सत्य का अनुसरण कैसे करें (16)
पिछली सभा में किस विषय पर संगति हुई थी? (पिछली सभा में, परमेश्वर ने मुख्य रूप से परंपरा, अंधविश्वास और धर्म को ले कर परिवार द्वारा दी गई शिक्षा को त्याग देने के बारे में संगति की थी। परमेश्वर ने कुछ अंधविश्वासी कहावतों जैसे कि “जाने के लिए मोमो, लौटने के लिए नूडल,” और “बाईं आँख का फड़कना अच्छे भाग्य की भविष्यवाणी करता है, लेकिन दाईं आँख का फड़कना विपत्ति की भविष्यवाणी करता है,” और साथ ही चीनी नव वर्ष और दूसरी छुट्टियों से जुड़ी कुछ पारंपरिक प्रथाओं के लोगों पर पड़ने वाले प्रभावों पर विस्तार से संगति की थी। साथ ही, परमेश्वर ने इन पारंपरिक और अंधविश्वासी कहावतों और प्रथाओं को देखने के सही नजरिये पर संगति की थी, जो यह मानना है कि कुछ घटनाएँ तो होंगी ही, इसके साथ ही यह मानना भी है कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है। ये कहावतें चाहे जिस ओर भी इशारा करें, या जो भी घटनाएँ घटें, हम सभी को स्वीकृति और समर्पण का रवैया अपनाना चाहिए और खुद को परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्था के अधीन करने में समर्थ होना चाहिए।) ये थे पिछली सभा में हमारी संगति के बुनियादी तत्व। परंपरा, अंधविश्वास और धर्म से जुड़ी जिस विषयवस्तु की शिक्षा परिवार लोगों को देते हैं, उसके संदर्भ में हमने विस्तार से उन कुछ चीजों पर संगति की थी जिनसे लोगों का अपने दैनिक जीवन में सामना होता है। हालाँकि हमारी संगति की विषयवस्तु में बस चीनी लोगों के दैनिक जीवन से जुड़ी सिर्फ वे परंपराएँ, अंधविश्वास और धर्म शामिल थे जिनसे हम सब परिचित हैं, और जो प्रत्येक राष्ट्र और प्रजाति के द्योतक नहीं हैं, फिर भी जिन परंपराओं, अंधविश्वासों और धर्मों से विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न प्रजातियों के लोग चिपके रहते हैं, वे प्रकृति में इन्हीं जैसे होते हैं—वे सब उन कुछ परंपराओं, जीने की आदतों और अंधविश्वासी कहावतों को मानते हैं जो उनके पूर्वजों द्वारा उन तक पहुँचाई गईं। ये अंधविश्वासी चीजें लोगों के दिमाग का मनोवैज्ञानिक परिणाम हों, या वे वस्तुनिष्ठ रूप से असली हों, संक्षेप में कहें, तो उनके प्रति तुम्हारा रवैया इन अंधविश्वासों के पीछे के प्राथमिक विचार या सार को स्पष्ट रूप से पहचानने का होना चाहिए। साथ ही, तुम्हें उनसे प्रभावित या बाधित नहीं होना चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें मानना चाहिए कि लोगों से जुड़ी हर चीज परमेश्वर के हाथ में है, और ये अंधविश्वास नहीं हैं जो लोगों को चलाते हैं, और यकीनन वे लोगों के भाग्य या दैनिक जीवन का निर्धारण नहीं करते। चाहे अंधविश्वास वास्तविक हों या न हों, प्रभावोत्पादक या सच हों या न हों, किसी भी स्थिति में, ऐसे मामलों से निपटते समय लोगों के पास वैसा सिद्धांत होना चाहिए जो सत्य के अनुरूप हो। उन्हें इन अंधविश्वासों के वशीभूत और इनसे नियंत्रित नहीं होना चाहिए, और उन्हें निश्चित रूप से उनके अनुसरण के सामान्य लक्ष्यों या सिद्धांतों के उनके अभ्यास में दखल नहीं देने देना चाहिए। परंपरा, अंधविश्वास और धर्म के विषयों में से, अंधविश्वास लोगों के जीवन, और विभिन्न मामलों पर उनके विचारों और नजरियों में सबसे ज्यादा दखल देता है और उन पर सबसे अधिक प्रभाव डालता है। आम तौर पर लोग ये अंधविश्वासी कहावतें और परिभाषाएँ छोड़ने की हिम्मत नहीं करते, और ये अंधविश्वास, जीवन की जो समस्याएँ पैदा करते हैं वे कभी नहीं सुलझतीं। यह तथ्य कि लोग अपने दैनिक जीवन में इन अंधविश्वासी वक्तव्यों की जंजीरों को तोड़ने की हिम्मत नहीं करते यह साबित करता है कि उनमें अभी भी परमेश्वर में पर्याप्त आस्था नहीं है। उन्होंने अभी भी सभी चीजों पर परमेश्वर की संप्रभुता और मानवजाति के भाग्य पर उसकी संप्रभुता के तथ्य को सच में गहराई से या सटीक रूप से नहीं समझा है। इसलिए जब लोगों का किसी अंधविश्वासी कहावत या अंधविश्वास से जुड़ी कुछ भावनाओं से सामना होता है, तो उनके हाथ-पैर बंध जाते हैं। खास तौर से जब जीवन-मृत्यु, उनकी धन-दौलत, या उनके प्रियजनों के जीवन-मृत्यु से जुड़ी बड़ी घटनाओं की बात हो, तो लोग इन तथाकथित अंधविश्वासी वर्जनाओं और वक्तव्यों से और भी ज्यादा जकड़ जाते हैं, और काफी हद तक खुद को मुक्त कर पाने में असमर्थ हो जाते हैं। वे निरंतर डरते हैं कि वे कोई वर्जना तोड़ देंगे और यह सच हो जाएगा, शायद उन पर कोई विपत्ति टूट पड़े, और शायद उनके साथ कुछ बुरा हो जाए। अंधविश्वास की बात पर, लोग हमेशा इस मसले के सार को गहराई से समझ नहीं पाते, और हर प्रकार के अंधविश्वासी वक्तव्यों की जंजीरों से मुक्त होने में और भी कम सक्षम होते हैं। बेशक, वे लोगों के जीवन पर अंधविश्वास के प्रभाव की असलियत भी समझ नहीं पाते। मानव व्यवहार के परिप्रेक्ष्य से और अंधविश्वास पर लोगों के विचारों और नजरियों से, उनकी चेतना और विचारों के परिप्रेक्ष्य पर अभी भी काफी हद तक शैतान का प्रभाव है, और ये भौतिक संसार से बाहर की किसी अदृश्य शक्ति द्वारा नियंत्रित हैं। इसलिए लोग परमेश्वर का अनुसरण कर उसके वचनों को स्वीकार तो करते हैं, मगर वे अभी भी धन-दौलत, जीवन-मृत्यु और अपने अस्तित्व से जुड़ी अंधविश्वासी कहावतों द्वारा नियंत्रित हैं। इसका यह अर्थ है कि अपनी सोच की गहराई में, वे अभी भी मानते हैं कि ये अंधविश्वासी वक्तव्य सचमुच असली हैं। उनके ऐसा मानने का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है कि लोग अभी भी सच में यह पहचान पाने के बजाय कि उनका भाग्य परमेश्वर के हाथ द्वारा शासित और आयोजित है, इन अंधविश्वासों के पीछे के अदृश्य चंगुल की पकड़ में हैं। इसका यह भी अर्थ है कि वे अपना भाग्य परमेश्वर के हाथों में सौंपने को लेकर पूरी तरह खुशी या सुकून महसूस नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे अनजाने ही शैतान द्वारा नियंत्रित हैं। मिसाल के तौर पर, जो लोग नियमित व्यापार करते हैं, अक्सर यात्रा करते हैं, जो चेहरा पढ़कर भविष्य बताने, आठ तीन लिखित इकाइयों के समूहों, और आई चिंग, यिन और यांग का अध्ययन वगैरह, जैसी अंधविश्वासी गतिविधियों और कहावतों पर यकीन करते हैं, उनके दैनिक जीवन, जीवित रहने के नियम और धारणाएँ आदि, इन अंधविश्वासों से गहराई से प्रभावित और नियंत्रित होते हैं और इनके द्वारा चलाए जाते हैं। यानी वे चाहे जो भी करें, उसका अंधविश्वास से उपजा सैद्धांतिक आधार होना चाहिए। मिसाल के तौर पर, बाहर जाते समय उन्हें देखना होता है कि पंचांग में क्या लिखा है, और क्या कोई वर्जना है। व्यापार चलाते समय, ठेकों पर हस्ताक्षर करते समय, घर खरीदते या बेचते समय, आदि के लिए उन्हें उस दिन का पंचांग देखना जरूरी होता है। अगर वे न देखें तो बहुत अनिश्चित महसूस करते हैं, और नहीं जानते, न जाने क्या हो जाए। वे तभी सुनिश्चित और शांतचित्त होते हैं जब पंचांग देख कर कार्य करते हैं और निर्णय लेते हैं। इसके अलावा, कुछ वर्जनाएँ तोड़ देने के कारण जब कुछ बुरी चीजें हो जाती हैं, तो इन अंधविश्वासों के सच्चे होने के बारे में उनका ज्ञान और विश्वास और ज्यादा पक्का हो जाता है, और वे इन अंधविश्वासों से बंध जाते हैं। वे और ज्यादा मजबूती से मानते हैं कि लोगों का भाग्य, धन-दौलत, जीवन-मृत्यु, अंधविश्वासी कहावतों से नियंत्रित होते हैं, और अनदेखी रहस्यमय दुनिया में एक अदृश्य बड़ा हाथ है जो उनके धन-दौलत और उनके जीवन-मृत्यु को नियंत्रित करता है। इसलिए वे सभी अंधविश्वासी कहावतों, खास तौर से अपने जीवन और जीवित रहने से नजदीकी से जुड़ी कहावतों पर, जोर-शोर से यकीन करते हैं, इस हद तक कि परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, हालाँकि वे मौखिक रूप से मानते और विश्वास करते हैं कि लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है, वे अपने दिल की गहराई में विविध अंधविश्वासी वक्तव्यों से अनजाने ही बाधित और नियंत्रित हो जाते हैं। कुछ लोग इन जीवन वर्जनाओं—किसका किससे टकराव है, किसी के भाग्य में क्या अनहोनी लिखी है, और दूसरे ऐसे ही अंधविश्वासी वक्तव्यों—की सत्य सिद्धांतों के साथ खिचड़ी बना देते हैं, और उनका पालन करते हैं। अंधविश्वासों के प्रति लोगों के ये रवैये, परमेश्वर की मौजूदगी में उनके सत्य और परमेश्वर के वचनों के प्रति रवैयों को गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं। ये लोगों के उन रवैयों को भी गंभीर रूप से प्रभावित करते हैं, जो वे सृजित प्राणियों के नाते सृष्टिकर्ता के प्रति रखते हैं, और बेशक ये उन लोगों के प्रति परमेश्वर के रवैये को भी प्रभावित करते हैं। ऐसा इसलिए कि लोग परमेश्वर का अनुसरण तो करते हैं, पर वे अभी भी स्वेच्छा से और अनजाने ही अंधविश्वास से जुड़े उन विविध विचारों और कहावतों से नियंत्रित और बाधित होते हैं, जो शैतान ने उनके भीतर बैठा दिए थे। साथ ही लोगों के लिए अंधविश्वास से जुड़े इन विभिन्न विचारों और कहावतों को त्यागना भी मुश्किल होता है।
परिवारों द्वारा लोगों को दी गई शिक्षा में, दरअसल लोगों के साथ सबसे अधिक दखलंदाजी अंधविश्वास करते हैं, और उन पर सबसे प्रबल और टिकाऊ प्रभाव डालते हैं। इसलिए जब अंधविश्वास की बात हो, तो लोगों को जाँच-पड़ताल कर उन्हें अपने असल जीवन में एक-एक कर जानना चाहिए, और देखना चाहिए कि क्या अपने निकट परिवारों, विस्तारित परिवारों या कुलों से उन्हें अंधविश्वास को ले कर कोई शिक्षा मिली है या प्रभाव मिला है। अगर मिला है तो, उन्हें इन अंधविश्वासों से चिपके रहने के बजाय इन्हें बारी-बारी से त्याग देना चाहिए, क्योंकि इन चीजों का सत्य से कोई संबंध नहीं है। जब जीने के पारंपरिक ढंग का अभ्यास, लोगों के दैनिक जीवन में अक्सर दिखता है, तो यह उन्हें आज्ञाकारी ढंग से और अनजाने ही शैतान के नियंत्रण में ले आ सकता है। इतना ही नहीं, लोगों के विचारों को प्रभावित करने वाली अंधविश्वासी कहावतें, लोगों को शैतान की सत्ता के अधीन दृढ़ता से नियंत्रित रखने में और ज्यादा सक्षम होती हैं। इसलिए परंपराओं और धर्मों के अलावा, अंधविश्वास से जुड़े किन्हीं भी विचारों, सोच, कहावतों या नियमों को तुरंत त्याग देना चाहिए, और उनसे चिपके नहीं रहना चाहिए। परमेश्वर के साथ कोई वर्जनाएँ नहीं हैं। परमेश्वर के वचन, मानवजाति से अपेक्षाएँ और उसके इरादे सभी परमेश्वर के वचन में स्पष्ट रूप से व्यक्त किए गए हैं। इसके अलावा, परमेश्वर अपने वचनों में लोगों को जो कुछ भी बताता है या उनसे जिसकी माँग करता है, वह सत्य से जुड़ा होता है और इसमें कोई विचित्र तत्व नहीं होते। परमेश्वर लोगों से स्पष्ट और बेबाक ढंग से सिर्फ यह बताता है कि कार्य कैसे करें और किन मामलों में किन सिद्धांतों का पालन करना है। इसमें कोई वर्जनाएँ नहीं हैं और कोई मीनमेख वाले विवरण या कहावतें नहीं हैं। लोगों को जिसका पालन करना चाहिए वह है अपने असली हालात के अनुसार सत्य सिद्धांतों के आधार पर कार्य करना। परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करने और सत्य सिद्धांतों का पालन करने के लिए तुम्हें तिथि या समय देखने की जरूरत नहीं है; कोई वर्जनाएँ नहीं हैं। कुंडली देखना या उस दिन पूर्णिमा है या अमावस्या यह जानना तो दूर रहा, किसी पंचांग से परामर्श लेने की भी जरूरत नहीं है; तुम्हें इन चीजों की फिक्र करने की जरूरत नहीं है। परमेश्वर के अधिकार क्षेत्र और उसकी संप्रभुता में लोग मुक्त और आजाद हैं। उनके दिलों में शांति, प्रफुल्लता और सुकून है, उनमें डर या दहशत और यकीनन दमन नहीं है। दहशत, डर और दमन महज भावनाएँ हैं, जो विविध अंधविश्वासी कहावतों से उपजती हैं। सत्य, परमेश्वर के वचन, परमेश्वर की अपेक्षाएँ और पवित्र आत्मा का कार्य लोगों के मन में शांति और उल्लास, स्वतंत्रता और आजादी, विश्राम और खुशी ले कर आते हैं। जबकि अंधविश्वास लोगों को ठीक इसका उल्टा देता है। वह तुम्हारे हाथ-पाँव बाँध देता है, तुम्हें अमुक-अमुक चीजें करने से रोकता है, तुम्हें फलाँ-फलाँ चीज खाने से रोकता है। तुम जो भी करते हो वह गलत है, जो भी करते हो वह वर्जना से जुड़ी होती है, और सभी चीजें पुराने तिथिपत्र की कहावतों के अनुसार होनी चाहिए। चंद्र कैलेंडर में समय क्या है, किस दिन कौन-सा काम किया जा सकता है, तुम बाहर जा सकते हो या नहीं—बाल कटवाना, स्नान करना, कपड़े बदलना, और लोगों से मिलना, सबकी अपनी वर्जनाएँ होती हैं। खास तौर से, शादियाँ और अंत्येष्टियाँ, घर बदलना, छिटपुट कामों के लिए बाहर जाना और नौकरी तलाशना जैसे काम और भी ज्यादा तिथिपत्र पर निर्भर होते हैं। शैतान लोगों के हाथ-पाँव सख्ती से बाँध देने के लिए तरह-तरह की अंधविश्वासी और अजीबोगरीब कहावतों का इस्तेमाल करता है। ऐसा करने के पीछे उसका उद्देश्य क्या है? (लोगों को नियंत्रित करना।) आधुनिक संदर्भ में कहें, तो वह अपनी मौजूदगी का एहसास करवा रहा है। इसका क्या अर्थ है? वह लोगों को अपनी मौजूदगी का एहसास करवाना चाहता है, वह चाहता है कि वे जान लें कि वर्जनाओं के बारे में उसके ये दावे असली हैं, उसका फैसला अंतिम है, वह ये चीजें कर सकता है, और अगर तुम नहीं सुनोगे तो तुम्हें इसका सबक देखने मिलेगा। वह रूपक कैसा है? कहा गया है : “एक बुजुर्ग औरत तुम्हें दिखाने के लिए लिपस्टिक लगाती है।” इसका अर्थ है कि अगर तुम नहीं सुनोगे या इस वर्जना का उल्लंघन करोगे, तो तुम्हें बस बैठकर इंतजार करना होगा, और तुम्हें उसके नतीजे भुगतने पड़ेंगे। अगर लोग परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो ऐसी वर्जनाओं से डरते हैं, क्योंकि आखिरकार लोग हाड़-माँस के होते हैं, और वे आध्यात्मिक क्षेत्र में दानवों और शैतान के तमाम विभिन्न रूपों से लड़ नहीं सकते। लेकिन अब चूँकि तुम परमेश्वर के समक्ष लौट आए हो, तुम्हारी हर चीज, तुम्हारे विचार और तुम्हारे जीवन का हर दिन परमेश्वर के नियंत्रण में है। परमेश्वर तुम्हारी निगरानी करता है, तुम्हारी रक्षा करता है। तुम परमेश्वर के अधिकार क्षेत्र में जीते हो, उसके तहत अस्तित्व में हो, और शैतान की जकड़ में नहीं हो। इसलिए तुम्हें अब इन वर्जनाओं का पालन करने की जरूरत नहीं है। इसके विपरीत अगर तुम्हें अब भी यह डर है कि शैतान तुम्हें हानि पहुँचा सकता है, या अगर तुम शैतान की बात न सुनो या अंधविश्वासों में बताई गई वर्जनाओं को न मानो, तो तुम्हारे साथ बुरा होगा, तो इससे साबित होता है कि तुम्हें अब भी यकीन है कि शैतान तुम्हारे भाग्य को नियंत्रित कर सकता है। साथ ही, इससे यह भी साबित होता है कि तुम शैतान के हेर-फेर के आगे समर्पण करने को तैयार हो, और परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करने को तैयार नहीं हो। शैतान यह सब लोगों को यह जताने के लिए करता है कि वह वास्तव में अस्तित्व में है। वह मानवजाति और सभी जीवित प्राणियों को नियंत्रित करने के लिए अपनी जादुई शक्तियों का प्रयोग करना चाहता है। इन जीवित प्राणियों को नियंत्रित करने का उद्देश्य उन्हें बरबाद करना है, और उन्हें बरबाद करने का उद्देश्य और अंतिम परिणाम उसका उन्हें निगल जाना है। बेशक, उन्हें नियंत्रित करने का उद्देश्य उनसे अपनी आराधना करवाना भी है। अगर दानव शैतान अपनी मौजूदगी का एहसास करवाना चाहता है, तो उसे थोड़ी प्रभावशीलता दर्शाने की जरूरत है। मिसाल के तौर पर, वह एक अंडे को मल में तब्दील कर सकता है। यह अंडा एक बुरी आत्मा की वेदी को दिया जाता है, अगर तुम भूखे हो, इसे खाना चाहो, और इसे दानव से छीनने की कोशिश करो, तो वह तुम्हें अपनी सामर्थ्य जताने के लिए अंडे को मल में तब्दील कर देगा। तुम उससे डर जाओगे, और खाने के लिए उससे स्पर्धा करने की हिम्मत नहीं करोगे। अगर एक चीज तुम्हें उससे डरा दे, और फिर दूसरी चीज भी तुम्हें उससे डरा दे, तो समय के साथ तुम उस पर आँख बंद कर विश्वास करने लगोगे। अगर तुम लंबे समय तक उस पर आँख बंद कर विश्वास करोगे, तो अपने दिल की गहराई से उसकी आराधना करने लगोगे। क्या शैतान के कार्यों के यही लक्ष्य नहीं हैं? शैतान ठीक इन्हीं लक्ष्यों के लिए कार्य करता है। इंसान चाहे दक्षिण में हों या उत्तर में, चाहे वे किसी भी प्रजाति के हों, सभी घुटने टेककर बुरी और अस्वच्छ आत्माओं की आराधना करते हैं। वे घुटने टेककर उनकी आराधना क्यों करते हैं? जिन बुरी और अस्वच्छ आत्माओं की वे घुटने टेककर आराधना करते हैं, उनके लिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी लगातार अगरबत्तियाँ क्यों जलाई जाती हैं? अगर तुम कहते हो कि वे असली नहीं हैं, तो इतने सारे लोग उनमें क्यों विश्वास रखते हैं और उनके लिए अगरबत्तियाँ क्यों जलाते रहते हैं, उनकी जी-हुजूरी करते रहते हैं, उनसे वादे करते हैं, और फिर पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने वादे पूरे करते हैं? क्या इसलिए नहीं कि उन बुरी और अस्वच्छ आत्माओं ने कुछ किया है? अगर तुम बुरी आत्माओं की बात नहीं सुनोगे, तो वे तुम्हें बीमार कर देंगे, तुम्हारे जीवन में सब गड़बड़ कर देंगे, तुम पर कहर बरपाएंगे, तुम्हारे परिवार के बैलों को बीमार कर खेत जोतने में असमर्थ बना देंगे, और तुम्हारे परिवार के लोगों की कार दुर्घटनाएँ भी करवा देंगे। वे तुम्हें परेशान करने के तरीके ढूँढ़ेंगे, और वे जितना ऐसा करेंगे, तुम्हारी मुश्किलें उतनी ही बढ़ेंगी। तुम उनका पालन करने से मना नहीं कर सकते, और अंत में, तुम्हारे पास घुटने टेककर उनकी आराधना करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं होगा, और तुम स्वेच्छा से उनके आगे समर्पण करने के लिए अपना सिर झुका दोगे, और तब वे खुश हो जाएँगे। उस समय से, तुम उनके हो जाओगे। समाज के उन लोगों को देखो, जो लोमड़ी की आत्माओं या वेदियों पर प्रकट होने वाली आध्यात्मिक क्षेत्र की विभिन्न हस्तियों द्वारा नियंत्रित होते हैं। इसे हम क्या कहते हैं? हम कहते हैं कि वे बुरी आत्माओं के वश में हैं और उनमें बुरी आत्माएँ वास करती हैं। आम लोगों के बीच इसे आत्माओं द्वारा नियंत्रित या किसी के शरीर का किसी चीज के काबू में होना कहा जाता है। जब बुरी आत्माएँ हथियाने के लिए शरीर ढूँढ़ना शुरू करती हैं, और उनके निशाने के लोग उन्हें ऐसा करने देने को तैयार नहीं होते, तो बुरी आत्माएँ उनके साथ दखलंदाजी करती हैं और उन्हें बाधित करती हैं, जिससे उनके परिवारों में दुर्घटनाएँ होती हैं और मुश्किलें खड़ी होती हैं। व्यापारियों को नुकसान उठाना पड़ता है, और उन्हें ग्राहक नहीं मिलते; उनके आगे इस हद तक अवरोध डाले जाते हैं कि वे गुजारा नहीं कर पाते और कोई भी तरक्की करना उनके लिए बहुत मुश्किल होता है। अंत में, वे समर्पण कर राजी हो जाते हैं। उनके राजी होने के बाद, बुरी आत्माएँ कुछ कारनामे करने, कुछ चिह्न और चमत्कार दिखाने, दूसरे लोगों को आकर्षित करने, रोगों का इलाज करने, भविष्य बताने, और मृत आत्माओं को पुकारने आदि के लिए उनके भौतिक शरीर का इस्तेमाल करती हैं। क्या बुरी आत्माएँ लोगों को गुमराह करने, भ्रष्ट करने और नियंत्रित करने के लिए इन साधनों का इस्तेमाल नहीं कर रही हैं?
