सत्य को कैसे पहचाना जा सकता है और कौन वास्तव में सत्य व्यक्त कर सकता है
परमेश्वर के प्रासंगिक वचन :
परमेश्वर स्वयं ही जीवन है, और सत्य है, और उसका जीवन और सत्य साथ-साथ विद्यमान हैं। वे लोग जो सत्य प्राप्त करने में असमर्थ हैं कभी भी जीवन प्राप्त नहीं करेंगे। मार्गदर्शन, समर्थन, और पोषण के बिना, तुम केवल अक्षर, सिद्धांत, और सबसे बढ़कर, मृत्यु ही प्राप्त करोगे। परमेश्वर का जीवन सतत विद्यमान है, और उसका सत्य और जीवन साथ-साथ विद्यमान हैं। यदि तुम सत्य का स्रोत नहीं खोज पाते हो, तो तुम जीवन की पौष्टिकता प्राप्त नहीं करोगे; यदि तुम जीवन का पोषण प्राप्त नहीं कर सकते हो, तो तुममें निश्चित ही सत्य नहीं होगा, और इसलिए कल्पनाओं और धारणाओं के अलावा, संपूर्णता में तुम्हारा शरीर तुम्हारी देह—दुर्गंध से भरी तुम्हारी देह—के सिवा कुछ न होगा। यह जान लो कि किताबों की बातें जीवन नहीं मानी जाती हैं, इतिहास के अभिलेख सत्य नहीं माने जा सकते हैं, और अतीत के नियम वर्तमान में परमेश्वर द्वारा कहे गए वचनों के वृतांत का काम नहीं कर सकते हैं। परमेश्वर पृथ्वी पर आकर और मनुष्य के बीच रहकर जो अभिव्यक्त करता है, केवल वही सत्य, जीवन, परमेश्वर की इच्छा, और उसका कार्य करने का वर्तमान तरीक़ा है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, केवल अंत के दिनों का मसीह ही मनुष्य को अनंत जीवन का मार्ग दे सकता है
सत्य जीवन की सर्वाधिक वास्तविक सूक्ति है, और मानवजाति के बीच इस तरह की सूक्तियों में सर्वोच्च है। क्योंकि यही वह अपेक्षा है, जो परमेश्वर मनुष्य से करता है, और यही परमेश्वर द्वारा व्यक्तिगत रूप से किया जाने वाला कार्य है, इसीलिए इसे "जीवन की सूक्ति" कहा जाता है। यह कोई ऐसी सूक्ति नहीं है, जिसे किसी चीज में से संक्षिप्त किया गया है, न ही यह किसी महान हस्ती द्वारा कहा गया कोई प्रसिद्ध उद्धरण है। इसके बजाय, यह स्वर्ग और पृथ्वी तथा सभी चीजों के स्वामी का मानवजाति के लिए कथन है; यह मनुष्य द्वारा किया गया कुछ वचनों का सारांश नहीं है, बल्कि परमेश्वर का अंतर्निहित जीवन है। और इसीलिए इसे "समस्त जीवन की सूक्तियों में उच्चतम" कहा जाता है।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो परमेश्वर को और उसके कार्य को जानते हैं, केवल वे ही परमेश्वर को संतुष्ट कर सकते हैं
सत्य मनुष्य के संसार से आता है, किंतु मनुष्य के बीच सत्य मसीह द्वारा लाया जाता है। यह मसीह से, अर्थात् स्वयं परमेश्वर से उत्पन्न होता है, और यह कुछ ऐसा नहीं है जिसमें मनुष्य समर्थ हो। फिर भी मसीह सिर्फ़ सत्य प्रदान करता है; वह यह निर्णय लेने के लिए नहीं आता है कि मनुष्य सत्य के अपने अनुसरण में सफल होगा या नहीं। इस प्रकार इसका अर्थ है कि सत्य में सफलता या विफलता पूर्णतः मनुष्य के अनुसरण पर निर्भर करती है। सत्य में मनुष्य की सफलता या विफलता का मसीह के साथ कभी कोई लेना-देना नहीं रहा है, बल्कि इसके बजाय यह उसके अनुसरण से निर्धारित होती है। मनुष्य की मंज़िल और उसकी सफलता या विफलता परमेश्वर के मत्थे नहीं मढ़ी जा सकती, ताकि स्वयं परमेश्वर से ही इसका बोझ उठवाया जाए, क्योंकि यह स्वयं परमेश्वर का विषय नहीं है, बल्कि इसका सीधा संबंध उस कर्तव्य से है जो परमेश्वर के सृजित प्राणियों को निभाना चाहिए।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सफलता या विफलता उस पथ पर निर्भर होती है जिस पर मनुष्य चलता है
