परमेश्वर लोगों का परिणाम कैसे तय करता है इसके बारे में वचन

अंश 77

कुछ लोगों में बहुत कम काबिलियत होती है और वे सत्य से प्रेम नहीं करते। सत्य के बारे में चाहे कैसे भी संगति की जाए वे उस पर खरे नहीं उतरते। वे वर्षों से परमेश्वर में विश्वास करते आए हैं, लेकिन अब भी किसी वास्तविक अनुभवजन्य समझ के बारे में बात नहीं कर सकते। इसलिए वे तय कर लेते हैं कि वे परमेश्वर के पूर्वनिर्दिष्ट, चुने हुए लोगों में से नहीं हैं और वे परमेश्वर द्वारा बचाए नहीं जा सकते चाहे वे कितने भी वर्षों तक उसमें विश्वास करते रहें। वे अपने दिल में यह मानते हैं कि “सिर्फ परमेश्वर द्वारा पूर्व-निर्दिष्ट और चुने हुए लोग ही बचाए जा सकते हैं, और जिनकी काबिलियत बहुत कम है और जो सत्य समझने में असमर्थ हैं वे परमेश्वर के पूर्वनिर्दिष्ट, चुने हुए लोगों में से नहीं हैं; अगर वे विश्वास करते भी हैं तो भी उन्हें बचाया नहीं जा सकता।” उन्हें लगता है कि परमेश्वर लोगों का परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहार के आधार पर निर्धारित नहीं करता। अगर तुम्हारी यही सोच है तो तुम परमेश्वर को बहुत गलत समझते हो। अगर परमेश्वर सचमुच ऐसा करता तो क्या वह धार्मिक होगा? परमेश्वर लोगों का परिणाम एक ही सिद्धांत के आधार पर निर्धारित करता है : अंत में लोगों का परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहार के आधार पर निर्धारित किया जाएगा। अगर तुम परमेश्वर का धार्मिक स्वभाव नहीं देख सकते और हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हो और उसकी इच्छाओं को इतना विकृत कर देते हो कि हमेशा निराश और हताश रहते हो, तो क्या यह जख्म तुमने खुद ही अपने आप को नहीं दिया है? अगर तुम यह नहीं समझते कि परमेश्वर का पूर्व-निर्धारण कैसे काम करता है तो तुम्हें परमेश्वर से उसके वचनों में सत्य तलाश करना चाहिए और आँख मूँदकर यह तय नहीं कर लेना चाहिए कि तुम उसके पूर्व-निर्दिष्ट, चुने हुए लोगों में से नहीं हो। यह परमेश्वर के बारे में एक गंभीर गलतफहमी है! तुम परमेश्वर के कार्य के बारे में बिल्कुल नहीं जानते और उसके इरादे नहीं समझते, परमेश्वर के छह हजार वर्षों के प्रबंधन-कार्य के पीछे के कष्टसाध्य इरादों को तो बिल्कुल भी नहीं समझते। तुम खुद पर भरोसा छोड़ देते हो, परमेश्वर के बारे में अटकलें लगाते हो और उस पर संदेह करते हो, डरते हो कि तुम एक सेवाकर्ता हो जिसे उसकी सेवा समाप्त होने के बाद हटा दिया जाएगा और हमेशा सोचते रहते हो कि “मुझे अपना कर्तव्य क्यों निभाना चाहिए? क्या मैं अपना कर्तव्य निभाकर सेवकाई कर रहा हूँ? अगर मेरी सेवा समाप्त होने के बाद मुझे हटा दिया गया तो मैं किसी चाल में तो नहीं फँस जाऊँगा?” तुम इस सोच से क्या समझते हो? क्या तुम इसका भेद पहचान सकते हो? तुम हमेशा परमेश्वर को गलत समझते हो, उसे दुनिया में शासन करने वाले दानव राजाओं की श्रेणी में रखते हो, उससे अपना हृदय बचा कर रखते हो और हमेशा सोचते हो कि वह भी मनुष्यों की तरह ही स्वार्थी और घृणित है। तुम कभी विश्वास नहीं करते कि वह मानवजाति से प्रेम करता है और तुम मानवजाति को बचाने में निहित उसकी निष्ठा में कभी विश्वास नहीं करते। अगर तुम हमेशा खुद का एक सेवाकर्ता के रूप में निरूपण करते हो और अपनी सेवकाई करने के बाद हटाए जाने से डरते हो तो तुम्हारी मानसिकता छद्म-विश्वासियों वाली कपटी मानसिकता है। गैर-विश्वासी परमेश्वर में विश्वास नहीं करते क्योंकि वे नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर है, न ही वे यह स्वीकारते हैं कि परमेश्वर का वचन सत्य है। यह देखते हुए कि तुम परमेश्वर में विश्वास करते हो, तो फिर तुम्हारी उस में आस्था क्यों नहीं है? तुम यह क्यों नहीं स्वीकारते कि परमेश्वर का वचन सत्य है? तुम अपना कर्तव्य निभाने के इच्छुक नहीं हो, सत्य का अभ्यास करने के लिए तुम कोई कष्ट नहीं उठाते और नतीजतन, परमेश्वर में कई वर्षों से आस्था होने के बावजूद तुमने अभी तक सत्य प्राप्त नहीं किया है; और इन सबके बावजूद तुम अंत में यह कहते हुए परमेश्वर पर दोष मढ़ देते हो कि उसने तुम्हें पूर्व-निर्दिष्ट नहीं किया है, कि वह तुम्हारे प्रति निष्ठावान नहीं रहा है। यह कौन-सी समस्या है? तुम परमेश्वर की इच्छाओं को गलत समझते हो, तुम उसके वचनों पर विश्वास नहीं करते और अपना कर्तव्य निभाते हुए तुम सत्य को अभ्यास में नहीं लाते हो और समर्पित नहीं हो। तुम परमेश्वर के इरादे कैसे संतुष्ट कर सकते हो? तुम पवित्र आत्मा का कार्य कैसे प्राप्त कर सकते हो और सत्य कैसे समझ सकते हो? ऐसे लोग सेवाकर्ता बनने के योग्य भी नहीं होते तो वे परमेश्वर के साथ मोल-भाव करने के योग्य कैसे हो सकते हैं? अगर तुम्हें लगता है कि परमेश्वर धार्मिक नहीं