अगर परमेश्वर के विश्वासी भी इन अंधविश्वासी कहावतों को ले कर गैर-विश्वासियों वाली सोच और राय ही रखते हैं, तो इसकी प्रकृति क्या है? (यह परमेश्वर की अवहेलना करना और ईशनिंदा करना है।) सही है, यह जवाब बिल्कुल सही है, यह परमेश्वर के विरुद्ध गंभीर ईशनिंदा है! तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो, और कहते हो कि तुम उसमें विश्वास रखते हो, मगर साथ-ही-साथ तुम अंधविश्वासों द्वारा नियंत्रित और बाधित हो रहे हो। तुम उन विचारों का अनुसरण करने में भी सक्षम हो जो अंधविश्वासों द्वारा लोगों के भीतर बैठाए जाते हैं, और इससे भी ज्यादा गंभीर, तुममें से कुछ लोग अंधविश्वासों से जुड़े इन विचारों और तथ्यों से डरते भी हो। यह परमेश्वर के विरुद्ध सबसे बड़ी ईशनिंदा है। न सिर्फ तुम परमेश्वर की गवाही देने में असमर्थ हो, बल्कि तुम परमेश्वर की संप्रभुता का प्रतिरोध करने में शैतान का अनुसरण भी कर रहे हो—यह परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा है। क्या तुम समझते हो? (हाँ।) अंधविश्वासों में विश्वास रखने वाले या उनका अनुसरण करने वाले लोगों का सार परमेश्वर के विरुद्ध ईशनिंदा करना है, तो क्या तुम्हें उन तरह-तरह की शिक्षाओं को त्याग नहीं देना चाहिए जो अंधविश्वासों ने तुम्हारे भीतर बैठाए हैं? (बिल्कुल।) उन्हें त्यागने के अभ्यास का सबसे सरल तरीका खुद को उनसे बाधित नहीं होने देना है, चाहे वे अंधविश्वास असली हों या न हों, और चाहे उनके कारण कुछ भी नतीजे सामने आएँ। भले ही किसी खास चीज के बारे में अंधविश्वासों द्वारा दिए गए वक्तव्य वस्तुपरक दृष्टि से वास्तविक हों, फिर भी तुम्हें उनसे बाधित या नियंत्रित नहीं होना चाहिए। क्यों? क्योंकि हर चीज द्वारा परमेश्वर द्वारा आयोजित है। अगर शैतान कुछ कर भी पाता है तो, यह परमेश्वर की अनुमति से ही होता है। जैसा कि परमेश्वर ने कहा है, परमेश्वर की अनुमति के बिना शैतान तुम्हारा एक भी बाल बाँका करने की हिम्मत नहीं कर सकता। यह एक तथ्य है, एक सत्य है जिसमें लोगों को विश्वास रखना चाहिए। इसलिए, तुम्हारी कोई भी पलक फड़फड़ाए, या तुम्हें अपने दाँत गिरने, बाल झड़ने, या मौत के सपने आएँ, या कोई भी डरावना सपना आए, तुम्हें यकीन करना चाहिए कि ये चीजें परमेश्वर के हाथों में हैं, और तुम्हें उनसे प्रभावित या बाधित नहीं होना चाहिए। परमेश्वर जो कार्य पूरे करना चाहता है उन्हें कोई बदल नहीं सकता, और परमेश्वर द्वारा नियत चीजों को कोई भी बदल नहीं सकता। परमेश्वर द्वारा नियत या नियोजित चीजें वे तथ्य हैं जो पहले ही पूरे किए जा चुके हैं। चाहे तुम्हें कोई पूर्वानुमान मिले या आध्यात्मिक क्षेत्र के ये दानव और शैतान तुम्हें चाहे जैसी भी पूर्वसूचना दें, तुम्हें उनसे बाधित नहीं होना चाहिए। बस विश्वास रखो कि ये सब परमेश्वर के हाथों में हैं, और लोगों को परमेश्वर के आयोजन और व्यवस्था को समर्पित होना चाहिए। जो चीजें होने को हैं या जो नहीं हो सकतीं, वे सभी परमेश्वर के नियंत्रण और उसके विधान में हैं। उनमें दखल देना तो दूर रहा, कोई उन्हें बदल भी नहीं सकता। यह एक तथ्य है। वह सृष्टिकर्ता ही है जिसकी लोगों को घुटने टेककर आराधना करनी चाहिए, न की अंधविश्वास को साकार या बहाल कर सकने वाली आध्यात्मिक क्षेत्र की किसी और ताकत की नहीं। दानवों और शैतान को प्राप्त जादुई शक्तियाँ चाहे जितनी भी विशाल क्यों न हों, वे चाहे जो भी चमत्कार कर सकें, जो भी चीज साकार कर सकें, और किसी व्यक्ति के जितने भी पूर्वानुमानों या अंधविश्वासी कहावतों को असलियत में बदल सकें, इनमें से किसी का भी यह अर्थ नहीं है कि लोगों का भाग्य उनके हाथों में है। लोगों को घुटने टेककर जिसकी आराधना करनी चाहिए और जिस पर विश्वास रखना चाहिए वह दानव और शैतान नहीं बल्कि सृष्टिकर्ता होना चाहिए। परंपराओं, अंधविश्वासों और धर्मों को ले कर परिवार द्वारा दी गई शिक्षा के विषय में विचार करते समय लोगों को यही चीजें समझनी चाहिए। संक्षेप में कहें, तो यह चाहे परंपरा से संबंधित हो, या फिर अंधविश्वास या धर्म से, अगर इनमें से किसी चीज का परमेश्वर के वचनों, सत्य और लोगों से परमेश्वर की अपेक्षाओं से कोई लेना-देना न हो, तो लोगों को उसे त्याग कर उसे त्याग देना चाहिए। चाहे यह कोई जीवनशैली हो, या किसी प्रकार की सोच, चाहे यह कोई नियम हो या सिद्धांत, अगर सत्य से इसका संबंध नहीं है, तो लोगों को इसे छोड़ देना चाहिए। मिसाल के तौर पर, लोगों की धारणाओं में, ईसाई धर्म, कैथोलिक धर्म, यहूदी धर्म वगैरह जैसे धर्मों से जुड़ी चीजों को अंधविश्वास, परंपरा या मूर्तिपूजा से अपेक्षाकृत श्रेष्ठ और पवित्र माना जाता है। लोग अपनी धारणाओं और अपने मन की गहराई में उनके प्रति श्रद्धा महसूस करते हैं और उन्हें पसंद करते हैं, लेकिन फिर भी लोगों को धर्म से जुड़े प्रतीकों, छुट्टियों, और निशानियों को त्याग देना चाहिए और उन्हें ज्यादा सँजोना नहीं चाहिए, या उनसे सत्य जैसे ही पेश नहीं आना चाहिए, घुटने टेककर उनकी आराधना नहीं करनी चाहिए, या अपने दिलों में उनके लिए जगह बना कर भी नहीं रखनी चाहिए। ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। धार्मिक प्रतीक, धार्मिक गतिविधियाँ, धार्मिक छुट्टियाँ, कुछ प्रख्यात धार्मिक चीजें और साथ ही धर्म की कुछ अपेक्षाकृत श्रेष्ठ कहावतें वगैरह, ये सब धर्म के उस विषय के दायरे में आते हैं जिसके बारे में हमने चर्चा की है। संक्षेप में कहें, तो ये सब कहने का उद्देश्य तुम्हें एक तथ्य समझाना है : जब अंधविश्वास, परंपरा और धर्म से जुड़ी चीजों की बात आती है, वे श्रेष्ठ हों या अपेक्षाकृत विचित्र, अगर वे सत्य से संबंधित न हों, तो उन सबको त्याग देना चाहिए, और लोगों को उनसे चिपके नहीं रहना चाहिए। बेशक, सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले विषयों को खास तौर पर त्याग देना चाहिए, और उन्हें बिल्कुल भी नहीं रखना चाहिए। लोगों को उनके परिवारों से मिली शिक्षा और परिवार के प्रभाव से उपजी इन चीजों को निस्संदेह त्याग देना चाहिए, और खुद को उनसे प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। मिसाल के तौर पर, क्रिसमस के वक्त कुछ भाई-बहनों से मिलने पर तुम उन्हें देखते ही कहते हो, “मेरी क्रिसमस! हैप्पी क्रिसमस!” क्या “मेरी क्रिसमस” कहना अच्छी बात है? (नहीं, अच्छी बात नहीं है।) क्या यह कहना उचित है, “चूँकि यह वह दिन मनाने के लिए है जब यीशु पैदा हुआ था, इसलिए क्या हमें छुट्टी लेकर कुछ भी नहीं करना चाहिए, और अपने काम और कर्तव्य में हम जितने भी व्यस्त क्यों न हों, क्या हमें सब बंदकर परमेश्वर के कार्य के अतीत के उस समय के सबसे स्मरणीय दिवस को मनाने पर ध्यान नहीं देना चाहिए?” (नहीं, यह उचित नहीं है।) यह क्यों उचित नहीं है? (क्योंकि यह वह कार्य है जो परमेश्वर ने अतीत में किया था, और यह वह चीज है जिसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं है।) सैद्धांतिक तौर पर बात यही है। सैद्धांतिक तौर पर तुमने इस मसले की जड़ को जान लिया है, मगर वास्तविकता में क्या है? यह सबसे सरल मामला है, और तुम लोग मुझे जवाब नहीं दे सकते। लोग जब ऐसी चीजें करते हैं, तो परमेश्वर को अच्छा नहीं लगता; इसे देखकर उसे घृणा होती है। यह बात इतनी सरल है। छुट्टियों के समारोहों के दौरान गैर-विश्वासी कहते हैं, “हैप्पी न्यू इयर! हैप्पी क्रिसमस!” अगर वे मेरा अभिनंदन करते हैं, तो मैं बस सिर हिलाकर कहता हूँ, “तुम्हें भी!” यानी “तुम्हें भी मेरी क्रिसमस।” मैं बस इस अभिवादन का दिखावा भर करता हूँ। लेकिन भाई-बहनों से मिलने पर मैं यह नहीं कहता। ऐसा क्यों है? क्योंकि यह छुट्टी गैर-विश्वासियों के लिए है, एक व्यावसायिक छुट्टी। पश्चिम में, लगभग सभी छुट्टियाँ, चाहे वे पारंपरिक हों या इंसान द्वारा बनाई हुई, वास्तव में वाणिज्य और अर्थतंत्र से जुड़ी होती हैं। लंबे इतिहास वाले कुछ राष्ट्रों में भी, उनकी छुट्टियाँ महज परंपरा से जुड़ी होती हैं और ये बीसवीं शताब्दी से धीरे-धीरे करके तरह-तरह की वाणिज्यिक गतिविधियों में विकसित हो गई हैं, और व्यापारियों के लिए उत्कृष्ट वाणिज्यिक अवसर हैं। ये छुट्टियाँ वाणिज्यिक हों या पारंपरिक, किसी भी स्थिति में, इनका उन लोगों से कोई लेना-देना नहीं है जो परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। गैर-विश्वासी या धार्मिक लोग भी इन छुट्टियों को ले कर चाहे जितने भी उत्साही क्यों न हों, या किसी भी देश या राष्ट्र में ये छुट्टियाँ चाहे जितनी भी भव्य और शानदार क्यों हों, इनका हम परमेश्वर का अनुसरण करने वालों से कोई लेना-देना नहीं है, ये वे छुट्टियाँ नहीं हैं जो हमें मनानी चाहिए, उस दिन उत्सव मनाना या उसे स्मरणीय बनाना तो दूर की बात है। गैर-विश्वासियों से आने वाली पारंपरिक छुट्टियों को तो छोड़ ही दो, ये चाहे किसी भी प्रजाति, देशज समूह या काल अवधि से आई हों, इनका हमारे साथ कोई लेना-देना नहीं है। परमेश्वर के कार्य के तीन चरणों की प्रत्येक अवधि और प्रत्येक खंड से जुड़ी बरसियों का भी हमसे कोई लेना-देना नहीं है। मिसाल के तौर पर, व्यवस्था के युग की छुट्टियों का हमसे कोई लेना-देना नहीं है, और अनुग्रह के युग के ईस्टर, क्रिसमस, वगैरह का भी यकीनन हमसे कोई लेना-देना नहीं है। इन चीजों के बारे में संगति करके मैं लोगों को क्या समझाना चाहता हूँ? यह कि परमेश्वर अपने कार्य में छुट्टियों या किसी विनियम को नहीं मानता। वह स्वतंत्र रूप से आजाद होकर आजादी के साथ बिना किसी वर्जना के कार्य करता है, और कभी कोई छुट्टी नहीं मनाता। भले ही यह परमेश्वर के पिछले कार्य का आरंभ हो, अंत हो या कोई विशेष दिन हो, परमेश्वर उसे कभी नहीं मनाता। परमेश्वर इन तिथियों, दिनों और काल को नहीं मनाता और लोगों को भी इनसे विशेष रूप से अवगत नहीं कराता। एक ओर, यह लोगों को बताता है कि परमेश्वर ये दिन नहीं मनाता और उसे इन दिनों की परवाह नहीं है। दूसरी ओर, यह लोगों को बताता है कि उनके लिए इन दिनों को मनाना या उसका उत्सव करना जरूरी नहीं है, और उन्हें ये दिन नहीं रखने चाहिए। लोगों को परमेश्वर के कार्य से जुड़े किसी दिन या काल को याद रखने की जरूरत नहीं है, उन्हें मनाना तो दूर की बात है। लोगों को क्या करना चाहिए? उन्हें परमेश्वर के आयोजन के प्रति समर्पित होना चाहिए और उसके मार्गदर्शन में परमेश्वर की संप्रभुता को स्वीकार करना चाहिए। उन्हें सत्य को स्वीकार करना चाहिए और अपने दैनिक जीवन में सत्य के प्रति समर्पण करना चाहिए। यह बात इतनी सरल है। इस प्रकार, क्या लोगों के लिए जीवन ज्यादा आसान और खुशहाल नहीं होगा? (बिल्कुल।) इसलिए इन मामलों पर संगति करने से प्रत्येक व्यक्ति को वास्तव में आजादी और मुक्ति मिलती है, बंधन नहीं। क्योंकि एक ओर, ये विषय वस्तुपरक तथ्य और सच्ची चीजें हैं जो लोगों को समझनी चाहिए, और दूसरी ओर ये लोगों को मुक्त भी करती हैं और जिन चीजों का उन्हें पालन नहीं करना चाहिए उन्हें त्यागने की अनुमति देती हैं। साथ ही ये लोगों को यह भी जानने देती हैं कि ये चीजें सत्य नहीं दर्शातीं, और परमेश्वर का बस एक ही रास्ता है जिसका लोगों को पालन करना चाहिए, और वह है सत्य। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।)
जब परिवार का विषय आता है, तो परिवार द्वारा दी गई शिक्षा को त्यागने के अलावा कुछ दूसरे पहलू भी हैं जिन्हें लोगों को त्याग देना चाहिए। हमने पहले किसी व्यक्ति के परिवार द्वारा उसे दी गई विचारों की शिक्षा के बारे में संगति की थी, और फिर हमने जीवन के बारे में उन विविध कहावतों पर संगति की थी जिसकी शिक्षा लोगों में उनके परिवार द्वारा भरी जाती है। सभी परिवार लोगों को एक स्थायी जीवन और विकास का अवसर देते हैं। वे लोगों को उनकी विकास प्रक्रिया के दौरान एक सुरक्षा भावना, निर्भर रहने को कोई चीज, और बुनियादी जरूरतों का स्रोत मुहैया करते हैं। उनकी भावनात्मक जरूरतें पूरी करने के अलावा, परिवार उनकी भौतिक जरूरतें भी पूरी करता है। बेशक, वे जीवन की जरूरतें और सामान्य जीवन ज्ञान भी प्राप्त करते हैं, जिसकी उन्हें बड़े होते समय जरूरत होती है। ऐसी बहुत-सी चीजें हैं जो लोग अपने परिवारों से प्राप्त करते हैं, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए परिवार जीवन का वह अभिन्न अंग है जिसे काटना कठिन है। परिवार से लोगों को जो लाभ मिलते हैं वे असंख्य होते हैं, लेकिन हमारी संगति की विषयवस्तु के परिप्रेक्ष्य से देखें तो विविध नकारात्मक प्रभाव, और जीवन के नकारात्मक रवैये और नजरिये जो परिवार लोगों को देते हैं वे भी असंख्य होते हैं। यानी तुम्हारा परिवार एक ओर तुम्हारे भौतिक जीवन के लिए बहुत-सी अनिवार्य चीजें देता है, तुम्हारी बुनियादी जरूरतें पूरी करता है, और तुम्हें एक भावनात्मक आधार और सहारा देता है, तो साथ ही दूसरी ओर वह तुम्हारे लिए बेमतलब की मुसीबतें भी खड़ी करता है। बेशक, सत्य समझने से पहले, लोगों के लिए इन मुसीबतों से बच निकलना और उन्हें त्यागना मुश्किल है। किसी हद तक तुम्हारा परिवार तुम्हारे दैनिक जीवन और अस्तित्व में छोटी-बड़ी बाधाएँ पैदा करता है जिससे अपने परिवार के प्रति तुम्हारी भावनाएँ अक्सर पेचीदा और विरोधाभासी हो जाती हैं। चूँकि तुम्हारा परिवार भावनात्मक स्तर पर तुम्हारे जीवन में दखलंदाजी करते हुए तुम्हारी भावनात्मक जरूरतें पूरी करता है, इसलिए ज्यादातर लोगों के मन में “परिवार” शब्द पेचीदा और साफ-साफ न बताए जा सकने वाले विचार पैदा करता है। तुम अपने परिवार के प्रति स्मृतियों, लगाव और बेशक आभार से सराबोर महसूस करते हो। मगर साथ ही तुम्हारे परिवार द्वारा लाई गई उलझनें तुम्हें यह महसूस कराती हैं कि यह मुसीबत का एक बड़ा स्रोत है। यानी व्यक्ति के वयस्क हो जाने के बाद परिवार को लेकर उनकी परिकल्पना, विचार और नजरिये अपेक्षाकृत जटिल हो जाते हैं। अगर वे अपने परिवार को पूरी तरह जाने दें, त्याग दें या उसके बारे में सोचना बंद कर दें, तो उनका जमीर इसे सह नहीं पाएगा। अगर वे अपने परिवार के बारे में सोच कर, उसे याद कर, खुद पूरे दिल से ऐसे झोंकने की सोचें जैसा वे तब करते थे जब वे बच्चे थे, तो वे ऐसा करने को अनिच्छुक होंगे। अपने परिवारों से निपटते समय लोगों को अक्सर ऐसी दशा, ऐसे विचार, सोच, या शिक्षा का अनुभव होता है, और ऐसे विचार या सोच और शिक्षा उनके परिवारों द्वारा दी गई शिक्षा से भी उपजती हैं। आज हम इस विषय पर संगति करेंगे : बोझ जो परिवार लोगों पर लादते हैं।
अभी-अभी हमने इस बारे में संगति की कि परिवार अक्सर कैसे किसी व्यक्ति को पसोपेश में डाल कर परेशान कर देता है। व्यक्ति पूरी तरह त्याग देना चाहता है, लेकिन उसके जमीर में दोष की एक भावना होती है, और उसका दिल नहीं मानता। अगर वह न त्यागे, बल्कि पूरी लगन से अपने परिवार से जुड़े रहते हुए उनसे मिलकर रहे, तो वह अक्सर समझ नहीं पाता कि उसे क्या करना चाहिए, क्योंकि उसके कुछ नजरिये उसके परिवार से भिन्न होते हैं। इसलिए लोगों को लगता है कि अपने परिवार से व्यवहार खास तौर पर मुश्किल है; वे उनके साथ न तो पूरी तरह सुसंगत हो पाते हैं, न ही उनसे पूरी तरह से अलग हो पाते हैं। फिर चलो, आज हम इस पर संगति करें कि व्यक्ति को अपने परिवार से अपना रिश्ता कैसे सँभालना चाहिए। इस विषय में परिवार से आए कुछ बोझ जुड़े हैं, जोकि परिवार को त्याग देने की विषयवस्तु का तीसरा विषय है—अपने परिवार से मिलने वाले बोझ त्याग देना। यह एक अहम विषय है। परिवार से आए बोझों से जुड़ी वे कौन-सी कुछ चीजें हैं जिन्हें तुम सब समझ पाते हो? क्या इनका संबंध व्यक्ति की जिम्मेदारियों, दायित्वों, संतानोचित धर्मनिष्ठा, वगैरह से है? (हाँ।) परिवार से आने वाले बोझों में वे जिम्मेदारियाँ, दायित्व, और संतानोचित धर्मनिष्ठा होती हैं जो किसी व्यक्ति को अपने परिवार के लिए पूरी करनी चाहिए। एक ओर, ये वे जिम्मेदारियाँ और दायित्व हैं जो किसी व्यक्ति को पूरे करने चाहिए, लेकिन दूसरी ओर—कुछ खास हालात में और कुछ खास लोगों के साथ—ये व्यक्ति के जीवन में बाधाएँ बन जाते हैं, और इन्हीं बाधाओं को हम बोझ कहते हैं। जब परिवार से आने वाले बोझों की बात आती है, तो हम इसके दो पहलुओं पर चर्चा कर सकते हैं। एक पहलू है माता-पिता की अपेक्षाएँ। प्रत्येक माता-पिता या बड़े-बुजुर्गों की अपने बच्चों से अलग-अलग छोटी-बड़ी अपेक्षाएँ होती हैं। वे आशा करते हैं कि उनके बच्चे मेहनत से पढ़ाई करेंगे, अच्छा बर्ताव करेंगे, स्कूल में अव्वल रहेंगे, सबसे श्रेष्ठ अंक प्राप्त करेंगे और कभी नहीं पिछड़ेंगे। वे चाहते हैं कि उनके बच्चों को शिक्षक और सहपाठी आदर से देखें, और उनके ग्रेड नियमित रूप से 80 से ऊपर हों। अगर बच्चे को 60 अंक मिले, तो उसकी पिटाई हो जाएगी, और 60 से कम मिले, तो उसे दीवार की ओर मुँह करके खड़े होकर अपनी गलतियों के बारे में सोचना पड़ेगा, या उन्हें बिना हिले खड़े रहने की सजा मिलेगी। उन्हें खाने, सोने, टीवी देखने और कंप्यूटर पर खेलने नहीं दिया जाएगा, और बढ़िया कपड़ों और खिलौनों का जो वायदा पहले किया गया था वे चीजें अब उसके लिए नहीं खरीदी जाएँगी। सभी माता-पिता अपने बच्चों से तरह-तरह की अपेक्षाएँ और बड़ी-बड़ी आशाएँ रखते हैं। वे आशा करते हैं कि उनके बच्चे जीवन में सफल होंगे, करियर में तेजी से तरक्की करेंगे, और अपने पूर्वजों और परिवार का सम्मान और गौरव बढ़ाएँगे। कोई माता-पिता नहीं चाहते कि उनके बच्चे भिखारी, किसान या लुटेरे और डाकू बनें। माता-पिता यह भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे समाज में प्रवेश करने के बाद दोयम दर्जे के नागरिक बनें, कूड़ा-करकट में से चीजें उठाएँ, फुटपाथों पर खोमचा लगाएँ, फेरीवाला बनें, या दूसरों द्वारा नीची नजर से देखे जाएँ। भले ही माता-पिता की ये अपेक्षाएँ बच्चे साकार कर पाएँ या न कर पाएँ, माता-पिता हर हाल में अपने बच्चों से तरह-तरह की अपेक्षाएँ रखते हैं। वे जिन चीजों या अनुसरणों को अच्छा और श्रेष्ठ मानते हैं, अपने बच्चों पर उनका प्रक्षेपण ही उनकी अपेक्षाएँ हैं, जो उन्हें आशान्वित करता है, वे उम्मीद करते हैं कि बच्चे ये अभिभावकीय इच्छाएँ पूरी कर सकेंगे। तो माता-पिता की ये अभिलाषाएँ अनजाने ही उनके बच्चों के लिए क्या तैयार करती हैं? (दबाव।) ये दबाव बनाती हैं, इसके अलावा और क्या? (बोझ।) ये दबाव बन जाती हैं और ये जंजीरें भी बन जाती हैं। चूँकि माता-पिता अपने बच्चों से अपेक्षाएँ रखते हैं, इसलिए वे उन अपेक्षाओं के अनुसार अपने बच्चों को अनुशासित, मार्गदर्शित और शिक्षित करेंगे; वे अपनी अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए अपने बच्चों में निवेश भी करेंगे, या उसके लिए कोई कीमत भी चुकाएँगे। मिसाल के तौर पर, माता-पिता आशा करते हैं कि उनके बच्चे स्कूल में उत्कृष्ट होंगे, कक्षा में अव्वल रहेंगे, हर परीक्षा में 90 अंक से ऊपर लाएँगे, हमेशा प्रथम रहेंगे—या कम-से-कम पांचवें स्थान से कभी नीचे नहीं गिरेंगे। ये अपेक्षाएँ व्यक्त करने के बाद, क्या साथ ही माता-पिता ये लक्ष्य पाने में अपने बच्चों की मदद करने के लिए कुछ त्याग भी नहीं करते हैं? (बिल्कुल।) ये लक्ष्य पाने हेतु बच्चे पाठ दोहराने और इबारत याद करने के लिए सुबह जल्दी उठ जाएँगे, और उनका साथ देने के लिए उनके माता-पिता भी जल्दी उठ जाएँगे। गर्मी के दिनों में वे अपने बच्चों के लिए पंखा करेंगे, ठंडा पेय बना कर देंगे, या उनके लिए आइसक्रीम खरीदेंगे। वे सुबह सबसे पहले उठ जाएँगे ताकि अपने बच्चों के लिए सोया दूध, तली हुई ब्रेड स्टिक्स, और अंडे बना सकें। खास तौर से परीक्षाओं के समय माता-पिता अपने बच्चों को तली हुई ब्रेडस्टिक और दो अंडे खिलाएँगे, इस उम्मीद से कि इससे उन्हें 100 अंक पाने में मदद मिलेगी। अगर तुम कहोगे, “मैं ये सब नहीं खा सकता, बस एक अंडा काफी है,” तो वे कहेंगे, “बेवकूफ बच्चा, तू एक अंडा खाएगा, तो तुझे सिर्फ दस अंक मिलेंगे। मम्मी के लिए एक और खा। पूरी कोशिश कर; अगर ये खा लेगा तो तुझे पूरे सौ अंक मिलेंगे।” बच्चा कहेगा, “अभी-अभी उठा हूँ, अभी नहीं खा सकता।” “नहीं, तुझे खाना पड़ेगा! अच्छा बच्चा बन, माँ की बात मान ले। मम्मी यह तेरे ही भले के लिए कर रही है, आ जा, इसे अपनी माँ के लिए खा ले।” बच्चा सोच-विचार करता है, “माँ को बहुत परवाह है। वह जो भी करती है मेरे भले के लिए ही करती है, इसलिए मैं ये खा लूँगा।” जो खाया गया वह अंडा था, मगर वास्तव में क्या निगला गया? यह दबाव था; अरुचि और अनिच्छा थी। खाना अच्छी बात है और उसकी माँ की अपेक्षाएँ ऊँची हैं, मानवता और जमीर के दृष्टिकोण से व्यक्ति को उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, लेकिन तार्किक आधार पर, ऐसे प्यार का प्रतिरोध करना चाहिए और काम करने के ऐसे तरीके को स्वीकार नहीं करना चाहिए। मगर, आह, तुम कुछ नहीं कर सकते। अगर तुम नहीं खाओगे, तो वह गुस्सा हो जाएगी और तुम्हें मार पड़ेगी, डांट लगेगी, और कोसा भी जाएगा। कुछ माता-पिता कहते हैं, “खुद को देख, इतना नालायक है कि एक अंडा खाने के लिए भी इतनी कोशिश करनी पड़ती है। एक तला हुआ ब्रेडस्टिक और दो अंडे, क्या ये सौ अंक नहीं हैं? क्या ये सब तेरे भले के लिए नहीं हैं? फिर भी तू ये नहीं खा सकता—अगर तू नहीं खा सकता तो आगे चल कर तू खाने के लिए भीख मांगता फिरेगा। वही कर जो तुझे ठीक लगे!” ऐसे भी बच्चे होते हैं जो सच में नहीं खा सकते, लेकिन उनके माता-पिता उन्हें खाने को मजबूर करते हैं, और बाद में वे सारा खाना उल्टी कर देते हैं। उल्टी करना अपने आप में कोई बड़ी बात नहीं है, मगर उनके माता-पिता और ज्यादा गुस्सा हो जाते हैं, और बच्चों को सहानुभूति और समझ मिलना तो दूर रहा, उनकी भर्त्सना होती है। भर्त्सना सुनने के साथ-साथ उन्हें और भी ज्यादा ऐसा लगता है मानो उन्होंने अपने माता-पिता को निराश कर दिया हो और वे खुद को और ज्यादा दोष देते हैं। इन बच्चों के लिए जीवन आसान नहीं है, है कि नहीं? (आसान नहीं है।) उल्टी करने के बाद तुम बाथरूम में चोरी-छिपे रोते हो, अभी भी उल्टी करने का बहाना करते हो। बाथरूम से बाहर आने के बाद, तुम जल्दी-जल्दी अपनी आँखें पोंछ लेते हो, यह पक्का करते हुए कि तुम्हारी माँ नहीं देख रही है। क्यों? अगर वह देख लेगी, तो तुम्हें डाँट पड़ेगी, और कोसा भी जाएगा : “खुद को देख, कितना नालायक है; किसके लिए रो रहा है? निकम्मा कहीं का, तू ऐसा बढ़िया खाना भी नहीं खा सकता। तू क्या खाना चाहता है? अगर तुझे इसके बाद खाना न मिले, तो तू ये खा पाएगा, है कि नहीं? तू भुगतने के लिए ही पैदा हुआ है! मेहनत से नहीं पढ़ेगा, परीक्षा ठीक से नहीं देगा, तो आखिर खाने के लिए भीख माँगता फिरेगा!” लगता है तुम्हारी माँ की हर बात तुम्हें शिक्षा देने के लिए है, फिर भी यह भर्त्सना लगती है—लेकिन तुम्हें क्या महसूस होता है? तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ और प्यार महसूस करते हो। तो, इस स्थिति में, तुम्हारी माँ चाहे जितनी भी सख्ती से बोले, तुम्हें आँखों में आँसू लिए उसकी बातों को स्वीकार कर निगलना होगा। तुम न भी खा सको, तो भी तुम्हें खाना बर्दाश्त करना पड़ेगा, और मतली आने पर भी तुम्हें खाना पड़ेगा। क्या ऐसा जीवन सहना आसान है? (नहीं, आसान नहीं है।) क्यों नहीं है? तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं से कैसी शिक्षा पाते हो? (परीक्षा में बढ़िया उत्तर देने और सफल भविष्य बनाने की जरूरत।) तुम्हें भविष्य की सँभावना दिखानी होगी, तुम्हें अपनी माँ के प्यार, कड़ी मेहनत और त्याग की कसौटी पर खरा उतरना होगा, तुम्हें अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ पूरी करनी होंगी, और उन्हें निराश नहीं करना होगा। वे तुमसे बहुत प्यार करते हैं, उन्होंने तुम्हें सब-कुछ दिया है, वे अपना जीवन लगा कर तुम्हारे लिए सब-कुछ करते हैं। तो उनके सारे त्याग, उनकी शिक्षा और उनका प्यार भी क्या बन गए हैं? वे ऐसी चीज बन गए हैं जो तुम्हें चुकाना है, और साथ ही वे तुम्हारा बोझ बन गए हैं। बोझ इसी तरह तैयार होता है। चाहे तुम्हारे माता-पिता ये चीजें सहजज्ञान से करते हों, प्यार के कारण करते हों, या सामाजिक जरूरतों के कारण, आखिर में तुम्हें शिक्षा देने और तुमसे बर्ताव करने के इन तरीकों का प्रयोग करने और तुम्हारे भीतर तरह-तरह के विचार बैठाने से भी तुम्हारी आत्मा को आजादी, मुक्ति, आराम या उल्लास नहीं मिलता। इनसे तुम्हें क्या मिलता है? जो मिलता है वह दबाव है, डर है, यह तुम्हारे जमीर की निंदा और बेचैनी है। इसके अलावा और क्या? (जंजीरें और बंधन।) जंजीरें और बंधन। इसके अलावा, अपने माता-पिता की ऐसी अपेक्षाओं के अधीन तुम उनकी आशाओं के लिए जीने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते। उनकी अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए, उनकी अपेक्षाओं को अधूरा न छोड़ने के लिए तुम प्रत्येक विषय पूरी बारीकी और ईमानदारी से पढ़ते हो, और वह सब करते हो जो वे तुम्हें कहते हैं। वे तुम्हें टीवी नहीं देखने देते, तो तुम सचमुच देखना चाह कर भी, बात मानकर टीवी नहीं देखते। तुम खुद को क्यों रोक पाते हो? (अपने माता-पिता को निराश करने के डर से।) तुम्हें डर है कि अगर तुम अपने माता-पिता की नहीं सुनोगे, तो तुम्हारी पढ़ाई का प्रदर्शन सचमुच खराब हो जाएगा, और तुम एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला नहीं ले पाओगे। तुम अपने भविष्य को लेकर अनिश्चित हो। मानो तुम्हारे माता-पिता के नियंत्रण, भर्त्सना और दमन के बिना तुम नहीं जानते कि तुम्हारे पथ में आगे क्या है। तुम उनके बंधनों से मुक्त होने की हिम्मत नहीं कर सकते, और तुम उनकी जंजीरों से मुक्त होने की हिम्मत नहीं कर सकते। तुम सिर्फ उन्हें अपने लिए तरह-तरह के नियम बनाने दे सकते हो, अपने साथ हेर-फेर करने दे सकते हो, और उनकी अवहेलना करने की हिम्मत नहीं कर सकते। एक अर्थ में, तुम अपने भविष्य को लेकर सुनिश्चित नहीं हो। एक अन्य अर्थ में, जमीर और मानवता के चलते, तुम उनकी अवहेलना करने और उनका दिल दुखाने को तैयार नहीं हो। उनके बच्चे के तौर पर, तुम्हें लगता है कि तुम्हें उनकी बात माननी चाहिए, क्योंकि वे जो भी करते हैं तुम्हारे भले के लिए ही करते हैं तुम्हारे भविष्य और तुम्हारी संभावनाओं के लिए करते हैं। तो जब वे तुम्हारे लिए तरह-तरह के नियम तय करते हैं, तो तुम बस चुपचाप उनका पालन करते हो। भले ही दिल से तुम सौ बार भी अनिच्छुक रहो, फिर भी तुम उनसे आदेश लिए बिना नहीं रह सकते। वे तुम्हें टीवी नहीं देखने देते या मनोरंजक किताबें नहीं पढ़ने देते, तो तुम टीवी नहीं देखते या वे किताबें नहीं पढ़ते। वे तुम्हें फलां-फलां सहपाठी से दोस्ती नहीं करने देते, तो तुम उनसे दोस्ती नहीं करते। वे तुम्हें बताते हैं कि किस समय उठना है, तो तुम उस समय उठ जाते हो। वे तुम्हें बताते हैं किस वक्त आराम करना है, तो तुम उस वक्त आराम करते हो। वे तुम्हें बताते हैं कि कितनी देर तक पढ़ना है, तो तुम उतनी देर तक पढ़ते हो। वे तुम्हें बताते हैं कि कितनी किताबें पढ़नी हैं, कितने पाठ्यक्रमेतर कौशल तुम्हें सीखने चाहिए, और अगर वे तुम्हें सीखने के लिए आर्थिक साधन मुहैया कराएँ, तो तुम उन्हें हुक्म चलाकर नियंत्रण करने देते हो। खास तौर से, कुछ माता-पिता अपने बच्चों से कुछ विशेष अपेक्षाएँ रखते हैं, और आशा करते हैं कि वे उनके पार जा सकेंगे, और ऐसी भी आशा करते हैं कि उनके बच्चे उनकी वह अभिलाषा पूरी कर दिखाएँगे जो वे पूरी नहीं कर पाए। मिसाल के तौर पर, हो सकता है कि कुछ माता-पिता खुद नर्तक-नर्तकी बनना चाहते रहे हों, मगर विविध कारणों—जैसे कि उनके बड़े होने के समय या पारिवारिक हालात—के चलते वे अंत में वह अभिलाषा पूरी नहीं कर पाए। इसलिए वे इस अभिलाषा को तुम्हारे ऊपर थोप देते हैं। पढ़ाई में सबसे श्रेष्ठ होने और एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला पाने की अपेक्षा रखने के साथ-साथ वे तुम्हें नृत्य कक्षाओं में भी डाल देते हैं। वे तुम्हें स्कूल के बाहर तरह-तरह की नृत्य शैलियाँ सीखने, नृत्य कक्षा में ज्यादा सीखने, घर में और अभ्यास करने और अपनी कक्षा में सबसे श्रेष्ठ बनने में लगा देते हैं। अंत में, वे तुमसे सिर्फ यह माँग नहीं करते कि एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला लो, बल्कि यह भी कि तुम एक नर्तक या नर्तकी बन जाओ। तुम्हारे सामने विकल्प या तो नर्तक-नर्तकी बनने का है या प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने का, जिसके बाद तुम्हें स्नातक स्कूल में जाना और फिर पीएच.डी. हासिल करना होगा। तुम्हारे चुनने के लिए बस यही दो पथ हैं। अपनी अपेक्षाओं में, एक ओर तो वे आशा करते हैं कि तुम स्कूल में कड़ी मेहनत से पढ़ोगे, किसी प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में प्रवेश करोगे, अपने साथियों से श्रेष्ठ बनोगे, और एक समृद्ध और गौरवशाली भविष्य बनाओगे। दूसरी ओर, वे अपनी अधूरी अभिलाषाएँ तुम पर थोप देते हैं, और आशा करते हैं कि उनके एवज में ये तुम पूरी करोगे। इस प्रकार, शिक्षा या अपने भविष्य के करियर के संदर्भ में, तुम एक साथ दो बोझ ढोते हो। एक अर्थ में, तुम्हें उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना होगा, उन्होंने तुम्हारे लिए जो कुछ भी किया है उसका कर्ज चुकाना होगा, और आखिरकार अपने साथियों के बीच ऊँचा उठना होगा ताकि तुम एक बढ़िया जीवन का आनंद ले सको। एक अन्य अर्थ में, तुम्हें वे सपने पूरे करने होंगे जो वे अपनी युवावस्था में पूरे नहीं कर पाए, और उनकी अभिलाषाएँ साकार करने में उनकी मदद करनी होगी। यह थकाऊ है, है कि नहीं? (बिल्कुल।) इनमें से एक बोझ भी तुम्हारे उठाने के लिए पहले ही काफी ज्यादा है; इनमें से एक भी तुम पर इतना भारी पड़ेगा कि तुम्हारी साँस फूलने लगेगी। खास तौर से आज-कल के भयानक स्पर्धा के युग में माता-पिता की अपने बच्चों से की जाने वाली तरह-तरह की माँगें बिल्कुल असहनीय और अमानवीय हैं; ये सरासर अनुचित हैं। गैर-विश्वासी इसे क्या पुकारते हैं? भावनात्मक ब्लैकमेल। गैर-विश्वासी इसे चाहे जो कहें, वे इस समस्या को नहीं सुलझा सकते, और वे इस समस्या के सार को स्पष्ट नहीं समझा सकते। वे इसे भावनात्मक ब्लैकमेल कहते हैं, लेकिन हम इसे क्या कहते हैं? (जंजीरें और बोझ।) हम इसे बोझ कहते हैं। बोझ की बात करें, तो क्या यह ऐसी चीज है जो किसी व्यक्ति को ढोनी चाहिए? (नहीं।) यह कोई अतिरिक्त, कोई फालतू चीज है जो तुम उठाते हो। यह तुम्हारा अंश नहीं है। यह वैसी चीज नहीं है जो तुम्हारे शरीर, दिल या आत्मा में होती है या उनके लिए जरूरी है, बल्कि कोई जोड़ी हुई चीज है। यह बाहर से आती है, तुम्हारे भीतर से नहीं।
तुम्हारी पढ़ाई और करियर विकल्पों को लेकर तुम्हारे माता-पिता तरह-तरह की अपेक्षाएँ रखते हैं। इस बीच उन्होंने तरह-तरह के त्याग किए हैं, और बड़ी मात्रा में समय और ऊर्जा का निवेश किया है, ताकि तुम उनकी अपेक्षाएँ पूरी कर सको। एक ओर, यह उनकी इच्छाएँ पूरी करने में तुम्हारी मदद करने के लिए है; और दूसरी ओर, यह उनकी अपनी अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए भी है। तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ उचित हों या न हों, संक्षेप में कहें, तो तुम्हारे माता-पिता का यह व्यवहार, उनके नजरियों, रवैयों और तरीकों के साथ, प्रत्येक व्यक्ति के लिए अदृश्य जंजीरों का कार्य करता है। भले ही उनका बहाना यह हो कि यह तुम्हारे लिए उनके प्यार के चलते है, या तुम्हारे भविष्य की सँभावनाओं, भविष्य में तुम्हारे बढ़िया जीवन जी पाने के लिए है, उनके बहाने चाहे जो हों, संक्षेप में कहें, तो इन माँगों का उद्देश्य, इन माँगों के तरीके और उनकी सोच की शुरुआती बिंदु ये सब किसी भी व्यक्ति के लिए एक किस्म का बोझ हैं। ये मानवजाति की जरूरत नहीं हैं। चूँकि ये मानवजाति की जरूरत नहीं है, इन बोझों से मिलने वाले नतीजे किसी की मानवता को सिर्फ विकृत, भ्रष्ट और टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं; ये किसी की मानवता को सता कर, हानि पहुँचा कर उसका दमन कर सकते हैं। ये नतीजे सुसाध्य नहीं, बल्कि घातक हैं, और किसी व्यक्ति के जीवन को प्रभावित भी करते हैं। बतौर माता-पिता, उन्हें तरह-तरह की ऐसी चीजें करनी पड़ती हैं जो मानवता की जरूरतों के विरुद्ध होती हैं, या ऐसी चीजें करनी पड़ती हैं जो मानवजाति के सहजज्ञान के विरुद्ध होती हैं या उसके पार जाती हैं। मिसाल के तौर पर, संभव है वे अपने बच्चों को बड़े होते समय, रात में सिर्फ पाँच-छह घंटे सो लेने दें। बच्चों को रात 11 बजे से पहले आराम नहीं करने दिया जाता और उन्हें सुबह 5 बजे उठ जाना चाहिए। रविवार के दिन वे कोई मनोरंजक गतिविधि नहीं कर सकते, न ही वे आराम कर सकते हैं। उन्हें एक निश्चित मात्रा का होमवर्क पूरा करना चाहिए, और पढ़ाई की किताबों के अलावा एक निश्चित मात्रा में अन्य चीजें भी पढ़नी चाहिए, और कुछ माता-पिता तो यह भी जोर देते हैं कि उनके बच्चों को एक विदेशी भाषा सीखनी चाहिए। संक्षेप में कहें, तो स्कूल में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों के अलावा तुम्हें बहुत सारे अतिरिक्त कौशल और ज्ञान की चीजें पढ़नी चाहिए। अगर तुम नहीं पढ़ते, तो तुम अच्छे आज्ञाकारी, मेहनती, और समझदार बच्चे नहीं हो; इसके बजाय तुम एक नालायक, बेकार बच्चे हो, बेवकूफ हो। अपने बच्चों के लिए सबसे श्रेष्ठ की आशा करने के बहाने, माता-पिता तुमसे तुम्हारी सोने की आजादी, बचपन की आजादी, और बचपन के खुशनुमा पलों से तो वंचित करते ही हैं, साथ ही तुम्हें एक नाबालिग के हर प्रकार के अधिकार से भी वंचित कर देते हैं। कम-से-कम, जब तुम्हारे शरीर को आराम की जरूरत हो—मिसाल के तौर पर तुम्हारे शरीर को वापस चंगा होने के लिए सात-आठ घंटे नींद की जरूरत होती है—तब वे तुम्हें बस पाँच-छह घंटे आराम करने देते हैं, या कभी-कभी तुम सात-आठ घंटे सो तो जाते हो, मगर तुम एक चीज बर्दाश्त नहीं कर पाते कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें निरंतर तंग करते हैं, या वे तुमसे ऐसी बातें कहते हैं, “अब से तुझे स्कूल नहीं जाना है। बस घर पर सोता रह! चूँकि तुझे सोना पसंद है, तू जिंदगी भर घर पर सोता रह सकता है। तू स्कूल नहीं जाना चाहता न, तो आगे चल कर तू खाने के लिए भीख माँगता फिरेगा!” बस इस एक बार तुम जल्दी नहीं उठे और तुमसे ऐसा बर्ताव किया गया; क्या यह अमानवीय व्यवहार नहीं है? (बिल्कुल।) तो ऐसी अजीब स्थिति से बचने के लिए तुम सिर्फ यही कर सकते हो कि समझौता कर लो और अपने आप को रोक लो; तुम पक्का कर लेते हो कि सुबह 5 बजे जरूर उठ जाओ, और तुम रात 11 बजे के बाद ही सोते हो। क्या तुम स्वेच्छा से खुद को यूँ रोक रहे हो? क्या ऐसा करके तुम संतुष्ट हो? नहीं। तुम्हारे पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है। अगर तुम अपने माता-पिता का कहा नहीं मानते, तो वे तुम्हें टेढ़ी नजर से देखकर डाँट सकते हैं। वे तुम्हें पीटेंगे नहीं, बस तुमसे यह कहेंगे, “हमने तेरा स्कूल बैग कचरे में डाल दिया है। अब तुझे स्कूल जाने की जरूरत नहीं है। बस ऐसे ही रह। जब 18 का हो जाएगा, तब तू रद्दीवाला बन जाना!” आलोचना की इस बाढ़ के साथ वे न तुम्हें पीटते हैं न डाँटते हैं, बल्कि बस यूँ उकसाते हैं, और तुम इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते। तुम क्या बर्दाश्त नहीं कर सकते? तुम अपने माता-पिता की यह बात बर्दाश्त नहीं कर सकते, “अगर तू एक-दो घंटे सो जाएगा, तो तुझे आगे निकम्मा बनकर खाने के लिए भीख माँगना पड़ेगा।” भीतर गहरे, तुम दो घंटे ज्यादा सोने को लेकर खास तौर से बेचैन और दुखी महसूस करते हो। तुम्हें लगता है कि उन दो अतिरिक्त घंटों के लिए तुम्हें अपने माता-पिता का कर्ज चुकाना होगा, उन्होंने तुम्हारे लिए इतने साल कड़ी मेहनत की और तुम्हारी सच्ची फिक्र की, और उसके बाद तुमने उन्हें निराश कर दिया है। तुम यह सोचकर खुद से घृणा करते हो, “मैं इतना निकम्मा क्यों हूँ? दो घंटे ज्यादा सोकर मुझे क्या मिला? क्या इससे मेरा दर्जा सुधर जाएगा, या क्या मुझे किसी प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में दाखिला पाने में मदद मिल जाएगी? मैं इतना बेखबर कैसे हो सकता हूँ? अलार्म बजने पर मुझे बस उठ जाना चाहिए। मैं थोड़ी देर और क्यों झपकी लेता रहा?” तुम सोचते-विचारते हो : “मैं सचमुच थक गया हूँ। मुझे सचमुच आराम की जरूरत है!” फिर तुम थोड़ा और मनन करते हो : “मैं ऐसे नहीं सोच सकता। क्या इस तरह सोचना अपने माता-पिता की अवज्ञा करना नहीं है? अगर मैं यूँ सोचूँगा, तो क्या मैं भविष्य में सचमुच भिखारी नहीं बन जाऊँगा? इस तरह सोचना अपने माता-पिता को निराश करना है। मुझे उनकी बात सुननी चाहिए और इतनी मनमानी नहीं करनी चाहिए।” अपने माता-पिता द्वारा तय किए गए विविध दंडों और नियमों और उनकी विविध माँगों—उचित और अनुचित दोनों—के अधीन तुम ज्यादा-से-ज्यादा आज्ञाकारी बन जाते हो, मगर साथ ही तुम्हारे माता-पिता द्वारा तुम्हारे लिए किए गए सारे काम अनजाने ही तुम्हारे लिए जंजीरें और बोझ बन जाते हैं। तुम जितनी भी कोशिश करो, तुम उसे उतारकर फेंक नहीं सकते या उससे छिप नहीं सकते; जहाँ भी जाओ बस उस बोझ को लाद कर जा सकते हो। यह कैसा बोझ है? “मेरे माता-पिता जो भी करते हैं वह मेरे भविष्य की खातिर है। मैं छोटा और अनाड़ी हूँ, इसलिए मुझे अपने माता-पिता की बात सुननी चाहिए। वे जो भी करते हैं वह सही और अच्छा है। उन्होंने मेरे लिए बहुत कष्ट सहे हैं और मुझ पर बहुत मेहनत की है। मुझे उनकी खातिर कड़ी मेहनत करनी चाहिए, मेहनत से पढ़ना चाहिए, भविष्य में अच्छी नौकरी ढूँढ़नी चाहिए, उन्हें सहारा देने के लिए पैसे कमाने चाहिए, उन्हें अच्छा जीवन देना चाहिए, और उनका कर्ज चुकाना चाहिए। मुझे बस यही करना चाहिए और इसी बारे में सोचना चाहिए।” लेकिन जब तुम उन तरीकों को याद करते हो जिनसे तुम्हारे माता-पिता तुमसे पेश आए, जब तुम अपने अनुभव के उन मुश्किल वर्षों, अपने गुमशुदा बचपन और खास तौर से अपने माता-पिता के भावनात्मक ब्लैकमेल को याद करते हो, तो तुम अपने दिल की गहराई से महसूस करते हो कि उन्होंने जो कुछ किया वह तुम्हारी मानवता की जरूरतों के लिए या तुम्हारी आत्मा की जरूरतों के लिए नहीं था। यह एक बोझ था। हालाँकि तुम इस तरह सोचते हो, फिर भी तुमने कभी घृणा करने की हिम्मत नहीं की, कभी भी उचित और सीधे ढंग से उसका सामना करने की हिम्मत नहीं की, और कभी भी अपने माता-पिता द्वारा किए गए हर काम या तुम्हारे प्रति उनके रवैये की वैसी तर्कपूर्ण जाँच नहीं की जैसी परमेश्वर ने तुम्हें बताई। तुमने अपने माता-पिता से सबसे उचित तरीके से बर्ताव करने की हिम्मत नहीं की; क्या ऐसा नहीं है? (बिल्कुल।) अब तक, पढ़ाई और करियर चुनने के मामले में, क्या तुमने उस मेहनत और कीमत को समझा-बूझा है जो तुम्हारे माता-पिता ने तुम लोगों पर लगाया है, जो करने को वे तुम सबसे कहते हैं और तुम्हारे अनुसरण के लिए जो दावे वे करते हैं? (मैंने पहले इन चीजों को समझा-जाना नहीं था, और सोचा था कि मेरे माता-पिता ने जो भी किया वह मुझसे प्यार के चलते और मेरे भविष्य की बेहतरी के लिए था। अब परमेश्वर की संगति से मेरी समझ-बूझ थोड़ी बढ़ी है, इसलिए मैं उसे इस दृष्टि से नहीं देखता।) तो इस प्यार के पीछे क्या है? (जंजीरें, बंधन और एक बोझ।) दरअसल, यह इंसानी आजादी और बचपन की खुशी छीनना है; यह अमानवीय दमन है। अगर इसे दुर्व्यवहार कहा जाए, तो अपने जमीर के दृष्टिकोण से शायद तुम सब इस शब्द को स्वीकार न कर पाओ। इसलिए इसका वर्णन सिर्फ इसी प्रकार किया जा सकता है कि यह इंसानी आजादी और बचपन की खुशी छीनने और साथ ही नाबालिगों के दमन का एक रूप है। अगर हम इसे धौंस देना कहें, तो यह ज्यादा उपयुक्त नहीं होगा। बात बस इतनी है कि तुम छोटे और अनाड़ी हो, और सभी चीजों में उनका फैसला आखिरी होता है। तुम्हारी दुनिया पर उनका संपूर्ण नियंत्रण है, और तुम अनजाने ही उनकी कठपुतली बन जाते हो। वे तुम्हें बताते हैं कि क्या करना है, और तुम कर देते हो। अगर वे चाहें कि तुम नृत्य सीखो, तो तुम्हें पढ़ना पड़ेगा। अगर तुम कहोगे, “मुझे नृत्य सीखना पसंद नहीं; मुझे मजा नहीं आता, मैं लय-ताल बना कर नहीं रख सकता, और मेरा संतुलन खराब है,” तो वे कहेंगे, “बहुत बुरी बात है। तुझे यह सीखना ही होगा क्योंकि मुझे यह पसंद है। तुझे यह मेरी खातिर करना है!” तुम्हें रोना आ रहा हो, फिर भी तुम्हें यह सीखना पड़ेगा। कभी-कभी तुम्हारी माँ यह भी कहेगी, “मम्मी के लिए नृत्य सीख, अपनी माँ की बात सुन। तू अभी छोटा है, नहीं समझता, लेकिन जब बड़ा हो जाएगा तो समझ जाएगा। मैं यह तेरे भले के लिए ही कर रही हूँ; देख, जब मैं छोटी थी, तो मेरे पास संसाधन नहीं थे, मेरी नृत्य कक्षाओं के लिए किसी ने पैसे नहीं दिए। मम्मी का बचपन खुशहाल नहीं था। लेकिन तेरे लिए सब-कुछ बढ़िया है। तेरे पिता और मैं पैसे कमाकर बचाते हैं ताकि तू नृत्य सीख सके। तू एक छोटी राजकुमारी जैसी है, एक छोटा-सा राजकुमार जैसा है। तू बहुत भाग्यशाली है! मम्मी-डैडी यह इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे तुझसे प्यार करते हैं।” यह सुनकर तुम क्या जवाब दोगे? तुम अवाक रह