विजय-कार्य के दूसरे चरण के प्रभावों को कैसे प्राप्त किया जाता है

सेवाकर्ताओं का कार्य विजय-कार्य में पहला चरण था। आज विजय-कार्य में दूसरा चरण है। विजय-कार्य में पूर्ण बनाए जाने का भी उल्लेख क्यों है? यह भविष्य में नींव तैयार करने के लिए है। आज विजय-कार्य का अंतिम कदम है; आगे भयंकर कष्ट अनुभव करने का समय आएगा, जो मनुष्य को पूर्ण बनाने की आधिकारिक शुरुआत को चिह्नित करेगा। अब मुख्य मुद्दा विजय है, लेकिन अब पूर्णता की प्रक्रिया में प्रथम चरण का समय भी है। इस प्रथम चरण में लोगों के ज्ञान और आज्ञाकारिता को पूर्ण बनाना शामिल है, जो कि स्वभाविक तौर पर, विजय-कार्य की नींव तैयार करता है। अगर तुम्हें पूर्ण बनाया जाना है, तो तुम्हें भविष्य में आने वाले कष्टों के दौरान मज़बूती से खड़ा रहना होगा और कार्य के अगले चरण के प्रसार के लिए अपना सर्वस्व देना होगा; पूर्ण बनाए जाने का यही अर्थ है, और यही वह समय भी है, जब लोग पूरी तरह से परमेश्वर द्वारा प्राप्त किए जाते हैं। आज हम जीते जाने की बात कर रहे हैं, जो कि पूर्ण बनाए जाने जैसी बात ही है। लेकिन आज जो कार्य किया जा रहा है, वह भविष्य में पूर्ण बनाए जाने की नींव है; पूर्ण बनाए जाने के लिए लोगों को मुश्किलों का सामना करना चाहिए, और मुश्किलों के इस अनुभव का आधार विजय किया जाना होना चाहिए। अगर लोगों के पास आज का आधार न हो—अगर उन्हें पूरी तरह से जीता न जाए—तो उनके लिए कार्य के अगले चरण में मज़बूती से खड़ा रहना मुश्किल होगा। मात्र जीत लिया जाना अंतिम लक्ष्य नहीं है। यह तो शैतान के आगे परमेश्वर की गवाही का एक चरण मात्र है। पूर्ण बनाया जाना अंतिम लक्ष्य है, और अगर तुम्हें पूर्ण नहीं बनाया गया, तो शायद तुम्हें भी नकार दिया जाए। भविष्य में मुश्किलों का सामना करने पर ही तुम्हारा सच्चा आध्यात्मिक कद देखा जाएगा; यानी, परमेश्वर के लिए तुम्हारे प्रेम की निर्मलता का स्तर तभी स्पष्ट होगा। आज लोग कहते हैं : “परमेश्वर चाहे कुछ भी करे, हमें उसका पालन करना चाहिए। अतः हम ऐसी विषमता बनने के लिए तैयार हैं, जो परमेश्वर का महान सामर्थ्य और स्वभाव दर्शाए। परमेश्वर हम पर दया करे या हमें शाप दे, या वो हमारा न्याय करे, हम फिर भी उसके कृतज्ञ हैं।” दरअसल तुम्हारा यह कहना केवल यह दर्शाता है कि तुम्हें थोड़ा-बहुत ज्ञान है, लेकिन इस ज्ञान को वास्तव में उपयोग में लाया जा सकता है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर है कि तुम्हारा यह ज्ञान वास्तविक है या नहीं। आज लोगों में अंतर्दृष्टियों और ज्ञान का होना विजय-कार्य का प्रभाव है। तुम्हें पूर्ण बनाया जा सकता है या नहीं, यह प्रतिकूल परिस्थिति में ही देखा जा सकता है, और उस समय यह देखा जाएगा कि तुम सचमुच परमेश्वर को दिल से प्रेम करते हो या नहीं। अगर तुम्हारा प्रेम वाकई शुद्ध है, तो तुम कहोगे : “हम विषमताएँ हैं, हम परमेश्वर के हाथों में जीव हैं।” जब तुम अन्यजाति राष्ट्रों में सुसमाचार का प्रसार करोगे, तो तुम कहोगे, “मैं तो बस सेवा कर रहा हूँ। हमारे अंदर के भ्रष्ट स्वभावों का इस्तेमाल करते हुए, परमेश्वर ने ये सारी बातें हमें अपना धार्मिक स्वभाव दिखाने के लिए कही हैं; अगर उसने ऐसी बातें न कही होतीं, तो हम परमेश्वर को नहीं देख पाते, न उसकी बुद्धिमत्ता को समझ पाते, न ही ऐसा महान उद्धार और आशीष प्राप्त कर पाते।” अगर तुममें सचमुच ऐसा अनुभवजन्य ज्ञान है, तो यह काफी है। लेकिन आज जो अधिकांश बातें तुम कहते हो उसमें कोई ज्ञान नहीं होता, और यह सब बस खोखले नारे हैं : “हम विषमताएँ और सेवाकर्ता हैं; हमारी कामना है कि हम जीते जाएँ और हम परमेश्वर की ज़बरदस्त गवाही देना चाहते हैं...।” सिर्फ चिल्लाने का अर्थ यह नहीं है कि तुममें वास्तविकता है, न ही ये साबित करता है कि तुम्हारे पास आध्यात्मिक कद है; तुम्हें विशुद्ध ज्ञान होना चाहिए, और तुम्हारे ज्ञान की परीक्षा होनी चाहिए।