है तो तुम उस में विश्वास क्यों करते हो? तुम हमेशा यह चाहते हो कि इससे पहले कि तुम परमेश्वर के घर के लिए परिश्रम करो, परमेश्वर तुमसे व्यक्तिगत रूप से कहे कि “तुम राज्य के लोगों में से हो; यह स्थिति कभी नहीं बदलेगी,” और अगर वह नहीं कहता तो तुम कभी उसे अपना दिल नहीं दोगे। ऐसे लोग कितने विद्रोही और अड़ियल होते हैं! मैं देखता हूँ कि ऐसे बहुत-से लोग हैं जो कभी अपने स्वभाव बदलने पर ध्यान केंद्रित नहीं करते, सत्य का अभ्यास करने पर तो बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते। उनका ध्यान हमेशा यह पूछने पर ही रहता है कि क्या उन्हें एक अच्छी मंजिल मिल पाएगी, परमेश्वर उनके साथ कैसा व्यवहार करेगा, क्या उसने उन्हें अपने लोगों के रूप में पूर्वनिर्दिष्ट किया है और ऐसी ही अन्य सुनी-सुनाई बातें। ऐसे लोग जो अपना उचित कार्य नहीं करते, सत्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं? वे परमेश्वर के घर में कैसे रह सकते हैं? अब, मैं तुम लोगों को गंभीरतापूर्वक बताता हूँ : हालाँकि कोई व्यक्ति पूर्वनिर्दिष्ट हो सकता है, लेकिन अगर वह सत्य नहीं स्वीकार सकता और परमेश्वर के प्रति समर्पण प्राप्त करने के लिए उसे अभ्यास में नहीं ला सकता तो हटाया जाना ही उसका अंतिम परिणाम होगा। सिर्फ वे ही लोग जो निष्ठापूर्वक परमेश्वर के लिए खपते हैं और अपनी पूरी शक्ति से सत्य को अभ्यास में लाते हैं, जीवित रहने और परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने में सक्षम होंगे। हालाँकि दूसरे लोग उन्हें ऐसे व्यक्ति समझ सकते हैं जिनका बने रहना पूर्व-निर्दिष्ट नहीं है, फिर भी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के कारण उनके पास उन कथित पूर्व-निर्दिष्ट लोगों से बेहतर मंजिल होगी जो कभी परमेश्वर के प्रति वफादार नहीं रहे। क्या तुम इन वचनों पर विश्वास करते हो? अगर तुम इन वचनों पर विश्वास नहीं कर सकते और अपना हठपूर्वक भटकना जारी रखते हो तो, मैं तुम्हें बताता हूँ, तुम निश्चित रूप से जीवित नहीं रह पाओगे क्योंकि तुम परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखने वाले या सत्य से प्रेम करने वाले व्यक्ति नहीं हो। चूँकि ऐसा है इसलिए परमेश्वर की पूर्वनियति महत्वपूर्ण नहीं है। मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ क्योंकि अंत में परमेश्वर लोगों के परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों और व्यवहार के आधार पर निर्धारित करेगा, जबकि परमेश्वर की पूर्वनियति एक छोटी-सी भूमिका निष्पक्ष रूप से निभाती है, प्रमुख भूमिका नहीं। क्या तुम इसे समझते हो?

कुछ लोग कहते हैं : “मेरा स्वभाव खराब है और मैं इसे बदल नहीं सकता, चाहे मैं इसका कितना भी प्रयास करूँ। इसलिए मैं प्रकृति को अपना काम करने दूँगा। अगर मैं अपने अनुसरण में सफल नहीं हो पाता, तो इस बारे में कुछ नहीं किया जा सकता।” ऐसे लोग बेहद नकारात्मक होते हैं, यहाँ तक कि उन्होंने अपने पर प्रयास करने छोड़ दिए हैं। ये लोग उद्धार से परे हैं। क्या तुमने प्रयास किया है? अगर तुमने सचमुच प्रयास किया है और तुम पीड़ा सहने के इच्छुक हो तो भला तुम देह के खिलाफ विद्रोह क्यों नहीं कर सकते? क्या तुम दिल और दिमाग वाले व्यक्ति नहीं हो? तुम प्रतिदिन कैसे प्रार्थना करते हो? क्या तुम सत्य नहीं खोजोगे और परमेश्वर पर भरोसा नहीं करोगे? तुम्हारे लिए प्रकृति को अपना काम करने देने का अर्थ है निष्क्रिय रूप से प्रतीक्षा करना, न कि सक्रिय रूप से सहयोग करना। इस रूप में प्रकृति को अपना काम करने देना यह कहने के समान है, “मुझे कुछ करने की जरूरत नहीं है; कुछ भी हो, सब कुछ परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित है।” क्या सचमुच यही परमेश्वर का इरादा है? अगर नहीं, तो अक्सर नकारात्मक और अपना कर्तव्य निभाने में असमर्थ होने के बजाय तुम परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित क्यों नहीं होते? थोड़ा-सा अपराध कर देने पर कुछ लोग अंदाजा लगाते हैं : “क्या परमेश्वर ने मुझे प्रकट कर हटा दिया है? क्या वह मुझे मार गिराएगा?” इस बार परमेश्वर लोगों को मार गिराने के लिए नहीं, बल्कि यथासम्भव अधिकतम सीमा तक उन्हें बचाने के लिए कार्य करने आया है। कोई भी त्रुटिहीन नहीं है—अगर सबको मार गिरा दिया जाए तो क्या यह “उद्धार” होगा? कुछ अपराध जानबूझकर किए जाते हैं, जबकि अन्य अपराध अनिच्छा से होते हैं। जो चीजें तुम अनिच्छा से करते हो उन्हें पहचान लेने के बाद अगर तुम बदल सकते हो तो क्या परमेश्वर तुम्हारे ऐसा करने से पहले तुम्हें मार गिराएगा? क्या परमेश्वर इस तरह से लोगों को बचाएगा? वह इस तरह काम नहीं करता! चाहे तुम्हारा विद्रोही स्वभाव हो या तुमने अनिच्छा से कार्य