सत्य का अनुसरण कैसे करें (7)

इस अवधि के दौरान, हमारी संगति का मुख्य विषय “सत्य का अनुसरण कैसे करें” रहा है। पिछली बार हमने सत्य का अनुसरण करने के लिए अभ्यास के दो सिद्धांतों का सारांश दिया था। पहला सिद्धांत क्या है? (पहला सिद्धांत है त्याग, और दूसरा है समर्पण।) पहला सिद्धांत है त्याग, और दूसरा है समर्पण। हमने “त्याग” के विषय पर संगति पूरी नहीं की है। “त्याग” का पहला मूल प्रसंग क्या है? (विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्याग देना।) विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के संदर्भ में हमने मुख्य रूप से किस बारे में संगति की थी? हमने मुख्य रूप से लोगों द्वारा अनुभव की जाने वाली नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति की और उनका खुलासा किया, यानी किस प्रकार की नकारात्मक भावनाएँ अक्सर लोगों के दैनिक जीवन में और जीवन पथ पर उनके साथ होती हैं, और उनका त्याग कैसे करें। ये नकारात्मक भावनाएँ लोगों के भीतर एक प्रकार की भावना के रूप में प्रकट होती हैं, लेकिन वास्तव में, वे लोगों के मन में बैठे विभिन्न भ्रामक विचारों और मान्यताओं से उत्पन्न होती हैं। लोगों में विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों के कारण विभिन्न प्रकार की नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती और उनमें उजागर और प्रदर्शित होती हैं। नकारात्मक भावनाओं की जिन समस्याओं के बारे में हमने पहले संगति की थी, उनके आधार पर, लोगों के विभिन्न व्यवहार, और उनके विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों में तुम लोगों को क्या समस्याएँ नजर आती हैं? दूसरे शब्दों में, विभिन्न नकारात्मक भावनाओं की बाहरी अभिव्यक्तियों का विश्लेषण करके, क्या तुम लोगों के विचारों के कुछ अंतर्निहित सार को समझ सकते हो? किसी व्यक्ति में नकारात्मक भावनाएँ प्रदर्शित होने पर, यदि हम गहराई में जाकर सावधानीपूर्वक उनका गहन-विश्लेषण करें, तो हम लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उसके विभिन्न गलत विचारों, दृष्टिकोणों और रवैये को देख सकते हैं जो उन नकारात्मक भावनाओं के भीतर छिपे होते हैं, और यहाँ तक कि विभिन्न लोगों, मामलों और चीजों को अपने भीतर से संभालने और हल करने के उसके तरीकों को भी देख सकते हैं, है ना? (हाँ।) तो, जितनी बार हमने इन नकारात्मक भावनाओं का गहन-विश्लेषण करने के बारे में संगति की है, उसके आधार पर क्या हम कह सकते हैं कि लोगों के विभिन्न गलत, भ्रामक, पक्षपाती, नकारात्मक और प्रतिकूल विचार और दृष्टिकोण उनकी नकारात्मक भावनाओं के भीतर छिपे होते हैं? क्या हम ऐसा कह सकते हैं? (हाँ, कह सकते हैं।) मैंने अभी क्या कहा? (परमेश्वर ने यही कहा कि लोगों के विभिन्न गलत, भ्रामक, पक्षपाती, नकारात्मक और प्रतिकूल विचार और दृष्टिकोण उनकी नकारात्मक भावनाओं में छिपे होते हैं।) क्या तुम्हें मेरी बात साफ तौर पर समझ आई? (हाँ, मैंने आपकी बात समझ ली है।) यदि हम इन नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति नहीं करते हैं, तो शायद लोग सामने आने वाली अस्थायी या दीर्घकालिक नकारात्मक भावनाओं पर अधिक ध्यान न दें। लेकिन, नकारात्मक भावनाओं के भीतर छिपे विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों का विश्लेषण करने के बाद, क्या लोग इस तथ्य को स्वीकारते हैं? विभिन्न नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण लोगों की विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के भीतर छिपे होते हैं। दूसरे शब्दों में, जब कोई व्यक्ति नकारात्मक भावनाओं का अनुभव करता है, तो सतही तौर पर ये कुछ भावनाओं जैसी प्रतीत हो सकती हैं। वे अपनी भावनाओं को जाहिर कर सकते हैं, निराशाजनक बातें कह सकते हैं, हताशा फैला सकते हैं और कुछ नकारात्मक परिणाम ला सकते हैं, या ऐसे काम कर सकते हैं जो अपेक्षाकृत चरम स्तर के हों। बाहर से यही दिखता है। लेकिन, नकारात्मक भावनाओं और चरम व्यवहार की इन अभिव्यक्तियों के पीछे, दरअसल लोगों में विभिन्न नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण मौजूद होते हैं। इसलिए, भले ही इस अवधि के दौरान हम नकारात्मक भावनाओं पर चर्चा करते रहे हैं, पर वास्तव में, हम लोगों की विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को उजागर कर उनका विश्लेषण करते हुए, उनके विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों का विश्लेषण कर रहे हैं। हम इन विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर क्यों करते हैं? क्या ये नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण केवल लोगों की भावनाओं को प्रभावित करते हैं? क्या यह केवल इसलिए क्योंकि वे लोगों में नकारात्मक भावनाओं को जन्म देते हैं? नहीं, ये गलत विचार और दृष्टिकोण सिर्फ किसी की भावनाओं और प्रयासों को प्रभावित नहीं करते हैं; लेकिन, लोग उनकी भावनाओं और बाहरी व्यवहार को ही देख और समझ सकते हैं। इसलिए, हम लोगों के विभिन्न नकारात्मक, प्रतिकूल और अनुचित विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करने के लिए नकारात्मक भावनाओं का विश्लेषण करने का सरल और सुविधाजनक तरीका अपनाते हैं। हम इन विचारों, दृष्टिकोणों और नकारात्मक भावनाओं को इसलिए उजागर करते हैं क्योंकि ये विचार और दृष्टिकोण, लोगों और चीजों को देखने, आचरण करने और वास्तविक जीवन में काम करने के प्रति लोगों की सोच और रवैये से संबंधित हैं। उनका संबंध लोगों के जीवित रहने के लक्ष्यों और दिशा से, और स्वाभाविक रूप से जीवन पर उनके विचारों से भी है। इसलिए, हमने कुछ नकारात्मक भावनाओं को इस तरह उजागर किया है। बहरहाल, विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति करने का मुख्य उद्देश्य लोगों के विभिन्न भ्रामक, नकारात्मक और प्रतिकूल विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करना और उनका गहन-विश्लेषण और समाधान करना है। इन नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करने के हमारे प्रयास से लोग, विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके विचारों में मौजूद गलत नजरिये, रवैये और परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट रूप से पहचानने में सक्षम होंगे। इससे इन नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों के कारण उत्पन्न होने वाली विभिन्न नकारात्मक भावनाओं का समाधान करने में मदद मिलती है और इस प्रकार लोग इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को पहचान और समझ पाते हैं, जिसके बाद वे सही मार्ग खोज सकते हैं और इन्हें पूरी तरह से त्याग सकते हैं। अंतिम लक्ष्य यह है कि व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में या अपने पूरे जीवनकाल के दौरान विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का सही विचारों और दृष्टिकोण के साथ सामना करने, देखने, संभालने और उन्हें हल करने की क्षमता विकसित करे। संक्षेप में, इसका वांछित परिणाम क्या होगा? इससे लोग अपने भीतर मौजूद विभिन्न नकारात्मक विचारों को पहचान और समझ पाएँगे, और उन्हें पहचानने के बाद, अपने जीवन में और जीवन पथ में इन गलत विचारों और दृष्टिकोणों को लगातार बदलेंगे और ठीक करेंगे, सत्य से मेल खाने वाले विचारों और दृष्टिकोण खोजेंगे, उन्हें स्वीकारेंगे या उनके प्रति समर्पित होंगे, और आखिर में सही विचारों और दृष्टिकोणों के अनुसार जीवन जीने और आचरण करने की कोशिश करेंगे। यही उद्देश्य है। क्या तुम लोग सहमत हो? (हाँ।) सतही तौर पर, हम लोगों की नकारात्मक भावनाओं को उजागर करते हैं, लेकिन वास्तव में, हम विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करते हैं। इसका उद्देश्य लोगों को विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करने और उन्हें संभालने के लिए सही विचारों और दृष्टिकोण का उपयोग करने में सक्षम बनाना है, और आखिर में लोगों और चीजों को देखते, आचरण करते और कार्य करते समय सत्य सिद्धांतों के अनुसार कार्य करने में सक्षम बनाना है। क्या हम वापस “सत्य का अनुसरण कैसे करें” के मूल प्रसंग पर नहीं आ गए? (हाँ।)

विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के बारे में संगति मुख्य प्रसंग से भटके बिना आखिर में “सत्य का अनुसरण कैसे करें” के व्यापक विषय पर ही लौट आती है, है न? (हाँ।) पहले-पहल, कुछ लोग सोच सकते हैं, “विभिन्न नकारात्मक भावनाओं को त्यागने का सत्य का अनुसरण करने से कोई लेना-देना नहीं लगता है। नकारात्मक भावनाएँ केवल अस्थायी मनोदशाएँ या क्षणिक सोच और विचार हैं।” यदि यह एक क्षणिक सोच या अस्थायी मनोदशा है, तो यह उन नकारात्मक भावनाओं के दायरे में नहीं आता है जिनके बारे में हम संगति कर रहे हैं। इन नकारात्मक भावनाओं का वास्ता सिद्धांत और सार की इन समस्याओं से है कि कोई व्यक्ति लोगों और चीजों कैसे देखता है और खुद कैसा आचरण और कार्य करता है। इनमें वह सही दृष्टिकोण, रवैया और सिद्धांत शामिल है जो लोगों को अपने जीवन में अपनाना चाहिए, साथ ही, इनमें उनके जीवन के विचार और जीवन जीने के तौर-तरीके भी शामिल हैं। इन चीजों के बारे में संगति करने का अंतिम उद्देश्य लोगों को इस तरह से सक्षम बनाना है कि जीवन में विभिन्न मामलों का सामना होने पर वे इन्हें अपनी स्वाभाविकता या उग्रता के साथ न संभालें या इन समस्याओं से अपने भ्रष्ट स्वभावों द्वारा न निपटें। बेशक इसका मतलब यह भी है कि वे समाज द्वारा उनके मन में बिठाए गए विभिन्न शैतानी फलसफों के आधार पर इन समस्याओं से नहीं निपटेंगे। बल्कि, वे उनसे सही तरीके से, उस अंतरात्मा और विवेक के साथ निपटेंगे जो जीवन में आने वाली समस्याओं से निपटते समय व्यक्ति में होना ही चाहिए। इसके अलावा, सामान्य मानवीय अंतरात्मा और विवेक की बुनियादी स्थितियों में, वे अपने जीवन में शामिल विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते हुए परमेश्वर के वचनों, सत्य और परमेश्वर द्वारा सिखाए गए विभिन्न सिद्धांतों के अनुसार व्यवहार करेंगे। इस उद्देश्य को हासिल करने की खातिर ही विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति और उनका विश्लेषण किया जाता है। समझा तुमने? (हाँ, समझ गया।) तो बताओ। (इन नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति करने और उनका गहन-विश्लेषण करने में परमेश्वर का उद्देश्य, लोगों को उनकी नकारात्मक भावनाओं के भीतर मौजूद गलत विचारों और दृष्टिकोणों को समझने और उन्हें बदलने में सक्षम बनाना है, ताकि वे इन नकारात्मक भावनाओं को त्याग सकें और जीवन में अंतरात्मा और विवेक पर निर्भर होकर और परमेश्वर के वचनों और सत्य सिद्धांतों के अनुसार विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना कर सकें और उनसे सही तरीके से निपटें। इससे उन्हें धीरे-धीरे जीवन के प्रति अपना नजरिया बदलने, लोगों और चीजों को सत्य के आधार पर देखने, आचरण करने, सत्य के अनुसार कार्य करने और अपनी सामान्य मानवता का जीवन जीने में मदद मिलती है।) अगर मैंने इन नकारात्मक भावनाओं के बारे में संगति नहीं की या उनका गहन-विश्लेषण नहीं किया, अगर मैंने लोगों के विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों के बारे में न तो संगति की और न ही उन्हें उजागर किया, तो जब लोगों के दैनिक जीवन में समस्याएँ आएँगी, तब वे अक्सर गलत रुख और परिप्रेक्ष्य अपनाएँगे, इन मामलों का सामना करने, इन्हें संभालने और हल करने के लिए भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग करेंगे। इस तरह, काफी हद तक, लोग अक्सर इन नकारात्मक विचारों से बेबस, बंधे हुए और नियंत्रित होंगे, जीवन में विभिन्न समस्याओं को परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार या परमेश्वर के वचनों में उजागर किए गए सिद्धांतों और तरीकों से संभालने में असमर्थ होंगे। बेशक, यदि किसी व्यक्ति के पास विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति सही विचार और दृष्टिकोण के साथ-साथ सही परिप्रेक्ष्य और रुख भी है, तो इससे उसे इन लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते हुए सही परिप्रेक्ष्य के साथ इनसे निपटने या कम-से-कम सामान्य मानवीय अंतरात्मा और विवेक के दायरे में रहकर इन्हें संभालने में मदद मिलेगी, और वे विभिन्न समस्याओं से उग्रता के साथ या अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार निपटने से बचेंगे, जिनसे अनावश्यक परेशानी और अनचाहे परिणाम सामने आ सकते हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति अपने भविष्य, बीमारी, परिवार, शादी, प्रेम, पैसा, लोगों के बीच संबंधों और अपनी प्रतिभाओं के साथ-साथ अपने सामाजिक दर्जे और मूल्य और इसी तरह की अन्य समस्याओं को कैसे देखता है, यह सत्य समझने से पहले उसने अपने परिवार या समाज में जो कुछ सुना और सीखा है या जिन चीजों से प्रभावित हुआ है उन पर निर्भर करता है, और साथ ही उनके कुछ अनुभवों या तरीकों पर भी जो उन्होंने स्वयं तैयार किया है। हरेक व्यक्ति के पास चीजों को देखने का अपना अनूठा तरीका होता है, और हरेक व्यक्ति मामलों से निपटते समय एक खास रवैया अपनाने पर जोर देता है। बेशक, लोगों का चीजों को देखने के विभिन्न तरीकों में एक सामान्य कारक यह है कि वे सभी नकारात्मक, प्रतिकूल, भ्रामक या पक्षपाती विचारों और दृष्टिकोणों से प्रभावित और नियंत्रित होते हैं। उनका अंतिम लक्ष्य अपनी शोहरत, भाग्य और स्वार्थ को हासिल करना है। साफ तौर पर कहें, तो ये विचार और दृष्टिकोण शैतान द्वारा उनके मन में बिठाए विचारों और शिक्षाओं से आते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वे उन विभिन्न भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों से उत्पन्न होते हैं जिन्हें शैतान संपूर्ण मानवजाति में फैलाता है, जिनका वह समर्थन और पोषण करता है। इन भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों के निर्देशन में, लोग अनजाने में खुद को बचाने और अपने फायदों को बढ़ाने के लिए इनका उपयोग करते हैं। वे खुद को सुरक्षित करने और अपने फायदों को बढ़ाने के लिए समाज और दुनिया से उत्पन्न होने वाले इन विभिन्न विचारों और दृष्टिकोणों का उपयोग करने की भरसक कोशिश करते हैं, ताकि वे अपना स्वार्थ पूरा कर सकें। जाहिर है कि सब कुछ हासिल करने की यह लालसा कहीं नहीं रुकती है और यह अंतरात्मा और विवेक के साथ-साथ नैतिक सीमाओं को भी पार कर जाती है। इसलिए, इन नकारात्मक भावनाओं और नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों के निर्देशन में, कोई व्यक्ति लोगों और चीजों को कैसे देखता है और खुद कैसा आचरण और कार्य करता है इसका अंतिम नतीजा केवल लोगों को आपसी शोषण, धोखे, नुकसान और संघर्ष की ओर ले जा सकता है। आखिर में, विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों के निर्देशन, बंधन या बहकावे में आकर, लोग परमेश्वर की अपेक्षाओं से या यहाँ तक कि अपने आचरण और कार्य करने के तरीके में परमेश्वर द्वारा सिखाए गए सिद्धांतों से भी दूर चले जाएँगे। यह भी कहा जा सकता है कि विभिन्न नकारात्मक विचारों के निर्देशन और बहकावे में आकर, लोग कभी भी सत्य को प्राप्त नहीं करेंगे या परमेश्वर की अपेक्षा के अनुसार सत्य का अभ्यास करने की वास्तविकता में प्रवेश नहीं करेंगे। उनके लिए सत्य को कसौटी मानकर लोगों और चीजों पर अपने विचारों, आचरण और