सत्य सूत्रबद्ध नहीं होता, न ही वह कोई विधि है। वह मृत नहीं है—वह स्वयं जीवन है, वह एक जीवित चीज़ है, और वह वो नियम है, जिसका अनुसरण प्राणी को अपने जीवन में अवश्य करना चाहिए और वह वो नियम है, जो मनुष्य के पास अपने जीवन में अवश्य होना चाहिए। यह ऐसी चीज़ है, जिसे तुम्हें जितना संभव हो, अनुभव के माध्यम से समझना चाहिए। तुम अपने अनुभव की किसी भी अवस्था पर क्यों न पहुँच चुके हो, तुम परमेश्वर के वचन या सत्य से अविभाज्य हो, और जो कुछ तुम परमेश्वर के स्वभाव के बारे में समझते हो और जो कुछ तुम परमेश्वर के स्वरूप के बारे में जानते हो, वह सब परमेश्वर के वचनों में व्यक्त होता है; वह सत्य से अटूट रूप से जुड़ा है। परमेश्वर का स्वभाव और स्वरूप अपने आप में सत्य हैं; सत्य परमेश्वर के स्वभाव और उसके स्वरूप की एक प्रामाणिक अभिव्यक्ति है। वह परमेश्वर के स्वरूप को ठोस बनाता है और उसका स्पष्ट विवरण देता है; वह तुम्हें और अधिक सीधी तरह से बताता है कि परमेश्वर क्या पसंद करता है और वह क्या पसंद नहीं करता, वह तुमसे क्या कराना चाहता है और वह तुम्हें क्या करने की अनुमति नहीं देता, वह किन लोगों से घृणा करता है और वह किन लोगों से प्रसन्न होता है। परमेश्वर द्वारा व्यक्त सत्यों के पीछे लोग उसके आनंद, क्रोध, दुःख और खुशी, और साथ ही उसके सार को देख सकते हैं—यह उसके स्वभाव का प्रकट होना है।
—वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, परमेश्वर का कार्य, परमेश्वर का स्वभाव और स्वयं परमेश्वर III
सत्य सभी सकारात्मक चीज़ों की वास्तविकता है। यह इंसान का जीवन और उसकी यात्रा की दिशा बन सकता है; यह उसके भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने में, परमेश्वर का भय मानने और बुराई को दूर करने में, एक ऐसा व्यक्ति बनने में जो परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी हो तथा जो एक योग्य सृजित प्राणी हो, और जिसे परमेश्वर का प्रेम और अनुग्रह प्राप्त हो, उसकी अगुवाई कर सकता है। इसकी बहुमूल्यता को देखते हुए, परमेश्वर के वचनों और सत्य के प्रति किसी व्यक्ति का क्या दृष्टिकोण और परिप्रेक्ष्य होना चाहिए? यह बिल्कुल स्पष्ट है: जो लोग परमेश्वर में सचमुच विश्वास करते हैं और उसके प्रति एक श्रद्धापूर्ण हृदय रखते हैं, उनके लिए उसके वचन उनके जीवन के प्राण होते हैं। इंसान को परमेश्वर के वचनों को संजोए रखना चाहिए, उन्हें खाना और पीना चाहिए, उनका आनंद लेना चाहिए, और उन्हें अपने जीवन के रूप में, उस दिशा के रूप में जिसमें उसे चलना है, और उसके लिए तैयार उपादान और प्रावधान के रूप में, स्वीकार करना चाहिए; इंसान को सत्य के कथनों और आवश्यकताओं के अनुसार जीना, अभ्यास करना और अनुभव करना चाहिए, सत्य की माँगों के प्रति, उसे प्रदत्त प्रत्येक कथन और अपेक्षा के प्रति, समर्पण करना चाहिए, बजाय इसके कि उसका अध्ययन, विश्लेषण, उस पर अटकलबाज़ी या संदेह किया जाए। चूँकि सत्य इंसान के लिए एक तैयार सहायता, उसका तैयार प्रावधान है, और यह उसका जीवन हो सकता है, उसे सत्य को सबसे अनमोल मानना चाहिए, क्योंकि उसे जीने के