तुम्हें ऐसे और कथनों को पढ़ना चाहिए जो परमेश्वर ने इस दौरान व्यक्त किए हैं, उनसे अपने क्रियाकलापों कि तुलना करनी चाहिए : यह बिलकुल एक तथ्य है कि तुम अच्छी तरह से और वास्तव में एक विषमता हो! आज तुम्हारे ज्ञान की क्या सीमा है? तुम्हारे विचार, तुम्हारा चिंतन, तुम्हारा व्यवहार, तुम्हारे शब्द और कर्म—क्या ये सभी अभिव्यक्तियाँ परमेश्वर की धार्मिकता और पवित्रता के लिए विषमता के तुल्य नहीं हैं? क्या तुम्हारी अभिव्यक्तियाँ मनुष्य के उस भ्रष्ट स्वभाव का प्रकटीकरण नहीं है जिसे परमेश्वर के वचनों द्वारा उजागर किया गया है? तुम्हारे विचार और राय, तुम्हारी अभिप्रेरणाएँ, और जो भ्रष्टता तुममें प्रकट होती है, वह सभी परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव और साथ ही उसकी पवित्रता को दर्शाते हैं। परमेश्वर भी मलिनता की धरती पर ही पैदा हुआ था, फिर भी वह मलिनता से बेदाग रहा। वह उसी गंदी दुनिया में रहता है, जिसमें तुम रहते हो, पर उसमें विवेक और दृष्टिबोध है, वह गंदगी से घृणा करता है। तुम शायद अपने शब्दों और कर्मों में कुछ भी गंदगी न ढूँढ़ पाओ, लेकिन वह ढूँढ़ सकता है और तुम्हें बता सकता है। तुम्हारी वे पुरानी बातें—तुम्हारे अंदर संवर्धन का अभाव, अंतर्दृष्टि, बोध और जीने के तुम्हारे पिछड़े तरीके—वे सब आज के प्रकाशन से प्रकाश में लाए जा चुके हैं; केवल परमेश्वर के धरती पर आकर इस तरह काम करने से ही लोग उसकी पवित्रता और धार्मिक स्वभाव का अवलोकन करते हैं। वह तुम्हारा न्याय करता है और तुम्हें ताड़ना देता है, जिससे तुम समझ हासिल कर पाते हो; कभी-कभी तुम्हारी हैवानी प्रकृति अभिव्यक्त हो जाती है, और वह उसकी ओर तुम्हारा ध्यान दिलाता है। वह मनुष्य के सार को अच्छी तरह से जानता है। वह तुम्हारे बीच रहता है, वही खाना खाता है जो तुम खाते हो और वह उसी परिवेश में रहता है—लेकिन फिर भी, वह तुमसे ज़्यादा जानता है; वह तुम्हें उजागर कर सकता है और मानवता के भ्रष्ट सार को साफ देख सकता है। उसे मनुष्य के जीने के फलसफों और कुटिलता और धोखेबाजी से ज्यादा किसी चीज़ से घृणा नहीं है। उसे लोगों की देह-सुख की अंतःक्रियाओं से विशेष रूप से घृणा है। वह मनुष्य के जीने के फलसफों से शायद परिचित न हो, लेकिन वह उन भ्रष्ट स्वभावों को साफ देख और उजागर कर सकता है जिसे लोग प्रकट करते हैं। वह इन चीज़ों के ज़रिये बोलने और मनुष्य को सिखाने का कार्य करता है, वह इन चीज़ों का इस्तेमाल लोगों का न्याय करने और अपने धार्मिक और पवित्र स्वभाव को अभिव्यक्त करने के लिए करता है। इस तरह लोग उसके कार्य के लिए विषमताएँ बन जाते हैं। केवल देहधारी परमेश्वर ही मनुष्य के भ्रष्ट स्वभावों और शैतान के सभी कुरूप चेहरों को स्पष्ट कर सकता है। भले ही वह तुम्हें दंडित नहीं करता, और तुम्हें अपनी धार्मिकता और पवित्रता के लिए बस एक विषमता के रूप में इस्तेमाल करता है, फिर भी तुम शर्मिंदा महसूस करते हो और खुद को छिपाने की जगह नहीं पाते हो। वह उन चीज़ों का इस्तेमाल करते हुए बोलता है, जो मनुष्य में उजागर होती हैं, और केवल इन चीज़ों के प्रकाश में आने पर ही लोग जान पाते