कार्यों को परमेश्वर के वचनों पर आधारित करने के सिद्धांत का पालन करना भी मुश्किल हो जाता है। इसलिए, जब लोग अपनी नकारात्मक भावनाओं का समाधान करते हैं, तब वास्तव में उन्हें विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को त्यागने की भी आवश्यकता होती है। जब लोग अपने भीतर के विभिन्न गलत विचारों और दृष्टिकोणों को पहचान लेते हैं, तभी वे हर प्रकार की नकारात्मक भावना को त्याग सकते हैं। बेशक, जैसे-जैसे लोग विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को त्यागते हैं, उनकी नकारात्मक भावनाएँ भी काफी हद तक दूर हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, आओ उन निराशाजनक भावनाओं पर विचार करें जिनके बारे में हमने पहले संगति की थी। सरल शब्दों में, यदि किसी व्यक्ति में लगातार यह महसूस करने के कारण कि उसकी किस्मत खराब है, ये नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न होती हैं, तो जब वह अपनी किस्मत के खराब होने के उन विचारों और दृष्टिकोणों पर कायम रहता है, वह अनजाने में ही निराशा की भावना में डूब जाता है। इसके अलावा, उसकी व्यक्तिपरक चेतना लगातार यह विश्वास दिलाती है कि उसकी किस्मत खराब है। जब भी उसके सामने थोड़ी कठिन या चुनौतीपूर्ण स्थिति आती है, तो वह सोचता है, “अरे, मेरी तो किस्मत ही खराब है।” वह इसके लिए अपनी खराब किस्मत को जिम्मेदार ठहराता है। नतीजतन, वह निराशा, हताशा और अवसाद की नकारात्मक भावनाओं में जीता है। यदि लोग जीवन में आने वाली विभिन्न कठिनाइयों का सही ढंग से सामना कर सकें या नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण उत्पन्न होने पर सत्य की खोज कर सकें, उनका सामना करने के लिए परमेश्वर के वचनों पर भरोसा कर पाएँ, यह पहचान सकें कि मनुष्य की नियति क्या है, और यह विश्वास कर पाएँ कि उनकी किस्मत परमेश्वर के हाथों में और उसके नियंत्रण में है, तब वे जीवन की इन विपत्तियों, चुनौतियों, बाधाओं और कठिनाइयों का सही ढंग से सामना कर पाएँगे या इन संघर्षों को सही ढंग से समझ सकेंगे। ऐसा करने पर, क्या खराब किस्मत होने के बारे में उनकी सोच और दृष्टिकोण में कोई बदलाव आता है? साथ ही, क्या वे इन समस्याओं का सामना करने के लिए उचित रुख अपना पाते हैं? (हाँ।) जब लोग इन समस्याओं का सामना करने में सही रुख अपनाते हैं, तो उनकी अवसाद की भावनाएँ धीरे-धीरे सुधरने लगती हैं, गंभीर से मध्यम होने लगती हैं, और फिर मध्यम से सामान्य होते-होते पूरी तरह से गायब और खत्म हो जाती हैं। अंततः, उनकी अवसाद की भावनाएँ समाप्त हो जाती हैं। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए है क्योंकि “मेरी किस्मत ही खराब है” की उनकी पहले वाली सोच और दृष्टिकोण में बदलाव आता है। इसके ठीक हो जाने के बाद, वे अपनी किस्मत को निराशा की भावना से नहीं देखते, बल्कि समस्याओं के प्रति एक सक्रिय और आशावादी रवैया अपनाते हैं, परमेश्वर की शिक्षाओं के तरीकों और परमेश्वर द्वारा मानवता के लिए उजागर की गई नियति के सार के परिप्रेक्ष्य को समझ पाते हैं। इसलिए, जब वे पहले आ चुकी समस्या का फिर से सामना करते हैं, तो वे अब अपनी नियति को खराब किस्मत के विचारों और दृष्टिकोणों से नहीं देखते हैं, और न ही निराशा की भावनाओं के साथ इन समस्याओं का विरोध या विद्रोह करते हैं। भले ही शुरू में वे उन्हें अनदेखा कर सकते हैं या उनके प्रति बेरुखी दिखा सकते हैं, लेकिन समय के साथ, जैसे-जैसे वे सत्य के अनुसरण की गहराई में जाते हैं और उनका आध्यात्मिक कद बढ़ता है, लोगों और चीजों को देखने का उनका परिप्रेक्ष्य और रुख लगातार ठीक होता जाता है, तो उनकी निराशा की भावनाएँ न केवल समाप्त हो जाती हैं, बल्कि वे अधिक सक्रिय और आशावादी भी बन जाते हैं। आखिर में, वे मनुष्य की नियति की प्रकृति की पूरी समझ और स्पष्ट अंतर्दृष्टि प्राप्त कर लेते हैं। वे परमेश्वर के आयोजन के प्रति समर्पण के रवैये या इसकी वास्तविकता के साथ इन मामलों को सही ढंग से संभाल और निपटा सकते हैं। उस समय, वे अपनी निराशा की भावनाओं को पूरी तरह से त्याग देते हैं। ऐसी है नकारात्मक भावनाओं को त्यागने की प्रक्रिया, यह जीवन का एक महत्वपूर्ण विषय है। सार में, जब कोई नकारात्मक भावना किसी व्यक्ति के दिल में गहराई से जड़ें जमा लेती है या लोगों और चीजों को देखने के उनके तरीके, उनके आचरण और कार्यों को प्रभावित करती है, तो यह निस्संदेह एक साधारण नकारात्मक भावना से कहीं अधिक है। इसके पीछे इस बारे में, उस बारे में या किसी अन्य मामले के बारे में कोई गलत विचार या दृष्टिकोण होता है। ऐसे मामलों में, तुम्हें न केवल नकारात्मक भावनाओं के स्रोत का विश्लेषण करना है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हें अपनी नकारात्मक भावनाओं के भीतर छिपे हत्यारे को खोजना है। यह छिपा हुआ तत्व एक नकारात्मक विचार या दृष्टिकोण है, चीजों से निपटने के लिए एक गलत या भ्रामक विचार या दृष्टिकोण है जो लंबे समय से तुम्हारे दिल में गहराई तक जड़ें जमाए बैठा है। भ्रामक और नकारात्मक पहलुओं के संदर्भ में, यह विचार या दृष्टिकोण यकीनन सत्य का खंडन करता है और उसके बिल्कुल विपरीत है। इस समय, तुम्हारा काम केवल इसके बारे में सोचना, इसका विश्लेषण करना और इससे परिचित होना ही नहीं है, बल्कि इससे तुम्हें होने वाले नुकसान, तुम पर इसके नियंत्रण और बंधन, और तुम्हारे सत्य के अनुसरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को समझना भी है। इसलिए, तुम्हें विभिन्न नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करना, उनका विश्लेषण करना, और उन्हें पहचानना होगा; साथ ही, तुम्हें परमेश्वर द्वारा संगति में बताए गए सत्य सिद्धांतों के अनुसार उन्हें पहचानने और उनकी असलियत देखने के लिए परमेश्वर के वचन भी खोजने होंगे, अपने गलत या नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों का स्थान सत्य को देकर उन नकारात्मक भावनाओं को पूरी तरह से ठीक करना होगा जो तुम्हें उलझाते रहे हैं। यही नकारात्मक भावनाओं को ठीक करने का मार्ग है।

कुछ लोग कहते हैं, “मैंने अब तक अपने अंदर कोई नकारात्मक भावना नहीं देखी।” कोई बात नहीं, देर-सबेर, सही समय पर, सही माहौल में, या जब तुम सही उम्र या जीवन के किसी विशेष अहम पड़ाव पर पहुँचोगे, तो ये नकारात्मक भावनाएँ स्वाभाविक रूप से उभरेंगी। तुम्हें खुद उन्हें तलाशने या खोजकर निकालने की कोई जरूरत नहीं है; कमोबेश, कुछ हद तक वे सभी लोगों के दिलों में मौजूद होती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग मानव संसार में रहते हैं, कोई भी कंप्यूटर की तरह अपने विचारों और दृष्टिकोणों को ध्यान में रखे बिना चीजों को नहीं देखता है, और लोगों के विचार सक्रिय रहते हैं, वे एक ऐसे पात्र की तरह हैं जो सकारात्मक और नकारात्मक चीजों को प्राप्त करने में सक्षम हैं। दुर्भाग्य से, सकारात्मक विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकारना शुरू करने से बहुत पहले ही लोगों ने शैतान, समाज और भ्रष्ट मानवजाति के विभिन्न गलत और त्रुटिपूर्ण विचारों और दृष्टिकोणों को स्वीकार लिया था। ये गलत विचार और दृष्टिकोण लोगों की आत्मा की गहराइयों में भरे पड़े हैं, उनके दैनिक जीवन और जीवन पथ पर गंभीर प्रभाव डालते और हस्तक्षेप करते हैं। इसलिए, जिस समय विभिन्न नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण लोगों के जीवन और उनके अस्तित्व में आते हैं, उसी समय विभिन्न नकारात्मक भावनाएँ भी उनके जीवन और उनके अस्तित्व के पथ पर सामने आती हैं। तो, व्यक्ति चाहे कोई भी हो, एक दिन तुम्हें पता चलेगा कि तुममें कुछ नहीं बल्कि बहुत सारी अस्थायी नकारात्मक भावनाएँ हैं। तुममें केवल एक नकारात्मक विचार या दृष्टिकोण मौजूद नहीं है, बल्कि एक साथ कई नकारात्मक विचार और दृष्टिकोण मौजूद हैं। भले ही वे अब तक उजागर नहीं हुए हैं, ये बस इसलिए है क्योंकि कोई ऐसा उपयुक्त माहौल या सही समय नहीं मिला या ऐसी घटना नहीं घटी जो तुम्हें अपने गलत विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर करने या अपनी नकारात्मक भावनाओं को प्रदर्शित करने पर मजबूर कर दे, या फिर ऐसा माहौल या समय अभी तक आया ही नहीं है। यदि इनमें से एक भी कारक काम करने लगे, तो यह आग में घी का काम करेगा, तुम्हारी नकारात्मक भावनाओं और नकारात्मक विचारों और दृष्टिकोण को चिंगारी लगाएगा, जिससे वे फट पड़ेंगे। तुम न चाहते हुए भी उनसे प्रभावित, नियंत्रित और बाध्य होगे। यहाँ तक कि वे तुम्हारे लिए बाधाएँ बन सकती हैं और तुम्हारे फैसलों को भी प्रभावित कर सकती हैं। यह सिर्फ समय की बात है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जिन विभिन्न नकारात्मक भावनाओं के बारे में हमने संगति की है वे ऐसी समस्याएँ हैं जिनका सामना लोग अपने जीवन में या अपने अस्तित्व के पथ में कर सकते हैं, और वे हर व्यक्ति के जीवन या अस्तित्व में सामने आने वाली वास्तविक समस्याएँ हैं। वे खोखली नहीं बल्कि ठोस हैं। चूँकि इन नकारात्मक भावनाओं में सीधे तौर पर वे सिद्धांत शामिल हैं जिन्हें कायम रखा जाना चाहिए और वे दृष्टिकोण शामिल हैं जो जीवित रहने को लेकर होना चाहिए, इसलिए हमें इन समस्याओं पर सावधानी से विचार और इनका विश्लेषण करना चाहिए।

पहले, हमने “दमन” की नकारात्मक भावना के बारे में संगति की थी। हमने “दमन” की समस्या पर कितनी बार संगति की थी? (हमने इसके बारे में दो बार संगति की थी।) हमने पहली बार किस बारे में संगति की थी? (पहली बार हमने इस बारे में संगति की थी कि कैसे लोग अक्सर अपनी इच्छानुसार कार्य नहीं कर पाते हैं, जिससे दमन की नकारात्मक भावनाएँ पैदा होती हैं। दूसरी बार, हमने इस बारे में संगति की थी कि कैसे लोग अपनी विशेषज्ञता का इस्तेमाल नहीं पाते हैं और अक्सर दमित नकारात्मक भावनाओं की स्थिति में जीते हैं।) हमने इन दो पहलुओं के बारे में संगति की थी। उनसे, क्या हम यह कह सकते हैं कि इसी प्रकार इन दो प्रकार के दमन के पीछे, लोग जीवन को कैसे देखते हैं, इस बारे में विचार और दृष्टिकोण छिपे हैं? पहला प्रकार, जो अपनी इच्छानुसार कार्य न कर पाने से उत्पन्न होता है, किस प्रकार का विचार या दृष्टिकोण दर्शाता है? यह अपनी जिम्मेदारी उठाने की आवश्यकता को समझे बिना आवेग, मनमर्जी, भावना और रुचि के आधार पर काम करते हुए, हमेशा मनमानी करने और गैर-जिम्मेदार बने रहने की मानसिकता है। क्या यह एक प्रकार का रवैया नहीं है जिसे लोग जीवन के प्रति अपनाते हैं? (हाँ।) यह जीवित रहने का एक तरीका भी है। क्या यह एक सकारात्मक दृष्टिकोण और जीवित रहने का तरीका है? (नहीं।) यह सकारात्मक नहीं है। लोग हमेशा अपनी इच्छानुसार जीना चाहते हैं, अपनी मनोदशा, रुचि और शौक के आधार पर मनमाने ढंग से काम करना चाहते हैं। यह जीने का सही तरीका नहीं है; यह नकारात्मक है और इसे हल करना जरूरी है। बेशक, इस नकारात्मक रवैये और जीने के तरीके से उत्पन्न होने वाली नकारात्मक भावनाओं को हल करना और भी जरूरी है। दूसरा प्रकार है दमन की नकारात्मक भावनाएँ, जो व्यक्ति की अपनी विशेषज्ञता का इस्तेमाल न कर पाने से उत्पन्न होती हैं। जब लोग अपनी विशेषज्ञता प्रदर्शित नहीं कर पाते हैं, खुद का दिखावा नहीं कर पाते हैं, अपने व्यक्तिगत मूल्य को प्रतिबिंबित नहीं कर पाते हैं, दूसरों से मान्यता प्राप्त नहीं कर पाते हैं, या अपनी प्राथमिकताओं को पूरा नहीं कर पाते हैं, तो वे दुखी, उदास और दमित महसूस करते हैं। क्या यह जीने का सही तरीका और परिप्रेक्ष्य है? (नहीं।) गलत चीजों को बदला जाना चाहिए, उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजा जाना चाहिए और उनका स्थान सही तरीके को दिया जाना चाहिए जो सत्य और सामान्य मानवता के अनुरूप हो। हमने पहले दमनकारी भावनाओं के उभरने के पीछे के इन दो कारणों के बारे में संगति की थी, जो हैं अपनी इच्छानुसार कार्य न कर पाना और अपनी विशेषज्ञता का उपयोग न कर पाना। दमनकारी भावनाओं के उभरने का एक और कारण है, क्या तुम लोग सोच सकते हो कि यह क्या है? व्यक्ति के अस्तित्व में होने के दृष्टिकोण से संबंधित कुछ अन्य चीजें क्या हैं जो लोगों को दमित महसूस करा सकती हैं? नहीं पता? दूसरा कारण है, अपने आदर्शों और इच्छाओं को पूरा नहीं कर पाने की वजह से दमित महसूस करना और दमन की नकारात्मक भावनाओं का उभरना। एक पल के लिए इस बारे में सोचो, क्या दमन की यह समस्या वाकई मौजूद है? क्या यह मनुष्यों के लिए एक वास्तविक समस्या है? (हाँ।) जिन लोगों के बारे में हमने पहले चर्चा की थी, जो अपनी इच्छानुसार काम करना चाहते हैं, वे अधिक खुदगर्ज और मनमौजी होते हैं। जीवन के प्रति उनका रवैया आवेग में आकर काम करना और अपनी मनमानी करना है। वे दूसरों पर धौंस जमाना पसंद करते हैं और किसी समुदाय में रहने के लिए उपयुक्त नहीं हैं। उनके जीवित रहने का तरीका यह है कि बाकी सभी लोग उनके चारों ओर घूमते फिरें, वे स्वार्थी होते हैं और दूसरों के साथ मिलजुलकर रहने या सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करने में असमर्थ हैं। दूसरे प्रकार का व्यक्ति जिसमें दमन का उदय होता है, वह ऐसा व्यक्ति है जो हमेशा दिखावा करना और खुद को प्रदर्शित करना चाहता है, जो सोचता है कि केवल वही सबसे महत्वपूर्ण है, और कभी दूसरों को रहने की जगह नहीं देता। अगर उसके पास थोड़ी-सी विशेषज्ञता या प्रतिभा हो, तो चाहे माहौल उपयुक्त हो या न हो, उसकी विशेषज्ञता बहुमूल्य हो या न हो, या फिर परमेश्वर के घर में उनका इस्तेमाल किया जा सकता हो या नहीं, वह इसे प्रदर्शित करना चाहेगा। इस प्रकार का व्यक्ति व्यक्तिवाद पर भी जोर देता है, है ना? क्या ये सब लोगों के जीवित रहने के तरीकों में शामिल है? (हाँ।) जीने और जीवित रहने के ये दोनों तरीके गलत हैं। आओ, अब दमन की उन नकारात्मक भावनाओं की ओर लौटते हैं जिनकी हमने पहले चर्चा की थी, जो व्यक्ति के अपने आदर्शों और इच्छाओं को पूरा न कर पाने से उत्पन्न होती हैं। अवसर, माहौल या अवधि चाहे जो भी हो, और चाहे वे किसी भी तरह के कार्य में लगे हों, ऐसे लोग हमेशा अपने आदर्शों और इच्छाओं को पूरा करने के लक्ष्य पर ध्यान देते हैं, इसे अपना मानक बना लेते हैं। यदि वे इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाते या हासिल नहीं कर पाते, तो वे दमित और दुखी महसूस करते हैं। क्या यह भी एक खास प्रकार के व्यक्ति के लिए जीवित रहने का तरीका नहीं है? (हाँ।) यह भी कुछ लोगों के लिए जीवित रहने का एक तरीका है। तो, जीवित रहने के इस तरीके से जीने वालों का मुख्य विचार या दृष्टिकोण क्या होता है? यह कि अगर उनके पास आदर्श और इच्छाएँ हैं, तो चाहे वे कहीं भी हों या कुछ भी कर रहे हों, उनका उद्देश्य अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करना होता है। यही उनके जीवित रहने का तरीका और उनका लक्ष्य है। दूसरों को चाहे कितनी भी कीमत चुकानी पड़े या कितना भी त्याग करना पड़े और चाहे कितने ही लोगों को उनके आदर्शों और इच्छाओं का बोझ उठाना पड़े या अपने निजी हितों का त्याग करना पड़े, वे बिना हार माने अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लक्ष्य का पीछा करेंगे। वे बिना किसी हिचकिचाहट के दूसरों के कंधों पर सवार होने या दूसरों के हितों की बलि देने को भी तैयार हैं। यदि वे इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते हैं, तो वे दमित महसूस करते हैं। क्या इस प्रकार की सोच या दृष्टिकोण सही है? (नहीं।) इसमें गलत क्या है? (यह बहुत स्वार्थी है!) यह “स्वार्थी” शब्द सकारात्मक है या नकारात्मक? (यह नकारात्मक है।) यह एक नकारात्मक और प्रतिकूल बात है, इसलिए सत्य के आधार पर इसका समाधान किया जाना चाहिए।