लिए, परमेश्वर की माँगों को पूरा करने के लिए, उसका भय मानने और बुराई से दूर रहने के लिए और अपने दैनिक जीवन के भीतर अभ्यास के मार्ग को खोजने के लिए, सत्य पर भरोसा करना चाहिए, उसे अभ्यास के सिद्धांतों को समझना और परमेश्वर के प्रति समर्पित होना चाहिए। इंसान को अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने के लिए भी, एक ऐसा व्यक्ति बनने के लिए जिसे बचाया गया हो और जो एक योग्य सृजित प्राणी हो, सत्य पर भरोसा करना करना चाहिए।
— "मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे सत्य से घृणा, सिद्धांतों का खुले आम उल्लंघन और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं की अवहेलना करते हैं (VII)' से उद्धृत
परमेश्वर स्वयं सत्य धारण किए हुए है, और वह सत्य का स्रोत है। प्रत्येक सकारात्मक वस्तु और प्रत्येक सत्य परमेश्वर से आता है। वह समस्त चीज़ों और घटनाओं के औचित्य एवं अनौचित्य के विषय में न्याय कर सकता है; वह उन चीज़ों का न्याय कर सकता है जो घट चुकी हैं, वे चीज़ें जो अब घटित हो रही हैं और भावी चीज़ें जो कि मनुष्य के लिए अभी अज्ञात हैं। वह सभी चीज़ों के औचित्य एवं अनौचित्य के विषय में न्याय करने वाला एकमात्र न्यायाधीश है, और इसका तात्पर्य यह है कि सभी चीज़ों के औचित्य एवं अनौचित्य के विषय में केवल उसी के द्वारा निर्णय किया जा सकता है। वह सभी चीज़ों के नियम जानता है। यह सत्य का मूर्तरूप है, जिसका आशय यह है कि वह स्वयं सत्य के सारतत्व से युक्त है। यदि मनुष्य सत्य को समझता और पूर्णता हासिल कर लेता, तो क्या उसका सत्य के मूर्त रूप से कोई लेना-देना होता। जब मनुष्य को पूर्ण बनाया जाता है, तो उसके पास परमेश्वर द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कार्य और उसके द्वारा अपेक्षित सभी चीज़ों की सटीक समझ होती है और उसके पास अभ्यास करने का सटीक मार्ग भी होता है; मनुष्य परमेश्वर की इच्छा को भी समझता है और ग़लत सही जानता है। फिर भी कुछ ऐसी चीज़ें होती हैं जिन तक मनुष्य नहीं पहुँच सकता, ऐसी चीज़ें जिनके विषय में वह परमेश्वर के वचनों के द्वारा ही जान सकता है—मनुष्य उन चीज़ों को नहीं जान सकता है जो अभी तक अज्ञात हैं, जिनके बारे में परमेश्वर ने अभी नहीं बताया है, और मनुष्य भविष्यवाणी नहीं कर सकता है। इसके अतिरिक्त, यदि मनुष्य परमेश्वर से सत्य को प्राप्त कर भी ले, और उसे सत्य की वास्तविकता का बोध हो जाये और उसे बहुत से सत्यों के सारतातव का ज्ञान हो जाये, और उसके पास ग़लत सही को बताने की योग्यता हो, तब भी वह सभी चीज़ों पर नियंत्रण व शासन करने योग्य नहीं होगा। यही अंतर है। सृजित जीव केवल सत्य के स्रोत से ही सत्य को प्राप्त सकते हैं। क्या वे मनुष्य से सत्य प्राप्त कर सकते है? क्या मनुष्य सत्य है? क्या मनुष्य सत्य प्रदान कर सकता है? वह ऐसा नहीं कर सकता है और यही अंतर है। तुम केवल सत्य ग्रहण कर सकते हो, इसे प्रदान नहीं कर सकते—क्या तुम्हें सत्य का मूर्तरूप कहा जा सकता है? सत्य का मूर्तरूप होने का वास्तव में क्या सारतत्व है? यह सत्य प्रदान करने वाला स्रोत है, सभी चीज़ों पर शासन और प्रभुता का स्रोत, और इसके अलावा यह वो मानक और नियम है जिसके द्वारा सभी चीज़ों और घटनाओं का आकलन किया जाता है। यही सत्य का मूर्तरूप है।