हैं कि परमेश्वर कितना पवित्र है। वह लोगों में ज़रा-सी भी अशुद्धता को नज़रंदाज़ नहीं करता, यहाँ तक कि उनके दिलों के मलिन विचारों को भी नहीं; अगर लोगों के शब्द और कर्म उसकी इच्छा से मेल नही खाते, तो वह उन्हें माफ नहीं करता। उसके वचनों में मनुष्यों की मलिनता या ऐसी किसी और चीज़ की कोई जगह नहीं है—यह सब प्रकाश में आना चाहिए। तभी तुम्हें पता चलता है कि वह सचमुच मनुष्य जैसा नहीं है। अगर लोगों में ज़रा-सी भी मलिनता होती है, तो वह उससे बेहद नफरत करता है। कई बार तो लोग समझ ही नहीं पाते और कहते हैं, “परमेश्वर, तू इतना नाराज़ क्यों है? तू लोगों की कमज़ोरियाँ ध्यान में क्यों नहीं रखता? तू लोगों के प्रति थोड़ा क्षमाशील क्यों नहीं है? तू लोगों के प्रति विचारशील क्यों नहीं है? ज़ाहिर है, तू जानता ही है कि लोग किस हद तक भ्रष्ट हो चुके हैं, तो फिर तू लोगों के साथ इस ढंग से क्यों पेश आता है?” वह पाप से घृणा करता है, उसे इससे चिढ़ है, उसे तब विशेष रूप से चिढ़ होती है, जब तुम्हारे अंदर अवज्ञा का कोई चिह्न होता है। जब तुममें विद्रोही स्वभाव प्रकट होता है, तो वह उसे देख लेता है और बुरी तरह से चिढ़ जाता है—भयंकर रूप से चिढ़ जाता है। इन्हीं बातों से परमेश्वर का स्वभाव और स्वरूप अभिव्यक्त होता है। जब तुम स्वयं को तुलना में रखते हो, तो तुम देखते हो कि यद्यपि वह वही खाना खाता है जो मनुष्य खाता है, वैसे ही कपड़े पहनता है, उन्हीं चीज़ों का आनंद लेता है जिनका आनंद मनुष्य लेता है, उन्हीं के साथ जीता और रहता है, फिर भी वह मनुष्य जैसा नहीं है। क्या विषमता के यही मायने नहीं हैं? इन्हीं इनसानी चीज़ों के ज़रिए परमेश्वर का सामर्थ्य दिखता है; अँधेरा ही प्रकाश के बहुमूल्य अस्तित्व को अलग दर्शाता है।

बेशक, परमेश्वर तुम लोगों को नाममात्र के लिए विषमता नहीं बनाता। बल्कि जब यह कार्य फलीभूत होता है, तभी यह स्पष्ट हो पाता है कि मनुष्य की विद्रोहशीलता परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव के लिए विषमता है, और केवल तुम्हारे विषमता होने के कारण ही तुम्हारे पास परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की प्राकृतिक अभिव्यक्ति को जानने का अवसर है। तुम लोगों की विद्रोहशीलता के कारण तुम लोगों का न्याय किया जाता है और तुम्हें ताड़ना दी जाती है, लेकिन तुम लोगों की विद्रोहशीलता ही तुम्हें विषमता भी बनाती है, और तुम्हारी विद्रोहशीलता के कारण ही तुम्हें परमेश्वर का महान अनुग्रह भी प्राप्त होता है, जो वह तुम लोगों को प्रदान करता है। तुम लोगों की विद्रोहशीलता परमेश्वर की सर्वशक्ति और बुद्धिमत्ता के लिए विषमता है, और तुम्हारी विद्रोहशीलता के कारण ही तुम्हें ऐसा महान उद्धार और आशीष प्राप्त हुए हैं। हालाँकि मैंने बार-बार तुम लोगों का न्याय किया है, फिर भी तुम लोगों को मेरा भरपूर उद्धार प्राप्त हुआ है, जो मनुष्य को पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ। यह कार्य तुम लोगों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। तुम लोगों के लिए विषमता होना भी बेहद मूल्यवान है : तुम लोगों को तुम्हारे विषमता होने के कारण ही बचाया जाता है और तुम लोगों ने उद्धार का अनुग्रह प्राप्त कर लिया है, तो क्या ऐसी विषमता अत्यंत मूल्यवान नहीं है? क्या यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण नहीं है? चूँकि तुम लोग उसी क्षेत्र में, उसी मलिन धरती पर रहते हो, जिसमें परमेश्वर रहता है, इसलिए तुम विषमता हो और तुम्हें