जाओगे, है कि नहीं? (बिल्कुल।) माता-पिता अक्सर मानते हैं कि बच्चे कुछ नहीं समझते और बड़े जो कहते हैं वही सच है; वे सोचते हैं कि बच्चे सही-गलत का फर्क नहीं कर सकते या अपने आप सही की जाँच नहीं कर सकते। तो अपने बच्चों के बड़े होने से पहले, माता-पिता अपने बच्चों को गुमराह करने और उनके युवा दिल सुन्न करने के लिए अक्सर ऐसी बातें कहते हैं जिन पर खुद उन्हें भी ज्यादा यकीन नहीं होता, और अपने बच्चों को स्वेच्छा या अनिच्छा से किसी विकल्प के बिना उनकी व्यवस्थाओं का पालन करने को मजबूर करते हैं। अपने बच्चों को शिक्षा देने, उनके मन में विचार बैठाने और उनसे कुछ करने की माँग को लेकर, ज्यादातर माता-पिता अक्सर खुद को सही ठहराते हैं और वही कहते हैं जो वे चाहते हैं। इसके अलावा, बुनियादी तौर पर 99.9 फीसदी माता-पिता सभी चीजें समझने और उन्हें करने के तरीकों का मार्गदर्शन करने के लिए सही और सकारात्मक तरीकों का इस्तेमाल नहीं करते। इसके बजाय, वे अपनी एकतरफा पसंद और चीजों को जिन्हें वे अच्छा समझते हैं, अपने बच्चों के भीतर जबरन बैठा देते हैं और इन्हें स्वीकार कर लेने पर उन्हें मजबूर करते हैं। बेशक, बच्चे जिन चीजों को स्वीकार करते हैं, उनमें से 99.9 फीसदी सत्य के अनुरूप नहीं होतीं, और ये वे विचार और नजरिये भी नहीं होते जो लोगों को अपनाने चाहिए। साथ ही, वे इस उम्र के बच्चों की मानवता की जरूरतों के अनुरूप भी नहीं होते। मिसाल के तौर पर, पाँच-छह साल के कुछ बच्चे, गुड़ियों के साथ खेलते हैं, रस्सी कूदते हैं, या कार्टून देखते हैं। क्या यह सामान्य नहीं है? इस स्थिति में माता-पिता की एकमात्र जिम्मेदारी क्या है? उनकी देखभाल करना, विनियमन करना, सकारात्मक मार्गदर्शन देना, इस दौरान नकारात्मक चीजें स्वीकार न करने में अपने बच्चों की मदद करना और साथ ही उन सकारात्मक चीजों को स्वीकार करने देना जो इस आयु वर्ग के बच्चों को स्वीकार करनी चाहिए। मिसाल के तौर पर, इस उम्र में, उन्हें दूसरे बच्चों के साथ मिलना-जुलना, अपने परिवार से प्यार करना और अपने माता-पिता से प्यार करना आना चाहिए। माता-पिता को उन्हें बेहतर शिक्षा देनी चाहिए, उन्हें यह समझने देना चाहिए कि मनुष्य परमेश्वर से आता है, उन्हें अच्छे बच्चे होना चाहिए, परमेश्वर के वचन सुनना सीखना चाहिए, और मुश्किल में होने और आज्ञा मानने की इच्छा न होने पर प्रार्थना करनी चाहिए और शिक्षा के ऐसे ही सकारात्मक पहलू सिखाने चाहिए—बाकी सब उनकी बचकानी रुचियों को संतुष्ट करना है। मिसाल के तौर पर, कार्टून देखना और गुड़ियों से खेलना चाहने पर बच्चों को दोष नहीं देना चाहिए। कुछ माता-पिता अपने पाँच-छह साल के बच्चों को कार्टून देखते या गुड़ियों के साथ खेलते देखकर डाँट लगाते हैं : “तू निकम्मा है! तू इस उम्र में पढ़ने पर या उचित काम करने पर ध्यान नहीं देता। कार्टून देखने का क्या फायदा? इसमें बस चूहे-बिल्लियाँ होती हैं, क्या तू इससे बेहतर कुछ नहीं कर सकता? ये तमाम कार्टून जानवरों के बारे में हैं, क्या तू ऐसी कोई चीज नहीं देख सकता जिसमें इंसान हों? तू कब बड़ा होगा? उस गुड़िया को दूर फेंक दे! गुड़ियों से खेलने की तेरी उम्र गुजर गई। तू कितना निकम्मा है!” क्या तुम सोचते हो कि यह सुनकर बच्चे बड़ों की बातों का मतलब समझ सकेंगे? इस उम्र का बच्चा अगर गुड़ियों और मिट्टी के साथ नहीं खेलेगा तो फिर क्या करेगा? क्या उसे परमाणु बम बनाना चाहिए? सॉफ्टवेयर तैयार करना चाहिए? क्या वे इसमें सक्षम हैं? इस उम्र में उन्हें ब्लॉक, खिलौना गाड़ियों और गुड़ियों के साथ खेलना चाहिए; यह सामान्य है। जब वे खेल-खेल कर थक जाएँ, तो उन्हें आराम करना चाहिए, और स्वस्थ और खुश रहना चाहिए। जब वे मनमानी करें या तर्क उनके दिमाग में न उतरे, या वे जानबूझकर मुसीबत खड़ी करें, तो बड़ों को उन्हें शिक्षित करना चाहिए : “तू सोचता-विचारता नहीं है। एक अच्छे बच्चे को ऐसे नहीं करना चाहिए। परमेश्वर यह पसंद नहीं करता, और मम्मी-डैडी को भी यह पसंद नहीं।” अपने बच्चों को सीख देना माता-पिता की जिम्मेदारी है, उनके भीतर जबरन कुछ बैठाने या उन पर कुछ थोपने के लिए अपने बड़े लोगों के तरीकों और अंतर्दृष्टि और बड़ों की अभिलाषाओं और महत्वाकांक्षाओं का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। बच्चों की उम्र चाहे जो भी हो, माता-पिता को उनके प्रति जो जिम्मेदारी निभानी चाहिए वह है सकारात्मक मार्गदर्शन व शिक्षा देने और देखरेख करने की और फिर उन्हें बच्चों को सीख देनी चाहिए। जब माता-पिता देखें कि उनके बच्चे कुछ अतिवादी विचार, अभ्यास और व्यवहार दिखा रहे हैं, तो उन्हें सुधारने के लिए सकारात्मक परामर्श और मार्गदर्शन देना चाहिए, उन्हें जानने देना चाहिए कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है, सकारात्मक क्या है और नकारात्मक क्या है। यह वह जिम्मेदारी है जो माता-पिता को पूरी करनी चाहिए। इस प्रकार, अपने माता-पिता द्वारा शिक्षा और मार्गदर्शन के उचित तरीकों के तहत बच्चे अनजाने ही बहुत-सी चीजें सीख जाएँगे जो वे पहले नहीं जानते थे। इस प्रकार, जब लोग अनेक सकारात्मक चीजें स्वीकार कर लेंगे और छोटी उम्र से ही सही-गलत के बारे में जान लेंगे, तो उनकी आत्मा और मानवता सामान्य और स्वतंत्र होगी—उनकी आत्मा किसी हानि या दमन का निशाना नहीं बनेगी। उनका शारीरिक स्वास्थ्य चाहे जैसा हो, कम-से-कम उनका दिमाग स्वस्थ होगा, विकृत नहीं होगा, क्योंकि वे किसी घातक माहौल में दब कर बड़े नहीं हुए बल्कि एक सुसाध्य शैक्षणिक वातावरण में बड़े हुए हैं। जैसे-जैसे उनके बच्चे बड़े होते हैं, माता-पिता को जो जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभाने चाहिए वे यह हैं कि अपने बच्चों पर दबाव न डालें, उन्हें न बांधें, उनकी पसंद में दखलंदाजी न करें और उन पर एक-के-बाद-एक बोझ न डालें। इसके बजाय, उनके बच्चों के बड़े होते समय, उनका व्यक्तित्व और काबिलियत चाहे जो हो, माता-पिता की जिम्मेदारी है कि वे एक सकारात्मक और सामान्य दिशा में उनका मार्गदर्शन करें। जब उनके बच्चे विचित्र या अनुचित भाषा, व्यवहार या विचारों का प्रदर्शन करें, तो माता-पिता को उन्हें समय से आध्यात्मिक परामर्श और व्यवहार संबंधी मार्गदर्शन देना और उन्हें सुधारना चाहिए। जहाँ तक ये प्रश्न हैं कि क्या उनके बच्चे पढ़ने को तैयार हैं, वे पढ़ाई में कितने अच्छे हैं, ज्ञान और कौशल सीखने में उन्हें कितनी रुचि है, बड़े हो कर वे क्या कर सकते हैं, ये उनकी स्वाभाविक वृत्तियों और पसंद और उनकी रुचियों के विन्यास के अनुरूप होने चाहिए, जिससे वे अपनी परवरिश की प्रक्रिया के दौरान स्वस्थ, स्वतंत्र और मजबूती से बड़े हो सकें—यह वह जिम्मेदारी है जो माता-पिता को निभानी चाहिए। इसके अलावा, यह वह रवैया है जो माता-पिता को अपने बच्चों के विकास, पढ़ाई और करियर के प्रति रखना चाहिए, बजाय इसके कि अपने बच्चों के साकार करने के लिए उन पर अपनी इच्छाएँ, आकांक्षाएँ, पसंद और अभिलाषाएँ थोपें। इस प्रकार, एक ओर माता-पिता को अतिरिक्त त्याग नहीं करने पड़ेंगे; और दूसरी ओर, बच्चे आजादी से बड़े हो सकेंगे और अपने माता-पिता द्वारा सही और उचित शिक्षा पाकर सीख सकेंगे। माता-पिता के लिए सबसे अहम बिंदु अपने बच्चों से उनकी प्रतिभाओं, रुचियों और मानवता के अनुसार सही ढंग से पेश आना है; अगर वे अपने बच्चों से “लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है,” सिद्धांत के अनुसार पेश आएँ, तो अंतिम परिणाम बेशक अच्छा होगा। बच्चों से “लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है” सिद्धांत के अनुसार पेश आना, तुम्हें अपने बच्चों को सँभालने से रोकने को लेकर नहीं है; जरूरत पड़ने पर तुम्हें उनको अनुशासित करना चाहिए, और जितनी जरूरत हो, उतनी सख्ती दिखानी चाहिए। सख्ती दिखाई जाए या कोमलता, बच्चों से पेश आने का सिद्धांत जैसा कि हमने अभी कहा, उन्हें उनके स्वाभाविक मार्ग पर चलने देना है, थोड़ा सकारात्मक मार्गदर्शन और मदद देना है और फिर बच्चों के वास्तविक हालत के अनुसार कौशल, ज्ञान और संसाधन के संदर्भ में अपनी काबिलियत के अनुसार उन्हें थोड़ी सहायता और सहारा देना है। यह है वो जिम्मेदारी जो माता-पिता को निभानी चाहिए, बजाय इसके कि वे बच्चों को जो पसंद न हो वह करने को मजबूर करें, या ऐसा कुछ करें जो मानवता के विरुद्ध हो। संक्षेप में कहें, तो बच्चों से अपेक्षाएँ मौजूदा सामाजिक स्पर्धा और जरूरतों, सामाजिक चलन और दावों, समाज में लोगों द्वारा बच्चों से पेश आने के बारे में विविध विचारों पर आधारित नहीं होनी चाहिए। सबसे बढ़कर उन्हें परमेश्वर के वचनों और इस सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए कि “सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है।” लोगों को सबसे अधिक यही करना चाहिए। जहाँ तक यह सवाल है कि किसी के बच्चे भविष्य में किस प्रकार के लोग बनेंगे, वे कैसी नौकरी चुनेंगे और उनका भौतिक जीवन कैसा होगा, ये चीजें किसके हाथों में हैं? (परमेश्वर के हाथों में।) ये परमेश्वर के हाथों में हैं, माता-पिता के हाथों में नहीं, न ही किसी और के हाथों में। अगर माता-पिता अपने भाग्य को नियंत्रित नहीं कर सकते, तो क्या वे अपने बच्चों का भाग्य नियंत्रित कर सकते हैं? अगर लोग अपने भाग्य पर नियंत्रण नहीं कर सकते, तो क्या उनके माता-पिता उस पर नियंत्रण कर सकते हैं? तो बतौर माता-पिता, लोगों को अपने बच्चों की पढ़ाई और करियर से निपटते समय मूर्खतापूर्ण काम नहीं करने चाहिए। उन्हें अपने बच्चों से समझदारी से पेश आना चाहिए, अपनी अपेक्षाओं को अपने बच्चों के लिए बोझ में तब्दील नहीं कर देना चाहिए; अपने त्याग, कीमतों और मुश्किलों को अपने बच्चों पर बोझ में तब्दील नहीं करना चाहिए; और परिवार को अपने बच्चों के लिए एक नरक में तब्दील नहीं करना चाहिए। यह एक तथ्य है जो माता-पिता को समझना चाहिए। तुममें से कुछ लोग पूछ सकते हो, “फिर बच्चों को अपने माता-पिता के साथ कैसा रिश्ता रखना चाहिए? क्या उन्हें उनके साथ दोस्तों, सहकर्मियों की तरह पेश आना चाहिए या बड़े-छोटे का रिश्ता रखना चाहिए?” तुम्हें जैसा सही लगे वैसा करना चाहिए। बच्चों को वह चुनने दो जो उन्हें पसंद हो और तुम वह करो जो तुम्हें सबसे ठीक लगे। ये सब तुच्छ बातें हैं।
बच्चों को अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ कैसे संभालनी चाहिए? अगर तुम्हारी मुलाकात ऐसे माता-पिता से हो जो अपने बच्चों को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करते हों, अगर तुम्हारी मुलाकात ऐसे अविवेकी और दानवी माता-पिता से हो तो तुम क्या करोगे? (मैं उनकी शिक्षाएँ सुनना बंद कर दूँगा; मैं चीजों को परमेश्वर के वचन के अनुसार देखूँगा।) एक ओर, तुम्हें समझना चाहिए कि उनकी शिक्षा पद्धतियाँ सिद्धांतों के संदर्भ में गलत हैं, और वे तुमसे जिस तरह बर्ताव करते हैं वह तुम्हारी मानवता के लिए हानिकारक है और तुम्हें अपने मानव अधिकारों से भी वंचित करता है। दूसरी ओर, तुम्हें स्वयं यह मानना चाहिए कि लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। तुम जो पढ़ना चाहते हो, तुम जिसमें उत्कृष्ट हो, और तुम्हारी इंसानी काबिलियत जो हासिल करने में सक्षम है—ये सब परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत हैं, और कोई भी उन्हें बदल नहीं सकता। हालाँकि तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया, मगर वे भी इनमें से कोई भी चीज नहीं बदल सकते। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुमसे जो भी करने की माँग करें, अगर यह चीज ऐसी है जो तुम नहीं कर सकते, जिसे तुम हासिल नहीं कर सकते, या नहीं करना चाहते, तो तुम मना कर सकते हो। तुम उनके साथ तर्क भी कर सकते हो, और फिर दूसरी तरह से उसकी भरपाई करके अपने बारे में उनकी चिंताएँ दूर कर सकते हो। तुम कहो : “शांत हो जाइए; लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है। मैं कभी भी गलत पथ पर नहीं चलूँगा; मैं निश्चित ही सही पथ पर चलूँगा। परमेश्वर के मार्गदर्शन से, मैं यकीनन एक सच्चा इंसान बनूँगा, एक अच्छा इंसान बनूँगा। मुझसे आप लोगों की जो अपेक्षाएँ हैं, उनमें मैं आपको निराश नहीं करूँगा, न ही मुझे पाल-पोसकर बड़ा करने की आप लोगों की दयालुता को भुलाऊँगा।” ये बातें सुनने के बाद माता-पिता कैसी प्रतिक्रिया दिखाएँगे? अगर माता-पिता गैर-विश्वासी या दानवों के हों, तो वे आगबबूला हो जाएँगे। क्योंकि जब तुम कहते हो, “मुझे पाल-पोसकर बड़ा करने की आप लोगों की दयालुता को मैं नहीं भुलाऊँगा और मैं आप लोगों को निराश नहीं करूँगा,” तो ये सिर्फ खोखली बातें हैं। क्या तुमने यह पूरा किया है? क्या उन्होंने तुमसे जो कहा वह तुमने किया है? क्या तुम अपने साथियों के बीच ऊँचे खड़े हो पाए हो? क्या तुम एक ऊँचे दर्जे का अधिकारी बन सकते हो या इतनी धन-दौलत कमा सकते हो कि वे अच्छा जीवन जी सकें? क्या तुम ठोस लाभ पाने में उनकी मदद कर सकते हो? (नहीं।) यह ज्ञात नहीं है; ये सब अनिश्चितताएँ हैं। वे चाहे नाराज हों, खुश हों या चुपचाप सह रहे हों, तुम्हारा रवैया कैसा होना चाहिए? लोग इस दुनिया में परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपा गया उद्देश्य पूरा करने आते हैं। लोगों को इसलिए नहीं जीना चाहिए कि वे अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ पूरी करें, उन्हें खुश करें, उनका गौरव बढ़ाएँ या दूसरों के आगे उन्हें एक प्रतिष्ठित जीवन जीने दें। यह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है। उन्होंने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया; इसकी उन्हें जो भी कीमत चुकानी पड़ी हो, यह उन्होंने स्वेच्छा से किया। तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करना उनकी जिम्मेदारी थी, उनका दायित्व था। जहाँ तक इसकी बात है कि उन्होंने तुमसे कितनी अपेक्षाएँ रखीं, इन अपेक्षाओं के कारण उन्होंने कितने कष्ट सहे, उन्होंने कितना पैसा खर्च किया, कितने लोगों ने उन्हें ठुकरा कर नीची नजर से देखा, और उन्होंने कितना त्याग किया, यह सब स्वैच्छिक था। तुमने यह नहीं माँगा; तुमने उनसे यह नहीं करवाया, और न ही परमेश्वर ने करवाया। ऐसा करने के पीछे उनकी अपनी मंशाएँ थीं। अपने नजरिये से उन्होंने यह सिर्फ अपने ही लिए किया। बाहर से, यह तुम्हारे अच्छे जीवन और अच्छी संभावनाओं के लिए था, लेकिन दरअसल यह इसलिए था कि उनकी बड़ाई हो और उनका अपयश न हो। इसलिए, तुम उनका कर्ज चुकाने को बाध्य नहीं हो, न ही तुम उनकी इच्छाएँ और अपेक्षाएँ पूरी करने के लिए बाध्य हो। तुम इसके लिए बाध्य क्यों नहीं हो? क्योंकि यह वह नहीं है जो परमेश्वर तुमसे करवाता है; यह वह दायित्व नहीं है जो उसने तुम्हें दिया है। उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारी बस इतनी है कि जब उन्हें तुम्हारी जरूरत पड़े, तो तुम वह करो जो बच्चों को करना चाहिए, एक बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ करो। भले ही ये वे लोग हैं जिन्होंने तुम्हें जन्म दिया है, पाल-पोसकर बड़ा किया है, फिर भी उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ इतनी है कि जब उन्हें तुम्हारी सेवा की जरूरत हो, तब तुम उनके कपड़े धो दो, खाना बना दो और सफाई कर दो, और उनके बीमार पड़ने पर उनके सिरहाने बैठकर तीमारदारी करो। बस, इतना ही। तुम उनका हर हुक्म मानने को बाध्य नहीं हो, उनका गुलाम बनने को बाध्य नहीं हो। इसके अलावा, तुम उनकी अधूरी इच्छाओं पर काम करने को बाध्य नहीं हो, सही है? (सही है।)
माता-पिता की अपने बच्चों से अपेक्षाओं का एक दूसरा पहलू भी है, जोकि पारिवारिक व्यवसाय या पैतृक व्यापार की विरासत है। मिसाल के तौर पर, कुछ परिवार पेंटरों के होते हैं; उनके पूर्वजों से आया नियम यह है कि हर पीढ़ी में ऐसा कोई व्यक्ति जरूर होना चाहिए जो यह पारिवारिक व्यवसाय विरासत में पाए और जो इस पारिवारिक परंपरा को जारी रखे। मान लो, तुम्हारी पीढ़ी में, यह भूमिका तुम्हें मिलती है, मगर तुम्हें पेंटिंग का काम पसंद नहीं है और उसमें तुम्हें कोई रुचि नहीं है; तुम सरल विषय पढ़ना पसंद करते हो। ऐसी स्थिति में, तुम्हें मना करने का अधिकार है। तुम अपनी पारिवारिक परंपराएँ विरासत में लेने को बाध्य नहीं हो, और तुम्हारा कोई दायित्व नहीं है कि तुम पारिवारिक व्यापार या पैतृक व्यापार की विरासत लो, जैसे कि मार्शल आर्ट्स, कोई विशेष हस्तकला या कौशल, वगैरह। वे तुमसे जो विरासत में लेने को कहें वह जारी रखने को तुम बाध्य नहीं हो। कुछ दूसरे परिवारों में, हर पीढ़ी ऑपेरा गायन करती है। तुम्हारी पीढ़ी में बचपन से ही तुम्हारे माता-पिता तुम्हें ऑपेरा गायन सीखने को मजबूर करते हैं। तुमने इसे सीखा जरूर, मगर दिल की गहराई से तुम इसे पसंद नहीं करते। इस तरह, अगर तुमसे एक करियर चुनने को कहा जाता, तो तुम ऑपेरा से जुड़े किसी भी करियर को बिल्कुल नहीं अपनाते। तुम इस व्यवसाय को पूरे दिल से नापसंद करते हो; ऐसी स्थिति में, तुम्हें मना करने का अधिकार है। चूँकि तुम्हारा भाग्य तुम्हारे माता-पिता के हाथों में नहीं है—इसलिए करियर की तुम्हारी पसंद, तुम्हारी रुचियों का रुझान, तुम क्या करना चाहते हो, और तुम कौन-सा रास्ता पकड़ना चाहते हो, ये सब परमेश्वर के हाथों में हैं। ये सब परमेश्वर द्वारा आयोजित हैं, तुम्हारे परिवार के किसी सदस्य द्वारा नहीं, और यकीनन तुम्हारे माता-पिता द्वारा नहीं। किसी भी बच्चे के जीवन में माता-पिता जो भूमिका निभाते हैं, वह उसके बड़े होते समय केवल संरक्षकता, देखभाल और साथ देने का है। बेहतर मामलों में, माता-पिता अपने बच्चों को सकारात्मक मार्गदर्शन, शिक्षा और दिशा दे पाते हैं। बस यही वह भूमिका है जो वे निभा सकते हैं। जब तुम बड़े होकर स्वतंत्र हो जाते हो, तो तुम्हारे माता-पिता की भूमिका केवल एक भावनात्मक स्तंभ और भावनात्मक आश्रय बनने की होती है। जिस दिन तुम सोच और जीवनशैली में स्वतंत्र हो जाते हो, उस दिन तुम्हारे माता-पिता की जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे हो जाते हैं; इस तरह उनके साथ तुम्हारा रिश्ता शिक्षक और छात्र और संरक्षक और संरक्षित से आगे बढ़ चुका होता है। क्या वास्तव में ऐसा नहीं है? (बिल्कुल है।) कुछ लोगों के माता-पिता, रिश्तेदार और दोस्त परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते; सिर्फ वे खुद परमेश्वर में विश्वास रखते हैं। यहाँ क्या हो रहा है? इसका लेना-देना परमेश्वर के विधान से है। परमेश्वर ने तुम्हें चुना है, उन्हें नहीं; तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करने के लिए परमेश्वर उनके हाथों का इस्तेमाल करता है और फिर वह तुम्हें परमेश्वर के परिवार में ले आता है। एक बच्चे के तौर पर, अपने माता-पिता की अपेक्षाओं के प्रति जो रवैया तुम्हें अपनाना चाहिए वह सही और गलत के बीच फर्क करना है। अगर वे तुमसे जिस तरह पेश आते हैं, वह परमेश्वर के वचनों या इस तथ्य के अनुरूप नहीं है कि “लोगों का भाग्य परमेश्वर के हाथों में है,” तो तुम उनकी अपेक्षाएँ मानने से मना कर सकते हो, और अपने माता-पिता को समझाने के लिए तर्क कर सकते हो। अगर तुम अभी नाबालिग हो, और वे जबरन तुम्हारा दमन करते हैं, अपनी माँगें पूरी करवाते हैं, तो तुम परमेश्वर से सिर्फ चुपचाप प्रार्थना कर सकते हो, और उसे तुम्हारे लिए एक रास्ता खोलने दे सकते हो। लेकिन अगर तुम बालिग हो, तो तुम बिल्कुल उनसे कह सकते हो : “नहीं, जरूरी नहीं है कि मैं आपके द्वारा तय किए ढंग से जियूँ। जरूरी नहीं है कि मैं आपके द्वारा तय किए गए ढंग से अपना जीवन पथ चुनूँ, अपने अस्तित्व का तरीका और अपने अनुसरण का लक्ष्य चुनूँ। मुझे पाल-पोसकर बड़ा करने का आपका दायित्व पूरा हो चुका है। अगर हमारी आपस में बन सके और हमारे अनुसरण और लक्ष्य एक जैसे हों, तो हमारा रिश्ता पहले जैसा रह सकता है; लेकिन अगर अब हमारी आकांक्षाएँ और लक्ष्य एक नहीं हैं, तो हम अभी के लिए एक दूसरे को अलविदा कह सकते हैं।” यह बात कैसी लगती है? क्या तुम ऐसा कहने की हिम्मत करोगे? बेशक, अपने माता-पिता के साथ इस तरह औपचारिक रूप से रिश्ते तोड़ने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन कम-से-कम अपने दिल की गहराई में तुम्हें यह बात स्पष्ट देख लेनी चाहिए : हालाँकि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे सबसे करीबी लोग हैं, मगर ये लोग वे नहीं हैं जिन्होंने तुम्हें सचमुच जीवन दिया, तुम्हें जीवन के सही पथ पर चलने लायक बनाया, और तुम्हें अपने आचरण के सभी सिद्धांत समझाए। यह सब परमेश्वर का किया हुआ है। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें सत्य नहीं दे सकते, न ही सत्य से संबंधित कोई सही परामर्श दे सकते हैं। तो जहाँ तक अपने माता-पिता से तुम्हारे रिश्ते की बात है, उन्होंने तुम पर चाहे जितनी मेहनत की हो, या उन्होंने तुम पर जितना भी पैसा या प्रयास लगाया हो, तुम्हें खुद पर कोई अपराध बोध नहीं लादना चाहिए। क्यों? (क्योंकि यह जिम्मेदारी और दायित्व माता-पिता का है। अगर माता-पिता ये सब इसलिए करते हैं कि उनके बच्चे अपने साथियों के बीच ऊँचे खड़े हो सकें और माता-पिता की अपनी इच्छाएँ पूरी कर सकें, तो ये उनके अपने इरादे और मंशाएँ हैं; यह वह नहीं है जो परमेश्वर ने उनके लिए नियत किया है। इसलिए, कोई अपराध बोध महसूस करने की जरूरत नहीं है।) यह तो बस एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि तुम फिलहाल सही पथ पर चल रहे हो, सत्य का अनुसरण कर रहे हो, और सृष्टिकर्ता के समक्ष एक सृजित प्राणी का कर्तव्य निभाने के लिए आते हो; इसलिए तुम्हें माता-पिता के प्रति कोई अपराध बोध नहीं रखना चाहिए। तुम्हारे प्रति जिस जिम्मेदारी को उन्होंने कथित रूप से निभाया, वह बस परमेश्वर की व्यवस्थाओं का अंश था। उनके पाल-पोसकर बड़ा करते समय अगर तुम खुश थे, तो यह तुम पर उनकी विशेष कृपा थी। अगर तुम नाखुश थे तो बेशक यह भी परमेश्वर की व्यवस्था थी। तुम्हें आभारी होना चाहिए कि आज परमेश्वर ने तुम्हें माता-पिता को छोड़कर जाने की अनुमति दी है और स्पष्ट रूप से समझने दिया है कि उनका सार क्या है और वे किस किस्म के लोग हैं। तुम्हें दिल की गहराई से इसकी सही समझ रखनी चाहिए और साथ ही इसका सही समाधान और इसे सँभालने का तरीका जानना होगा। इस प्रकार, क्या तुम अपने भीतर गहराई में ज्यादा सुकून महसूस नहीं कर रहे हो? (बिल्कुल।) अगर तुम ज्यादा शांतचित्त हो, तो यह अद्भुत है। किसी भी स्थिति में, इन मामलों में, तुम्हारे माता-पिता पहले चाहे जैसी भी माँगें रखते रहे हों या अब उनकी जो भी माँगें हों, चूँकि तुम सत्य और परमेश्वर के इरादों को समझते हो, और चूँकि तुम समझते हो कि परमेश्वर लोगों से क्या करने की माँग करता है—साथ ही यह भी समझते हो कि तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं के तुम्हारे लिए क्या नतीजे होते हैं—इसलिए तुम्हें अब इस मामले को लेकर बोझिल महसूस नहीं करना चाहिए। यह महसूस करने की जरूरत नहीं है कि तुमने अपने माता-पिता को निराश कर दिया है, या यह महसूस करने की जरूरत नहीं है कि तुमने परमेश्वर में विश्वास रखने और अपना कर्तव्य निभाने को चुना, इसलिए तुम अपने माता-पिता को बेहतर जीवन देने में नाकामयाब रहे हो, उनके साथ रहने और उनके प्रति अपनी संतानोचित जिम्मेदारी पूरी करने में नाकामयाब रहे हो, जिससे उन्होंने भावनात्मक खालीपन महसूस किया। तुम्हें इस बारे में ग्लानि महसूस करने की जरूरत नहीं। ये वे बोझ हैं जो माता-पिता अपने बच्चों पर लादते हैं, और यही वे चीजें हैं जो तुम्हें त्याग देने चाहिए। अगर तुम सच में मानते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में है, तो तुम्हें यह मान लेना चाहिए कि उन्हें कितनी तकलीफें सहनी हैं और उन्हें अपने पूरे जीवन में कितनी खुशी मिलेगी, यह मामला भी परमेश्वर के हाथों में है। तुम्हारे संतानोचित होने या न होने से कुछ नहीं बदलेगा—तुम्हारे संतानोचित होने से तुम्हारे माता-पिता के कष्ट कम नहीं होंगे, और तुम्हारे संतानोचित न होने से वे ज्यादा कष्ट नहीं सहेंगे। परमेश्वर ने बहुत समय पहले ही उनका भाग्य पूर्वनियत कर दिया था, और उनके प्रति तुम्हारे रवैये या तुम्हारे बीच भावना की गहराई के कारण इसमें से कुछ भी नहीं बदलेगा। उनका अपना भाग्य है। वे अपनी पूरी जिंदगी चाहे गरीब हों या अमीर, सब-कुछ उनके लिए सुगम हो या नहीं, या वे जैसी भी गुणवत्ता के जीवन, भौतिक लाभों, सामाजिक हैसियत और जीवन स्थितियों का आनंद लेते हों, इनमें से किसी का भी तुम्हारे साथ ज्यादा लेना-देना नहीं है। अगर तुम्हारे मन में उनके प्रति अपराध बोध हो, तुम्हें लगता हो कि तुम पर उनका कोई कर्ज है और तुम्हें उनके साथ होना चाहिए, तो तुम्हारे उनके साथ होने से क्या बदल जाएगा? (कुछ भी नहीं बदलेगा।) हो सकता है तुम्हारा जमीर साफ और अपराध बोध से मुक्त हो जाए। लेकिन अगर हर दिन तुम उनके साथ रहो, और देखो कि वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, सांसारिक चीजों के पीछे भागते हैं और बेकार की बातचीत और गपशप में लगे रहते हैं, तो तुम्हें कैसा लगेगा? क्या तुम्हारे दिल को चैन मिलेगा? (नहीं।) क्या तुम उन्हें बदल सकोगे? क्या तुम उन्हें बचा सकोगे? (नहीं।) अगर वे बीमार पड़ जाएँ, और तुम्हारे पास उनके सिरहाने रहकर उनकी देखभाल करने के साधन हों और तुम उनकी पीड़ा थोड़ी कम कर सको, उनके बच्चे के तौर पर उन्हें थोड़ा आराम दे सको, तो ठीक हो जाने के बाद वे शारीरिक सुकून भी महसूस करेंगे। लेकिन अगर तुम परमेश्वर में विश्वास रखने के बारे में एक भी बात बोलोगे, तो वे पलट कर तुम्हारे सामने आठ-दस तर्क पेश कर देंगे, ऐसी घृणास्पद भ्रांतियाँ बता देंगे जिनसे तुम्हें दो जन्मों तक घृणा होगी। बाहर से शायद तुम्हारा जमीर सुकून से रहे, और तुम्हें लगे कि उन्होंने तुम्हें बेकार ही पाल-पोसकर बड़ा नहीं किया, तुम एक बेपरवाह कृतघ्न नहीं हो, और तुमने अपने पड़ोसियों को मजाक उड़ाने का कोई मसाला नहीं दिया है। लेकिन सिर्फ इसलिए कि तुम्हारा जमीर शांत है, क्या इसका अर्थ है कि तुम उनके तरह-तरह के विचारों, सोच, जीवन के बारे में नजरियों और जीने के तरीकों को अपने हृदय की गहराई से स्वीकार करते हो? क्या तुम उनसे सचमुच संगत हो? (नहीं।) विभिन्न पथों पर चलने वाले और विभिन्न सोच वाले दो किस्म के लोग, उनका शारीरिक या भावनात्मक रिश्ता या संबंध चाहे जो हो, वे एक-दूसरे का नजरिया नहीं बदल सकते। अगर दोनों पक्ष साथ बैठकर चीजों पर चर्चा न करें तो ठीक, मगर जैसे ही वे चर्चा शुरू करेंगे, वे बहस करने लगेंगे, उनमें मतभेद पैदा हो जाएँगे, वे एक-दूसरे से नफरत करने लगेंगे और एक-दूसरे से ऊब जाएँगे। हालाँकि बाहर से देखें, तो उनके बीच खून का रिश्ता है, मगर भीतर से वे शत्रु हैं, दो प्रकार के लोग जो पानी और आग जितने असंगत हैं। उस स्थिति में, अगर अभी भी तुम उनके साथ हो, तो आखिर तुम ऐसा किसके लिए कर रहे हो? क्या तुम बस ऐसा कुछ तलाश रहे हो जिससे तुम दुखी हो जाओ, या फिर कोई और कारण है? तुम जब भी उनसे मिलोगे, तो पछताओगे, और इसे अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना कहा जाता है। कुछ लोग सोचते हैं : “अपने माता-पिता को देखे मुझे कई बरस हो गए हैं। पहले उन्होंने कुछ घिनौने काम किए थे, परमेश्वर की निंदा की थी, और परमेश्वर में मेरे विश्वास का विरोध किया था। अब वे बहुत बूढ़े हो गए हैं; अब तक वे बदल चुके होंगे। इसलिए मुझे उनके द्वारा किए गए बुरे कामों का बतंगड़ नहीं बनाना चाहिए; वैसे भी मैं उन्हें लगभग भूल चुका हूँ। इसके अलावा, भावनात्मक तरीके और जमीर से भी, वे मुझे याद आते हैं, और मैं सोचता रहता हूँ कि न जाने वे कैसे होंगे। तो सोचता हूँ कि वापस जा कर उन्हें देखूँ।” लेकिन घर लौटने पर एक ही दिन में उनके प्रति पहले जो घृणा तुम महसूस करते थे वह लौट आती है और तुम्हें खेद होता है : “क्या इसी को परिवार कहते हैं? क्या यही मेरे माता-पिता हैं? क्या ये शत्रु नहीं हैं? वे पहले भी ऐसे ही थे, और अब भी उनका चरित्र वही है; वे जरा भी नहीं बदले हैं!” वे कैसे बदल सकते थे? वे जो मूल रूप में थे, हमेशा वैसे ही रहेंगे। तुमने सोचा था कि उम्र के साथ वे बदल गए होंगे, और तुम्हारी उनके साथ बन सकेगी? उनके साथ बनेगी ही नहीं। लौट कर जैसे ही तुम घर में प्रवेश करोगे, वे देखेंगे कि तुम्हारे हाथ में क्या है, यह जानने के लिए कि क्या यह कोई कीमती चीज है, जैसे कि मोती की सीपी, समुदी ककड़ी, शार्क पर या मछली का पेट या शायद कोई डिजाइनर बैग और कपड़े या सोने-चाँदी के गहने। जैसे ही वे तुम्हें एक हाथ में स्टीम्ड बन वाली थैली और दूसरे में थोड़े-से केलों वाली थैली लिए देखेंगे, वे समझ जाएँगे कि तुम अब भी गरीब हो और तुम्हें तंग करने लगेंगे : “अमुक-अमुक की बेटी ने विदेश जाकर एक विदेशी से शादी कर ली। उसने उसके लिए जो ब्रेसलेट खरीदे वे शुद्ध सोने के थे और जब भी मौका मिलता है वह दिखाती रहती है। अमुक-अमुक के बेटे ने कार खरीदी है और वह जब भी खाली होता है अपने माता-पिता को घुमाने और विदेश यात्राओं पर ले जाता है। वे सब अपने बच्चों की महिमा का आनंद ले रहे हैं! अमुक-अमुक की बेटी कभी खाली हाथ घर नहीं आती। वह अपने माता-पिता के लिए पैर धोने और मालिश करने वाली कुर्सियाँ खरीदती है, और जो कपड़े वह खरीदती है वे या तो रेशमी होते हैं या फिर ऊनी। उसके बच्चे बहुत संतानोचित हैं; उसकी देखभाल बेकार नहीं गई! हमने बस बेपरवाह कृतघ्नों को पाल-पोसकर बड़ा किया है!” क्या यह मुँह पर तमाचा नहीं है? (बिल्कुल।) तुम्हारे स्टीम्ड बन और केलों पर उनका ध्यान भी नहीं जाता, और तुम अब भी एक बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारी पूरी करने और संतानोचित धर्मनिष्ठा के बारे में सोचते हो। तुम्हारे माता-पिता को स्टीम्ड बन और केले पसंद हैं, और तुमने उन्हें कई बरस से नहीं देखा, इसलिए तुम उनका दिल छूने और अपनी अपराध भावना को दूर करने के लिए ये चीजें खरीदते हो। लेकिन लौटने पर, तुम न सिर्फ अपनी अपराध भावना दूर नहीं कर पाते, बल्कि उनकी आलोचना भी सुनते हो; निराशा में डूबकर तुम घर से बाहर निकल जाते हो। क्या अपने माता-पिता से मिलने के लिए घर जाने का कोई तुक था? (नहीं।) तुम इतने लंबे समय से घर नहीं लौटे, मगर वे तुम्हें याद नहीं करते; वे नहीं कहते : “तू वापस आ जा, यही काफी है। तुझे कुछ भी खरीदने की जरूरत नहीं है। यह देख कर अच्छा लगता है कि तू सही पथ पर है, स्वस्थ जीवन जी रहा है, और हर दृष्टि से सुरक्षित है। एक-दूसरे को देख पाने और दिल से बातचीत करने से काफी संतोष मिलता है।” उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है कि तुम इतने वर्ष ठीक थे या नहीं, कहीं तुमने कुछ मुश्किलों या तकलीफदेह मामलों का सामना तो नहीं किया जिनके लिए तुम्हें उनकी मदद चाहिए थी। वे सांत्वना का एक बोल भी नहीं बोलते। लेकिन अगर वे सचमुच ऐसी चीजें कहते, तो क्या तुम छोड़कर जाने में असमर्थ नहीं होते? उनकी डाँट-डपट के बाद तुम कमर सीधी कर खुद को बिल्कुल सही पाते हो, कोई अपराध बोध महसूस नहीं करते और मन-ही-मन सोचते हो : “मुझे यहाँ से चले जाना चाहिए, यह वास्तव में नर्क ही है! वे मेरी खाल उधेड़ देंगे, मेरा माँस खा लेंगे और फिर भी मेरा खून पी जाना चाहेंगे।” माता-पिता वाला रिश्ता किसी के लिए भावनात्मक रूप से संभालने का सबसे कठिन रिश्ता है, लेकिन दरअसल, इसे संभालना पूरी तरह असंभव नहीं है। सिर्फ सत्य की समझ के आधार पर लोग इस मामले से सही और तर्कपूर्ण ढंग से पेश आ सकते हैं। भावनाओं के परिप्रेक्ष्य से शुरू मत करो, और सांसारिक लोगों की अंतर्दृष्टियों या नजरियों से शुरु मत करो। इसके बजाय अपने माता-पिता से परमेश्वर के वचनों के अनुसार उचित ढंग से पेश आओ। माता-पिता वास्तव में कौन-सी भूमिका निभाते हैं, माता-पिता के लिए बच्चों का वास्तविक अर्थ क्या है, माता-पिता के प्रति बच्चों का रवैया कैसा होना चाहिए, और लोगों को माता-पिता और बच्चों के बीच के रिश्ते को कैसे सँभालना और हल करना चाहिए? लोगों को इन चीजों को भावनाओं के आधार पर नहीं देखना चाहिए, न ही उन्हें किन्हीं गलत विचारों या प्रचलित भावनाओं से प्रभावित होना चाहिए; उन्हें परमेश्वर के वचनों के आधार पर सही दृष्टि से देखना चाहिए। अगर तुम परमेश्वर द्वारा नियत माहौल में अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में नाकामयाब हो जाते हो, या तुम उनके जीवन में कोई भी भूमिका नहीं निभाते, तो क्या यह असंतानोचित होना है? क्या तुम्हारा जमीर तुम पर आरोप लगाएगा? तुम्हारे पड़ोसी, सहपाठी और रिश्तेदार सब तुम्हें गाली देंगे और तुम्हारी पीठ पीछे आलोचना करेंगे। वे तुम्हें यह कह कर एक असंतानोचित बच्चा कहेंगे : “तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए इतने त्याग किए, तुम पर इतनी कड़ी मेहनत की, तुम्हारे बचपन से ही तुम्हारे लिए बहुत-कुछ किया, लेकिन तुम, जो कि एक कृतघ्न बच्चे हो, बिना किसी सुराग के गायब हो गए, एक संदेश तक नहीं भेजा कि तुम सुरक्षित हो। न सिर्फ तुम नव वर्ष के लिए वापस नहीं आते, तुम अपने माता-पिता को एक फोन भी नहीं करते या अभिवादन तक नहीं भेजते।” जब भी तुम ऐसी बातें सुनते हो, तुम्हारा जमीर रोता है, उससे खून रिसता है, और तुम निंदित महसूस करते हो। “ओह, वे सही हैं।” तुम्हारा चेहरा गर्म होकर लाल हो जाता है, और दिल काँपता है मानो उसमें सुइयाँ चुभाई गई हों। क्या तुम्हें ऐसा महसूस हुआ है? (हाँ, पहले महसूस हुआ है।) क्या पड़ोसियों और तुम्हारे रिश्तेदारों की बात सही है कि तुम संतानोचित नहीं हो? (नहीं, मैं ऐसा नहीं हूँ।) अपनी बात समझाओ। (हालाँकि इतने वर्ष मैं अपने माता-पिता के साथ नहीं रहा, या सांसारिक लोगों की तरह उनकी इच्छाएँ पूरी नहीं कर पाया, हमारा परमेश्वर में विश्वास रखने के इस पथ पर चलना परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत था। यह जीवन का सही मार्ग है और यह न्यायसंगत चीज है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि मैं असंतानोचित नहीं था।) तुम लोगों का तर्क अभी भी उन सिद्धांतों पर आधारित है जो अतीत में लोग समझते थे; तुम्हारे पास वास्तविक व्याख्या और वास्तविक समझ नहीं है। कोई और अपने विचार साझा करना चाहता है? (मुझे याद है कि जब मैं पहली बार विदेश गया था, जब भी ख्याल आता कि मेरे परिवार को मालूम नहीं कि मैं विदेश में क्या कर रही हूँ, शायद वे मेरी आलोचना करते होंगे और कहते होंगे कि मैं संतानोचित नहीं हूँ, कि मैं एक असंतानोचित बेटी हूँ जो साथ रहकर अपने माता-पिता की देखभाल नहीं करती—मैंने खुद को इन विचारों से बंधी हुई और संकुचित महसूस किया। जब भी मैंने इस पर विचार किया, तो मुझे लगा कि मुझ पर अपने माता-पिता का कर्ज है। लेकिन आज परमेश्वर की संगति के जरिये मुझे लगता है कि मेरे माता-पिता का मेरी देखभाल करना उनका अपनी अभिभावकीय जिम्मेदारी पूरी करना था और मेरे प्रति उनकी दयालुता परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत थी, और मुझे परमेश्वर का आभारी होना चाहिए और मुझे उसके प्रेम का कर्ज चुकाना चाहिए। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ, और जीवन के सही पथ पर चलती हूँ, जो कि एक न्यायसंगत चीज है, मुझे अपने माता-पिता का ऋणी महसूस नहीं करना चाहिए। इसके अलावा, मेरे माता-पिता अपने बच्चों के साथ और उनकी देखभाल का आनंद ले पाते हैं या नहीं, यह भी परमेश्वर द्वारा पूर्वनियत है। ये चीजें समझने के बाद, मैं कुछ हद तक अपने दिल में महसूस होने वाली कर्जदार होने की भावना को त्याग सकती हूँ।) बहुत अच्छा। पहले तो ज्यादातर लोग अपने कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने को कुछ हद तक व्यापक वस्तुपरक हालात के कारण चुनते हैं जिससे उनका अपने माता-पिता को छोड़ना जरूरी हो जाता है; वे अपने माता-पिता की देखभाल के लिए उनके साथ नहीं रह सकते; ऐसा नहीं है कि वे स्वेच्छा से अपने माता-पिता को छोड़ना चुनते हैं; यह वस्तुपरक कारण है। दूसरी ओर, व्यक्तिपरक ढंग से कहें, तो तुम अपने कर्तव्य निभाने के लिए बाहर इसलिए नहीं जाते कि तुम अपने माता-पिता को छोड़ देना चाहते हो और अपनी जिम्मेदारियों से बचकर भागना चाहते हो, बल्कि परमेश्वर की बुलाहट की वजह से जाते हो। परमेश्वर के कार्य के साथ सहयोग करने, उसकी बुलाहट स्वीकार करने और एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के लिए तुम्हारे पास अपने माता-पिता को छोड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं था; तुम उनकी देखभाल करने के लिए उनके साथ नहीं रह सकते थे। तुमने अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें नहीं छोड़ा, सही है? अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए उन्हें छोड़ देना और परमेश्वर की बुलाहट का जवाब देने और अपने कर्तव्य निभाने के लिए उन्हें छोड़ना—क्या इन दोनों बातों की प्रकृतियाँ अलग नहीं हैं? (बिल्कुल।) तुम्हारे हृदय में तुम्हारे माता-पिता के प्रति भावनात्मक लगाव और विचार जरूर होते हैं; तुम्हारी भावनाएँ खोखली नहीं हैं। अगर वस्तुपरक हालात अनुमति दें, और तुम अपने कर्तव्य निभाते हुए भी उनके साथ रह पाओ, तो तुम उनके साथ रहने को तैयार होगे, नियमित रूप से उनकी देखभाल करोगे और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करोगे। लेकिन वस्तुपरक हालात के कारण तुम्हें उनको छोड़ना पड़ता है; तुम उनके साथ नहीं रह सकते। ऐसा नहीं है कि तुम उनके बच्चे के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते हो, बल्कि तुम निभा सकते नहीं हो। क्या इसकी प्रकृति अलग नहीं है? (बिल्कुल है।) अगर तुमने संतानोचित होने और अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने से बचने के लिए घर छोड़ दिया था, तो यह असंतानोचित होना है और यह मानवता का अभाव दर्शाता है। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया, लेकिन तुम अपने पंख फैलाकर जल्द-से-जल्द अपने रास्ते चले जाना चाहते हो। तुम अपने माता-पिता को नहीं देखना चाहते, और उनकी किसी भी मुश्किल के बारे में सुनकर तुम कोई ध्यान नहीं देते। तुम्हारे पास मदद करने के साधन होने पर भी तुम नहीं करते; तुम बस सुनाई न देने का बहाना कर लोगों को तुम्हारे बारे में जो चाहें कहने देते हो—तुम बस अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह असंतानोचित होना है। लेकिन क्या स्थिति अभी ऐसी है? (नहीं।) बहुत-से लोगों ने अपने कर्तव्य निभाने के लिए अपनी काउंटी, शहर, प्रांत और यहाँ तक कि अपने देश तक को छोड़ दिया है; वे पहले ही अपने गाँवों से बहुत दूर हैं। इसके अलावा, विभिन्न कारणों से उनके लिए अपने परिवारों के साथ संपर्क में रहना सुविधाजनक नहीं है। कभी-कभी वे अपने माता-पिता की मौजूदा दशा के बारे में उसी गाँव से आए लोगों से पूछ लेते हैं और यह सुन कर राहत महसूस करते हैं कि उनके माता-पिता अभी भी स्वस्थ हैं और ठीक गुजारा कर पा रहे हैं। दरअसल, तुम असंतानोचित नहीं हो; तुम मानवता न होने के उस मुकाम पर नहीं पहुँचे हो, जहाँ तुम अपने माता-पिता की परवाह भी नहीं करना चाहते, या उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ नहीं निभाना चाहते। यह विभिन्न वस्तुपरक कारणों से है कि तुम्हें यह चुनना पड़ा है, इसलिए तुम असंतानोचित नहीं हो। ये वे दो कारण हैं। एक और कारण भी है : अगर तुम्हारे माता-पिता वैसे लोग नहीं हैं जो तुम्हें खास तौर पर सताते हैं या परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास में रुकावट पैदा करते हैं, अगर वे परमेश्वर में तुम्हारे विश्वास को समर्थन देते हैं, या वे ऐसे भाई-बहन हैं जो तुम्हारी तरह परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, खुद परमेश्वर के घर के सदस्य हैं, फिर तुम दोनों में से कौन दिल की गहराई से अपने माता-पिता के बारे में सोचते समय शांति से परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करेगा? तुममें से कौन अपने माता-पिता को—उनके स्वास्थ्य, सुरक्षा और उनके जीवन की तमाम जरूरतों के साथ—परमेश्वर के हाथों में नहीं सौंप देगा? अपने माता-पिता को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना उनके प्रति संतानोचित आदर दिखाने का सर्वोत्तम तरीका है। तुम उम्मीद नहीं करते कि वे जीवन में तरह-तरह की मुश्किलें झेलें, तुम उम्मीद नहीं करते कि वे बुरा जीवन जिएँ, पोषणरहित खाना खाएँ, या बुरा स्वास्थ्य झेलें। अपने हृदय की गहराई से तुम निश्चित रूप से यही उम्मीद करते हो कि परमेश्वर उनकी रक्षा करेगा, उन्हें सुरक्षित रखेगा। अगर वे परमेश्वर के विश्वासी हैं, तो तुम उम्मीद करते हो कि वे अपने खुद के कर्तव्य निभा सकेंगे और तुम यह भी उम्मीद करते हो कि वे अपनी गवाही में दृढ़ रह सकेंगे। यह अपनी मानवीय जिम्मेदारियाँ निभाना है; लोग अपनी मानवता से केवल इतना ही हासिल कर सकते हैं। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण यह है कि वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने और अनेक सत्य सुनने के बाद, लोगों में कम-से-कम इतनी समझ-बूझ तो है : मनुष्य का भाग्य स्वर्ग द्वारा तय होता है, मनुष्य परमेश्वर के हाथों में जीता है, और परमेश्वर द्वारा मिलने वाली देखभाल और रक्षा, अपने बच्चों की चिंता, संतानोचित धर्मनिष्ठा या साथ से कहीं ज्यादा अहम है। क्या तुम इस बात से राहत महसूस नहीं करते हो कि तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर की देखभाल और रक्षा के अधीन हैं? तुम्हें उनकी चिंता करने की जरूरत नहीं है। अगर तुम चिंता करते हो, तो इसका अर्थ है कि तुम परमेश्वर पर भरोसा नहीं करते; उसमें तुम्हारी आस्था बहुत थोड़ी है। अगर तुम अपने माता-पिता के बारे में सचमुच चिंतित और विचारशील हो, तो तुम्हें अक्सर परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, उन्हें परमेश्वर के हाथों में सौंप देना चाहिए, और परमेश्वर को हर चीज का आयोजन और व्यवस्था करने देनी चाहिए। परमेश्वर मानवजाति के भाग्य पर राज्य करता है और वह उनके हर दिन और उनके साथ होने वाली हर चीज पर शासन करता है, तो तुम अभी भी किस बात को लेकर चिंतित हो? तुम अपना जीवन[क] भी नियंत्रित नहीं कर पाते, तुम्हारी अपनी ढेरों मुश्किलें हैं; तुम क्या कर सकते हो कि तुम्हारे माता-पिता हर दिन खुश रहें? तुम बस इतना ही कर सकते हो कि सब-कुछ परमेश्वर के हाथों में सौंप दो। अगर वे विश्वासी हैं, तो परमेश्वर से आग्रह करो कि वह सही पथ पर उनकी अगुआई करे ताकि वे आखिरकार बचाए जा सकें। अगर वे विश्वासी नहीं हैं, तो वे जो भी पथ चाहें उस पर चलने दो। जो माता-पिता ज्यादा दयालु हैं और जिनमें थोड़ी मानवता है, उन्हें आशीष देने के लिए तुम परमेश्वर से प्रार्थना कर सकते हो, ताकि वे अपने बचा हुआ जीवन खुशी-खुशी बिता सकें। जहाँ तक परमेश्वर के कार्य करने के तरीके का प्रश्न है, उसकी अपनी व्यवस्थाएँ हैं और लोगों को उनके प्रति समर्पित हो जाना चाहिए। तो कुल मिला कर लोगों के जमीर में अपने माता-पिता के प्रति निभाई जाने वाली जिम्मेदारियों की जागरूकता है। इस जागरूकता से आने वाला रवैया चाहे जैसा हो, चाहे यह चिंता करने का हो या उनके साथ मौजूद रहने को चुनने का हो, किसी भी स्थिति में, लोगों को अपराध भावना नहीं पालनी चाहिए और उनकी अंतरात्मा को दोषी महसूस नहीं करना चाहिए क्योंकि वे वस्तुपरक हालात से प्रभावित होने के कारण अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर सके। ये और इन जैसे दूसरे मसले लोगों के परमेश्वर में विश्वास के जीवन में मुसीबतें नहीं बननी चाहिए; उन्हें त्याग देना चाहिए। जब माता-पिता के प्रति जिम्मेदारियाँ पूरी करने के विषय उभरते हैं, तो लोगों को ये सही समझ रखनी चाहिए और उन्हें अब बेबस महसूस नहीं करना चाहिए। एक बात तो यह है कि, तुम अपने दिल की गहराई से जानते हो कि तुम असंतानोचित नहीं हो, और तुम अपनी जिम्मेदारियों से जी नहीं चुरा रहे हो या बच नहीं रहे हो। दूसरी बात, तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर के हाथों में हैं, तो फिर अभी भी चिंता करने के लिए क्या रह गया है? किसी को जो भी चिंताएँ हों, बेकार हैं। प्रत्येक व्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था के अनुसार अंत तक सुगम जीवन जिएगा, बिना किसी भटकाव के अपने पथ के अंत तक पहुँचेगा। इसलिए लोगों को अब इस मामले में चिंता करते रहने की कोई जरूरत नहीं है। तुम संतानोचित हो या नहीं, तुमने अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी की हों या नहीं, या क्या तुम्हें अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाना चाहिए—ये वे चीजें नहीं हैं जिनके बारे में तुम्हें सोचना चाहिए; ये वे चीजें हैं जिन्हें तुम्हें त्याग देना चाहिए। क्या यह सही नहीं है? (बिल्कुल।)
बच्चों से माता-पिता की अपेक्षाओं के विषय में, हमने पढ़ाई और काम के पहलुओं पर संगति की थी। इस बारे में लोगों को कौन-से तथ्य समझने चाहिए? अगर तुम अपने माता-पिता की बात सुनो और उनकी अपेक्षाओं के अनुसार बहुत कड़ी मेहनत से पढ़ो, तो क्या इसका अर्थ है कि तुम निश्चित रूप से बहुत बड़ी सफलता हासिल कर लोगे? क्या ऐसा करने से तुम्हारा भाग्य बदल सकता है? (नहीं।) फिर भविष्य में तुम्हारे लिए क्या है? वही है जो परमेश्वर ने तुम्हारे लिए व्यवस्थित किया है—जो भाग्य तुम्हारा होना चाहिए, लोगों के बीच जो स्थान तुम्हारा होना चाहिए, जिस मार्ग पर तुम्हें चलना चाहिए, और जीने का वह माहौल जो तुम्हें मिलना चाहिए। परमेश्वर ने बहुत पहले ही ये तुम्हारे लिए व्यवस्थित कर दिए हैं। इसलिए, अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को लेकर तुम्हें कोई बोझ नहीं ढोना चाहिए। अगर तुम अपने माता-पिता के कहे अनुसार करोगे, तो भी तुम्हारा भाग्य वही रहेगा; अगर तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाओं पर नहीं चलोगे, उन्हें निराश करोगे, तो भी तुम्हारा भाग्य वही रहेगा। तुम्हारे आगे के पथ को जैसा होना है वैसा ही होगा; यह परमेश्वर द्वारा पहले ही नियत किया जा चुका है। इसी तरह, अगर तुम अपने माता-पिता की अपेक्षाएँ पूरी करते हो, उन्हें संतुष्ट करते हो, उन्हें निराश नहीं करते, तो क्या इसका अर्थ है कि उन्हें बेहतर जीवन जीने को मिलेगा? क्या यह उनके कष्ट और दुर्व्यवहार के भाग्य को बदल सकता है? (नहीं।) कुछ लोग सोचते हैं कि उनके माता-पिता ने उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में बहुत ज्यादा दयालुता दिखाई है, और उस दौरान उन्होंने बहुत दुख सहे हैं। इसलिए वे एक अच्छी नौकरी तलाशना चाहते हैं, फिर मुश्किलें झेलना, मेहनत-मशक्कत करना, ध्यान लगाकर कड़ी मेहनत से काम करना चाहते हैं ताकि ढेर सारा पैसा कमा कर संपन्न हो जाएँ। उनका लक्ष्य अपने माता-पिता को भविष्य में बहुत बढ़िया जीवन देना है, जिस जीवन में वे बंगले में रहें, शानदार गाड़ी चलाएँ, बढ़िया खाएँ और पिएँ। लेकिन बरसों पूरे जोश और जोर-शोर से काम करने के बाद, हालाँकि उनकी जीने की स्थितियाँ और हालात सुधरे हैं, मगर उनके माता-पिता उस समृद्धि के एक भी दिन का आनंद लिए बिना मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। इसके लिए कौन दोषी है? अगर तुम चीजों को अपने ढंग से चलने दो, परमेश्वर को आयोजित करने दो, और यह बोझ न ढोओ, तो फिर अपने माता-पिता की मृत्यु पर तुम्हें अपराध बोध नहीं होगा। लेकिन अगर तुम अपने माता-पिता का प्रतिदान करने और बेहतर जीवन जीने में उनकी मदद करने हेतु पैसे कमाने के लिए बहुत कड़ी मेहनत करो, मगर उनकी मृत्यु हो जाए, तो तुम्हें कैसा लगेगा? अगर तुमने अपना कर्तव्य निभाने और सत्य प्राप्त करने में देर की, तब भी क्या तुम अपना शेष जीवन आराम से जी सकोगे? (नहीं।) तुम्हारा जीवन प्रभावित होगा और तुम हमेशा शेष जीवन भर “अपने माता-पिता को निराश करने” का बोझ ढोते रहोगे। कुछ लोग काम करने, उद्यम करने, और पैसा कमाने के लिए बहुत प्रयास करते हैं, ताकि वे अपने माता-पिता को निराश न करें और उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में उनके द्वारा दिखाई दयालुता का कर्ज चुका सकें। बाद में, जब वे धनी हो जाते हैं, और उनके पास बढ़िया खाना खाने के पैसे आ जाते हैं, तो वे अपने माता-पिता को भोजन पर बुलाते हैं और यह कह कर तरह-तरह का उम्दा भोजन ऑर्डर करते हैं : “लीजिए न। मुझे याद है जब मैं छोटा था, तो ये आपकी पसंदीदा चीजें हुआ करती थीं; खाइए न!” मगर चूँकि उनके माता-पिता बूढ़े हो चुके हैं, उनके लगभग सारे दांत गिर चुके हैं, और अब उन्हें कम खाने की ही इच्छा होती है, इसलिए वे सब्जियाँ और नूडल जैसा नरम और सुपाच्य खाना चुनते हैं और थोड़े-से निवाले खाते ही उनका पेट भर जाता है। बड़े-से टेबल पर इतना खाना बचा हुआ देखकर तुम दुखी हो जाते हो। लेकिन तुम्हारे माता-पिता को बहुत अच्छा लगता है। ऐसी बड़ी उम्र में, उन्हें बस इतना ही खाना चाहिए; यह सामान्य है, वे ज्यादा नहीं माँगते। तुम भीतर से नाखुश हो, मगर किस बात पर? तुम्हारे लिए ये चीजें करना बेकार था। यह बहुत पहले ही तय हो चुका था कि तुम्हारे माता-पिता को उनके जीवन काल में कितनी खुशियों और कितनी तकलीफों का अनुभव होगा। तुम्हारी कामना के कारण और तुम्हारी भावनाओं को संतुष्ट करने के लिए इसे नहीं बदला जा सकता। परमेश्वर ने बहुत पहले ही यह नियत कर दिया है, इसलिए लोग जो भी करें बेकार है। इन तथ्यों से लोगों को क्या पता चलता है? माता-पिता को जो करना चाहिए वह है तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करके स्वस्थ और सुगम तरीके से बड़ा होने देना, सही पथ पर कदम रखने देना, और वह जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करने देना है जो एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें पूरी करनी चाहिए। ये सब तुम्हारे भाग्य को बदलने के प्रयोजन से नहीं हैं, और ये सचमुच तुम्हारा भाग्य नहीं बदल सकते; ये महज एक सहायक और मार्गदर्शक भूमिका निभाने का कार्य करते हैं, तुम्हें प्रौढ़ता तक पाल-पोसकर जीवन के सही पथ की ओर आगे बढ़ाने का कार्य करते हैं। तुम्हें जो नहीं करना चाहिए वह है अपने माता-पिता के लिए खुशी रचने, उनका भाग्य बदलने और उन्हें ढेरों संपत्ति और बढ़िया खाना-पीना देने के लिए अपने हाथों का इस्तेमाल करना। ये मूर्खतापूर्ण विचार हैं। यह वह बोझ नहीं है जो तुम्हें ढोना चाहिए, यह वह है जिसे तुम्हें त्याग देना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता का कर्ज चुकाने, उनका भाग्य बदलने, और उन्हें ज्यादा आशीष और कम कष्ट पाने में समर्थ बनाने के लिए कोई बेकार के त्याग या बेकार के काम नहीं करने चाहिए, जिससे कि तुम्हारे जमीर की निजी जरूरतें या भावनाएँ संतुष्ट हो सकें या तुम अपने माता-पिता को निराश करने से बच सको। यह तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है, और यह वह चीज नहीं है जिसके बारे में तुम्हें सोचना चाहिए। माता-पिता को अपनी स्थिति और परमेश्वर द्वारा तैयार की गई स्थितियों और माहौल के अनुसार बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए। बच्चों को अपने माता-पिता के लिए जो करना चाहिए, वह भी उन स्थितियों पर निर्भर है जिसे वे हासिल कर सकते हैं और उस माहौल पर भी निर्भर है जिसमें वे जीते हैं; बस इतना ही। माता-पिता या बच्चे जो भी करते हैं, वह अपनी सामर्थ्य या स्वार्थी आकांक्षाओं के जरिए एक-दूसरे का भाग्य बदलने के प्रयोजन से नहीं होना चाहिए, ताकि दूसरा पक्ष उनके प्रयासों के कारण बेहतर, ज्यादा खुशहाल और ज्यादा आदर्श जीवन जी सके। माता-पिता हों या बच्चे, सभी को परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित माहौल में चीजों को अपने ढंग से होने देना चाहिए, बजाय इसके कि अपने प्रयासों या किन्हीं निजी संकल्पों के जरिये बदलने की कोशिश करें। तुम्हारे माता-पिता का भाग्य तुम्हारे उनके बारे में ऐसे विचार रखने के कारण नहीं बदलेगा—उनका भाग्य बहुत पहले ही परमेश्वर द्वारा नियत हो चुका है। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए उनके जीवन के दायरे में जीना, उनसे जन्म लेना, उनके द्वारा पाल-पोसकर बड़ा किया जाना और उनके साथ यह रिश्ता रखना नियत किया है। इसलिए उनके प्रति तुम्हारी जिम्मेदारी सिर्फ इतनी है कि तुम अपनी स्थितियों के अनुसार उनके साथ रहो और कुछ दायित्व निभाओ। जहाँ तक तुम्हारे माता-पिता की मौजूदा हालत को बदलने या उनके लिए बेहतर जीवन की तुम्हारी चाहतों की बात है, ये सब बेकार हैं। या अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों से प्रशंसा और आदर पाना, अपने माता-पिता को सम्मान दिलाना, परिवार में अपने माता-पिता के लिए प्रतिष्ठा अर्जित करना—यह और भी गैरजरूरी है। कुछ एकल माताएँ और पिता भी हैं जिन्हें उनके जीवनसाथी ने छोड़ दिया था, और उन्होंने तुम्हें खुद बड़ा किया। तुम्हें और ज्यादा महसूस होता है कि उनके लिए यह कितना मुश्किल था और तुम अपना पूरा जीवन उनका कर्ज चुकाने और भरपाई करने में लगा देना चाहते हो, इस हद तक कि तुम उनकी हर बात मानना चाहते हो। वे तुमसे जो कहते हैं, जो अपेक्षा रखते हैं और तुम जो खुद करना चाहते हो, ये सब इस जीवन में तुम्हारे लिए बोझ बन जाते हैं—ऐसा नहीं होना चाहिए। सृष्टिकर्ता की मौजूदगी में, तुम एक सृजित प्राणी हो। तुम्हें इस जीवन में जो करना चाहिए वह सिर्फ अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ निभाना नहीं, बल्कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपनी जिम्मेदारियाँ और कर्तव्य निभाना भी है। तुम अपने माता-पिता के प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ सिर्फ परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर पूरी कर सकते हो, अपनी भावनाओं या अपने जमीर की जरूरतों के आधार पर काम करके नहीं। बेशक, परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के आधार पर उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे करना भी एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हारे कर्तव्यों का अंश है; यह परमेश्वर द्वारा मनुष्य को दी गई जिम्मेदारी है। इस जिम्मेदारी की पूर्ति परमेश्वर के वचनों पर आधारित है, इंसान की जरूरतों पर नहीं। तो तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार अपने माता-पिता से आसानी से पेश आ सकते हो, उनके प्रति अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरे कर सकते हो। यह इतना सरल है। क्या यह करना आसान है? (हाँ।) यह करना आसान क्यों है? इसका सार और साथ ही लोगों को जिन सत्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, वे बहुत स्पष्ट हैं। सार यह है कि न तो माता-पिता और न ही बच्चे एक-दूसरे का भाग्य बदल सकते हैं। तुम मेहनत से कोशिश करते हो या नहीं, अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करने को तैयार हो या नहीं, इनमें से कुछ भी दूसरे का भाग्य नहीं बदल सकता। तुम उन्हें दिल में बसा कर रखते हो या नहीं, यह सिर्फ भावनात्मक जरूरत का फर्क है, और इससे कोई तथ्य नहीं बदलेगा। इसलिए लोगों के करने की जो सबसे सरल चीज है वह है उनके माता-पिता की अपेक्षाओं से उपजे तरह-तरह के बोझों को त्याग देना। सबसे पहले, तुम्हें इन चीजों पर परमेश्वर के वचनों के अनुसार गौर करना चाहिए, और दूसरे तुम्हें अपने माता-पिता से अपने रिश्ते के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश आना और उसे संभालना चाहिए। यह इतना सरल है। क्या यह आसान नहीं है? (बिल्कुल।) अगर तुम सत्य को स्वीकार करते हो, तो ये तमाम चीजें आसान होंगी, और अपने अनुभव की प्रक्रिया में तुम्हें ज्यादा-से-ज्यादा महसूस होगा कि मामला सचमुच यही है। कोई किसी का भाग्य नहीं बदल सकता; व्यक्ति का भाग्य केवल परमेश्वर के हाथों में है। तुम चाहे जितनी भी कोशिश करो, कारगर नहीं होगा। बेशक, कुछ लोग कहेंगे : “तुमने जो बातें कही हैं वे सब तथ्य हैं, मगर मुझे लगता है कि यूँ कार्य करना बड़ी बेरुखी है। मेरा जमीर हमेशा मुझे फटकारता हुआ लगता है, मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकता।” अगर तुम बर्दाश्त नहीं कर सकते, तो बस अपनी भावनाओं को संतुष्ट करो; अपने माता-पिता के साथ चलो, उनके करीब रहो, उनकी सेवा करो, संतानोचित रहो और वे सही कहें या गलत, उनकी बात मानो—उनकी छोटी-सी दुम और एक सहायक बन जाओ, ये सब ठीक है। इस तरह, कोई भी तुम्हारी पीठ पीछे आलोचना नहीं करेगा, और तुम्हारा विस्तारित परिवार भी कहेगा कि तुम बड़े संतानोचित हो। फिर भी अंत में तुम्हें ही नुकसान होगा। तुमने एक संतानोचित बच्चे के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखी है, तुमने अपनी भावनात्मक जरूरतें पूरी की हैं, तुम्हारे जमीर ने कभी भी दोषी महसूस नहीं किया है, और तुमने अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुकाया है, लेकिन एक चीज है जिसकी तुमने अनदेखी की है, और जिसे तुमने खो दिया है : तुम इन तमाम मामलों के साथ परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश नहीं आए, उन्हें उनके अनुसार नहीं संभाला, और तुम एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने का अवसर गँवा चुके हो। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि तुम अपने माता-पिता के प्रति तो संतानोचित रहे, मगर परमेश्वर को धोखा दे दिया। तुमने संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाई और अपने माता-पिता की देह की भावनात्मक जरूरतें पूरी कीं, मगर तुमने परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया। तुम एक सृजित प्राणी के कर्तव्य निभाने के बजाय एक संतानोचित बच्चा बनना चुनते हो। यह परमेश्वर का सबसे बड़ा तिरस्कार है। तुम संतानोचित हो, तुमने अपने माता-पिता को निराश नहीं किया है, तुम्हारे पास जमीर है, और तुम एक बच्चे के तौर पर अपनी जिम्मेदारियाँ पूरी करते हो, सिर्फ इन कारणों से परमेश्वर नहीं कहेगा कि तुम उसके प्रति समर्पण करने वाले वह व्यक्ति हो जिसके पास मानवता है। अगर तुम सिर्फ अपने जमीर और अपनी देह की भावनात्मक जरूरतें पूरी करते हो, मगर इस मामले के साथ पेश आने या उसे संभालने के किए परमेश्वर के वचनों या सत्य को आधार और सिद्धांतों के रूप में स्वीकार नहीं करते, तो तुम परमेश्वर के प्रति अत्यधिक विद्रोहशीलता दिखाते हो। अगर तुम एक योग्य सृजित प्राणी बनना चाहते हो, तो तुम्हें पहले सभी चीजों को परमेश्वर के वचनों के अनुसार देखना और करना चाहिए। इसे योग्यता प्राप्त, मानवता युक्त और जमीर वाला होना कहते हैं। इसके विपरीत, अगर तुम इस मामले से पेश आने और इसे संभालने के लिए सिद्धांतों और आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों को स्वीकार नहीं करते, और तुम बाहर जा कर अपने कर्तव्य निभाने की परमेश्वर की बुलाहट को नहीं स्वीकार नहीं करते हो, या तुम अपने माता-पिता के साथ रहने, उनका साथ देने, उन्हें खुशी देने और उन्हें उनकी जीवन संध्या का आनंद लेने देने, उनकी दयालुता का कर्ज चुकाने के लिए अपना कर्तव्य निभाने में देर करते हो या वह मौका छोड़ देते हो, तो परमेश्वर कहेगा कि तुममें मानवता या जमीर नहीं है। तुम एक सृजित प्राणी नहीं हो, और वह तुम्हें नहीं पहचानेगा।
