स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X

परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है (IV)

आज हम एक खास विषय पर संवाद कर रहे हैं। प्रत्येक विश्वासी के लिए केवल दो ही मुख्य चीजें हैं, जिन्हें जानने, अनुभव करने और समझने की आवश्यकता है। वे दो चीजें क्या हैं? पहली है, व्यक्ति का जीवन में व्यक्तिगत प्रवेश, और दूसरी परमेश्वर को जानने से संबंधित है। क्या तुम लोगों को लगता है कि हाल ही में हम परमेश्वर को जानने के जिस विषय पर संवाद कर रहे हैं, वह प्राप्य है? यह कहना उचित है कि यह वास्तव में अधिकतर लोगों की समझ से परे है। तुम लोग शायद मेरे वचनों से आश्वस्त न हुए हो, लेकिन मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ, क्योंकि जब तुम लोग वह बात सुन रहे थे जो मैं पहले कह रहा था, चाहे मैंने उसे किसी भी प्रकार से या किन्हीं भी शब्दों में कहा हो, तो तुम लोग शाब्दिक और सैद्धांतिक दोनों ही रूपों में यह जानने में समर्थ थे कि वे वचन किस बारे में थे। लेकिन तुम सभी के साथ एक अत्यंत गंभीर समस्या यह थी कि तुम लोग यह नहीं समझे कि मैंने ऐसी बातें क्यों कहीं या मैंने ऐसे विषयों पर क्यों बोला। यह इस मामले का मर्म है। इस प्रकार, हालाँकि इन बातों को सुनने से परमेश्वर और उसके कर्मों के बारे में तुम्हारी समझ थोड़ी-सी बढ़ी है और वह समृद्ध हुई है, फिर भी तुम लोगों को अभी भी लगता है कि परमेश्वर को जानने के लिए कठिन प्रयास करना पड़ता है। अर्थात् मैं जो कहता हूँ, उसे सुनने के बाद तुममें से अधिकतर लोग यह नहीं समझते कि मैंने ऐसा क्यों कहा या परमेश्वर को जानने से इसका क्या संबंध है। परमेश्वर को जानने से इसका संबंध समझने में तुम इसलिए असमर्थ हो, क्योंकि तुम लोगों का जीवन-अनुभव बहुत सतही है। अगर परमेश्वर के वचनों के बारे में लोगों का ज्ञान और अनुभव बहुत उथले स्तर का रहता है, तो उसके संबंध में उनका अधिकांश ज्ञान अस्पष्ट और अमूर्त होगा; वह सब सामान्य, मत-सबंधी और सैद्धांतिक होगा। सिद्धांत रूप में, वह देखने-सुनने में तर्कसंगत और विवेकसम्मत प्रतीत हो सकता है, किंतु अधिकतर लोगों के मुख से निकलने वाला परमेश्वर का ज्ञान वस्तुतः खोखला होता है। और मैं ऐसा क्यों कहता हूँ कि वह खोखला होता है? क्योंकि, परमेश्वर को जानने के संबंध में जो कुछ तुम खुद कहते हो, उसकी यथार्थता और सटीकता को लेकर वास्तव में तुम्हें स्पष्ट समझ नहीं है। इस प्रकार, हालाँकि अधिकतर लोगों ने परमेश्वर को जानने के संबंध में बहुत-सी जानकारी और प्रवचन सुने हैं, फिर भी परमेश्वर के उनके ज्ञान को अभी भी उस सिद्धांत और मत से आगे जाना है, जो अस्पष्ट और अमूर्त है। तो इस समस्या को कैसे सुलझाया जा सकता है? क्या तुम लोगों ने इस बारे में कभी सोचा है? अगर कोई व्यक्ति सत्य की खोज नहीं करता, तो क्या उसमें वास्तविकता हो सकती है? अगर कोई व्यक्ति सत्य की खोज नहीं करता, तो निर्विवाद रूप से वह वास्तविकता से रहित होता है और इसलिए निश्चित रूप से ऐसे लोगों को परमेश्वर के वचनों का ज्ञान या अनुभव नहीं होता। क्या जिन लोगों को परमेश्वर के वचनों की समझ नहीं होती, वे परमेश्वर को जान सकते है? बिलकुल नहीं; दोनों आपस में जुड़े हैं। इसलिए, अधिकतर लोग कहते हैं, “परमेश्वर को जानना इतना कठिन क्यों है? जब मैं स्वयं को जानने की बात करता हूँ, तो मैं घंटों तक बोल सकता हूँ, लेकिन जब परमेश्वर को जानने की बात आती है, तो मेरे पास शब्दों का अकाल पड़ जाता है। यहाँ तक कि जब मैं इस विषय पर थोड़ा बोल भी पाता हूँ, तो मेरे शब्द जबरदस्ती के होते हैं और सुनने में नीरस लगते हैं। जब मैं भी स्वयं को उन्हें बोलते हुए सुनता हूँ, तो अजीब लगता है।” यही स्रोत है। अगर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर को जानना बहुत कठिन है, उसे जानने में बहुत श्रम लगता है, या तुम्हारे पास बोलने के लिए कोई विषय ही नहीं होता और संवाद के लिए और दूसरों तथा स्वयं को देने के लिए तुम कुछ भी वास्तविक नहीं सोच सकते, तो यह प्रमाणित करता है कि तुम वह व्यक्ति नहीं हो, जिसने परमेश्वर के वचनों का अनुभव किया है। परमेश्वर के वचन क्या हैं? क्या परमेश्वर के वचन उसके स्वरूप की अभिव्यक्ति नहीं हैं? अगर तुमने परमेश्वर के वचनों का अनुभव नहीं किया है, तो क्या तुम्हें उसके स्वरूप का कोई ज्ञान हो सकता है? निश्चित रूप से नहीं। ये सभी चीजें आपस में जुड़ी हैं। अगर तुम्हें परमेश्वर के वचनों का कोई अनुभव नहीं है, तो तुम परमेश्वर की इच्छा नहीं समझ सकते, और न ही तुम यह जानते हो कि उसका स्वभाव क्या है, उसे क्या पसंद है, वह किस चीज से घृणा करता है, लोगों से उसकी क्या अपेक्षाएँ हैं, अच्छे लोगों के प्रति उसका कैसा रवैया है और दुष्ट लोगों के प्रति कैसा रवैया है; यह सब निश्चित रूप से तुम्हारे लिए अस्पष्ट और धुँधला है। अगर इस तरह की अस्पष्टता के बीच तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो जब तुम उनमें से एक होने का दावा करते हो जो सत्य की खोज और परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, तो क्या ऐसे दावे वास्तविक हैं? वे वास्तविक नहीं हैं! इसलिए हम परमेश्वर को जानने के संबंध में बातचीत जारी रखते हैं।

तुम सब आज की संगति का विषय जानने के लिए उत्सुक हो, है न? वह इस विषय से भी संबंधित है, “परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है,” जिस पर हम हाल ही में बात करते रहे हैं। हमने इस बारे में काफी बात की है कि कैसे “परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है,” और लोगों को यह सूचित करने के लिए विभिन्न साधनों और परिप्रेक्ष्यों का उपयोग किया है कि कैसे परमेश्वर सभी चीजों पर शासन करता है, किन साधनों से वह ऐसा करता है, और किन सिद्धांतों के अनुसार वह सभी चीजों का प्रबंधन करता है, ताकि वे इस ग्रह पर बनी रहें जिसकी रचना परमेश्वर ने की है। हमने इस बारे में भी काफी बातें की हैं कि कैसे परमेश्वर मानवजाति का भरण-पोषण करता है : किन साधनों से वह यह भरण-पोषण करता है, वह मानवजाति को कैसा जीवन-परिवेश प्रदान करता है, और किन साधनों से और किन प्रस्थान-बिंदुओं से वह मनुष्य के लिए स्थिर जीवन-परिवेश उपलब्ध कराता है। हालाँकि मैंने सभी चीजों पर परमेश्वर के प्रभुत्व और सभी चीजों के उसके प्रशासन, और उसके प्रबंधन के बीच के संबंध के बारे में प्रत्यक्ष रूप से नहीं बोला है, फिर भी मैंने परोक्ष रूप से बोला है कि किन कारणों से वह सभी चीजों को इस प्रकार से प्रशासित करता है, और किन कारणों से वह मानवजाति का इस प्रकार भरण-पोषण और पालन करता है। यह सब उसके प्रबंधन से संबंधित है। वह विषय-वस्तु, जिसकी हमने बात की है, बहुत व्यापक रही है : स्थूल परिवेश से लेकर लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं और भोजन जैसी बहुत छोटी चीजों तक, इस बात से लेकर कि कैसे परमेश्वर सभी चीजों पर शासन करता है और उन्हें व्यवस्थित रूप से परिचालित करवाता है, सही और उपयुक्त जीवन-परिवेश तक जो उसने संसार की हर प्रजाति के लोगों के लिए बनाया, इत्यादि। यह समस्त व्यापक विषय-वस्तु इस बात से जुड़ी है कि मनुष्य देह में कैसे रहते हैं—यानी यह सब भौतिक संसार की चीजों से जुड़ा है, जो आँखों को दिखाई देती हैं और जिन्हें लोग महसूस कर सकते हैं, जैसे कि पर्वत, नदियाँ, समुद्र, मैदान इत्यादि। ये सभी वे वस्तुएँ हैं, जिन्हें देखा और छुआ जा सकता है। जब मैं वायु और तापमान की बात करता हूँ, तो तुम लोग सीधे वायु का अस्तित्व महसूस करने के लिए अपनी श्वास का, और यह अनुभव करने के लिए कि तापमान उच्च है या निम्न, अपने शरीर का उपयोग कर सकते हो। वृक्ष, घास और वनों में पशु-पक्षी, आकाश में उड़ने और धरती पर चलने वाली चीजें, और विभिन्न छोटे जानवर जो बिलों से निकलते हैं, सभी लोगों द्वारा आँखों से देखे और कानों से सुने जा सकते हैं। हालाँकि इन सभी चीजों का दायरा काफी विस्तृत है, फिर भी परमेश्वर द्वारा रची गई सभी चीजों में से ये केवल भौतिक संसार का प्रतिनिधित्व करती हैं। भौतिक वस्तुएँ वे हैं, जिन्हें लोग देख और महसूस कर सकते हैं, अर्थात् जब तुम उन्हें छूते हो तो तुम्हें उनका बोध होता है, और जब तुम्हारी आँखें उन्हें देखती हैं तो तुम्हारा मस्तिष्क एक छवि, एक चित्र तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत करता है। ये वे वस्तुएँ हैं, जो वास्तविक और सच्ची हैं; तुम्हारे लिए वे अमूर्त नहीं हैं, बल्कि उनका आकार हैं। वे चौकोर या गोल, या लंबी या छोटी हो सकती हैं, और हर चीज तुम पर एक अलग छाप छोड़ती है। ये सभी चीजें सृष्टि के भौतिक पहलू को दर्शाती हैं। और इसलिए, परमेश्वर के लिए “सभी चीजों पर परमेश्वर का प्रभुत्व” वाक्यांश में कौन-सी “सभी चीजें” शामिल हैं? उनमें केवल वे ही चीजें शामिल नहीं हैं, जिन्हें मनुष्य देख और छू सकते हैं; इनके अलावा उनमें वे सभी चीजें भी शामिल हैं, जो देखी और छुई नहीं जा सकतीं। यह सभी चीजों पर परमेश्वर के प्रभुत्व के असली अर्थों में से एक है। भले ही ऐसी चीजें मनुष्यों के लिए अदृश्य और अस्पृश्य हैं, लेकिन परमेश्वर के लिए—जब तक उसकी आँखें उन्हें देख सकती हैं और वे उसकी संप्रभुता के भीतर हैं—तब तक वे वास्तव में अस्तित्व में हैं। इस तथ्य के बावजूद कि मनुष्यों के लिए वे अमूर्त और अकल्पनीय, और साथ ही अदृश्य और अस्पृश्य भी हैं, परमेश्वर के लिए वे वास्तव में और सच में अस्तित्व में है। जिन चीजों पर परमेश्वर शासन करता है, उनके बीच यह एक अलग ही संसार है और यह उन सभी चीजों के दायरे का एक अन्य हिस्सा है, जिस पर उसका प्रभुत्व है। यह आज की संगति का विषय है : कैसे परमेश्वर आध्यात्मिक संसार पर शासन करता है और उसे चलाता है। चूँकि इस विषय में यह सम्मिलित है कि कैसे परमेश्वर समस्त वस्तुओं पर शासन और उनका प्रबंधन करता है, इसलिए यह भौतिक संसार से बाहर के संसार—आध्यात्मिक संसार—से संबंधित है और इसलिए इसे समझना हमारे लिए परम आवश्यक है। इस विषय-वस्तु के बारे में बताए जाने और इसे समझ लिए जाने के बाद ही लोग वास्तव में “परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है” शब्दों का सही अर्थ समझ सकते हैं। यही कारण है कि हम इस विषय पर चर्चा करने जा रहे हैं; इसका उद्देश्य “परमेश्वर सभी चीजों पर शासन करता है, और परमेश्वर सब चीजों का प्रबंधन करता है” विषय को पूर्ण करना है। शायद जब तुम लोग इस विषय को सुनो, तो यह तुम लोगों को अजीब और अबूझ लगे, लेकिन चाहे तुम लोगों को कैसा भी लगे, चूँकि आध्यात्मिक संसार परमेश्वर द्वारा शासित सभी चीजों का एक भाग है, इसलिए तुम लोगों को इस विषय की थोड़ी समझ प्राप्त करनी ही चाहिए। ऐसा करने के बाद तुम लोगों को “परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है” वाक्यांश की अधिक गहरी समझ, बोध और ज्ञान होगा।

परमेश्वर आध्यात्मिक संसार पर कैसे शासन करता और उसे चलाता है

भौतिक संसार के संबंध में, जब भी कुछ बातें या घटनाएँ लोगों की समझ में नहीं आतीं, तो वे प्रासंगिक जानकारी खोज सकते हैं, या उनके मूल और पृष्ठभूमि का पता लगाने के लिए विभिन्न माध्यमों का उपयोग कर सकते हैं। लेकिन जब दूसरे संसार की बात आती है, जिसके बारे में हम आज बात कर रहे हैं—आध्यात्मिक संसार, जिसका अस्तित्व भौतिक संसार के बाहर है—तो लोगों के पास बिलकुल भी ऐसा कोई साधन या माध्यम नहीं है, जिसके द्वारा इसके बारे में कुछ भी जाना जा सके। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ, क्योंकि मनुष्य के संसार में भौतिक संसार की हर चीज मनुष्य के भौतिक अस्तित्व से अविभाज्य है, और चूँकि लोगों को ऐसा महसूस होता है कि भौतिक संसार की हर चीज उनके भौतिक रहन-सहन और भौतिक जीवन से अविभाज्य है, इसलिए अधिकतर लोग केवल उन भौतिक चीजों से ही अवगत हैं, या उन्हें ही देखते हैं, जो उनकी आँखों के सामने होती हैं, जो उन्हें दिखाई पड़ती हैं। लेकिन जब आध्यात्मिक संसार की बात आती है—अर्थात् हर उस चीज की, जो दूसरे संसार की है—तो यह कहना उचित होगा कि अधिकतर लोग विश्वास नहीं करते। चूँकि लोग उसे देख नहीं सकते, और मानते हैं कि उसे समझने की या उसके बारे में कुछ जानने की आवश्यकता नहीं है, साथ ही आध्यात्मिक संसार भौतिक संसार से पूरी तरह से भिन्न है, और परमेश्वर के दृष्टिकोण से तो वह खुला है—लेकिन मनुष्यों के लिए वह गुप्त और बंद है—इसलिए लोगों को इस ससार के विभिन्न पहलुओं को समझने का मार्ग खोजने में अत्यंत कठिनाई होती है। आध्यात्मिक संसार के विभिन्न पहलू, जिनके बारे में मैं बोलने जा रहा हूँ, केवल परमेश्वर के प्रशासन और उसकी संप्रभुता से संबंध रखते हैं; मैं कोई रहस्य प्रकट नहीं कर रहा हूँ, न ही मैं तुम लोगों को उन रहस्यों में से कोई रहस्य बता रहा हूँ, जिन्हें तुम लोग जानना चाहते हो। चूँकि यह परमेश्वर की संप्रभुता, परमेश्वर के प्रशासन और परमेश्वर के भरण-पोषण से संबंधित है, इसलिए मैं केवल उस हिस्से के बारे में बोलूँगा, जिसे जानना तुम लोगों के लिए आवश्यक है।

पहले, मैं तुम लोगों से एक प्रश्न पूछता हूँ : तुम्हारे विचार से आध्यात्मिक संसार क्या है? मोटे तौर पर कहा जाए, तो यह भौतिक संसार से बाहर का संसार है, एक ऐसा संसार, जो लोगों के लिए अदृश्य और अमूर्त दोनों है। फिर भी, तुम्हारी कल्पना में, आध्यात्मिक संसार किस प्रकार का होना चाहिए? इसे न देख पाने के परिणामस्वरूप, शायद तुम लोग इसके बारे में सोच पाने में असमर्थ हो। लेकिन जब तुम लोग कुछ किंवदंतियाँ सुनते हो, तब तुम लोग इसके बारे में सोच रहे होते हो, और इसके बारे में सोचने से स्वयं को रोक नहीं पाते हो। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? बहुत सारे लोग जब छोटे होते हैं, तो उनके साथ एक बात होती है : जब कोई उन्हें कोई डरावनी कहानी—भूतों या आत्माओं की—सुनाता है, तो वे अत्यंत भयभीत हो जाते हैं। आखिर वे भयभीत क्यों हो जाते हैं? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वे उन चीजों की कल्पना कर रहे होते हैं; भले ही वे उन्हें देख नहीं सकते, लेकिन उन्हें महसूस होता है कि वे उनके कमरे में चारों ओर हैं, किसी छिपे या अँधेरे कोने में, और वे इतने डर जाते हैं कि उनकी सोने की हिम्मत नहीं होती। विशेष रूप से रात में, वे अपने कमरे में अकेले रहने या अपने आँगन में अकेले जाने की हिम्मत नहीं करते। यह है तुम्हारी कल्पना का आध्यात्मिक संसार, और लोगों को लगता है कि यह एक भयावह संसार है। तथ्य यह है कि हर कोई कुछ हद तक इसकी कल्पना करता है, और हर कोई इसे थोड़ा अनुभव कर सकता है।

हम आध्यात्मिक संसार के बारे में बात करने से आरंभ करते हैं। वह क्या है? मैं तुम्हें एक छोटा-सा और सरल स्पष्टीकरण देता हूँ : आध्यात्मिक संसार एक महत्वपूर्ण स्थान है, जो भौतिक संसार से भिन्न है। मैं क्यों कहता हूँ कि वह महत्वपूर्ण है? हम उसके बारे में विस्तार से बात करने जा रहे हैं। आध्यात्मिक संसार का अस्तित्व मनुष्य के भौतिक संसार से अभिन्न रूप से जुड़ा है। सभी चीजों के ऊपर परमेश्वर के प्रभुत्व में वह मनुष्य के जीवन और मृत्यु के चक्र में एक बड़ी भूमिका निभाता है; यह उसकी भूमिका है, और यह उन कारणों में से एक है जिससे उसका अस्तित्व महत्वपूर्ण है। क्योंकि वह एक ऐसा स्थान है, जो पाँच इंद्रियों के लिए अगोचर है, कोई भी सही-सही अनुमान नहीं लगा सकता कि आध्यात्मिक संसार का अस्तित्व है या नहीं। इसके विभिन्न गत्यात्मक पहलू मनुष्य के अस्तित्व के साथ घनिष्ठता से जुड़े हैं, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य के जीवन की व्यवस्था भी आध्यात्मिक संसार से बेहद प्रभावित होती है। इसमें परमेश्वर की संप्रभुता शामिल है या नहीं? शामिल है। जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो तुम लोग समझ जाते हो कि मैं क्यों इस विषय पर चर्चा कर रहा हूँ : ऐसा इसलिए है, क्योंकि यह परमेश्वर की संप्रभुता से और साथ ही उसके प्रशासन से संबंधित है। इस तरह के संसार में—जो लोगों के लिए अदृश्य है—उसकी हर स्वर्गिक आज्ञा, आदेश और प्रशासनिक प्रणाली भौतिक संसार के किसी भी देश की व्यवस्थाओं और प्रणालियों से बहुत ऊपर है, और उस संसार में रहने वाला कोई भी प्राणी उनकी अवहेलना या उल्लंघन करने का साहस नहीं करेगा। क्या यह परमेश्वर की संप्रभुता और प्रशासन से संबंधित है? आध्यात्मिक संसार में स्पष्ट प्रशासनिक आदेश, स्पष्ट स्वर्गिक आज्ञाएँ और स्पष्ट विधान हैं। विभिन्न स्तरों पर और विभिन्न क्षेत्रों में सेवक सख्ती से अपने कर्तव्यों का निर्वाह और नियमों-विनियमों का पालन करते है, क्योंकि वे जानते हैं कि किसी स्वर्गिक आज्ञा के उल्लंघन का क्या परिणाम होता है; वे स्पष्ट रूप से अवगत हैं कि किस प्रकार परमेश्वर दुष्टों को दंड और भले लोगों को इनाम देता है, और किस प्रकार वह सभी चीजों को चलाता है, और उन पर शासन करता है। इसके अतिरिक्त, वे स्पष्ट रूप से देखते हैं कि किस प्रकार परमेश्वर अपने स्वर्गिक आदेशों और विधानों को कार्यान्वित करता है। क्या वे उस भौतिक संसार से भिन्न हैं, जिसमें मानवजाति रहती है? वे दरअसल बहुत ज्यादा भिन्न हैं। आध्यात्मिक संसार एक ऐसा संसार है, जो भौतिक संसार से पूर्णतया भिन्न है। चूँकि वहाँ स्वर्गिक आदेश और विधान हैं, इसलिए यह परमेश्वर की संप्रभुता, प्रशासन, और इसके अतिरिक्त, उसके स्वभाव और स्वरूप को स्पर्श करता है। इसे सुनने के बाद, क्या तुम लोगों को यह नहीं लगता कि इस विषय पर बोलना मेरे लिए अत्यंत आवश्यक है? क्या तुम लोग इसमें निहित रहस्य जानना नहीं चाहते? (हाँ, हम चाहते हैं।) ऐसी है आध्यात्मिक संसार की अवधारणा। हालाँकि यह भौतिक संसार के साथ सह-अस्तित्व में है, और साथ-साथ परमेश्वर के प्रशासन और उसकी संप्रभुता के अधीन है, लेकिन इस संसार का परमेश्वर का प्रशासन और उसकी संप्रभुता भौतिक संसार की तुलना में बहुत सख्त है। जब विवरण की बात आती है, तो हमें इस बात से आरंभ करना चाहिए कि किस प्रकार आध्यात्मिक संसार मनुष्य के जीवन और म़ृत्यु के चक्र के कार्य के लिए उत्तरदायी है, क्योंकि यह आध्यात्मिक संसार के प्राणियों के कार्य का एक बड़ा भाग है।