व्यक्ति को अपने आदर्शों और इच्छाओं को पूरा करने में असमर्थ रहने के कारण उत्पन्न होने वाली इन दमित भावनाओं का समाधान कैसे करना चाहिए? आओ पहले हम लोगों के विभिन्न आदर्शों और इच्छाओं का विश्लेषण करें। क्यों न हम यहाँ से अपनी संगति शुरू करें? (ठीक है।) लोगों के आदर्शों और इच्छाओं की बात से हमारी संगति शुरू करने से लोगों के लिए इसे समझना और विचार की स्पष्ट श्रृंखला पर चलना आसान हो जाता है। तो, सबसे पहले उन आदर्शों और इच्छाओं पर एक नजर डालते हैं जो लोगों में होती है। कुछ आदर्श और इच्छाएँ वास्तविक होती हैं, जबकि अन्य अवास्तविक होती हैं। कुछ लोगों के आदर्श आदर्शवादी होते हैं, जबकि कुछ के यथार्थवादी। हम पहले आदर्शवादियों के आदर्शों के बारे में संगति करें या यथार्थवादियों के आदर्शों के बारे में? (यथार्थवादियों के बारे में।) यथार्थवादियों के बारे में। अवास्तविक आदर्शों का क्या? हमें उनके बारे में संगति करनी चाहिए या नहीं? यदि हम उनके बारे में संगति नहीं करेंगे, तो क्या लोग उनके बारे में जान पाएँगे? (नहीं जान पाएँगे।) यदि संगति किए बिना वे इनके बारे में नहीं जान पाएँगे, तो हमें वाकई इनके बारे में संगति करनी चाहिए। अक्सर, संगति के बिना भी, लोग यथार्थवादियों के आदर्शों को समझ सकते हैं। ये चीजें हर किसी के विचारों और चेतना में मौजूद हैं। कुछ आदर्श और इच्छाएँ बचपन से जवानी तक नहीं बदलती हैं, भले ही वे साकार हों या न हों, जबकि अन्य उम्र के साथ बदल जाती हैं। जैसे-जैसे लोग बड़े होते हैं और उनके ज्ञान, समझ और अनुभव का दायरा बढ़ता है, उनके आदर्श और इच्छाएँ लगातार बदलते रहते हैं। वे अधिक यथार्थवादी, वास्तविक जीवन के करीब, और अधिक विशिष्ट हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोग जब युवा थे तो गायक बनना चाहते थे, लेकिन जैसे-जैसे वे बड़े हुए, उन्हें एहसास हुआ कि वे लय में नहीं रह सकते, तो गायक बनना यथार्थवादी नहीं था। फिर उन्होंने अभिनेता बनने के बारे में सोचा। कई वर्षों के बाद, उन्होंने आईने में देखा तो महसूस किया कि वे बहुत आकर्षक नहीं थे। भले ही वे थोड़े लंबे थे, लेकिन अभिनय में अच्छे नहीं थे, और उनके हाव-भाव ज्यादा स्वाभाविक नहीं लगते थे। अभिनेता बनना भी अवास्तविक था। इसलिए, उन्होंने निर्देशक बनने के बारे में सोचा, ताकि वे अभिनेताओं के लिए फिल्में निर्देशित कर सकें। जब वे अपने जीवन के दूसरे दशक में पहुँचे और उन्हें कॉलेज में एक प्रमुख विषय चुनना पड़ा, तो उनका आदर्श बदलकर निर्देशक बनना हो गया। स्नातक होने के बाद, जब उन्होंने निर्देशन का डिप्लोमा लेकर वास्तविक दुनिया में प्रवेश किया, तो उन्हें एहसास हुआ कि एक निर्देशक बनने के लिए शोहरत और प्रतिष्ठा, आवश्यक योग्यता के साथ-साथ वित्तीय संसाधन होना भी जरूरी है, जिसकी उनके पास सर्वथा कमी थी। कोई भी उन्हें निर्देशक के रूप में काम पर नहीं रखेगा। इसलिए, उन्हें कमतर पर समझौता करके फिल्म उद्योग में संभवतः एक स्क्रिप्ट सुपरवाइजर या प्रोडक्शन कोऑर्डिनेटर के रूप में अपना रास्ता बनाना पड़ा। समय के साथ, उन्होंने सोचा, “निर्माता बनना मेरे लिए उपयुक्त हो सकता है। मुझे व्यस्त रहना और पैसे कमाना अच्छा लगता है, मैं अच्छा बोल सकता हूँ और दिखने में भी काफी अच्छा हूँ। लोगों को मुझसे चिढ़ नहीं होती और मैं दूसरों के साथ अच्छी तरह बातचीत कर सकता हूँ और उनका समर्थन पा सकता हूँ। फिल्में बनाना मेरे लिए उपयुक्त हो सकता है।” तुमने देखा, उनका आदर्श धीरे-धीरे बदलता गया। यह क्यों बदला? शुरुआत में यह इसलिए बदला क्योंकि उनके विचार धीरे-धीरे परिपक्व हो गए, चीजों के बारे में उनकी धारणा अधिक सटीक, अधिक वस्तुनिष्ठ और व्यावहारिक होती गई। फिर, वास्तविक दुनिया में रहते हुए, उनके वास्तविक जीवन के माहौल और जीवन की व्यावहारिक जरूरतों और दबावों के आधार पर, उनके पिछले आदर्श धीरे-धीरे उस माहौल से बदल गए। आखिरकार, कोई रास्ता न बचने और निर्देशक बनने में असमर्थ होने पर, उन्होंने निर्माता बनने का विकल्प चुना। लेकिन क्या निर्माता बनकर वास्तव में उनके आदर्श साकार हुए या नहीं? वे खुद भी इसका ठीक-ठीक पता नहीं लगा सके। बहरहाल, एक बार शुरू करने के बाद उन्होंने लगभग दस वर्षों तक या यहाँ तक कि सेवानिवृत होने तक यही किया। यह यथार्थवादियों के आदर्शों का एक सामान्य विवरण है।

हम अभी इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि लोगों के आदर्शों को आदर्शवादियों के आदर्शों और यथार्थवादियों के आदर्शों की दो श्रेणियों में कैसे बाँटा जा सकता है। आओ आदर्शवादियों के आदर्शों के बारे में बात शुरू करें। यथार्थवादियों के आदर्शों को पहचानना आसान होना चाहिए। दूसरी ओर, आदर्शवादियों के आदर्श ज्यादा ठोस नहीं होते हैं और वास्तविक जीवन से कुछ हद तक दूर ही रहते हैं। वे मानव जीवन में शामिल व्यावहारिक मामलों, जैसे कि दैनिक जरूरतों से भी बहुत दूर होते हैं। इन आदर्शों में ठोस अवधारणाएँ होती हैं लेकिन इनका कोई विशेष धरातल नहीं होता है। तुम कह सकते हो कि ये आदर्श और इच्छाएँ कपोल-कल्पनाएँ हैं, अपेक्षाकृत खोखली और मानव प्रकृति से अलग हैं। कुछ को अमूर्त माना जा सकता है, और इनमें से कुछ आदर्श और इच्छाएँ ऐसी भी हैं जो एक खंडित व्यक्तित्व से उत्पन्न होती हैं। आदर्शवादियों के आदर्श क्या हैं? आदर्शवाद को समझना आसान होना चाहिए। यह एक दिवास्वप्न है, एक कपोल-कल्पना है, जिसका वास्तविक जीवन की दैनिक जरूरतों के व्यावहारिक मामलों से कोई संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए, एक कवि होना, एक अमर कवि होना, दुनिया भर में घूमना; या तलवारबाज होना, भटका शूरवीर होना और सारी दुनिया घूमना, अविवाहित और निःसंतान रहना, जीवन की तुच्छ चीजों की उलझनों से आजाद रहना, दैनिक जरूरतों की चिंता से मुक्त होना, आराम और सुकून से जीना, इधर-उधर भटकते रहना, हमेशा अमर रहने की आकांक्षा रखना और वास्तविक जीवन से बचकर भागना। क्या यह एक आदर्शवादी का आदर्श है? (हाँ।) क्या तुम लोगों में से किसी के मन में ऐसे विचार हैं? (नहीं हैं।) चीनी इतिहास के उन मशहूर कवियों के बारे में क्या कहोगे जो शराब पीकर कविताएँ लिखते थे? वे आदर्शवादी थे या यथार्थवादी? (आदर्शवादी।) जिन विचारों का उन्होंने समर्थन किया था वे आदर्शवादियों की कपोल-कल्पनाएँ और दिवास्वप्न थे। वे हमेशा इधर-उधर भटकते रहते थे, अस्पष्ट और अनिश्चित शब्दों में बातें करते थे, कल्पना करते थे कि दुनिया कितनी सुंदर है, मानवजाति कितनी शांतिपूर्ण हो सकती है, कैसे लोग मिलजुलकर रह सकते हैं। उन्होंने खुद को सामान्य मानवता की अंतरात्मा, विवेक और जीवन की जरूरतों से अलग कर लिया। उन्होंने खुद को वास्तविक जीवन की इन समस्याओं से अलग कर लिया और एक आदर्शवादी या काल्पनिक क्षेत्र की कल्पना की जो वास्तविकता से पूरी तरह अलग था। उन्होंने खुद को उस क्षेत्र के और उस दायरे के भीतर रहने वाले प्राणी के रूप में देखा। क्या यही एक आदर्शवादी का आदर्श नहीं है? अतीत की एक कविता है, और उसकी एक पंक्ति में लिखा है, “मैं हवा के झोंके पर सवार होकर उड़ते हुए घर जाना चाहता हूँ।” उस कविता का शीर्षक क्या था? (“वाटर मेलोडी।”) उस कविता की पंक्तियाँ पढ़ो। (“मैं हवा के झोंके पर सवार होकर उड़ते हुए घर जाना चाहता हूँ। मुझे डर है कि आसमान बहुत ठंडा है, जेड-पैलेस बहुत ऊँचा है। अपनी परछाई के संग नाचते हुए, अब मैं नश्वर बंधन से मुक्त हूँ।”) “अपनी परछाई के संग नाचते हुए, अब मैं नश्वर बंधन से मुक्त हूँ” से कवि का क्या तात्पर्य है? क्या ये दो पंक्तियाँ एक आदर्शवादी की दमनकारी और आक्रोशपूर्ण भावनाओं को व्यक्त करती हैं जिनके आदर्श हासिल या साकार नहीं हो पाए? क्या वे ऐसा कुछ हैं जो इस दमनकारी भावना के तहत व्यक्त किए गए हैं? यह किस पर केंद्रित है? कौन-सा वाक्य उस माहौल और पृष्ठभूमि को दर्शाता है जिसमें कवि ने खुद को उस समय पाया था? क्या यह वाला, “मुझे डर है कि आसमान बहुत ठंडा है”? (हाँ।) वह अफसरशाही के अंधकार और बुराई, जीने की एक भ्रष्ट जगह को उजागर कर रहा था। वह ऐसे माहौल और स्थिति से बचने के लिए अमर बनना चाहता था। क्या उसके लिए केवल एक अधिकारी का पद त्याग देना ही काफी नहीं होता? क्या ऐसा हो सकता है कि वह इस माहौल को बदलना चाहता हो? वह ऐसे माहौल से असंतुष्ट था, उसे लगता था कि यह उस आदर्श जीवन के माहौल से मेल नहीं खाता है जिसकी उसने कल्पना की थी, और वह अंदर ही अंदर दमित महसूस करता था। एक आदर्शवादी के पास इसी प्रकार का आदर्श होता है। आदर्शवादियों के आदर्श अधिकतर कपोल-कल्पना की ओर प्रवृत्त होते हैं, वे अवास्तविक और अमूर्त होते हैं, वास्तविक जीवन से कटे होते हैं। ऐसा लगता है मानो वे भौतिक संसार के बाहर एक स्वतंत्र और व्यक्तिगत स्थान में, कपोल-कल्पनाओं में लिप्त और वास्तविकता से अलग होकर किसी दूसरी दुनिया में जीते हैं। आधुनिक समाज में रहने वाले कुछ लोगों की तरह, वे भी हमेशा प्राचीन कपड़े पहनना, प्राचीन तरीकों से अपने बालों को संवारना और प्राचीन भाषा में बात करना चाहते हैं। वे सोचते हैं, “आह, उस तरह का जीवन एकदम अद्भुत है! बिल्कुल एक अमर व्यक्ति की तरह, जो भौतिक देह की परेशानियों और वास्तविक जीवन की विभिन्न कठिनाइयों से मुक्त होकर घूमता और भ्रमण करता रहता है। जीवन जीने के ऐसे माहौल में कोई उत्पीड़न, कोई शोषण, कोई चिंता नहीं है। सभी लोग एक समान हैं, एक-दूसरे की मदद करते हुए मिलजुलकर रहते हैं। जीवन जीने की ऐसी आदर्श परिस्थितियाँ कितनी सुंदर और अभीष्ट हैं!” अविश्वासियों के बीच, कुछ ऐसे लोग हैं जो इन चीजों का अनुसरण करते हैं। कुछ लोग एक जैसे गीत गाते हैं या एक जैसी कविताएँ लिखते हैं, या एक जैसा अभिनय करते हैं। इसी वजह से, लोग उस दूसरी दुनिया की और भी अधिक लालसा रखते हैं जिसका आदर्शवादी सपना देखते हैं। और जब कुछ लोग ये गाने गाते हैं या ये कार्यक्रम प्रस्तुत करते हैं, तो जितना अधिक वे गाते हैं, उनकी मनोदशा उतनी ही ज्यादा उदास होती जाती है, उतना ही अधिक वे उस आदर्श दुनिया के लिए तरसते हैं और उससे चिपके रहते हैं। आखिर में क्या होता है? कुछ लोगों को लंबे समय तक गाने के बाद लगता है कि वे अपनी चिंताओं से भाग नहीं सकते। वे चाहे कितना भी गाएँ, फिर भी वे मानव संसार का स्नेह महसूस नहीं कर सकते। वे चाहे कितना भी गाएँ, फिर भी उन्हें लगता है कि उनके आदर्शवाद का काल्पनिक संसार ही बेहतर है। उनका संसार से मोहभंग हो जाता है, वे अब इस मानवीय संसार में नहीं रहना चाहते हैं और आखिर में अपने तरीके से उस आदर्श दुनिया में जाने का दृढ़ निर्णय कर लेते हैं। कुछ लोग जहर पी लेते हैं, कुछ इमारतों से कूद जाते हैं, कुछ अपने पजामों से अपना गला घोंट लेते हैं, तो कुछ भिक्षु बन जाते हैं और आध्यात्मिक अभ्यास करने लगते हैं। उनके शब्दों में, उन्होंने सांसारिक लगाव के भ्रमजाल के पार देख लिया है। वास्तव में, दुनिया के प्रति उनके मोहभंग को दूर करने के लिए ऐसे चरम उपायों और तरीकों का सहारा लेने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसी समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के कई तरीके हैं, लेकिन क्योंकि वे इन समस्याओं के अंतर्निहित सार को नहीं समझ पाते हैं, इसलिए वे आखिर में इन कठिनाइयों को हल करने और उनसे बचने के लिए चरम तरीके चुनते हैं, ताकि अपने आदर्शों को साकार करने के उद्देश्य को हासिल कर सकें। यह उन कुछ आदर्शवादियों और उनकी समस्याओं को दर्शाता है जो अविश्वासियों के बीच रहते हैं।

परमेश्वर के घर में, कलीसिया में, क्या ऐसे लोग मौजूद हैं जिनके समान आदर्श हों? यकीनन, तुम लोगों ने अभी तक उन्हें देखा नहीं है, तो मैं तुम्हें उनके बारे में बताऊँगा। ऐसे व्यक्ति मौजूद हैं, जो धर्मनिरपेक्ष दुनिया में रहते हुए, सभी के लिए शांति, सद्भाव, अमन और समानता वाले एक आदर्श समाज के लिए तरसते हैं, जैसा कि अविश्वासियों के बीच मौजूद आदर्शवादी करते हैं। यह आदर्श समाज कुछ कवियों या लेखकों द्वारा चित्रित कल्पना-लोक की तरह है; बेशक, यह अधिकतर कुछ ऐसे क्षेत्रों, जीवन जीने के तरीकों या रहने के माहौल जैसा है जो लोगों की आदर्श दुनिया में होते हैं। ऐसी आवश्यकताओं और आदर्शों से प्रेरित ये लोग, अपने आदर्शों को साकार करने के लिए अनजाने में अपनी आस्था खोज लेते हैं। खोज करते समय, उन्हें पता चलता है कि परमेश्वर में विश्वास करना एक अच्छा मार्ग और आस्था का एक अच्छा विकल्प है। अपने आदर्शों को साथ लेकर, वे परमेश्वर के घर में आते हैं, आशा करते हैं कि लोगों के बीच उन्हें स्नेह मिलेगा, उनकी परवाह की जाएगी, उन्हें संजोकर रखा जाएगा और उनकी देख-रेख होगी, और बेशक, वे परमेश्वर के महान प्रेम और सुरक्षा को और भी अधिक महसूस करने की आशा करते हैं। वे अपने आदर्शों के साथ परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं, और वे चाहे अपने कर्तव्य निभाएँ या न निभाएँ, हल हाल में उनके आदर्श अपरिवर्तित रहते हैं—वे हमेशा अपने आदर्शों को साथ लेकर चलते हैं। शुरू से अंत तक, उनके आदर्शों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है : परमेश्वर के घर में प्रवेश करने पर, वे आशा करते हैं कि यह एक ऐसा स्थान है जहाँ वे स्नेह महसूस कर सकते हैं, जहाँ वे स्नेह, खुशी और कल्याण का आनंद ले सकते हैं। वे आशा करते हैं कि यह ऐसी जगह है जहाँ लोगों के बीच कोई विवाद, संदेह या भेदभाव नहीं होता; एक ऐसी जगह जहाँ लोगों के बीच धौंस जमाने, धोखा देने, नुकसान पहुँचाने या अलग-थलग करने की कोशिश नहीं होती है। ये मूल रूप से वे आदर्श हैं जो ऐसे आदर्शवादियों के मन में पाए जा सकते हैं। यानी, वे एक ऐसी जगह की कल्पना करते हैं जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ मशीनों की तरह व्यवहार करें, उनका अपना जीवन या कोई विचार न हो, दूसरों से मेलजोल में मित्रता दिखाने और यह दिखाने के लिए कि उनके बीच कोई दुश्मनी नहीं है, वे यंत्रवत ढंग से मुस्कुराएँ, सिर हिलाएँ और झुककर अभिवादन करें। इस आदर्श स्थान में, लोगों के बीच बहुत प्रेम है, और वे एक-दूसरे की देख-रेख कर सकते हैं, एक-दूसरे को संजोकर परवाह और मदद कर सकते हैं, एक-दूसरे को समझकर आपस में सामंजस्य बैठा सकते हैं, और यहाँ तक कि एक-दूसरे की ढाल बनकर गलतियाँ भी छिपा सकते हैं। आदर्शवादी इसी तरह की चीजों को आदर्श मानते और उनके सपने देखते हैं। उदाहरण के लिए, जब आदर्शवादी परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं, तो उनका आदर्श और उम्मीद यह होती है कि बुजुर्ग लोगों का सम्मान किया जाए, उन्हें संजोकर उनकी देखभाल की जाए और युवा सदस्य अच्छे से उन पर ध्यान दें और उनका ख्याल रखें। सम्मान के अलावा, वे यह भी आशा करते हैं कि लोग आदरसूचक नामों का उपयोग करेंगे, भाइयों को “फलाँ बड़े ताऊ,” “अमुक अंकल” या “फलाँ अंकल” और बहनों को “अमुक दादी,” “अमुक आंटी,” या “फलाँ बहन” कहकर संबोधित करेंगे—मूल रूप से, हर किसी का अपना अलग संबोधन होगा। वे आशा करते हैं कि लोग बाहरी तौर पर एक-दूसरे के प्रति विशेष रूप से सौहार्दपूर्ण, सामंजस्यपूर्ण और विनम्र होंगे, और किसी के भी मन में सतही तौर पर या दिल की गहराई में कोई दुर्भावना या कोई खराब या बुरी बात नहीं होगी। वे आशा करते हैं कि