महानतम उद्धार प्राप्त होता है। अगर परमेश्वर ने देहधारण न किया होता, तो तुम जैसे नीच लोगों पर कौन दया करता और कौन तुम लोगों की देखभाल करता? कौन तुम लोगों की परवाह करता? अगर परमेश्वर ने तुम लोगों के बीच रहकर कार्य करने के लिए देहधारण न किया होता, तो तुम लोग वह उद्धार कब प्राप्त करते, जो तुमसे पहले वालों को कभी नसीब नहीं हुआ था? अगर मैंने तुम लोगों की परवाह करने के लिए, तुम्हारे पापों का न्याय करने के लिए देहधारण न किया होता, तो क्या तुम लोग बहुत पहले ही नरक में न जा गिरे होते? अगर मैं देहधारण करके और दीन बनकर तुम लोगों के बीच न रहता, तो तुम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की विषमता बनने के पात्र कैसे हो सकते थे? क्या तुम लोग इसलिए विषमता नहीं हो, क्योंकि मैं देहधारण करके तुम लोगों के बीच आया, ताकि तुम लोग महानतम उद्धार पा सको? क्या तुम लोग यह उद्धार इसलिए नहीं पा रहे, क्योंकि मैंने देहधारण किया है? अगर परमेश्वर तुम लोगों के बीच रहने के लिए देहधारण न करता, तो क्या तुम लोगों को तब भी पता चल पाता कि तुम लोग मानवीय नरक में कुत्तों और सूअरों से भी अधम जीवन जी रहे हो? क्या तुम लोगों की ताड़ना और न्याय इस कारण नहीं हुए हैं, क्योंकि तुम मेरे देह रूप में कार्य के लिए विषमता हो? तुम लोगों के लिए विषमता से उपयुक्त कोई कार्य नहीं है, क्योंकि तुम लोग विषमता होने के कारण ही न्याय के मध्य बचाए गए हो। क्या तुम लोगों को यह नहीं लगता कि विषमता के रूप में कार्य करने के लिए पात्र होना ही तुम लोगों के जीवन का आशीष है? तुम लोग मात्र विषमता होने का कार्य करते हो, फिर भी तुम लोगों को ऐसा उद्धार प्राप्त होता है, जो न तो तुम लोगों को पहले कभी मिला था, न ही जिसकी तुम लोगों ने कभी कल्पना की थी। आज, विषमता होना तुम लोगों का कर्तव्य है, और भविष्य में अनंत आशीष का आनन्द लेना तुम लोगों का उचित पुरस्कार। तुम लोग जो उद्धार प्राप्त करते हो, वह कोई क्षणभंगुर अंतर्दृष्टि या आज के लिए कोई अस्थायी ज्ञान नहीं है, बल्कि कहीं महान आशीष है : जीवन का शाश्वत क्रम है। हालाँकि मैंने तुम लोगों को जीतने के लिए “विषमता” का इस्तेमाल किया है, लेकिन तुम लोगों को पता होना चाहिए कि यह उद्धार और आशीष तुम लोगों को पाने के लिए है; यह विजय के लिए है, लेकिन यह इसलिए भी है ताकि मैं तुम्हें बचा सकूँ। विषमता एक सच्चाई है, लेकिन तुम लोगों के विषमता होने का कारण तुम लोगों की विद्रोहशीलता है, और इसी वजह से तुमने वे आशीष प्राप्त किए हैं, जो कभी किसी को प्राप्त नहीं हुए। आज तुम लोगों को दिखाया और सुनाया जाता है; कल तुम लोग प्राप्त करोगे, और उससे भी अधिक, तुम लोग बहुत अधिक आशीष पाओगे। इस तरह, क्या विषमता अत्यंत मूल्यवान नहीं है? आज के विजय-कार्य के प्रभाव तुम लोगों के विषमता के रूप में कार्य करने वाले विद्रोहशील स्वभावों के माध्यम से प्राप्त होते हैं। यानी, ताड़ना और न्याय के दूसरे दृष्टांत का चरमोत्कर्ष तुम लोगों की मलिनता और विद्रोहशीलता को विषमता के रूप में इस्तेमाल करने के लिए है, ताकि तुम लोग परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का अवलोकन कर सको। जब तुम लोग ताड़ना और न्याय के दूसरे दृष्टांत के दौरान एक बार फिर से स्वयं को आज्ञाकारी बनाते हो, तो तुम लोगों को परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की समग्रता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। यानी, जब तुम लोग विजय-कार्य को पूरी तरह से