मानवजाति में मैं सभी लोगों को तीन प्रकारों में वर्गीकृत करता हूँ। पहले हैं अविश्वासी, जो धार्मिक विश्वासों से रहित होते हैं। वे अविश्वासी कहलाते हैं। अविश्वासियों की बहुत बड़ी संख्या केवल धन में विश्वास रखती है; वे केवल अपने हित साधते हैं, भौतिकवादी होते हैं और केवल भौतिक संसार में विश्वास करते है—वे जीवन और मृत्यु के चक्र में, या देवताओं और भूतों के बारे में कही जाने वाली किसी बात में विश्वास नहीं रखते। मैं इन लोगों को अविश्वासियों के रूप में वर्गीकृत करता हूँ, और ये पहले प्रकार के हैं। दूसरा प्रकार अविश्वासियों से अलग विभिन्न आस्था वाले लोगों का है। मानवजाति में मैं इन आस्था वाले लोगों को अनेक मुख्य समूहों में विभाजित करता हूँ : पहले हैं यहूदी, दूसरे कैथोलिक, तीसरे ईसाई, चौथे मुस्लिम और पाँचवें बौद्ध; ये पाँच प्रकार हैं। ये विभिन्न आस्था वाले लोग हैं। तीसरा प्रकार उन लोगों का है जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और इसमें तुम लोग शामिल हो। ऐसे विश्वासी वे लोग हैं, जो आज परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। ये लोग दो प्रकारों में विभाजित हैं : परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता। इन प्रमुख प्रकारों में स्पष्ट रूप से अंतर किया गया है। तो अब तुम लोग अपने मन में मनुष्यों के प्रकारों और श्रेणियों में स्पष्ट रूप से अंतर करने में सक्षम हो, है न? पहला प्रकार अविश्वासियों का है और मैं बता चुका हूँ कि वे कौन होते हैं। क्या वे लोग, जो आकाश के वृद्ध मनुष्य में विश्वास करते हैं, अविश्वासी होते हैं? कई अविश्वासी केवल आकाश के वृद्ध मनुष्य में विश्वास करते हैं; वे मानते हैं कि वायु, वर्षा, आकाशीय बिजली इत्यादि आकाश के इस वृद्ध मनुष्य द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं, जिस पर वे फसल बोने और काटने के लिए निर्भर रहते हैं—लेकिन जब परमेश्वर पर विश्वास करने का उल्लेख किया जाता है, तो वे उसमें विश्वास करने के लिए तैयार नहीं होते। क्या इसे परमेश्वर में विश्वास होना कहा जा सकता है? ऐसे लोगों को अविश्वासियों में सम्मिलित किया जाता है। तुम इसे समझते हो, है न? इन श्रेणियों को समझने में गलती मत करना। दूसरे प्रकार में आस्था वाले लोग आते हैं और तीसरा प्रकार उन लोगों का है जो इस समय परमेश्वर का अनुसरण कर रहे हैं। तो मैंने सभी मनुष्यों को इन प्रकारों में क्यों विभाजित किया है? (क्योंकि विभिन्न प्रकार के लोगों के अंत और गंतव्य भिन्न-भिन्न हैं।) यह इसका एक पहलू है। जब इन विभिन्न प्रजातियों और प्रकारों के लोग आध्यात्मिक संसार में लौटते हैं, तो उनमें से प्रत्येक के जाने का भिन्न स्थान होता है और वे जीवन और मृत्यु के चक्र की भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं के अधीन किए जाते हैं, और यही कारण है कि मैंने मनुष्यों को इन मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया है।

i. अविश्वासियों का जीवन और मृत्यु चक्र

हम अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र से आरंभ करते हैं। मृत्यु के बाद व्यक्ति को आध्यात्मिक संसार के एक परिचारक द्वारा ले जाया जाता है। व्यक्ति का ठीक-ठीक क्या ले जाया जाता है? उसकी देह नहीं, बल्कि उसकी आत्मा। जब उसकी आत्मा ले जाई जाती है, तब वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचता है, जो आध्यात्मिक संसार की एक एजेंसी होती है, जो अभी-अभी मरे लोगों की आत्मा को विशेष रूप से प्राप्त करती है। यह पहला स्थान है, जहाँ मरने के बाद व्यक्ति जाता है, जो आत्मा के लिए अजनबी होता है। जब उन्हें इस स्थान पर ले जाया जाता है, तो एक अधिकारी पहली जाँचें करता है, उनके नाम, पते, आयु और समस्त अनुभवों की पुष्टि करता है। जीवित रहते हुए उनके द्वारा की गई हर चीज एक पुस्तक में लिखी जाती है और उसकी सटीकता का सत्यापन किया जाता है। इस सब की जाँच हो जाने के बाद उन मनुष्यों के पूरे जीवन के व्यवहार और कार्यकलापों का उपयोग यह निर्धारित करने के लिए किया जाता है कि उन्हें दंड दिया जाएगा या मनुष्य के रूप में उनका पुनर्जन्म जारी रहेगा, जो कि पहला चरण है। क्या यह पहला चरण भयावह होता है? यह अत्यधिक भयावह नहीं होता, क्योंकि इसमें केवल इतना ही होता है कि मनुष्य एक अंधकारमय और अपरिचित स्थान पर पहुँचता है।

दूसरे चरण में, अगर इस मनुष्य ने जीवनभर बहुत सारे बुरे कार्य किए होते हैं और अनेक कुकर्म किए होते हैं, तो उससे निपटने के लिए उसे दंड के स्थान पर ले जाया जाता है। यह वह स्थान होता है, जो स्पष्ट रूप से लोगों को दंड देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उन्हें किस प्रकार दंड दिया जाता है, इसका सटीक विवरण उनके द्वारा किए गए पापों पर, और इस बात पर निर्भर करता है कि मृत्यु से पूर्व उन्होंने कितने बुरे कार्य किए—यह इस द्वितीय चरण में होने वाली पहली स्थिति है। मृत्यु से पूर्व उनके द्वारा किए गए बुरे कार्यों और उनकी दुष्टताओं की वजह से, दंड पाने के बाद जब वे पुनः जन्म लेते हैं—जब वे एक बार फिर भौतिक संसार में जन्म लेते हैं—तो कुछ लोग मनुष्य ही बनते हैं, जबकि कुछ पशु बनते हैं। अर्थात्, व्यक्ति के आध्यात्मिक संसार में लौटने के बाद उनके द्वारा की गई बुराई की वजह से उन्हें दंडित किया जाता है; इसके अतिरिक्त, उनके द्वारा किए गए बुरे कार्यों की वजह से, अपने अगले जन्म में वे संभवतः मनुष्य नहीं, बल्कि पशु बनकर लौटेंगे। जो पशु वे बन सकते हैं, उनमें गाय, घोड़े, सूअर और कुत्ते शामिल हैं। कुछ लोग चिड़िया, बतख या कलहंस के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं...। पशुओं के रूप में पुनर्जन्म लेने के बाद जब वे फिर से मरेंगे, तो आध्यात्मिक संसार में लौट जाएँगे। वहाँ, पहले की तरह, उनकी मृत्यु से पहले के उनके व्यवहार के आधार पर आध्यात्मिक संसार तय करेगा कि वे मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेंगे या नहीं। अधिकतर लोग बहुत अधिक बुराई करते हैं, और उनके पाप बहुत गंभीर होते हैं, इसलिए उन्हें सात से बारह बार तक पशुओं के रूप में पुनर्जन्म लेना पड़ता है। सात से बारह बार—क्या यह डरावना नहीं है? (यह डरावना है।) तुम लोगों को क्या चीज डराती है? किसी मनुष्य का पशु बनना—यह भयावह है। और मनुष्य के लिए पशु बनने में सबसे पीड़ादायक चीजें क्या हैं? कोई भाषा न होना, केवल साधारण विचार होना, केवल वही चीजें कर पाना जो पशु करते हैं और वही खाना खा पाना जो पशु खाते हैं, पशु जैसी साधारण मानसिकता और हाव-भाव होना, सीधे खड़े होकर न चल पाना, मनुष्यों के साथ संवाद न कर पाना, और यह तथ्य कि मनुष्यों के किसी भी व्यवहार और गतिविधियों का पशुओं से कोई संबंध नहीं होता। अर्थात्, सब चीजों के बीच, पशु होना सभी जीवित प्राणियों में तुम्हें निम्नतम बना देता है, जो मनुष्य होने से कहीं अधिक दुःखदायी है। यह उन लोगों के लिए आध्यात्मिक संसार के दंड का एक पहलू है, जिन्होंने बहुत बुराई और बड़े पाप किए होते हैं। जब उनके दंड की गंभीरता की बात आती है, तो इसका निर्णय इस आधार पर लिया जाता है कि वे किस प्रकार के पशु बनते हैं। उदाहरण के लिए, क्या सूअर बनना कुत्ता बनने से बेहतर है? सूअर कुत्ते से बेहतर जीवन जीता है या बदतर? बदतर, है न? अगर लोग गाय या घोड़ा बनते हैं, तो वे सूअर से बेहतर जीवन जिएँगे या बदतर? (बेहतर।) क्या बिल्ली के रूप में पुनर्जन्म लेने वाला व्यक्ति ज्यादा सुखी रहेगा? वह बिलकुल वैसा ही पशु होगा, और बिल्ली होना गाय या घोड़ा होने से अधिक आसान होगा, क्योंकि बिल्लियाँ अपना अधिकांश समय नींद की सुस्ती में गुजारती हैं। गाय या घोड़ा बनना अधिक मेहनत वाला काम है। इसलिए अगर व्यक्ति गाय या घोड़े के रूप में पुनर्जन्म लेता है, तो उसे कठिन परिश्रम करना पड़ता है, जो एक कठोर दंड के समान है। कुत्ता बनना गाय या घोड़ा बनने से थोड़ा बेहतर होगा, क्योंकि कुत्ते का अपने स्वामी के साथ निकट संबंध होता है। कई वर्षों तक पालतू रहने के बाद कुछ कुत्ते अपने मालिक की कही हुई बहुत सारी बातें समझने में समर्थ हो जाते हैं। कभी-कभी कुत्ता अपने मालिक की मनःस्थिति और अपेक्षाओं के अनुसार ढल सकता है और मालिक कुत्ते के साथ बेहतर व्यवहार करता है, और कुत्ता बेहतर खाता और पीता है, और जब उसे दर्द होता है तो उसकी अधिक देखभाल की जाती है। तो क्या कुत्ता अधिक सुखी जीवन व्यतीत नहीं करता? इस प्रकार, गाय या घोड़ा होने की तुलना में कुत्ता होना बेहतर है। इसमें, व्यक्ति के दंड की गंभीरता यह निर्धारित करती है कि वह कितनी बार, और साथ ही किस प्रकार के पशु के रूप में जन्म लेता है।

जीवित रहते हुए बहुत सारे पाप करने के कारण कुछ लोगों को सात से बारह बार पशु के रूप में पुनर्जन्म लेने का दंड दिया जाता है। पर्याप्त बार दंडित होने के बाद, आध्यात्मिक संसार में लौटने पर उन्हें कहीं और ले जाया जाता है—एक ऐसे स्थान पर, जहाँ विभिन्न आत्माएँ पहले ही दंड पा चुकी होती हैं, और उस प्रकार की होती हैं जो मनुष्य के रूप में जन्म लेने के लिए तैयार हो रही होती हैं। इस स्थान पर प्रत्येक आत्मा को इस प्रकार के अनुसार वर्गीकृत किया जाता है कि वे किस प्रकार के परिवार में जन्म लेंगे, पुनर्जन्म होने के बाद उनकी क्या भूमिका होगी, आदि। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब इस संसार में आएँगे तो गायक बनेंगे, इसलिए उन्हें गायकों के बीच रखा जाता है; कुछ लोग इस संसार में आएँगे तो व्यापारी बनेंगे और इसलिए उन्हें व्यापारी लोगों के बीच रखा जाता है; और अगर किसी को मनुष्य बनने के बाद वैज्ञानिक अनुसंधानकर्ता बनना है तो उसे अनुसंधानकर्ताओं के बीच रखा जाता है। वर्गीकृत कर दिए जाने के बाद उनमें से प्रत्येक को एक भिन्न समय और नियत तिथि के अनुसार भेजा जाता है, ठीक वैसे ही जैसे कि आजकल लोग ई-मेल भेजते हैं। इसमें जीवन और मृत्यु का एक चक्र पूरा हो जाता है। जिस दिन कोई व्यक्ति आध्यात्मिक संसार में पहुँचता है, उस दिन से लेकर जब तक उसका दंड समाप्त नहीं हो जाता या जब तक उसका किसी पशु के रूप में अनेक बार पुनर्जन्म नहीं हो जाता और जब वह मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेने की तैयारी करता है, तब यह प्रक्रिया पूर्ण होती है।

जहाँ तक उनकी बात है, जिन्होंने दंड भोग लिया है और जो अब पशु के रूप में जन्म नहीं लेंगे, क्या उन्हें मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म लेने के लिए भौतिक संसार में तुरंत भेजा जाता है? या, उन्हें मनुष्यों के बीच आने से पहले कितना समय लगता है? यह किस आवृत्ति के साथ हो सकता है? इसके कुछ सामयिक प्रतिबंध हैं। आध्यात्मिक संसार में होने वाली हर चीज कुछ सटीक सामयिक प्रतिबंधों और नियमों के अधीन है—जिसे अगर मैं संख्याओं के साथ समझाऊँ, तो तुम लोग समझ जाओगे। जो लोग थोड़े समय के भीतर पुनर्जन्म लेते हैं, जब वे मरते हैं तो मनुष्य के रूप में उनके पुनर्जन्म की तैयारियाँ पहले ही की जा चुकी होती हैं। अल्पतम समय, जिसमें यह हो सकता है, तीन दिन है। कुछ लोगों के लिए इसमें तीन माह लगते हैं, कुछ के लिए इसमें तीन वर्ष लगते हैं, कुछ के लिए इसमें तीस वर्ष लगते हैं, कुछ के लिए इसमें तीन सौ वर्ष लगते हैं, इत्यादि। तो इन सामयिक नियमों के बारे में क्या कहा जा सकता है, और उनका सटीक विवरण क्या है? वह इस बात पर, कि भौतिक संसार—मनुष्यों का संसार—किसी आत्मा से क्या चाहता है, और उस भूमिका पर आधारित होता है, जिसे उस आत्मा को इस संसार में निभाना है। जब लोग साधारण व्यक्ति के रूप में पुनर्जन्म लेते हैं, तो उनमें से अधिकतर का पुनर्जन्म बहुत जल्दी हो जाता है, क्योंकि मनुष्यों के संसार को ऐसे साधारण लोगों की अत्यधिक आवश्यकता होती है—और इसलिए तीन दिन के बाद वे एक ऐसे परिवार में भेज दिए जाते हैं, जो उनके मरने से पहले के परिवार से सर्वथा भिन्न होता है। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो इस संसार में विशेष भूमिका निभाते हैं। “विशेष” का अर्थ है कि मनुष्यों के संसार में उनकी कोई बड़ी माँग नहीं होती; ऐसी भूमिका निभाने के लिए ज्यादा लोगों की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए इसमें तीन सौ वर्ष लग सकते हैं। दूसरे शब्दों में, यह आत्मा हर तीन सौ वर्ष में या तीन हजार वर्ष तक में एक केवल बार आएगी। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इस तथ्य के कारण होता है कि या तो तीन सौ वर्ष तक या तीन हजार वर्ष तक संसार में ऐसी भूमिका की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए उन्हें आध्यात्मिक संसार ही में कहीं पर रखा जाता है। उदाहरण के लिए, कनफ्यूशियस को लो, परंपरागत चीनी संस्कृति पर उसका गहरा प्रभाव था और उसके आगमन ने उस समय की संस्कृति, ज्ञान, परंपरा और लोगों की विचारधारा पर गहरा प्रभाव डाला था। लेकिन इस तरह के मनुष्य की हर एक युग में आवश्यकता नहीं होती, इसलिए उसे पुनर्जन्म लेने से पहले, तीन सौ या तीन हजार वर्ष तक प्रतीक्षा करते हुए आध्यात्मिक संसार में ही रहना पड़ा था। चूँकि मनुष्यों के संसार को ऐसे किसी व्यक्ति की आवश्यकता नहीं थी, इसलिए उसे व्यर्थ ही प्रतीक्षा करनी पड़ी, क्योंकि उसके जैसी बहुत कम भूमिकाएँ थीं, और उसके करने के लिए बहुत कम काम था। इसलिए उसे अधिकांश समय आध्यात्मिक संसार में ही कहीं पर निष्क्रिय रखना पड़ा था, ताकि मनुष्यों के संसार में आवश्यकता पड़ने पर उसे भेजा जा सके। जिस बारंबारता के साथ अधिकतर लोग पुनर्जन्म लेते हैं, उसके लिए आध्यात्मिक क्षेत्र के ऐसे सामयिक नियम हैं। लोग चाहे साधारण हों या विशेष हों, उनके पुनर्जन्म लेने की प्रक्रिया के लिए आध्यात्मिक संसार में उचित नियम और सही अभ्यास हैं, और ये नियम और अभ्यास परमेश्वर द्वारा भेजे जाते हैं, वे आध्यात्मिक संसार के किसी परिचारक या प्राणी द्वारा निर्धारित या नियंत्रित नहीं किए जाते। अब तुम इसे समझते हो, है न?