यदि कोई गलती करता है या कठिनाइयों का सामना करता है, तो हर कोई उनकी सहायता के लिए मदद का हाथ बढ़ा सकता है, और इसके अलावा, उनकी अच्छे से देखभाल कर उनके प्रति सहनशील हो सकता है। खासकर जब कमजोर लोगों और उन अपेक्षाकृत निष्कपट लोगों की बात आती है जिन्हें दुनिया में लोग आसानी से धमकाते या दबाते हैं—तो वे और भी अधिक आशा करते हैं कि जब ऐसे लोग कलीसिया में, परमेश्वर के घर में आएँ, तो उनकी अच्छी देखभाल की जाए, उनका ध्यान रखा जाए और उनके साथ खास तरह का व्यवहार किया जाए। जैसा कि ये आदर्शवादी कहते हैं, जब वे परमेश्वर के घर में आए, तो उन्होंने कामना की थी कि हर कोई खुशहाल और सुखी रहे, और उन्हें उम्मीद थी कि क्योंकि वे सभी परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उनका एक बड़ा परिवार होगा और सभी भाई-बहन एक साथ होंगे। वे सोचते हैं कि यहाँ कोई धौंस जमाने, दंड देने या नुकसान पहुँचाने की कोशिश नहीं करेगा। उनका मानना है कि यदि कोई समस्या उत्पन्न होती है, तो लोगों के बीच कोई विवाद या गुस्सा नहीं होना चाहिए, बल्कि सभी को एक-दूसरे के साथ शांति से, बहुत धैर्य और सहयोग की भावना के साथ व्यवहार करना चाहिए, उन्हें हमेशा दूसरों को सहज महसूस कराना चाहिए, और हरेक व्यक्ति को सिर्फ अपना सबसे अच्छा और सबसे उदार पक्ष ही दिखाना चाहिए और अपने बुरे या दुष्टतापूर्ण पक्ष को अपने तक ही सीमित रखना चाहिए। उनका मानना है कि लोगों को एक-दूसरे के साथ मशीनों की तरह व्यवहार करना चाहिए, उन्हें दूसरे लोगों के बारे में कोई नकारात्मक विचार या राय नहीं रखनी चाहिए, और एक-दूसरे के साथ कुछ भी नकारात्मक तो बिल्कुल नहीं करना चाहिए; वे सोचते हैं कि लोगों को दूसरों के प्रति अच्छे इरादे रखने चाहिए, और यह कहावत बढ़िया बात कहती है, “अच्छे लोगों का जीवन शांतिपूर्ण होता है।” वे सोचते हैं कि केवल यही परमेश्वर का सच्चा घर और सच्ची कलीसिया है। हालाँकि, इन आदर्शवादियों के आदर्श अब तक साकार नहीं हुए हैं। उनकी जगह पर, परमेश्वर का घर सिद्धांतों पर ध्यान देता है, लोगों के बीच पारस्परिक सहयोग और समर्थन पर जोर देता है, और हर किसी से यह अपेक्षा करता है कि वे सभी प्रकार के लोगों के साथ सत्य सिद्धांत और परमेश्वर के वचनों के आधार पर व्यवहार करें। परमेश्वर के घर ने कुछ ऐसी अपेक्षाएँ भी सामने रखी हैं जो लोगों के प्रति “विचारशून्य” हैं, जैसे विभिन्न प्रकार के लोगों के बीच अंतर करना और उनके साथ अलग-अलग व्यवहार करना। परमेश्वर का घर लोगों से यह अपेक्षा भी करता है कि वे परमेश्वर के घर के हितों को नुकसान पहुँचाने वालों, कार्य व्यवस्थाओं का उल्लंघन करने वालों या सिद्धांतों के विरुद्ध जाने वालों को उजागर करने और उनकी काट-छाँट करने के लिए उठ खड़े हों, ताकि परमेश्वर के घर के हितों की रक्षा की जा सके, और यह लोगों को भावनाओं के आधार पर किसी को बचाने या उसकी गलतियाँ छिपाने की अनुमति नहीं देता है। बेशक, परमेश्वर के घर ने अगुआई के विभिन्न स्तर भी निर्धारित किए हैं। एक ओर, परमेश्वर का घर सभी स्तरों के अगुआओं से यह अपेक्षा करता है कि वे कलीसिया के रोजमर्रा के कार्य की देख-रेख करें। दूसरी ओर, वह उनसे विभिन्न कार्यों की कड़ाई से निगरानी, प्रबंधन करने और उनकी खोज-खबर रखने के साथ-साथ उनसे हर समय विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों की दशा और कलीसियाई जीवन के बारे में सूचित रहने, उन्हें समझने और उन पर ध्यान देने, कर्तव्य निभाते समय अपने रवैये और प्रवृत्तियों पर गौर करने, और आवश्यक होने पर उचित और उपयुक्त बदलाव करने की अपेक्षा करता है। बेशक, परमेश्वर का घर अगुआओं और कर्मियों से ऐसे किसी भी व्यक्ति की सख्ती से काट-छाँट करने की अपेक्षा करता है जो उन्हें परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं के विरुद्ध जाते दिखे या सिद्धांतों का उल्लंघन करे, कलीसिया के कार्य में बाधा डाले और उसे बिगाड़े; उनसे छोटे-मोटे अपराधों के लिए चेतावनियाँ जारी करने, और अधिक गंभीर मामलों से उचित ढंग से निपटने की अपेक्षा भी की जाती है। इस संदर्भ में, कुछ लोगों को हटा दिया गया है, निकाल दिया गया है, या उनके नाम काट दिए गए हैं। यकीनन, जब लोग विभिन्न कर्तव्य निभाने और विभिन्न कार्यों में शामिल होने के लिए परमेश्वर के घर में आते हैं, तो उनमें से कई लोग परमेश्वर के वचनों से आने वाली ताड़ना और न्याय को सुनते, देखते या अनुभव करते हैं; इसके अलावा, वे विभिन्न दर्जे के अगुआओं से काट-छाँट का अनुभव करते हैं। ये अलग-अलग माहौल और मामले, जिनका लोग परमेश्वर के घर में सामना करते हैं, आदर्शवादियों की कल्पना में मौजूद परमेश्वर के आदर्श घर और कलीसिया से बिल्कुल अलग हैं, इस हद तक अलग हैं कि वे उनकी अपेक्षाओं से बिल्कुल बाहर ही हैं, और इस कारण से उनके दिलों में बहुत गहरा दबाव महसूस होता है। एक ओर, उन्हें कलीसिया में होने वाली विभिन्न घटनाएँ या समस्याओं से निपटने के कलीसिया के तरीके और सिद्धांत अकल्पनीय लगते हैं। वहीं दूसरी ओर, अपने आदर्शों के कारण और सकारात्मक चीजों, कलीसिया और परमेश्वर के घर के बारे में अपनी भ्रामक समझ के कारण उनके दिलों की गहराई में दमनकारी भावनाएँ पैदा होती हैं। इन दमनकारी भावनाओं के उत्पन्न होने पर, क्योंकि वे अपने गलत विचारों और दृष्टिकोणों को तुरंत ठीक करने में विफल रहते हैं, या अपने आदर्शों की समस्याओं को समझ नहीं पाते और स्पष्ट रूप से पहचान नहीं पाते, तो उनके भीतर कई धारणाएँ उभरने लगती हैं। इसके अलावा, चूँकि वे सत्य समझने या इन धारणाओं को ठीक करने के लिए सत्य का उपयोग करने में असमर्थ होते हैं, ये धारणाएँ उनके विचारों या उनकी आत्मा की गहराई में जड़ें जमाना शुरू कर देती हैं, जिसके कारण उनकी दमनकारी भावनाएँ लगातार बढ़ जाती हैं और अधिक से अधिक गंभीर हो जाती हैं। वास्तव में, परमेश्वर, परमेश्वर का घर, कलीसिया, विश्वासी, और ईसाई, सभी इन आदर्शवादियों के आदर्शों वाले काल्पनिक खूबसूरत जन्नत, स्वर्ग या आदर्श-लोक से मेल नहीं खाते। नतीजतन, उनके दिलों की गहराई में छिपा दमन लगातार इकट्ठा होता रहता है, और उनके पास खुद को इससे मुक्त करने का कोई रास्ता नहीं होता। क्या कलीसिया में ऐसे लोग मौजूद हैं? (हाँ।)

कुछ लोग कहते हैं, “अरे, परमेश्वर का घर हमेशा न्याय और ताड़ना को स्वीकारने की बात क्यों करता है? परमेश्वर में विश्वास करने वाले भी अब भी काट-छाँट का सामना क्यों कर रहे हैं? परमेश्वर का घर लोगों को क्यों बाहर निकाल देता है? इसमें प्रेम तो बिल्कुल नहीं है! ‘धरती पर स्वर्ग’ में ऐसी चीजें कैसे हो सकती हैं? कलीसिया में मसीह-विरोधी कैसे दिख सकते हैं? मसीह-विरोधियों द्वारा दूसरों का दमन करने और उन्हें दंडित करने की घटनाएँ कैसे घट सकती हैं? कलीसिया में, परमेश्वर के घर में लोग कैसे एक-दूसरे को उजागर कर एक-दूसरे का गहन-विश्लेषण कर सकते हैं? यहाँ विवाद कैसे हो सकते हैं? ईर्ष्या और संघर्ष कैसे हो सकता है? यहाँ चल क्या रहा है? चूँकि हम परमेश्वर के घर में आए हैं, तो हमारे बीच प्रेम होना चाहिए, और हम सभी को एक-दूसरे की मदद करने में सक्षम होना चाहिए। ये चीजें अब भी कैसे घटित हो सकती हैं?” क्या ऐसे विचारों वाले बहुत-से लोग हैं? बहुत-से लोग परमेश्वर के घर को अपनी कल्पनाओं की नजरों से देखते हैं। अब, मुझे बताओ, क्या ये कल्पनाएँ और व्याख्याएँ निष्पक्ष हैं? (नहीं, वे निष्पक्ष नहीं हैं।) उनमें निष्पक्षता की कमी कहाँ है? (मानवता गहराई से भ्रष्ट है, और जिन्हें परमेश्वर बचाता है उन सभी के स्वभाव भ्रष्ट हैं, तो वे यकीनन दूसरों के साथ अपने मेलजोल में भ्रष्टता उजागर करेंगे। ईर्ष्या और संघर्ष होगा, और धौंस जमाने और दबाने की घटनाएँ होंगी। इन चीजों का होना निश्चित है। आदर्शवादियों की कल्पना में मौजूद ऐसी चीजों का कोई अस्तित्व नहीं है। इसके अलावा, कलीसिया के जीवन और कार्य की रक्षा के लिए, कलीसिया सत्य सिद्धांतों के आधार पर लोगों की काट-छाँट करेगी, या लोगों में फेरबदल और बदलाव करेगी, या दुष्ट लोगों और छद्म-विश्वासियों को बहिष्कृत कर बाहर निकाल देगी—यह सिद्धांतों के अनुरूप है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार कार्य करते हैं, तो वे कलीसिया के कार्य में बाधा डालते हैं और परेशानी खड़ी करते हैं। अगर कलीसिया ऐसे लोगों की काट-छाँट करने या उन्हें बदलने या हटाने जैसे उपायों को नहीं अपनाएगी, तो यह यथार्थ से मुँह मोड़ना होगा।) यह यथार्थ से मुँह मोड़ना है, इसलिए ऐसे लोगों के विचार आदर्शवादियों के आदर्श हैं। उनमें से कोई भी यथार्थवादी नहीं है, वे सभी खोखले और काल्पनिक हैं, है ना? अभी भी, ऐसे लोगों को यह समझ नहीं आता कि उन्हें परमेश्वर में विश्वास क्यों करना चाहिए। कुछ लोग कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करना अच्छा है। परमेश्वर में विश्वास का अर्थ है अच्छे कार्य करना और एक अच्छा इंसान बनना।” क्या यह कथन सही है? (नहीं, यह सही नहीं है।) “परमेश्वर में विश्वास करने वालों के दिलों में नेक इरादे होने चाहिए।” क्या यह कथन सही है? (नहीं, यह भी सही नहीं है।) अपने दिल में नेक इरादे रखना—यह किस प्रकार का कथन है? क्या चाहने मात्र से तुम नेक इरादे रख सकते हो? क्या तुम्हारे इरादे नेक हैं? क्या अपने दिल में नेक इरादे रखना मानवीय आचरण का एक सिद्धांत है? यह सिर्फ एक नारा है, एक धर्म-सिद्धांत है। यह एक खोखली बात है। जब तुम्हारे अपने हित शामिल नहीं होते, तो तुम यह सोचकर बहुत अच्छी तरह से इसे कह सकते हो, “मेरे दिल में नेक इरादे हैं, मैं दूसरों को नहीं धमकाता, नुकसान नहीं पहुँचाता, धोखा नहीं देता या उनका फायदा नहीं उठाता।” लेकिन जब तुम्हारे अपने हित, रुतबा और प्रतिष्ठा शामिल हों, तो क्या “अपने दिल में नेक इरादे रखना” कथन तुम्हें रोक पाने में सक्षम होगा? क्या यह तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को ठीक कर सकता है? (नहीं, यह नहीं कर सकता।) इसलिए, यह कथन खोखला है; यह सत्य नहीं है। सत्य तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के सार को उजागर करने में सक्षम है, यह तुम्हारे द्वारा की जाने वाली चीजों के सार और वास्तविक प्रकृति को उजागर कर उनका विश्लेषण कर सकता है, और तुम्हारे द्वारा किए जाने वाले इन कार्यों और दिखाई जाने वाली भ्रष्टता के सार की पड़ताल कर उनकी निंदा भी कर सकता है। फिर यह तुम्हें तुम्हारे जीने के तरीके, आचरण और कार्य करने के तरीके को बदलने के लिए उचित मार्ग और सिद्धांत प्रदान करता है। इस तरह, यदि लोग सत्य को स्वीकार सकें और अपने जीने के तरीके को बदल सकें, तो उनके भ्रष्ट स्वभावों का समाधान हो सकता है; लोगों को अपने दिलों में नेक इरादे रखने के लिए आग्रह करने से यह नहीं होगा, केवल सत्य ही यह काम कर सकता है। सत्य किसी व्यक्ति के भ्रष्ट स्वभाव का समाधान नारे, सिद्धांत, या विनियम और नियम देकर नहीं करता, बल्कि उसे आचरण के सिद्धांत, मानदंड और दिशा-निर्देश देकर करता है। यह लोगों के भ्रष्ट स्वभाव को हटाने और बदलने के लिए इन सिद्धांतों, मानदंडों और दिशा-निर्देशों का उपयोग करता है। जब लोगों के आचरण करने के सिद्धांत, मानदंड, और दिशा-निर्देश बदलकर ठीक कर दिए जाते हैं, तब उनके मन में मौजूद तमाम विकृत सोच और गलत विचार भी स्वाभाविक रूप से बदल जाते हैं। जब कोई व्यक्ति सत्य समझता है और उसे हासिल करता है, तो उसके विचार तदनुरूप ही बदल जाते हैं। यह अपने दिल में नेक इरादे रखने की बात नहीं, बल्कि अपने विचारों के स्रोत, अपने स्वभाव और अपने सार में बदलाव लाने की बात है। ऐसा व्यक्ति जो उजागर करता और जिसे जीता है, वह सकारात्मक हो जाता है। उनके आचरण की दिशा, तौर-तरीके और स्रोत सभी में बदलाव आता है। वे अपनी कथनी और करनी का आधार और मानदंड परमेश्वर के वचनों को बनाते हैं, और सामान्य मानवता को जी सकते हैं। तो, क्या अब भी उन्हें बस यह बताना जरूरी है कि “अपने दिलों में नेक इरादे रखो”? क्या यह उपयोगी है? वह कथन खोखला है; यह किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकता। परमेश्वर के घर, कलीसिया में आने के बाद भी आदर्शवादियों के आदर्श साकार नहीं हो पाते हैं, और इस वजह से वे अपने दिलों में दमित महसूस करते हैं। यह वैसा ही है जैसे कुछ आदर्शवादी सरकार या समाज के भीतर गहराई तक जाने के बाद यह पाते हैं कि उनके आदर्शों को साकार या पूरा नहीं किया जा सकता है। नतीजतन, वे अक्सर हताश महसूस करते हैं। कुछ लोग अधिकारी या सम्राट बनने के बाद अपने आप में बहुत प्रसन्न महसूस करते हैं और बेहद अहंकारी हो जाते हैं, बिल्कुल उस कविता की एक पंक्ति की तरह जिसमें कहा गया है, “तेज हवा चलती है, बादल छंट जाते हैं।” अगली पंक्ति में क्या कहा गया है? (“अब जबकि मेरा आधिपत्य पूरे महासागर में फैल चुका है, मैं अपने वतन लौट रहा हूँ।”) देखा तुमने, उनके शब्द अजीब लगते हैं। उनमें एक प्रकार की भावना है जिसे सामान्य मानवता और विवेक वाले लोगों के लिए समझना मुश्किल है। ये आदर्शवादी हमेशा उन्नत लहजे में बोलते हैं। उन्नत लहजे में बोलने का क्या मतलब है? इसका मतलब है कि वे जो कुछ भी करते हैं उसमें वे कभी वास्तविकता का सामना नहीं करते या वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करते हैं। वे नहीं समझते कि वास्तविकता क्या है, वे हमेशा भावनाओं से प्रेरित होते हैं। जब ये लोग परमेश्वर के घर में आते हैं, तो चाहे वे कितना भी सत्य सुनें, वे परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ या परमेश्वर में विश्वास करने का महत्व नहीं समझ पाते। वे सत्य का मूल्य नहीं समझते, फिर उसका अनुसरण करने का मूल्य समझना तो दूर की बात है। वे हमेशा आदर्शवादियों के आदर्शों का अनुसरण करते हैं। उनका सपना है कि एक दिन परमेश्वर का घर वैसा ही हो जैसा उन्होंने सोचा था, जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ सम्मान से पेश आएँ, एक साथ मिल-जुलकर रहें, एक-दूसरे के साथ बहुत अच्छे से तालमेल बनाकर रहें, एक-दूसरे को संजोकर रखें, देखभाल करें, परवाह करें, मदद करें और एक-दूसरे का धन्यवाद करें। जहाँ लोग एक-दूसरे को अच्छी बातें कहें और आशीष दें, कोई अप्रिय या आहत करने वाले शब्द न कहें, या ऐसे शब्द न कहें जो लोगों के भ्रष्ट सार, या किसी विवाद को उजागर करते हों, या लोग एक-दूसरे को उजागर या एक-दूसरे की काट-छाँट न करें। ऐसे लोग चाहे कितना भी सत्य सुन लें, फिर भी वे परमेश्वर में विश्वास करने का अर्थ नहीं समझते हैं, या नहीं जान पाते हैं कि परमेश्वर की अपेक्षाएँ क्या हैं, और परमेश्वर लोगों को किस प्रकार का व्यक्ति बनाना चाहता है। वे न केवल इन चीजों को नहीं समझते, बल्कि यह आशा भी करते हैं कि एक दिन परमेश्वर के घर में वे उस आदर्शवादी व्यवहार का आनंद ले पाएँगे जैसा वे चाहते हैं। यदि उन्हें ऐसा व्यवहार नहीं मिलता है, तो उन्हें लगता है कि परमेश्वर के घर में ऐसी कोई जगह नहीं है जहाँ उनके आदर्शों को साकार किया जा सके, न ही उन्हें साकार करने का कोई अवसर मिलता है। इसलिए, कुछ लोग अक्सर दमित महसूस करते हुए हार मानने की सोचते हैं और कहते हैं, “परमेश्वर में विश्वास करना उबाऊ और खोखला लगता है। परमेश्वर में विश्वास करने वाले बौद्ध धर्म में विश्वास करने वालों की तरह एक-दूसरे की मदद नहीं करते, एक-दूसरे को नहीं संजोते और सम्मान नहीं करते हैं। और परमेश्वर में विश्वास करने वाले हमेशा सत्य और सिद्धांतों पर चर्चा करते रहते हैं, वे