सत्य का अनुसरण कैसे करें (2)
हमारी पिछली सभाओं में, हमने एक बृहत् विषय पर संगति की : सत्य का अनुसरण कैसे करें। सत्य का अनुसरण कैसे करें—हमने इस मसले पर संगति कैसे की? (परमेश्वर ने दो पहलुओं पर संगति की : पहला था “त्याग देना,” और दूसरा “समर्पण करना।” त्याग देने के संदर्भ में, परमेश्वर ने मनुष्य में मौजूद नकारात्मक भावनाओं के बारे में बात की। खास तौर पर, परमेश्वर ने हीनभावना, क्रोध और घृणा की नकारात्मक भावनाओं के हमारे कर्तव्य पर होने वाले विशिष्ट प्रभावों और परिणामों पर संगति की। परमेश्वर की संगति ने हमें सत्य का अनुसरण करने के तरीके की एक अलग समझ दी। हमने देखा कि किस तरह से हम अक्सर उन नकारात्मक भावनाओं की अनदेखी करते हैं जिन्हें हम प्रतिदिन प्रकट करते हैं, और आमतौर पर हम अपनी नकारात्मक भावनाओं को पहचानते और समझते नहीं हैं। हम एकतरफा फैसला कर लेते हैं कि हम बस इसी किस्म के व्यक्ति हैं। हम इन नकारात्मक भावनाओं के साथ अपना कर्तव्य निभाते हैं और उस कर्तव्य के नतीजों पर इसका सीधा असर होता है। यह इस बात पर भी प्रभाव डालता है कि हम लोगों और चीजों को किस दृष्टि से देखते हैं और अपने जीवन की समस्याओं से कैसे पेश आते हैं। यह हमारे लिए सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलना अत्यंत कठिन बना देता है।) हमारी पिछली सभा में, मैंने सत्य का अनुसरण कैसे करें, इस विषय पर संगति की थी। अभ्यास की बात करें, तो दो मुख्य मार्ग हैं—त्याग देने का, और समर्पण करने का। पिछली बार, हमने प्रथम मार्ग के प्रथम पहलू “त्याग देने” से संबद्ध मुख्य मसलों का सार प्रस्तुत किया था—यानी किसी व्यक्ति को विविध प्रकार की भावनाओं को त्याग देना चाहिए। ये मुख्य रूप से नकारात्मक भावनाएँ होती हैं—जोकि असामान्य, तर्कहीन हैं, और जमीर और विवेक के अनुरूप नहीं हैं। हमारी संगति इनमें से हीनभावना, क्रोध और घृणा की नकारात्मक भावनाओं, और साथ ही इन नकारात्मक भावनाओं में रहने से उत्पन्न कुछ व्यवहारों, कुछ विशेष परिस्थितियों या विकासात्मक पृष्ठभूमि के कारण पैदा हुई विविध नकारात्मक भावनाओं, और एक असामान्य चरित्र द्वारा दिखाई गई नकारात्मक भावनाओं पर केंद्रित थी। इन नकारात्मक भावनाओं को क्यों त्याग देना चाहिए? इसलिए कि वस्तुनिष्ठ रूप से ये भावनाएँ लोगों में नकारात्मक मनोदशाएँ और दृष्टिकोण पैदा करती हैं, जिससे लोगों, घटनाओं और चीजों से सामना होने पर उनका रवैया प्रभावित होता है। तो अभ्यास की इस विधि के प्रथम आयाम—त्याग देने—में आवश्यक है कि लोग हर प्रकार की नकारात्मक भावनाओं को जाने दें। पिछली बार हमने इन नकारात्मक भावनाओं पर कुछ संगति साझा की थी। लेकिन हीनभावना, क्रोध और घृणा की जिन भावनाओं पर हमने संगति की, उनके अलावा भी निस्संदेह ऐसी विविध भावनाएँ हैं जो सामान्य मानवता के दृष्टिकोणों को प्रभावित कर सकती हैं। ये सामान्य मानवता के जमीर, विवेक, सोच और फैसले में दखल दे सकती हैं और मनुष्य के सत्य के अनुसरण के नतीजों को प्रभावित कर सकती हैं। इसका अर्थ यह है कि सत्य के अनुसरण में मनुष्य को सबसे पहले इन नकारात्मक भावनाओं को त्याग देना चाहिए। आज हम इसी विषय—विविध नकारात्मक भावनाओं को कैसे जाने दें—पर संगति जारी रखेंगे। सबसे पहले हम नकारात्मक भावनाओं की विभिन्न अभिव्यक्तियों पर संगति करेंगे, और इन अभिव्यक्तियों पर मेरी संगति के जरिये मनुष्य नकारात्मक भावनाओं का ज्ञान अर्जित कर सकेगा, स्वयं से उसकी तुलना कर सकेगा, और अपने रोजमर्रा के जीवन में एक-एक कर इन्हें दूर कर सकेगा। सत्य को खोज कर और समझ कर, नकारात्मक विचारों, राय, और साथ ही नकारात्मक भावनाओं द्वारा लोगों में पैदा होने वाले असामान्य नजरियों और रवैयों को जान कर और विश्लेषित कर, वह इन नकारात्मक भावनाओं को दूर करना शुरू कर सकता है।
पिछली बार हमने “हताशा” की नकारात्मक भावना के बारे में चर्चा की थी। सबसे पहले, क्या अधिकतर लोग हताशा की इस भावना से ग्रस्त होते हैं? क्या तुम लोगों को इसका भान हो पाता है कि हताशा किस किस्म की भावना और कैसी मनःस्थिति है, और किन रूपों में अभिव्यक्त होती है? (हाँ।) इसे समझना आसान है। हम “हताशा” के बारे में बहुत विस्तार से बात नहीं करेंगे, बस परमेश्वर में विश्वास रखने वाले और उसका अनुसरण करने वाले लोगों में हताशा की भावना की अभिव्यक्तियों का ही वर्णन करेंगे। “हताशा” का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है निराश महसूस करना, अच्छा महसूस न करना, अपने किसी भी काम में रुचि न ले पाना, उदासीन होना, अभिप्रेरित न होना, अपने कामों में नकारात्मक और निष्क्रिय रवैया रखना, और कुछ कर दिखाने की ठानने का संकल्प न होना। तो, इन अभिव्यक्तियों का मूल कारण क्या है? यही वह मुख्य समस्या है, जिसका विश्लेषण होना चाहिए। जब एक बार तुम हताशा की विविध अभिव्यक्तियों, साथ ही इन नकारात्मक भावनाओं से पैदा हुई काम करने से जुड़ी विभिन्न मनःस्थितियों, विचारों और रवैयों को समझ लेते हो, तब तुम समझ लोगे कि इन नकारात्मक भावनाओं के पीछे कौन-से कारण हैं, यानी इन नकारात्मक भावनाओं के मूल में क्या हैं, जिनसे लोगों में ये पैदा होती हैं। लोग आखिर हताश क्यों होते हैं? वे कुछ करने के लिए अभिप्रेरित क्यों नहीं होते? वे काम करते समय हमेशा क्यों इतने नकारात्मक, निष्क्रिय और दृढ़ संकल्पहीन होते हैं? साफ तौर पर इसका एक कारण है। उदाहरण के लिए, तुम किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हो जो काम करते समय हमेशा हताश और निष्क्रिय होता है, शक्ति नहीं जुटा पाता, उसकी भावनाएँ और रवैया कुछ ज्यादा सकारात्मक या आशावादी नहीं होते, और वह हमेशा बेहद नकारात्मक, दोषारोपण करने वाला और हताश रवैया दर्शाता है। तुम उसे सलाह देते हो, मगर वह कभी नहीं सुनता, हालाँकि वह मानता है कि तुम्हारा बताया रास्ता सही है और तुम्हारे तर्क बढ़िया हैं, फिर भी काम करते समय वह बिल्कुल शक्ति नहीं जुटा पाता और अभी भी नकारात्मक और निष्क्रिय रहता है। गंभीर मामलों में, उस व्यक्ति की चाल-ढाल, कद-काठी, उसके चलने के तरीके, बोलने के लहजे और शब्दों से तुम समझ सकते हो कि उसकी भावनाओं पर उदासी छाई हुई है, अपने हर काम में वह शक्तिहीन है, निचोड़े हुए फल जैसा है, और जो भी उसके साथ बहुत ज्यादा समय बिताता है उस पर भी उसका असर हो जाएगा। यह सब क्या है? हताशा में जीने वाले लोगों के विविध व्यवहार, चेहरे के हाव-भाव, बोलने के लहजे और उनके द्वारा व्यक्त विचारों और दृष्टिकोणों में नकारात्मक गुण होते हैं। तो इन नकारात्मक घटनाओं का कारण क्या है? इसकी जड़ कहाँ है? निस्संदेह प्रत्येक व्यक्ति के लिए हताशा की नकारात्मक भावना पैदा होने का मूल कारण अलग होता है। किसी एक प्रकार के व्यक्ति में इस बात से हताशा की भावना आ सकती है कि वह अपनी भयावह नियति के ख्याल से निरंतर घिरा रहता है। क्या यह एक कारण नहीं है? (अवश्य है।) ऐसे लोगों का बचपन गाँव-कस्बे या किसी गरीब इलाके में गुजरा था, उनका परिवार समृद्ध नहीं था, कुछ जरूरी चीजों के अलावा उनके परिवार के पास कीमती चीजें नहीं थीं। शायद उनके पास पहनने के लिए एक-दो जोड़ी फटे-पुराने कपड़े थे, आमतौर पर वे कभी भी अच्छा भोजन नहीं खा पाते थे, और उन्हें माँस-मच्छी खाने के लिए नए साल या छुट्टियों की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। कभी-कभी वे भूखे रह जाते थे, उनके पास शरीर को गर्म रखने के लिए पर्याप्त कपड़े भी नहीं थे, कटोरा भर माँस-मच्छी खाना उनके लिए बस एक सपना था और खाने को एक टुकड़ा फल पाना भी मुश्किल था। ऐसे माहौल में रहते हुए वे बड़े शहरों में रहने वाले उन दूसरे लोगों से अलग महसूस करते, जिनके माता-पिता समृद्ध थे, जो अपने मन का खा और पहन सकते थे, जिनकी पसंद की हर चीज उन्हें फौरन मिल जाती थी और जिन्हें चीजों का अच्छा ज्ञान था। वे सोचते, “ये लोग बहुत भाग्यशाली हैं। मेरा भाग्य इतना खराब क्यों है?” वे हमेशा भीड़ में अलग दिखना चाहते हैं, अपनी नियति बदलना चाहते हैं। मगर किसी के लिए अपनी नियति बदलना इतना आसान नहीं होता। जब कोई ऐसी स्थिति में पैदा होता है, तो कोशिश करके भी वह अपने भाग्य को कितना बदल सकता है, उसे कितना बेहतर बना सकता है? वयस्क होने के बाद ऐसे लोग समाज में जहाँ भी जाते हैं, बाधाएँ उन्हें रोक देती हैं, हर कहीं उन्हें डराया-धमकाया जाता है, ऐसे में वे हमेशा बड़ा अभागा महसूस करते हैं। उन्हें लगता है, “मैं इतना अभागा क्यों हूँ? मेरी मुलाकात हमेशा कमीनों से क्यों होती है? बचपन में मेरा जीवन मुश्किलों में गुजरा, बस ऐसा ही था। अब मेरे बड़े हो जाने पर भी इतना ही बुरा हाल है। मैं हमेशा दिखाना चाहता हूँ कि मैं क्या कर सकता हूँ, मगर मुझे कभी मौका नहीं मिलता। मुझे मौका न मिले, तो न मिले। मैं बस कड़ी मेहनत कर अच्छी जिंदगी जीने के लिए काफी पैसा कमाना चाहता हूँ। मैं इतना भी क्यों नहीं कर सकता? अच्छी जिंदगी जीना इतना मुश्किल कैसे हो सकता है? मुझे बाकी सबसे बेहतर जिंदगी जीने की जरूरत नहीं। मैं कम-से-कम एक शहरी की जिंदगी जीना चाहता हूँ, ऐसी कि लोग मुझे हेय दृष्टि से न देखें, मैं दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक न रहूँ। कम-से-कम जब लोग मुझे पुकारें, तो यूँ न चिल्लाएँ, ‘ए सुन, इधर आ!’ कम-से-कम वे मुझे मेरे नाम से पुकारें, आदर से संबोधित करें। लेकिन मुझे आदर से संबोधित किए जाने का आनंद भी नहीं मिलता। मेरा भाग्य इतना क्रूर क्यों है? यह कब खत्म होगा?” जब ऐसे व्यक्ति को परमेश्वर में विश्वास नहीं था, तो वह भाग्य को क्रूर मानता था। मगर परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद और यह देखकर कि यही सच्चा मार्ग है, उसने सोचा, “पहले का वह सारा कष्ट इस लायक था। यह परमेश्वर द्वारा आयोजित और किया गया था, और उसने यह अच्छे से किया। यदि मैंने उस तरह कष्ट नहीं सहा होता, तो परमेश्वर में विश्वास नहीं रखा होता। अब चूँकि मैं परमेश्वर में विश्वास रखता हूँ, तो यदि मैं सत्य को स्वीकार कर सकूँ, तो मेरी नियति बदल कर बेहतर होनी चाहिए। मैं अब कलीसिया में भाई-बहनों के साथ बराबरी का जीवन जी सकता हूँ, लोग मुझे ‘भाई’ या ‘बहन’ कहकर पुकारते हैं, और मुझसे आदरपूर्वक बात करते हैं। मैं अब दूसरों से सम्मान पाने की भावना का आनंद लेता हूँ।” ऐसा लगता है मानो उसकी नियति बदल गई है, वह कष्ट नहीं सह रहा है, और अब वह अभागा नहीं रहा। एक बार परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, ऐसे लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाने की ठान लेते हैं, वे कठिनाइयाँ झेलने और कड़ी मेहनत करने लायक हो जाते हैं, हर मामले में किसी भी दूसरे से ज्यादा सहने में समर्थ हो जाते हैं, और वे ज्यादातर लोगों की स्वीकृति और आदर पाने का प्रयत्न करते हैं। उन्हें लगता है कि शायद उन्हें कलीसिया अगुआ, कोई प्रभारी या टीम अगुआ भी चुना जा सकता है, और तब क्या वे अपने पूर्वजों और अपने परिवार का सम्मान नहीं बढ़ाएंगे? तब क्या उन्होंने अपनी नियति नहीं बदल ली होगी? मगर वास्तविकता उनकी कामनाओं पर खरी नहीं उतरती और वे मायूस होकर सोचते हैं, “मैंने वर्षों से परमेश्वर में विश्वास रखा है, और अपने भाई-बहनों से मेरे अच्छे संबंध हैं, लेकिन ऐसा क्यों है कि जब कभी अगुआ, प्रभारी या टीम अगुआ चुनने का समय आता है, मेरी बारी कभी नहीं आती? क्या इसलिए कि मैं दिखने में बहुत साधारण हूँ, या मेरा कामकाज बढ़िया नहीं रहा, और मुझ पर किसी का ध्यान नहीं गया? हर बार चुनाव होने पर मुझे थोड़ी-सी आशा होती है, और मैं एक टीम अगुआ भी चुन लिया जाऊँ तो मुझे खुशी होगी। मुझमें परमेश्वर का प्रतिदान करने का बड़ा जोश है, मगर हर बार चुनाव के समय चुने न जाने के कारण मैं निराश हो जाता हूँ। इसका कारण क्या है? क्या इसलिए कि मैं जीवन भर सच में सिर्फ एक औसत, साधारण और मामूली व्यक्ति ही बना रहूँगा? जब मैं पीछे मुड़कर अपने बचपन, अपने यौवन और अपनी अधेड़ उम्र को देखता हूँ, तो जिस मार्ग पर मैं चला हूँ, वह हमेशा बेहद मामूली रहा है और मैंने कुछ भी उल्लेखनीय नहीं किया है। ऐसी बात नहीं है कि मेरी कोई महत्वाकांक्षा नहीं है या मेरी क्षमता बहुत कम है, ऐसा भी नहीं है कि मैं पर्याप्त प्रयास नहीं करता या कठिनाइयाँ नहीं झेल सकता। मेरे संकल्प हैं, मेरे लक्ष्य हैं, और कह सकते हैं कि मैं महत्वाकांक्षी भी हूँ। तो फिर ऐसा क्यों है कि मैं कभी भी भीड़ में सबसे अलग नहीं दिख सकता? अंतिम विश्लेषण यही है कि मेरा ही भाग्य खराब है, दुख सहना मेरी नियति है, और परमेश्वर ने मेरे लिए ऐसी ही व्यवस्था की है।” वे इस बारे में जितना सोचते हैं, उन्हें लगता है कि उनका भाग्य उतना ही खराब है। अपने कर्तव्यों के दौरान, यदि वे कुछ सुझाव देते हैं, कुछ विचार व्यक्त करते हैं, और हमेशा उन्हें उसका खंडन मिलता है, कोई उनकी बात नहीं सुनता या उन्हें गंभीरता से नहीं लेता, तो वे और अधिक हताश हो जाते हैं और सोचते हैं, “हाय, मेरा भाग्य बहुत खराब है! मैं जिस भी समूह में होता हूँ, वहाँ हमेशा मुझे आगे बढ़ने से रोकनेवाला, मुझे दबाने वाला कोई अधम व्यक्ति होता है। कोई भी मुझे गंभीरता से नहीं लेता, मैं कभी भी सबसे अलग नहीं दिख सकता। कुल मिलाकर बात बस यही है : मेरी तो किस्मत ही खराब है!” उनके साथ जो भी होता है, उसे वे हमेशा अपनी खराब किस्मत से जोड़ देते हैं; अपनी खराब किस्मत के विचार पर वे निरंतर प्रयास करते हैं, इसकी और गहरी समझ और गुण-दोष विवेचना पाने की कोशिश करते हैं, और जब वे इस बारे में और चिंतन करते हैं, तो अधिक हताशा में डूब जाते हैं। अपने कर्तव्य में कोई मामूली-सी गलती करने पर वे सोचते हैं, “ओह, मेरी किस्मत इतनी बुरी है, तो मैं अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से कैसे निभा सकता हूँ?” सभाओं में भाई-बहन संगति करते हैं, तो वे बार-बार सोचकर भी उनकी बातें नहीं समझ पाते और सोचते हैं, “ओह, ऐसी फूटी किस्मत हो, तो मैं भला ये बातें कैसे समझ सकता हूँ?” जब कभी वे ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो उनसे बेहतर बोलता है, जो अपनी समझ के बारे में उनसे अधिक स्पष्ट और प्रकाशमान ढंग से चर्चा करता है, तो वे और अधिक हताश हो जाते हैं। जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को देखते हैं जो कठिनाइयाँ सह सकता है, कीमत चुका सकता है, जिसे अपने कर्तव्य-निर्वहन में परिणाम मिलता है, जिसे भाई-बहनों की स्वीकृति मिलती है, और जो पदोन्नत होता है, तो वे दिल से दुखी हो जाते हैं। जब वे किसी को अगुआ या कार्यकर्ता बनते देखते हैं, तो हताशा में और अधिक डूब जाते हैं, और जब वे किसी व्यक्ति को खुद से बेहतर नाचते-गाते देखते हैं, तो उसकी अपेक्षा स्वयं को हीन महसूस करते हैं और हताश हो जाते हैं। किसी भी तरह के लोगों, घटनाओं और चीजों से उनका सामना हो, या उनके सामने कैसी भी स्थितियाँ आएँ, वे हमेशा हताशा की इस भावना के साथ प्रतिक्रिया देते हैं। वे जब किसी को अपने से अच्छे कपड़े पहने या बेहतर बाल बनाए देखते हैं, तो हमेशा उदास हो जाते हैं, और उनके दिलों में ईर्ष्या और जलन पैदा हो जाती है, जब तक कि वे हताशा की उस भावना में लौट नहीं जाते। वे इनके क्या कारण बताते हैं? वे सोचते हैं, “हाय, क्या यह इसलिए नहीं कि मेरी किस्मत खराब है? यदि मेरा रंग-रूप थोड़ा अच्छा होता, यदि मैं उन जैसा प्रतिष्ठित होता, यदि मैं लंबा और अच्छी कद-काठी का होता, मेरे पास सुंदर कपड़े, खूब पैसे, और अच्छे माँ-बाप होते, तो क्या चीजें अब जैसी हैं उससे अलग नहीं होतीं? क्या तब लोग मेरा सम्मान नहीं करते, मुझसे ईर्ष्या नहीं करते? कुल मिलाकर देखें तो मेरी किस्मत खराब है, और मैं इसके लिए किसी दूसरे को दोष नहीं दे सकता। ऐसी फूटी किस्मत होने के कारण मेरे साथ कुछ भी ठीक नहीं होता, और मैं कहीं भी लड़खड़ाए बिना नहीं चल सकता। यह बस मेरी खराब किस्मत है और इस बारे में मैं कुछ नहीं कर सकता।” इसी तरह, जब उनकी काट-छाँट हो, या जब भाई-बहन उन्हें फटकारें, उनकी आलोचना करें, या उन्हें कुछ सुझाव दें, तो वे हताशा की भावना के साथ इस पर प्रतिक्रिया देते हैं। बहरहाल, उनके साथ या उनके आसपास की हर चीज के साथ कुछ भी हो रहा हो, वे हमेशा अपने हताशा की भावना से पैदा हुए विविध नकारात्मक विचारों, नजरियों, रवैयों और दृष्टिकोणों के साथ प्रतिक्रिया जताते हैं।