किसी आत्मा के लिए उसका पुनर्जन्म, इस जीवन में उसकी भूमिका क्या है, किस परिवार में वह जन्म लेती है और उसका जीवन किस प्रकार का होता है, ये उस आत्मा के पिछले जीवन से गहराई से संबंधित होते हैं। मनुष्य के संसार में हर प्रकार के लोग आते हैं, और जो भूमिकाएँ वे निभाते हैं, वे अलग-अलग होती हैं, उसी तरह उनके द्वारा किए जाने वाले कार्य भी अलग-अलग होते हैं। और वे कौन-से कार्य होते हैं? कुछ लोग कर्ज चुकाने आए होते हैं : अगर उन्होंने पिछली जिंदगी में दूसरों से बहुत ज्यादा पैसा उधार लिया था, तो वे इस जिंदगी में वही कर्ज चुकाने के लिए आते हैं। इस बीच कुछ लोग अपने कर्ज उगाहने के लिए आते हैं : पिछले जन्मों में उनके साथ बहुत-सी चीजों में और अत्यधिक पैसों का घोटाला किया गया होता है, जिसके परिणामस्वरूप, उनके आध्यात्मिक संसार में आने के बाद वह उन्हें न्याय देता है और उन्हें इस जीवन में अपने कर्ज उगाहने देता है। कुछ लोग एहसान का कर्ज चुकाने के लिए आते हैं : उनके पिछले जीवन-काल में—यानी उनके पिछले जन्म में—कोई उनके प्रति दयावान था, और इस जीवन में उन्हें पुनर्जन्म लेने का एक बड़ा अवसर प्रदान किए जाने के कारण वे उस एहसान का बदला चुकाने के लिए पुनर्जन्म लेते हैं। इस बीच, दूसरे इस जीवन में किसी की जान लेने के लिए पैदा हुए होते हैं। और वे किसकी जान लेते हैं? उनकी जान, जिन्होंने पिछले जन्मों में उनकी जान ली थी। संक्षेप में, प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान जीवन अपने पिछले जन्मों के साथ मजबूत संबंध रखता है, यह संबंध अटूट होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति का वर्तमान जीवन उसके पिछले जीवन से बहुत अधिक प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए, मान लो, मरने से पहले झांग ने ली को एक बड़ी रकम का धोखा दिया था। तो क्या झांग ली का कर्जदार है? हाँ है, तो क्या यह स्वाभाविक है कि ली को झांग से अपना कर्ज वसूल करना चाहिए? नतीजतन, उनकी मृत्यु के उपरांत, उनके बीच एक कर्ज है जिसका निपटान होना ही चाहिए। जब वे पुनर्जन्म लेते हैं और झांग मनुष्य बनता है, तो ली किस तरह उससे अपना कर्ज वसूल करता है? एक तरीका है झांग के पुत्र के रूप में पुनर्जन्म लेना; झांग खूब धन अर्जित करता है, जिसे ली द्वारा उड़ा दिया जाता है। चाहे झांग कितना भी धन कमाए, उसका पुत्र ली उसे उड़ा देता है। चाहे झांग कितना भी धन अर्जित करे, वह कभी पर्याप्त नहीं होता; और इस बीच उसका पुत्र किसी न किसी कारण से पिता के धन को विभिन्न तरीकों से उड़ा देता है। झांग हैरान रह जाता है और सोचता है, “मेरा यह पुत्र हमेशा दुर्भाग्य ही क्यों लाता है? दूसरों के पुत्र इतने सदाचारी क्यों हैं? मेरे ही पुत्र की कोई महत्वकांक्षा क्यों नहीं है, वह इतना निकम्मा और धन कमाने में असमर्थ क्यों है, और मुझे हमेशा उसकी सहायता क्यों करनी पड़ती है? चूँकि मुझे उसे सहारा देना है, तो मैं सहारा दूँगा—लेकिन ऐसा क्यों है कि चाहे मैं कितना भी धन उसे दे दूँ, उसे हमेशा और अधिक चाहिए? क्यों वह मेहनत का काम करने में असमर्थ है, और उसके बजाय आवारागर्दी, खाना-पीना, वेश्यावृत्ति और जुएबाजी जैसी चीजें करने में ही लगा रहता है? आखिर यह हो क्या रहा है?” फिर झांग कुछ देर के लिए विचार करता है : “हो सकता है, पिछले जन्म में मैं उसका ऋणी रहा हूँ। तो ठीक है, मैं वह कर्ज उतार दूँगा! यह मामला तब तक समाप्त नहीं होगा, जब तक मैं कर्ज पूरा नहीं चुका दूँगा!” वह दिन आ सकता है, जब ली अपना कर्ज वसूल कर ले, और जब वह चालीस या पचास के दशक में चल रहा हो, तो हो सकता है कि एक दिन अचानक उसे चेतना आए और वह महसूस करे कि, “अपने जीवन के पूरे पूर्वार्द्ध में मैंने एक भी भला काम नहीं किया है! मैंने अपने पिता का कमाया हुआ सारा धन उड़ा दिया है, इसलिए मुझे एक अच्छा इंसान बनने की शुरुआत करनी चाहिए! मैं स्वयं को मजबूत बनाऊँगा; मैं एक ऐसा व्यक्ति बनूँगा जो ईमानदार हो और उचित रूप से जीवन जीता हो, और मैं अपने पिता को फिर कभी दुःख नहीं पहुँचाऊँगा!” वह ऐसा क्यों सोचता है? वह अचानक बदलकर अच्छा कैसे गया? क्या इसका कोई कारण है? क्या कारण है? (ऐसा इसलिए है, क्योंकि ली ने अपना कर्ज वसूल कर लिया है, झांग ने अपना कर्ज चुका दिया है।) इसमें कार्य-कारण संबंध है। कहानी बहुत समय पहले आरंभ हुई थी, उनके मौजूदा जीवन से पहले, उनके पिछले जन्म की यह कहानी वर्तमान तक लाई गई है, और दोनों में से कोई दूसरे को दोष नहीं दे सकता। चाहे झांग ने अपने पुत्र को कुछ भी सिखाया हो, उसके पुत्र ने कभी नहीं सुना, और कभी मेहनत का काम नहीं किया। लेकिन जिस दिन कर्ज चुका दिया गया, उसे अपने पुत्र को सिखाने की कोई आवश्यकता नहीं रही—वह स्वाभाविक रूप से समझ गया। यह एक साधारण-सा उदाहरण है। क्या ऐसे अनेक उदाहरण हैं? (हाँ, हैं।) यह लोगों को क्या बताता है? (कि उन्हें अच्छा बनना चाहिए और बुराई नहीं करनी चाहिए।) कि उन्हें कोई बुराई नहीं करनी चाहिए, और उनके कुकर्मों का प्रतिफल मिलेगा! अधिकतर अविश्वासी बहुत बुराई करते हैं, और उन्हें उनके कुकर्मों का प्रतिफल मिलता है, है न? लेकिन क्या यह प्रतिफल मनमाना होता है? हर कार्य की एक पृष्ठभूमि और उसके प्रतिफल का एक कारण होता है। क्या तुम्हें लगता है कि किसी के साथ पैसे की धोखाधड़ी करने के बाद तुम्हें कुछ नहीं होगा? क्या तुम्हें लगता है कि उस पैसे की ठगी करने के बाद तुम्हें कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा? यह असंभव है; निश्चित रूप से इसके परिणाम होंगे! सभी व्यक्तियों को, चाहे वे जो भी हों, या वे यह विश्वास करते हों या नहीं कि परमेश्वर है, अपने व्यवहार का उत्तरदायित्व लेना होगा और अपने कार्यों के परिणाम भुगतने होंगे। इस साधारण-से उदाहरण के संबंध में—झांग को दंडित किया जाना और ली का कर्ज चुकाया जाना—क्या यह उचित नहीं है? जब लोग ऐसे कार्य करते हैं, तो इसी प्रकार का परिणाम होता है। यह आध्यात्मिक संसार के प्रशासन से अविभाज्य है। अविश्वासी होने के बावजूद, परमेश्वर में विश्वास न करने वालों का अस्तित्व इसी तरह की स्वर्गिक आज्ञाओं और आदेशों के अधीन होता है। कोई इनसे बच नहीं सकता, और कोई इस हकीकत को टाल नहीं सकता।

जिन लोगों में आस्था नहीं है, वे प्रायः मानते हैं कि मनुष्य को दिखने वाली हर चीज का अस्तित्व है, जबकि देखी न जा सकने वाली या लोगों से बहुत दूर स्थित चीज का अस्तित्व नहीं है। वे यह मानना पंसद करते हैं कि “जीवन और मृत्यु का चक्र” नहीं होता, और कोई “दंड” नहीं होता; इसलिए वे बिना किसी मलाल के पाप और बुराई करते हैं। बाद में उन्हें दंडित किया जाता है, या उनका पुनर्जन्म पशुओं के रूप में होता है। अविश्वासियों के बीच विभिन्न प्रकार के अधिकतर लोग इस दुष्चक्र में फँसते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वे इस बात से अनभिज्ञ होते हैं कि आध्यात्मिक संसार समस्त जीवित प्राणियों के अपने प्रशासन में सख्त है। चाहे तुम विश्वास करो या नहीं, यह तथ्य मौजूद है, क्योंकि एक भी व्यक्ति या वस्तु उस दायरे से नहीं बच सकती, जिसे परमेश्वर अपनी आँखों से देखता है, और एक भी व्यक्ति या वस्तु उसकी स्वर्गिक आज्ञाओं और आदेशों के नियमों और सीमाओं से नहीं बच सकती। इस प्रकार, यह साधारण-सा उदाहरण हर एक को बताता है कि चाहे तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो या नहीं, पाप और बुराई करना अस्वीकार्य है, और सभी कार्यों के परिणाम होते हैं। जब किसी के साथ पैसे की धोखाधड़ी करने वाला कोई दंडित किया जाता है, तो ऐसा दंड उचित है। इस तरह के आम तौर पर देखे जाने वाले व्यवहार को आध्यात्मिक संसार में दंडित किया जाता है और वह दंड परमेश्वर के आदेशों और स्वर्गिक आज्ञाओं द्वारा दिया जाता है। इसलिए गंभीर आपराधिक और दुष्टतापूर्ण व्यवहार—बलात्कार और लूटपाट, धोखाधड़ी और कपट, चोरी और डकैती, हत्या और आगजनी इत्यादि—और भी अधिक भिन्न-भिन्न गंभीरता वाले दंड की शृंखला के भागी होते हैं। इन भिन्न-भिन्न गंभीरता वाले दंडों की शृंखला में क्या शामिल है? उनमें से कुछ समय के उपयोग द्वारा गंभीरता के स्तर का निर्धारण करते हैं, जबकि कुछ विभिन्न तरीकों का उपयोग करके ऐसा करते हैं; और अन्य यह निर्धाररित करके करते हैं कि लोग पुनर्जन्म होने पर कहाँ जाते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग बदजबान होते हैं। “बदजबान” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है प्रायः दूसरों को गाली देना और दूसरों को कोसने वाली द्वेषपूर्ण भाषा का उपयोग करना। द्वेषपूर्ण भाषा क्या दर्शाती है? वह दर्शाती है कि व्यक्ति का हृदय कलुषित है। ऐसे लोगों के मुख से अकसर दूसरों को कोसने वाली अभद्र भाषा निकलती है, और ऐसी द्वेषपूर्ण भाषा गंभीर परिणाम लाती है। मरने और उचित दंड भोगने के बाद ऐसे लोगों का पुनर्जन्म गूँगों के रूप में हो सकता है। कुछ लोग जीवित रहते हुए बड़े धूर्त होते हैं, वे प्रायः दूसरों का लाभ उठाते हैं, उनके छोटे-छोटे षड्यंत्र विशेष रूप से सुनियोजित होते हैं, और वे लोगों को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं। उनका पुनर्जन्म मूर्ख या मानसिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के रूप में हो सकता है। कुछ लोग अकसर दूसरों के निजी जीवन में ताक-झाँक किया करते हैं; उनकी आँखें बहुत-कुछ वह देखती हैं जिससे उन्हें अवगत नहीं होना चाहिए, और वे बहुत-कुछ ऐसा जान लेते हैं जो उन्हें नहीं जानना चाहिए। नतीजतन, उनका पुनर्जन्म अंधे के रूप में हो सकता है। कुछ लोग जब जीवित होते हैं तो बहुत चालाक होते हैं, वे प्रायः झगड़ते हैं और बहुत दुष्टता करते हैं। इसलिए उनका पुनर्जन्म विकलांग, लँगड़े या लूले के रूप में हो सकता है; या वे कुबड़े या अकड़ी हुई गर्दन वाले, लँगड़ाकर चलने वाले के रूप में पुनर्जन्म ले सकते हैं या उनका एक पैर दूसरे से छोटा हो सकता है, इत्यादि। इसमें उन्हें अपने जीवित रहने के दौरान की गई दुष्टता के स्तर के आधार पर विभिन्न दंडों का भागी बनाया जाता है। तुम लोगों को क्या लगता है, कुछ लोग कमजोर नजर वाले क्यों होते हैं? क्या ऐसे काफी लोग हैं? आजकल ऐसे बहुत लोग हैं। कुछ लोग कमजोर नजर वाले इसलिए होते हैं, क्योंकि अपने पिछले जन्मों में उन्होंने अपनी आँखों का बहुत अधिक उपयोग करते हुए बहुत सारे बुरे कार्य किए होते हैं, इसलिए वे इस जन्म में कमजोर नजर वाले पैदा होते हैं और गंभीर मामलों में वे अंधे भी जन्मते हैं। यह प्रतिफल है! कुछ लोग मरने से पहले दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं; वे अपने रिश्तेदारों, दोस्तों, सहकर्मियों या अपने से जुड़े लोगों के लिए कई अच्छे कार्य करते हैं। वे दूसरों को दान देते हैं और उनकी देखभाल करते हैं, या आर्थिक रूप से उनकी सहायता करते हैं, लोग उनके बारे में बहुत अच्छी राय रखते हैं। जब ऐसे लोग आध्यात्मिक संसार में लौटते है, तो उन्हें दंडित नहीं किया जाता। किसी अविश्वासी को किसी भी प्रकार से दंडित न किए जाने का अर्थ है कि वह बहुत अच्छा इंसान था। परमेश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करने के बजाय वे केवल आकाश के वृद्ध व्यक्ति पर विश्वास करते हैं। ऐसा व्यक्ति केवल इतना ही विश्वास करता है कि उससे ऊपर कोई आत्मा है, जो उनके हर कार्य को देखती है—यह व्यक्ति बस इसी में विश्वास करता है। परिणामस्वरूप यह व्यक्ति कहीं अधिक सदाचारी होता है। ये लोग दयालु और परोपकारी होते हैं और जब अंततः वे आध्यात्मिक संसार में लौटते हैं, तो वह उनके साथ बहुत अच्छा व्यवहार करेगा और उनका पुनर्जन्म शीघ्र ही हो जाएगा। जब उनका पुनर्जन्म होगा, तो वे किस प्रकार के परिवारों में आएँगे? हालाँकि वे परिवार धनी नहीं होंगे, लेकिन वे हर नुकसान से मुक्त होंगे, उनके सदस्यों के बीच सामंजस्य होगा; पुनः जन्मे ये लोग सुरक्षित, खुशहाल दिन बिताएँगे, और हर कोई आनंदित होगा और अच्छा जीवन जिएगा। जब ये लोग व्यस्क होंगे, तो उनके बड़े, भरे-पूरे परिवार होंगे, उनके बच्चे प्रतिभाशाली होंगे और सफलता का आनंद लेंगे, और उनके परिवार सौभाग्य का आनंद उठाएँगे—और ऐसा परिणाम इन लोगों के पिछले जन्मों से अत्यधिक जुड़ा होता है। अर्थात्, मरने और पुनः जन्म लेने के बाद लोग कहाँ जाते हैं, वे पुरुष होते हैं या स्त्री, उनका मिशन क्या होता है, जीवन में वे क्या करेंगे, कौन-से झटके सहेंगे, किन आशीषों का आनंद लेंगे, किनसे मिलेंगे और उनके साथ क्या होगा—कोई इन चीजों की भविष्यवाणी नहीं कर सकता, इनसे बच नहीं सकता या इनसे छिप नहीं सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि तुम्हारा जीवन निर्धारित कर दिए जाने के बाद तुम्हारे साथ जो भी होता है—तुम उससे बचने का कैसे भी प्रयास करो, और किसी भी तरह से करो—आध्यात्मिक संसार में परमेश्वर तुम्हारे लिए जो जीवन-क्रम निर्धारित कर देता है, उसके उल्लंघन का तुम्हारे पास कोई उपाय नहीं होता। क्योंकि जब तुम्हारा पुनर्जन्म होता है, तो तुम्हारे जीवन की नियति पहले ही निर्धारित की जा चुकी होती है। चाहे वह अच्छी हो या बुरी, सभी को उसका सामना करना चाहिए, और आगे बढ़ते रहना चाहिए। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिससे इस संसार में रहने वाला कोई भी व्यक्ति बच नहीं सकता, और कोई भी मुद्दा इससे अधिक वास्तविक नहीं है। मैं जो कुछ भी कहता रहा हूँ, तुम सब वह समझ गए हो, है न?

इन चीजों को समझने के बाद, क्या अब तुम लोगों ने देखा कि परमेश्वर के पास अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र के लिए बहुत सख्त और कठोर जाँच-व्यवस्था और प्रशासन है? पहली बात, उसने आध्यात्मिक क्षेत्र में विभिन्न स्वर्गिक आज्ञाएँ, आदेश और प्रणालियाँ स्थापित की हुई हैं, और एक बार इनकी घोषणा हो जाने के बाद, आध्यात्मिक संसार के विभिन्न आधिकारिक पदों के प्राणियों द्वारा उन्हें परमेश्वर द्वारा निर्धारित किए अनुसार बहुत कड़ाई से कार्यान्वित किया जाता है, और कोई उनका उल्लंघन करने का साहस नहीं करता। इसलिए, मनुष्य के संसार में मनुष्य के जीवन और मृत्यु के चक्र में, चाहे कोई पशु के रूप में पुनर्जन्म ले या इंसान के रूप में, दोनों के लिए नियम हैं। चूँकि ये नियम परमेश्वर से आते हैं, इसलिए कोई उन्हें तोड़ने का साहस नहीं करता, न ही कोई उन्हें तोडने में समर्थ है। यह केवल परमेश्वर की इस संप्रभुता और ऐसे नियम होने के कारण ही है कि यह भौतिक संसार, जिसे लोग देखते हैं, नियमित और व्यवस्थित है; यह केवल परमेश्वर की इस संप्रभुता के कारण ही है कि मनुष्य उस दूसरे संसार के साथ शांति से रहने में समर्थ हैं, जो उनके लिए पूर्ण रूप से अदृश्य है, और वे इसके साथ समरसता से रहने में सक्षम हैं—जो पूर्ण रूप से परमेश्वर की संप्रभुता से अभिन्न है। व्यक्ति के दैहिक जीवन की मृत्यु के बाद भी आत्मा में जीवन रहता है, और इसलिए अगर वह परमेश्वर के प्रशासन के अधीन न होती तो क्या होता? आत्मा हर जगह भटकती रहती, हर जगह घुसपैठ करती, यहाँ तक कि मनुष्य के संसार में जीवित प्राणियों को भी हानि पहुँचाती। यह हानि केवल मनुष्यों को ही नहीं, बल्कि पौधों और पशुओं को भी पहुँचाई जा सकती थी—लेकिन पहले हानि लोगों को पहुँचती। अगर ऐसा होता—अगर वह आत्मा प्रशासन-रहित होती, वाकई लोगों को हानि पहुँचाती, और वाकई दुष्टतापूर्ण कार्य करती—तो उस आत्मा से भी आध्यात्मिक संसार में ठीक से निपटा जाता : अगर चीजें गंभीर होतीं, तो शीघ्र ही आत्मा का अस्तित्व समाप्त हो जाता और उसे नष्ट कर दिया जाता। अगर संभव होता, तो उसे कहीं रख दिया जाता और फिर उसका पुनर्जन्म होता। कहने का आशय है कि आध्यात्मिक संसार में विभिन्न आत्माओं का प्रशासन व्यवस्थित होता है, और उसे चरणों और नियमों के अनुसार किया जाता है। यह केवल ऐसे प्रशासन के कारण ही है कि मनुष्य के भौतिक संसार में अराजकता नहीं आई है, कि भौतिक संसार के लोगों में एक सामान्य मानसिकता, सामान्य तर्कशक्ति और एक व्यवस्थित दैहिक जीवन है। मनुष्यों में ऐसा सामान्य जीवन होने के बाद ही देह में रहने वाले जीव पीढ़ियों तक पनपते और प्रजनन करते रह सकते हैं।