स्वीकार कर लेते हो, तभी तुम लोगों का विषमता के रूप में कार्य करने का कर्तव्य भी पूरा हो जाता है। मेरा इरादा तुम लोगों पर कोई ठप्पा लगाना नहीं है। बल्कि, मैं तुम लोगों की सेवाकर्ता की भूमिका का इस्तेमाल परमेश्वर के अपमान न किए जा सकने योग्य स्वभाव को दर्शाते हुए विजय-कार्य के प्रथम दृष्टांत को पूरा करने के लिए कर रहा हूँ। तुम लोगों की पूरकता के ज़रिये, विषमता के रूप में कार्य करने वाली तुम लोगों की विद्रोहशीलता के ज़रिये, विजय-कार्य के दूसरे दृष्टांत के प्रभाव हासिल किए जाते हैं, तुम लोगों के समक्ष परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को पूरी तरह से प्रकट किया जाता है, जो पहले दृष्टांत में समग्रता से प्रकट नहीं हुआ था, और तुम लोगों के समक्ष परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव को, उसके स्वरूप को, उसकी समग्रता में प्रकट किया जाता है, जिसमें उसकी बुद्धिमत्ता, अद्भुतता, और उसके कार्य की प्राचीन पवित्रता निहित है। इस तरह के कार्य के प्रभाव विभिन्न अवधियों में विजय के ज़रिए, और न्याय के विभिन्न स्तरों के ज़रिए हासिल किए जाते हैं। न्याय जितना अधिक अपने चरम के करीब आता है, वह लोगों के विद्रोही स्वभावों को उतना ही अधिक प्रकट करता है, और विजय उतनी ही अधिक प्रभावी होती है। इस विजय-कार्य के दौरान परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की समग्रता स्पष्ट की जाती है। विजय-कार्य को दो चरणों में बाँटा जाता है, उसके विभिन्न चरण और स्तर होते हैं, और बेशक, उससे प्राप्त प्रभाव भी विभिन्न होते हैं। यानी, लोगों के समर्पण की सीमा भी और अधिक गहन हो जाती है। इसके बाद ही लोगों को पूरी तरह से पूर्णता के सही मार्ग पर लाया जा सकता है; केवल संपूर्ण विजय-कार्य के पूरा हो जाने के बाद (जब न्याय का दूसरा दृष्टांत अपना अंतिम प्रभाव हासिल कर चुका होता है) फिर लोगों का न्याय नहीं किया जाता, बल्कि उन्हें जीवन का अनुभव करने के सही मार्ग में प्रवेश करने की अनुमति दे दी जाती है। क्योंकि न्याय विजय का निरूपण है, और विजय न्याय और ताड़ना का रूप ले लेती है।

परमेश्वर ने सबसे पिछड़े और मलिन स्थान पर देहधारण किया, और केवल इसी तरह से परमेश्वर अपने पवित्र और धार्मिक स्वभाव की समग्रता को साफ तौर पर दिखा सकता है। और उसका धार्मिक स्वभाव किसके ज़रिये दिखाया जाता है? वह तब दिखाया जाता है, जब वह मनुष्य के पापों का न्याय करता है, जब वह शैतान का न्याय करता है, जब वह पाप से घृणा करता है, और जब वह उन शत्रुओं से नफरत करता है जो उसका विरोध और उससे विद्रोह करते हैं। मेरे आज के वचन मनुष्य के पापों का न्याय करने के लिए, मनुष्य की अधार्मिकता का न्याय करने के लिए और मनुष्य की अवज्ञाकारिता को शाप देने के लिए हैं। मनुष्य की कुटिलता और धोखेबाजी, उसके शब्द और कर्म—जो भी परमेश्वर की इच्छा के विपरीत हैं, उनका न्याय होना चाहिए, और मनुष्य की समस्त अवज्ञाकारिता की पाप के रूप में निंदा होनी चाहिए। उसके वचन न्याय के सिद्धांतों के इर्द-गिर्द घूमते हैं; वह मनुष्य की अधार्मिकता के न्याय का, मनुष्य की विद्रोहशीलता के श्राप का, मनुष्य के कुरूप चेहरों के खुलासे का इस्तेमाल अपने धार्मिक स्वभाव को अभिव्यक्त करने के लिए करता है। पवित्रता उसके धार्मिक स्वभाव का निरूपण है, और दरअसल, परमेश्वर की पवित्रता वास्तव में उसका धार्मिक स्वभाव है। तुम लोगों के भ्रष्ट स्वभाव आज के वचनों के प्रसंग हैं—मैं उनका इस्तेमाल बोलने, न्याय करने और