खुद को हमेशा दुर्भाग्यशाली समझने वाले ऐसे लोगों को निरंतर महसूस होता है कि एक विशाल चट्टान उनके दिल को चूर-चूर कर रही है। चूंकि वे हमेशा मानते हैं कि उनके साथ जो कुछ भी होता है वह उनकी फूटी किस्मत के कारण होता है, इसलिए उन्हें लगता है कि चाहे कुछ भी हो जाए, वे इसमें से कुछ भी नहीं बदल सकते। तो फिर वे क्या करते हैं? वे बस नकारात्मक महसूस करते हैं, और सुस्त होकर सब अपने दुर्भाग्य पर छोड़ देते हैं। मेरा यह कहने का तात्पर्य क्या है कि वे सब अपने दुर्भाग्य पर छोड़ देते हैं? वे सोचते हैं, “हाय, मुझे बस इसी तरह निरुद्देश्य जीवन बिताना पड़ेगा!” जब दूसरों की काट-छाँट होती है, तो वे लोग आत्मचिंतन कर यह कह पाते हैं, “मेरी काट-छाँट किसलिए? मैंने ऐसा क्या किया है जो सत्य सिद्धांतों के विरुद्ध है? मैंने कौन-सा भ्रष्ट स्वभाव प्रकट किया है? क्या मेरी समझ पर्याप्त गहरी और ठोस है? मुझे इन मसलों को कैसे समझना और सुलझाना चाहिए?” वे ऐसी बातें कहते हैं, और ये वे व्यक्ति हैं जो सत्य का अनुसरण करते हैं। लेकिन जब तथाकथित बुरी किस्मत वाले व्यक्ति की काट-छाँट होती है, तो उसे लगता है कि दूसरे उसे हेय दृष्टि से देख रहे हैं, उसकी किस्मत खराब है, और इसलिए उसे कोई पसंद नहीं करता, और जो भी उसकी काट-छाँट करना चाहे, कर सकता है। जब कोई भी उसकी काट-छाँट नहीं करता, तो उसकी हताशा थोड़ी कम हो जाती है, लेकिन जैसे ही कोई उसकी काट-छाँट करता है, उसकी हताशा और भी बदतर हो जाती है। दूसरे लोग काट-छाँट होने पर कई दिनों तक नकारात्मक महसूस कर सकते हैं। वे परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं, और भाई-बहनों की मदद और साथ से वे सत्य स्वीकार करने में समर्थ हो जाते हैं, और वे खुद को फिर से धीरे-धीरे ठीक कर लेते हैं, और उस नकारात्मक दशा को पीछे छोड़ देते हैं। लेकिन जो लोग सोचते हैं कि उनकी किस्मत खराब है, वे न सिर्फ उस नकारात्मक भावना को नहीं छोड़ते, बल्कि इसके विपरीत उन्हें और ज्यादा यकीन हो जाता है कि उनकी किस्मत सचमुच खराब है। ऐसा क्यों है? वे यह महसूस करते हुए परमेश्वर के घर में आते हैं कि उनके कौशल का पूरा उपयोग नहीं किया जाता है, हमेशा उनका निपटान होता है, और उन्हें बलि का बकरा बनाया जाता है। वे सोचते हैं, “देखा? दूसरे लोग यही सब करते हैं तो उनकी काट-छाँट नहीं की जाती, तो मेरी काट-छाँट क्यों की जाती है? यकीनन यह दर्शाता है कि मेरी किस्मत खराब है!” और इसलिए वे हताशा और मायूसी में डूब जाते हैं। दूसरे लोग सत्य के बारे में उनके साथ जैसे भी संगति करने की कोशिश करें, यह उनके दिमाग में नहीं उतरती और वे कहते हैं, “तुम लोगों की काट-छाँट क्षण भर के लिए होती है, मगर मेरी बात अलग है। मैं कुछ भी सही नहीं कर सकता और मैं काट-छाँट सहन करने के लिए ही पैदा हुआ हूँ। मैं किसी को दोष नहीं दे सकता, बस मेरी किस्मत ही खराब है।” चूँकि वे हमेशा यही मानते हैं कि वे अभागे हैं, और जब तक जियेंगे ऐसे ही रहेंगे, इसलिए परमेश्वर का घर लोगों को जैसे भी बताए कि सत्य का अनुसरण कैसे करना है, एक सृजित प्राणी का कर्तव्य कैसे निभाना है, और मानक स्तर तक अपना कर्तव्य कैसे निभाना है, इनमें से कुछ भी उनके दिमाग में नहीं उतरता। चूँकि उन्हें हमेशा के लिए यकीन है कि उनकी किस्मत खराब है, और सत्य का अनुसरण करने और उद्धार प्राप्त करने की इस अद्भुत चीज का उनके साथ कुछ लेना-देना नहीं है, इसलिए वे अपना कर्तव्य मन लगा कर नहीं करते। उनके दिलों में यह सुनिश्चित है कि “खराब किस्मत वाले लोग अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से नहीं निभा सकते; सिर्फ अच्छी किस्मत वाले लोग ही अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकते हैं। अच्छी किस्मत वाले लोग जहाँ भी जाते हैं, वहाँ लोग उन्हें पसंद करते हैं, सब-कुछ आसानी से हो जाता है। मेरी किस्मत खराब है, और हमेशा अधम लोगों से मेरा सामना होता है, मुझे अपना कर्तव्य निभाते हुए अच्छा नहीं लगता—ये दुर्भाग्य एक-के-बाद-एक आते जाते हैं!” चूँकि वे मानते हैं कि उनकी किस्मत खराब है, इसलिए वे हमेशा मायूस और उदास रहते हैं। वे हमेशा मानते हैं कि सत्य का अनुसरण सिर्फ बोलने की चीज है और उनके जैसे अभागे लोग सत्य का अनुसरण करके कुछ प्राप्त नहीं कर सकते। उन्हें लगता है कि वे भले ही सत्य का अनुसरण करें, उन्हें अंत में कुछ भी प्राप्त नहीं होगा, और वे हमेशा सोचते हैं, “खराब किस्मत वाले लोग राज्य में कैसे प्रवेश कर सकते हैं? खराब किस्मत वाले लोग उद्धार कैसे प्राप्त कर सकते हैं?” वे इस पर विश्वास करने की हिम्मत नहीं करते, और इसलिए निरंतर यह सोचकर स्वयं को सीमित कर लेते हैं, “चूँकि मेरी किस्मत खराब है और मैं कष्ट सहने के लिए पैदा हुआ हूँ, इसलिए जीवित रहकर अंत में श्रमिक बन जाना कोई ज्यादा बुरा नहीं है। इसका अर्थ होगा कि मेरे पूर्वजों के नेक कर्म मुझमें फलीभूत होंगे, और वे मुझे सौभाग्य के आशीष देंगे। चूँकि मेरी किस्मत खराब है, इसलिए मैं बस खाना पकाने, सफाई करने, भाई-बहनों के बच्चों की देखभाल करने या कुछ खुदरे काम इत्यादि जैसे मामूली कर्तव्य निभाने के ही योग्य हूँ। परमेश्वर के घर में प्रसिद्धि देने वाले कामों की बात करें, तो शायद जब तक मैं जीवित रहूँगा, मेरा उन कामों के साथ कोई सरोकार नहीं होगा। मैं परमेश्वर के घर में आया तो भरपूर जोश के साथ था, पर अब देखो, मेरा क्या हाल हो गया है? बस खाना पकाता हूँ, श्रमजीवी का काम करता हूँ। इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता या किसी को परवाह नहीं कि मैं कितना थक जाता हूँ या यह काम कितना मुश्किल है। अगर यह मुश्किल काम नहीं है, तो फिर क्या है, मैं नहीं जानता! दूसरे लोग मुख्य अभिनेता या एक्स्ट्रा हैं, फिल्म के बाद फिल्म, वीडियो के बाद वीडियो बनाते जा रहे हैं—यह कितनी अद्भुत बात है! मैं कभी नहीं चमका, एक बार भी नहीं। यह कितना मुश्किल है! मेरी किस्मत बहुत खराब है! मेरी फूटी किस्मत के लिए कौन दोषी है? क्या यह मेरी गलती नहीं है? जब तक मर न जाऊँ, मैं यूँ ही खटता रहूँगा।” इस नकारात्मक भावना में वे गहरे और गहरे डूब जाते हैं। न सिर्फ वे इस पर चिंतन करने और इसे जान पाने में असमर्थ होते हैं कि उनकी नकारात्मक भावनाएँ क्या हैं या क्यों पैदा हुई हैं, या इनका बुरी किस्मत या अच्छी किस्मत से कुछ लेना-देना है या नहीं, न ही वे इन चीजों को समझने के लिए सत्य खोजते हैं, बल्कि वे आँखें मूँदे इस विचार से भी चिपके रहते हैं कि उनकी तमाम समस्याएँ उनकी खराब किस्मत के कारण हैं। इसका परिणाम यह होता है कि वे इन नकारात्मक भावनाओं में गहरे और गहरे डूब जाते हैं, और खुद को उसमें से बाहर नहीं निकाल पाते। अंत में, चूँकि वे हमेशा मानते हैं कि उनकी किस्मत खराब है, इसलिए वे मायूसी में डूब जाते हैं, किसी असल मकसद के बिना जीते हैं, बस खाते और सोते हैं, और मृत्यु की प्रतीक्षा करते हैं; इस तरह से वे सत्य का अनुसरण करने, अच्छे ढंग से अपना कर्तव्य निभाने, उद्धार प्राप्त करने, और परमेश्वर की ऐसी ही दूसरी अपेक्षाओं में उनकी रुचि घटती जाती है, और वे इन चीजों को और अधिक दूर करते और ठुकराते जाते हैं। वे सत्य का अनुसरण न करने और उद्धार प्राप्त न कर पाने के पीछे आदतन अपनी खराब किस्मत को कारण और आधार मान लेते हैं। उनका जिन स्थितियों से सामना होता है, उनमें वे अपने भ्रष्ट स्वभाव या नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण नहीं करते, और इस तरह अपने भ्रष्ट स्वभाव को जानकर उसे दूर नहीं करते, बल्कि उनका जिस किसी व्यक्ति, घटना और चीज से सामना और अनुभव होता है, उसकी प्रतिक्रिया में वे खराब किस्मत की अपनी दृष्टि का प्रयोग करते हैं, नतीजतन वे हताशा की भावना में और गहरे डूब जाते हैं। क्या ऐसा नहीं है? (अवश्य है।) तो क्या हताशा की यह भावना जिसमें लोग यह मानते हैं कि उनकी किस्मत खराब है, सही है या नहीं? (सही नहीं है।) यह सही क्यों नहीं है? (मेरे ख्याल से यह भावना अत्यंत उग्र है। उनके साथ जो कुछ भी होता है, उसे समझाने और सीमांकित करने के लिए वे अपनी खराब किस्मत को ले आते हैं। अपने साथ कुछ होने पर, वे उस पर चिंतन कर एक निष्कर्ष पर नहीं पहुँचते कि ये समस्याएँ क्यों खड़ी होती हैं, न ही वे खोजते या सोच-विचार करते हैं। यह पूरी तरह से चीजों के प्रति एक उग्र और सीमांकित करने वाला तरीका है।) चीजों के प्रति ऐसा दृष्टिकोण रखने का यह उग्र और बेतुका तरीका कैसे अस्तित्व में आता है? हताशा की इस भावना का मूल कारण क्या है? (मेरे विचार से इस भावना का मूल कारण यह है कि वे गलत मार्ग पर चल रहे हैं, और उनके अनुसरण का आरंभ बिंदु गलत है। उनकी कुछ अनियंत्रित आकांक्षाएँ हैं, वे हमेशा दूसरों से होड़ लगाते हैं, उनसे अपनी तुलना करते हैं, और जब वे अपनी अनियंत्रित आकांक्षाओं को संतुष्ट नहीं कर पाते, तो उनके भीतर की यह नकारात्मक भावना सिर उठा लेती है।) तुम लोगों ने इस मसले का सार स्पष्ट रूप से नहीं समझा है—बात मुख्य रूप से यह है कि “भाग्य” के बारे में उनका दृष्टिकोण गलत है। वे हमेशा अच्छे भाग्य के पीछे भागते हैं या वे चाहते हैं कि उनका भाग्य ऐसा हो कि सब-कुछ आराम से और आसानी से हो जाए। वे हमेशा लोगों के भाग्य पर गौर करते हैं, और जब वे ऐसी चीज के पीछे भागने लगते हैं, तो उनका क्या होता है? वे अलग-अलग माहौल में रहने वाले लोगों, उनके खान-पान, उनके कपड़ों, उनके मौज-मजे की चीजों पर गौर करते हैं, और फिर उनके साथ अपनी स्थिति की तुलना करते हैं, और तब उन्हें लगता है कि वे हर मामले में बदतर हैं, दूसरे तमाम लोग उनसे बेहतर हैं, और इसलिए वे मान लेते हैं कि उनकी किस्मत खराब है। दरअसल, जरूरी नहीं कि वे ही सबसे बदतर हों, लेकिन वे हमेशा दूसरों से अपनी तुलना करते और मापते हैं, हमेशा “भाग्य” के इस मामले पर सोचने, उसका अवलोकन करने और उसके अध्ययन में गहन शोध करने में मेहनत करते हैं। हर चीज को मापने के लिए वे भाग्य अच्छा है या बुरा, इसके बारे में उनका जो परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण है, उसका प्रयोग करते हैं, वे हमेशा मापते रहते हैं, जब तक कि वे खुद को एक कोने में सिमटा नहीं लेते, और उनके सामने कोई रास्ता नहीं रह जाता, और आखिरकार वे निराशा में डूब जाते हैं। जो भी होता है, उसके बाहरी रंग-रूप को मापने के लिए वे भाग्य अच्छा है या बुरा, इससे जुड़े अपने दृष्टिकोण का निरंतर प्रयोग करते हैं, चीजों का सार नहीं देखते। ऐसा करने में वे कौन-सी गलती करते हैं? उनके विचार और दृष्टिकोण विकृत होते हैं, और भाग्य के बारे में उनके ख्याल गलत होते हैं। मनुष्य का भाग्य एक गूढ़ विषय है, जिसे कोई भी स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकता। यह किसी व्यक्ति की जन्मतिथि या उसके जन्म का सटीक समय भर नहीं है, जो यह संकेत देता है कि उसका भाग्य अच्छा होगा या बुरा—यह एक रहस्य है।
मनुष्य का भाग्य कैसा होगा, वह अच्छा होगा या बुरा, इसे लेकर परमेश्वर की व्यवस्था को मनुष्य या किसी भविष्यवक्ता की दृष्टि से देखा या मापा नहीं जाना चाहिए, न ही उसे इस अनुसार मापना चाहिए कि वह व्यक्ति अपने जीवनकाल में कितने धन और महिमा का आनंद लेता है, वह कितने कष्ट सहता है, या अपनी संभावनाओं, शोहरत और लाभ की तलाश में वह कितना सफल है। फिर भी ठीक यही गंभीर गलती वे लोग करते हैं जो कहते हैं कि उनका भाग्य खराब है, और साथ ही ज्यादातर लोग अपना भाग्य मापने में इसी तरीके का प्रयोग करते हैं। अधिकतर लोग अपना भाग्य कैसे मापते हैं? सांसारिक लोग कैसे मापते हैं कि किसी व्यक्ति का भाग्य अच्छा है या बुरा? सबसे पहले तो वे उसे इस आधार पर देखते हैं कि उस व्यक्ति का जीवन आराम से गुजर रहा है या नहीं, वह धन और महिमा का आनंद ले पाता है या नहीं, क्या वह दूसरों से बेहतर जीवनशैली के साथ जी पाता है, अपने जीवनकाल में वह कितने कष्ट सहता है और कितना आनंद ले पाता है, वह कितना लंबा जीवन जीता है, उसका करियर क्या है, उसका जीवन श्रमसाध्य है या आरामदेह और आसान है—वे किसी व्यक्ति का भाग्य अच्छा है या बुरा, यह मापने के लिए इनका और ऐसी ही दूसरी चीजों का प्रयोग करते हैं। क्या तुम भी इसे इसी तरह से नहीं मापते? (हाँ।) तो, जब तुममें से ज्यादातर लोगों का सामना किसी ऐसी चीज से होता है जो तुम्हें पसंद नहीं, जब मुश्किल वक्त आता है, या तुम बेहतर जीवनशैली का आनंद नहीं ले पाते, तो तुम सब सोचोगे कि तुम्हारा भाग्य भी खराब है, और हताशा में डूब जाओगे। जो लोग कहते हैं कि उनका भाग्य खराब है, जरूरी नहीं कि उनका भाग्य सचमुच खराब हो, इसी तरह से जो लोग कहते हैं कि उनका भाग्य अच्छा है, जरूरी नहीं कि उनका भाग्य सचमुच अच्छा हो। भाग्य अच्छा है या बुरा, यह सही-सही कैसे मापा जाता है? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, तो तुम्हारा भाग्य अच्छा है, और अगर तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते तो वह अच्छा नहीं है—क्या ऐसा कहना सही है? (जरूरी नहीं।) तुम लोग कहते हो, “जरूरी नहीं,” यानी परमेश्वर में विश्वास रखनेवाले कुछ लोगों का भाग्य सचमुच खराब होता है और कुछ का भाग्य अच्छा होता है। यदि ऐसा है, तो परमेश्वर में विश्वास न रखनेवाले कुछ लोगों का भी भाग्य अच्छा होता है तो कुछ का खराब—क्या ऐसा कहना सही है? (नहीं, यह गलत है।) बताओ, भला तुम लोग ऐसा क्यों कहते हो? यह गलत क्यों है? (मैं नहीं मानता कि किसी के भाग्य का इस बात से कुछ लेना-देना है कि वह परमेश्वर में विश्वास रखता है या नहीं।) यह सही है; किसी व्यक्ति के भाग्य के अच्छे या खराब होने का परमेश्वर में विश्वास से कुछ लेना-देना नहीं है। तो फिर इसका किससे लेना-देना है? क्या इसका इससे कुछ लेना-देना है कि लोग किस पथ पर चलते हैं या किसकी तलाश करते हैं? क्या ऐसा है कि यदि कोई व्यक्ति सत्य का अनुसरण करता है तो उसका भाग्य अच्छा होता है, और अगर नहीं करता तो उसका जीवन तकलीफदेह होता है? बोलो, क्या कोई विधवा अच्छे भाग्य वाली होती है? सांसारिक लोगों के लिए, विधवाओं का भाग्य खराब होता है। अगर वे तीस-चालीस की उम्र में विधवा हो जाएँ, तो उनका भाग्य सचमुच खराब होता है, यह उनके लिए बहुत मुश्किल होता है! लेकिन अपने पति को खोने के कारण अगर कोई विधवा बहुत कष्ट सहती है, और परमेश्वर में विश्वास रखने लगती है, तब क्या उसका जीवन मुश्किल होता है? (नहीं।) चूँकि जो महिलाएँ विधवा नहीं हुई हैं, वे खुशहाल जीवन बिताती हैं, उनके साथ सब-कुछ अच्छा चल रहा होता है, उनके पास आश्रय, खाना और कपड़े सब होता है, बच्चों और नाती-पोतों के साथ उनका परिवार भरा-पूरा होता है, किसी मुश्किल या किसी आध्यात्मिक कमी को महसूस किए बिना वे आरामदेह जीवन जीती हैं, इसलिए वे परमेश्वर में विश्वास नहीं रखतीं, और तुम उनके बीच चाहे जितना भी सुसमाचार फैलाने की कोशिश करो वे उसमें विश्वास नहीं रखतीं। तो फिर किसका भाग्य अच्छा है? (विधवा का भाग्य अच्छा है, क्योंकि वह परमेश्वर में विश्वास रखने लगी है।) देखो, चूँकि सांसारिक लोग मानते हैं कि विधवा का भाग्य बुरा है, वह इतने दुख सहती है, इसलिए वह दिशा बदल कर एक अलग मार्ग पर चलने लगती है, और वह परमेश्वर में विश्वास रखकर उसका अनुसरण करती है—क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि अब उसका भाग्य अच्छा है और वह खुशी-खुशी जी रही है? (बिल्कुल।) उसका दुर्भाग्य सौभाग्य में बदल गया है। यदि तुम कहते हो कि उसका भाग्य खराब है, तो जीवन में उसका भाग्य हमेशा खराब होना चाहिए, और वह उसे नहीं बदल सकती; तो फिर इसे कैसे बदला जा सकता है? क्या परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से उसका भाग्य बदल गया है? (नहीं, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि चीजों के बारे में उसकी सोच बदल गई है।) इसलिए कि उसका चीजों को देखने का तरीका बदल गया है। क्या उसके भाग्य का वस्तुपरक तथ्य बदल गया है? (नहीं।) परमेश्वर में विश्वास रखने से पहले, विधवा यह सोचकर उन महिलाओं से ईर्ष्या करती थी जो विधवा नहीं हुई थीं, “उसे देखो, उसका भाग्य कितना अच्छा है। उसके पास पति है, घर है, वह एक खुशहाल और संतुष्ट जीवन जी रही है। वह वैधव्य की यह पीड़ा नहीं सह रही है।” मगर, परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद से, वह सोचती है, “मैं अब परमेश्वर में विश्वास रखती हूँ, परमेश्वर ने मुझे उसका अनुसरण करने के लिए चुना है, मैं अपना कर्तव्य निभा सकती हूँ, और सत्य हासिल कर सकती हूँ। भविष्य में, मैं उद्धार प्राप्त कर राज्य में प्रवेश कर सकूँगी। यह कितना बड़ा सौभाग्य है! वह विधवा नहीं हुई है, लेकिन उसका भाग्य क्या है? वह हमेशा कोशिश करती है कि जीवन के मजे ले, शोहरत, लाभ और रुतबे के पीछे भागे, अपने करियर में कामयाब होने की राह देखे, धन और समृद्धि का आनंद ले, लेकिन फिर मृत्यु के बाद, वह नरक में ही जाएगी। उसका भाग्य खराब है। मेरा भाग्य उसके भाग्य से बेहतर है!” उसके विचार बदल गए हैं, मगर वस्तुपरक तथ्य नहीं बदले हैं। जो महिला परमेश्वर में विश्वास नहीं रखती, वह अब भी सोचती है, “हूँ! मेरा भाग्य तुमसे बेहतर है! तुम एक विधवा हो, मैं नहीं। मेरा जीवन तुमसे बेहतर है। मेरा भाग्य अच्छा है!” लेकिन अब परमेश्वर में विश्वास रखने वाली महिला की दृष्टि में उसका भाग्य अच्छा नहीं है। यह बदलाव कैसे आया? क्या विधवा का वस्तुपरक परिवेश बदल गया है? (नहीं।) तो फिर उसके विचार कैसे बदल गए? (चीजें अच्छी हैं या बुरी, यह मापने के उसके मानदंड बदल गए हैं।) हाँ, चीजों को मापने और मामलों को देखने पर उसकी सोच बदल गई है। जो महिला विधवा नहीं हुई है, उसका भाग्य अच्छा है वाली सोच से वह उसका भाग्य बुरा है, और उसका अपना भाग्य बुरा है वाली सोच से उसका अपना भाग्य अच्छा है वाली सोच पर पहुँच गई है। ये दोनों सोच पहले की सोच से बिल्कुल अलग हैं, पूरी तरह उलट गए हैं। यहाँ क्या हो रहा है? वस्तुपरक तथ्य और परिवेश नहीं बदले हैं, तो चीजों के बारे में उसकी सोच में बदलाव कैसे आ गया? (सत्य और सकारात्मक चीजों को स्वीकार करने के बाद, वह चीजों को अच्छे या बुरे के रूप में मापने में अब अपनी सोच में सही मानदंडों का प्रयोग करती है।) चीजों के बारे में उसके विचार बदल गए हैं, मगर क्या वास्तविक तथ्य बदले हैं? (नहीं।) विधवा अब भी विधवा ही है, और खुशी-खुशी जीने वाली महिला अभी भी खुशी-खुशी जी रही है—वास्तविक तथ्यों में कोई बदलाव नहीं हुआ है। तो, फिर अंत में किसका भाग्य अच्छा है और किसका बुरा? क्या तुम समझा सकते हो? विधवा सोचा करती थी कि उसका भाग्य खराब है, जिसका एक कारण उसके जीवन की वस्तुपरक परिस्थिति और दूसरा कारण उसके वस्तुपरक परिवेश के कारण बने उसके सोच-विचार थे। परमेश्वर के वचन पढ़ने और कुछ सत्य समझने पर वह परमेश्वर में विश्वास रखने लगती है और उसके विचार भी तदनुरूप बदल जाते हैं, और चीजों के बारे में अब उसका नजरिया अलग है। तो, परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद, अब वह नहीं मानती कि उसका भाग्य खराब है, बल्कि वह खुद को सौभाग्यशाली मानती है, क्योंकि उसे परमेश्वर के कार्य को स्वीकार करने का मौका मिल गया है, और वह सत्य को समझकर उद्धार प्राप्त कर सकती है—यह परमेश्वर द्वारा पहले से निर्धारित है, और वह अत्यंत धन्य है। परमेश्वर में विश्वास रखना शुरू करने के बाद, वह केवल सत्य के अनुसरण पर ध्यान देती है, जोकि उन लक्ष्यों से अलग है, जिनका वह पहले अनुसरण करती थी। हालाँकि उसकी जीवन परिस्थितियाँ, उसका परिवेश, उसके जीवन की गुणवत्ता पहले जैसी ही है और बदली नहीं है, फिर भी चीजों के बारे में उसका नजरिया बदल गया है। वास्तव में, क्या परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण उसका भाग्य अच्छा हो गया है? जरूरी नहीं। बात बस इतनी है कि अब वह परमेश्वर में विश्वास रखती है, आशान्वित है, अपने दिल में थोड़ा संतोष अनुभव करती है, अनुसरण करने के उसके लक्ष्य बदल गए हैं, उसके विचार अलग हैं, और इसलिए उसके जीने का मौजूदा परिवेश उसे खुश, संतुष्ट, उल्लसित और शांतिपूर्ण बनाता है। उसे लगता है कि अब उसका भाग्य बहुत अच्छा है, उस महिला के भाग्य से बहुत बेहतर, जो अभी विधवा नहीं हुई है। अब जाकर उसे एहसास हुआ है कि उसकी पहले वाली सोच गलत थी कि उसका अपना भाग्य खराब है। इससे तुम सब क्या समझते हो? क्या “सौभाग्य” और “दुर्भाग्य” जैसा कुछ होता है? (नहीं।) नहीं, ऐसा नहीं होता।