अभी-अभी सुने वचनों के बारे में तुम क्या सोचते हो? क्या वे तुम्हारे लिए नए हैं? आज की संगति के विषयों ने तुम लोगों पर कैसी छाप छोड़ी है? उनकी नवीनता के अतिरिक्त क्या तुम कुछ और महसूस करते हो? (लोगों को सदाचारी होना चाहिए, और हम देख सकते हैं कि परमेश्वर महान है और उस पर श्रद्धा रखनी चाहिए।) (विभिन्न प्रकार के लोगों के अंत की व्यवस्था परमेश्वर कैसे करता है, इस बारे में अभी-अभी परमेश्वर की संगति सुनने के बाद, एक ओर मुझे लगता है कि उसका स्वभाव कोई अपराध नहीं होने देता, और यह कि मुझे उस पर श्रद्धा रखनी चाहिए; दूसरी ओर, मैं जानता हूँ कि परमेश्वर किस प्रकार के लोगों को पसंद करता है और किस प्रकार के लोगों को पसंद नहीं करता, इसलिए मैं उनमें से एक बनना चाहूँगा जिन्हें वह पसंद करता है।) क्या तुम लोग देखते हो कि परमेश्वर इस क्षेत्र में अपने कार्यों में सिद्धांतवादी है? वे कौन-से सिद्धांत हैं, जिनसे वह कार्य करता है? (लोग जो कार्य करते हैं, उन्हीं के अनुसार वह उनका अंत तय करता है।) यह अविश्वासियों के विभिन्न अंतों के बारे में है, जिनकी हमने अभी बात की। जब अविश्वासियों की बात आती है, तो क्या परमेश्वर की कार्रवाइयों के पीछे अच्छों को पुरस्कृत करने और दुष्टों को दंड देने का सिद्धांत है? क्या इसमें कोई अपवाद है? (नहीं।) क्या तुम लोग देखते हो कि परमेश्वर की कार्रवाइयों के पीछे एक सिद्धांत है? अविश्वासी वास्तव में परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, न ही वे उसके आयोजनों के प्रति समर्पित होते हैं। इसके अलावा, वे उसकी संप्रभुता से भी अनभिज्ञ हैं, उसे स्वीकार तो वे बिलकुल नहीं करते। अधिक गंभीर बात यह है कि वे परमेश्वर की निंदा करते हैं, उसे कोसते हैं, और उन लोगों के प्रति शत्रुता रखते हैं जो परमेश्वर में विश्वास करते हैं। परमेश्वर के प्रति उनके ऐसे रवैये के बावजूद परमेश्वर उनका प्रशासन करने के अपने सिद्धांतों से विचलित नहीं होता; वह अपने सिद्धांतों और स्वभाव के अनुसार व्यवस्थित रूप से उन्हें प्रशासित करता है। उनकी शत्रुता को वह किस प्रकार लेता है? अज्ञानता के रूप में! नतीजतन, उसने इन लोगों का—अर्थात् अविश्वासियों की व्यापक संख्या का—अतीत में एक बार पशुओं के रूप में पुनर्जन्म करवाया है। तो परमेश्वर की नजरों में अविश्वासी सटीक रूप से क्या हैं? वे सब जंगली जानवर हैं। परमेश्वर जंगली जानवरों और साथ ही मनुष्यों को भी प्रशासित करता है, और इस प्रकार के लोगों के लिए उसके वही सिद्धांत हैं। यहाँ तक कि इन लोगों के उसके प्रशासन में भी उसके स्वभाव को देखा जा सकता है, जैसे कि सभी चीजों पर उसके प्रभुत्व के पीछे उसकी व्यवस्थाओं को देखा जा सकता है। और इसलिए, क्या तुम उन सिद्धांतों में परमेश्वर की संप्रभुता देखते हो, जिनसे वह उन अविश्वासियों को प्रशासित करता है, जिसका मैंने अभी उल्लेख किया है? क्या तुम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखते हो? (हम देखते हैं।) दूसरे शब्दों में, चाहे वह सभी चीजों में से किसी भी चीज से निपटे, परमेश्वर अपने सिद्धांतों और स्वभाव के अनुसार कार्य करता है। यह परमेश्वर का सार है; वह स्वयं द्वारा स्थापित आदेशों या स्वर्गिक आज्ञाओं को यूँ ही सिर्फ इसलिए कभी नहीं तोड़ेगा कि वह ऐसे लोगों को जंगली जानवर मानता है। परमेश्वर सिद्धांत से कार्य करता है, लापरवाही से बिलकुल नहीं, और उसकी कार्रवाइयाँ किसी भी कारक से पूरी तरह अप्रभावित रहती हैं। वह जो कुछ भी करता है, उसमें उसके सिद्धांतों का पालन होता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर में स्वयं परमेश्वर का सार है; यह उसके सार का एक पहलू है, जो किसी सृजित प्राणी में नहीं है। परमेश्वर स्वयं द्वारा सृजित सभी चीजों में से हर चीज, व्यक्ति और सभी जीवित चीजों की सार-सँभाल में, उनके प्रति अपने दृष्टिकोण, प्रबंधन, प्रशासन और शासन में न्यायपरायण और उत्तरदायी है, और इसमें वह कभी भी लापरवाह नहीं रहा। जो अच्छे हैं, वह उनके प्रति कृपापूर्ण और दयावान है; जो दुष्ट हैं, उन्हें वह निर्दयता से दंड देता है; और विभिन्न जीवित प्राणियों के लिए वह समयबद्ध और नियमित तरीके से, विभिन्न समयों पर मानव-संसार की विभिन्न आवश्यकताओं के अनुसार उचित व्यवस्थाएँ करता है, इस तरह से कि इन विभिन्न जीवित प्राणियों का उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिकाओं के अनुसार व्यवस्थित रूप से पुनर्जन्म होता रहे, और वे एक व्यवस्थित तरीके से भौतिक संसार और आध्यात्मिक संसार के बीच आते-जाते रहें।

किसी जीवित प्राणी की मृत्यु—दैहिक जीवन का अंत—यह दर्शाता है कि वह जीवित प्राणी भौतिक संसार से आध्यात्मिक संसार में चला गया है, जबकि एक नए दैहिक जीवन का जन्म यह दर्शाता है कि जीवित प्राणी आध्यात्मिक संसार से भौतिक संसार में आ गया है और उसने अपनी भूमिका ग्रहण करनी और निभानी शुरू कर दी है। चाहे प्राणी का प्रस्थान हो या आगमन, दोनों आध्यात्मिक संसार के कार्य से अविभाज्य हैं। जब तक कोई व्यक्ति भौतिक संसार में आता है, तब तक परमेश्वर द्वारा आध्यात्मिक संसार में उचित व्यवस्थाएँ और परिभाषाएँ पहले ही तैयार की जा चुकी होती हैं, जैसे कि वह व्यक्ति किस परिवार में आएगा, किस युग में आएगा, किस समय आएगा, और क्या भूमिका निभाएगा। इसलिए इस व्यक्ति का संपूर्ण जीवन—जो काम वह करता है, और जो मार्ग वह अपनाता है—जरा-से भी विचलन के बिना, आध्यात्मिक संसार में की गई व्यवस्थाओं के अनुसार चलेगा। इसके अतिरिक्त, दैहिक जीवन जिस समय, जिस तरह और जिस स्थान पर समाप्त होता है, वह आध्यात्मिक संसार के सामने स्पष्ट और प्रत्यक्ष होता है। परमेश्वर भौतिक संसार पर शासन करता है, और वह आध्यात्मिक संसार पर भी शासन करता है, और वह किसी आत्मा के जीवन और मृत्यु के साधारण चक्र को विलंबित नहीं करेगा, न ही वह उस चक्र की व्यवस्थाओं में कभी कोई त्रुटि कर सकता है। आध्यात्मिक संसार के आधिकारिक पदों के सभी परिचारक अपने-अपने कार्य करते हैं, और परमेश्वर के निर्देशों और नियमों के अनुसार वह करते हैं, जो उन्हें करना चाहिए। इस प्रकार, मनुष्य के संसार में, मनुष्य द्वारा देखी जाने वाली हर भौतिक घटना व्यवस्थित होती है, और उसमें कोई अराजकता नहीं होती। यह सब-कुछ सभी चीजों पर परमेश्वर के व्यवस्थित शासन की वजह से है, और साथ ही इस तथ्य के कारण है कि उसका अधिकार प्रत्येक वस्तु पर शासन करता है। उसके प्रभुत्व में भौतिक संसार, जिसमें मनुष्य रहता है, के अलावा मनुष्य के पीछे का अदृश्य आध्यात्मिक संसार भी शामिल है। इसलिए, अगर मनुष्य अच्छा जीवन चाहते हैं, और अच्छे परिवेश में रहने की आशा करते हैं, तो संपूर्ण दृश्य भौतिक संसार प्रदान किए जाने के अलावा उसे वह आध्यात्मिक संसार भी प्रदान किया जाना चाहिए, जिसे कोई देख नहीं सकता, जो मानवजाति की ओर से प्रत्येक जीवित प्राणी को नियंत्रित करता है और जो व्यवस्थित है। इस प्रकार, यह कहने के बाद कि परमेश्वर सभी चीजों के जीवन का स्रोत है, क्या हमने “सभी चीजों” के बारे में अपनी जागरूकता और समझ नहीं बढ़ाई है? (हाँ।)

ii. विभिन्न आस्था वाले लोगों का जीवन और मृत्यु चक्र

हमने अभी पहली श्रेणी के लोगों, अविश्वासियों के जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में चर्चा की। अब हम द्वितीय श्रेणी के, विभिन्न आस्था वाले लोगों के बारे में चर्चा करते हैं। “विभिन्न आस्था वाले लोगों का जीवन और मृत्यु चक्र” एक अन्य महत्वपूर्ण विषय है, और इसकी कुछ समझ होना तुम लोगों के लिए अत्यंत आवश्यक है। पहले, हम इस बारे में बात करते हैं कि “आस्था वाले लोगों” में “आस्था”: यहूदी धर्म, ईसाई धर्म, कैथोलिक धर्म, इस्लाम और बौद्ध धर्म, इन पाँच प्रमुख धर्मों में से किन्हें संदर्भित करती है। अविश्वासियों के अतिरिक्त, इन पाँच धर्मों में विश्वास करने वाले लोगों का विश्व की जनसंख्या में एक बड़ा अनुपात है। इन पाँच धर्मों में से जिन्होंने अपनी आस्था से करियर बनाया है, वे बहुत थोड़े-से हैं, फिर भी इन धर्मों के बहुत अनुयायी हैं। जब वे मरते हैं, तो भिन्न स्थान पर जाते हैं। किससे “भिन्न”? अविश्वासियों से—उन लोगों से, जिनकी कोई आस्था नहीं है—जिनके बारे में हम अभी बात कर रहे थे। मरने के बाद इन पाँचों धर्मों के विश्वासी किसी अन्य स्थान पर जाते हैं, अविश्वासियों से भिन्न किसी स्थान पर। किंतु प्रक्रिया वही रहती है; आध्यात्मिक संसार उनके बारे में उसी तरह उस सबके आधार पर निर्णय करेगा, जो उन्होंने मरने से पहले किया था, जिसके बाद तदनुसार उनके बारे में कार्रवाई की जाएगी। लेकिन कार्रवाई करने के लिए इन लोगों को किसी अन्य स्थान पर क्यों भेजा जाता है? इसका एक महत्वपूर्ण कारण है। क्या है वह कारण? मैं तुम लोगों को इसे एक उदाहरण से समझाऊँगा। लेकिन इससे पहले कि मैं बताऊँ, तुम मन में सोच रहे होगे : “ऐसा शायद इसलिए हो, क्योंकि परमेश्वर में उनका थोड़ा विश्वास होता है! वे पूर्ण अविश्वासी नहीं होते।” किंतु यह कारण नहीं है। उन्हें दूसरों से अलग रखने का एक महत्वपूर्ण कारण है।

उदाहरण के लिए, बौद्ध धर्म को लो : मैं तुम्हें एक तथ्य बताऊँगा। कोई बौद्ध सबसे पहले वह व्यक्ति होता है, जो बौद्ध धर्म में धर्मांतरित हो गया है, और वह ऐसा व्यक्ति है, जो जानता है कि उसका विश्वास क्या है। जब बौद्ध अपने बाल कटवाते हैं और भिक्षु या भिक्षुणी बनते हैं, तो इसका अर्थ है कि उन्होंने अपने आपको लौकिक संसार से पृथक कर लिया है और मानव-जगत के कोलाहल को बहुत पीछे छोड़ दिया है। वे प्रतिदिन सूत्रों का उच्चारण करते हैं और बुद्ध के नाम जपते हैं, केवल शाकाहारी भोजन करते हैं, तपस्वी का जीवन व्यतीत करते हैं, और अपने दिन तेल के दीये की ठंडी, क्षीण रोशनी में गुजारते हैं। वे अपना सारा जीवन इसी प्रकार व्यतीत करते हैं। जब बौद्धों का भौतिक जीवन समाप्त होता है, तो वे अपने जीवन का सारांश बनाते हैं, परंतु अपने हृदय में उन्हें पता नहीं होता कि मरने के बाद वे कहाँ जाएँगे, किससे मिलेंगे, या उनका अंत क्या होगा : अपने हृदय की गहराई में उन्हें इन चीजों के बारे स्पष्ट ज्ञान नहीं होता। उन्होंने अपने पूरे जीवन में आँख मूँदकर एक प्रकार का विश्वास करने से अधिक कुछ नहीं किया होता, जिसके बाद वे अपनी अंधी इच्छाओं और आदर्शों के साथ मानव-संसार से चले जाते हैं। ऐसा होता है एक बौद्ध के भौतिक जीवन का अंत, जब वह जीवित संसार को छोड़ता है; उसके बाद वह आध्यात्मिक संसार में अपने मूल स्थान पर वापस लौट जाता है। पृथ्वी पर लौटने और आत्म-विकास करते रहने के लिए इस व्यक्ति का पुनर्जन्म होगा या नहीं, यह मृत्यु से पहले के उसके आचरण और अभ्यास पर निर्भर करता है। अगर अपने जीवन-काल में उसने कुछ गलत नहीं किया, तो शीघ्र ही उसका पुनर्जन्म हो जाएगा और उसे पृथ्वी पर वापस भेज दिया जाएगा, जहाँ यह व्यक्ति एक बार फिर भिक्षु या भिक्षुणी बन जाएगा। अर्थात् वे अपने भौतिक जीवन के दौरान उसी तरह आत्म-विकास का अभ्यास करते हैं, जिस तरह से उन्होंने पहली बार आत्म-विकास का अभ्यास किया था, और फिर अपने भौतिक जीवन के समापन के बाद आध्यात्मिक क्षेत्र में वापस आ जाते हैं, जहाँ उनकी जाँच की जाती है। इसके बाद, अगर कोई समस्या नहीं पाई जाती, तो वे एक बार फिर मनुष्यों के संसार में लौट सकते हैं, और फिर से बौद्ध धर्म में धर्मांतरित हो सकते हैं और इस प्रकार अपना अभ्यास जारी रख सकते हैं। तीन से सात बार तक पुनर्जन्म लेने के बाद वे एक बार फिर आध्यात्मिक संसार में लौटते हैं, जहाँ अपने भौतिक जीवन की समाप्ति पर वे हर बार जाते हैं। अगर मानव-जगत में उनकी विभिन्न योग्यताएँ और व्यवहार आध्यात्मिक संसार की स्वर्गिक आज्ञाओं के मुताबिक होते हैं, तो इसके बाद वे वहीं रहेंगे; उनका फिर मनुष्य के रूप में पुनर्जन्म नहीं होगा, न ही उन्हें पृथ्वी पर बुरे कार्यों के लिए दंडित किए जाने का कोई जोखिम होगा। उन्हें फिर कभी इस प्रक्रिया से नहीं गुजरना होगा। इसके बजाय, अपनी परिस्थितियों के अनुसार, वे आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई पद ग्रहण करेंगे। इसे ही बौद्ध लोग “बुद्धत्व की प्राप्ति” कहते हैं। बुद्धत्व की प्राप्ति का मुख्य रूप से अर्थ है आध्यात्मिक संसार के एक पदाधिकारी के रूप में सिद्धि प्राप्त करना, और उसके बाद पुनर्जन्म लेने या दंड भोगने का कोई जोखिम न होना। इसके अतिरिक्त, इसका अर्थ है अब पुनर्जन्म के बाद मनुष्य होने के कष्ट न भोगना। तो क्या अभी भी उनका पशु के रूप में पुनर्जन्म होने की कोई संभावना होती है? (नहीं।) इसका मतलब है कि वे कोई भूमिका ग्रहण करने के लिए आध्यात्मिक संसार में ही बने रहेंगे और उनका पुनर्जन्म नहीं होगा। बौद्ध धर्म में बुद्धत्व की सिद्धि की प्राप्ति का यह एक उदाहरण है। जहाँ तक यह सिद्धि प्राप्त न करने वालों की बात है, आध्यात्मिक संसार में लौटने पर वे संबंधित पदाधिकारी द्वारा जाँच और सत्यापन के भागी होते हैं, जो यह पता लगाता है कि जीवित रहते हुए उन्होंने परिश्रमपूर्वक आत्म-विकास का अभ्यास नहीं किया था या ईमानदारी से बौद्ध धर्म द्वारा निर्धारित सूत्रों का पाठ और बुद्ध के नामों का जाप नहीं किया था; इसके बजाय, उन्होंने कई दुष्कर्म किए थे, और वे अनेक दुष्ट आचरणों में संलग्न रहे थे। तब आध्यात्मिक संसार में उनके बुरे कार्यों के बारे में निर्णय लिया जाता है, जिसके बाद उन्हें दंड दिया जाना निश्चित होता है। इसमें कोई अपवाद नहीं होता। तो इस प्रकार का व्यक्ति सिद्धि कब प्राप्त कर सकता है? उस जीवन-काल में, जिसमें वह कोई बुरा कार्य नहीं करता—जब आध्यात्मिक संसार में उसके लौटने के बाद यह देखा जाता है कि उसने मृत्यु से पूर्व कुछ गलत नहीं किया था। तब वे पुनर्जन्म लेते रहते हैं, सूत्रों का पाठ और बुद्ध के नामों का जाप करते रहते हैं, अपने दिन तेल के दीये के ठंडे और क्षीण प्रकाश में गुजारते रहते हैं, जीव-हत्या या मांस-भक्षण से परहेज करते हैं। वे मनुष्य के संसार में हिस्सा नहीं लेते, उसकी समस्याओं को बहुत पीछे छोड़ देते हैं, और दूसरों के साथ कोई विवाद नहीं करते। इस प्रक्रिया में, अगर उन्होंने कोई बुरा कार्य नहीं किया होता, तो आध्यात्मिक संसार में उनके लौटकर आने और उनके समस्त क्रियाकलापों और व्यवहार की जाँच हो चुकने के बाद उन्हें तीन से सात बार तक चलने वाले जीवन-चक्र के लिए एक बार पुनः मनुष्य के संसार में भेजा जाता है। अगर इस दौरान कोई कदाचार नहीं किया जाता, तो बुद्धत्व की उनकी प्राप्ति अप्रभावित रहेगी, और विलंबित नहीं होगी। यह समस्त आस्था वाले लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र का एक लक्षण है : वे “सिद्धि प्राप्त” करने और आध्यात्मिक संसार में कोई पद प्राप्त करने में समर्थ होते हैं; यही बात है, जो उन्हें अविश्वासियों से अलग बनाती है। पहली बात, जब वे अभी भी पृथ्वी पर जी रहे होते हैं, तो आध्यात्मिक संसार में पद ग्रहण करने में सक्षम रहने वाले लोग कैसा आचरण करते हैं? उन्हें निश्चित करना चाहिए कि वे कोई भी बुरा कार्य बिलकुल न करें : उन्हें हत्या, आगजनी, बलात्कार या लूटपाट नहीं करनी चाहिए; अगर वे कपट, धोखाधड़ी, चोरी या डकैती में संलग्न होते हैं, तो वे सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते। दूसरे शब्दों में, अगर कुकर्म से उनका कोई भी संबंध या संबद्धता है, तो वे आध्यात्मिक संसार द्वारा उन्हें दिए जाने वाले दंड से बच नहीं पाएँगे। आध्यात्मिक संसार उन बौद्धों के लिए उचित प्रबंध करता है, जो बुद्धत्व प्राप्त करते हैं : उन्हें उन लोगों को प्रशासित करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है, जो बौद्ध धर्म में और आकाश के वृद्ध मनुष्य पर विश्वास करते हैं—उन्हें एक अधिकार-क्षेत्र आबंटित किया जा सकता है। वे केवल अविश्वासियों के प्रभारी भी हो सकते हैं, या बहुत गौण कर्तव्यों वाले पदों पर भी हो सकते हैं। ऐसा आबंटन उनकी आत्माओं की विभिन्न प्रकृतियों के अनुसार होता है। यह बौद्ध धर्म का एक उदाहरण है।