विजय-कार्य संपन्न करने के लिए करता हूँ। मात्र यही असली कार्य है, और मात्र यही परमेश्वर की पवित्रता को जगमगाता है। अगर तुममें भ्रष्ट स्वभाव का कोई निशान नहीं है, तो परमेश्वर तुम्हारा न्याय नहीं करेगा, न ही वह तुम्हें अपना धार्मिक स्वभाव दिखाएगा। चूँकि तुम्हारा स्वभाव भ्रष्ट है, इसलिए परमेश्वर तुम्हें छोड़ेगा नहीं, और इसी के ज़रिये उसकी पवित्रता दिखाई जाती है। अगर परमेश्वर देखता कि मनुष्य की मलिनता और विद्रोहशीलता बहुत भयंकर हैं, लेकिन वह न तो बोलता, न तुम्हारा न्याय करता, न तुम्हारी अधार्मिकता के लिए तुम्हें ताड़ना देता, तो इससे यह साबित हो जाता कि वह परमेश्वर नहीं है, क्योंकि उसे पाप से कोई घृणा न होती; वह मनुष्य जितना ही मलिन होता। आज मैं तुम्हारी मलिनता के कारण ही तुम्हारा न्याय कर रहा हूँ, और तुम्हारी भ्रष्टता और विद्रोहशीलता के कारण ही तुम्हें ताड़ना दे रहा हूँ। मैं तुम लोगों के सामने अपने सामर्थ्य की अकड़ नहीं दिखा रहा या जानबूझकर तुम लोगों का दमन नहीं कर रहा; मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि इस मलिन धरती पर पैदा हुए तुम लोग मलिनता से बुरी तरह दूषित हो गए हो। तुमने गंदी जगहों पर रहने वाले सूअर की तरह अपनी निष्ठा और मानवीयता खो दी है। तुम्हारी गंदगी और भ्रष्टता की वजह से ही तुम्हारा न्याय किया जाता है और मैं तुम पर अपना क्रोध बरसाता हूँ। ठीक इन वचनों के न्याय की वजह से तुम यह देख पाए हो कि परमेश्वर धार्मिक परमेश्वर है, और कि परमेश्वर पवित्र परमेश्वर है; ठीक अपनी पवित्रता और धार्मिकता की वजह से ही वह तुम लोगों का न्याय करता है और तुम लोगों पर अपना क्रोध बरसाता है; ठीक इस वजह से कि वह मानव-जाति की विद्रोहशीलता देखता है, वह अपना धार्मिक स्वभाव प्रकट करता है। मानव-जाति की मलिनता और भ्रष्टता उसकी पवित्रता प्रकट करवाती है। यह ये दिखाने के लिए पर्याप्त है कि वह स्वयं परमेश्वर है, जो पवित्र और प्राचीन है, और फिर भी मलिनता की धरती पर रहता है। यदि कोई व्यक्ति दूसरों के साथ कीचड़ में लोट-पोट करता है, और उसके बारे में कुछ भी पवित्र नहीं है, और उसके पास कोई धार्मिक स्वभाव नहीं है, तो वह मनुष्य के अधर्म का न्याय करने के लिए योग्य नहीं है, और न ही वह मनुष्य के न्याय को कार्यान्वित करने के योग्य है। एक-जैसे मलिन व्यक्ति एक-दूसरे का न्याय करने के हकदार कैसे हो सकते हैं? केवल स्वयं पवित्र परमेश्वर ही पूरी मलिन मानव-जाति का न्याय करने में सक्षम है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के पापों का न्याय कैसे कर सकता है? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के पाप कैसे देख सकता है, और वह इन पापों की निंदा करने का पात्र कैसे हो सकता है? अगर परमेश्वर मनुष्य के पापों का न्याय करने का पात्र न होता, तो वह स्वयं धार्मिक परमेश्वर कैसे हो सकता था? चूँकि लोग भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करते हैं, इसलिए उनका न्याय करने के लिए परमेश्वर बोलता है, और केवल तभी वे देख पाते हैं कि वह एक पवित्र परमेश्वर है। जब वह मनुष्य के पापों के कारण उनका न्याय करता है और उन्हें ताड़ना देता है, मनुष्य के पापों को उजागर करता है, तो कोई भी मनुष्य या चीज़ इस न्याय से बच नहीं सकती; जो कुछ भी मलिन है, वह उसका न्याय करता है, और केवल इसी तरह से यह प्रकट होता है कि उसका स्वभाव धार्मिक है। अगर इससे अलग कुछ होता, तो यह कैसे कहा जा सकता कि तुम लोग नाम और तथ्य दोनों से विषमता हो?