किया हो, यह याद रखो : तुम्हें आत्मचिंतन कर खुद को जानना चाहिए। तुरंत खुद को बदलो और अपनी पूरी ताकत से सत्य के लिए प्रयास करो—और, चाहे कैसी भी परिस्थितियाँ क्यों न आएँ, खुद को निराशा में न पड़ने दो। परमेश्वर मनुष्य के उद्धार का कार्य कर रहा है और वह जिन्हें बचाना चाहता है, उन पर यूँ ही मनमाने ढंग से प्रहार नहीं करेगा। यह निश्चित है। भले ही वास्तव में परमेश्वर का ऐसा कोई विश्वासी हो जिसे उसने अंत में मार गिराया हो, फिर भी जो कुछ परमेश्वर करता है, उसके धार्मिक होने की गारंटी होगी। समय पर वह तुम्हें जानने देगा कि उसने उस व्यक्ति को क्यों मार गिराया, ताकि तुम पूरी तरह कायल हो जाओ। अभी बस सत्य के लिए प्रयास करो, जीवन-प्रवेश पर ध्यान केंद्रित करो और अपने कर्तव्य के अच्छे प्रदर्शन का अनुसरण करो। इसमें कोई गलती नहीं है! चाहे परमेश्वर अंत में तुम्हें कैसे भी सँभाले, उसके धार्मिक होने की गारंटी है; तुम्हें इस पर संदेह नहीं करना चाहिए, और तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है। भले ही तुम परमेश्वर की धार्मिकता को इस समय नहीं समझ सकते, लेकिन एक दिन आएगा जब तुम कायल हो जाओगे। परमेश्वर न्यायपूर्वक और सम्मानपूर्वक कार्य करता है; वह खुलकर हर चीज प्रकट करता है। अगर तुम लोग इस पर ध्यान से विचार करो, तो तुम दिल से महसूस किए जाने वाले इस निष्कर्ष पर पहुँचोगे कि परमेश्वर का कार्य लोगों को बचाना और उनके भ्रष्ट स्वभावों को पूरी तरह बदलना है। यह देखते हुए कि परमेश्वर का कार्य लोगों के भ्रष्ट स्वभाव बदलने का कार्य है, यह असंभव है कि लोगों में भ्रष्टता का प्रकटीकरण न हो। भ्रष्ट स्वभाव के इन प्रकटीकरणों में ही लोग स्वयं को जान सकते हैं, यह स्वीकार सकते हैं कि उनका स्वभाव भ्रष्ट है और परमेश्वर का उद्धार प्राप्त करने के इच्छुक हो सकते हैं। अगर लोग भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर चुकने के बाद कोई सत्य नहीं स्वीकारते और अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीना जारी रखते हैं तो उनके द्वारा परमेश्वर के स्वभाव को नाराज की संभावना होगी। परमेश्वर उन्हें विविध मात्रा में प्रतिफल देगा और वे अपने अपराधों की कीमत चुकाएँगे। अगर तुम कभी-कभी अनजाने में ही लम्पट हो जाते हो और परमेश्वर तुम्हें इसका संकेत देता है और तुम्हारी काट-छाँट करता है और तुम बदलकर बेहतर हो जाते हो तो परमेश्वर इसके लिए दंड नहीं देगा। यह स्वभाव-परिवर्तन की सामान्य प्रक्रिया है, और उद्धार के कार्य का वास्तविक महत्व इस प्रक्रिया में प्रकट होता है। यह कुंजी है। उदाहरण के तौर पर, महिलाओं और पुरुषों के बीच सीमाएँ रखने के मुद्दे पर बात करते हैं, मान लो तुम किसी के प्रति आकर्षित हो, हमेशा उसके साथ बातचीत करना चाहते हो, उसे सम्मोहक शब्द कहते हो। बाद में तुम विचार करते हो, “क्या यह अश्लील व्यवहार नहीं है? क्या यह पाप नहीं है? क्या महिलाओं और पुरुषों के बीच सीमा स्पष्ट न रखना परमेश्वर का अनादर करना नहीं है? मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ?” यह एहसास होने के बाद तुम जल्दी से परमेश्वर के सामने जाकर प्रार्थना करते हो, “हे परमेश्वर! मैंने फिर से पाप किया है। यह घिनौना और वास्तव में शर्मनाक है। मुझे भ्रष्ट देह से नफरत है। तुम मुझे अनुशासित करो और दंड दो।” तुम भविष्य में ऐसी चीजों से दूर रहने और विपरीत लिंग से अकेले संपर्क न करने का संकल्प लेते हो। क्या यह बदलाव नहीं होगा? और इस तरह से बदलने के बाद तुम्हारे पिछले कदाचारों को दोषी नहीं ठहराया जाएगा। अगर तुम किसी के साथ बातचीत करते हो और उसे फुसलाते हो, और तुम्हें नहीं लगता कि यह शर्मनाक चीज है, खुद से नफरत करना, खुद को सावधान करना, देह के विरुद्ध विद्रोह करने का संकल्प या परमेश्वर के सामने अपने पाप कबूलकर पश्चात्ताप करना तो दूर की बात है, तो तुम और कई दुष्कर्म कर सकते हो और चीजें बद से बदतर होती जाएँगी जिससे तुम पाप की ओर अग्रसर हो जाओगे। अगर तुम ऐसा करते हो तो परमेश्वर तुम्हारी निंदा करेगा। अगर तुम बार-बार पाप करते हो तो यह जानबूझकर किया गया पाप है। परमेश्वर जानबूझकर किए गए पाप की निंदा करता है और जानबूझकर किया गया पाप मुक्ति के योग्य नहीं है। अगर तुम सचमुच कुछ भ्रष्ट स्वभावों को प्रकट करने से खुद को नहीं रोक सकते, और तुम वास्तव में पश्चात्ताप कर सकते हो, देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो और सत्य का अभ्यास कर सकते हो तो परमेश्वर इसके लिए तुम्हारी निंदा नहीं करेगा और तुम अब भी बचाए जा सकते हो। परमेश्वर का कार्य मनुष्य को बचाने के लिए है और जो कोई अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करता है उसे काट-छाँट, न्याय और ताड़ना स्वीकारनी चाहिए। अगर वह सत्य स्वीकार सकता है, पश्चात्ताप कर सकता है और बदल सकता है तो क्या इससे परमेश्वर के इरादे संतुष्ट नहीं हो जाएँगे? कुछ लोग सत्य नहीं स्वीकारते और परमेश्वर के प्रति हमेशा सतर्क रहने का रवैया अपनाते हैं। ऐसे लोगों के पास जीवन प्रवेश नहीं होता और अंत में उन सभी को नुकसान उठाने पड़ेंगे।