अक्सर पारस्परिक संबंधों में विवेक की बात करते हैं, उन्हें अक्सर उजागर किया जाता है और उनकी आलोचना होती है, और यहाँ तक कि वे अक्सर काट-छाँट का भी सामना करते हैं। मैं इस तरह का जीवन नहीं चाहता हूँ।” यदि उनके पास अपने आदर्श और यह आशा की किरण नहीं होती कि वे स्वर्ग में पहुँचेंगे, तो इस तरह के आदर्शवादी किसी भी समय कलीसिया छोड़कर कोई दूसरा रास्ता खोज लेते। तो, मुझे बताओ, क्या ये परमेश्वर के घर के लोग हैं? क्या वे परमेश्वर के घर में रहने के लिए उपयुक्त हैं? (नहीं, वे उपयुक्त नहीं हैं।) तुम लोगों को क्या लगता है, उन्हें कहाँ जाना चाहिए? (वे मठवासी जीवन जीने के लिए उपयुक्त हैं।) वे बौद्ध या ताओवादी मंदिरों में जा सकते हैं, इनमें से कोई भी ठीक रहेगा। वे धर्मनिरपेक्ष दुनिया में दमित महसूस नहीं करते हैं, लेकिन परमेश्वर के घर में विशेष रूप से दमित महसूस करते हैं, उन्हें लगता है कि उनके पास अपने आदर्शों को साकार करने का अवसर या उनका उपयोग करने के लिए जगह नहीं है। इसलिए, ये लोग धुएँ के छल्ले उड़ाने वाली और लगातार धूप-दीप जलाने वाली जगहों में रहने के लिए बिल्कुल सही हैं। वे शांत जगहें हैं, और वे तुम्हें आचरण करने के तरीके नहीं सिखाते हैं। वे तुम्हारे तमाम भ्रामक विचारों और दृष्टिकोणों को उजागर नहीं करते हैं, और वे तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव को उजागर या उसकी काट-छाँट भी नहीं करते हैं। वहाँ लोगों के बीच दूरी और सम्मान है। लोग दिन भर में बस दो-चार शब्द ही बोलते हैं, और उनके बीच कोई विवाद भी नहीं होता है। तुम किसी की निगरानी या नियमन के अधीन नहीं होते। तुम वहाँ एक आत्मनिर्भर जीवन जियोगे, वर्ष भर में शायद ही कभी अजनबियों से तुम्हारा सामना होगा। तुम्हें दैनिक मामलों के बारे में चिंता करने की कोई जरूरत नहीं होगी। यदि तुम्हें अपने शारीरिक भरण-पोषण के लिए किसी चीज की आवश्यकता होगी, तो तुम एक छोटा-सा कटोरा या भीख माँगने वाला कटोरा लेकर आम जनता से खैरात माँग सकते हो, और खाने के लिए कुछ भोजन प्राप्त कर सकते हो, तुम्हें पैसे कमाने की भी कोई जरूरत नहीं होगी। उन स्थानों पर सभी सांसारिक कष्ट दूर हो जाते हैं। लोग एक दूसरे के साथ बहुत उदारता से व्यवहार करते हैं और कोई किसी से बहस नहीं करता। अगर कोई मतभेद होता है तो वह लोगों के दिलों में रहता है। दिन सुकून और आराम से बीतते हैं। इसे ही परम आनंद की भूमि कहते हैं, यही आदर्शवादियों के आदर्शों का स्थान है, और वह स्थान जहाँ आदर्शवादी अपने आदर्शों को साकार कर सकते हैं। इन लोगों को अपनी कल्पना की जगह पर ही रहना चाहिए, कलीसिया में नहीं। ऐसे लोगों को कलीसिया में बहुत सारे कार्य करने पड़ेंगे। हर दिन, उन्हें परमेश्वर के वचन पढ़ने होंगे, सभाओं में भाग लेना होगा, प्रत्येक सिद्धांत को सीखना होगा, और हर समय सत्य पर संगति करनी होगी और अपने भ्रष्ट स्वभावों को समझना होगा; कुछ लोग, जो अपने भ्रष्ट स्वभावों के आधार पर कार्य करते हैं और सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, उन्हें काट-छाँट का सामना करना पड़ता है, और कुछ लोग तो अक्सर इसका सामना करते हैं। ये लोग यहाँ विशेष रूप से दमित और दुखी महसूस करते हैं। कलीसिया उनका आदर्श माहौल नहीं है। उनका मानना है कि इस जगह पर अपना समय बर्बाद करने या अपनी जवानी बर्बाद करने से बेहतर होगा कि वे जल्द किसी ऐसी जगह पर जाकर रहने लगें जो उन्हें पसंद हो। वे सोचते हैं कि लगातार दमित महसूस करने और असहज, आनंदहीन और दुखी जीवन जीने में अपना समय यहाँ बर्बाद करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह आदर्शवादियों के आदर्शों की एकमात्र विशिष्ट अभिव्यक्ति है जिस पर हमने चर्चा की है। इन लोगों के बारे में कहने को ज्यादा कुछ नहीं है। चाहे तुम उनके साथ सत्य पर कितनी भी संगति करो, वे उसे नहीं सुनेंगे। सारा दिन वे कल्पनाओं में डूबे रहते हैं, और जिन चीजों के बारे में सोचते हैं वे सभी बहुत अवास्तविक और अस्पष्ट हैं, और सामान्य मानवता से बहुत अलग हैं। वे दिन भर इन्हीं चीजों के बारे में सोचते रहते हैं और सामान्य लोगों से बात नहीं कर पाते। सामान्य लोग भी यह नहीं समझ पाते हैं कि उनकी दुनिया किस चीज से बनी है। इसलिए, चाहे ये लोग किसी भी प्रकार के विचार और दृष्टिकोण रखें, उनके आदर्श खोखले होते हैं। क्योंकि उनके आदर्श खोखले होते हैं, तो उनके विचार और दृष्टिकोण भी स्वाभाविक रूप से खोखले होते हैं। वे गहन-विश्लेषण करने या बहुत गहराई से समझने लायक नहीं होते हैं। चूँकि वे खोखले होते हैं तो उन्हें ऐसे ही रहने दो। ये लोग जहाँ चाहें वहाँ जा सकते हैं, और परमेश्वर का घर इसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा। यदि वे परमेश्वर के घर में रहना और अपने कुछ कर्तव्य निभाना या मजदूरी करना चाहते हैं, तो जब तक वे परेशानी खड़ी नहीं करते या कुछ बुरा नहीं करते हैं, हम उनकी जरूरतों को पूरा करेंगे और उन्हें पश्चात्ताप करने का अवसर देंगे। संक्षेप में, यदि वे भाई-बहनों के प्रति, परमेश्वर के घर और कलीसिया के प्रति सौहार्दपूर्ण रहते हैं, तो हमें इस प्रकार के व्यक्ति पर ध्यान देने की कोई आवश्यकता नहीं है, जब तक कि वे खुद ही यहाँ से जाने की इच्छा जाहिर नहीं करते। अगर ऐसा है, तो आओ हम इसका खुले दिल से स्वागत करें, ठीक है? (ठीक है।) तो फिर, यह बात खत्म हुई।

आदर्शवादियों के आदर्श खोखले होते हैं, जबकि यथार्थवादियों के आदर्श कहीं अधिक व्यावहारिक होते हैं और लोगों के जीवन और वास्तविक माहौल के काफी अनुरूप होते हैं। बेशक, वे मानव जीवन और अस्तित्व के साथ-साथ अपना घर बसाकर नया जीवन शुरू करने से जुड़े सवालों से भी ठोस संबंध रखते हैं। घर बसाने और अपना जीवन शुरू करने में लोगों द्वारा अर्जित कौशल, योग्यताएँ और प्रतिभाएँ, उनके द्वारा हासिल की गई विभिन्न प्रकार की शिक्षाएँ, और उनकी खूबियाँ, काबिलियत और विशेषज्ञता शामिल होती हैं। यथार्थवादियों के आदर्शों में ये पहलू शामिल होते हैं। यथार्थवादियों के आदर्शों के क्षेत्र में, चाहे उनका उद्देश्य अपने जीवन की स्थितियों में सुधार लाना हो या अपने आध्यात्मिक संसार को संतुष्ट करना, ये आदर्श लोगों के वास्तविक जीवन में ठोस रूप में दिखते हैं। उदाहरण के लिए, कुछ लोगों में अगुआई करने की क्षमताएँ होती हैं और वे सुर्खियों में बने रहना पसंद करते हैं। वे सार्वजनिक रूप से बोलने या मौखिक संचार में माहिर हो सकते हैं, या उनमें लोगों की गहरी समझ और उनका उपयोग करने की निपुणता होती है, और सटीक ढंग से कहें तो वे लोगों को आदेश देने में निपुण होते हैं। नतीजतन, इस तरह के लोग विशेष रूप से कोई पद संभालने, अगुआ की भूमिकाएँ निभाने या मानव संसाधन में काम करने के शौकीन होते हैं। जब वे इन क्षेत्रों में अपनी योग्यता को पहचान लेते हैं, तो वे लोगों के बीच अगुआ या आयोजक बनने, कार्यों और कर्मियों की निगरानी करने या यहाँ तक कि किसी कार्य का निर्देशन करने की इच्छा रखते हैं। उनका प्राथमिक आदर्श अगुआ बनना है। बेशक, वे समाज में भी इसी तरह व्यवहार करते हैं। जब वे परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं, तो वे इसे एक धार्मिक संगठन के रूप में देखते हैं, जो अपने आप में अनोखा है। कलीसिया में शामिल होने के बाद भी उनके आदर्शों में कोई बदलाव नहीं आता। जिस माहौल या पृष्ठभूमि में वे रहते हैं, उसमें होने वाले बदलावों का उनके आदर्शों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वे अपने साथ परमेश्वर के घर में अगुआई का वही आदर्श लेकर आते हैं। उनकी इच्छा परमेश्वर के घर में अगुआ के पद पर बने रहने की होती है, जैसे कलीसिया की अगुआई करना, किसी विशिष्ट स्तर के लिए जिम्मेदार होना या किसी समूह की अगुआई करना। यही उनका आदर्श है। चूँकि, परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं में अगुआओं या कर्मियों के चयन के लिए सिद्धांत और नियम मौजूद हैं, और ये लोग उन योग्यताओं को पूरा नहीं कर पाते, इसलिए यदि वे कभी-कभी किसी विशिष्ट स्तर के लिए अगुआई की चयन प्रक्रिया में भाग लेते भी हैं, तो वे आखिर में अपने आदर्श को साकार कर अपनी इच्छा के अनुरूप अगुआ नहीं बन पाते। जितना अधिक वे अगुआ बनने या अपना आदर्श कार्य करने में असमर्थ होते हैं, उतना ही उनके आदर्श उनके भीतर हलचल मचाते हैं, जिससे अगुआ बनने की उनकी लालसा और तीव्र हो जाती है। नतीजतन, वे कई चीजों में बहुत अधिक प्रयास करते हैं, चाहे यह उनके भाई-बहनों के बीच हो या फिर उच्च-स्तरीय अगुआओं के सामने, वे खुद को प्रदर्शित करने, खुद को उत्कृष्ट और असाधारण दिखाने, और यह पक्का करने के लिए कि उनकी प्रतिभाओं को पहचाना जाए, बेहद प्रयास करते हैं। वे अपने भाई-बहनों की प्राथमिकताओं को पूरा करने के लिए अपनी अंतरात्मा से भी समझौता कर सकते हैं, कुछ खास चीजें कर और कह सकते हैं और परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं द्वारा अगुआ से जो अपेक्षाएँ निर्धारित की गई हैं, उसके अनुरूप होने के लिए जानबूझकर कुछ खास तरह का व्यवहार दिखा सकते हैं। हालाँकि, उनके लगातार प्रयासों के बावजूद भी, वे अगुआ बनने के अपने आदर्शों को साकार नहीं कर पाते। ऐसे लोग भी होते हैं जो निराश, हताश और खुद से कटा हुआ महसूस करते हैं। दमन की जो नकारात्मक भावनाएँ उन्होंने पहले अनुभव की थीं, वे तब अधिक तीव्र हो जाती हैं जब वे परमेश्वर में विश्वास तो करते हैं लेकिन सत्य स्वीकार नहीं कर पाते या अपनी समस्याओं का समाधान नहीं ढूंढ पाते। उन्होंने हमेशा किसी पद पर बने रहने और अगुआ बनने की इच्छा रखी, और ये आदर्श उनके परमेश्वर में विश्वास करने से पहले ही उनके दिलों में अंकुरित हो चुके थे। क्योंकि वे अपने आदर्शों को साकार करने में असमर्थ थे, इसलिए उनके भीतर गहराई में दमन की एक अदृश्य भावना हमेशा बनी रहती थी। परमेश्वर के घर में प्रवेश करने के बाद भी, जहाँ उनके आदर्श अभी भी साकार नहीं हो पाते, उनके भीतर मौजूद दमन की भावनाएँ अधिक मजबूत और भारी हो जाती हैं। इनकी अगुआई की क्षमताओं का उपयोग नहीं किए जाने के कारण, ये लोग नाराज हो जाते हैं, और खुद को बदकिस्मत, निराश और दमित महसूस करते हैं, क्योंकि उनके आदर्श साकार नहीं हो पाए। क्योंकि उनके आदर्श अधूरे रह जाते हैं, तो उन्हें लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। जब उनके पास अपनी क्षमताएँ दिखाने का कोई रास्ता नहीं होता, तो वे जीवन और आगे बढ़ने के मार्ग को लेकर हताश हो जाते हैं। नतीजतन, अपने दैनिक जीवन में, विभिन्न कार्य करते समय वे अक्सर दमन की भावना लेकर चलते हैं। कुछ लोग अनेक प्रयासों और कोशिशों के बाद भी अगुआ नहीं बन पाते या अपना आदर्श साकार नहीं कर पाते। ऐसी स्थितियों में, वे अपनी भावनाएँ जाहिर करने और अपने दमन को व्यक्त या उजागर करने के लिए विभिन्न साधनों का सहारा लेना शुरू कर देते हैं। बेशक, परमेश्वर के कुछ विश्वासी, पद पर बने रहने के अपने आदर्शों पर कायम रहते हुए कलीसिया में अगुआ बनने की अपनी दिली इच्छा पूरी कर लेते हैं। लेकिन वे परमेश्वर की अपेक्षाओं और परमेश्वर के घर की व्यवस्थाओं के अनुसार अगुआ के रूप में अपने कर्तव्य नहीं निभा पाते। साथ ही, वे न खुद को परमेश्वर के घर और अपने भाई-बहनों की अपेक्षाओं और निगरानी के तहत अनिच्छा से अगुआ की भूमिकाएँ निभाते हुए पाते हैं। भले ही उन्होंने अपने आदर्शों को हासिल कर लिया है और ऐसे कार्य कर रहे हैं जो वे आदर्श रूप से करना चाहते थे, फिर भी वे दमित महसूस करते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे अपने व्यक्तिगत आदर्शों को साकार करने की नींव के आधार पर अगुआई कर रहे हैं, और भले ही वे बाहरी या सतही तौर पर परमेश्वर के घर द्वारा अपेक्षित कार्यों को पूरा करते हुए प्रतीत होते हों, उनके आदर्श इन जिम्मेदारियों से कहीं आगे जाते हैं। उनकी महत्वाकांक्षाएँ, आदर्श, इच्छाएँ और दर्शन उनकी वर्तमान भूमिकाओं के दायरे से कहीं आगे जाते हैं। परमेश्वर के घर की कार्य व्यवस्थाओं और परमेश्वर की अपेक्षाओं के कारण, उनके कार्यों और विचारों के साथ-साथ उनकी योजनाएँ और इरादे, बंधे हुए और प्रतिबंधित होते हैं। इसलिए, अगुआई का पद पाने के बाद भी वे दमित महसूस करते हैं। इन समस्याओं का कारण क्या है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि अगुआ बनने के बाद भी वे अपने आदर्शों और अपने आदर्शों में किए गए वादों को साकार करने की कोशिश में लगे रहते हैं। हालाँकि, परमेश्वर के घर या कलीसिया में अगुआओं के रूप में सेवा करने से उनके आदर्श और इच्छाएँ साकार नहीं हो पाती हैं, और उनकी भावनाएँ मिश्रित और एक-दूसरे के विपरीत हो जाती हैं। इन संघर्षों और अपने आदर्शों और लक्ष्यों का त्याग नहीं कर पाने के कारण, वे अक्सर अंदर ही अंदर दमित महसूस करते हैं और राहत पाने में असमर्थ होते हैं। यह एक प्रकार का व्यक्ति है। परमेश्वर के घर में, इन आदर्शवादियों के बीच, ऐसे लोग भी हैं जो अपने आदर्शों के लिए लड़ते हुए भी उन्हें साकार नहीं कर पाते हैं, और ऐसे लोग भी हैं जो अपने आदर्शों के लिए लड़ते हैं और आखिर में उन्हें साकार कर लेते हैं, पर फिर भी दमित महसूस करते हैं। चाहे वे खुद को किसी भी स्थिति में पाएँ, ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने आदर्शों को नहीं त्यागा है और अभी भी परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य निभाते हुए और अपना जीवन जीते हुए इनका अनुसरण करते रहते हैं।