परमेश्वर ने बहुत पहले ही लोगों के भाग्य तय कर दिए थे, और उन्हें बदला नहीं जा सकता। यह “सौभाग्य” और “दुर्भाग्य” हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होता है, और लोगों के परिवेश और इस बात पर निर्भर करता है कि वे कैसा महसूस करते हैं और किसका अनुसरण करते हैं। इसलिए किसी का भाग्य न तो अच्छा होता है न ही बुरा। हो सकता है कि तुम्हारा जीवन बहुत कष्टमय हो, पर शायद तुम सोचो, “मैं कोई आलीशान जिंदगी नहीं जीना चाहता। बस भरपेट खाना और पहनने के लिए पर्याप्त कपड़े हों, तो मैं खुश हूँ। अपने जीवनकाल में सभी कष्ट सहते हैं। सांसारिक लोग कहते हैं, ‘अगर बारिश न हो, तो तुम इंद्रधनुष नहीं देख सकते,’ तो कष्ट का अपना महत्व है। यह बहुत बुरा नहीं है, और मेरा भाग्य भी बुरा नहीं है। स्वर्ग ने मुझे कुछ पीड़ा, कुछ परीक्षण और तकलीफें दी हैं। ऐसा इसलिए कि वह मेरे बारे में अच्छी राय रखता है। यह सौभाग्य है!” कुछ लोग सोचते हैं कि कष्ट सहना बुरा है, इसका अर्थ है कि उनका भाग्य खराब है, और सिर्फ ऐसे ही जीवन का अर्थ, जिसमें कष्ट न हों, आराम और आसानी हो, अच्छा भाग्य होना है। गैर-विश्वासी इसे “मत भिन्नता” कहते हैं। परमेश्वर में विश्वास रखने वाले “भाग्य” के इस मामले को किस तरह देखते हैं? क्या हम “सौभाग्य” या “दुर्भाग्य” होने की बात करते हैं? (नहीं।) हम ऐसी बातें नहीं कहते। मान लो कि परमेश्वर में विश्वास रखने के कारण तुम्हारा भाग्य अच्छा है, फिर यदि तुम अपने विश्वास में सही मार्ग पर नहीं चलते, तुम्हें दंडित किया जाता है, उजागर कर हटा दिया जाता है, तब इसका क्या अर्थ है, तुम्हारा भाग्य अच्छा है या खराब? यदि तुम परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, तो संभवतः तुम्हें उजागर किया या हटाया नहीं जा सकता। गैर-विश्वासी और धार्मिक लोग, लोगों को उजागर करने या समझने की बात नहीं करते, और वे निकाले या हटाए जा रहे लोगों की बात भी नहीं करते। इसका अर्थ होना चाहिए कि परमेश्वर में विश्वास रखने में समर्थ होने पर लोगों का भाग्य अच्छा है, मगर यदि अंत में वे दंडित होते हैं, तो क्या इसका अर्थ है कि उनका भाग्य खराब है? एक पल उनका भाग्य अच्छा है और दूसरे ही पल बुरा—तो फिर वह कैसा है? किसी का भाग्य अच्छा है या नहीं, यह एक ऐसी बात नहीं है जिसका फैसला हो सकता हो, लोग इसका फैसला नहीं कर सकते। यह सब परमेश्वर द्वारा होता है, और परमेश्वर की हर व्यवस्था अच्छी होती है। बस इतना ही है कि प्रत्येक व्यक्ति का भाग्य-पथ या उसका परिवेश, वे लोग, घटनाएँ और चीजें जिनसे उसका वास्ता पड़ता है, और अपने जीवन में वह जिस जीवन मार्ग का अनुभव करता है, वे सब भिन्न होते हैं; ये चीजें हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीने के परिवेश और विकास करने के परिवेश की व्यवस्था परमेश्वर करता है और ये दोनों ही अलग होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवनकाल में जिन चीजों का अनुभव करता है, वे अलग-अलग होती हैं। कोई तथाकथित सौभाग्य या दुर्भाग्य नहीं होता—परमेश्वर इन सबकी व्यवस्था करता है, और परमेश्वर ही ये सब करता है। यदि हम इस मामले को इस नजरिए से देखें कि यह सब परमेश्वर करता है, परमेश्वर का हर कार्य अच्छा और सही होता है; तो बस इतना ही है कि लोगों के झुकाव, भावनाओं और चुनावों के नजरिए से देखें, तो कुछ लोग आरामदेह जीवन जीना चुनते हैं, शोहरत, लाभ, प्रतिष्ठा, संसार में समृद्धि और अपनी सफलता चुनते हैं। वे मानते हैं कि इसका अर्थ अच्छे भाग्य का होना है, और जीवन भर औसत दर्जे का और असफल रहना, हमेशा समाज के बिल्कुल निचले तबके में जीना भाग्य का खराब होना है। गैर-विश्वासियों और सांसारिक चीजों के पीछे भागने वाले और संसार में जीने की इच्छा रखने वाले सांसारिक लोगों के नजरिए से चीजें यूँ ही नजर आती हैं, और इस तरह से सौभाग्य और दुर्भाग्य का विचार पैदा होता है। सौभाग्य और दुर्भाग्य का विचार भाग्य के बारे में मनुष्य की संकीर्ण समझ और सतही नजरिए से, और लोग कितना शारीरिक कष्ट सहते हैं, कितना आनंद वे पाते हैं और कितनी शोहरत और लाभ वे प्राप्त करते हैं, इत्यादि पर लोगों की सोच से पैदा होता है। दरअसल, यदि हम इसे मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की व्यवस्था और संप्रभुता के नजरिए से देखें, तो अच्छे भाग्य और बुरे भाग्य की ऐसी कोई व्याख्याएँ नहीं हैं। क्या यह सही नहीं है? (सही है।) यदि तुम परमेश्वर की संप्रभुता के नजरिए से मनुष्य के भाग्य को देखो, तो परमेश्वर जो भी करता है, वह अच्छा ही होता है, और हर व्यक्ति को इसी की जरूरत होती है। ऐसा इसलिए है कि पिछले और वर्तमान जीवन में कारण और प्रभाव अपनी भूमिका अदा करते हैं, ये परमेश्वर द्वारा पूर्वनिर्धारित होते हैं, इन पर परमेश्वर की संप्रभुता होती है, और परमेश्वर इनकी योजना बनाता और इनकी व्यवस्था करता है—मानवजाति के पास कोई विकल्प नहीं है। यदि हम इसे इस नजरिए से देखें, तो लोगों को यह फैसला नहीं करना चाहिए कि उनका भाग्य अच्छा है या बुरा, ठीक है न? यदि लोग इस बारे में यूँ ही सोच बना लेते हैं तो क्या वे एक भयानक गलती नहीं कर रहे हैं? क्या वे परमेश्वर की योजनाओं, व्यवस्थाओं और संप्रभुता पर फैसला करने की गलती नहीं कर रहे हैं? (जरूर कर रहे हैं।) और क्या यह गलती गंभीर नहीं है? क्या यह उनके जीवन-पथ को प्रभावित नहीं करेगी? (जरूर करेगी।) फिर यह गलती उन्हें विनाश की ओर ले जाएगी।
जब बात यह हो कि लोगों के भाग्य पर परमेश्वर की संप्रभुता है और वह इसकी व्यवस्था करता है तो उन्हें क्या करना चाहिए? (परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण।) पहले, तुम्हें यह खोजना चाहिए कि सृष्टिकर्ता ने तुम्हारे लिए इस तरह के भाग्य और जीने के परिवेश की व्यवस्था क्यों की है, क्यों वह तुम्हारा कुछ खास चीजों से सामना और उनका अनुभव कराता है, और क्यों तुम्हारा भाग्य ऐसा है। इससे तुम्हें समझना चाहिए कि तुम्हारा दिल किस चीज के लिए लालायित है और इसे किस चीज की जरूरत है, और तुम्हें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं को जानना चाहिए। इन चीजों को समझने और जानने के बाद तुम्हें अवज्ञाकारी नहीं होना चाहिए, अपनी पसंदगियाँ नहीं रखनी चाहिए, अस्वीकार नहीं करना चाहिए, प्रतिरोधी नहीं होना चाहिए या पलायन का प्रयास नहीं करना चाहिए—बेशक तुम्हें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी की कोशिश भी नहीं करनी चाहिए। इसके बजाय तुम्हें समर्पण करना चाहिए। तुम्हें क्यों समर्पण करना चाहिए? क्योंकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तुम अपने भाग्य की योजना नहीं बना सकते और तुम्हारी उस पर संप्रभुता नहीं हो सकती है। तुम्हारे भाग्य के बारे में अंतिम निर्णय का अधिकार परमेश्वर के पास है। अपने भाग्य के सामने तुम निष्क्रिय हो और तुम्हारे पास कोई विकल्प नहीं होता। एकमात्र चीज जो तुम्हें करनी चाहिए, वह है समर्पित होना। तुम्हें अपने भाग्य के बारे में अपने चुनाव नहीं करने चाहिए या उससे बचना नहीं चाहिए, तुम्हें परमेश्वर के साथ सौदेबाजी नहीं करनी चाहिए, तुम्हें प्रतिरोधी महसूस नहीं करना चाहिए या शिकायत नहीं करनी चाहिए। बेशक, तुम्हें खासकर ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए, “परमेश्वर ने मेरे लिए जिस भाग्य की व्यवस्था की है, वह खराब है। वह दयनीय और दूसरों के भाग्य से बदतर है,” या “मेरा भाग्य खराब है और मुझे कोई सुख या समृद्धि नहीं मिल रही। परमेश्वर ने मेरे लिए खराब तरह से चीजों की व्यवस्था की है।” ये शब्द आलोचनाएँ हैं और इन्हें बोलकर तुम अपने स्थान से बाहर जा रहे हो। ये ऐसे शब्द नहीं हैं, जिन्हें सृजित प्राणी द्वारा बोला जाना चाहिए और ये ऐसा दृष्टिकोण या रवैये नहीं हैं, जो सृजित प्राणी में होने चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें भाग्य की ये भ्रामक समझ, परिभाषाएँ, विचार और बोध छोड़ देने चाहिए। साथ ही, तुम्हें एक सही रवैया और रुख अपनाने में सक्षम होना चाहिए, ताकि तुम उन सभी चीजों के प्रति समर्पित हो सको, जो उस भाग्य के हिस्से के रूप में घटित होंगी जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए व्यवस्थित किया है। तुम्हें प्रतिरोध नहीं करना चाहिए, और निश्चित रूप से तुम्हें हताश होकर शिकायत नहीं करनी चाहिए कि स्वर्ग निष्पक्ष नहीं है, कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए चीजें खराब तरह से व्यवस्थित की हैं, और तुम्हें सर्वोत्तम चीजें प्रदान नहीं की हैं। जब भाग्य की बात आती है तो सृजित प्राणियों को चुनने का कोई अधिकार नहीं है; परमेश्वर ने तुम्हें इस तरह का दायित्व नहीं दिया है और उसने तुम्हें यह अधिकार नहीं दिया है। इसलिए तुम्हें चुनाव करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, परमेश्वर के साथ बहस करने या उससे अतिरिक्त माँगें करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। परमेश्वर की व्यवस्थाएँ चाहे जो भी हों, तुम्हें उन्हीं के अनुसार खुद को ढालना और उनका सामना करना चाहिए। परमेश्वर ने जो कुछ भी व्यवस्थित किया है, तुम्हें उसका सामना करना चाहिए और उसका अनुभव करने और उसे समझने का प्रयास करना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जिस अनुभव की व्यवस्था की है, तुम्हें हर उस चीज के प्रति पूरी तरह से समर्पण करना चाहिए। परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जिस भाग्य की व्यवस्था की है, तुम्हें उसका अनुपालन करना चाहिए। अगर तुम्हें कोई चीज पसंद नहीं भी हो या अगर तुम्हें उसके कारण कष्ट भी उठाना पड़े, अगर वह तुम्हारे आत्मसम्मान और चरित्र को चुनौती देती या कुचलती भी हो, तो भी अगर वह ऐसी चीज है जिसे तुम्हें अनुभव करना चाहिए, कोई ऐसी चीज जिसे परमेश्वर ने तुम्हारे लिए योजना बनाई और व्यवस्थित किया है, तो तुम्हें उसके प्रति समर्पण करना चाहिए और तुम अपनी कोई पसंद नहीं रख सकते हो। चूँकि परमेश्वर ने लोगों के भाग्य की व्यवस्था की है और उस पर उसकी संप्रभुता है, इसलिए इस बारे में उसके साथ मोल-तोल नहीं किया जा सकता है। इसलिए अगर लोग समझदार हैं और उनमें सामान्य मानवता का विवेक है, तो उन्हें हमेशा यह शिकायत नहीं करनी चाहिए कि उनका भाग्य खराब है या यह शिकायत नहीं करनी चाहिए कि उनके बारे में यह या वह चीज अच्छी नहीं है; उन्हें अपने कर्तव्य को, अपने जीवन को, उस मार्ग को जिस पर वे परमेश्वर में अपने विश्वास में चलते हैं, उन सभी स्थितियों को जिन्हें परमेश्वर ने व्यवस्थित किया है, या उनसे परमेश्वर की माँगों को इस वजह से हताश रवैये के साथ नहीं ले लेना चाहिए कि उन्हें अपना भाग्य खराब लगता है। इस किस्म की हताशा कोई साधारण या क्षणिक विद्रोहीपन नहीं है, न ही यह भ्रष्ट स्वभाव का क्षणिक प्रकटन है, भ्रष्ट अवस्था का प्रकटन तो बिल्कुल भी नहीं। इसके बजाय, यह परमेश्वर का मौन विरोध है, और परमेश्वर ने उनके लिए जिस भाग्य की व्यवस्था की है उसके प्रति असंतोष से उपजा मौन विरोध भी है। भले ही यह एक साधारण नकारात्मक भावना हो, लेकिन लोगों के लिए इसके दुष्परिणाम भ्रष्ट स्वभाव के नतीजों से भी ज्यादा गंभीर होते हैं। यह तुम्हें अपने कर्तव्य, अपने दैनिक जीवन और जीवन यात्रा के प्रति सकारात्मक और सही रवैया अपनाने से तो रोकता ही है, लेकिन उससे भी गंभीर बात यह है कि यह तुम्हें हताशा के जरिए नष्ट भी कर सकता है। इसलिए, बुद्धिमान लोगों को फटाफट इन भ्रामक विचारों को पूरी तरह बदल देना चाहिए, आत्मचिंतन कर परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में खुद को जानना चाहिए, और यह मालूम करना चाहिए कि वे किन कारणों से अपने भाग्य को खराब मान बैठे हैं; उन्हें यह पता करना चाहिए कि उनकी गरिमा या उनके दिल को ऐसे कैसे चोट पहुँची है कि उनमें अपना भाग्य खराब होने की नकारात्मक सोच पैदा हो गई, जिसने उन्हें हताशा की नकारात्मक भावना की खाई में धकेल दिया है, जिससे वे कभी उबर ही नहीं पाए हैं, आज तक भी नहीं। यह एक ऐसा मसला है जिसे तुम्हें आत्मचिंतन कर जाँचना चाहिए। हो सकता है कुछ मामले तुम्हारे दिलों में गहराई से पैठे हों, किसी ने तुमसे कोई बुरी बात कह दी हो, जिससे तुम्हारा आत्म-सम्मान आहत हुआ हो, और इससे तुम्हें लगा हो कि तुम्हारा भाग्य खराब है, और इस तरह तुम हताशा में डूब गए हो; या शायद तुम्हारे जीवन में या बड़े होते समय कोई शैतानी या सांसारिक विचार या ख्याल जागा हो जिसने भाग्य के बारे में तुम्हारी यह गलत समझ पैदा कर दी हो और तुम इस बात को लेकर बहुत ही संवेदनशील हो गए हो कि तुम्हारा भाग्य अच्छा है या खराब; या शायद किसी समय किसी व्यथित करने वाली चीज का अनुभव करके तुम अपने भाग्य के प्रति बहुत ही गंभीर और संवेदनशील हो गए, और फिर तुममें अपना भाग्य बदलने की धुन सवार हो गई—तुम्हें इन सभी चीजों की जाँच करनी चाहिए। लेकिन तुम इन चीजों की जाँच चाहे कैसे भी करो, तुम्हें अंततः यह समझना चाहिए : तुम्हें अपने भाग्य को मापने के लिए अच्छे-बुरे भाग्य संबंधी प्रचलित विचारों और सोच का प्रयोग नहीं करना चाहिए। किसी व्यक्ति के जीवन का भाग्य परमेश्वर की मुट्ठी में होता है और परमेश्वर बहुत पहले ही इसकी व्यवस्था कर चुका है; यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे लोग बदल सकते हों। मगर अपने जीवनकाल में कोई व्यक्ति किस प्रकार के मार्ग पर चलता है और वह मूल्यवान जीवन जीता है या नहीं, इन विकल्पों को वह स्वयं चुन सकता है। तुम मूल्यवान जीवन जीने, मूल्यवान चीजों के लिए जीने, सृष्टिकर्ता की योजनाओं और प्रबंधन के लिए जीने और मानवजाति के उचित करियर के लिए जीने का विकल्प चुन सकते हो। बेशक, तुम सकारात्मक चीजों के लिए जीने की बजाय शोहरत और लाभ, किसी आधिकारिक करियर, धन और सांसारिक प्रवृत्तियों के पीछे भागने का जीवन भी चुन सकते हो। तुम किसी भी प्रकार के मूल्य से रहित जीवन जीने का विकल्प चुनकर एक चलते-फिरते मुर्दे जैसे बन सकते हो। ये वे तमाम विकल्प हैं जो तुम चुन सकते हो।