हमने जिन पाँच धर्मों की बात की है, उनमें ईसाई धर्म अपेक्षाकृत विशेष है। ईसाइयों को विशेष क्या बनाता है? ये वे लोग हैं, जो सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं। जो लोग सच्चे परमेश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें यहाँ कैसे सूचीबद्ध किया जा सकता है? यह कहने पर कि ईसाइयत एक प्रकार की आस्था है, निस्संदेह उसका संबंध केवल आस्था से होगा; वह केवल एक प्रकार का अनुष्ठान, एक प्रकार का धर्म होगी, और उन लोगों की आस्था से बिलकुल अलग चीज होगी, जो ईमानदारी से परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। मेरे द्वारा ईसाइयत को पाँच प्रमुख “धर्मों” के बीच सूचीबद्ध किए जाने का कारण यह है कि इसे भी यहूदी, बौद्ध और इस्लाम धर्मों के स्तर तक घटा दिया गया है। यहाँ अधिकतर लोग इस बात पर विश्वास नहीं करते कि कोई परमेश्वर है या वह सभी चीजों पर शासन करता है, उसके अस्तित्व पर विश्वास तो वे बिलकुल भी नहीं करते। इसके बजाय, वे मात्र धर्मशास्त्र की चर्चा करने के लिए धर्मग्रंथों का उपयोग करते हैं, और लोगों को दयालु बनना, कष्ट सहना और अच्छे कार्य करना सिखाने के लिए धर्मशास्त्र का उपयोग करते हैं। ईसाइयत इसी प्रकार का धर्म बन गया है : वह केवल धर्मशास्त्र संबंधी सिद्धांतों पर ध्यान केंद्रित करता है, मनुष्य का प्रबंधन करने या उसे बचाने के परमेश्वर के कार्य से उसका बिलकुल भी कोई संबंध नहीं है। वह उन लोगों का धर्म बन गया है, जो परमेश्वर का अनुसरण तो करते हैं, पर जिन्हें वास्तव में परमेश्वर द्वारा अंगीकार नहीं किया जाता। लेकिन, ऐसे लोगों के प्रति अपने दृष्टिकोण में परमेश्वर के पास भी एक सिद्धांत है। वह उन्हें अपनी मर्जी से उसी तरह बेमन से नहीं सँभालता या उनसे उसी तरह बेमन से नहीं निपटता, जैसा कि वह अविश्वासियों के साथ करता है। वह उनके साथ वैसा ही व्यवहार करता है, जैसा कि वह बौद्धों के साथ करता है : अगर जीवित रहते हुए कोई ईसाई आत्मानुशासन का पालन कर पाता है, कठोरता से दस आज्ञाओं का पालन करता है और व्यवस्थाओं और आज्ञाओं के अनुसार परिश्रमपूर्वक व्यवहार करता है, और जीवन भर उन पर दृढ़ रह सकता है, तो उन्हें भी वास्तव में तथाकथित “स्वर्गारोहण” प्राप्त कर पाने से पहले उतना ही समय जीवन और मृत्यु के चक्र से गुजारना होगा। इस स्वर्गारोहण को प्राप्त करने के बाद वे आध्यात्मिक संसार में बने रहते हैं, जहाँ वे कोई पद लेते हैं और उसके एक पदाधिकारी बन जाते हैं। इसी प्रकार, अगर वे पृथ्वी पर बुराई करते हैं—अगर वे बहुत पापी हैं और बहुत पाप करते हैं—तब वे अनिवार्यतः भिन्न-भिन्न तीव्रता से दंडित और अनुशासित किए जाएँगे। बौद्ध धर्म में सिद्धि की प्राप्ति का अर्थ है परमानंद की शुद्ध भूमि पर से गुजरना, किंतु ईसाइयत में इसे क्या कहा जाता है? इसे “स्वर्ग में प्रवेश करना” और “स्वर्गारोहण करवाया जाना” कहते हैं। जिन्हें वास्तव में स्वर्गारोहण करवाया जाता है, वे भी जीवन और मृत्यु के चक्र से तीन से सात बार तक गुजरते हैं, जिसके बाद, मर जाने पर, वे आध्यात्मिक संसार में आते हैं, मानो वे सो गए हों। अगर वे मानक के अनुरूप होते हैं, तो वे कोई पद ग्रहण करने के लिए वहाँ बने रह सकते हैं, और पृथ्वी पर मौजूद लोगों के विपरीत, साधारण तरीके से, या परंपरा के अनुसार, उनका पुनर्जन्म नहीं होगा।

इन सब धर्मों में, जिस अंत के बारे में लोग बात करते हैं और जिसके लिए वे प्रयास करते हैं, वह वैसा ही होता है, जैसा कि बौद्ध धर्म में सिद्धि प्राप्त करना; फर्क सिर्फ यह है कि “सिद्धि” भिन्न-भिन्न तरीकों से प्राप्त की जाती है। वे सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इन धर्मों के अनुयायियों के इस भाग के लिए, जो अपने आचरण में धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन करने में समर्थ होते हैं, परमेश्वर एक उचित गंतव्य, जाने के लिए एक उचित स्थान उपलब्ध कराता है, और उन्हें उचित प्रकार से सँभालता है। यह सब तर्कसंगत है, किंतु यह वैसा नहीं है, जैसा कि लोग कल्पना करते हैं। अब, ईसाइयत में लोगों का क्या होता है, इस बारे में सुनने के बाद, तुम लोग कैसा अनुभव करते हो? क्या तुम्हें लगता है कि उनकी दुर्दशा अनुचित है? क्या तुम्हें उनसे सहानुभूति होती है? (थोड़ी-सी।) इसमें कुछ नहीं किया सकता; उन्हें केवल स्वयं को ही दोष देना होगा। मै ऐसा क्यों कहता हूँ? परमेश्वर का कार्य सच्चा है; वह जीवित और वास्तविक है, और उसका कार्य संपूर्ण मानवजाति और प्रत्येक व्यक्ति पर लक्षित है। तो फिर वे इसे स्वीकार क्यों नहीं करते? क्यों वे पागलों की तरह परमेश्वर का विरोध करते और उसे यातना देते हैं? इस तरह का परिणाम पाकर भी उन्हें स्वयं को भाग्यशाली समझना चाहिए, तो तुम लोग उनके लिए खेद क्यों महसूस करते हो? उन्हें इस प्रकार से सँभाला जाना बड़ी सहिष्णुता दर्शाता है। जिस हद तक वे परमेश्वर का विरोध करते हैं, उसके हिसाब से तो उन्हें नष्ट कर दिया जाना चाहिए, फिर भी परमेश्वर ऐसा नहीं करता, वह बस ईसाइयत को किसी दूसरे साधारण धर्म की तरह ही सँभालता है। तो क्या अन्य धर्मों के बारे में विस्तार से जाने की कोई आवश्यकता है? इन सभी धर्मों की प्रकृति है कि लोग अधिक कठिनाइयाँ सहन करें, कोई बुराई न करें, अच्छे कर्म करें, दूसरों को गाली न दें, दूसरों के बारे में निर्णय न दें, विवादों से दूर रहें, और सज्जन बनें—अधिकांश धार्मिक शिक्षाएँ इसी प्रकार की हैं। इसलिए, अगर ये आस्था वाले लोग‌—ये विभिन्न धर्मों और पंथों के अनुयायी—अगर अपने धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन कर पाते हैं, तो वे पृथ्वी पर रहने के दौरान बड़ी त्रुटियाँ या पाप नहीं करेंगे, और तीन से सात बार तक पुनर्जन्म लेने के बाद सामान्यतः ये लोग—जो धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन करने में सक्षम रहते हैं—आम तौर पर, आध्यात्मिक संसार में कोई पद लेने के लिए बने रहेंगे। क्या ऐसे बहुत लोग होते हैं? (नहीं।) तुम्हारा उत्तर किस बात पर आधारित है? भलाई करना या धार्मिक नियमों और व्यवस्थाओं का पालन करना आसान नहीं है। बौद्ध धर्म लोगों को मांस खाने की अनुमति नहीं देता—क्या तुम ऐसा कर सकते हो? अगर तुम्हें भूरे वस्त्र पहनकर किसी बौद्ध मंदिर में पूरे दिन मंत्रों का उच्चारण और बुद्ध के नामों का जाप करना पड़े, तो क्या तुम ऐसा कर सकोगे? यह आसान नहीं होगा। ईसाइयत में दस आज्ञाएँ हैं, आज्ञाएँ और व्यवस्थाएँ, क्या उनका पालन करना आसान है? वह आसान नहीं है, है न? उदाहरण के लिए, दूसरों को गाली न देने को लो : लोग इस नियम का पालन करने में एकदम अक्षम हैं। स्वयं को रोक पाने में असमर्थ होकर वे गाली देते हैं—और गाली देने के बाद वे उन शब्दों को वापस नहीं ले सकते, तो वे क्या करते हैं? रात्रि में वे अपने पाप स्वीकार करते हैं! कभी-कभी दूसरों को गाली देने के बाद भी वे अपने दिल में घृणा को आश्रय दिए रहते हैं, और वे इतना आगे बढ़ जाते हैं कि वे उन लोगों को किसी समय और ज्यादा नुकसान पहुँचाने की योजना बना लेते हैं। संक्षेप में, जो लोग इस जड़ हठधर्मिता के बीच जीते हैं, उनके लिए पाप करने से बचना या बुराई करने से दूर रहना आसान नहीं है। इसलिए, हर धर्म में केवल कुछ लोग ही वास्तव में सिद्धि प्राप्त कर पाते हैं। क्या तुम्हें लगता है कि चूँकि इतने अधिक लोग इन धर्मों का अनुसरण करते हैं, इसलिए उनका एक बड़ा भाग आध्यात्मिक क्षेत्र में कोई भूमिका ग्रहण करने के लिए बने रहने में सक्षम रहता होगा? ऐसे लोग उतने अधिक नहीं होते; वास्तव में केवल कुछ लोग ही इसे प्राप्त कर पाते हैं। आस्था वाले लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र में सामान्यतः ऐसा ही होता है। जो चीज उन्हें अलग करती है, वह यह है कि वे सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं, और यही बात उन्हें अविश्वासियों से अलग करती है।

iii. परमेश्वर का अनुसरण करने वालों का जीवन और मृत्यु चक्र

इसके बाद हम उन लोगों के जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में बात करते हैं, जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं। इसका संबंध तुम लोगों से है, इसलिए ध्यान दो : पहले, इस बारे में विचार करो कि परमेश्वर का अनुसरण करने वालों को कैसे श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। (परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता।) बेशक इसमें दो हैं : परमेश्वर के चुने हुए लोग और सेवाकर्ता। पहले हम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बारे में बात करते हैं, जिसमें बहुत कम लोग हैं। “परमेश्वर के चुने हुए लोग” किसे कहते हैं? परमेश्वर ने जब सारी चीजों की रचना कर दी और मानवजाति अस्तित्व में आ गई, तो परमेश्वर ने उन लोगों का एक समूह चुना जो उसका अनुसरण करेंगे; बस इन्हें ही “परमेश्वर के चुने हुए लोग” कहा जाता है। परमेश्वर द्वारा इन लोगों को चुनने का एक विशेष दायरा और महत्व था। दायरा इसलिए विशेष है, क्योंकि वह कुछ चयनित लोगों तक ही सीमित था, जिन्हें तब आना चाहिए जब परमेश्वर कोई महत्वपूर्ण कार्य करता है। और महत्व क्या है? चूँकि वह परमेश्वर द्वारा चयनित लोगों का समूह था, इसलिए इसका अत्यधिक महत्व है। कहने का तात्पर्य यह है कि, परमेश्वर इन लोगों को पूरा करना चाहता है और इन्हें पूर्ण बनाना चाहता है, और प्रबंधन का अपना कार्य पूरा हो जाने के बाद वह इन लोगों को प्राप्त कर लेगा। क्या यह महत्व अत्यधिक नहीं है? इस प्रकार, ये चुने हुए लोग परमेश्वर के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये वे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर प्राप्त करना चाहता है। जहाँ तक सेवाकर्ताओं की बात है, ठीक है, एक पल के लिए हम परमेश्वर के पूर्व-निर्धारण के विषय को छोडकर पहले उनके उद्गमों के बारे में बात करते हैं। “सेवाकर्ता” का शाब्दिक अर्थ है वह, जो सेवा करता है। सेवा करने वाले लोग अस्थायी होते हैं, वे लंबे समय तक, या हमेशा के लिए सेवा नहीं करते, बल्कि उन्हें अस्थायी रूप से नियुक्त या भर्ती किया जाता है। उनमें से अधिकतर का उद्गम यह है कि उन्हें अविश्वासियों में से चुना गया था। वे पृथ्वी पर तब आए, जब यह आदेश दिया गया कि वे परमेश्वर के कार्य में सेवाकर्ता की भूमिका ग्रहण करेंगे। हो सकता है कि वे अपने पिछले जन्म में पशु रहे हों, लेकिन वे अविश्वासी भी रहे हो सकते हैं। ऐसे हैं सेवाकर्ताओं के उद्गम।

हम परमेश्वर के चुने हुए लोगों के बारे में और बात करते हैं। जब वे मरते हैं, तो वे अविश्वासियों और विभिन्न आस्था वाले लोगों से बिलकुल भिन्न किसी स्थान पर जाते हैं। यह वह स्थान होता है, जहाँ उनके साथ स्वर्गदूत और परमेश्वर के दूत होते हैं; यह ऐसा स्थान होता है, जिसका प्रशासन परमेश्वर व्यक्तिगत रूप से करता है। भले ही इस स्थान पर परमेश्वर के चुने हुए लोग परमेश्वर को अपनी आँखों से नहीं देख पाते, फिर भी यह आध्यात्मिक क्षेत्र में किसी भी अन्य स्थान के असदृश होता है; यह एक अलग ही जगह होती है, जहाँ लोगों का यह हिस्सा मरने के बाद जाता है। जब वे मरते हैं, तो वे भी परमेश्वर के दूतों की कड़ी जाँच-पड़ताल के भागी होते हैं। और जाँच-पड़ताल क्या की जाती है? परमेश्वर के दूत इस बात की जाँच करते हैं कि इन लोगों ने अपने संपूर्ण जीवन में परमेश्वर की आस्था में कौन-सा मार्ग लिया था, उस दौरान उन्होंने कभी परमेश्वर का विरोध किया अथवा उसे कोसा था या नहीं, और उन्होंने कोई गंभीर पाप या दुष्टता की थी या नहीं। यह जाँच इस प्रश्न का समाधान करती है कि उस व्यक्ति विशेष को वहाँ ठहरने दिया जाएगा या उसे जाना होगा। “जाना” का क्या अर्थ है? और “ठहरना” का क्या अर्थ है? “जाना” का अर्थ है कि अपने व्यवहार के आधार पर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों की श्रेणी में रहेंगे या नहीं; “ठहरने” दिए जाने का अर्थ है कि वे उन लोगों के बीच रह सकते हैं, जिन्हें परमेश्वर द्वारा अंत के दिनों के दौरान पूर्ण बनाया जाएगा। जो ठहरते हैं, उनके लिए परमेश्वर के पास विशेष व्यवस्थाएँ है। अपने कार्य की प्रत्येक अवधि के दौरान वह ऐसे लोगों को प्रेरितों के रूप में कार्य करने, या कलीसियाओं को पुनर्जीवित करने या उनकी देखभाल करने का कार्य करने के लिए भेजेगा। लेकिन इस कार्य को करने में सक्षम लोग पृथ्वी पर बार-बार उस तरह से पुनर्जन्म नहीं लेते, जिस तरह से अविश्वासी जन्म लेते हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुनर्जन्म लेते हैं; इसके बजाय, वे परमेश्वर के कार्य की आवश्यकताओं और चरणों के अनुसार पृथ्वी पर लौटाए जाते हैं और उन्हें बार-बार पुनर्जन्म नहीं दिया जाता। तो क्या इस बारे में कोई नियम हैं कि उनका पुनर्जन्म कब होगा? क्या वे हर कुछ वर्षो में एक बार आते हैं? क्या वे ऐसी बारंबारता में आते हैं? वे ऐसे नहीं आते। यह सब परमेश्वर के कार्य पर, उसके कार्य के कदमों पर और उसकी आवश्यकताओं पर आधारित है, और इसके कोई तय नियम नहीं हैं। एकमात्र नियम यह है कि जब परमेश्वर अंत के दिनों में अपने कार्य का अंतिम चरण पूरा करेगा, तो ये सभी चुने हुए लोग आएँगे और यह आगमन उनका अंतिम पुनर्जन्म होगा। और ऐसा क्यों है? यह परमेश्वर के कार्य के अंतिम चरण के दौरान प्राप्त किए जाने वाले परिणाम पर आधारित होता है—क्योंकि कार्य के इस अंतिम चरण के दौरान परमेश्वर इन चुने हुए लोगों को पूरी तरह से पूर्ण कर देगा। इसका क्या अर्थ है? अगर, इस अंतिम चरण के दौरान, इन लोगों को पूरा बनाया और पूर्ण किया जाता है, तब उनका पहले की तरह पुनर्जन्म नहीं होगा; उनके मनुष्य बनने की प्रक्रिया और साथ ही पुनर्जन्म की प्रक्रिया भी पूर्णतया समाप्त हो जाएगी। यह उनसे संबंधित है, जो ठहरेंगे। तो जो ठहर नहीं सकते, वे कहाँ जाते हैं? जिन्हें ठहरने की अनुमति नहीं मिलती, उनका अपना उपयुक्त गंतव्य होता है। सबसे पहले, उनके कुकर्मों, उनके द्वारा की गई गलतियों और पापों के परिणामस्वरूप वे भी दंडित किए जाएँगे। दंडित किए जाने के पश्चात, जैसा परिस्थितियों के अनुसार अनुकूल होगा, परमेश्वर या तो उन्हें अविश्वासियों के बीच या फिर विभिन्न आस्था वाले लोगों के बीच भेजने की व्यवस्था करेगा। दूसरे शब्दों में, उनके लिए दो संभावित परिणाम हो सकते हैं : एक है दंडित होना और पुनर्जन्म के बाद शायद किसी निश्चित धर्म के लोगों के बीच रहना, और दूसरा है अविश्वासी बन जाना। अगर वे अविश्वासी बनते हैं, तो वे सारे अवसर गँवा देंगे; लेकिन अगर वे आस्था वाले व्यक्ति बनते हैं—उदाहरण के लिए, अगर वे ईसाई बनते हैं—तो उनके पास अभी भी परमेश्वर के चुने हुए लोगों की श्रेणियों में लौटने का अवसर होगा; इसके बहुत जटिल संबंध हैं। संक्षेप में, अगर परमेश्वर का चुना हुआ कोई व्यक्ति कोई ऐसा काम करता है जो परमेश्वर के प्रति अपमानजनक हो, तो उसे अन्य किसी भी व्यक्ति के समान ही दंड दिया जाएगा। उदाहरण के लिए, पौलुस को लें, जिसके बारे में हमने पहले बात की थी। पौलुस एक ऐसे व्यक्ति का उदाहरण है, जिसे दंड दिया जाता है। क्या तुम लोग समझ रहे हो कि मैं किस बारे में बात कर रहा हूँ? क्या परमेश्वर के चुने हुए लोगों का दायरा तय है? (अधिकांशतः तय है।) उसका अधिक हिस्सा तय है, लेकिन एक छोटा हिस्सा तय नहीं है। ऐसा क्यों है? यहाँ मैं सबसे स्पष्ट कारण का उल्लेख कर रहा हूँ : दुष्टता करना। जब लोग दुष्टता करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, और जब परमेश्वर उन्हें नहीं चाहता, तो वह उन्हें विभिन्न जाति और प्रकार के लोगों के बीच फेंक देता है। यह उन्हें निराश छोड़ देता है और उनके लिए वापस लौटना कठिन बना देता है। यह सब परमेश्वर के चुने हुए लोगों के जीवन और मृत्यु चक्र से संबंधित है।