ऐसे अन्य लोग भी हैं जिनके पास लेखन, मौखिक संचार और साहित्य की प्रतिभा है। वे अपने साहित्यिक कौशल से अपने विचारों को व्यक्त करने की उम्मीद करते हैं और साथ ही, इन कौशलों का प्रदर्शन करके परमेश्वर के घर में अपनी क्षमता, मूल्य और योगदान की ओर लोगों का ध्यान खींच पाते हैं। उनका आदर्श एक उत्कृष्ट और सुयोग्य लेखक और बुद्धिजीवी बनना होता है। जब वे परमेश्वर के घर में प्रवेश करते हैं और लिखने-पढ़ने संबंधी कर्तव्य निभाना शुरू करते हैं, तो उन्हें लगता है कि उन्हें अपनी क्षमताओं का उपयोग करने के लिए एक जगह मिल गई है। वे लेखक और बुद्धिजीवी बनने के अपने आदर्श को साकार करने के लिए उत्सुकता से अपनी खूबियों और प्रतिभाओं का प्रदर्शन करते हैं। भले ही वे अपने कर्तव्य निभाते रहते हैं, लेकिन अपने आदर्शों को नहीं त्यागते। यह कहा जा सकता है कि उनके कर्तव्य निर्वहन का 80 से 90 प्रतिशत भाग उनके आदर्शों पर आधारित है; दूसरे शब्दों में, उनके कर्तव्य निर्वहन की प्रेरणा उनके इन आदर्शों के अनुसरण और आशा से आती है। नतीजतन, इस तरह के लोगों के लिए कर्तव्यों का निर्वहन बहुत मिलावटी होता है, जिससे उनके लिए सत्य सिद्धांतों और परमेश्वर के अपेक्षित मानकों के अनुसार कर्तव्य निर्वहन के मानकों पर खरा उतरना मुश्किल हो जाता है। वे केवल अच्छे से अपने कर्तव्य निभाने के लिए परमेश्वर के घर में नहीं आते हैं, बल्कि वे अपने कर्तव्य निभाने के अवसर का लाभ उठाकर अपनी प्रतिभाओं का प्रदर्शन करना चाहते हैं, वे अपने आदर्शों को हासिल करने की लालसा रखते हैं और अपनी प्रतिभाओं के प्रदर्शन के माध्यम से अपनी अहमियत साबित करना चाहते हैं। इसलिए, अपने कर्तव्यों को मानक के अनुसार अच्छे से निभाने में उनकी सबसे बड़ी बाधा उनके आदर्श ही हैं, यानी कर्तव्य निभाने की उनकी प्रक्रिया में निजी प्राथमिकताओं और तमाम लोगों, घटनाओं और चीजों के प्रति उनके विचारों और परिप्रेक्ष्यों का घालमेल हो जाता है। कुछ लोगों में खास पेशेवर कौशल की समझ होती है या उनमें कोई खास प्रतिभा होती है; उदाहरण के लिए, कुछ लोग कंप्यूटर तकनीक को समझते हैं और कंप्यूटर इंजीनियर के रूप में काम करने का आनंद लेते हैं। वे चश्मे पहनते हैं, पेशेवर तरीके से पोशाक पहनते हैं और सबसे खास बात यह है कि उनके पास ऐसे लैपटॉप होते हैं जो अनूठे होते हैं या जिन्हें दूसरे लोग शायद ही कभी देख पाते हैं। वे चाहे जहाँ कहीं भी जाएँ, अपने लैपटॉप के साथ बैठते हैं और उसे खोलकर विभिन्न वेबपेजों पर जानकारी ढूंढते हैं और कंप्यूटर की मदद से विभिन्न समस्याओं को पेशेवर तरीके के हल करते हैं। संक्षेप में, कंप्यूटर इंजीनियरिंग उद्योग में पेशेवर बनने का प्रयास करते हुए, वे खुद से एक पेशेवर परिप्रेक्ष्य, व्यवहार, बोली और तौर-तरीके अपनाने की अपेक्षा करते हैं और दूसरों के सामने इसका दिखावा करते हैं। परमेश्वर के घर में प्रवेश करने के बाद, ये लोग आखिर में अपने आदर्श को साकार करते हैं और कंप्यूटर तकनीक से संबंधित कार्य करते हैं। वे लगातार तकनीक का अध्ययन करके अपने कौशल को निखारते हैं, उद्योग के रुझानों के साथ बने रहने और अपने क्षेत्र में नई जानकारी को बढ़ावा देने और प्रकाशित करने के उद्देश्य से निष्ठापूर्वक विभिन्न समस्याओं की पहचान कर उनका समाधान करते हैं। इस तरह के लोगों की एक विशिष्ट पेशेवर कौशल में विशेष रुचि और समझ होती है, जो उन्हें पेशेवर और विशेषज्ञ बनाती है। नतीजतन, उनका आदर्श पेशेवर बनना है और वे आशा करते हैं कि परमेश्वर का घर उन्हें एक महत्वपूर्ण स्थान पर रखेगा, उनका सम्मान करेगा और उन पर भरोसा दिखाएगा। बेशक, परमेश्वर के घर में और मौजूदा समय में, ऐसे अधिकांश लोगों ने वास्तव में अपनी खूबियों का उपयोग किया है और अपने आदर्शों को साकार किया है। लेकिन, अपने आदर्शों को साकार करते हुए क्या इन लोगों ने इस बात पर विचार किया है कि अपना कार्य करने में वे अपने कर्तव्य निभा रहे हैं या अपने आदर्शों का अनुसरण कर रहे हैं? यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है, है ना? वे जिस कार्य में लगे हैं वह विशिष्ट, जटिल और बहुत मेहनत वाला है। लेकिन उनके पास जो कौशल हैं वे इस कार्य के लिए परमेश्वर की अपेक्षाओं से बहुत कम हैं। इसलिए अपने आदर्शों का अनुसरण करते हुए और अपने कर्तव्य निभाते हुए वे कुछ हद तक खुद को बँधा हुआ और नियंत्रित महसूस करते हैं। जब ये लोग परमेश्वर में विश्वास के विभिन्न सत्यों और कर्तव्य निर्वहन के सिद्धांतों का सामना करते हैं, तो अपने दिलों में मौजूद आदर्शों के कारण वे एक हद तक दमन महसूस कर सकते हैं। लोगों का एक तबका ऐसा ही है।

लोगों का एक और समूह है जो सुसमाचार फैलाने में लगा है। वे लोग सुसमाचार फैलाने के कार्य में अगुआ बनने, सबसे आगे होने, और जिस कलीसिया का हिस्सा हैं उसमें अगुआई करने और उत्कृष्टता प्राप्त करने की आकांक्षा रखते हैं, कभी पीछे रहकर संतुष्ट नहीं होते हैं। भले ही वे अपने कर्तव्य निभाते हैं और अपना कार्य करते हैं, पर उनका अनुसरण उनके अपने आदर्शों और उन लक्ष्यों के लिए होता है जिनकी वे योजना बनाते और कल्पना करते हैं, जिनका परमेश्वर में विश्वास या सत्य से कोई लेना-देना नहीं है। जब इन लक्ष्यों और आदर्शों को उजागर करके इसे वर्गीकृत किया जाता है, या उनके सामने कुछ बाधाएँ आती हैं, और इन लोगों को एहसास होता है कि उनके आदर्शों को साकार नहीं किया जा सकता और न ही उनकी अहमियत को साबित किया जा सकता है, तो वे विशेष रूप से दमित और असंतुष्ट महसूस करते हैं। उनमें से कई लोग अपने आदर्शों का अनुसरण करते हुए समर्थन और मान्यता पाना चाहते हैं। जब उन्हें ये चीजें नहीं मिलती हैं या जब उनके प्रयासों का फल तुरंत नहीं मिलता है, तो उन्हें लगता है कि यह सार्थक नहीं है, यह अनुचित है, तो वे दमित महसूस करते हैं। क्या वे ऐसा व्यवहार प्रदर्शित नहीं करते? (हाँ, करते हैं।) सुसमाचार फैलाने में शामिल लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जिनकी हमेशा से सुयोग्य और अनुकरणीय प्रचारक या उपदेशक बनने की इच्छा रही है। जब वे किसी के मशहूर प्रचारक और उपदेशक बनने की बात सुनते हैं, तो ईर्ष्या से भर जाते हैं और आशा करते हैं कि एक दिन वे भी ऐसे बन सकेंगे, आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें याद रखेंगी और उनकी प्रशंसा की जाएगी, और परमेश्वर उन्हें याद रखेगा। वे अपने आदर्श को अपने लक्ष्य और प्रेरणा के रूप में इस्तेमाल करते हुए, परमेश्वर के घर में प्रचारक बनने और शोहरत पाने या आने वाली पीढ़ियों द्वारा याद रखे जाने के लिए हमेशा अपने आदर्श तरीके से प्रचार करना चाहते हैं। यही उनका आदर्श है। लेकिन, परमेश्वर के घर में किसी भी कार्य के लिए सख्त अपेक्षाएँ और सिद्धांत हैं जिनके अनुसार परमेश्वर ने लोगों को यह कार्य करने के लिए कहा है। नतीजतन, ऐसे व्यक्ति दमित महसूस करते हैं, क्योंकि वे अपने आदर्श के मुताबिक प्रचारक नहीं बन सकते, वे अक्सर निगरानी और नियमन के अधीन होते हैं, और अगुआ और कर्मी अक्सर उनके कार्य के संबंध में खोजबीन और पूछताछ करते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो विशेष कौशल या प्रतिभाएँ होने के कारण, परमेश्वर के घर में आने के बाद भी अपने आदर्शों का अनुसरण करते रहते हैं। उदाहरण के लिए, जो अभिनेता हैं उनमें से कुछ अभिनय में कुशल हैं और उन्हें अभिनय तकनीकों की बुनियादी समझ है। वे एक आदर्श अभिनेता बनना चाहते हैं, आशा करते हैं कि एक दिन वे अविश्वासियों के बीच लोकप्रिय मशहूर अभिनेताओं जैसे बन सकेंगे : बड़ी हस्तियाँ, सितारे, राजाओं और रानियों जैसे। हालाँकि, परमेश्वर के घर में, इस संबंध में भ्रष्टता का स्वभाव और अभिव्यक्ति हमेशा उजागर होती है, और अभिनेताओं के लिए विशिष्ट अपेक्षाएँ और सिद्धांत हैं। अभिनेता के रूप में थोड़ी प्रसिद्धि हासिल करने के बाद भी, वे ऐसी मशहूर हस्ती नहीं बन पाते जिनकी लोग पूजा और अनुसरण करते हैं, जिसके कारण वे दमित महसूस करते हैं। वे कहते हैं, “परमेश्वर का घर कष्टों से भरा है। वे हमेशा हर चीज में लोगों पर प्रतिबंध लगाते रहते हैं। मशहूर हस्तियों की मिसाल का अनुसरण करने में क्या गलत है? थोड़ी-सी शख्सियत और अपेक्षाओं के साथ अलग ढंग के कपड़े पहनने में क्या बुराई है?” परमेश्वर के घर में अभिनेताओं की वेशभूषा और विशिष्ट अभिनय की अपेक्षाओं के कारण, उनकी नजर में इन अपेक्षाओं और मशहूर हस्ती और बड़े सितारे बनने के उनके आदर्श के बीच हमेशा संघर्ष और असंगतता रहती है। नतीजतन, वे यह सोचकर अपने दिलों में गहरी निराशा महसूस करते हैं, “मेरे आदर्शों को साकार करना इतना कठिन क्यों है? परमेश्वर के घर में मुझे हर मोड़ पर बाधाओं का सामना क्यों करना पड़ता है?” जब वे ऐसे विचारों का अनुभव करते हैं या ये अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती हैं, तो वे दमित महसूस करते हैं। दमन की इस भावना के पीछे उनका यह विश्वास है कि उनके आदर्श वैध और मूल्यवान हैं। वे यह भी मानते हैं कि अपने आदर्शों का अनुसरण करने में कुछ भी गलत नहीं है, ऐसा करना उनका अधिकार है और इसी वजह से, उनके भीतर दमनकारी भावनाएँ उभरने लगती हैं। उदाहरण के लिए, कुछ निर्देशकों को लगता है कि कई फिल्मों का निर्देशन करने के बाद उन्हें काफी अनुभव प्राप्त हुआ है। वे मानते हैं कि उनकी फिल्में दिखाए जाने लायक हैं, और उनमें सिनेमैटोग्राफी, संपादन, अभिनेता के अभिनय और सभी प्रकार के समान प्रबंधन के मामले में पहले की तुलना में काफी सुधार हुआ है। ऊपरवाले का मार्गदर्शन प्राप्त करने के बाद, उनकी फिल्में आखिरकार उचित मानकों पर खरी उतरती हैं और समय पर रिलीज होती हैं। इससे यह पुष्टि होती है कि एक योग्य निर्देशक बनने की उनकी चाह एक उपयुक्त, वैध और आवश्यक आकांक्षा है। हालाँकि, एक योग्य निर्देशक बनने के अपने लक्ष्य को पूरा करते हुए, उनके कुछ सिद्धांतहीन विचारों, दृष्टिकोणों और कार्यों को अक्सर अस्वीकार कर दिया जाता है, पलट दिया जाता है या अनदेखा कर दिया जाता है। उन्हें अक्सर काट-छाँट तक का सामना करना पड़ सकता है। इससे उनके दिलों की गहराई में दमन की भावना पैदा होती है, और वे कहते हैं, “परमेश्वर के घर में निर्देशक बनना इतना कठिन क्यों है? अविश्वासियों की दुनिया के उन निर्देशकों को देखो, वे कितने आकर्षक हैं। उनके पास ऐसे लोग हैं जो उन्हें चाय परोसते हैं, उन्हें पेय पिलाते हैं और यहाँ तक कि उनके पैर भी धोते हैं। परमेश्वर के घर में निर्देशक होने से कोई रुतबा नहीं मिलता या कोई रौब नहीं होता, और कोई भी हमारा सम्मान या प्रशंसा नहीं करता है। हमेशा हमारी काट-छाँट क्यों की जाती है? हम चाहे जो भी करें, वो कभी सही नहीं होता। कितना दमनकारी है यह! हमारे अपने विचार, दृष्टिकोण और पेशेवर क्षमताएँ हैं, तो फिर हमेशा हमारी ही काट-छाँट क्यों की जाती है? क्या अपने आदर्शों का अनुसरण करना गलत है या फिर ऐसा है कि हमारे आदर्शों का अनुसरण ही नाजायज है? हमारे आदर्शों को साकार करना इतना कठिन क्यों है? यह बहुत दमनकारी है!” चाहे वे इसके बारे में किसी भी तरह से सोचें, फिर भी वे दमित महसूस करते हैं। ऐसे कुछ गायक भी हैं जो कहते हैं, “परमेश्वर के घर में, मैं एक योग्य गायक बनने, अच्छा गाने, अपनी शैली दिखाने और अपने श्रोताओं से प्यार पाने के अलावा और कुछ नहीं चाहता।” लेकिन परमेश्वर का घर भजन गाने के लिए अक्सर विभिन्न अपेक्षाएँ और सिद्धांत सामने रखता है, और अक्सर उन अपेक्षाओं का उल्लंघन करने के लिए इन गायकों की काट-छाँट की जाती है। जब उनकी काट-छाँट नहीं की जाती है, तो उन्हें लगता है कि वे अपने आदर्शों को सुचारु रूप से साकार कर सकते हैं। लेकिन जब उनकी काट-छाँट की जाती है और उन्हें कुछ असफलताएँ मिलती हैं तो उन्हें लगता है कि उस अवधि के दौरान उनके प्रयास और उपलब्धियाँ अमान्य कर दी गई हैं, और वे आकर फिर वहीं खड़े हो गए हैं जहाँ वे पहले थे। इससे उनके दिलों की गहराई में दमन की भावना पैदा होती है, और वे कहते हैं, “आह, अपने आदर्शों को साकार करना वाकई बहुत कठिन है! दुनिया बहुत बड़ी है, फिर भी ऐसा लगता है कि इसमें मेरे लिए कोई जगह नहीं है। परमेश्वर के घर में भी यही हाल है। अपना करियर बनाना इतना कठिन क्यों है? जो चीजें मैं करना चाहता हूँ उन्हें करना इतना कठिन क्यों है? कोई भी मेरा समर्थन नहीं करता, मुझे हर मोड़ पर बाधाओं का सामना करना पड़ता है, और मेरी लगातार काट-छाँट की जाती है। यह सब सचमुच चुनौतीपूर्ण और दमनकारी है! अविश्वासियों के संसार में, वे हमेशा साजिश रचते और एक-दूसरे के साथ लड़ते रहते हैं, और हर जगह करियर संबंधी बाधाएँ होती हैं, इसलिए दमित महसूस करना सामान्य बात है। लेकिन अपने आदर्शों के साथ परमेश्वर के घर में आकर भी मैं दमित महसूस क्यों करता हूँ?” जो लोग परमेश्वर के घर में विभिन्न कार्यों में लगे होते हैं, उन्हें अक्सर अपने आदर्शों का अनुसरण करने में असफलताओं का सामना करना पड़ता है, उन्हें अक्सर अमान्य कर दिया जाता है, उनकी अक्सर काट-छाँट की जाती है और उन्हें अक्सर मान्यता नहीं मिलती। निष्क्रिय रूप से इन चीजों का अनुभव करने के बाद, वे अनजाने में ही निराश होने लगते हैं, उन्हें लगता है कि उनका जीवन भी खत्म हो चुका है और उनके आदर्शों को साकार करना असंभव है। परमेश्वर के घर में आने से पहले वे सोचते थे, “मैं अपने साथ अपने आदर्श और आकांक्षाएँ लेकर चलता हूँ। मेरी अपनी इच्छाएँ हैं, और परमेश्वर के घर में इनके लिए अनंत संभावनाएँ हैं। मैं एक योग्य निर्देशक, अभिनेता, लेखक या एक योग्य नर्तक, गायक या संगीतकार तक बन सकता हूँ।” जब वे अपनी प्रतिभाएँ दिखाने और अपने आदर्शों को साकार करने में असमर्थ थे, तो उनका मानना था कि परमेश्वर का घर उन्हें उनका अपना मंच, एक विशाल स्थान प्रदान करेगा, जहाँ उनके आदर्श, सपने और आकांक्षाएँ साकार हो सकेंगी। उन्हें लगता था कि परमेश्वर के घर का मंच विशेष रूप से बहुत बड़ा है। हालाँकि, इतने वर्षों के बाद, वे सोचते हैं, “मुझे ऐसा क्यों लगता है कि मेरे पैरों तले मंच सिकुड़ा जा रहा है? मेरी दुनिया छोटी क्यों होती जा रही है? मेरे आदर्शों को साकार करने की संभावना लगातार दूर होती जा रही है और यहाँ तक कि असंभव भी। यह क्या हो रहा है?” इस मोड़ पर भी, ये लोग अपने आदर्शों को नहीं त्यागेंगे या इन आदर्शों और इच्छाओं की शुद्धता पर सवाल नहीं उठाएँगे। वे अभी भी अपने कर्तव्य निभाते में इन आदर्शों और इच्छाओं को लेकर चलते हैं। नतीजतन, लोगों की दमनकारी भावनाएँ हर जगह उनके साथ रहती हैं, फिर चाहे अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करने का समय हो या फिर अपने वास्तविक कर्तव्य निभाने का समय हो। जो लोग दमनकारी भावनाएँ रखते हैं या जो इन्हें त्याग नहीं सकते, इन दोनों के बीच विरोधाभास को सुलझाया नहीं जा सकता। वे अपने आदर्शों और इच्छाओं के अनुसरण और अपने कर्तव्य निर्वहन, दोनों में ही दमन की भावना रखते हैं। इसलिए, चाहे जो भी हो, अपने कर्तव्य निभाते हुए लोग लगातार खुद को समायोजित कर रहे हैं, लगातार अपने आदर्शों और सपनों का अनुसरण कर रहे हैं। तुम यह भी कह सकते हो कि लोग अपने कर्तव्य विरोधाभासी रवैये के साथ निभाते हैं, हर समय दमित और अनिच्छुक महसूस करते हैं। लेकिन अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए, अपनी अहमियत साबित करने और इन आदर्शों और इच्छाओं के अनुसरण के लिए, उनके पास अपने कर्तव्य निभाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। वे नहीं जानते कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, क्या हासिल करना चाह रहे हैं, किस उद्देश्य को हासिल करने, अनुसरण करने या साकार करने की कोशिश कर रहे हैं। यह उनके लिए लगातार अस्पष्ट होता जाता है, और आगे का रास्ता अधिक से अधिक अस्पष्ट लगने लगता है। ऐसी स्थिति में, क्या उनके लिए अपनी दमनकारी भावनाओं को त्यागना या उनका समाधान करना कठिन नहीं है? (हाँ।)