माता-पिता की अपेक्षाओं के विषय में क्या यह स्पष्ट है कि कौन-से सिद्धांतों का पालन करना है और कौन-से बोझों को त्याग देना है? (हाँ।) तो ठीक-ठीक वे कौन-से बोझ हैं जो लोग यहाँ ढोते हैं? उन्हें अपने माता-पिता की बात माननी चाहिए और अपने माता-पिता को अच्छा जीवन जीने देना चाहिए; उनके माता-पिता जो भी करते हैं, उनके अच्छे के लिए करते हैं; और उनके माता-पिता जिसे संतानोचित होना कहते हैं, वैसे काम करने चाहिए। इसके अतिरिक्त, वयस्कों के रूप में, उन्हें अपने माता-पिता के लिए चीजें करनी चाहिए, उनकी दयालुता का कर्ज चुकाना चाहिए, उनके प्रति संतानोचित बनना चाहिए, उनके साथ रहना चहिए, उन्हें दुखी या उदास नहीं करना चाहिए, उन्हें निराश नहीं करना चाहिए, और उनकी तकलीफें कम करने या पूरी तरह से दूर करने की भरसक कोशिश करनी चाहिए। अगर तुम यह हासिल नहीं कर सकते, तो तुम कृतघ्न हो, असंतानोचित हो, तुम पर बिजली गिर जानी चाहिए और दूसरों को तुम्हारा तिरस्कार करना चाहिए, और तुम एक बुरे इंसान हो। क्या ये तुम्हारे बोझ हैं? (हाँ।) चूँकि ये लोगों के बोझ हैं, इसलिए लोगों को सत्य स्वीकार कर उचित ढंग से उनका सामना करना चाहिए। सिर्फ सत्य को स्वीकार करके ही इन बोझों और गलत विचारों और नजरियों को त्यागा और बदला जा सकता है। अगर तुम सत्य स्वीकार नहीं करते, तो क्या तुम्हारे सामने चलने का कोई दूसरा पथ है? (नहीं।) इस तरह परिवार के बोझों को त्यागने की बात हो या देह को, इन सबकी शुरुआत सही विचारों और नजरियों को स्वीकारने और सत्य को स्वीकारने से होती है। जब तुम सत्य को स्वीकारना शुरू करोगे, तो तुम्हारे अंदर के ये गलत विचार और नजरिये धीरे-धीरे विघटित हो जाएँगे, पूरी तरह समझ-बूझ लिए जाएँगे और फिर धीरे-धीरे ठुकरा दिए जाएँगे। विघटन, समझने-बूझने, और फिर इन गलत विचारों और नजरियों को जाने देने और ठुकराने की प्रक्रिया के दौरान, तुम धीरे-धीरे इन मामलों के प्रति अपना रवैया और नजरिया बदल दोगे। वे विचार जो तुम्हारे इंसानी जमीर या भावनाओं से आते हैं, धीरे-धीरे कमजोर पड़ जाएँगे; वे तुम्हें तुम्हारे मन की गहराई में न परेशान करेंगे, न बाँधकर रखेंगे, तुम्हारे जीवन को नियंत्रित या प्रभावित नहीं करेंगे, या तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन में दखल नहीं देंगे। मिसाल के तौर पर, अगर तुमने सही विचारों और नजरियों और सत्य के इस पहलू को स्वीकार किया है, तो अपने माता-पिता की मृत्यु की खबर सुन कर तुम उनके लिए सिर्फ आँसू बहाओगे, यह नहीं सोचोगे कि कैसे इन वर्षों के दौरान तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा करने में उनकी दयालुता का कर्ज तुमने नहीं चुकाया, कैसे तुमने उन्हें बहुत दुख दिए, कैसे उनकी जरा भी भरपाई नहीं की, या कैसे तुमने उन्हें अच्छा जीवन जीने नहीं दिया। अब तुम इन चीजों के लिए खुद को दोष नहीं दोगे—बल्कि सामान्य मानवीय भावनाओं से निकलने वाली सामान्य अभिव्यक्तियाँ दर्शाओगे; तुम आँसू बहाओगे, और फिर उनके लिए थोड़ा तरसोगे। जल्दी ही ये चीजें स्वाभाविक और सामान्य हो जाएँगी, और तुम तेजी से सामान्य जीवन और अपने कर्तव्य निर्वहन में डुब जाओगे; तुम इस मामले से परेशान नहीं होगे। लेकिन अगर तुम ये सत्य स्वीकार नहीं करते, तो अपने माता-पिता की मृत्यु की खबर सुनकर तुम निरंतर रोते रहोगे। तुम्हें अपने माता-पिता पर तरस आएगा कि जीवन भर उनके लिए चीजें कठिन रहीं, और उन्होंने तुम जैसे एक असंतानोचित बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा किया; जब वे बीमार थे, तो तुम उनके सिरहाने नहीं रहे, और उनकी मृत्यु पर उनकी अंत्येष्टि के समय चीख-चीख कर रोए नहीं या शोक-संतप्त नहीं हुए; तुमने उन्हें निराश किया, उन्हें हताश किया, और तुमने उन्हें एक अच्छा जीवन नहीं जीने दिया। तुम लंबे समय तक इस अपराध बोध के साथ जियोगे, और इस बारे में जब भी सोचोगे तो रोओगे, और तुम्हारे दिल में एक टीस उठेगी। जब भी तुम्हारा सामना संबंधित हालात या लोगों, घटनाओं और चीजों से होगा, तुम भावुक हो जाओगे; यह अपराध बोध शायद शेष जीवन भर तुम्हारे साथ रहे। इसका कारण क्या है? कारण यह है कि तुमने कभी सत्य या सही विचारों और नजरियों को अपने जीवन के रूप में स्वीकार नहीं किया; इसके बजाय तुम्हारे पुराने विचार और नजरिये तुम पर हावी बने रहे हैं, तुम्हारे जीवन को प्रभावित करते रहे हैं। तो तुम अपने माता-पिता की मृत्यु के कारण अपना बचा हुआ जीवन पीड़ा में बिताओगे। इस निरंतर दुख के नतीजे थोड़ी-सी दैहिक बेचैनी से बढ़ कर कहीं ज्यादा हो जाएँगे; ये तुम्हारे जीवन को प्रभावित करेंगे, ये तुम्हारे अपने कर्तव्य निर्वहन, कलीसिया के कार्य, परमेश्वर, और साथ ही तुम्हारी आत्मा को छूने वाले किसी भी व्यक्ति या मामले के प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित करेंगे। शायद तुम और भी मामलों के प्रति भी निराश और हतोत्साहित, मायूस और निष्क्रिय हो जाओ, जीवन में विश्वास खो दो, किसी भी चीज के लिए उत्साह और अभिप्रेरणा, आदि खो दो। समय के साथ, यह प्रभाव तुम्हारे सरल दैनिक जीवन तक सीमित नहीं रहेगा; यह तुम्हारे कर्तव्य निर्वहन और जीवन में जिस पथ पर चलते हो, उसके प्रति तुम्हारे रवैये को भी प्रभावित करेगा। यह बहुत खतरनाक है। इस खतरे का नतीजा यह हो सकता है कि तुम एक सृजित प्राणी के रूप में ढंग से अपने कर्तव्य न निभा सको, और आधे में ही अपना कर्तव्य निर्वहन बंद कर दो, या जिन कर्तव्यों का तुम निर्वाह करते हो उनके प्रति एक प्रतिरोधी मनोदशा और रवैया अपना लो। संक्षेप में कहें, तो ऐसी स्थिति समय के साथ जरूर बिगड़ेगी और तुम्हारी मनोदशा, भावनाओं और मानसिकता को एक घातक दिशा में ले जाएगी। क्या तुम समझ रहे हो? (हाँ।) आज इन विषयों पर संगति एक ओर तुम्हें बताती है कि सही विचार और नजरिये स्थापित करो, जिनका स्रोत खुद इन मामलों के सार पर आधारित हो। चूँकि मूल और सार ऐसे हैं, इसलिए लोगों को यह समझना चाहिए और उन्हें इन प्रदर्शनों या भावनाओं और उग्रता से आने वाले विचारों और नजरियों से धोखा नहीं खाना चाहिए। यह एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है कि ऐसा करने के बाद ही लोग रास्ते से भटकने या दूसरे रास्ते पर जाने से बच सकेंगे और इसके बजाय परमेश्वर द्वारा आयोजित और शासित माहौल में जैसा भी जीवन मिले जी सकेंगे। सारांश में, इन सही विचारों और नजरियों को स्वीकार करके और उनके मार्गदर्शन से ही लोग अपने माता-पिता से आने वाले इन बोझों को त्याग सकेंगे, इन बोझों को त्याग सकेंगे और परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित हो पाएँगे। ऐसा करके, व्यक्ति शांति और उल्लास के साथ, अधिक स्वतंत्र और बिना बंधन के जी सकेगा, और निरंतर उग्रता, भावनाओं या जमीर के प्रभावों से चालित नहीं होगा। इतनी चर्चा कर लेने पर, क्या अब तुम्हें माता-पिता की अपेक्षाओं से पैदा होने वाले बोझों की थोड़ी समझ हो गई है? (हाँ।) अब चूँकि तुम्हें थोड़ी सही समझ मिल गई है, क्या तुम्हारी आत्मा थोड़ा ज्यादा सुकून और आजादी महसूस नहीं कर रही है? (हाँ।) जब तुम्हें वास्तविक समझ, वास्तविक स्वीकृति और समर्पण प्राप्त हो जाए, तो तुम्हारी आत्मा मुक्त हो जाएगी। अगर तुम प्रतिरोध और इनकार जारी रखोगे, या इन मामलों को तथ्यों के आधार पर लेने के बजाय, सत्यों से महज सिद्धांत की तरह पेश आते रहोगे, तो तुम्हारे लिए त्यागना मुश्किल होगा। तुम इन मामलों से निपटने में सिर्फ देह के विचारों और भावनाओं के आयोजनों के अनुसार कार्य कर पाओगे; आखिरकार, तुम इन भावनाओं के जाल में जियोगे, जहाँ सिर्फ पीड़ा और दुख है, और कोई भी तुम्हें बचा नहीं पाएगा। इस भावनात्मक जाल में उलझ कर इन मामलों को झेलते समय लोगों के लिए कोई रास्ता नहीं होता। तुम भावनाओं के जाल और बंधनों से सिर्फ सत्य को स्वीकार करके ही मुक्त हो सकते हो, सही है? (हाँ।)
बच्चों की पढ़ाई और करियर विकल्पों को ले कर माता-पिता की विभिन्न अपेक्षाओं और नजरियों के अलावा, शादी को लेकर भी उनकी तरह-तरह की अपेक्षाएँ होती हैं, है कि नहीं? इनमें से कुछ अपेक्षाएँ क्या हैं? कुछ बताओ। (आम तौर पर, माता-पिता अपनी बेटियों से कहेंगे कि उनका होने वाला पति अमीर तो होना ही चाहिए, उसके पास गाड़ी-बंगला होना चाहिए, और इस लायक होना चाहिए कि उसकी देखभाल कर सके। यानी, उनकी बेटी की भौतिक जरूरतें पूरी करने में समर्थ होने के साथ-साथ उसमें जिम्मेदारी की भावना भी होनी चाहिए। जीवनसाथी चुनने के ये मानदंड होते हैं।) कुछ बातें जो माता-पिता कहते हैं वे उनके अपने अनुभवों से आती हैं, और हालाँकि उनके मन में तुम्हारा सर्वोत्तम हित होता है, फिर भी कुछ मसले होते हैं। तुम्हारी शादी के लिए तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं में उनकी अपनी राय और पसंद भी होती है। उनकी अपेक्षा होती है कि उनके बच्चे ऐसा जीवनसाथी चुनें जिसके पास कम-से-कम धन, हैसियत और काबिलियत तो हो ही, वह इतना दुर्जेय हो कि घर से बाहर उन्हें कोई धौंस न दे सके। और अगर दूसरे तुम्हें धौंस दें, तो यह व्यक्ति उनसे मुकाबला कर तुम्हारी रक्षा करे। तुम कह सकती हो, “मुझे परवाह नहीं। मैं वैसी भौतिकतावादी व्यक्ति नहीं हूँ। मुझे बस ऐसा कोई चाहिए जिसे मुझसे प्यार हो और मुझे उससे।” इस बात पर, तुम्हारे माता-पिता कहते हैं, “तुम इतनी बेवकूफ क्यों हो? इतनी भोला क्यों हो? तुम छोटी और अनुभवहीन हो, जिंदगी की मुश्किलें नहीं समझती। क्या तुमने कभी यह कहावत सुनी है, ‘गरीब दंपत्ति के लिए सब-कुछ बुरा होता है’? जीवन में, हर किसी चीज के लिए पैसा चाहिए; क्या तुम्हें लगता है कि बिना पैसों के तुम अच्छा जीवन जी सकोगी? तुम्हें किसी ऐसे को तलाशना होगा जो अमीर और काबिल हो।” तुम जवाब दोगी, “लेकिन अमीर और काबिल लोग भी भरोसेमंद नहीं होते हैं।” तुम्हारे माता-पिता जवाब देते हैं, “भले ही वे भरोसेमंद न हों, फिर भी पहले तुम्हें अपनी बुनियादी जरूरतों को चाक चौबंद करना होगा। तुम्हारे पास खाने-पहनने के लिए सब होगा, तुम्हें खाती-पीती रहोगी, अच्छे कपड़े पहनोगी जिससे सभी लोग ईर्ष्या करें।” तुम जवाब दोगी, “लेकिन मेरी आत्मा खुश नहीं होगी।” इस पर तुम्हारे माता-पिता कहते हैं, “भला आत्मा क्या है? कहाँ है? तुम्हारी आत्मा नाखुश हो भी तो क्या? शरीर को आराम मिले, बस यही मायने रखता है!” कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने जीवन के मौजूदा हालात के आधार पर अकेले ही रहना चाहते हैं। हालाँकि उनकी उम्र हो चुकी है, फिर भी वे शादी करना तो दूर, किसी के साथ घूमना-फिरना भी नहीं चाहते। इससे उनके माता-पिता बेचैन हो जाते हैं, तो वे उनसे शादी करने का आग्रह करते रहते हैं। वे अनजान लोगों से मिलने की व्यवस्था करते हैं और संभावित साथियों से परिचय कराते हैं। वे अपने बच्चों की शादी के लिए जल्द-से-जल्द कोई सुमेल और सम्मानित व्यक्ति तलाशने की हरसंभव कोशिश करते हैं; भले ही वह सुमेल न हो, कम-से-कम उसकी योग्यता अच्छी हो, जैसे कि यूनिवर्सिटी स्नातक, स्नातकोत्तर या पीएचडी या विदेश में पढ़ा हुआ। कुछ लोग अपने माता-पिता का यूँ तंग करना बर्दाश्त नहीं कर सकते। पहले तो वे सोचते हैं कि कितनी अच्छी बात है कि वे एकल हैं, और उन्हें बस अपनी ही देखभाल करनी है। खास तौर से परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, वे हर दिन अपने कर्तव्य निभाने में व्यस्त रहते हैं, और उनके पास इन चीजों के बारे में सोचने का वक्त नहीं होता, इसलिए वे किसी के साथ घूमते-फिरते नहीं और वे आगे चलकर शादी नहीं करेंगे। लेकिन वे अपने माता-पिता की जाँच से बच नहीं सकते। उनके माता-पिता राजी नहीं होते और हमेशा उनसे आग्रह करते और उन पर दबाव डालते रहते हैं। जब भी वे अपने बच्चों को देखते हैं, वे तंग करना शुरू कर देते हैं : “क्या तुम किसी से मिलते-जुलते हो? क्या कोई है जिसे तुम पसंद करते हो? जल्दी से उसे घर ले आओ ताकि हम तुम्हारे लिए उसे जाँच सकें। अगर वह उपयुक्त हो, तो फौरन जाकर शादी कर लो, तुम्हारी उम्र कम नहीं हो रही है! महिलाएँ तीस के बाद शादी नहीं करतीं और पुरुष पैंतीस के बाद जीवन साथी नहीं ढूँढ़ते। तुम क्या करने की कोशिश कर रहे हो, दुनिया उलटने की? अगर तुम शादी नहीं करोगे बुढ़ापे में तुम्हारा ख्याल कौन रखेगा?” माता-पिता हमेशा इसी बात में खुद को व्यस्त रखकर चिंता करते रहते हैं, वे चाहते हैं कि तुम किसी-न-किसी को खोज लो, दबाव बनाते हैं कि कोई साथी ढूँढ़ कर शादी कर लो। और तुम्हारे शादी कर लेने के बाद, तुम्हारे माता-पिता तुम्हें तंग करते रहते हैं : “जल्दी करो, जब तक मेरी बहुत नहीं हुई तब तक बच्चा कर लो। मैं उसका ख्याल रखूँगी।” तुम कहते हो, “मेरे बच्चों का ख्याल रखने के लिए मुझे आपकी जरूरत नहीं है। फिक्र मत कीजिए।” वे जवाब देते हैं, “‘फिक्र मत कीजिए’ का क्या मतलब है? जल्दी से बच्चा कर लो! उसके पैदा होने के बाद तुम्हारे लिए मैं उसकी देखभाल करूंगी। वह थोड़ा बड़ा हो जाए तो तुम ख्याल रख लेना।” अपने बच्चों से माता-पिता की जो भी अपेक्षाएँ होती हैं—उनका रवैया चाहे जो हो या ये अपेक्षाएँ सही हों या न हों—ये हमेशा बच्चों को बोझ जैसे लगते हैं। अगर वे अपने माता-पिता की बात मान लें, तो उन्हें आराम और खुशी नहीं मिलेगी। अगर वे अपने माता-पिता की बात न मानें, तो उनकी अंतरात्मा दोषी महसूस करेगी : “मेरे माता-पिता गलत नहीं हैं। उनकी इतनी उम्र हो गई है, और वे मुझे शादी करते या मेरे बच्चे होते हुए नहीं देख रहे हैं। वे दुखी हैं, इसलिए मुझसे शादी करने और मेरे बच्चे होने का आग्रह करते हैं। यह भी उनकी जिम्मेदारी है।” तो, इस बारे में माता-पिता की अपेक्षाओं से पेश आते हुए लोगों के मन में कहीं गहरे यह भावना होती है कि यह एक बोझ है। वे सुनें या न सुनें, यह गलत लगता है, और किसी भी स्थित में उन्हें लगता है कि अपने माता-पिता की माँगों या आकांक्षाओं का पालन न करना बहुत शर्मनाक और अनैतिक है। यह ऐसा मामला है जो उनके जमीर पर बोझ बन जाता है। कुछ माता-पिता अपने बच्चों के जीवन में दखल भी देते हैं : “जल्दी करो, शादी करके बच्चे कर लो। पहले मुझे एक स्वस्थ पोता दे दो।” इस तरह वे बच्चे के लिंग के मामले में भी दखलंदाजी करते हैं। कुछ माता-पिता यह भी कहते हैं, “अभी तुम्हारी एक बेटी है न, जल्दी से मुझे एक पोता दे दो, मुझे पोता-पोती दोनों चाहिए। तुम दोनों परमेश्वर में विश्वास रखने और पूरा दिन अपने कर्तव्य निर्वहन में व्यस्त हो। तुम अपना काम ढंग से नहीं कर रहे हो; बच्चे होना बड़ी बात है। तुम्हें नहीं पता, ‘तीन संतानोचित दोषों में से कोई वारिस न होना सबसे बुरा है’? क्या तुम्हें लगता है कि सिर्फ एक बेटी होना काफी है? जल्दी करो और मुझे एक पोता भी दे दो! हमारे परिवार में तुम अकेले हो; अगर तुमने पोता नहीं दिया, तो क्या हमारा वंश खत्म नहीं हो जाएगा?” तुम चिंतन करते हो, “सही बात है, अगर मेरे साथ यह वंश खत्म हो गया, तो क्या मैं अपने पूर्वजों को निराश नहीं कर दूँगा?” तो, शादी न करना गलत है, और शादी करने के बाद बच्चे न होना भी गलत है; मगर यह भी काफी नहीं है कि सिर्फ एक बेटी हो, एक बेटा भी जरूर होना चाहिए। कुछ लोगों का पहले बेटा होता है, मगर उनके माता-पिता कहते हैं, “एक काफी नहीं है। अगर कुछ हो गया तो? एक और हो ताकि वे एक-दूसरे का साथ दे सकें।” अपने बच्चों के विषय में माता-पिता का कहा कानून होता है, और वे बेहद अविवेकी हो सकते हैं, वे सबसे टेढ़े तर्क देने में सक्षम होते हैं—उनके बच्चे समझ नहीं पाते कि इनसे कैसे निपटें। माता-पिता दखल देते हैं और अपने बच्चों के जीवन, कार्य, शादी और विभिन्न चीजों के प्रति उनके रवैयों की आलोचना करते हैं। बच्चे बस अपना गुस्सा पी सकते हैं। वे अपने माता-पिता से छिप नहीं सकते, या उन्हें झटक नहीं सकते। वे अपने ही माता-पिता को डाँट नहीं सकते, शिक्षित नहीं कर सकते—तो वे क्या कर सकते हैं? वे उसे सहते हैं, जितना हो सके उनसे उतना कम मिलने की कोशिश करते हैं, और मिलना ही पड़े तो इन मसलों को उठाने से बचते हैं। और अगर ये मामले उठे भी, तो वे उन्हें फौरन काटकर कहीं जाकर छिप जाते हैं। मगर ऐसे भी कुछ लोग हैं जो अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा करने और उन्हें निराश न करने के लिए, अपने माता-पिता की माँगें पूरी करने को राजी हो जाते हैं। हो सकता है तुम डेटिंग, शादी, और बच्चे होने की दिशा में बेमन से आगे बढ़ जाओ। लेकिन एक बच्चा होना काफी नहीं है; तुम्हारे कई बच्चे होने चाहिए। तुम यह अपने माता-पिता की माँगें पूरी करने और उन्हें खुश और प्रफुल्लित करने के लिए करते हो। चाहे तुम अपने माता-पिता की कामनाएँ पूरी कर सको या नहीं, उनकी माँगें किसी भी बच्चे को परेशान करने वाली ही होंगी। तुम्हारे माता-पिता कानून के खिलाफ कुछ नहीं कर रहे हैं, और तुम उनकी आलोचना नहीं कर सकते, इस बारे में किसी दूसरे से बात नहीं कर सकते, या उनसे तर्क-वितर्क नहीं कर सकते। तुम्हारे यूँ सोच-विचार करने से यह मामला तुम्हारे लिए बोझ बन जाता है। तुम्हें हमेशा लगता है कि अगर तुम शादी और बच्चों को लेकर अपने माता-पिता की माँगें पूरी नहीं कर सकते, तो तुम एक साफ जमीर के साथ अपने माता-पिता और पूर्वजों का सामना नहीं कर पाओगे। अगर तुम अपने माता-पिता की माँगें पूरी नहीं करते—यानी तुम किसी के साथ घूमते-फिरते नहीं, शादी नहीं करते, और तुम्हारे बच्चे नहीं हुए हैं, और उनके कहे अनुसार तुमने परिवार का वंश जारी नहीं रखा है—तो तुम अपने भीतर एक दबाव महसूस करोगे। तुम्हें थोड़ा आराम तभी मिलेगा अगर तुम्हारे माता-पिता कहें कि वे इन मामलों में दखल नहीं देंगे, और तुम्हें चीजें जैसी भी हों उन्हें अपनाने की आजादी देंगे। हालाँकि अगर तुम्हारे विस्तारित संबंधियों, दोस्तों, सहपाठियों, सहयोगियों और बाकी सबसे आने वाला सामाजिक फीडबैक तुम्हारी निंदा करने और तुम्हारी पीठ पीछे बातें बनाने का हो, तो यह भी तुम्हारे लिए एक बोझ होगा। जब तुम 25 के हो और अविवाहित हो, तो तुम नहीं सोचते कि इससे कोई फर्क पड़ता है, लेकिन 30 के होने पर, तुम्हें लगने लगता है कि यह उतनी अच्छी बात नहीं है, इसलिए तुम इन रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से बचते हो और यह विषय नहीं उठाते। और अगर 35 की उम्र में भी तुम अविवाहित रहो, तो लोग कहेंगे, “तुमने शादी क्यों नहीं की? क्या तुममें कोई खोट है? तुम अजीब किस्म के इंसान हो, है कि नहीं?” अगर तुम शादीशुदा हो मगर बच्चे नहीं चाहते, तो वे कहेंगे, “शादी करने के बाद तुम्हारे बच्चे क्यों नहीं हैं? दूसरे लोग शादी करते हैं, उनकी एक बेटी और फिर एक बेटा होता है या एक बेटा और फिर एक बेटी होती है। तुम्हें बच्चे क्यों नहीं चाहिए? आखिर माजरा क्या है? क्या तुम्हारे भीतर मानवीय भावनाएँ नहीं हैं? क्या तुम एक सामान्य व्यक्ति हो भी?” ये बातें माता-पिता कहें या समाज, अलग-अलग माहौल और पृष्ठभूमि में ये मसले तुम्हारे लिए बोझ बन जाएँगे। तुम्हें लगता है तुम गलत हो, खास तौर से अपनी इस उम्र में। मिसाल के तौर पर, अगर तुम तीस और पचास के बीच हो, और अभी भी शादी नहीं की है, तो तुम लोगों से मिलने की हिम्मत नहीं करोगे। वे कहते हैं, “उस महिला ने अपनी पूरी जिंदगी शादी नहीं की है, वह एक अधेड़ अविवाहिता है, किसी को वह नहीं चाहिए, कोई उससे शादी नहीं करेगा।” “वह आदमी, उसकी पूरी जिंदगी उसकी कोई पत्नी नहीं रही।” “उन लोगों ने शादी क्यों नहीं की?” “किसे पता, शायद उनके साथ कोई गड़बड़ है।” तुम सोच-विचार करते हो, “मेरे साथ कोई गड़बड़ नहीं है। तो फिर मैंने शादी क्यों नहीं की? मैंने अपने माता-पिता की नहीं सुनी, और मैं उन्हें निराश कर रहा हूँ।” लोग कहते हैं, “वह आदमी शादीशुदा नहीं है, वह लड़की शादीशुदा नहीं है। देखो, उनके माता-पिता अब कितने दयनीय हैं। दूसरे माता-पिता के नाती-पोते हैं, और पड़नाती और पड़पोते भी हैं, मगर ये अभी भी एकल हैं। उनके पूर्वजों ने जरूर कोई भयानक काम किया होगा, है ना? क्या यह परिवार को बिना वंशज के छोड़ देना नहीं है? वंश जारी रखने के लिए उनके कोई वंशज नहीं होंगे। उस परिवार के साथ क्या माजरा है?” तुम्हारा मौजूदा रवैया चाहे जितना जिद्दी हो, अगर तुम एक नश्वर साधारण इंसान हो, और तुम्हें इस बात को समझने के लिए पर्याप्त सत्य प्राप्त न हो, तो देर-सवेर, तुम इससे परेशान और विचलित हो जाओगे। आजकल, समाज में बहुत-से 34-35 वर्षीय लोग हैं जो अविवाहित हैं, और यह कोई बड़ी बात नहीं है। वैसे, 35, 36 या उससे ऊपर बहुत कम लोग ऐसे हैं जो अविवाहित हैं। अविवाहित लोगों की मौजूदा आयु सीमा के आधार पर अगर तुम 35 से कम की हो, तो सोच सकती हो, “शादी न करना सामान्य बात है, इस बारे में कोई बात नहीं करता। अगर मेरे माता-पिता कुछ कहना चाहें, तो कहने दो, मैं नहीं डरती।” लेकिन 35 पार करते ही, लोग तुम्हें अलग नजरों से देखने लगेंगे। वे कहेंगे, तुम एकल हो, कुँवारी हो, या बची हुई औरत हो, और तुम यह बर्दाश्त नहीं कर सकोगी। यह मामला तुम्हारा बोझ बन जाएगा। अगर तुम्हें स्पष्ट समझ नहीं है, या तुम्हें इस मामले के लिए अभ्यास के निश्चित सिद्धांत प्राप्त नहीं हैं, तो देर-सवेर, यह तुम्हारे लिए एक परेशानी बन जाएगा, और एक विशेष समय के दौरान यह तुम्हारे जीवन को बाधित कर देगा। क्या इससे जुड़े कुछ सत्य नहीं हैं जो लोगों को समझने चाहिए? (हाँ।)