इस प्रकार संगति करने से, क्या तुम सब समझ पाए हो कि हमेशा अपने भाग्य को खराब बताने वाले लोगों के विचार और नजरिए सही हैं या गलत? (वे गलत हैं।) साफ तौर पर, अतिवाद में फँसने के कारण इन लोगों को हताशा की भावना का अनुभव होता है। चूँकि उनमें अतिवादी विचारों और नजरियों की वजह से हताशा की यह अति भावना होती है, इसलिए वे जीवन में होनेवाली चीजों का सही ढंग से सामना नहीं कर पाते, जो कार्य लोगों को अमल में लाने चाहिए, वे उन्हें नहीं ला पाते, न ही एक सृजित प्राणी के कर्तव्य, जिम्मेदारियाँ और दायित्व निभा पाते हैं। इसलिए, वे विविध किस्म के उन लोगों जैसे ही होते हैं, जो नकारात्मक भावनाओं में डूब जाते हैं, जिनकी चर्चा हमने अपनी पिछली संगति में की थी। हालाँकि अपने भाग्य को खराब समझनेवाले ये लोग परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, चीजों को छोड़ने में समर्थ होते हैं, और खुद को खपाकर परमेश्वर का अनुसरण कर सकते हैं, फिर भी वे उसी तरह परमेश्वर के घर में एक स्वतंत्र, मुक्त और आरामदेह तरीके से अपना कर्तव्य नहीं निभा पाते। वे ऐसा क्यों नहीं कर पाते? इसलिए कि वे अपने भीतर बहुत-से चरम और असामान्य विचार और नजरिए छुपाए होते हैं, जिनसे उनमें अतिवादी भावनाएँ पैदा होती हैं। इन अतिवादी भावनाओं के कारण चीजों की उनकी परख, उनकी सोच, और चीजों के बारे में उनका नजरिया एक अतिवादी, गलत और विकृत दृष्टिकोण से उपजता है। वे समस्याओं और लोगों को इस अतिवादी और गलत दृष्टिकोण से देखते हैं, जिससे वे बार-बार इस नकारात्मक भावना के असर और प्रभाव में जीते, लोगों और चीजों को देखते एवं आचरण और कार्य करते हैं। अंत में, वे जैसे भी जियें, वे इतने थके हुए लगते हैं कि परमेश्वर में आस्था और सत्य के अनुसरण के लिए कोई जोश नहीं जुटा पाते। वे अपना जीवन किसी भी तरह से जीना पसंद करें, वे सकारात्मक या सक्रिय ढंग से अपना कर्तव्य नहीं निभा सकते, और अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बावजूद वे हृदय और प्राण से अपना कर्तव्य निभाने या अपना कर्तव्य संतोषजनक ढंग से निभाने पर कभी ध्यान नहीं देते, जाहिर है, सत्य का अनुसरण करना या सत्य सिद्धांतों के अनुसार अभ्यास करना तो दूर की बात है। ऐसा क्यों है? अंतिम विश्लेषण में, ऐसा इसलिए है क्योंकि वे हमेशा सोचते हैं कि उनका भाग्य खराब है, और इससे उनमें गहन हताशा की भावना पैदा हो जाती है। वे पूरी तरह से मायूस, विवश, जिंदा लाश की तरह, शक्तिहीन हो जाते हैं, कोई सकारात्मक या आशावादी व्यवहार नहीं दर्शाते, अपने कर्तव्य, अपनी जिम्मेदारियों और दायित्वों के प्रति अपनी निष्ठा अर्पित करने का संकल्प या सहनशीलता दिखाना तो दूर की बात है। इसके बजाय वे अनमने ढंग से हर दिन एक ढुलमुल रवैये के साथ निरुद्देश्य और भ्रमित होकर संघर्ष करते रहते हैं, यहाँ तक कि अनजाने ही दिन गुजारते जाते हैं। उन्हें कोई अंदाजा नहीं होता कि वे कब तक यूँ ही जैसे तैसे काम चलाते रहेंगे। अंत में, उनके पास यह कहकर खुद को फटकारने के सिवाय कोई रास्ता नहीं होता, “ओह, जब तक जैसे तैसे काम चल जाए, तब तक मैं जीता रहूँगा! अगर किसी दिन मैं आगे इसी तरह जीता न रह सकूँ, और कलीसिया मुझे निष्कासित कर हटा देना चाहे, तो उसे बस मुझे हटा देना चाहिए। ऐसा इसलिए कि मेरा भाग्य खराब है!” देखा, उनकी बातें भी बेहद हारी हुई होती हैं। हताशा की यह भावना सिर्फ एक सरल-सी मनःस्थिति नहीं है, बल्कि अधिक महत्वपूर्ण तौर पर लोगों के विचारों, दिलों और उनके अनुसरण पर इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। यदि तुम समय रहते तेजी से अपनी हताशा की भावना को नहीं पलट सकते, तो यह न सिर्फ तुम्हारे पूरे जीवन को प्रभावित करेगी, बल्कि तुम्हारे जीवन को नष्ट कर तुम्हें मृत्यु के कगार पर भी पहुँचा देगी। भले ही तुम परमेश्वर में विश्वास रखो, फिर भी सत्य हासिल कर उद्धार प्राप्त नहीं कर पाओगे, और अंत में, तुम नष्ट हो जाओगे। इसीलिए जो लोग मानते हैं कि उनका भाग्य खराब है, उन्हें अब जाग जाना चाहिए; हमेशा गौर करते रहना कि उनका भाग्य अच्छा है या खराब, हमेशा किसी किस्म के भाग्य का अनुसरण करना, हमेशा अपने भाग्य को लेकर परेशान रहना—यह अच्छी बात नहीं है। हमेशा अपने भाग्य को बड़ी गंभीरता से लेने पर, थोड़ी-सी गड़बड़ी या निराशा होने, या विफलता, रुकावटें आने या शर्मिंदगी होते ही तुम फौरन यह मानने लगते हो कि यह तुम्हारे खराब भाग्य और बदकिस्मती के कारण है। इसलिए, तुम बार-बार खुद को याद दिलाते हो, कि तुम एक खराब भाग्य वाले व्यक्ति हो, दूसरे लोगों की तरह तुम्हारा भाग्य अच्छा नहीं है, और तुम बार-बार खुद को हताशा में डुबो लेते हो, हताशा की नकारात्मक भावना से घिरकर बँध जाते हो और उसी में फँसे रहते हो, और उसमें से बाहर नहीं निकल पाते। ऐसा होना बहुत डरावनी और खतरनाक बात है। हालाँकि हताशा की इस भावना से शायद तुम अधिक अहंकारी और कपटी न बनो, या तुम धूर्तता या हठ या ऐसे ही अन्य भ्रष्ट स्वभाव न दिखाओ; यह शायद इस स्तर तक न पहुँचे कि तुम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर परमेश्वर की अवज्ञा करो, या तुम भ्रष्ट स्वभाव दिखाकर सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन करो, या तुम बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा करो, या बुरे काम करो, फिर भी सार के संदर्भ में, हताशा की यह भावना लोगों के वास्तविकता के प्रति असंतोष की अत्यंत गंभीर अभिव्यक्ति है। सार रूप में, वास्तविकता के प्रति असंतोष की यह अभिव्यक्ति परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति भी असंतोष है। और परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति असंतोष के क्या परिणाम होते हैं? वे निश्चित रूप से बहुत गंभीर हैं, और ये कम-से-कम तुमसे परमेश्वर के विरुद्ध विद्रोह और उसकी अवज्ञा करवायेंगे, और तुम्हें इस ओर आगे बढ़ाएँगे कि तुम परमेश्वर के कथनों और पोषण को स्वीकार करने में असमर्थ हो जाओ, और उसकी शिक्षाओं, आग्रहों, अनुस्मारकों, चेतावनियों को सुनने में असमर्थ हो जाओ। चूँकि तुम हताशा की भावना से भरे हुए हो, इसलिए तुम परमेश्वर के मौजूदा कथनों को स्वीकार करने में असमर्थ हो, और तुम्हारे पास परमेश्वर के यथार्थवादी कार्य, और पवित्र आत्मा की प्रबुद्धता, मार्गदर्शन, मदद, समर्थन और पोषण को स्वीकार करने का कोई रास्ता नहीं है। हालाँकि परमेश्वर कार्यरत है, लेकिन तुम उसे महसूस करने में असमर्थ हो; हालाँकि परमेश्वर और पवित्र आत्मा कार्यरत हैं, तुम उसे स्वीकार करने में असमर्थ हो। तुम परमेश्वर से इन सकारात्मक चीजों, अपेक्षाओं और पोषण को स्वीकार नहीं कर सकते, तुम्हारा दिल और कुछ नहीं, बस हताशा की इस भावना से भरा हुआ है, और परमेश्वर के किसी भी कार्य का तुम पर असर नहीं होता। अंत में, तुम परमेश्वर के कार्य के हर कदम से चूक जाओगे, उसके कथनों के प्रत्येक चरण से चूक जाओगे, परमेश्वर के कार्य के हर चरण और तुम्हारे लिए उसके पोषण से भी वंचित रह जाओगे। जब परमेश्वर के कथन और उसके कार्य के सभी कदम पूरे हो चुके होंगे, तो भी तुम अपनी हताशा की भावना को दूर नहीं कर पाओगे, तुम उसे पीछे नहीं छोड़ पाओगे, तुम हताशा की भावना से घिरे रहोगे, उससे भरे रहोगे, और फिर तुम पूरी तरह से परमेश्वर के कार्य से चूक गए होगे। एक बार जब तुम पूरी तरह से परमेश्वर के कार्य से चूक जाओगे, तो आखिरकार तुम्हें मानवजाति के लिए उसके खुले न्याय और निंदा का सामना करना पड़ेगा, और वही समय होगा जब परमेश्वर मानवजाति के अंत की घोषणा करेगा। तभी तुम्हें एहसास होगा, “ओह, मुझे आत्मचिंतन करना चाहिए, मुझे हताशा की इस भावना को पीछे छोड़ देना चाहिए, परमेश्वर के वचनों को ज्यादा पढ़ना चाहिए, परमेश्वर के समक्ष आकर उसकी मदद और समर्थन, उसका पोषण, उसकी ताड़ना और न्याय स्वीकार करने का तरीका खोजना और शुद्ध होना चाहिए, ताकि मैं उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर सकूँ।” बहुत देर हो चुकी है! यह सब अब तुम पीछे छोड़ आए हो। अब जागने में बहुत देर हो चुकी है, और तुम्हारी प्रतीक्षा में क्या है? तुम अपनी छाती पीटकर रोओगे, और खेद से भर जाओगे। भले ही हताशा बस एक प्रकार की भावना है, मगर इसकी प्रकृति और इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं, इसलिए तुम्हें सावधानी से अपनी जाँच करनी चाहिए, और हताशा की इस भावना को खुद पर हावी नहीं होने देना चाहिए, या इन्हें अपने विचारों और अनुसरण के लक्ष्यों को नियंत्रित नहीं करने देना चाहिए। तुम्हें इसे दूर करना होगा, सत्य के अनुसरण के तुम्हारे मार्ग का रोड़ा नहीं बनने देना होगा, और परमेश्वर के समक्ष आने से तुम्हें रोकनेवाली दीवार नहीं बनने देना होगा। यदि तुम साफ तौर पर इससे अवगत हो जाते हो, या आत्म-परीक्षा से तुम हताशा की इस गंभीर भावना को देखते हो, तो तुम्हें फौरन रास्ता बदल देना चाहिए, इस भावना को त्याग देना चाहिए, और हताशा की इस भावना को पीछे छोड़ देना चाहिए। तुम्हें अड़ियल ढंग से यह सोचकर जिद के साथ अपने रास्ते में अड़े नहीं रहना चाहिए, “परमेश्वर चाहे कुछ भी कहे या करे, मुझे मालूम है कि मेरा भाग्य खराब है। जब भाग्य ही खराब है, तो मुझे अवसादित महसूस करना चाहिए। खराब भाग्य के साथ मुझे बस उसे स्वीकार कर लेना चाहिए और पूरी आशा छोड़ देनी चाहिए।” जो कुछ भी होता है उसका ऐसे नकारात्मक रवैये के साथ सामना करना, एकनिष्ठा से अड़ियल होना है। जब तुम्हें एहसास होता है कि तुम में हताशा की यह भावना है, तो तुम्हें खुद को पूरी तरह बदलकर जल्द-से-जल्द इसे दूर करना चाहिए। यह तुम्हें पूरी तरह नियंत्रित कर ले, तब तक प्रतीक्षा मत करो, क्योंकि तब जागोगे तो बहुत देर हो चुकी होगी।
बोलो, क्या भाग्य पर विश्वास करना सत्य के अनुसरण की अभिव्यक्ति है? (नहीं, यह नहीं है।) तो भाग्य के प्रति अपने दृष्टिकोण में लोगों को कौन-सा सही रवैया अपनाना चाहिए? (उन्हें परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं में विश्वास रखना चाहिए और उनके प्रति समर्पित होना चाहिए।) सही बात है। अगर कोई हमेशा इस बात पर ध्यान दे कि उसका भाग्य अच्छा है या खराब, तो इससे कौन-सी समस्या हल होगी? यह मान लेना कि उसका भाग्य खराब है लेकिन यह विश्वास करना कि उसके खराब भाग्य को परमेश्वर ने आयोजित और व्यवस्थित किया है, और फिर परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पित होने के लिए तैयार होना—यह दृष्टिकोण सही है या नहीं? (नहीं, यह गलत है।) यह गलत कैसे है? (क्योंकि इस दृष्टिकोण में उसके भाग्य के अच्छे या खराब होने की व्याख्या निहित है।) क्या यह एक नियम है? यहाँ वह कौन-सा सत्य है जो लोगों को समझना चाहिए? (भाग्य को अच्छा या खराब नहीं कहा जा सकता। परमेश्वर द्वारा तय की गई हर चीज अच्छी है, और लोगों को परमेश्वर के सभी आयोजनों के प्रति समर्पित होना चाहिए।) लोगों को विश्वास करना चाहिए कि भाग्य को परमेश्वर ही आयोजित और व्यवस्थित करता है, और चूँकि इसे परमेश्वर ही आयोजित और व्यवस्थित करता है, इसलिए वे उसके अच्छे या खराब होने की बात नहीं कर सकते। यह अच्छा है या खराब, इसका फैसला लोगों के नजरियों, राय, झुकावों, और भावनाओं के आधार पर होता है, और यह फैसला उनकी कल्पनाओं और विचारों पर आधारित होता है, और यह सत्य के अनुरूप नहीं होता। कुछ लोग कहते हैं, “मेरा भाग्य अद्भुत है, मैं विश्वासियों के परिवार में पैदा हुआ था। मैं कभी भी गैर-विश्वासियों संसार के माहौल से प्रभावित नहीं हुआ, और कभी भी गैर-विश्वासियों की प्रवृत्तियों से प्रभावित, प्रलोभित या गुमराह नहीं हुआ। हालाँकि मुझमें भी भ्रष्ट स्वभाव हैं, पर मैं कलीसिया में बड़ा हुआ और कभी भी नहीं भटका। मेरा भाग्य इतना अच्छा है!” क्या उनकी बात सही है? (नहीं।) क्यों नहीं? (उनका विश्वासियों के परिवार में पैदा होना परमेश्वर द्वारा तय किया गया था, यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था थी। इसका उनके भाग्य के अच्छे या खराब होने से कोई लेना-देना नहीं है।) सही है, तुमने बिल्कुल सच्ची बात कही है। यह परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था थी। यह एक तरीका है जिसमें परमेश्वर मनुष्य के भाग्य की व्यवस्था कर उस पर संप्रभुता रखता है, और यह एक रूप है जो भाग्य ले सकता है—लोगों को इस मामले को इससे नहीं परखना चाहिए कि उनका भाग्य अच्छा है या खराब। कुछ लोग कहते हैं कि उनका भाग्य इसलिए अच्छा है क्योंकि वे एक ईसाई परिवार में जन्मे थे, तो तुम इसका खंडन कैसे करोगे? तुम कह सकते हो, “तुम एक ईसाई परिवार में पैदा हुए और मान लिया कि तुम्हारा भाग्य अच्छा है, यानी ईसाई परिवार में पैदा न होनेवाले हर व्यक्ति का भाग्य खराब होना चाहिए? क्या तुम कह रहे हो कि परमेश्वर ने इन सबके लिए जिस भाग्य की व्यवस्था की है वह खराब है?” क्या उनकी बात का ऐसे खंडन करना सही है? (जरूर है।) ऐसे खंडन करना सही है। उनका ऐसे खंडन करके तुम दिखा रहे हो कि उनके इस कथन का समर्थन नहीं किया जा सकता और यह सत्य के अनुरूप नहीं है कि ईसाई परिवारों में जन्मे लोगों का भाग्य अच्छा होता है। अब, क्या अच्छे और खराब भाग्य के बारे में तुम्हारी राय पहले से थोड़ी ज्यादा सही है? (हाँ।) भाग्य में विश्वास करने को लेकर लोगों को कौन-सा नजरिया अपनाना चाहिए जो सबसे सही, सबसे उपयुक्त, और सत्य के अनुरूप हो? अव्वल तो सांसारिक लोगों के नजरिए से तुम भाग्य के अच्छे या खराब होने का फैसला नहीं कर सकते। यही नहीं, तुम्हें मानना चाहिए कि मानवजाति के प्रत्येक सदस्य का भाग्य परमेश्वर के हाथों व्यवस्थित हुआ है। कुछ लोग पूछते हैं, “परमेश्वर के हाथों व्यवस्थित होने का अर्थ क्या यह है कि इसे परमेश्वर स्वयं व्यवस्थित करता है?” नहीं, यह अर्थ नहीं है। अनेक तरीकों, उपायों और माध्यमों से परमेश्वर मनुष्य के भाग्य की व्यवस्था करता है और आध्यात्मिक क्षेत्र में इसकी जटिल बारीकियाँ हैं, जिसके बारे में मैं यहाँ नहीं बोलूँगा। यह एक बहुत जटिल विषय है, मगर साधारणतः इन सबकी व्यवस्था सृजनकर्ता करता है। विविध किस्म के लोगों के लिए इनमें से कुछ व्यवस्थाएँ परमेश्वर स्वयं करता है, जबकि कुछ में परमेश्वर द्वारा तय अधिनियमों, प्रशासनिक आदेशों, सिद्धांतों और प्रणालियों के अनुसार विविध प्रकार के लोगों और लोगों के समूहों का वर्गीकरण शामिल होता है; आध्यात्मिक क्षेत्र में, परमेश्वर द्वारा तय श्रेणी और भाग्य के पथ के अनुसार लोगों के भाग्य व्यवस्थित और सूत्रबद्ध किए जाते हैं, और वे जन्म लेते हैं। यह एक बहुत विस्तृत विषय है, लेकिन साधारणतः परमेश्वर इन सबकी व्यवस्था कर उन पर अपनी संप्रभुता रखता है। परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं में उसकी संप्रभुता और व्यवस्थाओं के सिद्धांत, कानून और नियम होते हैं। यहाँ कुछ भी अच्छा या खराब नहीं होता, परमेश्वर के लिए बेशक यह कारण और प्रभाव से जुड़ी सहज बात है। लोग भाग्य के बारे में कैसा महसूस करते हैं, उसे लेकर उनकी भावनाएँ अच्छी या बुरी हो सकती हैं, हो सकता है ऐसे भाग्य हों जिनमें सब-कुछ आसानी से हो जाए, ऐसे भाग्य हों जिनके रास्तों में रोड़े भरे हों, ऐसे भाग्य हों जो कठिन हों, दुःख देते हों—भाग्य अच्छे या खराब नहीं होते। भाग्य के प्रति लोगों का रवैया कैसा होना चाहिए? तुम्हें सृष्टिकर्ता की व्यवस्थाओं का पालन करना चाहिए, सक्रियता और मेहनत से इन सब चीजों की व्यवस्था में सृष्टिकर्ता का प्रयोजन और अर्थ खोजना चाहिए, और सत्य की समझ हासिल करनी चाहिए, परमेश्वर द्वारा इस जीवन में तुम्हारे लिए व्यवस्थित बड़े-से-बड़े कार्यकलाप पूरे करने चाहिए, सृजित प्राणी के कर्तव्य, दायित्व और उत्तरदायित्व निभाने चाहिए, और अपने जीवन को तब तक और अधिक सार्थक और मूल्यवान बनाना चाहिए जब तक कि अंततः सृष्टिकर्ता खुश होकर तुम्हें याद न रखने लगे। बेशक, इससे भी अच्छा यह होगा कि तुम अपनी खोज और मेहनतकश प्रयासों से उद्धार प्राप्त करो—यह परिणाम सर्वोत्तम होगा। किसी भी हाल में, भाग्य के मामले में, सृजित मानवजाति को जो सबसे उपयुक्त रवैया अपनाना चाहिए, वह मनमाने फैसले और परिभाषा का नहीं है, या इससे निपटने के लिए अतिवादी विधियों के प्रयोग करने का नहीं है। बेशक लोगों को अपने भाग्य का प्रतिरोध करने, उसे चुनने या बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, बल्कि इसके बजाय उन्हें सकारात्मक ढंग से इसका सामना करने से पहले, अपने दिल से इसकी सराहना कर, खोजना, अधिक जानना और इसका पालन करना चाहिए। अंततः जीने के माहौल और जीवन में परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए तय यात्रा में, तुम्हें वह आचरण विधि खोजनी चाहिए जो परमेश्वर तुम्हें सिखाता है, वह मार्ग खोजना चाहिए जिसे अपनाने की परमेश्वर तुमसे अपेक्षा करता है, और इस प्रकार परमेश्वर द्वारा तुम्हारे लिए व्यवस्थित भाग्य का अनुभव करना चाहिए, और अंत में, तुम आशीष पाओगे। जब तुम सृष्टिकर्ता द्वारा इस तरह तुम्हारे लिए व्यवस्थित भाग्य का अनुभव करोगे, तब तुम जिसे समझ पाओगे वह सिर्फ दुख, विषाद, आँसू, पीड़ा, निराशा और विफलता ही नहीं, बल्कि अधिक अहम तौर पर तुम उल्लास, शांति और सुकून का अनुभव करोगे, और साथ ही प्रबुद्धता और सत्य की रोशनी का भी अनुभव करोगे, जो सृष्टिकर्ता तुम्हें प्रदान करता है। इसके अलावा, जब तुम जीवन के अपने मार्ग में खो जाओगे, जब निराशा और विफलता से तुम्हारा सामना होगा, और तुम्हें एक विकल्प चुनना होगा, तब तुम सृष्टिकर्ता के मार्गदर्शन का अनुभव करोगे, और अंत में, तुम अत्यंत सार्थक जीवन जीने के तरीके की समझ और अनुभव हासिल कर उसे सराह सकोगे। फिर अपने भाग्य को खराब मानने के कारण हताशा की भावना में डूबना तो दूर की बात रही, तुम कभी भी जीवन में दोबारा खोओगे नहीं, कभी भी निरंतर व्याकुलता की अवस्था में नहीं रहोगे, और बेशक कभी भी भाग्य खराब होने की शिकायत नहीं करोगे। यदि तुम ऐसा रवैया रखो और सृजनकर्ता द्वारा व्यवस्थित भाग्य का सामना करने के लिए इस तरीके का प्रयोग करो, तो केवल यह मामला नहीं होगा कि तुम्हारी मानवता और अधिक सामान्य हो जाएगी, तुम सामान्य मानवता वाले बन जाओगे और तुम्हारे पास चीजों को देखने के लिए सोच, नजरिए और सिद्धांत होंगे, जो सामान्य मानवता से संबंधित हैं-इससे भी अधिक, बेशक तुम जीवन के उस अर्थ के बारे में नजरिए और समझ पा लोगे, जो गैर-विश्वासियों के पास कभी नहीं होगा। गैर-विश्वासी हमेशा कहते हैं, “हम कहाँ से आते हैं? हम कहाँ जाते हैं? हम जीवित क्यों हैं?” हमेशा ऐसा कोई-न-कोई होता है जो यह सवाल पूछता है, और अंत में वे क्या जवाब देते हैं? उनके उत्तर प्रश्नचिह्नों में समाप्त होते हैं, उत्तर में नहीं। वे इन प्रश्नों के उत्तर क्यों नहीं ढूँढ़ पाते? हालाँकि कुछ बुद्धिमान लोग भाग्य में विश्वास करते हैं, पर वे नहीं जानते कि भाग्य के मामले से कैसे पेश आएँ, या उनके भाग्य में पैदा होनेवाली अनगिनत कठिनाइयों, निराशाओं, विफलताओं और अप्रसन्नता को कैसे झेलें; न ही वे यह जानते हैं कि उनके भाग्य में होनेवाली उन चीजों से कैसे पेश आएँ जो उन्हें उल्लास और खुशी देती हैं—वे नहीं जानते कि उन्हें कैसे सँभालें। एक क्षण वे कहते हैं कि उनका भाग्य अच्छा है, और दूसरे ही क्षण कहते हैं कि उनका भाग्य खराब है; एक क्षण वे कहते हैं कि उनका जीवन खुशहाल है, और दूसरे ही क्षण कहते हैं कि उनका जीवन अभागा है—वे उसी मुँह से दोनों बातें कहते हैं। वे खुश होने पर एक बात कहते हैं और अप्रसन्न होने पर दूसरी; वे चीजें आसानी से हो जाने पर एक बात कहते हैं और चीजें आसानी से न होने पर दूसरी; वे ही हैं जो खुद को अभागा बताते हैं, और वे ही अपने भाग्य को अच्छा भी कहते हैं। साफ तौर पर, वे बिना किसी स्पष्टता और समझ के जीते हैं। वे हमेशा धुंधलके में टटोलते रहते हैं, पशोपेश में जीते हैं, और उनके सामने कोई रास्ता नहीं है। इसलिए, इस बारे में लोगों के सामने स्पष्ट समझ के साथ स्पष्ट मार्ग होना चाहिए कि भाग्य के साथ सही ढंग से कैसे पेश आएँ, वे क्या करें, और जीवन में इस बड़े मसले का सामना कैसे करें। एक बार यह समस्या दूर हो जाए, तो भाग्य को लेकर लोगों के रवैये और नजरिए अपेक्षाकृत ज्यादा सही होने चाहिए, सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होने चाहिए, और फिर वे कभी भी इस विषय में अतिवादी नहीं होंगे।