— "मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे दूसरों से केवल अपना आज्ञापालन करवाएँगे, सत्य या परमेश्वर का नहीं (III)' से उद्धृत
परमेश्वर के वचन परमेश्वर के वचन हैं; परमेश्वर के वचन सत्य हैं। वे नींव और नियम हैं, जिनके अनुसार मानव जाति का अस्तित्व होना चाहिए और मानवता के साथ उत्पन्न होने वाली उन तथाकथित मान्यताओं की परमेश्वर द्वारा निंदा की जाती है। उन्हें परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलती और वे उसके कथनों के मूल या आधार तो बिलकुल नहीं हैं। परमेश्वर अपने वचनों के माध्यम से अपने स्वभाव और अपने सार को व्यक्त करता है। परमेश्वर की अभिव्यक्ति द्वारा लाए गए सभी वचन सत्य हैं, क्योंकि उसमें (परमेश्वर में) परमेश्वर का सार है, और वह सभी सकारात्मक चीजों की वास्तविकता है। भ्रष्ट मानव चाहे परमेश्वर के वचनों को कैसे भी प्रस्तुत या परिभाषित करे, यह तथ्य कभी नहीं बदलता कि परमेश्वर के वचन सत्य हैं, न ही इससे बदलता है कि वह उन्हें कैसे देखता या समझता है। परमेश्वर ने चाहे कितने भी शब्द क्यों न बोले हों, और यह भ्रष्ट, पापी मानव जाति चाहे उनकी कितनी भी निंदा क्यों न करे, उन्हें कितना भी अस्वीकार क्यों न करे, एक तथ्य है जिसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता : इन परिस्थितियों में भी तथाकथित संस्कृति और परंपराएं, जिन्हें मानव जाति महत्व देती है, वे सकारात्मक बातें नहीं बन सकती हैं, सत्य नहीं बन सकती हैं। यह अटल है। मानव जाति की पारंपरिक संस्कृति और अस्तित्व का तरीका परिवर्तनों या समय के अंतराल के कारण सत्य नहीं बन जाएगा, और न ही परमेश्वर के वचन मानव जाति की निंदा या विस्मृति के कारण मनुष्य के शब्द बन जाएंगे। यह सार कभी नहीं बदलेगा; सत्य हमेशा सत्य होता है। यहाँ कौन-सा तथ्य मौजूद है? मानव जाति द्वारा संक्षेप में बताई गई वे सभी बातें जो शैतान से उत्पन्न होती हैं—वे सभी मानवीय कल्पनाएँ और धारणाएँ हैं, यहाँ तक कि मनुष्य के जोश से भी हैं, और सकारात्मक चीजों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। दूसरी ओर, परमेश्वर के वचन, परमेश्वर के सार और हैसियत की अभिव्यक्ति हैं। वह इन वचनों को किस कारण से व्यक्त करता है? मैं क्यों कहता हूँ कि वे सत्य हैं? इसका कारण यह है कि परमेश्वर सभी चीजों के सभी नियमों, सिद्धांतों, जड़ों, सारों, वास्तविकताओं और रहस्यों पर शासन करता है, वे उसकी मुट्ठी में हैं, और एकमात्र परमेश्वर ही उनकी उत्पत्ति जानता है और जानता है कि वास्तव में उनकी जड़ें क्या हैं। इसलिए, परमेश्वर के वचनों में सभी चीजों की जो उल्लिखित परिभाषाएं हैं, बस वही सबसे सही हैं, और परमेश्वर के वचनों में मानव जाति से अपेक्षाएँ मानव जाति के लिए एकमात्र मानक हैं—एकमात्र मापदंड जिसके अनुसार मानव जाति को अस्तित्व में रहना चाहिए। तथापि, जिन नियमों के अनुसार मानव जाति जीती है, एक प्रकार से उनकी व्युत्पत्ति, समस्त वस्तुओं पर परमेश्वर के शासन के तथ्य के उल्लंघन से हुई है, और एक अन्य दृष्टिकोण से उनकी व्युत्पत्ति, समस्त वस्तुओं पर परमेश्वर की संप्रभुता के तथ्य के उल्लंघन से हुई है। वे मनुष्य की कल्पनाओं और धारणाओं से आते हैं और शैतान से भी आते हैं। शैतान किस प्रकार