शादी और बच्चे करने के संदर्भ में, इन मामलों से आने वाले बोझों को त्यागने के लिए लोगों को कौन-से सत्य समझने चाहिए? सबसे पहले, क्या जीवन साथी का चयन इंसानी इच्छा से होता है? (नहीं।) ऐसा नहीं है कि तुम उठोगे और बस जाकर उस किस्म के इंसान से मिल लोगे जिसे तुम चाहते हो और यकीनन ऐसा भी नहीं है कि परमेश्वर तुम्हारे लिए ठीक वैसा ही व्यक्ति तैयार कर दे जैसा तुम चाहते हो। इसके बजाय परमेश्वर ने पहले ही नियत कर दिया है कि तुम्हारा जीवनसाथी कौन होगा; जो कोई भी तय है, वही जीवन साथी होगा। तुम्हें अपने माता-पिता की जरूरतों या उनके द्वारा रखी गई शर्तों की किसी दखलंदाजी से प्रभावित होने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा, तुम्हारे माता-पिता जैसा दौलतमंद और ऊँची हैसियत वाला जीवन साथी तुम्हें तलाशने के लिए कहते हैं, क्या वह तुम्हारे भविष्य की संपन्नता और हैसियत तय कर सकता है? (नहीं।) नहीं कर सकता। ऐसी बहुत-सी महिलाएँ हैं, जिनकी शादी धनी परिवारों में हुई, मगर जिन्हें बाद में बाहर खदेड़ दिया गया और जो अब इस हालत में हैं कि सड़क पर कचरा बीनती हैं। धन-दौलत और प्रतिष्ठा के लिए निरंतर सामाजिक सीढ़ी चढ़ने का प्रयास करने वाले लोग आखिर अपनी प्रतिष्ठा खोकर बरबाद हो जाते हैं, उनकी हालत साधारण लोगों से भी ज्यादा बदतर होती है। वे प्लास्टिक की बोतलें और अल्युमिनियम के डिब्बे इकट्ठा करने के लिए सस्ती थैली लेकर भटकते हुए अपने दिन गुजारते हैं, और फिर वे उनके बदले कुछ पैसे लेकर आखिर किसी कैफे में बैठकर एक कप कॉफी खरीद लेते हैं ताकि उन्हें लग सके कि अब भी वे एक दौलतमंद इंसान का जीवन जी रहे हैं। कैसी दुख की बात है! शादी व्यक्ति के जीवन की एक अहम घटना होती है। जैसे किसी के माता-पिता कैसे होंगे, यह नियत होता है, वैसे ही शादी तुम्हारे माता-पिता या परिवार की जरूरतों पर आधारित नहीं होती, न ही यह तुम्हारी निजी रुचि या पसंद पर आधारित होती है; यह पूरी तरह से परमेश्वर के विधान के अधीन है। सही समय पर, तुम्हारी मुलाकात सही व्यक्ति से होगी; उपयुक्त समय आने पर तुम्हारे लिए जो व्यक्ति उपयुक्त है वह मिलेगा। अदृश्य, रहस्यमय संसार की ये सभी व्यवस्थाएँ परमेश्वर के नियंत्रण और उसकी संप्रभुता के अधीन हैं। इस मामले में, लोगों के लिए दूसरों की व्यवस्थाएँ मानने, दूसरों से निर्देशित होने, या उनके नियंत्रण में आने या उनसे प्रभावित होने की जरूरत नहीं है। इसलिए शादी की बात पर, तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ चाहे जो हों, और तुम्हारी जो भी योजनाएँ हों, तुम्हें अपने माता-पिता से या फिर अपनी योजनाओं से प्रभावित नहीं होना चाहिए। यह मामला पूरी तरह से परमेश्वर के वचन पर आधारित होना चाहिए। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम किसी जीवन साथी की तलाश कर रहे हो या नहीं—तुम अगर तलाश भी रहे हो, तो यह परमेश्वर के वचन के अनुसार होना चाहिए, न कि तुम्हारे माता-पिता की माँगों या जरूरतों के अनुसार और न ही उनकी अपेक्षाओं के अनुसार। तो शादी की बात पर, तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ तुम्हारा बोझ नहीं बननी चाहिए। जीवनसाथी को तलाशना अपने और अपने जीवनसाथी के शेष जीवन की जिम्मेदारी लेने के बारे में है; यह परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं को समर्पित होने के बारे में है। यह तुम्हारे माता-पिता की माँगें पूरी करने या उनकी अपेक्षाएँ पूरी करने के बारे में नहीं है। तुम किसी जीवनसाथी को तलाशते हो या नहीं और कैसा जीवनसाथी ढूँढ़ते हो, यह तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाओं पर आधारित नहीं होना चाहिए। इस मामले में तुम्हें नियंत्रित करने का अधिकार तुम्हारे माता-पिता के पास नहीं है; परमेश्वर ने शुरू से अंत तक तुम्हारी शादी की व्यवस्था करने का अधिकार उन्हें नहीं दिया है। अगर तुम शादी के लिए एक जीवनसाथी तलाश रहे हो, तो यह परमेश्वर के वचनों के अनुसार किया जाना चाहिए; अगर नहीं तलाशना चाहते हो, तो यह तुम्हारी आजादी है। तुम कहते हो : “मुझे जीवन भर, चाहे मैं अपने कर्तव्य निभा रहा हूँ या नहीं, बस एकल रहना अच्छा लगा है। अपने दम पर जीना आजाद करने वाला होता है—एक पक्षी की तरह, एक ही बार पंख फड़फड़ाकर मैं कहीं भी उड़ सकता हूँ। मुझ पर परिवार का बोझ नहीं है और जहाँ भी जाता हूँ अपने दम पर रहता हूँ। यह अद्भुत है! मैं एकल हूँ, मगर अकेला नहीं। परमेश्वर मेरे साथ है, वह मेरे साथ रहता है; मुझे अक्सर अकेलापन नहीं सताता। कभी-कभी मैं सभी चीजों से पूरी तरह अलग हो जाना चाहता हूँ, जोकि शरीर की जरूरत है। कुछ पल के लिए पूरी तरह कट जाना बुरी बात नहीं है। जब कभी मैं रिक्त या अकेलापन महसूस करता हूँ, मैं परमेश्वर से मन की बात करने के लिए उसके समक्ष आ कर कुछ बातें कर लेता हूँ। मैं उसके वचन पढ़ता हूँ, भजन सीखता हूँ, जीवन अनुभवों के गवाही वीडियो देखता हूँ, और परमेश्वर के घर की फिल्में देखता हूँ। यह बढ़िया होता है और फिर इसके बाद मुझे अकेलापन महसूस नहीं होता। मुझे परवाह नहीं कि बाद में मुझे अकेलापन महसूस होगा या नहीं। किसी भी स्थिति में, मैं अब अकेला नहीं हूँ; मेरे आसपास बहुत-से भाई-बहन हैं जिनसे मैं दिल की बातें कर सकता हूँ। जीवनसाथी तलाशना काफी बखेड़े का काम है। ऐसे सामान्य लोग ज्यादा नहीं हैं जो ईमानदारी से अच्छा जीवन जी सकें, इसलिए मैं ऐसे किसी को तलाशना नहीं चाहता। अगर मुझे कोई मिला, और हम निभा न पाए और हमारा तलाक हो गया, तो इस पूरे झमेले का क्या अर्थ रह जाता? अब इसे पूरी तरह समझ लेने के बाद, मेरे लिए यही ठीक है कि मैं जीवनसाथी न तलाशूँ। अगर शादी करने के लिए किसी को तलाशने का प्रयोजन सिर्फ क्षणिक आनंद और खुशी है, और वैसे भी तुम्हारा तलाक होना ही है, तो यह बस एक झमेला है, और मैं ऐसा झमेला मोल लेना नहीं चाहता। जहाँ तक बच्चे करने की बात है, एक इंसान के नाते वंश चलाना न मेरी जिम्मेदारी है न दायित्व, मैं बस बच्चा पैदा करने का साधन नहीं हूँ। जिसे भी वंश आगे बढ़ाना हो, जरूर बढ़ाए। कोई भी कुलनाम सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं होता।” वंश टूट भी गया तो क्या हो जाएगा? क्या यह सिर्फ देह के कुलनामों का मामला नहीं है? आत्माओं का एक-दूसरे से कोई रिश्ता नहीं होता; उनके बीच कहने जैसी कोई विरासत या निरंतरता नहीं होती। मानवजाति का एक पूर्वज है; सभी लोग उसी पूर्वज के वंशज हैं, इसलिए मानव वंश की समाप्ति का कोई प्रश्न ही नहीं है। वंश चलाना तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है। जीवन में सही पथ पर चलना, स्वतंत्र और आजाद जीवन जीना, और सच्चा सृजित प्राणी बनना ही वे बातें हैं जिनका लोगों को अनुसरण करना चाहिए। मानवजाति को आगे बढ़ाने वाली एक मशीन बनना वह बोझ नहीं है जो तुम्हें ढोना चाहिए। किसी परिवार की खातिर प्रजनन कर वंश को जारी रखना भी तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है। परमेश्वर ने तुम्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी है। जिसे भी संतानें पैदा करनी हों, कर सकता है; जो भी अपना वंश जारी रखना चाहे, रख सकता है; जो भी यह जिम्मेदारी उठाना चाहे, उठा सकता है; इसका तुमसे कोई लेना-देना नहीं है। अगर तुम यह जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं हो, और यह दायित्व पूरा करने की इच्छा नहीं रखते, तो ठीक है, यह तुम्हारा अधिकार है। क्या यह उपयुक्त नहीं है? (हाँ।) अगर तुम्हारे माता-पिता तंग करते रहें, तो तुम उनसे कह सकते हो : “अगर आप नाराज हैं कि मैं आप लोगों के लिए संतान पैदा कर वंश को आगे नहीं बढ़ा रहा हूँ, तो दूसरा बच्चा करने का कोई तरीका ढूँढ़ लें और उससे वंश को आगे बढ़वाएँ। बहरहाल, यह मेरी चिंता का विषय नहीं है; आप जिसे चाहें उसे यह सौंप सकते हैं।” यह कहने के बाद, क्या तुम्हारे माता-पिता निरुत्तर नहीं हो जाएँगे? अपने बच्चों की शादी और उनके बच्चे होने की बात आने पर, माता-पिता चाहे परमेश्वर में विश्वास रखें या न रखें, उन्हें इतना उम्रदराज होकर यह तो मालूम होना चाहिए कि किसी व्यक्ति के जीवन में अमीरी या गरीबी, बच्चों की संख्या और वैवाहिक स्थिति स्वर्ग द्वारा तय किए जाते हैं; ये सब पहले ही निश्चित होते हैं, और ऐसे मामले नहीं हैं जिनका फैसला कोई भी कर सके। इसलिए, अगर माता-पिता इस प्रकार अपने बच्चों से जबरन चीजों की माँग करें, तो बेशक वे अज्ञानी माता-पिता हैं, मूर्ख और बेखबर हैं। मूर्ख और बेखबर माता-पिता से पेश आते हुए उनकी बातों से हवा के झोंके की तरह पेश आओ और उसे एक कान से अंदर लो कर दूसरे से बाहर जाने दो, बस बात खत्म। अगर वे तुम्हें बहुत तंग करें, तो तुम कह सकते हो, “ठीक है, मैं वादा करता हूँ, मैं कल शादी कर लूँगा, और परसों बच्चा और उसके अगले दिन मैं आपकी गोद में पोता दे दूँगा। ठीक है ना?” बस उनके लिए झूठा बहाना बना दो और मुड़ कर दूर चले जाओ। क्या यह इसे संभालने का शांत तरीका नहीं है? किसी भी स्थिति में, तुम्हें इस मामले को अच्छी तरह से समझना होगा। जहाँ तक शादी की बात है, आओ पहले इस तथ्य को किनारे रख दें कि शादी परमेश्वर द्वारा नियत होती है। इस मामले के प्रति परमेश्वर का रवैया लोगों को खुद चुनने का अधिकार देने का है। तुम चुन सकते हो कि तुम्हें एकल रहना है या शादी करनी है; तुम एक दंपत्ति के रूप में जी सकते हो, या एक भरा-पूरा परिवार बना सकते हो। यह तुम्हारी आजादी है। ये चुनने का तुम्हारा आधार चाहे जो हो, या तुम जो भी उद्देश्य या परिणाम पाना चाहते हो, संक्षेप में कहें, तो यह अधिकार तुम्हें परमेश्वर ने दिया है; चुनने का अधिकार तुम्हारे पास है। अगर तुम कहोगे, “मैं अपने कर्तव्य निर्वहन में बहुत व्यस्त हूँ, अभी छोटा हूँ, और शादी नहीं करना चाहता हूँ। मैं एकल रहना चाहता हूँ, पूरा समय परमेश्वर के लिए खुद को खपाना चाहता हूँ, और अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना चाहता हूँ। मैं शादी के बड़े मसले से बाद में निपटूंगा—जब मैं पचास का हो जाऊँगा और मुझे अकेलापन महसूस होगा, जब मेरे पास कहने को काफी कुछ होगा, मगर मेरी बकबक सुनने के लिए कोई नहीं होगा तब मैं किसी को तलाश लूँगा,” यह भी ठीक है, और परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। अगर तुम कहोगे, “मुझे मेरा यौवन हाथ से छूटता प्रतीत हो रहा है, मुझे यौवन की छोर पकड़नी होगी। जब तक मैं जवान हूँ, थोड़ा रूप-रंग और आकर्षण है, तब तक मुझे जल्दी से मेरा साथ देने और मुझसे बात करने के लिए कोई साथी तलाश लेना चाहिए, कोई ऐसा जो मुझे सँजोए और प्यार करे, और जिसके साथ मैं अपने दिन गुजार सकूँ और शादी कर सकूँ,” तो यह भी तुम्हारा अधिकार है। बेशक, एक बात है : अगर तुम शादी करने का फैसला करते हो, तो तुम्हें पहले सावधानी से उन कर्तव्यों पर विचार करना होगा जो तुम फिलहाल कलीसिया में निभा रहे हो, क्या तुम अगुआ हो या कार्यकर्ता, क्या तुम्हें परमेश्वर के घर में पोषण के लिए चुना गया है, क्या तुम महत्वपूर्ण कार्य या कर्तव्य का बीड़ा उठा रहे हो, तुम्हें फिलहाल कौन-से काम दिए गए हैं, और तुम्हारे मौजूदा हालात क्या हैं। अगर तुम शादी करोगे, तो क्या इससे तुम्हारा कर्तव्य निर्वहन प्रभावित होगा? क्या फिर यह सत्य के तुम्हारे अनुसरण को भी प्रभावित करेगा? क्या इससे अगुआ या कार्यकर्ता के रूप में तुम्हारा कार्य प्रभावित होगा? क्या यह तुम्हारी उद्धार-प्राप्ति को प्रभावित करेगा? ये सभी प्रश्न हैं जिन पर तुम्हें विचार करने की जरूरत है। हालाँकि परमेश्वर ने तुम्हें ऐसा अधिकार दिया है, पर इस अधिकार का प्रयोग करते समय तुम्हें सावधानी से विचार करना होगा कि तुम क्या चुनने वाले हो, और इस चयन के क्या नतीजे हो सकते हैं। नतीजे चाहे जो भी हों, तुम्हें दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए, न ही परमेश्वर को। तुम्हें अपने चयन के नतीजों की जिम्मेदारी खुद उठानी चाहिए। कुछ लोग कहते हैं : “न सिर्फ मैं शादी करूँगा, बल्कि मैं ढेर सारे बच्चे भी चाहता हूँ। एक बेटा होने के बाद मुझे एक बेटी भी चाहिए, और फिर हम जीवन भर एक सुखी परिवार की तरह रहेंगे, उल्लास और सद्भाव के साथ एक-दूसरे के साथ रहेंगे। जब मैं बूढ़ा हो जाऊँगा, तो मेरे बच्चे मेरी देखभाल करने के लिए मेरे चारों ओर इकट्ठा होंगे, और मैं पारिवारिक जीवन का आनंद उठाऊँगा। यह कितना अद्भुत होगा! जहाँ तक मेरे कर्तव्य निभाने, सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने की बात है, ये सब बाद की बातें हैं। मुझे फिलहाल इन चीजों की फिक्र नहीं है। सबसे पहले मैं बच्चे करने का मामला निपटाऊँगा।” यह भी तुम्हारा अधिकार है। हालाँकि अंत में तुम्हारे चयन के जो भी नतीजे हों, कड़वे हों या मीठे, खट्टे या कसैले, तुम्हें ये खुद ही सहने चाहिए। तुम्हारे चयनों की कीमत कोई नहीं चुकाएगा और न ही उनकी जिम्मेदारी लेगा, परमेश्वर भी नहीं। समझ गए? (हाँ।) ये बातें स्पष्ट रूप से समझा दी गई हैं। शादी के मामले में, तुम्हें उन बोझों को त्याग देना चाहिए जिन्हें त्यागने की तुमसे अपेक्षा की जाती है। एकल रहना चुनना तुम्हारी आजादी है, शादी चुनना भी तुम्हारी आजादी है, और बहुत-से बच्चे करना भी तुम्हारी ही आजादी है। तुम्हारा चयन चाहे जो हो, यह तुम्हारी आजादी है। एक ओर, शादी को चुनने का यह मतलब नहीं है कि तुमने इस तरह अपने माता-पिता की दयालुता का कर्ज चुका दिया है या अपना संतानोचित कर्तव्य निभा दिया है; बेशक एकल रहना चुनने का यह अर्थ भी नहीं है कि तुम अपने माता-पिता की अवज्ञा कर रहे हो। दूसरी ओर, शादी करने या कई बच्चे होने को चुनना परमेश्वर के प्रति विद्रोह करना नहीं है। इसके लिए तुम्हारी निंदा नहीं की जाएगी। न ही एकल रहने के चुनाव के कारण अंततः परमेश्वर तुम्हें उद्धार दे देगा। संक्षेप में कहें, तो चाहे तुम एकल हो या शादीशुदा, या तुम्हारे कई बच्चे हों, परमेश्वर इन घटकों के आधार पर यह निर्धारित नहीं करेगा कि आखिरकार तुम बचाए जाओगे या नहीं। परमेश्वर तुम्हारी वैवाहिक पृष्ठभूमि या वैवाहिक स्थिति पर ध्यान नहीं देता; वह सिर्फ इस बात पर गौर करता है कि क्या तुम सत्य का अनुसरण करते हो, अपने कर्तव्य निभाने के प्रति तुम्हारा रवैया क्या है, तुमने कितना सत्य स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण किया है, और क्या तुम सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हो। आखिरकार, परमेश्वर भी यह निर्धारित करने के लिए कि तुम बचाए जाओगे या नहीं, तुम्हारे जीवन पथ, तुम्हारे जीने के सिद्धांतों और तुम्हारे द्वारा चुने गए जीवित रहने के नियमों की जाँच करने के लिए तुम्हारी वैवाहिक स्थिति को किनारे रख देगा। बेशक, हमें एक तथ्य का जिक्र जरूर करना चाहिए। जिन्होंने शादी नहीं की है या शादी छोड़ दी है, उन्हीं की तरह एकल या तलाकशुदा लोगों के हित में एक बात है, और वह यह है कि विवाह-तंत्र में किसी व्यक्ति या चीज के प्रति उन्हें जिम्मेदार होने की जरूरत नहीं है। उन्हें इन जिम्मेदारियों और दायित्वों का बोझ उठाने की जरूरत नहीं है, इसलिए वे अपेक्षाकृत ज्यादा स्वतंत्र होते हैं। समय के मामले में उन्हें ज्यादा आजादी होती है, उनमें अधिक जोश होता है, और कुछ हद तक ज्यादा व्यक्तिगत स्वतंत्रता होती है। मिसाल के तौर पर, बतौर एक वयस्क, जब तुम अपने कर्तव्य निभाने बाहर जाते हो, तो कोई तुम्हें प्रतिबंधित नहीं कर सकता—तुम्हारे माता-पिता को भी यह अधिकार नहीं है। तुम खुद परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, वह तुम्हारे लिए व्यवस्थाएँ करेगा, और तुम अपना सामान बाँध कर जा सकोगे। लेकिन अगर तुम शादीशुदा हो और तुम्हारा एक परिवार है, तो तुम उतने आजाद नहीं होगे। तुम्हें उनके प्रति जिम्मेदार होना होगा। सबसे पहले, जीवन स्थितियों और रूपये-पैसों के मामले में, तुम्हें कम-से-कम उन्हें खाना-कपड़ा मुहैया करना होगा, और जब तुम्हारे बच्चे छोटे हों, तो तुम्हें उन्हें स्कूल लाना-ले जाना होगा। तुम्हें ये जिम्मेदारियाँ संभालनी होंगी। इन स्थितियों में, विवाहित लोग आजाद नहीं होते हैं, क्योंकि उन्हें सामाजिक और पारिवारिक दायित्व पूरे करने होते हैं। जो अविवाहित हैं और जिनके कोई बच्चे नहीं हैं, उनके लिए यह अधिक सरल होता है। परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते समय वे भूखे नहीं रहेंगे या उन्हें ठंड नहीं लगेगी; उनके पास खाना और आसरा दोनों होंगे। उन्हें पारिवारिक जीवन की जरूरतों की खातिर काम करने और पैसे कमाने के लिए भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती। यही अंतर है। अंत में, जब शादी का मामला आता है, तो बात वही रहती है : तुम्हें कोई बोझ नहीं उठाने चाहिए। चाहे तुम्हारे माता-पिता की अपेक्षाएँ हों, समाज के पारंपरिक नजरिये हों, या तुम्हारी अपनी अंधाधुंध आकांक्षाएँ, तुम्हें कोई बोझ नहीं उठाने चाहिए। चाहे एकल रहना चुनो या शादी करना, यह तुम्हारा अधिकार है, और यह फैसला करने का अधिकार भी तुम्हारा ही है कि कब एकल स्थिति को छोड़ना है और कब शादी करनी है। इस मामले में परमेश्वर कोई निर्णायक फैसला नहीं लेता। शादी करने के बाद तुम्हारे कितने बच्चे होंगे, यह परमेश्वर द्वारा पूर्व-नियत है, लेकिन अपने असली हालात और अनुसरणों के आधार पर तुम खुद भी चुन सकते हो। परमेश्वर तुम पर नियम नहीं थोपेगा। मान लो कि तुम एक करोड़पति, अरबपति या खरबपति हो, और कहते हो, “आठ-दस बच्चे होना मेरे लिए कोई समस्या नहीं है। ढेर सारे बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करने से अपने कर्तव्य निर्वहन के प्रति मेरे जोश के साथ कोई समझौता नहीं होगा।” अगर तुम झंझटों-झमेलों से नहीं डरते, तो आगे बढ़ो, बच्चे कर लो; परमेश्वर तुम्हारी निंदा नहीं करेगा। शादी पर तुम्हारे रवैयों के कारण परमेश्वर तुम्हारे उद्धार के प्रति अपना रवैया नहीं बदलेगा। बात ऐसी ही है। समझ आया? (हाँ।) एक और पहलू यह है कि अगर तुम अभी एकल रहना चाहते हो, तो सिर्फ एकल होने की वजह से तुम्हें यह कहकर श्रेष्ठता की भावना नहीं दिखानी चाहिए : “मैं एकल अभिजात वर्ग का सदस्य हूँ और परमेश्वर की मौजूदगी में उद्धार के लिए मेरे पास आगे रहने का अधिकार है।” परमेश्वर ने तुम्हें यह विशेषाधिकार नहीं दिया है, समझे? तुम कह सकते हो, “मैं शादीशुदा हूँ। क्या इस कारण से मैं हीन हूँ?” तुम हीन नहीं हो। तुम अभी भी भ्रष्ट मानवजाति के सदस्य हो; शादी कर लेने के कारण तुम्हें अवमानित या कुचला नहीं गया है, न ही तुम ज्यादा भ्रष्ट हो गए हो, न तुम्हें बचाया जाना अधिक मुश्किल हो गया है, न ही तुम परमेश्वर के हृदय को ज्यादा दुख पहुँचाते हो, जिससे परमेश्वर तुम्हें नहीं बचाना चाहता। ये सब लोगों के गलत विचार और नजरिये हैं। किसी व्यक्ति की वैवाहिक स्थिति का उनके प्रति परमेश्वर के रवैये से कोई लेना-देना नहीं है, न ही इस बात से कोई लेना-देना है कि आखिरकार वे बचाए जाएँगे या नहीं। तो फिर उद्धार प्राप्ति का संबंध किससे है? (यह सत्य को स्वीकार करने के प्रति किसी व्यक्ति के रवैये पर आधारित है।) यह सही है, यह किसी व्यक्ति के सत्य से पेश आने और सत्य को स्वीकार करने के रवैये और इस बात पर आधारित है कि क्या वे लोगों और चीजों को देखने और आचरण व कार्य करने के आधार के रूप में परमेश्वर के वचनों का और कसौटी के रूप में सत्य का प्रयोग कर पाते हैं। यह किसी व्यक्ति के अंतिम परिणाम को मापने का आधार है। अब चूँकि हम अपनी संगति में इस मुकाम पर पहुँच चुके हैं, क्या तुम शादी के इस मसले द्वारा उपजे बोझ को बुनियादी तौर पर त्याग पाओगे? (बिल्कुल।) उनको त्यागने में समर्थ होने से तुम्हारे सत्य के अनुसरण को लाभ मिलेगा। अगर तुम इसे नहीं मानते, तो तुम शादीशुदा लोगों से पूछ सकते हो कि उद्धार प्राप्त करने की उनकी उम्मीद कैसी है, और वे कहेंगे, “मैं इतने बरसों विवाहित रहा और फिर परमेश्वर में मेरे विश्वास के कारण मेरा तलाक हो गया। मुझमें यह कहने की हिम्मत नहीं कि मैं बचाया जाऊँगा।” तुम तीस की उम्र से थोड़े बड़े युवाओं से भी पूछ सकते हो, जिन्होंने शादी नहीं की, लेकिन विश्वास रखने के कई वर्षों में भी उन्होंने सत्य का अनुसरण नहीं किया और वे गैर-विश्वासियों जैसे ही हैं। तुम उनसे पूछ सकते हो, “परमेश्वर में इस तरह विश्वास रखकर क्या तुम बचाए जा सकोगे?” वे भी यह कहने की हिम्मत नहीं कर सकेंगे कि वे बचाए जा सकेंगे। क्या बात ऐसी नहीं है? (बिल्कुल।)
ये वे सत्य हैं जो शादी के बारे में लोगों को समझने चाहिए। हमने जिन भी विषयों पर संगति की है उन्हें सिर्फ कुछ शब्दों में स्पष्ट समझाया नहीं जा सकता है। बहुत-से विभिन्न तथ्य हैं, और साथ ही तमाम तरह के लोगों के हालात हैं जिनका विश्लेषण किया जाना चाहिए। इन विभिन्न हालात के आधार पर जो सत्य लोगों को समझने चाहिए उन्हें सिर्फ कुछ शब्दों में स्पष्ट रूप से नहीं समझाया जा सकता। हर समस्या के लिए कुछ सत्य हैं जिन्हें लोगों को समझना चाहिए, और साथ ही तथ्यात्मक वास्तविकताएँ हैं, जो लोगों को समझनी चाहिए, और इससे भी अधिक लोगों के मन में बसे वे भ्रामक विचार और नजरिये हैं जिन्हें समझना भी जरूरी है। बेशक, ये भ्रामक विचार और नजरिये ही वे चीजें हैं जिन्हें लोगों को त्याग देना चाहिए। जब तुम इन चीजों को त्याग देते हो, तो किसी मामले पर तुम्हारे विचार और नजरिये अपेक्षाकृत सकारात्मक और सही होंगे। फिर, जब ऐसे मामले से तुम्हारा दोबारा सामना होगा, तब तुम उससे बेबस नहीं होगे; तुम कुछ भ्रामक और बेतुके विचारों और नजरियों से बेबस और प्रभावित नहीं होगे। तुम इससे सीमित या विचलित नहीं होगे; इसके बजाय, तुम इस मामले का उचित ढंग से सामना कर सकोगे, और दूसरों या खुद का तुम्हारा आकलन अपेक्षाकृत सही होगा। यह वह सकारात्मक परिणाम है जो लोगों में तब समाविष्ट हो सकता है जब वे परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार लोगों और चीजों को देखते और आचरण व कार्य करते हैं। ठीक है, चलो आज हम अपनी संगति यहीं समाप्त करते हैं। फिर मिलेंगे!
1 अप्रैल 2023
फुटनोट :
क. मूल पाठ में “तुम स्वयं को भी नियंत्रित नहीं कर सकते” लिखा है।