यह अगला विषय सेवाकर्ताओं के जीवन और मृत्यु के चक्र से संबंधित है। हमने अभी सेवाकर्ताओं के उद्गम के बारे में बात की है; यानी इस तथ्य के बारे में कि अपने पिछले जन्मों में अविश्वासी और पशु रहने के बाद उनका पुनर्जन्म हुआ। कार्य का अंतिम चरण आने के साथ ही, परमेश्वर ने अविश्वासियों में से लोगों का एक समूह चुना है और यह समूह बहुत खास है। इन लोगों को चुनने का परमेश्वर का उद्देश्य अपने कार्य के लिए उनकी सेवा लेना है। “सेवा” सुनने में कोई बहुत सुरुचिपूर्ण शब्द नहीं है, न ही यह सबकी इच्छाओं के अनुरूप है, लेकिन हमें यह देखना चाहिए कि यह किसकी ओर लक्षित है। परमेश्वर के सेवाकर्ताओं के अस्तित्व का एक विशेष महत्व है। कोई अन्य उनकी भूमिका नहीं निभा सकता, क्योंकि उन्हें परमेश्वर द्वारा चुना गया था। और इन सेवाकर्ताओं की भूमिका क्या है? परमेश्वर के चुने हुए लोगों की सेवा करना। अधिकांशतः, उनकी भूमिका परमेश्वर के कार्य में अपनी सेवा प्रदान करना, उसमें सहयोग करना, और परमेश्वर द्वारा अपने चुने हुए लोगों को पूरा करने में सहायता करना है। चाहे वे मेहनत कर रहे हों, कार्य के किसी पहलू पर काम कर रहे हों, या कोई निश्चित कार्य कर रहे हों, परमेश्वर इन सेवाकर्ताओं से क्या अपेक्षा करता है? क्या वह उनसे बहुत कठिन अपेक्षाएँ करता है? (नहीं, वह बस उनसे निष्ठावान रहने को कहता है।) सेवाकर्ताओं को भी निष्ठावान होना चाहिए। चाहे तुम्हारा उद्गम कहीं से हो, या परमेश्वर ने तुम्हें किसी भी वजह से चुना हो, तुम्हें परमेश्वर के प्रति, परमेश्वर द्वारा तुम्हें सौंपे जाने वाले आदेशों के प्रति, और उस कार्य के प्रति जिसके लिए तुम उत्तरदायी हो, और उन कर्तव्यों के प्रति जिन्हें तुम निभाते हो, निष्ठावान होना चाहिए। जो सेवाकर्ता निष्ठावान होने और परमेश्वर को संतुष्ट करने में समर्थ हैं, उनका परिणाम क्या होगा? वे बने रह सकेंगे। क्या ऐसा सेवाकर्ता होना, जो बना रहता है, एक आशीष है? बने रहने का क्या अर्थ है? इस आशीष का क्या महत्व है? हैसियत में वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों के असदृश दिखाई देते हैं, भिन्न दिखाई देते हैं। लेकिन वास्तव में वे इस जीवन में जिस चीज का आनंद लेते हैं, क्या वह वही नहीं है, जिसका आनंद परमेश्वर के चुने हुए लोग लेते हैं? कम से कम, इस जीवन में तो यह वही है। तुम लोग इससे इनकार नहीं करते, है न? परमेश्वर के कथन, परमेश्वर का अनुग्रह, परमेश्वर द्वारा भरण-पोषण, परमेश्वर के आशीष—कौन इन चीजों का आनंद नहीं लेता? हर कोई ऐसी प्रचुरता का आनंद लेता है। सेवाकर्ता की पहचान सेवा करने वाले के रूप में है, लेकिन परमेश्वर के लिए वह बस उन सब चीजों में से एक है जिनकी उसने रचना की है; बस उनकी भूमिका सेवाकर्ता की है। उन दोनों के ही परमेश्वर के प्राणी होने के नाते, क्या किसी सेवाकर्ता और परमेश्वर के चुने हुए व्यक्ति के बीच कोई अंतर है? वस्तुतः, नहीं। नाममात्र के लिए कहें तो, एक अंतर है; सार में और उनके द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका की दृष्टि से एक अंतर है—किंतु परमेश्वर लोगों के इस समूह के साथ गलत व्यवहार नहीं करता। तो इन लोगों को सेवाकर्ता के रूप में परिभाषित क्यों किया जाता है? तुम लोगों को इस बात की कुछ समझ होनी चाहिए! सेवाकर्ता अविश्वासियों के बीच से आते हैं। जैसे ही हम यह उल्लेख करते हैं कि वे अविश्वासियों के बीच से आते हैं, यह स्पष्ट हो जाता है कि वे एक बुरी पृष्ठभूमि साझा करते है : वे सब नास्तिक हैं और अतीत में भी ऐसे ही थे; वे परमेश्वर में विश्वास नहीं करते थे, और उसके, सत्य के और सभी सकारात्मक चीजों के प्रति शत्रुता रखते थे। वे परमेश्वर या उसके अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। तो क्या वे परमेश्वर के वचनों को समझने में सक्षम हैं? यह कहना उचित होगा कि काफी हद तक वे सक्षम नहीं हैं। जैसे पशु मनुष्यों के शब्द समझने में सक्षम नहीं हैं, वैसे ही सेवाकर्ता भी यह नहीं समझ सकते कि परमेश्वर क्या कह रहा है, वह क्या चाहता है या वह ऐसी अपेक्षाएँ क्यों करता है। वे नहीं समझते; ये बातें उनकी समझ से बाहर हैं, और वे अप्रबुद्ध रहते हैं। इस कारण से, उन लोगों के पास वह जीवन नहीं होता, जिसके बारे में हमने बात की है। बिना जीवन के, क्या लोग सत्य को समझ सकते हैं? क्या वे सत्य से सुसज्जित हैं? क्या उनके पास परमेश्वर के वचनों का अनुभव और ज्ञान है? (नहीं।) ऐसे हैं सेवाकर्ताओं के उद्गम। लेकिन, चूँकि परमेश्वर इन लोगों को सेवाकर्ता बनाता है, इसलिए उनसे उसकी अपेक्षाओं के भी मानक हैं; वह उन्हें तुच्छ दृष्टि से नहीं देखता, न ही वह उनके प्रति बेपरवाह है। भले ही वे उसके वचनों को नहीं समझते और उनके पास जीवन नहीं है, फिर भी परमेश्वर उनके साथ दयालुता से पेश आता है, और जब उनसे उसकी अपेक्षाओं की बात आती है, तो फिर उसके मानक हैं। तुम लोगों ने अभी इन मानकों के बारे में बोला : परमेश्वर के प्रति निष्ठावान होना और वह करना, जो वह कहता है। अपनी सेवा में तुम्हें वहीं सेवा करनी चाहिए, जहाँ आवश्यक हो, और बिलकुल अंत तक सेवा करनी चाहिए। अगर तुम एक निष्ठावान सेवाकर्ता बन सकते हो, बिलकुल अंत तक सेवा करने में सक्षम हो, और परमेश्वर द्वारा सौंपा गया आदेश पूरा कर सकते हो, तो तुम एक मूल्यवान जीवन जियोगे। अगर तुम यह कर सकते हो, तो तुम रह पाओगे। अगर तुम थोड़ा अधिक प्रयास करते हो, अगर तुम थोड़ा अधिक परिश्रम करते हो, परमेश्वर को जानने का प्रयास दोगुना कर पाते हो, परमेश्वर को जानने के बारे में थोड़ा बोल पाते हो, उसकी गवाही दे सकते हो, और इसके अतिरिक्त, अगर तुम उसकी थोड़ी-बहुत इच्छा समझ सकते हो, परमेश्वर के कार्य में सहयोग कर सकते हो, और परमेश्वर के इरादों के प्रति कुछ-कुछ सचेत हो सकते हो, तब एक सेवाकर्ता के तौर पर तुम अपनी नियति में बदलाव महसूस करोगे। और नियति में यह बदलाव क्या होगा? अब तुम सिर्फ बने ही नहीं रहोगे, तुम्हारे आचरण और तुम्हारी व्यक्तिगत आकांक्षाओं और खोज के आधार पर परमेश्वर तुम्हें चुने हुओं में से एक बनाएगा। यह तुम्हारी नियति में परिवर्तन होगा। सेवाकर्ताओं के लिए इसमें सर्वोत्तम बात क्या है? वह यह है कि वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक बन सकते हैं। अगर वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक बन जाते हैं, तो इसका अर्थ है कि उनका अब अविश्वासियों के समान पशुओं के रूप में पुनर्जन्म नहीं होगा। क्या यह अच्छा है? हाँ, और यह एक अच्छा समाचार भी है : इसका अर्थ है कि सेवाकर्ताओं को ढाला जा सकता है। ऐसी बात नहीं है कि सेवाकर्ता को जब परमेश्वर सेवा करने के लिए पूर्वनिर्धारित करता है, तो वह हमेशा ऐसा ही करेगा; ऐसा आवश्यक नहीं है। परमेश्वर उसे उसके व्यक्तिगत आचरण के आधार पर उपयुक्त तरीके से सँभालेगा और उत्तर देगा।

लेकिन, ऐसे सेवाकर्ता भी हैं, जो बिलकुल अंत तक सेवा नहीं कर पाते; ऐसे भी हैं जो अपनी सेवा के दौरान आधे रास्ते में ही प्रयास छोड़ देते हैं और परमेश्वर को त्याग देते हैं, साथ ही ऐसे लोग भी हैं जो अनेक बुरे कार्य करते हैं। यहाँ तक कि ऐसे लोग भी हैं, जो परमेश्वर के कार्य का बड़ा नुकसान करते हैं और उसे बड़ी क्षति पहुँचाते हैं, और ऐसे सेवाकर्ता भी हैं जो परमेश्वर को कोसते हैं, इत्यादि। ये असाध्य परिणाम क्या संकेत करते हैं? ऐसे सभी दुष्कर्म उनकी सेवाओं की समाप्ति के द्योतक होंगे। चूँकि अपनी सेवा के दौरान तुम्हारा आचरण बहुत खराब रहा है, और चूँकि तुमने हद पार कर ली, इसलिए जब परमेश्वर देखेगा कि तुम्हारी सेवा मानक के अनुरूप नहीं है, तो वह तुमसे सेवा करने की तुम्हारी पात्रता छीन लेगा। वह तुम्हें और सेवा करने की अनुमति नहीं देगा; वह तुम्हें अपनी आँखों के सामने से, और परमेश्वर के घर से हटा देगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम सेवा नहीं करना चाहते? क्या तुम हमेशा दुष्टता नहीं करना चाहते? क्या तुम लगातार विश्वासघाती नहीं रहे? तो फिर, एक सरल उपाय है : तुमसे सेवा करने की तुम्हारी पात्रता छीन ली जाएगी। परमेश्वर की दृष्टि में, किसी सेवाकर्ता से उसकी सेवा करने की पात्रता छीनने का अर्थ है कि उस सेवाकर्ता के अंत की घोषणा कर दी गई है, और वह अब परमेश्वर की सेवा करने का पात्र नहीं रहेगा। परमेश्वर को अब इस व्यक्ति की सेवा की आवश्यकता नहीं है, और चाहे वह कितनी भी अच्छी बातें क्यों न कहे, वे बातें व्यर्थ होंगी। जब चीजें इस बिंदु तक पहुँच जाती हैं, तो परिस्थिति असाध्य बन जाती है; ऐसे सेवाकर्ताओं के पास लौटने का कोई मार्ग नहीं होता। और परमेश्वर ऐसे सेवाकर्ताओं से किस प्रकार निपटता है? क्या वह केवल उन्हें सेवा करने से रोक देता है? नहीं। क्या वह उन्हें केवल रहने से रोकता है? या वह उन्हें एक तरफ कर देता है और उनके सुधरने की प्रतीक्षा करता है? वह ऐसा नहीं करता। सच में, जब सेवाकर्ताओं की बात आती है, तो परमेश्वर इतना प्रेमपूर्ण नहीं होता। अगर परमेश्वर की सेवा के प्रति किसी व्यक्ति का इस प्रकार का रवैया है, तो इस रवैये के कारण परमेश्वर उससे सेवा करने की उसकी पात्रता छीन लेगा, और उसे एक बार फिर वापस अविश्वासियों के बीच फेंक देगा। और जिस सेवाकर्ता को वापस अविश्वासियों में फेंक दिया गया हो, उसकी क्या नियति होती है? वह अविश्वासियों जैसी ही होती है : उसे किसी पशु के रूप में पुनर्जन्म दिया जाएगा और आध्यात्मिक संसार में वही दंड दिया जाएगा जो अविश्वासियों को दिया जाता है। इसके अलावा, इस व्यक्ति के दंड में परमेश्वर किसी तरह की व्यक्तिगत रुचि नहीं लेगा, क्योंकि परमेश्वर के कार्य के लिए अब उस व्यक्ति की कोई प्रासंगिकता नहीं रहती। यह न केवल परमेश्वर में उसकी आस्था के जीवन का अंत होता है, बल्कि उसकी नियति का भी अंत होता है, साथ ही यह उसकी नियति की उद्घोषणा भी होती है। इस प्रकार, अगर सेवाकर्ता खराब ढंग से सेवा करते हैं, तो उन्हें स्वयं परिणाम भुगतने पड़ेंगे। अगर कोई सेवाकर्ता बिलकुल अंत तक सेवा करने में असमर्थ है, या उससे बीच में ही सेवा करने की उसकी पात्रता छीन ली जाती है, तो उसे अविश्वासियों के बीच फेंक दिया जाएगा—और अगर ऐसा होता है, तो उससे मवेशियों के समान ही, उसी प्रकार निपटा जाएगा, जैसे कि अज्ञानियों और तर्कहीन व्यक्तियों के साथ निपटा जाता है। जब मैं इसे इस प्रकार कहता हूँ, तो तुम समझ पाते हो, है न?

ऊपर बताया गया है कि कैसे परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के जीवन और मृत्यु चक्र को सँभालता है। यह सुनने के बाद तुम लोग कैसा महसूस करते हो? क्या मैंने पहले कभी इस विषय पर बोला है? क्या मैंने परमेश्वर के चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के विषय पर कभी बोला है? दरअसल मैंने बोला है, लेकिन तुम लोगों को याद नहीं। परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के प्रति धार्मिक है। वह हर तरह से धार्मिक है। क्या तुम इसमें कहीं दोष ढूँढ़ सकते हो? क्या ऐसे लोग नहीं हैं जो कहेंगे : “क्यों परमेश्वर चुने हुओं के प्रति इतना सहिष्णु है? और क्यों वह सेवाकर्ताओं के प्रति केवल थोड़ा-सा ही सहिष्णु है?” क्या कोई सेवाकर्ताओं के लिए खड़े होने की इच्छा रखता है? “क्या परमेश्वर सेवाकर्ताओं को और समय दे सकता है, तथा उनके प्रति और अधिक धैर्यवान और सहिष्णु हो सकता है?” क्या ऐसा प्रश्न पूछना सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) और यह सही क्यों नहीं है? (क्योंकि हमें सेवाकर्ता बनाकर वास्तव में हम पर उपकार किया गया है।) सेवाकर्ताओं को केवल सेवा की अनुमति देकर ही उन पर उपकार किया गया है! “सेवाकर्ता” की उपाधि और उस कार्य के बिना, जो वे करते हैं, ये सेवा करने वाले कहाँ होते? ये अविश्वासियों के बीच होते, मवेशियों के साथ जीते और मरते। परमेश्वर के सामने और परमेश्वर के घर में आने की अनुमति पाकर आज वे कितने अनुग्रह का आनंद लेते हैं! यह एक जबरदस्त अनुग्रह है! अगर परमेश्वर ने तुम्हें सेवा करने का अवसर न दिया होता, तो तुम्हें कभी भी उसके सामने आने का अवसर न मिलता। नरम शब्दों में कहूँ तो, अगर तुम बौद्ध धर्म को मानने वाले भी हो और तुमने सिद्धि भी प्राप्त कर ली हो, तो ज्यादा से ज्यादा तुम आध्यात्मिक संसार में छोटा-मोटा प्रशासनिक कार्य करने वाले ही होगे; तुम परमेश्वर से कभी नहीं मिलोगे, उसकी वाणी या उसके वचन नहीं सुनोगे, उसका प्रेम और आशीष महसूस नहीं करोगे, न ही तुम संभवतः कभी उसके आमने-सामने आ सकोगे। बौद्धों के पास केवल साधारण काम होते हैं। वे संभवतः परमेश्वर को नहीं जान सकते, और वे केवल अनुपालन और आज्ञापालन करते हैं, जबकि सेवाकर्ता कार्य के इस चरण में बहुत अधिक प्राप्त करते हैं! पहला, वे परमेश्वर के आमने-सामने आने, उसकी वाणी सुनने, उसके वचन सुनने, और उन अनुग्रहों और आशीषों का अनुभव करने में समर्थ होते हैं, जो वह लोगों को देता है। इसके अलावा, वे परमेश्वर के द्वारा दिए गए वचनों और सत्यों का आनंद उठा पाते हैं। सेवाकर्ताओं को वास्तव में बहुत ज्यादा प्राप्त होता है! इस प्रकार, अगर एक सेवाकर्ता के रूप में तुम सही प्रयत्न भी नहीं कर सकते, तो क्या परमेश्वर तब भी तुम्हें रखेगा? वह तुम्हें नहीं रख सकता। वह तुमसे ज्यादा अपेक्षा नहीं करता, फिर भी तुम वह सही ढंग से नहीं करते, जो वह कहता है; तुमने अपने कर्तव्य का पालन नहीं किया है। इसलिए, निस्संदेह, परमेश्वर तुम्हें नहीं रख सकता। परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव ऐसा ही है। परमेश्वर तुम्हारे नखरे नहीं उठाता, लेकिन वह तुम्हारे साथ किसी तरह का भेदभाव भी नहीं करता। यही वे सिद्धांत हैं, जिनसे परमेश्वर कार्य करता है। परमेश्वर सभी लोगों और प्राणियों के साथ इसी तरह व्यवहार करता है।

जब आध्यात्मिक संसार की बात आती है, तो अगर उसमें विभिन्न प्राणी कुछ गलत करते हैं, या अपने कार्य ठीक ढंग से नहीं करते, तो परमेश्वर के पास भी उनसे निपटने के लिए उसी के अनुरूप स्वर्गिक अध्यादेश और निर्णय हैं; यह निरपेक्ष है। इसलिए, परमेश्वर के कई-हजार-वर्षीय प्रबंधन-कार्य के दौरान गलत काम करने वाले कुछ कर्तव्यपालक नष्ट कर दिए गए हैं, जबकि कुछ—आज तक—हिरासत में हैं और दंडित किए जा रहे हैं। आध्यात्मिक संसार में हर प्राणी को इसका सामना करना ही पड़ता है। अगर वे कुछ गलत करते हैं या कोई दुष्टता करते हैं, तो वे दंडित किए जाते हैं—और यह वैसा ही है, जैसा कि परमेश्वर अपने चुने हुए लोगों और सेवाकर्ताओं के साथ करता है। इस प्रकार, चाहे आध्यात्मिक संसार हो या भौतिक संसार, परमेश्वर जिन सिद्धांतों पर काम करता है, वे बदलते नहीं। तुम परमेश्वर के कार्यकलाप देख पाओ या नहीं, उनके सिद्धांत नहीं बदलते। हमेशा से ही, सभी चीजों के प्रति परमेश्वर का दृष्टिकोण और सभी चीजों को सँभालने के उसके सिद्धांत समान रहे हैं। यह अपरिवर्तनीय है। परमेश्वर अविश्वासियों में से उन लोगों के प्रति दयालु रहेगा, जो अपेक्षाकृत सही तरीके से जीते हैं, और हर धर्म में से उन लोगों के लिए अवसर बचाकर रखेगा, जो अच्छा व्यवहार करते हैं और दुष्टता नहीं करते, और उन्हें परमेश्वर द्वारा प्रबंधित सभी चीजों में अपनी भूमिका निभाने देगा, और वह करने देगा जो उन्हें करना चाहिए। इसी प्रकार, उन लोगों के बीच जो परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, और उन लोगों के बीच जो उसके चुने हुए हैं, परमेश्वर अपने इन सिद्धांतों के अनुसार किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करता। वह हर उस व्यक्ति के प्रति दयालु रहता है, जो ईमानदारी से उसका अनुसरण करने में सक्षम है, और हर उस व्यक्ति से प्रेम करता है, जो ईमानदारी से उसका अनुसरण करता है। केवल इतना ही है कि इन विभिन्न प्रकार के लोगों—अविश्वासियों, विभिन्न आस्थाओं वाले लोगों और परमेश्वर के चुने हुए लोगों—को वह जो प्रदान करता है, वह भिन्न होता है। उदाहरण के लिए अविश्वासियों को लो : हालाँकि वे परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते, और परमेश्वर उन्हें जंगली जानवरों के रूप में देखता है, फिर भी सब बातों के बीच उनमें से हर एक के पास खाने के लिए भोजन होता है, उनका अपना एक स्थान होता है, और जीवन और मृत्यु का सामान्य चक्र होता है। जो लोग दुष्टता करते हैं, वे दंड पाते हैं और जो भलाई करते हैं, वे आशीष पाते हैं और परमेश्वर की दया प्राप्त करते हैं। क्या ऐसा नहीं है? आस्थावान लोगों के मामले में, अगर वे पुनर्जन्म-दर-पुनर्जन्म अपने धार्मिक नियमों का सख्ती से पालन कर पाते हैं, तो इन सभी पुनर्जन्मों के बाद परमेश्वर अंततः उनके लिए अपनी उद्घोषणा करता है। इसी प्रकार, आज तुम लोगों के मामले में, चाहे तुम परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से एक हो या कोई सेवाकर्ता, परमेश्वर समान रूप से तुम्हें राह पर लाएगा और स्वयं द्वारा निर्धारित विनियमों और प्रशासनिक आदेशों के अनुसार तुम लोगों का अंत निर्धारित करेगा। इस तरह के लोगों के बीच, विभिन्न प्रकार की आस्था वाले लोगों के बीच—यानी जो विभिन्न धर्मों से संबंधित हैं—क्या परमेश्वर ने उन्हें रहने का स्थान दिया है? यहूदी कहाँ हैं? क्या परमेश्वर ने उनकी आस्था में हस्तक्षेप किया है? नहीं किया है। और ईसाइयों का क्या? उसने उनकी आस्था में भी हस्तक्षेप नहीं किया है। वह उन्हें उनकी अपनी पद्धतियों का पालन करने देता है, वह उनसे बात नहीं करता, न ही उन्हें कोई प्रबुद्धता देता है, और इसके अलावा, वह उन पर कुछ भी प्रकट नहीं करता। अगर तुम्हें लगता है कि यह सही है, तो इसी तरह से विश्वास करो। कैथोलिक मरियम पर विश्वास करते हैं, और इस पर कि मरियम के माध्यम से ही समाचार यीशु तक पहुँचाया गया था; उनके विश्वास का ऐसा ही रूप है। क्या परमेश्वर ने कभी उनकी आस्था सुधारी है? परमेश्वर उन्हें पूरी स्वतंत्रता देता है; वह उन पर कोई ध्यान नहीं देता और उन्हें रहने के लिए एक निश्चित स्थान देता है। क्या मुसलमानों और बौद्धों के प्रति भी वह वैसा ही नहीं है? उसने उनके लिए भी सीमाएँ तय कर दी हैं, और उनकी संबंधित आस्थाओं में हस्तक्षेप किए बिना उन्हें रहने का स्थान लेने देता है। सब-कुछ सुव्यवस्थित है। और इस सब में तुम लोग क्या देखते हो? यही कि परमेश्वर के पास अधिकार है, लेकिन वह उसका दुरुपयोग नहीं करता। परमेश्वर सभी चीजों को सही क्रम में व्यवस्थित करता है और ऐसा व्यवस्थित तरीके से करता है, और इसमें उसकी बुद्धि और सर्वशक्तिमत्ता निहित है।

