलने के लिए कहे, कुछ ऐसा जिसमें तथ्य शामिल हों, और कुछ ऐसा जिससे तुम्हारा भविष्य और भाग्य जुड़ा हो, जिसके परिणाम शायद तुम्हारे लिए फायदेमंद न हों, और दूसरे अब तुम्हें सम्मान से न देखें, और तुम्हें ऐसा लगे कि तुम्हारी प्रतिष्ठा नष्ट हो गई है—तो क्या ऐसी परिस्थिति में तुम बेबाक होकर सच बोल सकते हों? क्या तुम अभी भी ईमानदार रह सकते हो? यह करना सबसे कठिन काम है, अपना जीवन त्यागने से भी कहीं अधिक कठिन। तुम कह सकते हो, “मेरे सच बोलने से काम नहीं चलेगा। मैं सच बोलने के बजाय परमेश्वर के लिए मरना पसंद करूँगा। मैं ईमानदार व्यक्ति बिल्कुल भी नहीं बनना चाहता। हर कोई मुझे नीची निगाह से देखे और मुझे एक आम व्यक्ति समझे, इसके बजाय मैं मर जाना पसंद करूँगा।” यह क्या दिखाता है कि लोग किस चीज को सबसे ज्यादा सँजोते हैं? लोग जिसे सबसे ज्यादा सँजोते हैं, वह उनका उनकी हैसियत और प्रतिष्ठा है—ऐसी चीजें जो उनके शैतानी स्वभावों से नियंत्रित होती हैं। जीवन गौण होता है। हालात मजबूर करें वे अपनी जान देने की ताकत जुटा लेंगे, लेकिन हैसियत और प्रतिष्ठा त्यागना आसान नहीं है। जो लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उनके लिए अपनी जान देना अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं है; परमेश्वर अपेक्षा करता है कि लोग सत्य को स्वीकार करें, और वास्तव में ऐसे ईमानदार लोग बनें जो अपने दिल की बात कहते, खुलकर बोलते और सबके सामने खुद को उजागर करते हैं। क्या ऐसा करना आसान है? (नहीं, यह आसान नहीं है।) वास्तव में, परमेश्वर तुमसे अपना जीवन त्यागने के लिए नहीं कहता। क्या तुम्हारा जीवन तुम्हें परमेश्वर ने ही नहीं दिया था? परमेश्वर के लिए तुम्हारे जीवन का क्या उपयोग होगा? परमेश्वर उसे नहीं चाहता। वह चाहता है कि तुम ईमानदारी से बोलो, दूसरों को यह बताओ कि तुम किस तरह के व्यक्ति हो और अपने दिल में क्या सोचते हो। क्या तुम ये बातें कह सकते हो? यहाँ, यह कार्य कठिन हो जाता है, और तुम कह सकते हो, “मुझे कड़ी मेहनत करने दो, मुझमें उसे करने की ताकत होगी। मुझे अपनी सारी संपत्ति का त्याग करने दो, और मैं ऐसा कर सकता हूँ। मैं आसानी से अपने माता-पिता, अपने बच्चे, अपनी शादी और आजीविका का त्याग कर दूँगा। लेकिन अपने दिल की बात कहना, ईमानदारी से बोलना—यही एक काम मैं नहीं कर सकता।” क्या कारण है कि तुम ऐसा नहीं कर सकते? इसका कारण यह है कि तुम्हारे ऐसा करने के बाद, जो कोई भी तुम्हें जानता है या तुमसे परिचित है, वह तुम्हें अलग तरह से देखेगा। वह अब तुम्हारा सम्मान नहीं करेगा। तुम्हारी साख मिट जाएगी और तुम बुरी तरह से अपमानित होगे, तुम्हारी सत्यनिष्ठा और गरिमा खत्म हो जाएगी। दूसरों के दिलों में तुम्हारी ऊँची हैसियत और प्रतिष्ठा नहीं रहेगी। इसलिए, ऐसे हालात में, चाहे कुछ भी हो जाए, तुम सच नहीं कहोगे। जब लोगों के सामने यह स्थिति आती है, तो उनके दिलों में एक जंग होती है, और जब वह जंग खत्म होती है, तो कुछ लोग अंततः अपनी कठिनाइयों से निकल आते हैं, जबकि अन्य इससे निकल नहीं पाते, और अपने भ्रष्ट शैतानी स्वभावों और अपनी हैसियत, प्रतिष्ठा और तथाकथित गरिमा से नियंत्रित