मैंने अभी भाग्य के बारे में जिन कहावतों पर संगति की है, क्या वे सत्य के अनुरूप हैं? (जरूर हैं।) क्या तुम जानते हो कि सत्य के अनुरूप होनेवाली कहावतों के लक्षण क्या होते हैं? (इन्हें सुनने पर लोग ज्यादा स्पष्टता और ज्यादा आराम महसूस करते हैं।) (वे अधिक व्यावहारिक होते हैं और इनमें अभ्यास के मार्ग निहित होते हैं।) यह सही है, ये ज्यादा व्यावहारिक हैं; यह इस बात को रखने का अधिक सही तरीका है। इसका वर्णन करने के और भी अधिक सही तरीके हैं। अब आगे कौन बोलेगा? (ये लोगों की मौजूदा समस्याएँ हल कर सकती हैं।) यह उनकी व्यावहारिकता का प्रभाव है। ये व्यावहारिक होने के कारण समस्याएँ सुलझा सकती हैं। लोग भाग्य में विश्वास करते हैं, लेकिन उनके दिमाग हमेशा अच्छे भाग्य और खराब भाग्य के विचार में उलझे रहते हैं, तो बताओ भला, क्या वे अपने अंतरतम में मुक्त और स्वतंत्र हैं, या वे बंधे हुए हैं? (वे बंधे हुए हैं।) यदि तुम सत्य नहीं समझते, तो तुम निरंतर इस विचार से बंधे रहोगे। एक बार सत्य समझ लेने पर, यह महसूस करने के अलावा कि यह व्यावहारिक है और तुम्हारे पास आगे का रास्ता है, तुम और क्या महसूस करोगे? (मुक्त।) सही है, तुम स्वतंत्र और मुक्त महसूस करोगे। जब तुम्हारे सामने अभ्यास का मार्ग हो और अब तुम फँसे हुए नहीं हो, तब क्या तुम्हारी आत्मा मुक्त और स्वतंत्र नहीं होगी? वे विकृत और बेतुके विचार तुम्हारी सोच या तुम्हारे हाथ-पाँव को बाँध नहीं पाएँगे; तुम्हारे पास अनुसरण का मार्ग होगा, और तुम अब उन नजरियों से नियंत्रित नहीं रहोगे। एक बार मनुष्य के भाग्य पर परमेश्वर की संगति सुन लेने पर तुम स्वतंत्र और मुक्त महसूस करोगे, और कहोगे, “ओह, तो ऐसा है! वाह, पहले भाग्य के बारे में मेरी समझ कितनी विकृत और अतिवादी थी! अब मैं समझ गया हूँ और अब मैं भाग्य के अच्छे या खराब होने के भ्रामक विचार से परेशान नहीं होता। मुझे अब यह बात परेशान नहीं करती। यदि मैंने इसे नहीं समझा होता, तो मैं हमेशा सोचता रहता कि एक क्षण मेरा भाग्य अच्छा है और अचानक दूसरे ही क्षण खराब, और अंदाजा लगाता कि मेरा भाग्य अच्छा है या खराब! मैं इस बारे में निरंतर परेशान रहता।” एक बार तुम इस सत्य को समझ लो, तो तुम्हारे सामने अनुसरण का मार्ग होगा, इस विषय पर तुम्हारी राय सही होगी, और तुम्हारे पास अभ्यास का एक सही मार्ग होगा—इसका अर्थ है कि तुम स्वतंत्र और मुक्त हो। इसलिए, यह परखने के लिए कि क्या किसी व्यक्ति के शब्द सत्य सिद्धांतों के अनुरूप हैं, और क्या वे सत्य हैं, तुम्हें इस पर ध्यान देना चाहिए कि ये शब्द व्यावहारिक हैं या नहीं; साथ-ही-साथ, तुम्हें यह देखना होगा कि एक बार ये शब्द सुन लेने के बाद क्या तुम्हारी कठिनाइयाँ और समस्याएँ दूर हो गई हैं—अगर दूर हो गई हों, तो तुम स्वतंत्र और मुक्त महसूस करोगे, मानो एक भारी बोझ तुम पर से उतर गया है। इसलिए, हर बार जब तुम किसी सत्य सिद्धांत को समझ लेते हो, तो तुम कुछ संबंधित समस्याओं को दूर कर पाते हो और कुछ हद तक सत्य को अमल में ला पाते हो, और इससे तुम स्वतंत्र और मुक्त महसूस करोगे। क्या परिणाम यह नहीं होगा? (जरूर होगा।) क्या तुम अब समझ गए हो कि सत्य का ठीक क्या प्रभाव होता है? (हाँ।) सत्य का क्या प्रभाव हो सकता है? (यह लोगों की आत्मा को स्वतंत्र और मुक्त कर सकता है।) क्या सत्य का सिर्फ यही एकमात्र प्रभाव होता है? सिर्फ यही एकमात्र भावना पैदा होती है? (मुख्य रूप से यह लोगों के मन में चीजों के बारे में छुपे भ्रामक और अतिवादी नजरियों को दूर करता है। एक बार जब लोग चीजों को शुद्ध रूप में और सत्य के अनुरूप देखते हैं, तो उनकी आत्मा स्वतंत्र और मुक्त महसूस करती है, और वे अब शैतान से आनेवाली नकारात्मक चीजों से बंधे नहीं रहते या विचलित नहीं होते।) अपनी आत्मा में स्वतंत्र और मुक्त महसूस करने के अलावा, अहम चीज यह है कि यह तुम्हें एक निश्चित सत्य वास्तविकता में प्रवेश करने योग्य बना सकता है, ताकि तुम त्रुटिपूर्ण और विकृत सोच और नजरियों से बंधे न रहो और उनके बहकावे में न आओ। उनका स्थान सत्य का अभ्यास करने के सिद्धांत ले लेते हैं, और फिर तुम उस सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर सकते हो। मैं अब उन लोगों की अभिव्यक्तियों पर अपनी संगति समाप्त करूँगा, जो अपने भाग्य को खराब समझने के कारण हताशा महसूस करते हैं।
कुछ लोग हताश क्यों हो जाते हैं, इसका एक और कारण यह है कि हालाँकि उन्हें नहीं लगता कि उनका भाग्य खराब है, मगर उन्हें लगता है कि वे हमेशा दुर्भाग्यशाली रहते हैं, और उनके साथ कभी कुछ अच्छा नहीं होता, ठीक वैसे ही जैसे गैर-विश्वासी कहते हैं, “भाग्य का देवता हमेशा मुझसे रूठा रहता है।” हालाँकि उन्हें अपनी परिस्थितियाँ बहुत बुरी नहीं लगतीं, वे लंबे कद-काठी वाले, सुंदर, शिक्षित, प्रतिभाशाली और सक्षम कर्मचारी हैं, फिर भी वे सोचते रहते हैं कि भाग्य का देवता कभी उन पर मेहरबान क्यों नहीं होता। इससे वे हमेशा असंतुष्ट रहते हैं, और खुद को हमेशा अभागा मानते हैं। कॉलेज की प्रवेश-परीक्षाएँ देते ही उनके मन में कॉलेज जाने की आस भर जाती है, मगर परीक्षा का दिन आते ही उन्हें फ्लू हो जाता है, बुखार चढ़ जाता है। इससे वे परीक्षा सही ढंग से नहीं दे पाते, और दो-तीन अंकों से कॉलेज में दाखिला पाने से चूक जाते हैं। वे मन-ही-मन सोचते हैं : “मैं इतना अभागा कैसे हो सकता हूँ? पढ़ाई-लिखाई में अच्छा हूँ, आम तौर पर कड़ी मेहनत करता हूँ। सब दिनों में से सिर्फ कॉलेज की प्रवेश-परीक्षा के दिन ही बुखार क्यों आ गया? मेरी किस्मत ही खराब है। हे ईश्वर! मेरे जीवन की पहली बड़ी घटना में ही झटका लग गया। अब मैं क्या करूँ? उम्मीद है आगे आनेवाले दिनों में मेरा भाग्य बेहतर होगा।” लेकिन बाद में उनके जीवन में, हर तरह की कठिनाई और समस्या से उनका सामना होता है। मिसाल के तौर पर, कोई कंपनी नए कर्मचारियों की नियुक्ति कर रही है, और वे आवेदन की तैयारी कर ही रहे होते हैं, कि तभी पता चलता है कि तमाम खाली जगहें भर दी गई हैं और कंपनी को किसी और की जरूरत नहीं है। वे सोचते हैं, “मेरा भाग्य इतना खराब कैसे हो सकता है? जब भी कोई अच्छी चीज आती है, मेरे हाथ से क्यों निकल जाती है? कैसा बड़ा दुर्भाग्य है!” और जब वे कहीं काम शुरू करते हैं, तो पहले ही दिन, दूसरे लोग तरक्की पाकर प्रबंधक, उप प्रबंधक, विभाग प्रमुख बन जाते हैं। वे कितनी भी कड़ी मेहनत करें, कोई फायदा नहीं होता; तरक्की पाने के लिए उन्हें अगले मौके की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। उनके काम अच्छा करने और वरिष्ठों की उनके बारे में अच्छी राय होने से उन्हें लगता है कि अगली बार उन्हें तरक्की मिल जाएगी, लेकिन अंत में, उनके वरिष्ठ कहीं बाहर से किसी को प्रबंधक नियुक्त कर ले आते हैं, और वे फिर से मौका खो देते हैं। तब वे मन-ही-मन सोचते हैं, “अरे भाई! लगता है मेरा भाग्य सचमुच खराब है। कभी भी मेरा भाग्य अच्छा नहीं होता—भाग्य का देवता मुझसे रूठा ही रहता है।” बाद में, वे परमेश्वर में विश्वास रखने लगते हैं, और लेखन में रुचि होने के कारण उन्हें लेखन-आधारित कर्तव्य निभा सकने की उम्मीद होती है, मगर आखिर में वे परीक्षा में बढ़िया प्रदर्शन नहीं कर पाते और विफल हो जाते हैं। उन्हें लगता है, “आम तौर पर मैं बढ़िया लिखता हूँ, फिर मैं परीक्षा अच्छे से क्यों नहीं दे पाया? परमेश्वर ने मुझे प्रबुद्ध नहीं किया, मुझे रास्ता नहीं दिखाया! मैंने सोचा था कि लेखन-आधारित कर्तव्य निभाकर मैं परमेश्वर के वचनों को ज्यादा खा-पी सकूँगा, और सत्य को ज्यादा समझ सकूँगा। बहुत बुरी बात है कि मैं दुर्भाग्यशाली रहा। हालाँकि योजना अच्छी थी, मगर सफल नहीं हो पाई।” अंत में वे यह कहकर बहुत-से दूसरे कर्तव्यों में से कोई चुन लेते हैं, “मैं एक सुसमाचार टीम में शामिल होकर सुसमाचार फैलाऊँगा।” सुसमाचार टीम में शुरू में सब-कुछ ठीक चला, और उन्हें लगा कि इस बार उन्हें अपनी जगह मिल गई है, और वे अपने कौशल का अच्छा प्रयोग कर पाएँगे। उन्हें लगता है कि वे चतुर हैं, अपने काम में सक्षम हैं, और व्यावहारिक कार्य करने को तैयार हैं। प्रयास करके वे कुछ नतीजे भी हासिल कर लेते हैं, और पर्यवेक्षक बन जाते हैं। लेकिन वे कोई गलती करते हैं, और उनके अगुआ को पता चल जाता है। उनसे कहा जाता है कि उन्होंने जो भी किया वह सिद्धांतों के विरुद्ध है, और इससे कलीसिया के कार्य पर असर पड़ा है। उनकी टीम की काट-छाँट के बाद, कोई उनसे कहता है, “तुम्हारे आने से पहले हम बढ़िया काम कर रहे थे। फिर तुम आए और पहली बार हमारी काट-छाँट हुई।” वे सोचते हैं, “क्या यह भी मेरा दुर्भाग्य नहीं है?” कुछ समय बाद, सुसमाचार कार्य में परिवर्तन के कारण लोगों का फिर से आवंटन होता है, उन्हें पर्यवेक्षक पद से उतार कर टीम का एक आम सदस्य बना दिया जाता है, और सुसमाचार फैलाने के लिए उन्हें एक नए क्षेत्र में भेज दिया जाता है। वे सोचते हैं, “अरे नहीं, तरक्की पाने के बदले मैं नीचे जा रहा हूँ। मेरे वहाँ पहुँचने से पहले किसी का कार्यस्थल नहीं बदला गया था, तो मेरे आने के बाद इतना बड़ा बदलाव कैसे हो रहा है? अब चूँकि मुझे यहाँ भेज दिया गया है, मुझे अब कभी तरक्की पाने की कोई उम्मीद नहीं रही।” इस नए क्षेत्र में बहुत कम कलीसिया और थोड़े से कलीसियाई सदस्य हैं। काम शुरू करने में उन्हें दिक्कतें पेश आती हैं, और उन्हें कोई अनुभव नहीं है। उन्हें काम समझने में कुछ समय लगता है, भाषा की दिक्कतें भी होती हैं, तो फिर वे क्या कर सकते हैं? वे अपने कर्तव्य छोड़ना चाहते हैं, मगर हिम्मत नहीं करते; वे अपने कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना चाहते हैं, मगर यह बहुत मुश्किल और थकाऊ है, और वे सोचते हैं, “ओह, ऐसा इसलिए है क्योंकि मैं बहुत बदकिस्मत हूँ! मैं अपना भाग्य कैसे बदल सकता हूँ?” वे जिधर भी मुड़ते हैं सामने रुकावट होती है, उन्हें हमेशा लगता है कि उनका भाग्य खराब है, उनके हर काम में कोई न कोई चीज रुकावट डाल रही है, और उनका हर कदम मुश्किल है। कुछ नतीजे पाने और थोड़े आशान्वित होने के लिए उन्हें बहुत प्रयास करने पड़े, फिर उनके हालात बदल गए, उनकी उम्मीद काफूर हो गई, और उनके पास दोबारा शुरू करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा। वे यह सोचकर और अधिक हताश हो जाते हैं, “मेरे लिए थोड़े-से नतीजे हासिल करना और लोगों की स्वीकृति पाना इतना कठिन क्यों है? लोगों के एक समूह में मजबूती से पैर जमाना इतना मुश्किल क्यों है? ऐसा व्यक्ति बनना इतना मुश्किल क्यों है जिसे लोग स्वीकृत कर पसंद करें? हर चीज का अच्छे ढंग से और आसानी से होना इतना मुश्किल क्यों है? मेरे जीवन में इतनी सारी चीजें गलत क्यों हो जाती हैं? इतनी बाधाएँ क्यों हैं? अपने हर काम में मैं हमेशा ठोकर क्यों खाता हूँ?” खास तौर पर, कुछ लोग कहीं भी जाएँ, अपने कर्तव्य कभी भी अच्छे ढंग से नहीं निभाते, उनकी जगह हमेशा किसी और को दे दी जाती है और उन्हें हटा दिया जाता है। वे बहुत हताश हो जाते हैं और हमेशा यह सोचकर खुद को बदकिस्मत मानते हैं, “मैं एक तेज घोड़े जैसा हूँ, जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। जैसी कि कहावत है, ‘तेज घोड़े तो बहुत-से हैं, मगर उन्हें पहचानने वाले बहुत कम हैं।’ मैं एक तेज घोड़े जैसा हूँ जिसे लोग नहीं पहचानते। अंत में, मैं बस अभागा हूँ, कहीं भी जाऊँ, कुछ भी हासिल नहीं कर सकता या किसी भी क्षेत्र में अच्छा नहीं कर सकता। मैं कभी भी अपनी खूबियाँ अमल में नहीं ला सकता, उन्हें दिखा नहीं सकता, या जो चाहूँ वह नहीं पा सकता। ओह, मैं बेहद अभागा हूँ! यहाँ चल क्या रहा है?” उन्हें हमेशा लगता है कि उनका भाग्य खराब है, और वे हर दिन यह सोचकर व्याकुलता के भँवर में बिताते हैं, “अरे नहीं! कृपा करके फिर किसी दूसरे काम में मुझे मत लगाओ,” या “अरे नहीं! कृपा करके कुछ भी बुरा न होने दो,” या “अरे नहीं! कृपा करके कोई भी चीज बदलने न दो,” या “नहीं! कृपा करके कोई भी बड़ी समस्या न होने दो।” न सिर्फ वे हताश हो जाते हैं, बल्कि वे बहुत ज्यादा परेशान, अधीर, चिड़चिड़े और बेचैन भी हो जाते हैं। वे हमेशा सोचते हैं कि उनका भाग्य खराब है, इसलिए वे बहुत हताश महसूस करते हैं, और यह हताशा उनके बदकिस्मत होने की आत्मपरक भावना से पैदा होती है। वे हमेशा अभागा महसूस करते हैं, उनकी कभी तरक्की नहीं होती, वे कभी भी टीम अगुआ या पर्यवेक्षक नहीं बन सकते, और उन्हें कभी भी लोगों के बीच श्रेष्ठ होने का मौका नहीं मिलता। ऐसी अच्छी चीजें उनके साथ कभी नहीं होतीं, और वे समझ नहीं पाते कि आखिर ऐसा क्यों होता है। उन्हें लगता है, “मुझमें किसी तरह की कोई कमी नहीं है, तो जहाँ भी जाऊँ, कोई मुझे पसंद क्यों नहीं करता? मैंने किसी का अपमान नहीं किया, कभी किसी को तकलीफ नहीं देनी चाही, तो फिर मैं इतना अभागा क्यों हूँ?” हमेशा ऐसी भावनाओं से चिपके रहने के कारण हताशा की यह भावना उन्हें यह कह कर निरंतर याद दिलाती रहती है, “तुम अभागे हो, इसलिए सुस्त मत रहो, डींग मत हाँको, और हमेशा श्रेष्ठ दिखने की चाह मत रखो। तुम अभागे हो, इसलिए अगुआ बनने की सोचो भी नहीं। तुम अभागे हो, इसलिए तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय और अधिक सावधान होना चाहिए और खुद को थोड़ा रोककर रखना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि एक दिन तुम्हें उजागर कर बदल दिया जाए, या कहीं कोई पीठ पीछे तुम्हारी शिकायत कर दे, तुम्हें हानि पहुँचाने के लिए तुम्हारी कोई बात पकड़ ले, या कहीं तुम हमेशा आगे-आगे रहते हुए कोई गलती न कर दो और तुम्हारी काट-छाँट हो जाए। तुम भले ही अगुआ बन जाओ, फिर भी तुम्हें हर वक्त सतर्क और सावधान रहना होगा, मानो तुम तलवार की धार पर चल रहे हो। अहंकारी मत बनो, तुम्हें विनम्र होना चाहिए।” यह नकारात्मक भावना उन्हें हमेशा याद दिलाती रहती है कि विनम्र रहो, पूँछ दबाकर दबे पाँव इधर-उधर जाओ, और फिर कभी भी प्रतिष्ठा के साथ आचरण मत करो। यह विचार, सोच, नजरिया या जागरूकता कि उनका भाग्य खराब है, हमेशा याद दिलाते रहते हैं कि सकारात्मक या सक्रिय मत बनो, मुखर मत बनो, अपनी गर्दन आगे न करो। इसके बजाय, उन्हें हताश बने रहना चाहिए, दूसरों के सामने जीने की हिम्मत नहीं करनी चाहिए। भले ही सभी लोग उसी घर में रहें, उन्हें एक अँधेरे कोने में दुबके रहना चाहिए ताकि उन पर किसी का ध्यान न जाए। उन्हें बहुत अहंकारी नहीं दिखना चाहिए, क्योंकि जिस क्षण वे कोई अहंकार दिखाना शुरू करेंगे, उनका खराब भाग्य उन्हें ढूँढ़ लेगा। चूँकि हताशा की भावना उन्हें निरंतर घेरे रहती है और उनके अंतरतम में इन चीजों के बारे में हमेशा चेतावनी देती रहती है, वे अपने हर काम में दब्बू और सावधान होते हैं। वे अपने दिलों में हमेशा परेशान रहते हैं, उन्हें अपना उचित स्थान कभी नहीं मिलता, और वे अपनी जिम्मेदारियाँ और दायित्व पूरा करने में कभी अपना पूरा दिल, दिमाग और शक्ति नहीं लगा सकते। मानो वे किसी चीज से बच रहे हैं, और किसी चीज के होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे दुर्भाग्य के आने, और बुरी चीजों और अपने दुर्भाग्य से होनेवाली शर्मिंदगियों से बच रहे हैं। इसलिए, उनके अंतरतम में चल रहे संघर्षों के अलावा, हताशा की यह भावना उन विधियों और तरीकों पर ज्यादा हावी होती है, जिनसे वे लोगों और चीजों को देखते हैं, और आचरण और कार्य करते हैं। वे अच्छे भाग्य और खराब भाग्य का प्रयोग हमेशा अपने व्यवहार को और इसे मापने के लिए करते हैं कि जिन तरीकों से वे लोगों और चीजों को देखते या स्वयं आचरण और कार्य करते हैं, क्या वे सही हैं, और इसीलिए वे बार-बार हताशा की इस भावना में डूब जाते हैं, खुद को बाहर नहीं निकाल पाते, और वे तथाकथित “दुर्भाग्यपूर्ण” चीजों का सामना करने के लिए या जिसे वे भयानक भाग्य कहते हैं उसे संभालने या दूर करने के लिए सही सोच और नजरिए का प्रयोग नहीं कर पाते। ऐसे क्रूर चक्र में, वे हताशा की इस भावना से निरंतर नियंत्रित और प्रभावित होते रहते हैं। बहुत अधिक प्रयास करके वे दूसरों से अपनी दशा या अपने विचारों के बारे में दिल खोलकर संगति कर पाते हैं, लेकिन फिर सभाओं में, संगति में भाई-बहनों द्वारा बोली गई बातें जानबूझकर या अनजाने में उनकी दशा और मसले के सार को छू जाती हैं जिससे उन्हें लगता है कि उनके गौरव और उनकी प्रतिष्ठा पर आघात हुआ है। वे अब भी मानते हैं कि यह उनके दुर्भाग्य की अभिव्यक्ति है, और वे सोचते हैं, “देखा? मेरे लिए अपने मन की बात कहना कितना मुश्किल था, और जैसे ही मैंने बोला, किसी ने मेरी बात पकड़कर मुझे हानि पहुँचाने की कोशिश की। मैं बहुत बदकिस्मत हूँ!” वे मान लेते हैं कि कामकाज में यह उनका दुर्भाग्य है, और जब कोई व्यक्ति अभागा होता है तो हर चीज उसके विरुद्ध होती है।