की भूमिका निभाता है? सबसे पहले, शैतान सत्य का भेष धारण करता है; दूसरे, यह परमेश्वर द्वारा सभी चीजों का निर्माण के सभी सिद्धांतों और नियमों को नष्ट कर देता है, उन्हें अस्तव्यस्त करता है, और कुचल डालता है। इस प्रकार, शैतान से निर्गत चीजें, उसके सार से सटीक रूप से मेल खाती हैं और शैतान के गलत इरादों, प्रलोभनों और कपट के साथ-साथ शैतान की कभी समाप्त न होने वाली महत्वाकांक्षा से आती हैं। भ्रष्ट मानव जाति चाहे उन्हें समझ पाये या न समझ पाये, भ्रष्ट मानव जाति चाहे उन्हें जिस हद तक भी स्वीकार करे, और चाहे वह युग जितना भी बड़ा हो जिसके दौरान भ्रष्ट मानव जाति उनकी सराहना और पूजा करती है, और इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि कितने लोग इसका प्रचार करते हैं, पर ये बातें कभी भी सत्य नहीं बन सकतीं। वे कभी सत्य नहीं बनेंगी, और हमेशा नकारात्मक बातें ही बनी रहेंगी, क्योंकि उनका सार, स्रोत और जड़ शैतान है, वह शैतान जो परमेश्वर का शत्रु है और जिसकी सत्य से शत्रुता है। जब अंतर दिखाने हेतु उनकी तुलना करने के लिए कोई सत्य नहीं होता, तो वे यह दिखावा कर सकती हैं कि वे अच्छी हैं और वे सकारात्मक हैं, लेकिन जब उनका विश्लेषण करने और उन्हें उजागर करने के लिए सत्य का उपयोग किया जाता है, तो वे आलोचनीयता से रहित नहीं होती हैं। वे टिक नहीं सकतीं, और वे ऐसी चीजें हैं जो जल्दी ही निंदित, उजागर होकर और किनारे कर दी जाती हैं। परमेश्वर जो सत्य व्यक्त करता है वह परमेश्वर द्वारा सृजित मानव जाति की सामान्य मानवता की आवश्यकताओं के बिलकुल अनुरूप होता है, जबकि जो शैतान मनुष्य को देता है वह उन आवश्यकताओं का पूरी तरह उल्लंघन करती है। यह एक सामान्य व्यक्ति को असामान्य, अति करने वाला, संकुचित विचार वाला, घमंडी, मूर्ख, दुष्ट, कठोर, शातिर और सब से ऊपर, अत्यधिक अहंकारी बनाता है। एक निश्चित बिंदु पर, वह व्यक्ति मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाता है, तब उसे यह भी पता नहीं रहता कि वह कौन है। ऐसे लोग सामान्य व्यक्ति होने से इंकार करते हैं और असामान्य मनुष्यों की तरह कार्य करते हैं; वे साधारण मनुष्य होने से इंकार करते हैं और इसके बजाय श्रेष्ठ मानव बनने पर जोर देते हैं—और इस प्रकार लोगों की मानवता विकृत होती है और इस प्रकार उनकी प्रवृत्ति विकृत हो जाती है। सत्य लोगों को सामान्य मानवता के सिद्धांतों और नियमों के अनुसार स्वाभाविक प्रवृत्ति और परमेश्वर द्वारा निर्देशित सभी सिद्धांतों के अनुरूप जीने में सक्षम बनाता है, जबकि शैतान की ये तथाकथित कहावतें और नियम लोगों के अपनी सहज प्रवृत्ति का उल्लंघन करने और उन कानूनों से बचने का प्रयास करने के कारण बनते हैं जो परमेश्वर द्वारा निर्देशित और निर्धारित किए गए हैं, और यहां तक कि इसके कारण वे सामान्य मानवता के मार्ग तक छोड़ देते है, उचित सीमा से बाहर की उन चीजों को करते हैं, जिन्हें सामान्य मानवता युक्त लोगों को नहीं करना चाहिए और जिनके बारे से उन्हें सोचना भी नहीं चाहिए।
— "मसीह-विरोधियों को उजागर करना" में 'वे अपना कर्तव्य केवल खुद को अलग दिखाने और अपने हितों और महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए निभाते हैं; वे कभी परमेश्वर के घर के हितों की नहीं सोचते, और अपनी व्यक्तिगत महिमा के बदले उन हितों को बेच तक देते हैं (I)' से उद्धृत