होते रहते हैं। यह एक कठिनाई है, है न? केवल ईमानदारी से बोलना और सच बोलना कोई महान चीज नहीं है, फिर भी बहुत-से वीर नायक, बहुत-से ऐसे लोग जिन्होंने परमेश्वर के लिए खुद को समर्पित करने, खुद को खपाने और परमेश्वर के लिए अपना जीवन बिताने की शपथ ली है, और बहुत-से ऐसे लोग जिन्होंने परमेश्वर से बड़ी-बड़ी बातें कही हैं, ऐसा करना असंभव पाते हैं। मेरे यह कहने का क्या अर्थ है? जब परमेश्वर यह अपेक्षा करता है कि लोग अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाएं तो वह उनसे एक निश्चित संख्या में कार्य पूरे करने या किसी महान उपक्रम को संपन्न करने को नहीं कह रहा है, और न ही वह उनसे किन्हीं महान उपक्रमों का निर्वहन करवाना चाहता है। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि लोग ज़मीनी तरीके से वह सब करें, जो वे कर सकते हैं, और उसके वचनों के अनुसार जिएँ। परमेश्वर यह नहीं चाहता कि तुम कोई महान या उत्कृष्ट व्यक्ति बनो, न ही वह चाहता है कि तुम कोई चमत्कार करो, न ही वह तुममें कोई सुखद आश्चर्य देखना चाहता है। उसे ऐसी चीज़ें नहीं चाहिए। परमेश्वर बस इतना चाहता है कि तुम मजबूती से उसके वचनों के अनुसार अभ्यास करो। जब तुम परमेश्वर के वचन सुनते हो तो तुमने जो समझा है वह करो, जो समझ-बूझ लिया है उसे क्रियान्वित करो, जो तुमने सुना है उसे अच्छे से याद रखो और जब अभ्यास का समय आए, तो परमेश्वर के वचनों के अनुसार ऐसा करो। उन्हें तुम्हारा जीवन, तुम्हारी वास्तविकताएं और जो तुम लोग जीते हो, वह बन जाने दो। इस तरह, परमेश्वर संतुष्ट होगा। तुम हमेशा महानता, उत्कृष्टता और हैसियत ढूँढ़ते हो; तुम हमेशा उन्नयन खोजते हो। इसे देखकर परमेश्वर को कैसा लगता है? वह इससे घृणा करता है और वह खुद को तुमसे दूर कर लेगा। जितना अधिक तुम महानता और कुलीनता जैसी चीजों के पीछे भागते हो; दूसरों से बड़ा, विशिष्ट, उत्कृष्ट और महत्त्वपूर्ण होने का प्रयास करते हो, परमेश्वर को तुम उतने ही अधिक घिनौने लगते हो। यदि तुम आत्म-चिंतन करके पश्चात्ताप नहीं करते, तो परमेश्वर तुमसे घृणा कर तुम्हें त्याग देगा। ऐसे व्यक्ति बनने से बचो जिससे परमेश्वर घृणा करता है; बल्कि ऐसे इंसान बनो जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। तो इंसान परमेश्वर का प्रेम कैसे प्राप्त कर सकता है? आज्ञाकारिता के साथ सत्य स्वीकार करके, सृजित प्राणी के स्थान पर खड़े होकर, परमेश्वर के वचनों का पालन करते हुए व्यावहारिक रहकर, अपने कर्तव्यों का अच्छी तरह निर्वहन करके, ईमानदार इंसान बनके और मानव के सदृश जीवन जीकर। इतना काफी है, परमेश्वर संतुष्ट होगा। लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे मन में किसी तरह की महत्वाकांक्षा न पालें या बेकार के सपने न देखें, प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे न भागें या भीड़ से अलग दिखने की कोशिश न करें। इससे भी बढ़कर, उन्हें महान या अलौकिक व्यक्ति या लोगों में श्रेष्ठ बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए और दूसरों से अपनी पूजा नहीं करवानी चाहिए। यही भ्रष्ट इंसान की इच्छा होती है और यह शैतान का मार्ग