खुद को हमेशा अभागा माननेवालों के साथ समस्या आखिर क्या है? उनके कार्य सही हैं या गलत यह मापने के लिए, और उन्हें किस मार्ग पर चलना चाहिए, किन चीजों का अनुभव करना चाहिए, और सामने आनेवाली समस्याओं के आकलन के लिए वे हमेशा भाग्य के मानक का प्रयोग करते हैं। यह सही है या गलत? (गलत।) वे बुरी चीजों को दुर्भाग्यपूर्ण और अच्छी चीजों को भाग्यशाली या फायदेमंद बताते हैं। यह नजरिया सही है या गलत? (गलत।) ऐसे नजरिए से चीजों को मापना गलत है। यह चीजों को मापने का एक अतिवादी और गलत तरीका और मानक है। ऐसा तरीका लोगों को अक्सर हताशा में डुबो देता है, यह अक्सर उन्हें परेशान कर देता है, और कभी कोई चीज उनके चाहे जैसे नहीं होती, और उन्हें कभी अपनी चाही हुई चीज नहीं मिलती, जिससे आखिरकार वे निरंतर बेचैन, चिड़चिड़े और परेशान रहने लगते हैं। जब ये नकारात्मक भावनाएँ दूर नहीं होतीं, तो ये लोग निरंतर हताशा में डूब जाते हैं, और उन्हें लगता है कि परमेश्वर उन पर कृपा नहीं करता। उन्हें लगता है कि परमेश्वर दूसरों से ज्यादा अनुग्रह से पेश आता है, उनसे नहीं, और परमेश्वर दूसरों की देखभाल करता है, उनकी नहीं। “हमेशा मैं ही क्यों परेशान और बेचैन रहता हूँ? हमेशा मेरे ही साथ बुरी चीजें क्यों होती हैं? अच्छी चीजें मेरे हाथ क्यों नहीं आतीं? मैं बस एक ही बार माँग रहा हूँ!” जब तुम चीजों को ऐसे गलत तरीके की सोच और नजरिए से देखोगे, तो अच्छे और खराब भाग्य के झाँसे में फँस जाओगे। जब तुम लगातार इस झाँसे में गिरते रहते हो, तो तुम निरंतर हताश महसूस करते हो। इस हताशा के बीच तुम खास तौर से इस बात को लेकर संवेदनशील रहते हो कि जो चीजें तुम्हारे साथ हो रही हैं वे भाग्यशाली हैं या दुर्भाग्यशाली। ऐसा होने पर, यह साबित हो जाता है कि अच्छे और खराब भाग्य के इस नजरिए और विचार ने तुम्हें नियंत्रण में ले लिया है। जब तुम ऐसे नजरिए से नियंत्रित होते हो, तो लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति तुम्हारे विचार और रवैये सामान्य मानवता के जमीर और विवेक के दायरे में नहीं रह जाते, बल्कि एक प्रकार की अति में डूब चुके होते हैं। जब तुम ऐसी अति में डूब जाओगे, तो फिर अपने हताशा में से निकल नहीं पाओगे। तुम बार-बार फिर से हताश होते रहोगे, और भले ही तुम आम तौर पर हताश महसूस न करो, मगर जैसे ही कुछ गलत होगा, जैसे ही तुम्हें लगेगा कि कुछ दुर्भाग्यपूर्ण हो गया है, तुम तुरंत हताशा में डूब जाओगे। यह हताशा तुम्हारी सामान्य परख और निर्णय-क्षमता और तुम्हारी खुशी, क्रोध, दुख और उल्लास को भी प्रभावित करेगा। जब यह तुम्हारी खुशी, क्रोध, दुख और उल्लास को प्रभावित करता है, तो यह तुम्हारे कर्तव्य-निर्वाह और साथ ही परमेश्वर का अनुसरण करने के तुम्हारे संकल्प और आकांक्षा को भी बाधित और नष्ट करता है। जब ये सकारात्मक चीजें नष्ट हो जाती हैं, तो जो थोड़े-से सत्य तुमने समझे हैं, उन्हें तुम भूल जाते हो और तुम्हारे लिए ये जरा भी उपयोगी नहीं रह जाते। इसीलिए, इस क्रूर चक्र में फँसने पर, जिन थोड़े-से सत्य सिद्धांतों को तुम समझते हो, उन्हें अमल में लाना तुम्हारे लिए मुश्किल होता है। सिर्फ यह महसूस करने पर ही कि तुम्हारा भाग्य तुम्हारे साथ है, और जब तुम हताशा से दबे नहीं होते, तभी तुम अनिच्छा से थोड़ी-सी कीमत चुका सकते हो, थोड़ी कठिनाई सह सकते हो, और तुम जो कार्य करने को तैयार हो, उन्हें करते समय थोड़ी-सी ईमानदारी दिखा सकते हो। जैसे ही तुम महसूस करते हो कि भाग्य ने तुम्हारा साथ छोड़ दिया है, और तुम्हारे साथ फिर से दुर्भाग्यपूर्ण चीजें हो रही हैं, वैसे ही तुम्हारी हताशा तुम्हें फिर से जल्द काबू में कर लेती है और तुम्हारी ईमानदारी, निष्ठा और कठिनाइयाँ सहने की इच्छा तुम्हें फौरन छोड़ देती है। इसलिए, जो लोग खुद को अभागा मानते हैं, या जो लोग भाग्य को बड़ी गंभीरता से लेते हैं, वे उन लोगों जैसे हैं जिन्हें लगता है कि उनका भाग्य खराब है। उनकी भावनाएँ अक्सर अत्यंत तीव्र होती हैं—खास तौर पर वे हताशा जैसी नकारात्मक भावनाओं में बार-बार डूब जाते हैं। वे खास तौर पर निराश और कमजोर होते हैं, और उनकी मनःस्थितियाँ भी एकाएक बदल सकती हैं। भाग्यशाली महसूस करने पर, वे उल्लास से भर जाते हैं, स्फूर्तिवान हो जाते हैं, कठिनाइयाँ झेल सकते हैं और कीमत चुका सकते हैं; रात में कम सो सकते हैं, दिन में कम खाना खा सकते हैं, वे कोई भी कठिनाई झेलने को तैयार रहते हैं, और क्षणिक तौर पर जोश में आने पर, वे खुशी-खुशी अपने प्राण भी दे सकते हैं। लेकिन, जिस क्षण वे महसूस करते हैं कि हाल में वे दुर्भाग्यशाली थे, उनके साथ कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा था, तो हताशा की भावना उनके दिल पर फौरन कब्जा कर लेती है। उनके द्वारा पहले लिए हुए शपथ और संकल्प नकार दिए जाते हैं; वे अचानक एक पिचकी हुई गेंद जैसे हो जाते हैं और कोई जोश नहीं जुटा पाते, या लुंजपुंज हो जाते हैं, कुछ भी करने या कहने को तैयार नहीं होते। उन्हें लगता है, “सत्य सिद्धांत, सत्य का अनुसरण करना, उद्धार प्राप्त करना, परमेश्वर को समर्पित होना—इन सबका मुझसे कोई लेना-देना नहीं है। मैं अभागा हूँ, कितने भी सत्य का अभ्यास करूँ या कितनी भी कीमत चुकाऊँ, मैं कभी उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। मेरा काम तमाम हो चुका है। मैं एक अशुभ टोटका हूँ, एक अभागा व्यक्ति। जाने दो, किसी भी हाल में मैं दुर्भाग्यशाली ही हूँ!” देखा, एक क्षण वे हवा से भरी हुई गेंद जैसे हैं, जो फटने ही वाली है, और अगले ही क्षण वे पिचक जाते हैं। क्या यह कष्टप्रद नहीं है? यह कष्ट कैसे आता है? इसका मूल कारण क्या है? वे हमेशा अपने भाग्य को ताकते रहते हैं मानो वे शेयर बाजार को देख रहे हों कि यह ऊपर जा रहा है या नीचे, तेजी का बाजार है या मंदी का। वे हमेशा तंत्रिका विकार से ग्रस्त होते हैं, अपने भाग्य को लेकर बेहद संवेदनशील, और बेहद जिद्दी। ऐसा अतिवादी व्यक्ति अक्सर हताशा की भावना में फँसा रहता है, क्योंकि वह अपने भाग्य की बड़ी परवाह करता है और अपनी मनःस्थितियों के आधार पर जीता है। सुबह उठने पर अगर ऐसे लोगों की मनःस्थिति खराब हो, तो वे सोचते हैं, “बाप रे! शर्त लगी, आज का दिन भाग्यशाली नहीं होगा। कई दिनों से मेरी बाईं आँख फड़क रही है, जीभ सख्त लग रही है, और दिमाग सुस्त है। खाना खाते समय मैंने अपनी जीभ काट ली, कल रात नींद में मुझे अच्छा सपना नहीं आया।” या वे सोचते हैं, “आज सबसे पहले जो शब्द मैंने सुने, वे अपशकुन-से लगते हैं।” वे निरंतर कुछ गड़बड़ होने की आशंका करते हैं, ऐसी बकवास पर बोलते ही जाते हैं, और ऐसी चीजों का अध्ययन करते रहते हैं। वे हर दिन और हर अवधि में, अपने भाग्य, दिशा, और मनःस्थिति के बारे में बेहद चिंतित रहते हैं। वे कलीसिया में भाई-बहनों की उनके प्रति दृष्टि, रवैये और वाणी के लहजे का भी निरीक्षण करते हैं। उनके दिलों में ये चीजें भरी हुई हैं, जिससे वे निरंतर हताश रहते हैं। उन्हें मालूम है कि वे अच्छी दशा में नहीं हैं, फिर भी वे परमेश्वर से प्रार्थना नहीं करते, न ही अपनी दशा ठीक करने के लिए सत्य खोजते हैं, और वे चाहे जैसे भ्रष्ट स्वभाव प्रदर्शित करें, उन पर कोई ध्यान नहीं देते या उन्हें गंभीरता से नहीं लेते। क्या यह एक समस्या नहीं है? (जरूर है।)
ये लोग, जो हमेशा चिंतित रहते हैं कि उनका भाग्य अच्छा है या खराब—चीजों के बारे में क्या उनका नजरिया सही है? क्या अच्छे भाग्य या खराब भाग्य का अस्तित्व है? (नहीं।) यह कहने का क्या आधार है कि इनका अस्तित्व नहीं है? (हर दिन हम जिन लोगों से मिलते हैं और जो चीजें हमारे साथ घटती हैं, वे परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं द्वारा तय किए जाते हैं। अच्छा भाग्य या खराब भाग्य जैसी कोई चीज है ही नहीं; हर चीज जरूरत पड़ने पर होती है और उसके पीछे एक अर्थ होता है।) क्या यह सही है? (बिल्कुल।) यह नजरिया सही है, और यही यह कहने का सैद्धांतिक आधार है कि भाग्य का अस्तित्व नहीं है। तुम्हारे साथ चाहे जो हो, अच्छा या बुरा, सब-कुछ सामान्य है, ठीक चार ऋतुओं के मौसम की तरह—प्रत्येक दिन धूपवाला नहीं हो सकता। तुम नहीं कह सकते कि परमेश्वर धूपवाले दिनों की व्यवस्था करता है, और बादलवाले दिनों, वर्षा, हवा और तूफान की व्यवस्था नहीं करता। सभी चीजें परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्थाओं द्वारा तय होती हैं, और प्राकृतिक पर्यावरण द्वारा उत्पन्न की जाती हैं। यह प्राकृतिक पर्यावरण परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित और स्थापित विधियों और नियमों के अनुसार पैदा होता है। ये सब जरूरी और अनिवार्य हैं, इसलिए मौसम चाहे जैसा भी हो, यह प्राकृतिक नियमों से उत्पन्न होता है। इसमें कुछ भी अच्छा या खराब नहीं है—इस बारे में सिर्फ लोगों की भावनाएँ अच्छी या खराब होती हैं। वर्षा होने, तेज हवा चलने, बादल छाने या ओले पड़ने पर लोगों को अच्छा नहीं लगता। खास तौर पर लोगों को तब अच्छा नहीं लगता जब वर्षा हो रही हो और सब-कुछ गीला हो; उनके जोड़ों में दर्द होता है, और वे कमजोर महसूस करते हैं। तुम्हें बारिश के दिन बुरे लग सकते हैं, लेकिन क्या तुम कह सकते हो कि बारिश के दिन अशुभ हैं? यह सिर्फ एक भावना है जो मौसम लोगों के मन में जगाता है—बारिश होने का भाग्य से कोई लेना-देना नहीं है। तुम कह सकते हो कि धूपवाले दिन अच्छे होते हैं। अगर तीन महीने तक धूप खिली हो, पानी की एक बूँद भी न गिरे, तो लोगों को अच्छा लगता है। वे हर दिन सूर्य को देख सकते हैं, दिन सूखा और गर्म है, कभी-कभार धीमी बयार चलती है, वे जब चाहें बाहर जा सकते हैं। लेकिन पौधे इसे नहीं सह सकते, और फसलें सूखे के कारण मर जाती हैं, इसलिए उस वर्ष फसल नहीं कटती। तो क्या तुम्हें अच्छा लगने का अर्थ यह है कि यह सचमुच अच्छा है? शरद ऋतु आने पर, जब तुम्हारे पास खाने को कुछ नहीं होगा, तो तुम कहोगे, “अरे यार, बहुत सारे धूपवाले दिन हों, तो भी अच्छा नहीं है। बारिश न हो तो फसलें चौपट हो जाती हैं, कटाई के लिए कोई फसल नहीं होती, और लोग भूखे रह जाते हैं।” तब तुम्हें एहसास होता है कि लगातार धूपवाले दिन भी अच्छे नहीं होते। तथ्य यह है कि कोई व्यक्ति किसी चीज के बारे में अच्छा महसूस करता है या बुरा, यह उस चीज के सार के बजाय, उसकी अपनी स्वार्थी मंशाओं, आकांक्षाओं और आत्म-हित पर आधारित होता है। इसलिए जिस आधार पर लोग अनुमान लगाते हैं कि कोई चीज अच्छी है या बुरी, वह गलत है। आधार गलत होने के कारण जो अंतिम निष्कर्ष वे निकालते हैं, वे भी गलत होते हैं। अच्छे भाग्य और खराब भाग्य के विषय पर वापस लौटें, तो अब सब जानते हैं कि भाग्य के बारे में यह कहावत निराधार है, और यह न अच्छा होता है न खराब। जिन भी लोगों, घटनाओं और चीजों से तुम्हारा सामना होता है, वे चाहे अच्छे हों या बुरे, सभी परमेश्वर की संप्रभुता और व्यवस्था द्वारा तय किए जाते हैं, इसलिए तुम्हें उचित ढंग से उनका सामना करना चाहिए। परमेश्वर से वह स्वीकार करो जो अच्छा है, और जो कुछ बुरा है, उसे भी परमेश्वर से स्वीकार करो। जब कुछ अच्छा घटे, तो मत कहो कि तुम भाग्यशाली हो, और बुरा घटे तो खुद को अभागा मत कहो। यही कहा जा सकता है कि इन सभी चीजों में लोगों के लिए सीखने के सबक होते हैं, और उन लोगों को इन्हें ठुकराना या इनसे बचना नहीं चाहिए। अच्छी चीजों के लिए परमेश्वर का धन्यवाद करो, साथ ही बुरी चीजों के लिए भी उसका धन्यवाद करो, क्योंकि इन सभी चीजों की व्यवस्था उसी ने की है। अच्छे लोग, घटनाएँ, चीजें और परिवेश सबक देते हैं जो उन्हें सीखने चाहिए, मगर बुरे लोगों, घटनाओं, चीजों और परिवेशों से और भी ज्यादा सीखने को मिलता है। ये सभी वो अनुभव और कड़ियाँ हैं जो किसी के जीवन का भाग होनी चाहिए। इन्हें मापने के लिए लोगों को भाग्य के विचार का प्रयोग नहीं करना चाहिए। तो, चीजें अच्छी हैं या बुरी, यह मापने के लिए भाग्य का प्रयोग करनेवाले लोगों की सोच और नजरिए क्या होते हैं? ऐसे लोगों का सार क्या होता है? वे अच्छे भाग्य और खराब भाग्य पर इतना अधिक ध्यान क्यों देते हैं? भाग्य पर अत्यधिक ध्यान देनेवाले लोग क्या आशा करते हैं कि उनका भाग्य अच्छा हो या खराब? (वे आशा करते हैं कि यह अच्छा हो।) सही कहा। दरअसल, वे प्रयास करते हैं कि उनका भाग्य अच्छा हो और उनके साथ अच्छी चीजें हों, और वे बस उनका लाभ उठाकर उनसे फायदा कमाते हैं। वे परवाह नहीं करते कि दूसरे कितने कष्ट सहते हैं, या दूसरों को कितनी मुश्किलें या कठिनाइयाँ सहनी पड़ती हैं। वे नहीं चाहते कि ऐसी कोई चीज उनके साथ हो, जिसे वे अशुभ समझते हैं। दूसरे शब्दों में, वे नहीं चाहते कि उनके साथ कुछ बुरा घटे : कोई रुकावट, कोई विफलता या शर्मिंदगी नहीं, काट-छाँट नहीं, चीजें खोना या हारना नहीं, और कोई धोखा न खाना। ऐसा कुछ भी हुआ, तो उसे खराब भाग्य के रूप में लेते हैं। अगर बुरी चीजें होती हैं, तो व्यवस्था चाहे जो भी करे, वे अशुभ ही हैं। वे आशा करते हैं कि तमाम अच्छी चीजें—पदोन्नति, सबमें श्रेष्ठ होना, दूसरों के खर्चे पर लाभ उठाना, किसी चीज से फायदा लेना, ढेरों पैसे बनाना, या कोई उच्च अधिकारी बनना—उन्हीं के साथ हों, और उन्हें लगता है कि यह अच्छा भाग्य है। वे भाग्य के आधार पर ही उन लोगों, घटनाओं और चीजों को मापते हैं, जिनसे उनका सामना होता है। वे अच्छे भाग्य का पीछा करते हैं, दुर्भाग्य का नहीं। जैसे ही कोई छोटी-से-छोटी चीज गलत हो जाती है, वे नाराज हो जाते हैं, तुनक जाते हैं और असंतुष्ट हो जाते हैं। दो टूक कहें, तो इस तरह के लोग स्वार्थी होते हैं। वे दूसरे लोगों के खर्चे पर खुद फायदा उठाने, अपना फायदा करने, सबसे ऊपर आकर सबसे अलग दिखने का प्रयास करते हैं। यदि प्रत्येक अच्छी चीज सिर्फ उन्हीं के साथ हो तो वे संतुष्ट हो जाते हैं। यही उनका प्रकृति सार है; यही उनका असली चेहरा है।
हर किसी को जीवन में कई बाधाओं और नाकामयाबियों से गुजरना पड़ता है। भला ऐसा कौन होगा जिसके जीवन में संतोष के सिवाय और कुछ न हो? ऐसा कौन होगा जिसने कभी किसी नाकामयाबी या झटके का अनुभव न किया हो? कभी-कभार जब चीजें सही न हों, या तुम झटकों और नाकामयाबियों का सामना करो, तो यह दुर्भाग्य नहीं है, इसका अनुभव तो तुम्हें होना ही चाहिए। यह खाना खाने जैसा है—तुम्हें खट्टा, मीठा, कड़वा, मसालेदार सब एक-समान खाना चाहिए। लोग नमक के बिना नहीं रह सकते, उन्हें थोड़ा नमकीन तो खाना ही पड़ता है, लेकिन अगर तुम बहुत ज्यादा नमक खाओगे, तो इससे तुम्हारे गुर्दों को नुकसान होगा। कुछ ऋतुओं में तुम्हें खट्टी चीजें खानी चाहिए, लेकिन ज्यादा खाना ठीक नहीं, क्योंकि खट्टा तुम्हारे दाँतों और पेट के लिए अच्छा नहीं होता। हर चीज संयम और संतुलन से खानी चाहिए। खट्टी, नमकीन और मीठी चीजें खाओ, साथ ही तुम्हें थोड़ी कड़वी चीजें भी खानी चाहिए। कुछ अंदरूनी अंगों के लिए कड़वी चीजें अच्छी होती हैं, इसलिए ये चीजें भी थोड़ी खानी चाहिए। इंसान का जीवन भी ऐसा ही है। जीवन के हर चरण में ज्यादातर जिन लोगों, घटनाओं और चीजों से तुम्हारा सामना होता है, वे तुम्हारी पसंद के नहीं होंगे। ऐसा क्यों है? इसलिए कि लोग अलग-अलग चीजों का अनुसरण करते हैं। अगर तुम शोहरत, लाभ, रुतबे और दौलत के पीछे भागते हो और दूसरों से बेहतर होकर बड़ी कामयाबी हासिल करना चाहते हो, वगैरह-वगैरह, तो 99 प्रतिशत चीजें तुम्हारी पसंद की नहीं होंगी। ठीक वैसे ही जैसे कि लोग कहते हैं : ये सब दुर्भाग्य और बदकिस्मती है। लेकिन अगर तुम यह ख्याल छोड़ दो कि तुम कितने खुशकिस्मत या बदकिस्मत हो, और इन चीजों से शांत और सही तरीके से पेश आओ, तो तुम्हें पता चलेगा कि ज्यादातर चीजें उतनी प्रतिकूल नहीं हैं या उनसे निपटना उतना मुश्किल नहीं है। जब तुम अपनी महत्वाकांक्षाओं और आकांक्षाओं को जाने देते हो, जो भी दुर्भाग्यपूर्ण घटना तुम्हारे साथ हो, उसे ठुकराना या उससे बचना बंद कर देते हो, और इन चीजों को तुम इस तराजू पर तोलना छोड़ देते हो कि तुम कितने खुशनसीब या बदनसीब हो, तो वे ज्यादातर चीजें जिन्हें तुम दुर्भाग्यपूर्ण और बुरी माना करते थे, वे अब तुम्हें अच्छी लगने लगेंगी—बुरी चीजें अच्छी में तब्दील हो जाएँगी। तुम्हारी मानसिकता बदल जाएगी, चीजों को देखने का तुम्हारा तरीका बदल जाएगा, इससे तुम अपने जीवन अनुभवों के बारे में अलग महसूस कर पाओगे और साथ-साथ तुम्हें मिलने वाले लाभ भी अलग होंगे। यह एक असाधारण अनुभव है, जो तुम्हें ऐसे लाभ पहुँचाएगा जिनकी तुमने कल्पना भी नहीं की थी। यह अच्छी बात है, बुरी नहीं। मिसाल के तौर पर, कुछ लोग हमेशा प्रशंसा पाते हैं, हमेशा तरक्की पाते हैं, हमेशा सराहना और बढ़ावा पाते हैं, उन्हें अक्सर भाई-बहनों की स्वीकृति मिलती है, और सारे लोग उन्हें ईर्ष्या से देखते हैं। क्या यह अच्छी बात है? ज्यादातर लोग सोचते हैं कि ये चीजें इसलिए होती हैं क्योंकि भाग्य इन लोगों के साथ है। वे कहते हैं : “देखो, उस शख्स में अच्छी काबिलियत है, वह सौभाग्यशाली पैदा हुआ था, उसने अपने जीवन में काफी कुछ किया है—उसे अच्छे मौके मिलते हैं, तरक्की मिलती है। वह सच में बहुत सौभाग्यशाली है!” वे उससे बहुत जलते हैं। फिर भी, अंत में, उस व्यक्ति को कुछ ही वर्षों के भीतर बरखास्त कर दिया जाता है, वह एक साधारण विश्वासी बन जाता है। इसे लेकर वह रोता-बिलखता है, फाँसी लगा लेने की कोशिश करता है, और कुछ ही दिनों में निकाल दिया जाता है। क्या यह सौभाग्य है? अगर तुम इस पर उस तरह से गौर करो, तो वह बेहद बदकिस्मत है। लेकिन क्या यह वास्तव में बदकिस्मती का मामला है? (नहीं।) दरअसल, ऐसा नहीं है कि उसकी किस्मत खराब है, बात यह है कि उसने सही मार्ग का अनुसरण नहीं किया। सही मार्ग पर न चलने के कारण, लोगों द्वारा “खुशकिस्मत” मानी जाने वाली चीजें जब उसके साथ हुईं, तो ये उसके लिए