सत्य स्वयं परमेश्वर का जीवन है; यह उसके स्वभाव, सार और उसमें निहित हर चीज़ का प्रतिनिधित्व करता है। यदि तुम कहते हो कि थोड़े-से अनुभवों के होने का मतलब सत्य का होना है, तो क्या तुम परमेश्वर के स्वभाव का प्रतिनिधित्व कर सकते हो? तुम्हारे पास कुछ अनुभव हो सकता है, सत्य के किसी निश्चित पहलू या उसके किसी एक पक्ष से संबंधित प्रकाश हो सकता है, लेकिन तुम दूसरों को हमेशा के लिए इसकी आपूर्ति नहीं कर सकते, इसलिए यह जो प्रकाश तुमने प्राप्त किया है, सत्य नहीं है; यह केवल एक मुकाम है जिस तक लोग पहुँच सकते हैं। यह महज़ उचित अनुभव और उचित समझ है, कुछ वास्तविक अनुभव और सत्य का ज्ञान है, जो इंसान में होना चाहिए। यह रोशनी, प्रबोधन और अनुभवजन्य समझ सत्य का स्थान कभी नहीं ले सकते; अगर सभी लोग इस सत्य का अनुभव कर भी लेते और अपनी समस्त अनुभवजन्य समझ को एक साथ जोड़ लेते, तो भी वे उस एक सत्य के बराबर नहीं हो सकते थे। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, "मैं मानव जगत के लिए इस बात को एक कहावत के साथ पूरा करता हूँ : मनुष्यों में, कोई भी ऐसा नहीं जो मुझे प्रेम करता है।" यह सच्चा बयान है; यह जीवन का सच्चा सार है। सभी बातों में यह सबसे गहन है; यह परमेश्वर स्वयं की अभिव्यक्ति है। तुम इसे अनुभव करते रह सकते हो और यदि तुम इसे तीन सालों तक अनुभव करते हो तो तुम्हें इसकी एक सतही समझ प्राप्त होगी; अगर तुम इसे सात या आठ साल तक अनुभव करते हो तो तुम्हें उससे भी अधिक समझ मिलेगी, लेकिन जो भी समझ तुम हासिल करोगे वो कभी भी सत्य के उस एक बयान का स्थान नहीं ले पाएगी। अन्य व्यक्ति, इसका एक-दो साल तक अनुभव करने के बाद, शायद थोड़ी-सी समझ हासिल कर ले, और दस सालों तक अनुभव करने के बाद थोड़ी और गहरी समझ हासिल कर ले, और फिर पूरे जीवनकाल के लिए अनुभव कर ज़्यादा उच्चतर समझ हासिल कर ले—लेकिन यदि तुम दोनों अपने द्वारा हासिल समझ को मिला दो, तो भी—चाहे तुम दोनों के पास कितनी भी समझ, कितने ही अनुभव, कितनी भी अंतर्दृष्टि, कितना भी प्रकाश, या कितने ही उदाहरण हों—ये सब मिलकर सत्य के उस एक कथन का स्थान नहीं ले सकते। दूसरे शब्दों में, मनुष्य का जीवन हमेशा मनुष्य का जीवन होगा, भले ही तुम्हारी समझ सत्य, परमेश्वर के इरादों, उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप हो, लेकिन यह कभी भी सत्य का एक विकल्प नहीं बन पाएगी। यह कहने का अर्थ कि लोगों ने सत्य हासिल कर लिया है, यह है कि उनके पास कुछ वास्तविकता है, और उन्होंने सत्य की कुछ समझ हासिल कर ली है, परमेश्वर के वचनों में कुछ वास्तविक प्रवेश पा लिया है, उन्हें परमेश्वर के वचनों का कुछ वास्तविक अनुभव हो गया है, और परमेश्वर पर अपने विश्वास में वे सही मार्ग पर हैं। किसी व्यक्ति के जीवन भर के अनुभव के लिए परमेश्वर से केवल एक ही बयान पर्याप्त है; लोग कई जीवनकाल या कई हज़ार वर्षों तक का अनुभव करने के बाद भी पूरी तरह और अच्छी तरह से मात्र एक सत्य का अनुभव भी नहीं कर पाएंगे। यदि लोगों ने कुछ ही सतही वचनों को समझा है और फिर भी वे दावा करते हैं कि उन्होंने सत्य हासिल कर लिया है, तो क्या यह पूरी तरह बकवास नहीं होगी?