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, अतीत की घटनाएँ एक झटके में साफ की जा सकती हैं; अतीत के स्थान पर भविष्य को लाया जा सकता है; परमेश्वर की सहनशीलता समुद्र के समान असीम है। लेकिन इन वचनों में सिद्धांत भी निहित हैं। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे द्वारा किए गए किसी भी पाप को मिटा देगा, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो। परमेश्वर अपना सारा कार्य सिद्धांतों के साथ करता है। इस मुद्दे को हल करने के लिए अतीत में एक प्रशासनिक आदेश दिया गया था : परमेश्वर व्यक्ति के अपना नाम स्वीकारने से पहले किए गए सारे पाप माफ और क्षमा कर देता है। लेकिन जो लोग उसमें विश्वास करने के बाद भी पाप करते रहते हैं, उनके लिए यह एक अलग कहानी होती है : जो एक बार पाप दोहराता है उसे पश्चात्ताप करने का मौका दिया जाता है, जबकि इसे दो बार दोहराने वालों या बार-बार की फटकारों के बावजूद बदलने से इनकार करने वालों को पश्चात्ताप करने का कोई और मौका दिए बिना निष्कासित कर दिया जाता है। परमेश्वर हमेशा अपने कार्य में लोगों के साथ यथासंभव अधिकतम सीमा तक सहनशील रहता है। इसमें यह देखा जा सकता है कि परमेश्वर का कार्य वास्तव में लोगों को बचाने का कार्य है। लेकिन अगर कार्य के इस अंतिम चरण में तुम अभी भी अक्षम्य पाप करते हो तो तुम वास्तव में उद्धार से परे हो और तुम्हें बचाया नहीं जा सकता। लोगों के भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध करने और बदलने के लिए परमेश्वर के पास एक प्रक्रिया है : मनुष्य द्वारा उसकी भ्रष्ट प्रकृति के सतत प्रकाशन की प्रक्रिया में ही परमेश्वर मनुष्य को शुद्ध कर बचाने का अपना लक्ष्य प्राप्त करता है। कुछ लोग सोचते हैं : “चूँकि यह मेरी प्रकृति है, इसलिए इसे पूरा उजागर होने दो। एक बार इसके उजागर हो जाने पर मैं इसे जानूँगा और सत्य को अभ्यास में लाऊँगा।” क्या यह प्रक्रिया आवश्यक है? अगर तुम वाकई सत्य का अभ्यास करने वाले व्यक्ति हो और जब तुम देखते हो कि दूसरों में कौन-सी भ्रष्टताएँ प्रकट होती हैं और उन्होंने कौन-सी गलत चीजें की हैं तो तुम आत्म-चिंतन करते हो और जब वही समस्याएँ खुद में देखते हो तो उन्हें तुरंत ठीक कर लेते हो और भविष्य में वे चीजें कभी नहीं करते तो क्या यह अप्रत्यक्ष परिवर्तन नहीं है? या अगर तुम कभी-कभी कुछ करना चाहते हो लेकिन पहले ही महसूस कर लेते हो कि यह गलत है और तुम देह के विरुद्ध विद्रोह कर सकते हो तो क्या इससे भी शुद्धिकरण जैसा ही प्रभाव नहीं होता है? किसी भी पहलू में सत्य का अभ्यास करने के लिए बार-बार होने वाली प्रक्रियाओं से गुजरने की जरूरत होती है। ऐसा नहीं है कि एक बार सत्य का अभ्यास करने के बाद भ्रष्ट स्वभाव पूरी तरह से गायब हो जाएगा। भ्रष्ट स्वभाव का पूरी तरह से समाधान होने से पहले व्यक्ति को बार-बार सत्य खोजना चाहिए, काट-छाँट, दंड और अनुशासन से बार-बार गुजरना चाहिए, साथ ही न्याय और ताड़ना से भी बार-बार गुजरना चाहिए ताकि उसे फिर से सत्य का अभ्यास करने में कोई कठिनाई न हो। अगर व्यक्ति काट-छाँट, न्याय और ताड़ना किए जाने के बाद पूरी तरह से परमेश्वर के इरादों के अनुसार सत्य का अभ्यास करने में सक्षम हो जाता है और परमेश्वर के प्रति सच्चा समर्पण रखता है तो यह उसके स्वभाव में बदलाव है।

अंश 78

अंत के दिनों के अपने कार्य में परमेश्वर लोगों की अभिव्यक्तियों के आधार पर उनके परिणाम निर्धारित करता है। क्या तुम लोग जानते हो कि यहाँ “अभिव्यक्तियाँ” क्या दर्शाती हैं? तुम्हें लगता होगा कि ये उन भ्रष्ट स्वभावों को दर्शाती हैं जिन्हें लोग चीजें करते हुए प्रकट करते हैं, लेकिन असल में इसका यह मतलब नहीं है। यहाँ अभिव्यक्तियाँ दर्शाती हैं कि तुम सत्य का अभ्यास करते हो कि नहीं; अपना कर्तव्य निभाते समय तुम समर्पित हो या नहीं; परमेश्वर पर विश्वास करने के पीछे तुम्हारा दृष्टिकोण, परमेश्वर के प्रति तुम्हारा रवैया, कष्ट सहने का तुम्हारा संकल्प कैसा है; न्याय, ताड़ना और काट-छाँट स्वीकारने को लेकर तुम्हारा रवैया क्या है; तुम्हारे किए गंभीर अपराधों की संख्या क्या है; और तुम आखिर किस हद तक पश्चात्ताप कर पाते हो और खुद में बदलाव ला पाते हो। ये सभी चीजें मिलकर तुम्हारी अभिव्यक्तियाँ बनती हैं। यहाँ अभिव्यक्तियाँ यह नहीं दर्शातीं कि तुमने