आज हमने एक नए और खास विषय पर बात की है, जिसका संबंध आध्यात्मिक संसार के मामलों से है, जो उस क्षेत्र के परमेश्वर के प्रबंधन का एक पहलू और उस क्षेत्र पर उसका प्रभुत्व दर्शाता है। इन बातों को समझने से पहले हो सकता है कि तुम लोगों ने कहा हो : “इससे संबंधित हर चीज एक रहस्य है, और उसका हमारे जीवन में प्रवेश से कुछ लेना-देना नहीं है; ये चीजें इस बात से अलग हैं कि लोग असल में कैसे जीते हैं, और हमें इन्हें समझने की आवश्यकता नहीं है और न ही हम इनके बारे में सुनना चाहते हैं। परमेश्वर को जानने से इनका बिलकुल भी कोई संबंध नहीं है।” अब, क्या तुम लोगों को लगता है कि ऐेसी सोच के साथ कोई समस्या है? क्या यह सही है? (नहीं।) ऐसी सोच सही नहीं है, और इसमें गंभीर समस्याएँ हैं। इसका कारण यह है कि अगर तुम यह समझना चाहते हो कि परमेश्वर कैसे सभी चीजों पर शासन करता है, तो तुम मात्र और केवल वह नहीं समझ सकते जो तुम देख सकते हो और जिसे तुम्हारा सोचने का तरीका ग्रहण कर सकता है; तुम्हें उस दूसरे संसार को भी थोड़ा समझना होगा, जो तुम्हारे लिए अदृश्य हो सकता है, लेकिन जो इस संसार से अटूट रूप से जुड़ा है, जिसे तुम देख सकते हो। यह परमेश्वर की संप्रभुता से संबंधित है, और इसका संबंध “परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है” विषय से है। यह उसके बारे में जानकारी है। इस जानकारी के बिना लोगों के इस ज्ञान में दोष और कमियाँ होंगी कि कैसे परमेश्वर सभी चीजों के जीवन का स्रोत है। इस प्रकार, आज हमने जिस बारे में बात की है, उसके बारे में कहा जा सकता है कि उसने हमारे पिछले विषय सही तरह से पूरे कर दिए हैं और साथ ही “परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है” की विषय-वस्तु का भी समापन कर दिया है। इसे समझ लेने के बाद, क्या तुम लोग अब इस विषय-वस्तु के माध्यम से परमेश्वर को जानने में समर्थ हो? इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आज मैंने सेवाकर्ताओं से संबंधित एक बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी तुम लोगों को दी है। मैं जानता हूँ कि तुम लोग इस तरह के विषय सुनना वास्तव में पसंद करते हो, और तुम लोग वास्तव में इन बातों की परवाह करते हो। इसलिए, आज मैंने जो बात की है, क्या तुम लोग उससे संतुष्ट हो? (हाँ, हम संतुष्ट हैं।) तुम लोगों पर शायद कुछ अन्य बातों का जबरदस्त प्रभाव न हुआ हो, लेकिन सेवाकर्ताओं के बारे में मैंने जो कुछ कहा है, उसका विशेष रूप से जबरदस्त प्रभाव पड़ा है, क्योंकि यह विषय तुममें से हरेक की आत्मा को स्पर्श करता है।

मानवजाति से परमेश्वर की अपेक्षाएँ

i. स्वयं परमेश्वर की पहचान और हैसियत

हम “परमेश्वर सभी चीजों के लिए जीवन का स्रोत है” और साथ ही “परमेश्वर स्वयं अद्वितीय परमेश्वर है” विषय के अंत में आ गए हैं। ऐसा करने के बाद, हमें चीजों का सारांश तैयार करने की आवश्यकता है। हुमें किस प्रकार का सारांश तैयार करना चाहिए? यह स्वयं परमेश्वर के बारे में निष्कर्ष है। ऐसा होने के कारण, इसका परमेश्वर के हर पहलू से, और साथ ही इस बात से अनिवार्य संबंध होना चाहिए कि लोग परमेश्वर में कैसे विश्वास करते हैं। और इसलिए, पहले मुझे तुम लोगों से पूछना है : इन धर्मोपदेशों को सुनने के बाद, तुम लोगों के मन की आँखों में परमेश्वर कौन है? (सृष्टिकर्ता।) तुम लोगों के मन की आँखों में परमेश्वर सृष्टिकर्ता है। क्या कुछ और है? परमेश्वर सभी चीजों का प्रभु है। क्या ये शब्द उचित हैं? (हाँ।) एकमात्र परमेश्वर ही है, जो सभी चीजों पर शासन करता है, और सभी चीजों का संचालन करता है। जो कुछ है वह उसी ने रचा है, जो कुछ है उसे वही चलाता है, जो कुछ है उस सब पर वही शासन करता है, और जो कुछ है उस सबका भरण-पोषण वही करता है। यह परमेश्वर की हैसियत है और यही उसकी पहचान है। सभी चीजों के लिए और जो कुछ भी है उस सबके लिए, परमेश्वर की असली पहचान सृष्टिकर्ता और संपूर्ण सृष्टि के शासक की है। परमेश्वर की ऐसी पहचान है और वह सभी चीजों में अद्वितीय है। परमेश्वर का कोई भी प्राणी—चाहे वह मनुष्यों के बीच हो या आध्यात्मिक संसार में—परमेश्वर की पहचान और हैसियत का रूप धरने या उसका स्थान लेने के लिए किसी भी साधन या बहाने का उपयोग नहीं कर सकता, क्योंकि सभी चीजों में वही एक है जिसके पास यह पहचान, सामर्थ्य, अधिकार और सृष्टि पर शासन करने की क्षमता है : हमारा अद्वितीय स्वयं परमेश्वर। वह सभी चीजों के बीच रहता और चलता है; वह सभी चीजों से ऊपर, सर्वोच्च स्थान तक उठ सकता है। वह मनुष्य बनकर, मांस और लहू से बने मनुष्यों में से एक बनकर, लोगों के आमने-सामने आकर और उनके सुख-दुःख बाँटकर, अपने आप को विनम्र बना सकता है, जबकि साथ ही, वह उस सबको नियंत्रित करता है जो है, और उस सबका भाग्य और वह दिशा निर्धारित करता है, जिस ओर उसे जाना है। इसके अलावा, वह संपूर्ण मानवजाति की नियति का मार्गदर्शन करता है, और मानवजाति की दिशा निर्देशित करता है। इस तरह के परमेश्वर की सभी जीवित प्राणियों को आराधना करनी चाहिए, उसका आज्ञापालन करना चाहिए और उसे जानना चाहिए। इस प्रकार, चाहे तुम मानवजाति में से जिस भी समूह या जिस भी प्रकार से संबंधित हो, परमेश्वर में विश्वास करना, परमेश्वर का अनुसरण करना, परमेश्वर का आदर करना, उसके शासन को स्वीकार करना, और अपनी नियति के लिए उसकी व्यवस्थाओं को स्वीकार करना ही किसी भी व्यक्ति के लिए और किसी भी जीवित प्राणी के लिए एकमात्र विकल्प—आवश्यक विकल्प—है। परमेश्वर की अद्वितीयता में लोग देखते हैं कि उसका अधिकार, उसका धार्मिक स्वभाव, उसका सार, और वे साधन जिनके द्वारा वह सभी चीजों का भरण-पोषण करता है, सभी पूरी तरह से अद्वितीय हैं; यह अद्वितीयता स्वयं परमेश्वर की असली पहचान निर्धारित करती है, और यह उसकी हैसियत भी निर्धारित करती है। इसलिए, सभी प्राणियों के बीच, अगर आध्यात्मिक संसार में या मनुष्यों के बीच कोई जीवित प्राणी परमेश्वर की जगह खड़ा होने की इच्छा करता है, तो सफलता वैसे ही असंभव होगी, जैसे कि परमेश्वर का रूप धरने का कोई प्रयास। यह तथ्य है। इस तरह के सृष्टिकर्ता और शासक की, जिसके पास स्वयं परमेश्वर की पहचान, सामर्थ्य और हैसियत है, मानवजाति से क्या अपेक्षाएँ हैं? यह हर एक को स्पष्ट होना चाहिए, और हर एक द्वारा याद रखा जाना चाहिए; यह परमेश्वर और मनुष्य दोनों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है!

ii. परमेश्वर के प्रति मानवजाति के विभिन्न रवैये

लोग परमेश्वर के प्रति जैसा बरताव करते हैं, वह उनकी नियति निर्धारित करता है, और यह भी कि परमेश्वर उनके साथ कैसा बरताव करेगा और उनसे कैसे निपटेगा। यहाँ पर मैं कुछ उदाहरण देने जा रहा हूँ कि लोग परमेश्वर के प्रति कैसा बरताव करते हैं। आओ, हम इस बारे में सुनें और देखें कि उनका ढंग और रवैया, जिससे वे परमेश्वर के सामने आचरण करते हैं, सही हैं या नहीं। आओ, हम निम्नलिखित सात प्रकार के लोगों के आचरण पर विचार करें :

1) एक प्रकार के व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनका व्यवहार परमेश्वर के प्रति विशेष रूप से बेतुका होता है। ये लोग सोचते हैं कि परमेश्वर किसी बोधिसत्व या मानव-विद्या वाले पवित्र प्राणी जैसा है, और चाहता है कि जब भी वे लोग आपस में मिलें तो तीन बार उसके सामने झुकें और प्रत्येक भोजन के बाद अगरबत्ती जलाएँ। नतीजतन, जब भी वे उसके अनुग्रह के प्रति अत्यधिक आभारी महसूस करते हैं और उसके प्रति कृतज्ञता अनुभव करते हैं, तो अकसर उनके अंदर इस तरह का आवेग उमड़ता है। वे ऐसी कामना करते हैं कि जिस परमेश्वर में वे आज विश्वास करते हैं, वह उस पवित्र प्राणी की तरह जिसकी वे अपने मन में लालसा रखते हैं, मिलने पर तीन बार झुकने और प्रत्येक भोजन के बाद अगरबत्ती जलाने का उनका तरीका स्वीकार कर पाए।

2) कुछ लोग परमेश्वर को उस जीवित बुद्ध के रूप में देखते हैं, जो सभी जीवितों के कष्ट हरने और उन्हें बचाने में सक्षम है; वे उसे उस जीवित बुद्ध के रूप में देखते हैं, जो उन्हें दुःख के सागर से दूर ले जाने में सक्षम है। परमेश्वर में इन लोगों का विश्वास बुद्ध के रूप में उसकी आराधना करना है। हालाँकि वे अगरबत्ती नहीं जलाते, बंदगी नहीं करते, भेंटें नहीं चढ़ाते, लेकिन हृदय की गहराई में यह महसूस करते हैं कि परमेश्वर बस वैसा बुद्ध है, जो केवल यह चाहता है कि वे बहुत दयालु और परोपकारी हों, किसी जीवित प्राणी को न मारें, दूसरों को गाली देने से बचें, ईमानदार प्रतीत होने वाला जीवन जीएँ, और कोई बुरा काम न करें। वे मानते हैं कि वह उनसे केवल इन्हीं चीजों की अपेक्षा करता है; उनके हृदय में यही परमेश्वर है।

3) कुछ लोग परमेश्वर की आराधना ऐसे करते हैं, मानो वह कोई महान या प्रसिद्ध व्यक्ति हो। उदाहरण के लिए, वह महान व्यक्ति जिस भी तरह से बोलना पसंद करे, जिस भी लय में बोले, जिन भी शब्दों और जिस भी शब्दावली का उपयोग करे, उसका लहजा, उसके हाथ के संकेत, उसकी राय और कार्यकलाप, उसका आचरण—वे उस सबकी नकल करते हैं, और ये ऐसी चीजें हैं जो परमेश्वर में अपने विश्वास के दौरान उनमें पूरी तरह से उत्पन्न हो जाती हैं।

4) कुछ लोग परमेश्वर को एक सम्राट के रूप में देखते हैं, उन्हें लगता है कि वह सबसे ऊपर है, और कोई उसका अपमान करने का साहस नहीं करता—और अगर कोई ऐसा करता है, तो उस व्यक्ति को दंडित किया जाएगा। वे ऐसे सम्राट की आराधना इसलिए करते हैं, क्योंकि सम्राट उनके हृदय में एक खास जगह रखते हैं। उनके विचार, तौर-तरीके, अधिकार और प्रकृति—यहाँ तक कि उनकी रुचियाँ और व्यक्तिगत जीवन—यह सब-कुछ ऐसा बन जाता है, जिसे समझना इन लोगों को आवश्यक लगता है; वे ऐसे मुद्दे और मामले बन जाते हैं, जिनके बारे में वे चिंतित होते हैं। परिणामस्वरूप, वे परमेश्वर की आराधना एक सम्राट के रूप में करते हैं। इस तरह का विश्वास हास्यास्पद है।

5) कुछ लोगों की परमेश्वर के अस्तित्व में एक विशेष आस्था होती है और यह आस्था गहन और अटल होती है। चूँकि उनका परमेश्वर के बारे में ज्ञान बहुत उथला होता है और उन्हें उसके वचनों का ज्यादा अनुभव नहीं होता, इसलिए वे उसकी आराधना एक मूर्ति के रूप में करते हैं। यह मूर्ति ही उनके हृदय में परमेश्वर होती है; यह कुछ ऐसी होती है जिससे उन्हें लगता है कि उन्हें डरना चाहिए और जिसके सामने झुकना चाहिए, और जिसका उन्हें अनुसरण और अनुकरण करना चाहिए। वे परमेश्वर को एक ऐसी मूर्ति के रूप में देखते हैं, जिसका उन्हें जीवनभर अनुसरण करना चाहिए। वे उस लहजे की नकल करते हैं जिसमें परमेश्वर बोलता है, और बाहरी तौर पर वे उन लोगों की नकल करते हैं, जिन्हें परमेश्वर पसंद करता है। वे अकसर ऐसे काम करते हैं, जो सरल, शुद्ध और ईमानदार प्रतीत होते हैं, यहाँ तक कि वे इस मूर्ति का एक ऐसे साझेदार या साथी के रूप में अनुसरण करते हैं, जिससे वे कभी अलग नहीं हो सकते। उनके विश्वास का रूप ऐसा ही होता है।

6) एक प्रकार के लोग ऐसे होते हैं, जो परमेश्वर के बहुत-से वचन पढ़ने और बहुत उपदेश सुनने के बावजूद अपने हृदय की गहराई से यह महसूस करते हैं कि परमेश्वर के प्रति उनके व्यवहार के पीछे उनका एकमात्र सिद्धांत यह है कि उन्हें हमेशा चापलूस और खुशामदी होना चाहिए, या उस तरह से उसकी स्तुति और सराहना करनी चाहिए जो अवास्तविक हो। वे विश्वास करते हैं कि परमेश्वर ऐसा परमेश्वर है, जो चाहता है कि वे इस तरह से व्यवहार करें। इसके अलावा, वे मानते हैं कि अगर वे ऐसा नहीं करते, तो वे किसी भी समय उसका क्रोध भड़का सकते हैं, या गलती से उसके विरुद्ध पाप कर सकते हैं, और इस तरह पाप करने के परिणामस्वरूप परमेश्वर उन्हें दंडित करेगा। उनके हृदय में इसी तरह का परमेश्वर होता है।

7) और फिर अधिकतर लोग ऐसे हैं, जो परमेश्वर में आध्यात्मिक पोषण ढूँढ़ते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे इस संसार में रहते हैं, वे शांति या आनंद से रहित हैं, और उन्हें कहीं आराम नहीं मिलता। जब उन्हें परमेश्वर मिल जाता है, तो उसके वचनों को देखने-सुनने के बाद वे अपने हृदय में गुप्त आनंद और उल्लास पाने लगते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वे मानते हैं कि उन्होंने आखिरकार एक ऐसी जगह खोज ली है, जो उनकी आत्मा को प्रसन्न करेगी, और उन्होंने आखिरकार ऐसा परमेश्वर प्राप्त कर लिया है, जो उन्हें आध्यात्मिक पोषण देगा। परमेश्वर को स्वीकार कर लेने और उसका अनुसरण शुरू करने के बाद वे खुश हो जाते हैं, और उनका जीवन संतुष्ट हो जाता है। इसके बाद वे अविश्वासियों की तरह व्यवहार नहीं करते जो जीवन में जानवरों की तरह नींद में चलते हैं, और अब वे महसूस करते हैं कि उनके पास जीवन में उत्सुकता से प्रतीक्षा करने के लिए कुछ है। इस प्रकार, उन्हें लगता है कि यह परमेश्वर उनकी आध्यात्मिक आवश्यकताओं को बहुत हद तक पूरा कर सकता है और उनके मन और आत्मा, दोनों में एक बड़ा सुख ला सकता है। अनजाने ही वे इस परमेश्वर को छोड़ने में असमर्थ हो जाते हैं, जो उन्हें ऐसा आध्यात्मिक पोषण देता है, और जो उनकी आत्मा और पूरे परिवार के लिए प्रसन्नता लाता है। वे मानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास को आध्यात्मिक पोषण से ज्यादा कुछ लाने की जरूरत नहीं है।

क्या तुममें से कोई परमेश्वर के प्रति ये उपर्युक्त विभिन्न रवैये रखता है? (हाँ।) अगर परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में किसी व्यक्ति के हृदय में इनमें से कोई रवैया हो, तो क्या वह सच में परमेश्वर के सम्मुख आने में समर्थ है? अगर किसी के हृदय में इसमें से कोई रवैया है, तो क्या वह परमेश्वर में विश्वास करता है? क्या ऐसा व्यक्ति स्वयं अद्वितीय परमेश्वर में विश्वास करता है? (नहीं।) चूँकि तुम स्वयं अद्वितीय परमेश्वर में विश्वास नहीं करते, तो तुम किसमें विश्वास करते हो? तुम जिसमें विश्वास करते हो, अगर वह स्वयं अद्वितीय परमेश्वर नहीं है, तो यह संभव है कि तुम किसी मूर्ति में, या किसी महान आदमी में, या किसी बोधिसत्व में विश्वास करते हो, या फिर तुम अपने हृदय में स्थित बुद्ध की आराधना करते हो। इसके अलावा, यह भी संभव है कि तुम किसी साधारण व्यक्ति में विश्वास करते हो। संक्षेप में, परमेश्वर के प्रति विभिन्न प्रकार के विश्वास और रवैयों की वजह से लोग अपनी अनुभूति के परमेश्वर को अपने हृदय में जगह देते हैं, वे परमेश्वर के ऊपर अपनी कल्पनाएँ थोप देते हैं, वे स्वयं अद्वितीय परमेश्वर के साथ-साथ परमेश्वर के बारे में अपने रवैये और कल्पनाएँ रखते हैं, और इसके बाद वे उन्हें प्रतिष्ठापित करने के लिए पकड़ लेते हैं। जब लोग परमेश्वर के प्रति इस प्रकार के अनुचित रवैये रखते हैं, तो इसका क्या अर्थ होता है? इसका अर्थ होता है कि उन्होंने स्वयं सच्चे परमेश्वर को नकार दिया है और एक नकली परमेश्वर की आराधना कर रहे हैं; यह संकेत देता है कि परमेश्वर में विश्वास करते हुए वे उसे अस्वीकार कर रहे हैं और उसका विरोध कर रहे हैं, और वे सच्चे परमेश्वर के अस्तित्व से इनकार करते हैं। अगर लोग इस प्रकार के विश्वास बनाए रखेंगे, तो उन्हें किन परिणामों का सामना करना पड़ेगा? इस प्रकार के विश्वासों के साथ क्या वे कभी परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी करने के निकट आ पाएँगे? (नहीं, वे नहीं आ पाएँगे।) इसके विपरीत, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के कारण वे परमेश्वर के मार्ग से और भी दूर भटक जाएँगे, क्योंकि वे जिस दिशा की खोज करते हैं, वह उस दिशा से ठीक विपरीत है जिसमें परमेश्वर चाहता है कि वे जाएँ। क्या तुम लोगों ने कभी “रथ उत्तर की ओर चलाकर दक्षिण की ओर जाने” की कहानी सुनी है? यह ठीक उत्तर की ओर रथ चलाकर दक्षिण की ओर जाने का मामला हो सकता है। अगर लोग परमेश्वर में इस बेढंगे तरीके से विश्वास करेंगे, तो तुम जितनी अधिक कोशिश करोगे, उतना ही परमेश्वर से अधिक दूर हो जाओगे। इसलिए मैं तुम लोगों को यह चेतावनी देता हूँ : इससे पहले कि तुम आगे बढ़ो, यह देख लो कि तुम सही दिशा में जा रहे हो या नहीं? अपने प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करो, और स्वयं से यह पूछना निश्चित करो, “क्या जिस परमेश्वर पर मैं विश्वास करता हूँ, वह सभी चीजों का शासक है? क्या जिस परमेश्वर पर मैं विश्वास करता हूँ, वह मात्र ऐसा है जो मुझे आध्यात्मिक पोषण देता है? क्या वह मेरी मूर्ति मात्र है? यह परमेश्वर, जिसमें मैं विश्वास करता हूँ, मुझसे क्या चाहता है? क्या परमेश्वर वह सब अनुमोदित करता है, जो मैं करता हूँ? क्या मेरे सभी कार्य और गतिविधियाँ परमेश्वर को जानने की खोज के अनुरूप हैं? क्या वे मुझसे परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुरूप है? क्या जिस मार्ग पर मैं चलता हूँ, वह परमेश्वर के द्वारा मान्य और अनुमोदित है? क्या वह मेरी आस्था से संतुष्ट है?” तुम्हें अकसर और बार-बार अपने आप से ये प्रश्न पूछने चाहिए। अगर तुम परमेश्वर के बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहते हो, तो परमेश्वर को संतुष्ट करने में सफल हो सकने के लिए पहले तुम्हारे पास एक स्पष्ट चेतना और स्पष्ट उद्देश्य होने चाहिए।