इजराइल में किए गए कार्य में और आज के कार्य में बहुत बड़ा अंतर है। यहोवा ने इजराइलियों के जीवन का मार्गदर्शन किया, तो उस समय इतनी ताड़ना और न्याय नहीं था, क्योंकि उस वक्त लोग दुनियादारी बहुत ही कम समझते थे और उनके स्वभाव थोड़े ही भ्रष्ट थे। तब इजराइली पूरी तरह से यहोवा की आज्ञा का पालन करते थे। जब उसने उन्हें वेदियों का निर्माण करने के लिए कहा, तो उन्होंने जल्दी से वेदियों का निर्माण कर दिया; जब उसने उन्हें याजकों का पोशाक पहनने के लिए कहा, तो उन्होंने उसकी आज्ञा का पालन किया। उन दिनों यहोवा भेड़ों के झुंड की देखभाल करने वाले चरवाहे की तरह था, जिसके मार्गदर्शन में भेड़ें हरे-भरे मैदान में घास चरती थीं; यहोवा ने उनकी ज़िंदगी को राह दिखाई, उनके खाने, पहनने, रहने और यात्रा करने में उनकी अगुआई की। वह समय परमेश्वर के स्वभाव को स्पष्ट करने का नहीं था, क्योंकि उस समय मनुष्य नवजात था; कुछ ही लोग थे, जो विद्रोही और विरोधी थे, मनुष्यों में मलिनता अधिक नहीं थी, इसलिए लोग परमेश्वर के स्वभाव के लिए विषमता नहीं बन सकते थे। परमेश्वर की पवित्रता मलिनता की धरती से आए लोगों के माध्यम से ज़ाहिर होती है; आज वह मलिनता की धरती के इन लोगों में दिखने वाली मलिनता का इस्तेमाल कर रहा है, और ऐसा करते समय उसके न्याय में उसका स्वरूप प्रकट होता है। वह न्याय क्यों करता है? वह न्याय के वचन इसलिए बोल पाता है, क्योंकि वह पाप से घृणा करता है; अगर वह मनुष्य की विद्रोहशीलता से घृणा न करता, तो वह इतना क्रोधित कैसे हो सकता था? अगर उसके अंदर चिढ़ न होती, कोई नफरत न होती, अगर वह लोगों की विद्रोहशीलता की ओर कोई ध्यान न देता, तो इससे वह मनुष्य जितना ही मलिन प्रमाणित हो जाता। वह मनुष्य का न्याय और उसकी ताड़ना इसलिए कर सकता है, क्योंकि उसे मलिनता से घृणा है, और जिस मलिनता से वह घृणा करता है, वह उसके अंदर नहीं है। अगर उसके अंदर भी विरोध और विद्रोहशीलता होते, तो वह विरोधी और विद्रोही लोगों से घृणा न करता। अगर अंत के दिनों का कार्य इजराइल में किया गया होता, तो उसका कोई मतलब न होता। अंत के दिनों का कार्य सबसे अंधकारमय और सबसे पिछड़े स्थान चीन में ही क्यों किया जा रहा है? यह सब परमेश्वर की पवित्रता और धार्मिकता दिखाने के लिए है। संक्षेप में, स्थान जितना अधिक अंधकारमय होता है, परमेश्वर की पवित्रता वहाँ उतनी ही स्पष्टता से दिखाई जा सकती है। दरअसल, यह सब परमेश्वर के कार्य के लिए है। केवल आज तुम लोगों को यह एहसास हुआ है कि परमेश्वर तुम लोगों के बीच रहने के लिए स्वर्ग से धरती पर उतर आया है, जो तुम लोगों की मलिनता और विद्रोहशीलता द्वारा दिखाया गया है, और केवल अब तुम लोग परमेश्वर को जानते हो। क्या यह सबसे बड़ा उत्कर्ष नहीं है? दरअसल, तुम लोग चीन में लोगों का वह समूह हो, जिन्हें चुना गया था। और चूँकि तुम्हें चुना गया था और तुमने परमेश्वर के अनुग्रह का आनंद लिया है, लेकिन चूँकि तुम लोग ऐसे महान अनुग्रह के उपयुक्त नहीं हो, इसलिए इससे साबित होता है कि यह सब तुम लोगों के लिए सर्वोच्च उत्कर्ष है। परमेश्वर तुम लोगों के समक्ष आया है, और उसने तुम लोगों को पूरी समग्रता में अपना पवित्र स्वभाव दिखाया है, उसने तुम लोगों को वह सब दिया है और उन तमाम आशीषों का आनंद लेने दिया है, जिसका तुम आनंद ले सकते थे। तुमने न केवल परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का स्वाद लिया है, बल्कि तुम परमेश्वर के उद्धार का, परमेश्वर के छुटकारे का और परमेश्वर के असीम और अनंत प्रेम का स्वाद भी ले चुके हो। तुम लोगों ने, जो कि सबसे मलिन हो, ऐसे महान अनुग्रह का आनंद लिया है—क्या तुम धन्य नहीं हो? क्या यह परमेश्वर द्वारा तुम लोगों को ऊपर उठाना नहीं है? तुम