कितने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किए या कितनी खराब चीजें की हैं, बल्कि इसका मतलब यह है कि तुम्हें अपनी आस्था में कितने नतीजे मिल चुके हैं और तुम खुद में कितना सच्चा बदलाव लाए हो। यदि लोगों के परिणाम इस से निर्धारित किए जाते कि उनकी प्रकृति में कितनी ज्यादा भ्रष्टता प्रकट होती है तो कोई भी उद्धार प्राप्त नहीं कर पाता क्योंकि सारे मनुष्य गहराई तक भ्रष्ट हैं, सबमें शैतानी प्रकृति है और वे सब परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। परमेश्वर उन लोगों को बचाना चाहता है जो सत्य को स्वीकार और उसके कार्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं। वे चाहे जितनी भ्रष्टता प्रकट करें, अगर वे अंततः सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, सच्चा पश्चात्ताप कर सकते हैं और खुद में सच्चा बदलाव ला सकते हैं तो वे ऐसे लोग हैं जिन्हें परमेश्वर द्वारा बचाया जाता है। कुछ लोग इसकी असलियत नहीं जान सकते हैं और सोचते हैं कि जो कोई भी अगुआ के रूप में कार्य करता है वह अपने भ्रष्ट स्वभाव और अधिक प्रकट करेगा और जो कोई अधिक भ्रष्टता प्रकट करेगा वह निश्चित रूप से हटा दिया जाएगा और नहीं ही बचेगा। क्या यह दृष्टिकोण सही है? यूँ तो अगुआ अधिक भ्रष्टता प्रकट करते हैं, लेकिन अगर वे सत्य का अनुसरण करते हैं तो वे परमेश्वर के न्याय और ताड़ना का अनुभव करने योग्य हैं, वे बचाए जाने और पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चलना शुरू कर सकते हैं और वे अंततः परमेश्वर की एक सुंदर गवाही दे पाएँगे। ये वे लोग हैं जो सचमुच बदल गए हैं। यदि लोगों के परिणाम इस आधार पर निर्धारित किए जाते कि वे कितने भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं तो जो अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में कार्य करते हैं, उनका जल्दी खुलासा हो जाता। अगर मामला यह होता तो अगुआ या कार्यकर्ता बनने की हिम्मत कौन करता? कौन परमेश्वर द्वारा उपयोग किए जाने और पूर्ण बनाए जाने के मुकाम तक पहुँच पाता? क्या यह दृष्टिकोण बहुत ही बेहूदा नहीं है? परमेश्वर मुख्य रूप से यह देखता है कि क्या लोग सत्य को स्वीकार कर उसका अभ्यास कर सकते हैं, क्या वे अपनी गवाही पर दृढ़ रह सकते हैं और क्या वे वास्तव में बदल गए हैं। यदि लोगों के पास सच्ची गवाही है और उनमें सच्चा परिवर्तन आ चुका है तो परमेश्वर उन्हें स्वीकृति देता है। कुछ लोग बहुत ही कम भ्रष्टता प्रकट करते लगते हैं लेकिन उनके पास सच्ची अनुभवजन्य गवाही नहीं होती और वे सचमुच नहीं बदले हैं। परमेश्वर उन्हें स्वीकृति नहीं देता है।

परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम उसकी अभिव्यक्तियों और सार के आधार पर निर्धारित करता है। यहाँ अभिव्यक्तियों से तात्पर्य यह है कि क्या कोई व्यक्ति परमेश्वर के प्रति वफादार है, क्या उसमें परमेश्वर के प्रति प्रेम है, क्या वह सत्य का अभ्यास करता है और उसका स्वभाव किस हद तक बदला है। इन अभिव्यक्तियों और व्यक्ति के सार के आधार पर ही परमेश्वर उसका परिणाम निर्धारित करता है, न कि इस आधार पर कि वह अपना भ्रष्ट स्वभाव कितना प्रकट करता है। अगर तुम्हें यह लगता है कि परमेश्वर किसी व्यक्ति का परिणाम इस आधार पर निर्धारित करता है कि वह कितनी भ्रष्टता प्रकट करता है तो तुमने उसके इरादों की गलत व्याख्या की है। वास्तव में, लोगों में एक जैसा भ्रष्ट सार होता है, अंतर केवल इस बात में निहित होता है कि उनकी मानवता अच्छी है कि खराब और क्या वे सत्य को स्वीकार कर सकते हैं। चाहे तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव कितना भी प्रकट करते हो, परमेश्वर सबसे अच्छी तरह जानता है कि तुम्हारे दिल की गहराई में क्या है। तुम्हें इसे छिपाने की कोई जरूरत नहीं है। परमेश्वर लोगों के दिलों की गहराइयों को परखता है। चाहे यह कुछ ऐसा है जिसे तुम दूसरों के सामने या उनकी निगाहों से हटकर करते हो या तुम इसे मन ही मन करना चाहते हो, परमेश्वर के सामने यह सब कुछ खुला होता है। लोग गुप्त रूप से क्या करते हैं, इसकी जानकारी परमेश्वर को भला कैसे नहीं होगी? क्या यह आत्म-भ्रम नहीं है? सच में तो किसी व्यक्ति की प्रकृति चाहे कितनी भी कपटपूर्ण हो, चाहे वह कितने ही झूठ बोले, चाहे वह छद्मवेश ओढ़ने और दूसरों को धोखा देने में कितना भी कुशल हो, परमेश्वर सब कुछ बखूबी जानता है। परमेश्वर अगुआओं और कार्यकर्ताओं को इतनी अच्छी तरह से जानता है तो क्या वह अपने सामान्य अनुयायियों को भी उतनी ही अच्छी तरह नहीं जानेगा? कुछ लोग सोचते हैं, “जो भी अगुआ के रूप में कार्य करता है वह मूर्ख और अज्ञानी है और खुद अपने विनाश को आमंत्रित कर रहा है, क्योंकि कोई व्यक्ति जब एक अगुआ के रूप में कार्य करता है