क्या यह संभव है कि अपनी सहिष्णुता के परिणामस्वरूप परमेश्वर अनिच्छा से ये अनुचित रवैये स्वीकार कर ले, जिनके बारे में मैंने अभी बात की है? क्या परमेश्वर इन लोगों के रवैयों की सराहना कर सकेगा? (नहीं।) परमेश्वर की मनुष्यों से, और जो उसका अनुकरण करते हैं उनसे, क्या अपेक्षाएँ है? वह लोगों से किस प्रकार का रवैया रखने की अपेक्षा करता है? क्या तुम्हें इस बात का स्पष्ट अंदाजा है? इस मुद्दे पर मैं बहुत-कुछ कह चुका हूँ; मैं स्वयं परमेश्वर के विषय पर, और साथ ही उसके कर्मों और उसके स्वरूप के बारे में बहुत बोल चुका हूँ। क्या अब तुम लोग जानते हो कि परमेश्वर लोगों से क्या प्राप्त करना चाहता है? क्या तुम जानते हो कि वह तुमसे क्या चाहता है? बोलो। अगर अनुभवों और अभ्यास से प्राप्त तुम्हारा ज्ञान अभी भी कम या बहुत सतही है, तो तुम लोग इन वचनों के अपने ज्ञान के बारे में कुछ कह सकते हो। क्या तुम्हारे पास ज्ञान का सारांश है? परमेश्वर मनुष्य से क्या चाहता है? (इन अनेक संगतियों के दौरान परमेश्वर ने इस आवश्यकता पर बल दिया है कि हम उसे जानें, उसके कर्मों को जानें, यह जानें कि वह सभी चीजों के जीवन का स्रोत है, और उसकी हैसियत और पहचान से परिचित हों।) और जब परमेश्वर चाहता है कि लोग उसे जानें, तो उसका अंतिम परिणाम क्या होता है? (वे समझ जाते हैं कि परमेश्वर सृष्टिकर्ता है और मनुष्य सृजित प्राणी हैं।) जब लोग ऐसा ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, तो परमेश्वर के प्रति उनके रवैये में, उनके कर्तव्य-निष्पादन में, या उनके जीवन-स्वभाव में क्या बदलाव आते हैं? क्या तुम लोगों ने कभी इस बारे में सोचा है? क्या यह कहा जा सकता है कि परमेश्वर को जानने और समझने के बाद वे अच्छे लोग बन जाते हैं? (परमेश्वर पर विश्वास में अच्छा आदमी बनने की कोशिश करना शामिल नहीं है। बल्कि, यह परमेश्वर का ऐसा प्राणी बनने की खोज है, जो मानक पर खरा उतरता है और ईमानदार व्यक्ति है।) क्या कुछ और भी है? (परमेश्वर को सच में और सही ढंग से जानने के बाद हम उसके साथ परमेश्वर के रूप में व्यवहार कर पाते हैं; हम जान जाते हैं कि परमेश्वर सदैव परमेश्वर है, कि हम सृजित प्राणी हैं, हमें परमेश्वर की आराधना करनी चाहिए, और हमें अपने सही स्थानों पर रहना चाहिए।) बहुत अच्छा! कुछ अन्य लोगों से भी सुनते हैं। (हम परमेश्वर को जानते हैं, और अंततः हम ऐसे व्यक्ति बनने में समर्थ हो गए हैं, जो सच में परमेश्वर को समर्पित होते हैं, परमेश्वर का आदर करते हैं और बुराई से दूर रहते हैं।) यह सही है!

iii. वह रवैया जो परमेश्वर चाहता है कि मानवजाति उसके प्रति रखे

वास्तव में, परमेश्वर लोगों से ज्यादा अपेक्षा नहीं करता—या कम से कम, वह उतनी अपेक्षा नहीं करता, जितनी लोग कल्पना करते हैं। अगर परमेश्वर ने कोई वचन न कहे होते, या अगर उसने अपना स्वभाव या कर्म व्यक्त नहीं किए होते, तो परमेश्वर को जानना तुम लोगों के लिए बहुत कठिन होता, क्योंकि लोगों को उसके इरादों और इच्छा का अनुमान लगाना पड़ता; ऐसा करना बहुत कठिन होता। लेकिन, अपने कार्य के अंतिम चरण में परमेश्वर ने बहुत-से वचन कहे हैं, बहुत-सा कार्य किया है, और मनुष्य से कई अपेक्षाएँ की हैं। उसने अपने वचनों में, और अपने कार्य की बड़ी मात्रा में लोगों को बता दिया है कि वह किसे पसंद करता है, किससे घृणा करता है, और उन्हें किस प्रकार का मनुष्य बनना चाहिए। इन बातों को समझने के बाद लोगों के हृदय में परमेश्वर की अपेक्षाओं की सटीक परिभाषा होनी चाहिए, क्योंकि वे अस्पष्ट रूप से परमेश्वर पर विश्वास नहीं करते, न अस्पष्ट परमेश्वर में विश्वास करते हैं, और न ही वे अस्पष्टता और शून्यता के बीच परमेश्वर पर विश्वास करते हैं। इसके बजाय, वे उसके कथन सुनने में समर्थ हैं, उसकी अपेक्षाओं के मानक समझने और उन्हें प्राप्त करने में समर्थ हैं, और परमेश्वर लोगों को वह सब बताने में मनुष्य की भाषा का उपयोग करता है, जो उन्हें जानना और समझना चाहिए। आज, अगर लोग अभी भी नहीं जानते कि परमेश्वर क्या है और उसकी उनसे क्या अपेक्षाएँ हैं; अगर वे नहीं जानते कि परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए, न ही यह कि परमेश्वर में विश्वास या उससे व्यवहार कैसे करना चाहिए—तो इसमें एक समस्या है। अभी-अभी तुम लोगों में से प्रत्येक ने एक क्षेत्र विशेष के बारे में बोला; तुम लोग कुछ बातों से परिचित हो, चाहे वे बातें विशिष्ट हों या सामान्य। लेकिन मैं तुम लोगों को परमेश्वर की मनुष्य से सही, पूर्ण और विशिष्ट अपेक्षाएँ बताना चाहता हूँ। वे सिर्फ कुछ शब्द हैं, और बहुत सरल हैं; हो सकता है कि तुम लोग उन्हें पहले से जानते हो। परमेश्वर की मनुष्य से, और जो उसका अनुसरण करते हैं उनसे, सही अपेक्षाएँ निम्नानुसार हैं। अपना अनुसरण करने वालों से उसकी पाँच अपेक्षाएँ हैं : सच्चा विश्वास, निष्ठापूर्ण अनुसरण, पूर्ण समर्पण, सच्चा ज्ञान और हार्दिक आदर।

इन पाँच बातों में परमेश्वर चाहता है कि लोग अब उस पर सवाल न उठाएँ, और न ही अपनी कल्पनाओं या अस्पष्ट और अमूर्त दृष्टिकोणों का उपयोग करके उसका अनुसरण करें; उन्हें किन्हीं कल्पनाओं या धारणाओं के आधार पर परमेश्वर का अनुसरण नहीं करना चाहिए। वह चाहता है कि उसका अनुसरण करने वाले सभी पूरी वफादारी से अनुसरण करें, न कि आधे-अधूरे मन से या बिना किसी प्रतिबद्धता के। जब परमेश्वर तुमसे कोई अपेक्षा करता है, तुम्हारा परीक्षण करता है, तुम्हारा न्याय करता है, तुमसे निपटता है और तुम्हारी काट-छाँट करता है, या तुम्हें अनुशासित करता है और तुम पर प्रहार करता है, तो तुम्हें उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाना चाहिए। तुम्हें कारण नहीं पूछना चाहिए, शर्तें नहीं रखनी चाहिए, तर्क तो बिलकुल नहीं करना चाहिए। तुम्हारी आज्ञाकारिता पूर्ण होनी चाहिए। परमेश्वर संबंधी ज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है, जिसका लोगों में सबसे ज्यादा अभाव है। वे अकसर परमेश्वर पर ऐसी कहावतें, कथन और वचन थोप देते हैं जो उससे संबंधित नहीं होते, और विश्वास करते हैं कि ये वचन परमेश्वर सबंधी ज्ञान की सबसे सटीक परिभाषा हैं। वे नहीं जानते कि ये कहावतें, जो लोगों की कल्पनाओं से आती हैं, उनके अपने तर्क और अपने ज्ञान से आती हैं, परमेश्वर के सार से जरा-सा भी संबंध नहीं रखतीं। इसलिए, मैं तुम लोगों को बताना चाहता हूँ कि जब उस ज्ञान की बात आती है जो परमेश्वर चाहता है कि लोगों में हो, तो वह सिर्फ यह नहीं कहता कि तुम उसे और उसके वचनों को पहचानो, बल्कि यह भी कहता है कि परमेश्वर संबंधी तुम्हारा ज्ञान सही हो। भले ही तुम केवल एक वाक्य ही बोल सको, या केवल थोड़ा-सा ही जानते हो, लेकिन यह थोड़ा-सा जानना सही और सच्चा हो, और स्वयं परमेश्वर के सार के अनुरूप हो। ऐसा इसलिए है, क्योंकि परमेश्वर अपनी किसी अवास्तविक और अविचारित स्तुति या सराहना से घृणा करता है। इससे भी अधिक, जब लोग उससे हवाई बरताव करते हैं, तो वह इससे घृणा करता है। जब परमेश्वर संबंधी विषयों की चर्चा के दौरान लोग तथ्यों की परवाह न करते हुए बात करते हैं, मनमाना और बेझिझक बोलते हैं, जैसा उन्हें ठीक लगे वैसा बोलते हैं, तो वह इससे घृणा करता है; इसके अलावा, वह उनसे नफरत करता है, जो यह मानते हैं कि वे परमेश्वर को जानते हैं और उससे संबंधित अपने ज्ञान की डींगें मारते हैं, उससे संबंधित विषयों पर बिना किसी रोक-टोक के चर्चा करते हैं। उपर्युक्त पाँच अपेक्षाओं में से अंतिम अपेक्षा हार्दिक आदर करना थी : यह परमेश्वर की उनसे परम अपेक्षा है, जो उसका अनुसरण करते हैं। जब किसी को परमेश्वर का सही और सच्चा ज्ञान होता है, तो वह परमेश्वर का सच में आदर करने और बुराई से दूर रहने में सक्षम होता है। यह आदर उसके हृदय की गहराई से आता है; यह आदर स्वेच्छा से दिया जाता है, परमेश्वर द्वारा डाले गए दबाव के परिणामस्वरूप नहीं। परमेश्वर यह नहीं कहता कि तुम उसे किसी अच्छे रवैये, आचरण या बाहरी व्यवहार का कोई उपहार दो; बल्कि वह चाहता है कि तुम अपने हृदय की गहराई से उसका आदर करो और उसका भय मानो। यह आदर तुम्हारे जीवन-स्वभाव में बदलाव होने, परमेश्वर संबंधी ज्ञान और परमेश्वर के कर्मों की समझ प्राप्त करने, परमेश्वर का सार समझने और तुम्हारे द्वारा इस तथ्य को स्वीकार करने के परिणामस्वरूप आता है कि तुम परमेश्वर के प्राणियों में से एक हो। इसलिए, आदर को परिभाषित करने के लिए “हार्दिक” शब्द का उपयोग करने में मेरा लक्ष्य यह है कि मनुष्य यह समझें कि परमेश्वर के लिए उनका आदर उनके हृदय की गहराई से आना चाहिए।

अब उन पाँच अपेक्षाओं पर विचार करें : क्या तुम लोगों में से कोई पहली तीन अपेक्षाएँ पूरी करने में सक्षम है? इसके द्वारा मैं सच्चे विश्वास, निष्ठापूर्ण अनुसरण और पूर्ण समर्पण का उल्लेख कर रहा हूँ। क्या तुम लोगों में से कोई इन चीजों में सक्षम है? मैं जानता हूँ कि अगर मैंने पाँचों अपेक्षाएँ कही होतीं, तो निस्संदेह तुम लोगों में से कोई सक्षम न होता, लेकिन मैंने संख्या घटाकर तीन कर दी है। इस बारे में सोचो कि तुम लोग ये चीजें प्राप्त कर चुके हो या नहीं। क्या “सच्चा विश्वास” प्राप्त करना आसान है? (नहीं, आसान नहीं है।) यह आसान नहीं है, क्योंकि लोग प्रायः परमेश्वर पर प्रश्न उठाते हैं। और “निष्ठापूर्ण अनुसरण” के बारे में क्या विचार है? इस “निष्ठापूर्ण” का क्या अर्थ है? (अधूरे मन से नहीं, बल्कि पूरे मन से।) अधूरे मन से नहीं, बल्कि पूरे मन से। तुमने बिलकुल सही कहा! तो क्या तुम लोग यह अपेक्षा पूरी करने में सक्षम हो? तुम्हें और कड़े प्रयास करने होंगे, है न? फिलहाल, तुम्हारा यह अपेक्षा पूरी करने में सफल होना बाकी है! “पूर्ण समर्पण” के बारे में क्या खयाल है—क्या तुमने इसे पा लिया है? (नहीं।) तुमने इसे भी नहीं पाया है। तुम बार-बार अवज्ञाकारी और विद्रोही हो जाते हो; तुम प्रायः सुनते नहीं, आज्ञापालन नहीं करना चाहते, या सुनना नहीं चाहते। ये तीन मूलभूत अपेक्षाएँ हैं, जिन्हें जीवन में प्रवेश करने के बाद लोग पूरा करते हैं, लेकिन तुम लोगों को अभी उन्हें पूरा करना बाकी है। इस प्रकार, फिलहाल क्या तुम लोगों में अपार संभावना है? आज मेरे ये वचन सुनने के बाद, क्या तुम लोग चिंतित महसूस करते हो? (हाँ!) यह सही है कि तुम्हें चिंतित महसूस करना चाहिए। चिंतित होने से बचने की कोशिश मत करना। तुम लोगों की ओर से मैं चिंतित महसूस करता हूँ! मैं अन्य दो अपेक्षाओं में नहीं जाऊँगा; निस्संदेह यहाँ कोई भी उन्हें पूरा करने में सक्षम नहीं है। तुम चिंतित हो। तो क्या तुम लोगों ने अपने लक्ष्य निर्धारित कर लिए हैं? तुम्हें किन लक्ष्यों के साथ और किस दिशा में खोज करनी चाहिए और अपने प्रयास समर्पित करने चाहिए? क्या तुम्हारा कोई लक्ष्य है? मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ : जब तुम ये पाँच अपेक्षाएँ पूरी कर लोगे, तब तुम परमेश्वर को संतुष्ट कर लोगे। उनमें से प्रत्येक अपेक्षा एक संकेतक है, और साथ ही, व्यक्ति के जीवन में प्रवेश की परिपक्वता का अंतिम लक्ष्य भी। यहाँ तक कि अगर मैंने इन अपेक्षाओं में से एक भी विस्तार से बोलने के लिए चुनी होती और तुमसे उसे पूरा करने की अपेक्षा की होती, तो उसे प्राप्त करना भी आसान न होता; तुम्हें एक निश्चित मात्रा में कठिनाई झेलनी होगी और एक निश्चित मात्रा में प्रयास करने होंगे। तुम लोगों की मानसिकता कैसी होनी चाहिए? वैसी ही, जैसी कैंसर के उस मरीज की होती है, जो ऑपरेशन-टेबल पर जाने की प्रतीक्षा कर रहा होता है। मैं ऐसा क्यों कहता हूँ? अगर तुम परमेश्वर में विश्वास करना चाहते हो और अगर तुम परमेश्वर को प्राप्त करना चाहते हो और उसकी संतुष्टि हासिल करना चाहते हो, तो जब तक तुम एक निश्चित मात्रा में कष्ट सहन नहीं करते और एक निश्चित मात्रा में प्रयास नहीं करते, तब तक तुम ये चीजें प्राप्त करने में समर्थ नहीं होगे। तुम लोगों ने बहुत उपदेश सुना है, लेकिन सिर्फ उसे सुनने का यह मतलब नहीं कि वह उपदेश तुम्हारा है; तुम्हें उसे आत्मसात करना चाहिए और ऐसी वस्तु में रूपांतरित करना चाहिए, जो तुम्हारी हो। तुम्हें उसे अपने जीवन में आत्मसात करना होगा, और अपने अस्तित्व में लाना होगा, तुम्हें इन वचनों और उपदेश को अपनी जीवन-शैली का मार्गदर्शन करने देना होगा, और अपने जीवन में अस्तित्वगत मूल्य और अर्थ लाने देना होगा। जब ऐसा होगा, तब तुम्हारा इन वचनों को सुनना सार्थक हो जाएगा। अगर मेरे द्वारा बोले गए वचन तुम्हारे जीवन में कोई सुधार नहीं लाते या तुम्हारे अस्तित्व में कोई मूल्य नहीं जोड़ते, तो तुम्हारा इन्हें सुनना कोई अर्थ नहीं रखता। तुम लोग इसे समझते हो, है न? इसे समझने के बाद, आगे क्या होता है, यह तुम लोगों पर है। तुम लोगों को काम में लग जाना चाहिए! तुम्हें सभी बातों में ईमानदार होना चाहिए! भ्रम में मत रहो; समय तेजी से गुजर रहा है! तुम लोगों में से अधिकतर लोग पहले ही दस साल से भी ज्यादा समय से परमेश्वर में विश्वास करते आ रहे हैं। इन पिछले दस सालों को मुड़कर देखो : तुम लोगों ने कितना पाया है? और इस जीवन के और कितने दशक तुम्हारे पास बचे हैं? तुम्हारे पास ज्यादा समय नहीं बचा है। इस बारे में भूल जाओ कि परमेश्वर का कार्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है या नहीं, उसने तुम्हारे लिए कोई अवसर छोड़ा है या नहीं, या वह वही कार्य पुनः करेगा या नहीं—इन चीजों के बारे में बात मत करो। क्या तुम अपने जीवन के पिछले दस वर्षों का समय पलट सकते हो? हर गुजरते दिन और तुम्हारे द्वारा उठाए गए हर कदम के साथ तुम्हारे पास एक दिन कम हो जाता है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता! तुम परमेश्वर में अपनी आस्था से केवल तभी कुछ प्राप्त करोगे, जब तुम उसे अपने जीवन की सबसे बड़ी चीज, यहाँ तक कि भोजन, कपडे या किसी भी अन्य चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण समझोगे। अगर तुम केवल तभी विश्वास करते हो जब तुम्हारे पास समय होता है, और अपनी आस्था के प्रति अपना पूरा ध्यान समर्पित करने में असमर्थ रहते हो, और अगर तुम हमेशा भ्रम में पड़े रहते हो, तो तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा। तुम लोग इसे समझते हो, है न? आज के लिए हम यहीं रुकेंगे। फिर मिलेंगे!

15 फरवरी, 2014

पिछला: स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है IX

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