लोगों के सबसे निम्न कद हैं; तुम स्वाभाविक तौर पर ऐसे महान आशीष का आनंद उठाने के योग्य नहीं हो, फिर भी परमेश्वर ने तुम्हें अपवाद के रूप में उन्नत किया है। क्या तुम्हें शर्म नहीं आती? अगर तुम अपना कर्तव्य नहीं निभा पाए, तो अंततः तुम्हें अपने आप पर शर्म आएगी, और तुम स्वयं को दंडित करोगे। आज तुम्हें न तो अनुशासित किया गया है, न ही तुम्हें दंड दिया गया है; तुम्हारी देह एकदम सही-सलामत है—लेकिन अंततः ये वचन तुम्हें शर्मिंदा करेंगे। आज तक मैंने किसी को भी खुले आम ताड़ना नहीं दी है; हो सकता है कि मेरे वचन कठोर हों, लेकिन मैं लोगों से किस तरह पेश आता हूँ? मैं उन्हें सांत्वना देता हूँ, उपदेश देता हूँ और याद दिलाता हूँ। मैं ऐसा किसी और कारण से नहीं, बल्कि तुम लोगों को बचाने के लिए करता हूँ। क्या तुम लोग सचमुच मेरी इच्छा नहीं समझते? मैं जो कुछ भी कहता हूँ, उसे तुम लोगों को समझना चाहिए और उससे प्रेरित होना चाहिए। अब जाकर कई लोग समझने लगे हैं। क्या यह विषमता होने का आशीष नहीं है? क्या विषमता होना सर्वाधिक धन्य चीज़ नहीं है? अंततः, जब तुम सुसमाचार का प्रचार करने जाओगे, तो तुम लोग यह बात कहोगे : “हम विशिष्ट विषमताएँ हैं।” वे तुमसे पूछेंगे, “तुम्हारे विशिष्ट विषमता होने के क्या मायने हैं?” और तुम कहोगे, “हम परमेश्वर के कार्य और उसके महान सामर्थ्य के लिए विषमता हैं। हमारी विद्रोहशीलता परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव की समग्रता को प्रकाश में लाती है; हम लोग अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य की सेवा में काम आने वाली वस्तुएँ हैं, हम लोग उसके कार्य की लटकन हैं और उसके औज़ार भी हैं।” जब वे सुनेंगे, तो उन्हें कुतूहल होगा। तुम आगे कहोगे : “हम लोग परमेश्वर के पूरे ब्रह्मांड के कार्य की पूर्णता और मानव-जाति पर उसकी विजय के नमूने और प्रतिमान हैं। हम लोग पवित्र हों या मलिन, कुल मिलाकर, हम लोग अभी भी तुमसे अधिक धन्य हैं, क्योंकि हमने परमेश्वर को देखा है, और उसके द्वारा हमें जीते जाने के अवसर के ज़रिये परमेश्वर का महान सामर्थ्य ज़ाहिर होता है; केवल हम लोगों के मलिन और भ्रष्ट होने के कारण ही उसका धार्मिक स्वभाव उभरा है। क्या तुम लोग इस प्रकार अंत के दिनों के परमेश्वर के कार्य की गवाही देने में सक्षम हो? तुम लोग पात्र नहीं हो! यह हमारे लिए परमेश्वर के उत्कर्ष के सिवा कुछ नहीं है! भले ही हम अहंकारी न हों, हम गर्व से परमेश्वर की स्तुति कर सकते हैं, क्योंकि कोई भी इस तरह की महान प्रतिज्ञा प्राप्त नहीं कर सकता, और कोई भी ऐसे महान आशीष का आनंद नहीं ले सकता। हम कृतज्ञ महसूस करते हैं कि हम लोग, जो कि इतने मलिन हैं, परमेश्वर के प्रबंधन के दौरान विषमता के रूप में कार्य कर सकते हैं।” और जब वे पूछेंगे, “नमूने और प्रतिमान क्या होते हैं?” तो तुम कहोगे, “मानव-जाति में हम लोग सबसे विद्रोही और मलिन हैं; हमें शैतान द्वारा सबसे ज्यादा गहराई से भ्रष्ट किया गया है, और हमारी देह बेहद पिछड़ी हुई और निम्न है। हम लोग शैतान द्वारा इस्तेमाल किए गए लोगों का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। आज हम जीते जाने के लिए परमेश्वर द्वारा मानव-जाति में से चुने गए पहले मनुष्य हैं, और हमने परमेश्वर के धार्मिक स्वभाव का अवलोकन किया है और उसकी प्रतिज्ञा को प्राप्त किया है; और हम और अधिक लोगों को जीतने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं, इस प्रकार हम मानव-जाति के बीच जीते जाने वालों के नमूने और प्रतिमान हैं।” इन शब्दों से बेहतर कोई और गवाही नहीं है, और यह तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ अनुभव है।

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