तो वह परमेश्वर के सामने अपरिहार्य रूप से भ्रष्टता प्रकट करता है। अगर वे यह कार्य न करें तो क्या इतनी अधिक भ्रष्टता प्रकट होगी?” कितना बेहूदा विचार है! क्या तुम्हें यह लगता है कि यदि तुम एक अगुआ के रूप में कार्य न करो तो तुम भ्रष्टता प्रकट नहीं करोगे? भले ही तुम कम भ्रष्टता प्रकट करते हो तो क्या अगुआ न होने का मतलब यह है कि तुम बचा लिए जाओगे? इस तर्क के अनुसार चलें तो क्या वे सभी जो अगुआओं के रूप में सेवा नहीं करते, जीवित रह सकते हैं और बचाए जा सकते हैं? क्या यह कथन बहुत बेहूदा नहीं है? जो लोग अगुआओं के रूप में सेवा करते हैं वे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को परमेश्वर के वचन खाने-पीने और परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने का मार्गदर्शन देते हैं। यह अपेक्षित मानक उन्नत है, इसलिए यह अपरिहार्य है कि जब अगुआ पहली बार प्रशिक्षण शुरू करेंगे तो वे कुछ भ्रष्ट दशाएँ प्रकट करेंगे। यह सामान्य है और परमेश्वर इसकी निंदा नहीं करता। इसकी निंदा करना तो दूर रहा, परमेश्वर इन लोगों को प्रबुद्ध, रोशन और उनका मार्गदर्शन भी करता है और उन्हें और अधिक बोझ प्रदान करता है। अगर वे परमेश्वर के मार्गदर्शन और कार्य के प्रति समर्पण कर सकते हैं तो वे जीवन में सामान्य लोगों की तुलना में अधिक तेजी से प्रगति करेंगे। यदि वे सत्य खोजते हैं तो वे परमेश्वर द्वारा पूर्ण बनाए जाने के मार्ग पर चल सकते हैं। यही वह चीज है जिस पर परमेश्वर का सबसे अधिक आशीष होता है। कुछ लोग इसे देख नहीं पाते हैं और तथ्यों को तोड़-मरोड़ तक देते हैं। उनकी समझ के अनुसार, अगुआई की भूमिकाओं में लोग चाहे कितने ही बदल जाएँ, परमेश्वर इसे नहीं देखेगा और वह केवल यह इस पर निगाह डालेगा कि अगुआ और कार्यकर्ता कितनी भ्रष्टता प्रकट करते हैं और अकेले इस आधार पर उनकी निंदा करेगा; और जो लोग अगुआ और कार्यकर्ता नहीं हैं वे चूँकि बहुत कम भ्रष्टता प्रकट करते हैं, इसलिए चाहे वे खुद को न भी बदलें तो भी परमेश्वर उनकी निंदा नहीं करेगा। क्या यह बेतुकी बात नहीं है? क्या यह परमेश्वर की ईशनिंदा नहीं है? यदि तुम अपने हृदय में इतनी गंभीरता से परमेश्वर का प्रतिरोध करते हो तो क्या तुम्हें बचाया जा सकता है? तुम्हें नहीं बचाया जा सकता। परमेश्वर लोगों के परिणाम मुख्य रूप से इस आधार पर निर्धारित करता है कि क्या उनके पास सत्य और सच्ची गवाही है और यह मुख्य रूप से इस पर निर्भर करता है कि क्या वे सत्य खोजते हैं। यदि कोई सत्य का अनुसरण करता है तो अपराध करने और न्याय और ताड़ना का सामना करने पर भी वह सचमुच पश्चात्ताप कर सकता है। जब तक वह ऐसे ढंग से नहीं बोलता या पेश आता है जिससे परमेश्वर की ईशनिंदा होती हो तो वह निश्चित रूप से उद्धार प्राप्त कर सकता है। तुम लोगों की कल्पनाओं के अनुसार वे सभी सामान्य विश्वासी जो अंत तक परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, उद्धार प्राप्त कर सकते हैं, जबकि जो अगुआ के रूप में सेवा करते हैं वे सब हटा दिए जाएंगे। यदि तुम लोगों से अगुआ बनने के लिए कहा जाए तो तुम सोचोगे कि ऐसा न करना ठीक नहीं रहेगा, लेकिन अगर तुम्हें अगुआ के रूप में काम करना पड़ा तो तुम न चाहते हुए भी निरंतर भ्रष्टता प्रकट कर रहे होगे। तुम्हें लगेगा कि मानो तुम बस फाँसी के फंदे का इंतजार कर रहे हो। क्या यह पूरी तरह परमेश्वर के प्रति तुम लोगों की गलतफहमियों के कारण नहीं होता है? यदि लोगों के परिणाम उनके द्वारा प्रकट भ्रष्टता से निर्धारित किए जाते तो किसी को भी नहीं बचाया जा सकता। उस स्थिति में परमेश्वर द्वारा उद्धार का कार्य करने का क्या मतलब होगा? यदि सचमुच ऐसा ही हो तो परमेश्वर की धार्मिकता कहाँ होगी? लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को देखने में असमर्थ रहेंगे। इसलिए तुम सब लोगों ने परमेश्वर के इरादों को गलत समझा है जो दर्शाता है कि तुम लोगों को परमेश्वर का सच्चा ज्ञान नहीं है।

परमेश्वर लोगों के परिणाम उनकी अभिव्यक्तियों के आधार पर निर्धारित करता है और यहाँ अभिव्यक्तियों का तात्पर्य उन पर परमेश्वर के कार्य के नतीजों से है। इसे सुस्पष्ट करने के लिए मैं तुमको एक उपमान दूँगा। एक बगीचे में मालिक अपने पेड़ों को खाद-पानी देता है, फिर उनसे फल पाने का इंतजार करता है। जिन पेड़ों पर फल लगते हैं वे अच्छे होते हैं और उन्हें रहने दिया जाता है, जबकि जिन पेड़ों पर फल नहीं लगते वे यकीनन अच्छे पेड़ नहीं होते और उन्हें रहने नहीं दिया जा सकता है। इस पर विचार करें : एक पेड़ फल देता है पर उसमें कोई बीमारी भी लग जाती है और उसकी कुछ खराब शाखाओं को काटने की आवश्यकता है। क्या तुम लोगों को लगता है ऐसे पेड़ को रहने दिया जाना चाहिए? इसे रहने दिया जाना