है; परमेश्वर ऐसे लोगों को नहीं बचाता। अगर लोग पश्चात्ताप किए बिना लगातार प्रसिद्धि, लाभ और हैसियत के पीछे भागते हैं, तो उनका कोई इलाज नहीं है, उनका केवल एक ही परिणाम होता है : हटा दिया जाना। आज, अगर तुम लोग शीघ्रता से पश्‍चात्ताप करो, तो अभी भी समय है; लेकिन जब वह दिन आएगा और परमेश्वर अपना काम पूरा करेगा, आपदाएँ बढ़ती जाएंगी, और तुम मौका खो चुके होगे। जब वह समय आएगा, तब जो लोग यश, लाभ और प्रतिष्ठा के पीछे भाग रहे होंगे और अड़ियल बनकर पश्चात्ताप करने से इनकार करेंगे, वे हटा दिए जाएँगे। तुम सब लोगों को इस बारे में स्पष्ट होना चाहिए कि परमेश्वर का कार्य किस तरह के लोगों को बचाता है, और उसके उद्धार का क्या अर्थ है। परमेश्वर लोगों को अपने वचन सुनने, सत्य को स्वीकारने, भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने के लिए अपने सामने आने, और परमेश्वर के कथन और उसकी आज्ञा के अनुसार अभ्यास करने को कहता है। इसका अर्थ है उसके वचनों के अनुसार जीना, न कि अपनी धारणाओं, कल्पनाओं और शैतानी फलसफों के अनुसार जीना या इंसानी “आनंद” का अनुसरण करना। जो कोई भी परमेश्वर के वचन नहीं सुनता या सत्य नहीं स्वीकारता है, बल्कि अभी भी पश्चात्ताप किए बिना शैतान के फलसफों के अनुसार और शैतानी स्वभाव के साथ जीता है, तो इस तरह के व्यक्ति को परमेश्वर नहीं बचा सकता। तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, मगर बेशक यह भी इसलिए है क्योंकि परमेश्वर ने तुम्हें चुना है—मगर परमेश्वर द्वारा तुम्हें चुने जाने का क्या अर्थ है? यह तुम्हें ऐसा व्यक्ति बनाना है, जो परमेश्वर पर भरोसा करता है, जो वास्तव में परमेश्वर का अनुसरण करता है, जो परमेश्वर के लिए सब-कुछ त्याग सकता है, और जो परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करने में सक्षम है; जिसने अपना शैतानी स्वभाव त्याग दिया है, जो अब शैतान का अनुसरण नहीं करता या उसकी सत्ता के अधीन नहीं जीता है। अगर तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और उसके घर में अपना कर्तव्य निभाते हो, फिर भी हर मामले में सत्य का उल्लंघन करते हो, और उसके वचनों के अनुसार अभ्यास या अनुभव नहीं करते हो, यहाँ तक कि उसका विरोध भी करते हो, तो क्या परमेश्वर तुम्हें स्वीकार सकता है? बिलकुल नहीं। इससे मेरा क्या आशय है? अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में कठिन नहीं है, और न ही उसे निष्ठापूर्वक और स्वीकार्य मानक तक करना कठिन है। तुम्हें अपने जीवन का बलिदान या कुछ भी खास या मुश्किल नहीं करना है, तुम्हें केवल ईमानदारी और दृढ़ता से परमेश्वर के वचनों और निर्देशों का पालन करना है, इसमें अपने विचार नहीं जोड़ने हैं या अपना खुद का कार्य संचालित नहीं करना है, बल्कि सत्य के अनुसरण के रास्ते पर चलना है। अगर लोग ऐसा कर सकते हैं, तो उनमें मूल रूप से एक मानवीय सदृशता होगी। जब उनमें परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण होता है, और वे ईमानदार व्यक्ति बन जाते हैं, तो उनमें एक सच्चे इंसान की सदृशता होगी।

25 जून 2019

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