प्रलोभन, फाँस और उत्प्रेरक बन गईं, जिनसे उसका विनाश तेज हो गया। क्या यह अच्छी बात है? उसे हमेशा से चाह थी कि वह तरक्की पाए, बाकी सबसे बेहतर बने, ध्यान का केंद्र बने, और हर चीज बढ़िया ढंग से और जैसे वह चाहे वैसे ही हो, लेकिन अंत में क्या हुआ? क्या उसे हटा नहीं दिया गया? जब लोग सही मार्ग पर नहीं चलते, तो यही नतीजा मिलता है। अच्छे भाग्य के पीछे भागना अपने-आप में सही मार्ग नहीं है। भाग्य के पीछे भागने वाले लोग यकीनन उन तमाम चीजों को ठुकराएँगे और उनसे बचेंगे, जो बुरी हैं, जिन्हें लोग अक्सर अवाँछित मानते हैं, और जो चीजें लोगों की मनःस्थितियों और दैहिक रुचियों से मेल नहीं खातीं। वे ऐसी चीजों के होने से डरते, बचते और ठुकराते हैं। जब ये चीजें होती हैं, तो वे उन्हें “दुर्भाग्यपूर्ण” बताते हैं। क्या वे खुद को बदकिस्मत मानते हुए सत्य खोज सकते हैं? (नहीं।) क्या तुम सोचते हो कि सत्य न खोज सकने वाले और खुद को हमेशा बदकिस्मत मानने वाले लोग सही मार्ग पर चल सकते हैं? (नहीं।) यकीनन नहीं। इसलिए, हमेशा भाग्य के पीछे भागने वाले लोग, जो हमेशा सिर्फ अपने भाग्य पर ध्यान केंद्रित कर उसी के बारे में सोचते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो सही मार्ग पर नहीं चलते। ऐसे लोग अपने उचित कर्तव्य नहीं निभाते, सही मार्ग पर नहीं चलते, इसलिए वे हताशा में डूबते रहते हैं। यह उनकी अपनी गलती है और वे इसी योग्य हैं! यह इसलिए होता है कि वे गलत मार्ग पर चलते हैं! वे हताशा में डूबने लायक ही हैं। क्या इस हताशा से बाहर निकलना आसान है? दरअसल, यह आसान है। अपने गलत नजरियों को जाने दो, हर चीज के अच्छा होने, या ठीक तुम्हारे चाहे जैसा या आसान होने की उम्मीद मत करो। जो चीजें गलत होती हैं, उनसे डरो मत, उनका प्रतिरोध मत करो या उन्हें मत ठुकराओ। इसके बजाय, अपने प्रतिरोध को जाने दो, शांत हो जाओ, समर्पण के रवैये के साथ परमेश्वर के समक्ष आओ, और परमेश्वर द्वारा व्यवस्थित हर चीज को स्वीकार करो। तथाकथित “अच्छे भाग्य” के पीछे मत भागो, और तथाकथित “खराब भाग्य” को मत ठुकराओ। तन-मन से परमेश्वर को समर्पित हो जाओ, उसे कार्य और आयोजन करने दो, उसके आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण कर दो। तुम्हें जब और जिस मात्रा में जो चाहिए वह परमेश्वर तुम्हें देगा। वह उस परिवेश, उन लोगों, घटनाओं और चीजों का आयोजन तुम्हारी जरूरत और कमियों के अनुसार करेगा जिनकी तुम्हें आवश्यकता है, ताकि तुम जिन लोगों, घटनाओं और चीजों के संपर्क में आओ, उनसे वे सबक सीख सको जो तुम्हें सीखने चाहिए। बेशक, इन सबके लिए शर्त यह है कि तुम्हारे पास परमेश्वर के आयोजनों और व्यवस्थाओं के प्रति समर्पण की मानसिकता हो। इसलिए, पूर्णता के पीछे मत भागो; अवाँछित, शर्मिंदा करने वाली या प्रतिकूल चीजों के होने को मत ठुकराओ या उनसे मत डरो; और बुरी चीजों के होने का अंदर से प्रतिरोध करने के लिए अपनी हताशा का प्रयोग मत करो। मिसाल के तौर पर, अगर किसी गायक का गला किसी दिन खराब हो, और वह अच्छा प्रदर्शन न कर पाए, तो वह सोचेगा, “मैं बेहद अभागा हूँ! परमेश्वर मेरी आवाज की देखभाल क्यों नहीं कर रहा है? अकेले होने पर मैं आम तौर पर कितना बढ़िया गाता हूँ, लेकिन आज सब लोगों के सामने गाते हुए मैंने खुद को शर्मिंदा कर लिया है। मेरे सुर ठीक नहीं लगे, मैं ताल पकड़ नहीं पाया। मैंने नादानी कर खुद को हँसी का पात्र बना लिया!” नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना अच्छी बात है। यह तुम्हें अपनी कमियाँ समझने, और अभिमान के प्रति अपना प्रेम देखने में तुम्हारी सहायता करता है। यह तुम्हें दिखाता है कि तुम्हारी समस्याएँ कहाँ हैं और स्पष्ट रूप से यह समझने में मदद करता है कि तुम एक पूर्ण व्यक्ति नहीं हो। कोई भी पूर्ण व्यक्ति नहीं होता और नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना बहुत सामान्य है। सभी लोगों के सामने ऐसा समय आता है, जब वे नादानी करके हँसी का पात्र बनते हैं या शर्मिंदा होते हैं। सभी लोग असफल होते हैं, विफलताएँ अनुभव करते हैं और सभी में कमजोरियाँ होती हैं। नादानी करके खुद को हँसी का पात्र बनाना बुरा नहीं है। जब तुम ऐसा करते हो लेकिन शर्मिंदा या भीतर गहराई में हताश महसूस नहीं करते, तो इसका मतलब यह नहीं कि तुम चिकने घड़े हो; इसका मतलब यह है कि तुम इस बात की परवाह नहीं करते कि हँसी का पात्र बनने से तुम्हारी प्रतिष्ठा प्रभावित होगी या नहीं और इसका मतलब है कि तुम्हारा घमंड अब तुम्हारे विचारों पर हावी नहीं है। इसका मतलब है कि तुम अपनी मानवता में परिपक्व हो गए हो। यह अद्भुत है! क्या यह अच्छी बात नहीं है? यह एक अच्छी बात है। यह न सोचो कि तुमने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है या तुम्हारा भाग्य खराब है, और इसके पीछे वस्तुगत कारणों की तलाश न करो। यह सामान्य है। तुम खुद को हँसी का पात्र बना सकते हो, दूसरे खुद को हँसी का पात्र बना सकते हैं, सभी लोग खुद को हँसी का पात्र बना सकते हैं—आखिरकार तुम्हें पता चलेगा कि सब लोग एक समान हैं, सभी साधारण हैं, सभी नश्वर हैं, कोई भी किसी और से बड़ा नहीं है, कोई भी किसी और से बेहतर नहीं है। सभी लोग कभी-कभार खुद को हँसी का पात्र बना लेते हैं, इसलिए किसी को भी किसी दूसरे का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। एक बार जब तुम अनगिनत नाकामयाबियों का अनुभव कर लेते हो, तो तुम अपनी मानवता में थोड़े सयाने हो जाते हो; तो जब भी इन चीजों से तुम्हारा दोबारा सामना होगा, तब तुम विवश नहीं होगे, और इनका तुम्हारे सामान्य कर्तव्य-निर्वाह पर असर नहीं पड़ेगा। तुम्हारी मानवता सामान्य होगी, और तुम्हारी मानवता सामान्य होने पर तुम्हारा विवेक भी सामान्य होगा।
भाग्य के पीछे भागना पसंद करने वाले लोग, इस जीवन में सौभाग्य के पीछे भागने वाले लोग होते हैं, जो चीजों को अति तक ले जाते हैं। ये जिसका अनुसरण करते हैं वह गलत है, और उन्हें इसे त्याग देना चाहिए। हमने अभी-अभी इन अवाँछित चीजों को सँभालने और उनके प्रति सही दृष्टिकोण रखने के तरीके पर संगति की—क्या तुम सब अब यह समझ गए हो? हमने इस पर किस तरह संगति की थी? (लोगों को परमेश्वर के सभी आयोजनों के प्रति समर्पण करना चाहिए। उन्हें पूर्ण लोग बनने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, न ही किसी भी चीज से शर्मिंदा होने या कुछ प्रतिकूल होने से डरना चाहिए, और इन चीजों के होने पर उनका प्रतिरोध करने के लिए अपनी हताशा की भावना का प्रयोग नहीं करना चाहिए।) अपने मन को शांत रखो, सही मनःस्थिति के साथ हर चीज का सामना करो। जब तुम्हारे साथ बुरी चीजें हों, तो उन्हें देखने और सुलझाने के लिए तुम्हारे पास सही मार्ग होना चाहिए, और भले ही तुम उन्हें अच्छे ढंग से न संभालो, तुम्हें हताशा में नहीं डूबना चाहिए। नाकामयाब होने पर तुम दोबारा कोशिश कर सकते हो; बुरी-से-बुरी अवस्था में भी नाकामयाबी एक सबक होती है, तुम नाकामयाब हो भी गए, तब भी यह अनिच्छुक, प्रतिरोधी, ठुकराने वाला, और दूर भागने वाला होने से तो बेहतर है। तो आगे चाहे जो हो, तुम्हें चाहे जिस भी चीज का सामना करना पड़े, तुम्हें कभी उसे ठुकराना नहीं चाहिए, या उससे बच निकलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए, और अपने भाग्य के अच्छे या खराब होने के नजरिए से मापना तो बिल्कुल नहीं चाहिए। चूँकि तुम दृढ़तापूर्वक कहते हो कि सब कुछ परमेश्वर के हाथों आयोजित होता है, इसलिए तुम्हें अपने भाग्य के अच्छे या खराब होने के नजरिए और मनःस्थिति से इन चीजों को नहीं मापना चाहिए, जो बुरी चीजें होती हैं उन्हें ठुकराना तो बिल्कुल नहीं चाहिए। बेशक इन चीजों को तुम्हें हताशा की भावना के नजरिए से भी नहीं देखना चाहिए। इसके बजाय, तुम्हें इन चीजों का सामना करते और पेश आते समय, पहल करने वाला सक्रिय रवैया और सकारात्मक मनोदशा अपनानी चाहिए, देखना चाहिए कि कौन-से सबक सीखे जाने हैं, और इनसे तुम्हें क्या समझ लेनी है—यही है जो तुम्हें करना चाहिए। क्या तुम्हारे विचार और नजरिए तब सही नहीं होंगे? (जरूर होंगे।) और जब तुम फिर से किन्हीं बुरी या दुर्भाग्यपूर्ण चीजों का सामना करो, तो तुम उनसे परमेश्वर के वचनों के अनुसार पेश आ सकते हो, तुम्हारे पास सही विचार और नजरिए होंगे, और इस प्रकार तुम्हारी मानवता और विवेक सामान्य हो जाएँगे। अगर ऐसे देखा जाए, तो क्या दृष्टिकोण का सही होना बहुत महत्वपूर्ण नहीं है? क्या यह अत्यंत महत्वपूर्ण नहीं है कि भाग्य के मामले को परमेश्वर के वचनों के अनुसार स्पष्ट रूप से समझा जाए? (हाँ।) अब चूँकि भाग्य के अच्छे या खराब होने की इस कहावत के बारे में हमारी संगति लगभग पूरी हो चुकी है, क्या अब तुम समझ गए हो? (हाँ।) अगर इस प्रकार की समस्या के सार को तुम स्पष्ट रूप से समझ सको, तो भाग्य के मामले पर तुम्हारा दृष्टिकोण सही होगा।
लोगों के हताशा में डूबने का एक और कारण यह भी है कि वयस्क होने या सयाने होने से पहले ही लोगों के साथ कुछ चीजें हो जाती हैं, यानी वे कोई अपराध करते हैं, या कुछ बेवकूफी-भरे, उपहासपूर्ण और अज्ञानतापूर्ण काम करते हैं। इन अपराधों, उपहासपूर्ण और अज्ञानतापूर्ण करतूतों के कारण वे हताशा में डूब जाते हैं। इस प्रकार की हताशा अपनी ही निंदा है और यह एक तरह से इसका निर्धारण भी है कि वे किस किस्म के इंसान हैं। इस प्रकार का अपराध यकीनन महज किसी की कसम खाना या किसी की पीठ पीछे उसकी बुराई करना या ऐसी ही कोई अन्य तुच्छ बात नहीं है, बल्कि यह ऐसी चीज है जो व्यक्ति की शर्मिंदगी, व्यक्तित्व, प्रतिष्ठा और यहाँ तक कि कानून से भी जुड़ी होती है। चूँकि वे इस घटना को निरंतर याद करते हैं, हताशा की भावना थोड़ा-थोड़ा कर वर्तमान तक उनके दिल में गहरे पैठती जाती है। ये अपराध क्या हैं? जैसा कि मैंने अभी-अभी कहा, ये अज्ञानतापूर्ण, उपहासपूर्ण, और बेवकूफी-भरी करतूतें होती हैं, जो लोगों ने बचपन में या वयस्क होने के बाद की थीं। क्या तुम जानते हो कि इन चीजों में क्या शामिल हैं? उपहासपूर्ण, बेवकूफी-भरी और अज्ञानतापूर्ण—इसमें वे चीजें शामिल होती हैं जो दूसरों को नुकसान पहुँचाती हैं, मगर उनसे तुम्हें फायदा होता है, जिनके बारे में बात करना मुश्किल है, और जिन्हें लेकर तुम शर्मिंदा महसूस करते हो। यह चीज कोई ऐसी गंदी, घिनौनी, अश्लील, या अभद्र चीज हो सकती है, जो तुम्हें हताशा की इस भावना में डुबो दे। यह हताशा सिर्फ खुद को फटकार लगाना नहीं है, बल्कि अपनी निंदा करना है। क्या तुम सोच सकते हो कि मैंने जिस दायरे की रूपरेखा दी है, उसमें क्या चीजें शामिल हो सकती हैं? उदाहरण दो। (स्वच्छंद यौन संबंध।) हाँ, एक है स्वच्छंद यौन संबंध। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों ने अपने पति या पत्नी के साथ अपनी सोच या करनी में विश्वासघात किया है; कुछ लोगों ने व्यभिचार किया है, स्वच्छंद यौन संबंध बनाए हैं, लेकिन अभी भी छोड़ते नहीं और हमेशा सोचते रहते हैं कि वे किसके साथ व्यभिचार करना चाहते हैं; कुछ लोगों ने दूसरों को धोखा देकर पैसे ऐंठे हैं, शायद बहुत बड़ी धनराशि ऐंठ ली हो; कुछ ने दूसरों की चीजें चुराई हैं; और कुछ लोगों ने दूसरों को फँसाया या उनसे बदला लिया है। इनमें से कुछ चीजें कानून तोड़ने की कगार पर होती हैं, जबकि कुछ ने सचमुच कानून तोड़ ही दिया होता है; हो सकता है कि कुछ नैतिक सीमाओं को लांघने की कगार पर हों, जबकि हो सकता है कुछ सचमुच सामान्य मानवता की नीतियों के विरुद्ध हों। ये चीजें लोगों के अंतरतम में गहरे पैठी होती हैं, और समय-समय पर ये उन्हें याद आ जाती हैं। जब तुम अकेले होते हो, आधी रात को सो नहीं पाते, तब तुम्हें इनकी याद आ ही जाती है। ये तुम्हारे मन में किसी फिल्म की तरह चलती हैं, एक के बाद एक दृश्य सामने आते जाते हैं और तुम इन्हें मिटाने या झटक देने में असमर्थ होते हो। जब-जब तुम इन चीजों के बारे में सोचते हो, तुम हताश महसूस करते हो, तुम्हारा चेहरा तपने लगता है, दिल काँपने लगता है, तुम शर्मिंदा महसूस करते हो, और तुम्हारी रूह पूरी तरह बेचैन हो जाती है। हालाँकि तुम परमेश्वर में विश्वास रखते हो, फिर भी तुम्हें लगता है मानो तुमने वे सारी चीजें कल ही की थीं। तुम उनसे भाग नहीं सकते, छुप नहीं सकते, और तुम्हें कोई अंदाजा नहीं कि इन्हें पीछे कैसे छोड़ें। हालाँकि सिर्फ थोड़े-से दूसरे लोग तुम्हारी करतूतें जानते हैं, या शायद कोई नहीं जानता, फिर भी तुम्हें अपने दिल में बेचैनी का हल्का-सा भान होता है। इस बेचैनी से हताशा आती है और परमेश्वर का अनुसरण और अपना कर्तव्य निभाते समय यह हताशा तुम्हें दोषी महसूस करवाती है। तुम विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि दोषी होने की यह भावना तुम्हारे अपने जमीर से आती है, कानून से आती है या फिर तुम्हारी नैतिकता और नीति-विचारों के भान से आती है। बात चाहे जो हो, ऐसे काम करने वाले लोग कोई खास चीज होने पर, या कुछ निश्चित माहौल या संदर्भों में अक्सर अनजाने ही बेचैन महसूस करते हैं। बेचैनी की यह भावना अनजाने ही उन्हें गहन हताशा में डुबो देती है और वे अपनी हताशा से बँधकर प्रतिबंधित हो जाते हैं। जब भी वे सत्य पर कोई धर्मसंदेश या संगति सुनते हैं, यह हताशा धीरे-धीरे उनके दिमाग और उनके अंतरतम में पहुँच जाती है और वे खुद से कई सवाल पूछते हैं, “क्या मैं यह कर सकता हूँ? क्या मैं सत्य का अनुसरण करने में समर्थ हूँ? क्या मैं उद्धार प्राप्त कर सकता हूँ? मैं किस किस्म का इंसान हूँ? मैंने पहले वह काम किया, मैं वैसा इंसान हुआ करता था। क्या मैं बचाए जाने से परे हूँ? क्या परमेश्वर अभी भी मुझे बचाएगा?” कुछ लोग कभी-कभार अपनी हताशा की भावना को जाने दे सकते हैं, उसे पीछे छोड़ सकते हैं। अपना कर्तव्य निभाने, दायित्व और जिम्मेदारियाँ पूरी करने में वे भरसक अपनी पूरी ईमानदारी और शक्ति लगा सकते हैं, सत्य का अनुसरण करने और परमेश्वर के वचनों पर चिंतन करने में तन-मन लगा सकते हैं, और वे परमेश्वर के वचनों में अपने पूरे प्रयास उंडेल देते हैं। लेकिन जैसे ही कोई विशेष स्थिति या परिस्थिति सामने आती है, हताशा की भावना उन पर फिर एक बार हावी हो जाती है और उन्हें दिल की गहराई से दोषी महसूस करवाती है। वे मन-ही-मन सोचते हैं, “तुमने पहले वह करतूत की थी, तुम उस किस्म के इंसान थे। क्या तुम उद्धार पा सकते हो? सत्य पर अमल करने का क्या कोई तुक है? तुम्हारी करतूत के बारे में परमेश्वर क्या सोचता है? क्या परमेश्वर तुम्हारी करतूत के लिए तुम्हें माफ कर देगा? क्या अब इस तरह कीमत चुकाने से उस अपराध की भरपाई हो सकेगी?” वे अक्सर खुद को फटकारते हैं, भीतर गहराई से दोषी महसूस करते हैं, और हमेशा शक्की बन कर खुद से कई सवाल पूछते हैं। हताशा की इस भावना को वे कभी पीछे नहीं छोड़ पाते, त्याग नहीं पाते और अपनी शर्मनाक करतूतों के लिए वे हमेशा बेचैनी महसूस करते रहते हैं। तो, अनेक वर्षों तक परमेश्वर में विश्वास रखने के बाद भी, ऐसा लगता है मानो उन्होंने कभी परमेश्वर के वचन सुने ही नहीं या उन्हें समझा ही नहीं। मानो वे नहीं जानते कि क्या उद्धार-प्राप्ति का उनके साथ कोई लेना-देना है, क्या उन्हें दोषमुक्त कर छुड़ाया जा सकता है, या क्या वे परमेश्वर का न्याय और ताड़ना और उसका उद्धार प्राप्त करने योग्य हैं। उन्हें इन सब चीजों का कोई अंदाजा नहीं है। कोई जवाब न मिलने और कोई सही फैसला न मिलने के कारण, वे निरंतर भीतर गहराई से हताश महसूस करते हैं। अपने अंतरतम में वे बार-बार अपनी करतूतें याद करते रहते हैं, वे उसे अपने दिमाग में बार-बार चलाते रहते हैं, शुरुआत से अंत तक याद करते हैं कि यह सब कैसे शुरू हुआ और कैसे खत्म। वे इसे कैसे भी याद करते हों, हमेशा पापी महसूस करते हैं और इसलिए वर्षों तक इस मामले को लेकर निरंतर हताश महसूस करते हैं। अपना कर्तव्य निभाते समय भी, किसी कार्य के प्रभारी होने पर भी, उन्हें लगता है कि उनके लिए बचाए जाने की कोई उम्मीद नहीं रही। इसलिए, वे कभी भी सत्य का अनुसरण करने के मामले का सीधे तौर पर सामना नहीं करते, और नहीं मानते कि यह सबसे सही और अहम चीज है। वे मानते हैं कि पहले जो गलती उन्होंने की या जो करतूतें उन्होंने कीं, उन्हें ज्यादातर लोग नीची नजर से देखते हैं, या शायद लोग उनकी निंदा कर उनसे घृणा करें, या परमेश्वर भी उनकी निंदा करे। परमेश्वर का कार्य जिस भी चरण में हो, या उसने जितने भी कथनों का उच्चारण किया हो, वे सत्य का अनुसरण करने के मामले का कभी भी सही ढंग से सामना नहीं करते। ऐसा क्यों है? उनमें अपनी हताशा को पीछे छोड़ने का हौसला नहीं होता। ऐसी चीज का अनुभव करके इस किस्म का इंसान यही अंतिम निष्कर्ष निकालता है, और चूँकि वह सही निष्कर्ष नहीं निकालता, इसलिए वह अपनी हताशा को पीछे छोड़ने में असमर्थ होता है।