चाहिए और एक बार काट-छाँट और उपचार के बाद यह ठीक हो जाएगा। एक और स्थिति पर विचार करें : एक पेड़ में कोई बीमारी नहीं है, परंतु वह फल नहीं देता—इस प्रकार के पेड़ को नहीं रखना चाहिए। यहाँ पर “फल देने” से क्या तात्पर्य है? इसका अर्थ है कि परमेश्वर का कार्य नतीजे प्राप्त कर रहा है। चूँकि लोगों को शैतान द्वारा भ्रष्ट कर दिया गया है, वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के दौरान अनिवार्य रूप से अपनी भ्रष्टता प्रकट करेंगे और अपराध करेंगे। लेकिन साथ ही परमेश्वर का कार्य उनमें कुछ नतीजे हासिल करता है। यदि परमेश्वर इन नतीजों को न देखे और केवल लोगों द्वारा प्रकट किए गए भ्रष्ट स्वभावों को देखे तो लोगों को बचाने का सवाल ही नहीं उठेगा। उद्धार के नतीजे मुख्य रूप से लोगों के अपने कर्तव्य निर्वहन और सत्य के अभ्यास में प्रकट होते हैं। परमेश्वर उन नतीजों को देखता है जो लोगों ने इन क्षेत्रों में हासिल किए हैं और फिर वह उनके अपराधों की गंभीरता को देखता है। फिर वह इन दो पहलुओं के जोड़ के आधार पर उनके परिणाम निर्धारित करता है और यह निर्धारित करता है कि वे रहेंगे या नहीं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने अतीत में बड़े पैमाने पर भ्रष्टता प्रकट की थी और अपनी देह के लिए अत्यधिक विचारशीलता दिखाई थी। वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के अनिच्छुक थे, न ही उन्होंने कलीसिया के हितों को कायम रखा। लेकिन कई वर्षों तक धर्मोपदेश सुनने के बाद वे वास्तव में बदल चुके हैं। वे अब अपने कर्तव्य निर्वहन में सत्य सिद्धांतों के लिए प्रयास करना जानते हैं और वे अपने कर्तव्यों में अधिकाधिक प्रभावी होते जा रहे हैं। वे सभी चीजों में परमेश्वर के पक्ष में खड़े भी हो लेते हैं और वे परमेश्वर के घर के कार्य को कायम रखने के लिए अपना भरसक प्रयास करते हैं। यह दिखाता है कि ऐसे लोगों का जीवन स्वभाव बदल चुका है और यही वह परिवर्तन है जो परमेश्वर चाहता है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपने मन में धारणाएँ पैदा होने पर उन्हें हमेशा चारों ओर फैला देते थे और उन्हें तब हमेशा सुकून मिलता था जब दूसरों में भी धारणाएँ होती थीं। लेकिन अब जब उनमें कुछ धारणाएँ होती हैं तो वे धारणाएँ फैलाए बिना या परमेश्वर का प्रतिरोध करने के लिए कुछ भी किए बिना परमेश्वर से प्रार्थना, सत्य की खोज और समर्पण कर पाते हैं। क्या उन्होंने परिवर्तन का अनुभव नहीं कर लिया है? कुछ लोग अतीत में अपनी काट-छाँट होते ही प्रतिरोधी बन जाते थे, लेकिन अब जब उनकी काट-छाँट होती है तो वे इसे स्वीकार और स्वयं को जान पाते हैं और बाद में वाकई थोड़ा-बहुत बदल चुके होते हैं। क्या यह एक नतीजा नहीं है? लेकिन तुम चाहे जितना भी बदल जाओ, अपराधों से पूरी तरह मुक्त होना असंभव है और तुम्हारी प्रकृति एक झटके में पूरी तरह नहीं बदल सकती है। यदि कोई परमेश्वर में विश्वास के सही रास्ते पर चल पड़ता है और सभी चीजों में सत्य खोजना जानता है तो भले ही वह थोड़ा-सा विद्रोही हो, उसे समय पर इसका एहसास हो जाएगा। यह एहसास होने के बाद ऐसे लोग परमेश्वर के सामने कबूल और पश्चात्ताप करने और खुद को बदलने के लिए जल्दी करेंगे और उनकी दशा बेहतर ही होती जाएगी। वे एक ही प्रकार के विद्रोह में एक-दो बार लिप्त हो सकते हैं, लेकिन तीसरी-चौथी बार नहीं होंगे। यही परिवर्तन है। ऐसा नहीं है कि यह व्यक्ति किसी लिहाज से बदल गया है, इसलिए वह अब भ्रष्टता प्रकट नहीं करता और बिल्कुल भी अपराध नहीं करता। ऐसा नहीं है। इस परिवर्तन का अर्थ है कि परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के बाद व्यक्ति सत्य का अधिक अभ्यास करने, परमेश्वर जो अपेक्षा करता है उसमें से कुछ को अभ्यास में लाने, कम से कम अपराध करने और कम से कम भ्रष्टता प्रकट में सक्षम होता है; और उसके विद्रोह की गंभीरता धीरे-धीरे कम होती जाती है। इससे यह स्पष्ट है कि परमेश्वर के कार्य ने नतीजे प्राप्त कर लिए हैं। परमेश्वर जो देखना चाहता है वह इस बात की विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ हैं कि ये नतीजे प्राप्त किए जा चुके हैं। इसलिए परमेश्वर जिस तरह से लोगों के परिणाम से निपटता है या किसी व्यक्ति के साथ पेश आता है वह पूरी तरह से धार्मिक और विवेकपूर्ण होता है। तुम्हें बस अपना सारा प्रयास परमेश्वर के लिए खुद को खपाने में लगाना है और जिन सत्यों का तुम्हें अभ्यास करना चाहिए उनका अभ्यास बेफिक्र होकर पूरी दिलेरी और आत्मविश्वास के साथ करने की जरूरत है, फिर परमेश्वर तुम्हारे साथ अनुचित ढंग से पेश नहीं आएगा। जरा सोचो : जो सत्य से प्रेम और इसका अभ्यास करते हैं, क्या उन्हें परमेश्वर दंडित कर सकता है? बहुत-से लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के बारे में हमेशा शंकालु बने रहते हैं और भयभीत रहते हैं कि सत्य को अभ्यास में लाने के बाद भी उन्हें दंडित किया जाएगा। वे भयभीत रहते हैं कि अगर वे परमेश्वर के प्रति वफादारी दिखाएँ तो भी वह इसे नहीं देखेगा। ऐसे लोगों को परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का कोई ज्ञान नहीं होता है।