— "अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'क्या तुम जानते हो कि सत्य वास्तव में क्या है?' से उद्धृत
मेरे वचन सदा-सर्वदा अपरिवर्तनीय सत्य हैं। मैं मनुष्य के लिए जीवन की आपूर्ति और मानव-जाति के लिए एकमात्र मार्गदर्शक हूँ। मेरे वचनों का मूल्य और अर्थ इससे निर्धारित नहीं होता कि उन्हें मानव-जाति द्वारा पहचाना या स्वीकारा जाता है या नहीं, बल्कि स्वयं वचनों के सार द्वारा निर्धारित होता है। भले ही इस पृथ्वी पर एक भी व्यक्ति मेरे वचनों को ग्रहण न कर पाए, मेरे वचनों का मूल्य और मानव-जाति के लिए उनकी सहायता किसी भी मनुष्य के लिए अपरिमेय है। इसलिए ऐसे अनेक लोगों से सामना होने पर, जो मेरे वचनों के खिलाफ विद्रोह करते हैं, उनका खंडन करते हैं, या उनका पूरी तरह से तिरस्कार करते हैं, मेरा रुख केवल यह रहता है : समय और तथ्यों को मेरी गवाही देने दो और यह दिखाने दो कि मेरे वचन सत्य, मार्ग और जीवन हैं। उन्हें यह दिखाने दो कि जो कुछ मैंने कहा है, वह सही है, और वह ऐसा है जिसकी आपूर्ति लोगों को की जानी चाहिए, और इतना ही नहीं, जिसे मनुष्य को स्वीकार करना चाहिए। मैं उन सबको, जो मेरा अनुसरण करते हैं, यह तथ्य ज्ञात करवाऊँगा : जो लोग पूरी तरह से मेरे वचनों को स्वीकार नहीं कर सकते, जो मेरे वचनों का अभ्यास नहीं कर सकते, जिन्हें मेरे वचनों में कोई लक्ष्य नहीं मिल पाता, और जो मेरे वचनों के कारण उद्धार प्राप्त नहीं कर पाते, वे लोग हैं जो मेरे वचनों के कारण निंदित हुए हैं और इतना ही नहीं, जिन्होंने मेरे उद्धार को खो दिया है, और मेरी लाठी उन पर से कभी नहीं हटेगी।
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तुम लोगों को अपने कर्मों पर विचार करना चाहिए
इस बार, परमेश्वर कार्य करने आध्यात्मिक देह में नहीं, बल्कि एकदम साधारण देह में आया है। इसके अलावा, यह न केवल परमेश्वर के दूसरी बार देहधारण का देह है, बल्कि यह वही देह है जिसमें वह लौटकर आया है। यह बिलकुल साधारण देह है। इस देह में तुम ऐसा कुछ नहीं देख सकते जो इसे दूसरों से अलग करता हो, परंतु तुम उससे वह सत्य ग्रहण कर सकते हो जिसके विषय में पहले कभी नहीं सुना गया। यह तुच्छ देह, परमेश्वर के सभी सत्य के वचनों का मूर्त रूप है, जो अंत के दिनों में परमेश्वर के काम की ज़िम्मेदारी लेता है, और मनुष्यों के समझने के लिये परमेश्वर के संपूर्ण स्वभाव को अभिव्यक्त करता है। क्या तुम स्वर्ग के परमेश्वर को देखने की प्रबल अभिलाषा नहीं करते हो? क्या तुम स्वर्ग के परमेश्वर को समझने की प्रबल अभिलाषा नहीं करते हो? क्या तुम मनुष्यजाति के गंतव्य को जानने की प्रबल अभिलाषा नहीं करते हो? वह तुम्हें वो सभी अकल्पनीय रहस्य बतायेगा—वो रहस्य जो कभी कोई इंसान नहीं बता सका, और तुम्हें वो सत्य भी बतायेगा जिन्हें तुम नहीं समझते। वह राज्य में तुम्हारे लिये द्वार है, और नये युग में तुम्हारा मार्गदर्शक है। ऐसी साधारण देह अनेक अथाह रहस्यों को समेटे हुये है। उसके कार्य तुम्हारे लिए गूढ़ हो सकते हैं, परंतु उसके कार्य का संपूर्ण लक्ष्य, तुम्हें इतना बताने के लिये पर्याप्त है कि वह कोई साधारण देह नहीं है, जैसा लोग मानते हैं। क्योंकि वह परमेश्वर की इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है, साथ ही साथ अंत के दिनों में मानवजाति के प्रति परमेश्वर की परवाह को भी दर्शाता है। यद्यपि तुम उसके द्वारा बोले गये उन वचनों को नहीं सुन सकते, जो आकाश और पृथ्वी को कंपाते-से लगते हैं, या उसकी ज्वाला-सी धधकती आंखों को नहीं देख सकते, और यद्यपि तुम उसके लौह दण्ड के अनुशासन का अनुभव नहीं कर सकते, तुम उसके वचनों से सुन सकते हो कि परमेश्वर क्रोधित है, और जान सकते हो कि परमेश्वर मानवजाति पर दया दिखा रहा है; तुम परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और उसकी बुद्धि को समझ सकते हो, और इसके अलावा, समस्त मानवजाति के लिये परमेश्वर की चिंता और परवाह को समझ सकते हो। अंत के दिनों में परमेश्वर के काम का उद्देश्य स्वर्ग के परमेश्वर को मनुष्यों के बीच पृथ्वी पर रहते हुए दिखाना है और मनुष्यों को इस योग्य बनाना है कि वे परमेश्वर को जानें, उसकी आज्ञा मानें, आदर करें, और परमेश्वर से प्रेम करें। यही कारण है कि वह दूसरी बार देह में लौटकर आया है। यद्यपि आज मनुष्य देखता है कि परमेश्वर मनुष्यों के ही समान है, उसकी एक नाक और दो आँखें हैं और वह एक साधारण परमेश्वर है, अंत में परमेश्वर तुम लोगों को दिखाएगा कि अगर यह मनुष्य नहीं होता तो स्वर्ग और पृथ्वी एक अभूतपूर्व बदलाव से होकर गुज़रते; अगर यह मनुष्य नहीं होता तो, स्वर्ग मद्धिम हो जाता, पृथ्वी पर उथल-पुथल हो जाती, समस्त मानवजाति अकाल और महामारियों के बीच जीती। परमेश्वर तुम लोगों को दर्शायेगा कि यदि अंत के दिनों में देहधारी परमेश्वर तुम लोगों को बचाने के लिए नहीं आया होता तो परमेश्वर ने समस्त मानवजाति को बहुत पहले ही नर्क में नष्ट कर दिया होता; यदि यह देह नहीं होता तो तुम लोग सदैव ही कट्टर पापी होते, और तुम हमेशा के लिए लाश बन जाते। तुम सबको यह जानना चाहिये कि यदि यह देह नहीं होता तो समस्त मानवजाति को एक अवश्यंभावी संकट का सामना करना होता, और अंत के दिनों में मानवजाति के लिये परमेश्वर के कठोर दण्ड से बच पाना कठिन होता। यदि इस साधारण शरीर का जन्म नहीं होता तो तुम सबकी दशा ऐसी होती जिसमें तुम लोग जीने में सक्षम न होते हुए जीवन की भीख माँगते और मृत्यु के लिए प्रार्थना करते लेकिन मर न पाते; यदि यह देह नहीं होता तो तुम लोग सत्य को नहीं पा सकते थे और न ही आज परमेश्वर के सिंहासन के पास आ पाते, बल्कि तुम लोग परमेश्वर से दण्ड पाते क्योंकि तुमने जघन्य पाप किये हैं। क्या तुम सब जानते हो, यदि परमेश्वर का वापस देह में लौटा न होता, तो किसी को भी उद्धार का अवसर नहीं मिलता; और यदि इस देह का आगमन न होता, तो परमेश्वर ने बहुत पहले पुराने युग को समाप्त कर दिया होता? अब जबकि यह स्पष्ट है, क्या तुम लोग अभी भी परमेश्वर के दूसरी बार के देहधारण को नकार सकते हो? जब तुम लोग इस साधारण मनुष्य से इतने सारे लाभ प्राप्त कर सकते हो, तो तुम लोग उसे प्रसन्नतापर्वूक स्वीकार क्यों नहीं करते हो?
—वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, क्या तुम जानते थे? परमेश्वर ने मनुष्यों के बीच एक महान काम किया है
परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?