ऐसे बहुत-से लोग जरूर होंगे जिन्होंने छोटा या बड़ा, कोई-न-कोई अपराध किया होगा, मगर बहुत संभव है कि नैतिकता के दायरे लांघने वाले गंभीर अपराध बहुत कम लोगों ने किए हों। हम यहाँ उनकी बात नहीं करेंगे जिन्होंने तरह-तरह के दूसरे अपराध किए हैं, बल्कि हम सिर्फ इस बारे में बात करेंगे कि जिन लोगों ने गंभीर अपराध किए हैं और जिन्होंने नैतिक सीमाओं और नीतियों के पार के अपराध किए हैं, उन्हें क्या करना चाहिए। जहाँ तक गंभीर अपराध करने वालों की बात है—और यहाँ मैं उन अपराधों की बात कर रहा हूँ जो नैतिक सीमाओं से परे हैं—इसमें परमेश्वर के स्वभाव का अपमान और उसके प्रशासनिक आदेशों का उल्लंघन शामिल नहीं है। समझ गए? मैं उन अपराधों की बात नहीं कर रहा हूँ जो परमेश्वर, उसके सार या उसकी पहचान और हैसियत के अपमान से जुड़े हैं, मैं उन अपराधों की भी बात नहीं कर रहा हूँ, जो परमेश्वर की निंदा से जुड़े हैं। मैं ऐसे अपराधों की बात कर रहा हूँ जो नैतिक सीमाएँ पार कर जाते हैं। यह भी बताना है कि ऐसे अपराध करने वाले लोग अपनी हताशा की भावना कैसे दूर कर सकते हैं। ऐसे लोग दो रास्ते पकड़ सकते हैं, और यह मुद्दा सरल है। पहले, अगर तुम्हें दिल से लगता है कि तुमने जो किया उसे जाने दे सकते हो या तुम्हारे पास दूसरे व्यक्ति से माफी माँगने और फिर से करीब आने का मौका है, तो तुम उनसे माफी माँग कर करीब आ सकते हो। इस तरह तुम्हारी आत्मा को शांति और आराम की भावनाएँ वापस मिल जाएँगी; अगर तुम्हारे पास ऐसा करने का मौका नहीं है, यह संभव नहीं है और अगर तुम अपने अंतरतम में अपनी समस्या को सचमुच जान गए हो, अगर तुम्हें एहसास है कि तुम्हारी करतूत कितनी गंभीर है और तुम्हें सचमुच पछतावा है, तो तुम्हें पाप स्वीकार कर प्रायश्चित्त करने के लिए परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए। जब भी तुम अपनी करतूत के बारे में सोचते हो और खुद को दोषी मानते हो, उसी समय तुम्हें पाप-स्वीकार और प्रायश्चित्त के लिए परमेश्वर के समक्ष आना चाहिए, परमेश्वर से क्षमा और दोष-मुक्ति पाने के लिए तुममें पूरी ईमानदारी और सच्ची भावना होनी चाहिए। परमेश्वर तुम्हें किस तरह से क्षमादान देकर दोष-मुक्त कर सकता है? यह तुम्हारे दिल पर निर्भर करता है। अगर तुम ईमानदारी से पाप-स्वीकार करते हो, सच में अपनी गलती और समस्या को पहचान लेते हो, यह पहचानते हो कि तुमने क्या किया है-भले ही वह अपराध हो या पाप-सच्चे पाप-स्वीकार का रवैया अपनाते हो, तुम अपनी करतूत के लिए सच्ची घृणा महसूस करते हो और सच में सुधर जाते हो और तुम वह गलत काम दोबारा कभी नहीं करते, तो अंतत: एक दिन आएगा जब तुम्हें परमेश्वर से क्षमादान और दोष-मुक्ति मिल जाएगी, यानी परमेश्वर तुम्हारी की हुई अज्ञानतापूर्ण, मूर्खतापूर्ण और गंदी करतूतों के आधार पर तुम्हारा परिणाम तय नहीं करेगा। जब तुम इस स्तर पर पहुँच जाओगे, तो परमेश्वर इस मामले को पूरी तरह भूल जाएगा; तुम भी दूसरे सामान्य लोगों जैसे ही होगे, जरा भी फर्क नहीं होगा। लेकिन यह इस बात पर निर्भर होगा कि तुम ईमानदार रहो और तुम्हारा रवैया दाऊद की तरह सच्चा हो। अपने अपराध के लिए दाऊद ने कितने आँसू बहाए थे? अनगिनत आँसू। वह कितनी बार रोया था? अनगिनत बार। उसके बहाए आँसुओं को इन शब्दों में बयान किया जा सकता है : “मैं हर रात अपने आँसुओं में तैरते बिस्तर पर सोता हूँ।” मुझे नहीं पता कि तुम्हारा अपराध कितना गंभीर है। अगर सचमुच गंभीर है, तो तुम्हें तब तक रोना पड़ सकता है जब तक कि तुम्हारा बिस्तर तुम्हारे आँसुओं पर तैरने न लगे—परमेश्वर से क्षमा पाने से पहले तुम्हें उस स्तर तक पाप-स्वीकार और प्रायश्चित्त करना पड़ सकता है। अगर तुम ऐसा नहीं करते, तो मुझे डर है कि तुम्हारा अपराध परमेश्वर की नजरों में पाप बन जाएगा और तुम्हें इससे छुटकारा नहीं मिलेगा। तब तुम मुसीबत में पड़ जाओगे और फिर इस बारे में कुछ भी और कहना बेतुका होगा। इसलिए परमेश्वर से क्षमादान और दोष-मुक्ति पाने का पहला कदम यह है कि तुम्हें ईमानदार बनना चाहिए और पाप-स्वीकार कर प्रायश्चित्त करने के लिए व्यावहारिक कदम उठाने चाहिए। कुछ लोग पूछते हैं, “क्या मुझे सबको इस बारे में बताना चाहिए?” यह जरूरी नहीं है; बस खुद जाकर परमेश्वर से प्रार्थना करो। जब कभी तुम बेचैन और अपने हृदय में दोषी महसूस करो, तो तुम्हें तुरंत परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए और उससे माफी माँगनी चाहिए। कुछ लोग पूछते हैं, “परमेश्वर ने मुझे क्षमा कर दिया है, यह जानने के लिए मुझे कितनी प्रार्थना करनी चाहिए?” जब तुम इस मामले में खुद को दोषी न मानो, जब इस मामले की वजह से तुम हताशा में न डूबो, तब जाकर तुम्हें परिणाम मिल जाएँगे और यह पता लग जाएगा कि परमेश्वर ने तुम्हें क्षमादान दे दिया है। जब कोई व्यक्ति, कोई ताकत, कोई बाहरी शक्ति तुम्हें विचलित न कर पाए, जब तुम किसी व्यक्ति, घटना या चीज से बाध्य न हो, उस समय तुम्हें परिणाम मिल चुके होंगे। यह पहला कदम है जो तुम्हें उठाना होगा। दूसरा कदम यह है कि क्षमादान के लिए परमेश्वर से निरंतर विनती करते हुए तुम्हें सक्रियता से उन सिद्धांतों को खोजना होगा जिनका तुम्हें अपना कर्तव्य निभाते समय अनुसरण करना चाहिए—ऐसा करके ही तुम अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभा सकोगे। बेशक, यह भी एक व्यावहारिक कार्य है, एक व्यावहारिक अभिव्यक्ति और रवैया है जो तुम्हारे अपराध की भरपाई करेगा और जो साबित करेगा कि तुम प्रायश्चित्त कर रहे हो और तुमने खुद को सुधार लिया है; यह तुम्हें जरूर करना होगा। तुम परमेश्वर की आज्ञा यानी अपना कर्तव्य कितने अच्छे ढंग से निभाते हो? क्या तुम इसे हताश होकर निभाते हो या उन सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए निभाते हो जिनकी अपेक्षा परमेश्वर तुमसे करता है? क्या तुम निष्ठा दिखाते हो? परमेश्वर को किस आधार पर तुम्हें क्षमादान देना चाहिए? क्या तुमने प्रायश्चित्त किया है? तुम परमेश्वर को क्या दिखा रहे हो? अगर तुम परमेश्वर से क्षमादान पाना चाहते हो, तो तुम्हें पहले ईमानदार बनना पड़ेगा : एक ओर तो तुम्हें ईमानदारी से पाप-स्वीकार करना पड़ेगा और ईमानदारी से अपना कर्तव्य अच्छे ढंग से निभाना होगा, वरना सब निरर्थक है। अगर तुम ये दो चीजें कर सको, अगर तुम ईमानदार और आस्थावान बनकर परमेश्वर का मन जीत सको, कि वह तुम्हें तुम्हारे पापों से मुक्ति दे सके, तो तुम ठीक दूसरे लोगों जैसे ही बन जाओगे। परमेश्वर तुम्हें भी उसी नजर से देखेगा जिससे वह दूसरों को देखता है, वह तुमसे भी वैसे ही पेश आएगा जैसे वह दूसरों से पेश आता है, और वह तुम्हें भी उसी तरह न्याय और ताड़ना देगा, परीक्षण करके तुम्हारा शोधन करेगा, जैसे वह दूसरे लोगों को करता है—तुमसे कोई अलग बर्ताव नहीं होगा। इस प्रकार तुममें न सिर्फ सत्य का अनुसरण करने का दृढ़-संकल्प और आकांक्षा होगी, बल्कि परमेश्वर सत्य के अनुसरण में तुम्हें भी उसी तरह प्रबुद्ध करेगा, मार्गदर्शन और पोषण देगा। बेशक, अब चूँकि तुममें ईमानदार और सच्ची आकांक्षा और एक ईमानदार रवैया है, इसलिए परमेश्वर तुमसे कोई अलग बर्ताव नहीं करेगा और ठीक दूसरे लोगों की ही तरह तुम्हें उद्धार का मौका मिलेगा। तुमने यह समझ लिया है, है न? (हाँ।) गंभीर अपराध करना एक विशेष मामला है। हम नहीं कह सकते कि यह डरावना नहीं है; यह बहुत गंभीर समस्या है। यह साधारण भ्रष्ट स्वभाव या कुछ गलत विचार या नजरियों के होने जैसा नहीं है। ऐसा सच हुआ है जो तथ्य बन चुका है और जिसके गंभीर परिणाम होते हैं। इसीलिए इससे एक विशेष तरीके से पेश आना चाहिए। इससे विशेष तरीके से पेश आया जाए या सामान्य तरीके से, लेकिन हमेशा आगे बढ़ने और इसे सुलझाने का रास्ता होता है, यह इस पर निर्भर करता है कि क्या तुम उन तरीकों और विधियों के अनुसार अभ्यास कर सकते हो जो मैं तुम्हें बताऊँगा और जिनका रास्ता दिखाऊँगा। अगर तुम सच में इस तरह अभ्यास करो, तो अंत में तुम्हें उद्धार प्राप्त करने की उतनी ही उम्मीद होगी जितनी दूसरों को होती है। बेशक, इन सबको सुलझाना सिर्फ इसलिए नहीं है कि लोग हताशा की अपनी भावना को पीछे छोड़ सकें। अंतिम लक्ष्य यह है कि हताशा की अपनी भावना को दूर कर वे लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते समय जमीर और विवेक के दायरे में इन सब चीजों के प्रति सही दृष्टिकोण अपना सकें। उन्हें अति नहीं करनी चाहिए और न ही जिद्दी होना चाहिए; उन्हें परमेश्वर के इरादों और सत्य खोजने में आगे बढ़ना चाहिए, सृजित प्राणी से अपेक्षित जिम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिए और कर्तव्य पूरे करने चाहिए, जब तक अंत में वे पूरी तरह परमेश्वर के वचनों के अनुसार, सत्य को मानदंड बनाकर लोगों और चीजों को देख न सकें और आचरण और कार्य न कर सकें। एक बार इस वास्तविकता में प्रवेश कर लेने पर लोग धीरे-धीरे उद्धार के मार्ग की ओर जाने लगेंगे और इस तरह उन्हें उद्धार प्राप्त करने की आशा होगी। क्या गंभीर अपराधों से पैदा होने वाली हताशा की भावना को दूर करने का रास्ता अब तुम्हारे मन में स्पष्ट हो गया है? (हाँ, बिल्कुल हो गया है।)
क्या हताशा की भावना को दूर करना एक मुश्किल समस्या है? मेरे विचार से यह बहुत मुश्किल है, क्योंकि यह जीवन के अहम मामलों से जुड़ी होती है, यह उस मार्ग से जुड़ी होती है, जिस पर लोग परमेश्वर में आस्था के दौरान चलते हैं, क्या वे आगे चलकर उद्धार प्राप्त कर सकेंगे या उनकी आस्था बेकार हो जाएगी—यह एक बहुत बड़ा मसला है। ऊपर से जो प्रकट है वह एक भावना है, जबकि इस भावना के पैदा होने के कई कारण हैं। आज मैंने इन कारणों के बारे में स्पष्ट संगति की है और इन कारणों की समस्या को दूर करने का रास्ता भी बताया है, तो क्या हताशा की भावना अब फौरन दूर नहीं की जा सकती? (की जा सकती है।) सैद्धांतिक तौर पर यह दूर कर दी गयी है। धर्मसैद्धांतिक समझ पाकर और फिर इस धर्मसिद्धांत की अपने कृत्यों से तुलना कर, धीरे-धीरे जीवन की अपनी मुश्किलों, अपनी सोच की मुश्किलों को दूर करने के लिए इस धर्मसिद्धांत को आधार बनाकर उसका प्रयोग करके, और निरंतर इस मार्ग पर चलकर, तुम धीरे-धीरे सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चल सकते हो। समस्या को सुलझाने के इस तरीके के बारे में तुम क्या सोचते हो? (यह अच्छा है।) लोगों को इसी तरह समस्या हल करनी चाहिए। अगर नहीं करते, तो उनके भीतर की जटिल समस्याएँ—उनकी सोच की, दिल में पैठी हुई समस्याएँ, उनके मानसिक मसले, उनके भ्रष्ट स्वभाव—ये चीजें उन्हें कसकर बाँध लेती हैं। इस तरह बंध कर वे फँस जाते हैं, कष्ट सहते हैं और हमेशा थका हुआ महसूस करते हैं, नहीं जानते कि हँसें या रोएँ, और उन्हें कभी बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिल पाता। आज की संगति सुनकर, तुम इस पर सावधानी से चिंतन कर सकते हो और इसकी धर्म-सैद्धांतिक समझ हासिल कर सकते हो। फिर अपने दैनिक जीवन के व्यावहारिक अनुभवों और निजी अनुभवों के जरिये तुम धीरे-धीरे इन नकारात्मक भावनाओं और अपने भ्रष्ट स्वभाव की विविध दशाओं से बाहर निकल सकते हो। एक बार उन्हें पीछे छोड़ देने के बाद, तुम न सिर्फ सचमुच मुक्त और स्वतंत्र हो जाओगे, न सिर्फ सत्य वास्तविकता में प्रवेश कर लोगे, बल्कि सबसे अहम, तुम सत्य को समझ चुके होगे, तुमने सत्य हासिल कर लिया होगा और तुम सत्य वास्तविकता को जी पा रहे होगे। तब तुम बड़े उपयोगी होगे, मूल्यों वाला जीवन जियोगे। क्या तुम लोग उस तरह जीना चाहते हो? (हाँ।) ज्यादातर लोग सत्य को समझकर सत्य वास्तविकता में प्रवेश करना चाहते हैं और अपना जीवन नकारात्मक दैहिक भावनाओं, कामुक शारीरिक इच्छाओं, सांसारिक प्रवृत्तियों और भ्रष्ट स्वभावों में नहीं बिताना चाहते—उस तरह का जीवन बहुत मुश्किल और थकाऊ होता है। ऐसे भ्रष्ट स्वभावों और नकारात्मक भावनाओं में जीते रहने से क्या तुम्हारे जीवन का नतीजा अच्छा होगा? इन नकारात्मक भावनाओं में जीना शैतान की सत्ता में जीना है। यह चक्की के दो पाटों के बीच में जीने जैसा है—देर-सवेर तुम उसमें पिस जाओगे और बाहर निकलना मुश्किल होगा। लेकिन अगर तुम सत्य को स्वीकार कर सको, तो असमंजस और पीड़ा को पीछे छोड़ देने की उम्मीद रख सकते हो और तुम नकारात्मक भावनाओं की उलझन और असमंजस से पैदा होने वाली पीड़ा से बच कर बाहर निकल सकते हो।
आज मैंने पहले एक से अधिक विषयों पर संगति करने की योजना बनाई थी, मगर हुआ यह कि मैं काफी देर तक हताशा पर ही संगति करता रहा। किसी भी मामले पर कहने को बहुत कुछ होता है; थोड़े-से शब्दों में कुछ भी स्पष्ट रूप से समझाया नहीं जा सकता। मैं जिस बारे में भी बात करूँ, बस किसी मामले का धर्म-सिद्धांत समझा कर खत्म नहीं कर सकता। किसी भी मामले में सत्य और वास्तविकता के कई पहलू होते हैं; इससे जुड़ी होती है लोगों की सोच और दृष्टिकोण, उनके आचरण के तरीके और उपाय, वह मार्ग जिस पर वे चलते हैं और इन सबका संबंध तुम लोगों की उद्धार-प्राप्ति से होता है। किसी सत्य या किसी विषय पर संगति करते समय मैं लापरवाह नहीं हो सकता, इसलिए मैं हर संभव तरीके आजमाता हूँ, तुम लोगों को बार-बार बताने के लिए किच-किच करने वाली बूढ़ी दादी अम्मा की तरह। शिकायत मत करो कि इससे परेशानी होती है, यह लंबी-चौड़ी है। शायद इस विषय पर मैं बोल चुका हूँ, तो उस बारे में दोबारा बोलने की क्या जरूरत है? अगर मैं उस पर दोबारा बोलूँ, तो तुम दोबारा सुन लो और इसे एक पुनरावलोकन मान लो। यह ठीक है, है न? (हाँ।) संक्षेप में, सत्य से जुड़े मामलों और जिस मार्ग पर लोग चलते हैं, उनके प्रति निष्ठापूर्ण दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, तुम्हें लापरवाह नहीं होना चाहिए। मैं जितने विस्तार से बोलूँगा और जितनी विशिष्ट बातें बताऊँगा, इस बारे में तुम्हारी समझ उतनी ही विस्तृत और स्पष्ट होगी कि दूसरे पहलुओं के साथ-साथ, विविध सत्यों के बीच क्या संबंध है, साथ ही उनके विवरणों के बीच क्या फर्क और संबंध है। अगर मैं सामान्य ढंग से बात करता, और चीजों के बारे में मोटे तौर पर बताता, तो तुम्हें इसे समझने और आत्मसात करने में मुश्किल होती और अपने-आप इन चीजों पर विचार कर इन्हें समझने की कोशिश करना तुम लोगों के लिए थकाऊ होता, सही है न? (हाँ।) मिसाल के तौर पर, आज का हमारा विषय—नियति, भाग्य और लोगों द्वारा पहले किए गए खास अपराधों से पैदा होने वाली नकारात्मक भावनाएँ—इन चीजों के बारे में तुम लोग अपने-आप नहीं सोच सकते हो, और सोच भी लो, तो तुम इनसे बाहर निकलने का रास्ता नहीं जान पाओगे। चूँकि तुम इन चीजों के भीतर के सत्य को नहीं समझते, तुम पहले किए गए अपराध—विशेष के मामले का सही जवाब कभी नहीं ढूँढ़ पाओगे और यह तुम्हारे लिए हमेशा एक रहस्य बना रहेगा, हमेशा तुम्हें परेशान कर उलझन में डालता रहेगा, तुम्हारे अंतरतम की शांति, उल्लास, आजादी और मुक्ति छीनता रहेगा। या शायद चूँकि तुमने इस मामले को सही ढंग से नहीं सँभाला और तुम सही मार्ग पर नहीं चले, इसलिए तुम्हारी उद्धार-प्राप्ति पर इसका असर पड़ा। अंत में कुछ लोग छोड़ दिए गए, हटा दिए गए। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि उन्होंने पहले कुछ ऐसे काम किये जिनके बारे में बताया नहीं जा सकता, उन्होंने उन्हें अच्छे ढंग से नहीं सँभाला और उनके लिए क्षमादान प्राप्त नहीं किया। उनका दिल इन चीजों में निरंतर उलझा रहा; सत्य का अनुसरण करने का उनका मन नहीं हुआ, उन्होंने अपना कर्तव्य फूहड़ ढंग से निभाया, उन्होंने सत्य वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया और उन्हें लगा मानो सत्य का अनुसरण करना उनके लिए बेकार है। वे बिल्कुल अंत तक इस नकारात्मक भावना को ढोते रहे, उन्होंने कभी भी अनुभवात्मक गवाही की बात नहीं की और सत्य हासिल नहीं किया। इसके बाद ही उन्हें खेद हुआ, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इसलिए, क्या ये सभी मामले सत्य और उद्धार प्राप्त करने से जुड़े हुए हैं? (जरूर जुड़े हुए हैं।) यह मत सोचो कि चूँकि ये मामले तुम्हारे साथ नहीं हुए, किसी दूसरे के साथ नहीं हुए या तुम्हारे आसपास के लोगों के साथ नहीं हुए, इसलिए इनका अस्तित्व नहीं है। मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ, तुमने पहले शायद कुछ अशोभनीय काम किए हों, जिनके अब तक कोई भयानक नतीजे न निकले हों या तुम शायद पहले इस किस्म की नकारात्मक भावना में घिर चुके हो या अब उसमें घिरे हुए हो, बस इस ओर तुम्हारा ध्यान नहीं गया या तुम इससे अनजान रहे, और फिर एक दिन वास्तव में कुछ घट जाता है, यह भावना तुम पर गहरा असर डालती है और इसके गंभीर नतीजे निकलते हैं। जब तुम गहराई से अपनी जाँच करते हो, तब तुम्हें पता चलता है कि तुम अनजाने ही अनेक वर्षों या और भी लंबे समय से इस नकारात्मक भावना में घिरे हुए थे। इसीलिए लोगों को इन चीजों के बारे में निरंतर सोच-विचार और चिंतन कर समझना, मूल्याँकन और अनुभव करना चाहिए ताकि उन्हें धीरे-धीरे इनका पता चल सके। बेशक, आखिरकार इन चीजों का पता कर लेना तुम्हारे लिए बहुत अच्छी खबर है और उद्धार प्राप्त करने का बढ़िया मौका है। जब तुम इनका पता कर लोगे, तभी तुम्हें इन्हें पीछे छोड़ने का मौका मिलेगा या तुम्हें उम्मीद होगी और आज मैंने जो कुछ बताया वह बेकार साबित नहीं होगा। कोई भी सत्य, कोई भी विषय और कोई भी बात एक या दो दिन में पूरी तरह से समझ या अनुभव नहीं की जा सकती। चूँकि इसका संबंध सत्य से है, इसलिए इससे जुड़ी हुई है मानवता, लोगों के भ्रष्ट स्वभाव, उनका मार्ग और लोगों की उद्धार-प्राप्ति। यही कारण है कि तुम किसी भी सत्य की अनदेखी नहीं कर सकते, बल्कि तुम्हें उन सबके प्रति एक ईमानदार दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। भले ही तुम अभी इन सत्यों को बहुत अच्छी तरह नहीं समझते और नहीं जानते कि यह समझने के लिए खुद को कैसे जाँचें कि इन सत्यों के अनुसार तुममें कौन-सी समस्याएँ हैं, तो शायद कुछ वर्षों तक अनुभव करने के बाद ये सत्य तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभाव की बाध्यता से बचा सकेंगे और ये तुम्हें बचाने वाले अनमोल सत्य बन जाएँगे। ऐसा होने पर, ये सत्य तुम्हें जीवन में सही मार्ग दिखाएँगे और लगभग दस साल में, ये वचन और सत्य तुम्हारी सोच और नजरिए को पूरी तरह बदल चुके होंगे और तुम्हारे लक्ष्य और जीवन की दिशा पूरी तरह रूपांतरित हो चुकी होगी।
इसी के साथ मैं आज की संगति समाप्त करता हूँ। फिर मिलेंगे।
1 अक्तूबर 2022