उत्तर: नास्तिकता सबसे अधिक विज्ञान की वकालत करती है, यहाँ तक कि विज्ञान को सत्य और धर्म समझने लगती है। अगर विज्ञान सत्य होता तो, इतने सारे वैज्ञानिक सिद्धांत कुछ समय तक अस्तित्व में रहने के बाद क्यों झूठे ठहराए गए या गलत साबित हुए? इससे पता चलता है कि विज्ञान पूरा सत्य नहीं है। क्या विज्ञान मनुष्य समाज की सबसे ज़्यादा वास्तविक समस्याओं को हल कर सकता है? क्या विज्ञान मनुष्य के भ्रष्टाचार को दूर कर सकता है? क्या विज्ञान दुनिया के अँधेरे और बुराई को मिटा सकता है? क्या विज्ञान लोगों को परमेश्वर की पहचान करा सकता है? क्या विज्ञान मानव जाति को खुशियाँ और शांति दे सकता है? अब जब विज्ञान चरम सीमा तक विकसित हो चुका है, तो इसके नतीजे क्या हैं? विज्ञान ने मानव जाति को ख़ुशी और शांति नहीं दी है। बल्कि, इसने युद्ध और विपत्तियाँ पैदा उत्पन्न की है जो मानव जाति के विनाश का ख़तरा पैदा करती हैं। पर्यावरण को नष्ट कर दिया गया है। प्राकृतिक और जैविक खाद्य-पदार्थ गायब हो गए हैं। क्या यह सच नही हैं? विज्ञान के विकास के बाद, ज़्यादा से ज़्यादा लोग विज्ञान पर विश्वास करने लगे, परमेश्वर से इन्कार और उनका विरोध करने लगे, जिस वजह से मानव जाति की तबाही बढती गई। जैसा कि सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं: "मानवजाति द्वारा सामाजिक विज्ञानों के आविष्कार के बाद से मनुष्य का मन विज्ञान और ज्ञान से भर गया है। तब से विज्ञान और ज्ञान मानवजाति के शासन के लिए उपकरण बन गए हैं, और अब मनुष्य के पास परमेश्वर की आराधना करने के लिए पर्याप्त गुंजाइश और अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं रही हैं। मनुष्य के हृदय में परमेश्वर की स्थिति सबसे नीचे हो गई है। हृदय में परमेश्वर के बिना मनुष्य की आंतरिक दुनिया अंधकारमय, आशारहित और खोखली है। ... विज्ञान, ज्ञान, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, फुरसत, आराम : ये मनुष्य को केवल अस्थायी सांत्वना देते हैं। यहाँ तक कि इन बातों के साथ मनुष्य निश्चित रूप से पाप करेगा और समाज के अन्याय का रोना रोएगा। ये चीज़ें मनुष्य की अन्वेषण की लालसा और इच्छा को दबा नहीं सकतीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि मनुष्य को परमेश्वर द्वारा बनाया गया था और मनुष्यों के बेतुके त्याग और अन्वेषण केवल और अधिक कष्ट की ओर ही ले जा सकते हैं और मनुष्य को एक निरंतर भय की स्थिति में रख सकते हैं, और वह यह नहीं जान सकता कि मानवजाति के भविष्य या आगे आने वाले मार्ग का सामना किस प्रकार किया जाए। यहाँ तक कि मनुष्य विज्ञान और ज्ञान से भी डरने लगेगा, और खालीपन के एहसास से और भी भय खाने लगेगा। ... यदि किसी देश या राष्ट्र के लोग परमेश्वर के उद्धार और उसकी देखभाल प्राप्त करने में अक्षम हैं, तो वह देश या राष्ट्र विनाश के मार्ग पर, अंधकार की ओर चला जाएगा, और परमेश्वर द्वारा जड़ से मिटा दिया जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परिशिष्ट 2: परमेश्वर संपूर्ण मानवजाति के भाग्य का नियंता है)। जब मनुष्य विज्ञान का समर्थन करता है और उस पर विश्वास करता है, तब वह स्वाभाविक रूप से सत्य से इन्कार करेगा और परमेश्वर से इन्कार करेगा। इसका परिणाम क्या होगा? जब मनुष्य विज्ञान में विश्वास करने लगता है, तब वह स्वाभाविक रूप से परमेश्वर के कार्य और उद्धार को स्वीकार करने से मना करेगा, और वह परमेश्वर का विरोध भी कर सकता है। जब मनुष्य परमेश्वर को छोड़ देता है, तब उसके दिल में परमेश्वर के लिए कोई जगह नहीं रहती, इसलिए मनुष्य को परमेश्वर का आशीर्वाद मिलना बंद हो जाता है। अब जबकि मनुष्य विज्ञान की वकालत करता है, बुराई का समर्थन करता है, और दुनिया के रीति-रिवाज़ों का पालन करता है, तो उसका परिणाम यह है कि मनुष्य और परमेश्वर के बीच की दूरी बढ़ती जाती है। पूरी दुनिया में अँधेरा और बुराई दिन-ब-दिन बढती जा रही है और परमेश्वर का विरोध भी बढ़ता ही जा रहा है। मनुष्यों के बीच लगातार बढ़ रहे संघर्ष और युद्धों ने मानव जाति के लिए तरह-तरह की विपत्तियाँ पैदा की हैं। क्या आप कह रहे हैं कि विज्ञान मानव जाति को बुराई और पापों से बचा सकता है? क्या विज्ञान अंत के दिनों में मनुष्य को तबाही से बचा सकता है? क्या विज्ञान मनुष्य को एक अच्छी मंज़िल तक पहुँचा सकता है? ये मानव जाति के परिणाम और मंजि़ल से जुड़े कई अहम मुद्दे हैं जिन्हें विज्ञान हल नहीं कर सकता। यह इस बात को साबित करने के लिए काफी है कि विज्ञान सत्य नहीं है; वह मनुष्य को बचा नहीं सकता। अंत के दिनों में, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के द्वारा की गई सत्य की अभिव्यक्ति मानव जाति के उद्धार के लिए है। अगर मानव जाति सर्वशक्तिमान परमेश्वर का न्याय और शुद्धिकरण प्राप्त कर सकती है, तो वह तबाही के बीच परमेश्वर की सुरक्षा भी प्राप्त कर सकती है और परमेश्वर का राज्य आने तक बची रह सकती है। यह परमेश्वर का वादा है। मनुष्य परमेश्वर के वचन पर विश्वास कर उसे स्वीकार कर सकता हो या नहीं, फिर भी वह तबाही के अंत के बाद परमेश्वर के वचनों को पूरा होते हुए देख सकता है। लेकिन तब अफ़सोस करने के लिए बहुत देर हो चुकी होगी।
"वार्तालाप" फ़िल्म की स्क्रिप्ट से लिया गया अंश