कुछ लोग अपनी काट-छाँट होने के बाद नकारात्मक हो जाते हैं। वे अपना कर्तव्य निभाने की सारी ऊर्जा गँवा देते हैं और उनकी वफादारी भी गायब हो जाती है। ऐसा क्यों होता है? यह एक बहुत गंभीर समस्या है। यह सत्य को स्वीकार करने में अक्षमता है। ऐसे लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते, ऐसा कुछ तो अपने भ्रष्ट स्वभावों का ज्ञान न होने के कारण होता है, जो उन्हें अपनी काट-छाँट किया जाना स्वीकार करने में अक्षम बना देता है। यह उनकी प्रकृति से तय होता है जो अहंकारी और दंभी होती है और जिसमें सत्य के लिए कोई प्रेम नहीं होता है। यह आंशिक तौर पर इसलिए भी होता है कि लोग काट-छाँट किए जाने की सार्थकता नहीं समझते हैं। वे मानते हैं कि काट-छाँट किए जाने का अर्थ है कि उनका परिणाम निर्धारित कर दिया गया है। परिणामस्वरूप, वे गलत ढंग से विश्वास करते हैं कि यदि वे परमेश्वर के लिए खुद को खपाने के लिए अपने परिवारों को त्याग देते हैं और उनके पास परमेश्वर के लिए कुछ वफादारी है तो उनकी काट-छाँट नहीं की जानी चाहिए और यदि उनकी काट-छाँट की जाती है तो यह परमेश्वर का प्रेम या उसकी धार्मिकता नहीं है। इस प्रकार की गलतफहमी के कारण बहुत-से लोग परमेश्वर के प्रति वफादार होने का साहस नहीं कर पाते। वास्तव में सारे सोच-विचार के बाद इसका कारण यह है कि लोग बहुत अधिक कपटी हैं, वे कष्ट सहना ही नहीं चाहते हैं और तो बस आसान तरीके से आशीष प्राप्त करना चाहते हैं। लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को बिल्कुल भी नहीं समझते। उन्हें कभी यह विश्वास नहीं होता कि परमेश्वर के सारे क्रियाकलाप धार्मिक होते हैं या कि हरेक के प्रति उसका व्यवहार धार्मिक होता है। वे इस मामले में कभी सत्य नहीं खोजते, बल्कि हमेशा अपने तर्क गढ़ते रहते हैं। उन्होंने चाहे जो भी खराब चीजें की हों, कितने ही बड़े पाप किए हों या कितनी भी अधिक बुराई की हो, जब तक उन पर परमेश्वर का न्याय और दंड पड़ता रहेगा, वे सोचते रहेंगे कि स्वर्ग पक्षपाती है और परमेश्वर धार्मिक नहीं है। लोगों की नजरों में यदि परमेश्वर के क्रियाकलाप उनकी इच्छाओं के अनुरूप नहीं हैं या उसके क्रियाकलाप उनकी भावनाओं के प्रति परवाह नहीं दिखाते हैं तो वह धार्मिक नहीं है। लेकिन लोग कभी नहीं जानते कि क्या उनके क्रियाकलाप सत्य के अनुरूप हैं, न ही उन्हें कभी यह एहसास होता है कि वे जो कुछ भी करते हैं वह सब परमेश्वर से विद्रोह और उसके प्रतिरोध का क्रियाकलाप है। लोग चाहे जो भी अपराध करें, अगर परमेश्वर कभी भी उनकी काट-छाँट न करे या उनके विद्रोह के लिए उन्हें न फटकारे, बल्कि उनके साथ शांत और सौम्य रहे, उनके साथ केवल प्रेमपूर्वक धैर्य से पेश आए और उन्हें सदा अपने साथ भोजन करने और आनंद लेने दे तो लोग परमेश्वर के बारे में शिकायत नहीं करेंगे या उसकी अधार्मिक के रूप में आलोचना नहीं करेंगे। बल्कि वे पाखंडपूर्वक कहेंगे कि परमेश्वर धार्मिक है। क्या ऐसे लोग परमेश्वर को जानते हैं? क्या वे परमेश्वर के साथ एक दिल और एक मन के हो सकते हैं? उन्हें इस बात का कोई अंदाजा नहीं है कि परमेश्वर के न्याय और काट-छाँट का उद्देश्य उनके जीवन स्वभावों को शुद्ध करना और परिवर्तित करना है ताकि वे उसके प्रति समर्पण और उससे प्रेम कर सकें। ऐसे लोग यह विश्वास नहीं करते कि परमेश्वर एक धार्मिक परमेश्वर है। जब भी परमेश्वर उन्हें डाँटता है, उजागर करता है और उनकी काट-छाँट करता है, वे नकारात्मक और कमजोर पड़ जाते हैं और हमेशा यह शिकायत करते रहते हैं कि परमेश्वर स्नेही नहीं है, मनुष्य के प्रति परमेश्वर का न्याय और ताड़ना गलत है और वे यह नहीं देख पाते कि यह परमेश्वर का मनुष्य को शुद्ध करना और बचाना है, वे यह नहीं मानते कि परमेश्वर लोगों के पश्चात्ताप की अभिव्यक्तियों के आधार पर उनके परिणाम निर्धारित करता है। वे निरंतर परमेश्वर के प्रति शंकालु रहते हैं और उससे सावधान रहते हैं। इसका नतीजा क्या होगा? क्या वे परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पण कर पाएंगे? क्या वे सच्चा बदलाव हासिल कर पाएंगे? यह असंभव होगा। यदि उनकी इस दशा का समाधान नहीं होता है वे एक गंभीर खतरे में होंगे और उनके लिए यह असंभव होगा कि वे परमेश्वर द्वारा शुद्ध और पूर्ण बनाए जा सकें।

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