यहाँ तक संगति कर लेने के बाद, आओ अब हम इस बारे में संगति करना जारी रखें कि लोगों को अपने आदर्शों, इच्छाओं और अपने कर्तव्यों के बीच के संबंध को कैसे समझना और अनुभव करना चाहिए। सबसे पहले, आदर्शों के बारे में बात करते हैं, विशेष रूप से उन लोगों के आदर्शों के बारे में जिनका हमने पहले जिक्र किया था। क्या लोगों का परमेश्वर के घर में अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करना उचित है? (नहीं, यह उचित नहीं है।) इस समस्या की प्रकृति क्या है? यह अनुचित क्यों है? (अपने कर्तव्य निभाते समय अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करके वे सृजित प्राणियों के रूप में अपने कर्तव्य निभाने के बजाय अपनी खूबियाँ दिखाकर अपना करियर स्थापित कर रहे हैं।) मुझे बताओ, क्या अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना गलत है? (हाँ, यह गलत है।) यदि तुम लोग इसे गलत कहते हो, तो क्या यह किसी को उसके मानव अधिकारों से वंचित करता है? (नहीं, नहीं करता है।) फिर समस्या क्या है? (जब लोग परमेश्वर में विश्वास करते हैं, तो उन्हें सत्य और उस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए जिसका परमेश्वर के वचन उन्हें अनुसरण करने के लिए कहते हैं। यदि वे केवल अपनी इच्छाओं और आदर्शों का अनुसरण करते हैं, तो वे उसका अनुसरण कर रहे हैं जो उनका शरीर चाहता है, जो शैतान द्वारा मन में बिठाई गई एक विचारधारा है।) इस संसार में, अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश को सही माना जाता है। चाहे तुम किसी भी आदर्श का अनुसरण करो, जब तक वे वैध हैं और कोई नैतिक सीमा नहीं लांघते हैं, तो कोई दिक्कत नहीं है। कोई भी किसी चीज पर सवाल नहीं उठाता, और तुम सही या गलत की बातों में नहीं फंसते। तुम जो भी व्यक्तिगत रूप से पसंद करते हो उसके पीछे भागते हो, और यदि तुम इसे हासिल कर लेते हो, यदि तुम अपने लक्ष्य तक पहुँच जाते हो, तो तुम सफल हो; लेकिन यदि तुम चूक जाते हो, यदि तुम असफल हो जाते हो, तो ये तुम्हारा अपना मामला है। हालाँकि, जब तुम परमेश्वर के घर, एक विशेष स्थान में प्रवेश करते हो, तो चाहे तुम्हारे अपने जो भी आदर्श और इच्छाएँ हों, तुम्हें उन सभी को त्याग देना चाहिए। ऐसा क्यों? आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण, चाहे तुम विशेष रूप से जिसका भी अनुसरण करते हो—अगर केवल अनुसरण के बारे में ही बात करें—इसके काम करने का तरीका और यह जिस रास्ते पर चलता है वह अहंकार, स्वार्थ, रुतबा और प्रतिष्ठा के इर्द-गिर्द घूमता है। यह इन्हीं सब चीजों के आस-पास घूमता है। दूसरे शब्दों में, जब लोग अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करते हैं, तो फायदा सिर्फ उन्हें होता है। क्या किसी व्यक्ति के लिए रुतबे, प्रतिष्ठा, घमंड और शारीरिक हितों की खातिर अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करना न्यायोचित है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) व्यक्तिगत और निजी आदर्शों, विचारों और इच्छाओं की खातिर, वे जो तरीके और दृष्टिकोण अपनाते हैं, सभी स्वार्थ और निजी लाभ पर आधारित होते हैं। यदि हम उन्हें सत्य के सामने रखकर मापें, तो वे न तो न्यायोचित हैं और न ही वैध। क्या यह निश्चित नहीं है कि लोगों को उन्हें त्याग देना चाहिए? (हाँ, है।) उन्हें त्याग देना चाहिए, अहंकार को त्याग देना चाहिए, निजी आदर्शों और इच्छाओं को त्याग देना चाहिए। यह उन रास्तों के सार के परिप्रेक्ष्य से दिखाई देता है जिन्हें लोग अपनाते हैं—अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना कोई सकारात्मक बात नहीं है, इसे नकार दिया गया है। यह एक पहलू है। अब दूसरे पहलू पर चर्चा करते हैं, परमेश्वर का घर यानी कलीसिया किस प्रकार का स्थान है, चाहे उसका नाम कुछ भी हो? ये किस तरह की जगह है? कलीसिया यानी परमेश्वर के घर का सार क्या है? सबसे पहले, सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य से, यह दुनिया, समाज या समाज की कोई मानव संस्था या संगठन नहीं है। यह संसार या मानवजाति की नहीं है। इसकी स्थापना क्यों की गई? इसकी मौजूदगी और अस्तित्व में होने का कारण क्या है? इसका कारण परमेश्वर और उसका कार्य है, है ना? (हाँ।) कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य के कारण अस्तित्व में है। तो, क्या कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, निजी प्रतिभाओं को प्रदर्शित करने और निजी आदर्शों, आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने की जगह है? (नहीं, ऐसा नहीं है।) यकीनन, नहीं है। कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य की मौजूदगी के कारण अस्तित्व में है। इस प्रकार, यह निजी प्रतिभाओं को प्रदर्शित करने या निजी आदर्शों, आकांक्षाओं और इच्छाओं को साकार करने की जगह नहीं है। यह दैहिक जीवन, शारीरिक संभावनाओं, शोहरत और धन, रुतबा, प्रतिष्ठा वगैरह के इर्द-गिर्द नहीं घूमता है—यह इन चीजों के लिए काम नहीं करता है। और न ही यह मनुष्यों की सांसारिक शोहरत, रुतबे, आनंद या संभावनाओं के कारण उभरा या अस्तित्व में आया है। तो फिर यह कैसी जगह है? चूँकि कलीसिया यानी परमेश्वर के घर की स्थापना परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य की मौजूदगी के कारण की गई थी, तो क्या इसका उद्देश्य परमेश्वर की इच्छा को पूरा करना, उसके वचनों का प्रचार करना और उसकी गवाही देना नहीं है? (हाँ।) क्या यह सत्य नहीं है? (बिल्कुल।) कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, परमेश्वर की उपस्थिति और उसके कार्य के कारण अस्तित्व में है, तो यह केवल परमेश्वर की इच्छा को पूरा कर सकती है, उसके वचनों का प्रचार कर सकती है, और उसकी गवाही दे सकती है। इसका व्यक्तिगत रुतबे, शोहरत, संभावनाओं या किसी अन्य हित से कोई लेना-देना नहीं है। कलीसिया यानी परमेश्वर के घर द्वारा किए जाने वाले सभी कार्य को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत परमेश्वर के वचनों, उसकी अपेक्षाओं और उसकी शिक्षाओं पर आधारित होने चाहिए। मोटे तौर पर, ऐसा कहा जा सकता है कि यह परमेश्वर की इच्छा और उसके कार्य के इर्द-गिर्द घूमती है; विशेष रूप से, यह राज्य का सुसमाचार फैलाने, परमेश्वर के वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने के आस-पास घूमती है। क्या यह सही है? (हाँ।) परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने, उसके वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने के अलावा, क्या कलीसिया यानी परमेश्वर के घर के लिए कोई और बात अधिक महत्वपूर्ण है? (यही वह जगह है जहाँ परमेश्वर के चुने हुए लोग उसके कार्य का अनुभव करते हैं, और शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त करते हैं।) तुमने बिल्कुल सही कहा है। कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, एक ऐसी जगह है जहाँ परमेश्वर की इच्छा पूरी की जाती है, उसके वचन का प्रचार किया जाता है, उसकी गवाही दी जाती है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यहाँ लोग उद्धार प्राप्त कर सकते हैं। क्या तुमने इसे याद कर लिया? (हाँ, मैंने कर लिया।) इसे पढ़ो। (कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, एक ऐसी जगह है जहाँ परमेश्वर की इच्छा पूरी की जाती है, उसके वचन का प्रचार किया जाता है, उसकी गवाही दी जाती है, और परमेश्वर के चुने हुए लोग शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त करते हैं।) कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, एक ऐसी जगह है जहाँ परमेश्वर की इच्छा पूरी होती है, उसके वचन का प्रचार किया जाता है, उसकी गवाही दी जाती है, और उसके चुने हुए लोगों को शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त होता है। यह ऐसी जगह है। ऐसी जगह पर, क्या कोई ऐसा कार्य या परियोजना है, चाहे वह जो भी हो, जो निजी आदर्शों और इच्छाओं की पूर्ति करती हो? निजी आदर्शों और इच्छाओं को पूरा करने के मकसद से कोई कार्य या परियोजना नहीं है, न ही इनका कोई भी पहलू निजी आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए है। तो, क्या परमेश्वर के घर में निजी आदर्श और इच्छाएँ मौजूद होनी चाहिए? (नहीं होनी चाहिए।) नहीं होनी चाहिए, क्योंकि निजी आदर्श और इच्छाएँ हर उस कार्य के विरोध में होती हैं जो परमेश्वर कलीसिया में करना चाहता है। निजी आदर्श और इच्छाएँ कलीसिया में किए जाने वाले किसी भी कार्य के विपरीत होती हैं। वे सत्य के विपरीत होती हैं; वे परमेश्वर की इच्छा से, उसके वचनों के प्रचार से, उसकी गवाही देने से, और परमेश्वर के चुने हुए लोगों के लिए शुद्धिकरण और उद्धार के कार्य से भटकी हुई होती हैं। किसी के आदर्श चाहे जो भी हों, अगर वे निजी आदर्श और इच्छाएँ हैं, तो वे लोगों को परमेश्वर की इच्छा का पालन करने से रोकेंगी, और उसके वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने में बाधा डालेंगी या प्रभावित करेंगी। बेशक, अगर ये निजी आदर्श और इच्छाएँ हैं, तब तक वे लोगों को शुद्धिकरण और उद्धार प्राप्त करने नहीं दे सकती हैं। यह सिर्फ दो पक्षों के बीच विरोधाभास की बात नहीं है, यह बुनियादी तौर पर एक-दूसरे के विपरीत चलती है। अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हुए, तुम परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने, उसके वचनों का प्रचार करने और उसकी गवाही देने के कार्य के साथ ही लोगों के और बेशक अपने उद्धार में बाधा डालते हो। संक्षेप में कहें तो लोगों के अपने आदर्श चाहे जो भी हों, वे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार नहीं चलते और परमेश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का वास्तविक नतीजा हासिल नहीं कर सकते। जब लोग अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हैं, तो उनका अंतिम उद्देश्य यह नहीं होता कि एक सृजित प्राणी के रूप में सत्य को समझेंया यह समझें कि कैसे आचरण करें, कैसे परमेश्वर के इरादे पूरे करें और कैसे अच्छे से अपने कर्तव्य और अपनी भूमिका निभाएँ। इसका उद्देश्य लोगों का परमेश्वर के प्रति सच्चा भय और समर्पण रखना नहीं है। बल्कि, इसके विपरीत, किसी व्यक्ति के आदर्श और इच्छाएँ जितनी अधिक साकार होती हैं, वह उतना ही परमेश्वर से दूर चला जाता है और शैतान के करीब पहुँच जाता है। इसी प्रकार, कोई व्यक्ति जितना अधिक अपने आदर्शों का अनुसरण करके उन्हें हासिल करता है, उसका दिल परमेश्वर के खिलाफ उतना ही अधिक विद्रोही हो जाता है, वह परमेश्वर से उतना ही दूर चला जाता है, और अंत में, जब वह अपनी इच्छानुसार अपने आदर्शों को पूरा करने और अपनी इच्छाओं को साकार और संतुष्ट करने में सक्षम होता है तो वह परमेश्वर से, उसकी संप्रभुता से और उसके बारे में हर चीज से और अधिक घृणा करने लगता है। यहाँ तक कि वह परमेश्वर को नकारने, उसका प्रतिरोध करने और उसके विरोध में खड़े होने के मार्ग पर भी चल सकता है। यही अंतिम परिणाम है।

यह समझने के बाद कि परमेश्वर का घर यानी कलीसिया क्या है, लोगों को यह भी समझना चाहिए कि परमेश्वर के घर में सदस्य बनकर रहते और जीते हुए उन्हें कैसा रवैया और कैसा रुख अपनाना चाहिए। कुछ लोगों ने कहा है, “तुम हमें हमारे आदर्शों या हमारी इच्छाओं को साकार करने की कोशिश नहीं करने देते।” मैं तुम लोगों को अपने आदर्शों का अनुसरण करने से नहीं रोक रहा हूँ; मैं तुम्हें यह बता रहा हूँ कि परमेश्वर के घर में उचित रूप से कैसे रहना है, उचित रुख कैसे अपनाना है और एक सृजित प्राणी के रूप में परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्यों को कैसे पूरा करना है। यदि तुम अपने आदर्शों को साकार करने पर की कोशिश पर जोर देते हो, तो मैं साफ तौर कह सकता हूँ : यहाँ से चले जाओ! कलीसिया तुम्हारे लिए अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करने की जगह नहीं है। परमेश्वर के घर के बाहर, तुम अपने आदर्शों के अनुसार जो करना चाहो वो कर सकते और अपने आदर्शों और आकांक्षाओं का अनुसरण कर सकते हो। तुम्हें बस परमेश्वर का घर छोड़ देना होगा, और फिर कोई तुम्हारे काम में टांग नहीं अड़ाएगा। लेकिन, कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, तुम्हारे लिए अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश के लिए उपयुक्त जगह नहीं है। अधिक सटीक रूप से कहें, तो इस जगह पर तुम्हारे लिए अपने आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करना असंभव है। यदि तुम परमेश्वर के घर यानी कलीसिया में एक दिन के लिए भी रहते हो, तो अपने आदर्शों को साकार करने या उनका अनुसरण करने की कतई मत सोचना। यदि तुम कहते हो कि “मैं अपने आदर्शों को त्याग देता हूँ। मैं परमेश्वर की अपेक्षाओं के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने और एक योग्य सृजित प्राणी बनने के लिए तैयार हूँ” तो यह स्वीकार्य होगा। तुम अपनी जगह के अनुसार और परमेश्वर के घर में नियमों के अनुसार अपने कर्तव्य निभा सकते हो। लेकिन यदि तुम अपना जीवन व्यर्थ में नहीं जीने का लक्ष्य रखते हुए, अपने आदर्शों का अनुसरण करने और उन्हें साकार करने पर जोर देते हो, तो तुम अपने कर्तव्यों को त्यागकर परमेश्वर के घर से निकल सकते हो। या फिर तुम यह कहते हुए एक बयान लिख सकते हो, “मैं अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने के लिए अपनी इच्छा से सर्वशक्तिमान परमेश्वर की कलीसिया को त्यागता हूँ। दुनिया बहुत बड़ी है, वहाँ मेरे लिए कोई न कोई जगह जरूर होगी। अलविदा।” इस तरह, तुम उचित और उपयुक्त तरीके से निकलकर अपने आदर्शों का अनुसरण कर सकते हो। लेकिन, यदि तुम यह कहते हो कि “मैं अपने आदर्शों को त्याग दूँगा, परमेश्वर के घर में अपने कर्तव्य अच्छे से निभाऊँगा, एक योग्य सृजित प्राणी बनूँगा और उद्धार का अनुसरण करूँगा” तो हमारे बीच एक साझा आधार हो सकता है। चूँकि तुम एक सदस्य के रूप में परमेश्वर के घर में शांति से रहना चाहते हो, तो तुम्हें सबसे पहले यह सीखना चाहिए कि एक अच्छा सृजित प्राणी कैसे बनें और अपनी जगह के अनुसार अपने कर्तव्यों को कैसे पूरा करें। परमेश्वर के घर में, फिर तुम एक ऐसे सृजित प्राणी बन जाओगे जो अपने नाम के अनुरूप जीता है। सृजित प्राणी तुम्हारी बाहरी पहचान और उपाधि है, और इसकी विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ और सार होना चाहिए। यह केवल उपाधि रखने की बात नहीं है; चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को पूरा करना चाहिए। चूँकि तुम एक सृजित प्राणी हो, तो तुम्हें उससे जुड़ी जिम्मेदारियाँ निभानी चाहिए। तो, एक सृजित प्राणी के कर्तव्य और जिम्मेदारियाँ क्या हैं? परमेश्वर का वचन सृजित प्राणियों के कर्तव्यों, दायित्वों और जिम्मेदारियों को स्पष्ट रूप से बताता है, है ना? आज से, तुम परमेश्वर के घर के वास्तविक सदस्य हो, इसका मतलब है कि तुम खुद को परमेश्वर के बनाए गए प्राणियों में से एक के रूप में स्वीकारते हो। इसी के साथ, आज से तुम्हें अपने जीवन की योजनाओं पर पुनर्विचार करना चाहिए। तुम्हें उन आदर्शों, इच्छाओं और लक्ष्यों का अनुसरण करना छोड़ना और उन्हें त्यागना भी होगा जो तुमने अपने जीवन में पहले निर्धारित किए थे। इसके बजाय, एक सृजित प्राणी के पास जो जीवन लक्ष्य और दिशा होनी चाहिए, उसे पाने की योजना बनाने के लिए तुम्हें अपनी पहचान और परिप्रेक्ष्य को बदलना चाहिए। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तुम्हारे लक्ष्य और दिशा एक अगुआ बनना या किसी उद्योग में अगुआई करना या उत्कृष्टता प्राप्त करना या ऐसा प्रसिद्ध व्यक्ति बनना नहीं होना चाहिए जो कोई खास कार्य करता है या जिसे किसी विशेष कौशल में महारत हासिल है। तुम्हारा लक्ष्य परमेश्वर से अपना कर्तव्य स्वीकार करना, यानी यह जानना होना चाहिए कि तुम्हें इस समय क्या कार्य करना चाहिए, और यह समझना चाहिए कि तुम्हें कौन-सा कर्तव्य निभाना है। तुम्हें खुद से यह पूछना होगा कि परमेश्वर तुमसे क्या अपेक्षा करता है और उसके घर में तुम्हारे लिए कौन-से कर्तव्य की व्यवस्था की गई है। तुम्हें उस कर्तव्य के संबंध में उन सिद्धांतों को समझना और उनके बारे में स्पष्टता प्राप्त करनी चाहिए जिन्हें समझा जाना चाहिए, धारण किया जाना चाहिए और जिनका पालन किया जाना चाहिए। यदि तुम उन्हें याद नहीं रख सकते, तो तुम उन्हें कागज पर लिख सकते हो या अपने कंप्यूटर पर रिकॉर्ड कर सकते हो। उनकी समीक्षा करने और उन पर विचार करने के लिए समय निकालो। सृजित प्राणियों के एक सदस्य के रूप में, तुम्हारे जीवन का प्राथमिक लक्ष्य एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना और एक योग्य सृजित प्राणी बनना होना चाहिए। यह जीवन का सबसे मौलिक लक्ष्य है जो तुम्हारे पास होना चाहिए। दूसरा और अधिक विशिष्ट लक्ष्य यह होना चाहिए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य कैसे अच्छे से निभाएँ और एक योग्य सृजित प्राणी कैसे बनें। बेशक, तुम्हारी प्रतिष्ठा, रुतबे, घमंड, भविष्य वगैरह से संबंधित किसी भी लक्ष्य या दिशा को त्याग दिया जाना चाहिए। कुछ लोग पूछ सकते हैं, “हमें उन्हें क्यों त्यागना चाहिए?” जवाब आसान है। शोहरत, दौलत और रुतबे का अनुसरण करना परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में बाधा उत्पन्न करेगा, परमेश्वर के घर या कलीसिया में कुछ कार्यों को बाधित करेगा, और यहाँ तक कि कलीसिया के कुछ कार्यों को भी खोखला कर देगा। यह परमेश्वर के वचन फैलाने, उसकी गवाही देने और इससे भी बढ़कर, यह लोगों के उद्धार प्राप्त करने पर असर डालेगा। अपने कर्तव्य को मानक के अनुसार पूरा करने और एक योग्य सृजित प्राणी बनने के लिए, तुम अपने हिसाब से लक्ष्य निर्धारित कर सकते हो और अपने अनुभवों को सारांशित कर सकते हो, लेकिन तुम्हें कभी भी अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। अपना कर्तव्य निभाने में अपनाए गए किसी भी सिद्धांत या दृष्टिकोण में तुम्हारे आदर्शों की मिलावट नहीं होनी चाहिए। अपना कर्तव्य अच्छे से और मानक के अनुसार निभाने और एक अच्छा सृजित प्राणी बनने के लिए तुम्हें अपने व्यक्तिगत विचारों और अवसरों का सारांश तैयार करने के लिए परमेश्वर के वचनों के बाहर नहीं जाना चाहिए, बल्कि परमेश्वर के वचनों के भीतर ही सिद्धांत और अभ्यास का अधिक सटीक मार्ग खोजना चाहिए। अभ्यास के ये सिद्धांत आखिर में इस बात के इर्द-गिर्द घूमते हैं कि एक योग्य सृजित प्राणी कैसे बनें और अपना कर्तव्य कैसे अच्छे से निभाएँ। सब कुछ सत्य को समझने, एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को अच्छे से निभाने और अंततः अपना कर्तव्य निभाने की प्रक्रिया में या अपने दैनिक जीवन में विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों का सामना करते समय पालन किए जाने वाले सिद्धांतों को समझने पर केंद्रित है। बात समझ में आई? (बिल्कुल।) बेशक, यदि तुम परमेश्वर के घर की अपेक्षाओं और सिद्धांतों के अनुसार अपना कर्तव्य निभाते हो, और एक योग्य सृजित प्राणी बनने की कोशिश करते हो तो तुम ये नतीजे हासिल कर सकते हो। लेकिन, यदि तुम अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करते हो तो तुम्हें कभी परमेश्वर की स्वीकृति नहीं मिलेगी।

अगर लोग सत्य का अनुसरण किए बिना लगातार अपने आदर्शों को साकार करने की कोशिश करते हैं, तो वे आखिर में अधिक अहंकारी, स्वार्थी, आक्रामक, क्रूर और लालची बन जाएँगे। और क्या? वे अधिक से अधिक आडंबरपूर्ण और दंभी हो जाएँगे। हालाँकि, जब लोग अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना छोड़ देंगे, और इसके बजाय विभिन्न सत्यों के साथ-साथ परमेश्वर के वचनों के विभिन्न पहलुओं की समझ और लोगों और चीजों को देखने, आचरण और कार्य करने के तरीके से संबंधित सत्य के मानदंडों का अनुसरण करेंगे, तो वे अधिक मानवीय समानता के साथ जीएँगे। विभिन्न कार्य करते हुए या विभिन्न परिवेशों का अनुभव करते हुए, वे अब पहले की तरह हताश और भ्रमित महसूस नहीं करेंगे। इसके अलावा, वे अब नकारात्मक भावनाओं में नहीं फँसे होंगे जैसा कि वे अक्सर हुआ करते थे, जब वे खुद को मुक्त करने में असमर्थ, नकारात्मक विचारों और भावनाओं से बेबस और बंधे हुए महसूस करते थे, और आखिर में विभिन्न नकारात्मक भावनाओं से नियंत्रित और ढँके हुए होते थे। अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार करने की कोशिश करना केवल लोगों को परमेश्वर के वचनों और सटीक रूप से योग्य सृजित प्राणी बनने के सिद्धांतों से दूर कर देता है। वे इस बात से अनजान होते हैं कि परमेश्वर की व्यवस्थाओं और आयोजनों के प्रति समर्पण कैसे करें, और उन्हें इस बात की कोई समझ नहीं होती कि मानव जीवन, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु क्या हैं। वे नहीं जानते कि नफरत को कैसे सँभालना है और विभिन्न नकारात्मक भावनाओं से कैसे निपटना है। बेशक, वे इस बारे में भी अनजान होते हैं कि उनके जीवन में आने वाले लोगों, घटनाओं और चीजों से कैसे पेश आएँ। जब विभिन्न लोगों, घटनाओं और चीजों से उनका सामना होता है, तो वे असहाय, उलझन से भरे और हक्के-बक्के रह जाते हैं। अंत में, वे केवल नकारात्मक भावनाओं, विचारों और दृष्टिकोणों को अपने दिलों में फैलने और विकसित होने देते हैं, जिससे वे खुद को उनके द्वारा नियंत्रित और बंधे हुए पाते हैं। इसके अलावा, इन नकारात्मक भावनाओं या विचारों और दृष्टिकोणों के कारण, वे चरम व्यवहार में भी संलग्न हो सकते हैं या ऐसी चीजें कर सकते हैं जो उनको और दूसरों को नुकसान पहुँचाती हैं, जिसके अकल्पनीय परिणाम होते हैं। ऐसे कार्य लोगों के उचित अनुसरण में बाधा डालते हैं और उनमें जो अंतरात्मा और विवेक होना चाहिए उसे नुकसान पहुँचाते हैं। इसलिए, लोगों के लिए अब सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वे अपने दिलों की गहराई में झाँककर देखें कि वे कौन-सी चीजें हैं जिनके लिए वे अभी भी तरसते हैं, और वे कौन-सी चीजें हैं जो दैहिक इच्छाओं से, इस संसार से, और देह के हितों से संबंधित हैं, जैसे कि शोहरत, प्रतिष्ठा, सम्मान, रुतबा, संपत्ति वगैरह, जिनकी वे अभी भी लालसा रखते हैं, जिनकी अभी भी उन्हें जरूरत है, जिनकी असलियत समझने में वे असमर्थ हैं, और जो अक्सर उन्हें बाँधता और ललचाता है। मुमकिन है कि वे इन चीजों में गहराई तक फँस गए हों या उनके मन में उनके प्रति गहरी प्रशंसा हो, और जरा-सी चूक से, वे किसी भी समय और किसी भी स्थान पर आसानी से उनकी पकड़ में आ सकते हैं। ऐसे मामले में, ये चीजें ही उनकी आदर्श होती हैं। जब वे इन आदर्शों को साकार कर लेते हैं, तब वे उनके पतन का कारण और उनके विनाश का स्रोत बन जाते हैं। तुम लोग इस मामले को कैसे देखते हो? (लोगों को अपने दिलों की गहराई में झाँककर देखना चाहिए कि वे अभी भी किन चीजों के लिए तरसते हैं। उन्हें दैहिक और सांसारिक शोहरत, प्रतिष्ठा, सम्मान, रुतबा, संपत्ति आदि जैसी चीजों की असलियत समझनी होगी; नहीं तो, वे आसानी से उनके चंगुल में फँस सकते हैं।) वे उनके कब्जे में आ सकते हैं, है ना? तो, ये दैहिक चीजें बहुत खतरनाक हैं। यदि तुम उनकी असलियत नहीं समझ पाते, तो तुम हमेशा उनसे प्रभावित होने या उनके कब्जे में होने तक के खतरे में रहोगे। तो, अब तुम लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन दैहिक चीजों का मैंने पहले उल्लेख किया था, उनका तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य के आधार पर विश्लेषण करके उन्हें समझो। जब तुम उन्हें खोजकर उनकी पहचान कर लो, तो तुम्हें उनका त्याग कर देना चाहिए और अपने शरीर, मन और ऊर्जा को एक सामान्य सृजित प्राणी बनने में लगाने के साथ ही अपने मौजूदा कर्तव्यों और कार्य में लगाना चाहिए। अपने आपको एक विशेष या अजेय व्यक्ति के रूप में या असाधारण प्रतिभाओं या क्षमताओं वाले व्यक्ति के रूप में देखना बंद करो। तुम केवल एक मामूली व्यक्ति हो। कितना मामूली? सभी सृजित प्राणियों और परमेश्वर की बनाई हुई सभी चीजों में, तुम केवल उनमें से एक हो, सबसे साधारण हो। तुम किस हद तक साधारण हो? तुम घास के किसी तिनके की तरह, किसी पेड़, पहाड़, पानी की बूँद या यहाँ तक कि समुद्रतट रेत के एक कण के समान मामूली हो। तुम्हारे लिए घमंड करने या प्रशंसा करने के लायक कुछ भी नहीं है। तुम इतने साधारण हो। इसके अलावा, यदि तुम्हारे दिल की गहराइयों में अभी भी आदर्श लोगों, महान हस्तियों, मशहूर हस्तियों, महान लोगों की बुलंद छवियाँ मौजूद हैं, या कुछ ऐसी चीजें हैं जिनसे तुम ईर्ष्या करते हो, तो तुम्हें उन्हें हटा देना चाहिए, त्याग देना चाहिए। तुम्हें उनकी प्रकृति सार की असलियत जाननी चाहिए, और एक सामान्य सृजित प्राणी होने के मार्ग पर लौटना चाहिए। एक सामान्य सृजित प्राणी होना और अपने कर्तव्यों को पूरा करना सबसे बुनियादी कार्य है जो तुम्हें करना चाहिए। फिर, तुम्हें सत्य का अनुसरण करने के इस विषय पर वापस लौटकर सत्य पाने के लिए और अधिक कोशिश करनी चाहिए। बाहरी खबरों, सूचनाओं, घटनाओं और मशहूर हस्तियों की प्रोफाइलों से अपना संपर्क कम रखने की कोशिश करो। ऐसी किसी भी चीज से बचना सबसे अच्छा है जो अपने आदर्शों को साकार करने की तुम्हारी इच्छा को फिर से जगा सकती है। अब, तुम्हें उन लोगों, घटनाओं और चीजों से दूरी बनानी होगी जो तुम्हारे लिए बिल्कुल भी फायदेमंद नहीं हैं और नकारात्मक हैं। खुद को इन चीजों से अलग कर लो और इस जटिल और अराजक संसार में हर चीज से दूर रहने की कोशिश करो। भले ही वे तुम्हारे लिए कोई खतरा या प्रलोभन न हों, फिर भी तुम्हें उनसे दूरी बना लेनी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे मूसा चालीस वर्ष तक जंगल में रहा; क्या उसने तब भी अच्छा जीवन नहीं जीया? अंत में, उसकी बोलने की क्षमता अच्छी न होने के बाद भी, परमेश्वर ने उसे चुना, जो उसके जीवन की सबसे सम्मानजनक बात थी। इसमें कुछ भी बुरा नहीं था। इसलिए, सबसे पहले, अपने विचारों की गहराई में अपने दिल को पुनः पा लो, तुम्हारे विचारों की गहराई में धार्मिकता की भूख और प्यास वाली मानसिकता होनी चाहिए, जो तुम्हारी आस्था में सत्य का अनुसरण करे। तुम्हारी ऐसी ही योजना होनी चाहिए, ऐसी इच्छाशक्ति और चाह रखनी चाहिए, न कि लगातार अपने आदर्शों पर सोच-विचार करना या निरंतर यह कोशिश और चिंतन करना चाहिए कि तुम उन्हें हासिल कर पाओगे या नहीं। तुम्हें पिछले आदर्शों और इच्छाओं के साथ अपना लगाव पूरी तरह से खत्म कर देना चाहिए, और एक योग्य और सामान्य सृजित प्राणी बनने की कोशिश करनी चाहिए। सामान्य सृजित प्राणियों में शुमार होना कोई बुरी बात नहीं है। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? यह वास्तव में एक अच्छी बात है। जिस पल से तुम अपने दैहिक आदर्शों और इच्छाओं को त्यागना शुरू करते हो, जिस पल से तुम बिना किसी विशेष रुतबे, ओहदे या मूल्य के एक सामान्य सृजित प्राणी बनने का दृढ़ निर्णय लेते हो, इसका मतलब है कि तुममें परमेश्वर के प्रभुत्व के अधीन, सृष्टिकर्ता के प्रभुत्व के अधीन आत्म-समर्पण करने की इच्छा और दृढ़ संकल्प है और तुम परमेश्वर को अपने जीवन का आयोजन करने और उस पर शासन करने देते हो। तुममें समर्पण करने, निजी आदर्शों और इच्छाओं को त्यागने और किनारे करने, परमेश्वर को अपना प्रभु बनाने और अपनी नियति पर शासन करने देने की चाह है, तुममें ऐसी मानसिकता के साथ एक योग्य सृजित प्राणी बनने और ऐसी मानसिकता और रवैये के साथ अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने की चाह है। जीवन के प्रति तुम्हारा नजरिया ऐसा होना चाहिए। क्या यह सही है? क्या यही सत्य है? (हाँ।) तुम्हारे जीवन के लक्ष्य और जीवन की दिशा किस पर केंद्रित है? (एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को निभाने पर।) यही सबसे बुनियादी चीज है। और क्या? (एक सामान्य सृजित प्राणी बनने की कोशिश करने पर।) और कुछ? (उद्धार पाने के लिए सत्य का अनुसरण करने पर।) यह एक और हो गया। और कुछ? (परमेश्वर के वचनों पर ध्यान केंद्रित करने और सत्य खोजने के लिए अधिक कोशिश करने पर।) ये थोड़ा ज्यादा ठोस है, है न? तुम्हारे जीवन के सभी लक्ष्य और जीवन की दिशा परमेश्वर के वचनों के इर्द-गिर्द घूमनी चाहिए, और तुम्हें सत्य खोजने के लिए अधिक कोशिश करनी चाहिए। अस्पष्ट आदर्शों का अनुसरण करने का जो उत्साह तुममें पहले था, उसे परमेश्वर के वचन पढ़ने और सत्य पर चिंतन-मनन करने में लगाओ, और देखो कि तुम सत्य की ओर प्रगति कर पाते हो या नहीं। यदि तुमने वास्तव में सत्य की ओर प्रगति की, तो तुम्हारे भीतर विशिष्ट अभिव्यक्तियाँ होंगी। यानी, जब विभिन्न लोगों, घटनाओं और मानवीय विचारों और दृष्टिकोणों के साथ-साथ सिद्धांतों से जुड़ी चीजों से तुम्हारा सामना होगा, तब तुम हक्के-बक्के, भ्रमित, परेशान या उलझे हुए नहीं रहोगे। इसके बजाय, तुम परमेश्वर से प्रार्थना करोगे, उसके वचनों से मार्गदर्शन लोगे, तुम्हारा हृदय शांत और स्थिर होगा, और तुम जानोगे कि परमेश्वर के प्रति समर्पण करने और उसके इरादे पूरे करने वाले तरीके से कैसे कार्य करना है। तभी तुम वास्तव में जीवन में सही मार्ग पर होगे। बहुत-से लोग अपने जीवन में धीमी प्रगति करते हैं, क्योंकि अपने कर्तव्य निभाने करने की प्रक्रिया में वे हमेशा अपने आदर्शों, शोहरत, रुतबे और स्वयं द्वारा कल्पित जीवन के लक्ष्यों का पीछा करते हैं, और अपनी दैहिक इच्छाओं को साकार करते हुए आशीष पाना चाहते हैं। नतीजतन, वे अपने कर्तव्यों को व्यावहारिक तरीके से पूरा नहीं कर पाते हैं और उन्हें सच्चे जीवन प्रवेश का अनुभव नहीं होता है। शुरू से अंत तक वे वास्तविक अनुभवजन्य गवाही साझा करने में असमर्थ होते हैं। इस कारण चाहे वे कितने ही समय से अपने कर्तव्य निभा रहे हों, जीवन और सत्य में प्रवेश करने की उनकी प्रगति न्यूनतम रहती है, और उन्हें बहुत कम परिणाम मिलते हैं। यदि तुमने वास्तव में अपने कर्तव्य निभाने के लिए खुद को समर्पित कर दिया है, अपनी सारी ऊर्जा सत्य का अनुसरण करने और सत्य के लिए कड़ी मेहनत करने में लगा दी है तो तुम लोग खुद को वर्तमान दशा, आध्यात्मिक कद और स्थिति में नहीं पाओगे। ऐसा इसलिए है क्योंकि लोग आम तौर पर केवल नीरस कार्यों, पेशेवर कार्य और मौजूदा काम पर ध्यान देते हैं, और इन गतिविधियों का अंतर्निहित सार अपने आदर्शों को साकार करते हुए निजी इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करना है। ये आदर्श क्या हैं? ये आदर्श हैं कि लोग हमेशा खुद को अपने काम में लगे देखना, और कुछ उपलब्धियाँ हासिल करना, कुछ परिणाम अर्जित करना, और दूसरों से सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं; साथ ही, वे अपनी अहमियत दिखाने के लिए हमेशा अपने सपनों और अपने लक्ष्यों को साकार करना चाहते हैं। तभी वे परिपूर्ण महसूस करते हैं। लेकिन, यह सत्य का अनुसरण करना नहीं है; यह केवल अपने भीतर के खोखलेपन को संतुष्ट करना और अपने जीवन को समृद्ध बनाने के लिए काम का उपयोग करना है। ऐसा ही होता है न? (बिल्कुल।) इसलिए, चाहे कोई व्यक्ति कितनी भी देर कार्य करता हो या उसने कितना भी काम किया हो, इन सबका सत्य से कोई संबंध नहीं है। वे अभी भी सत्य को नहीं समझते और उसका अनुसरण करने से कोसों दूर हैं। अपने कार्य की जिम्मेदारियों से संबंधित सिद्धांतों के संदर्भ में लोगों के पास अभी भी कोई प्रवेश या समझ नहीं है। इसी वजह से तुम सब थके हुए महसूस करते हो और सोचते हो, “हमेशा हमारी ही काट-छाँट क्यों की जाती है? हमने बहुत प्रयास किए, बहुत कठिनाइयाँ सहीं और भारी कीमत चुकाई। फिर भी हमारी काट-छाँट क्यों की जा रही है?” ऐसा इसलिए है क्योंकि तुम सिद्धांतों को नहीं समझते हो। तुमने सिद्धांतों को कभी नहीं समझा या कभी उस पर पकड़ नहीं बनाई है, न ही उन्हें पाने की पाने की पूरी कोशिश की है। दूसरे शब्दों में, तुम लोगों ने सत्य खोजने की, परमेश्वर के वचनों को समझने की कोशिश नहीं की है। तुम बस कुछ नियमों का पालन करके अपनी कल्पना के अनुसार कार्य करते हो। तुम हमेशा अपने आदर्शों और धारणाओं की दुनिया में रहते हो, और तुम जो कुछ भी करते हो उसका सत्य से कोई लेना-देना नहीं होता है। तुम अपना करियर बना रहे हो, न कि परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चल रहे हो। यानी, तुम अभी भी परमेश्वर के वचनों के सिद्धांतों को नहीं समझते हो, और अंत में, कुछ लोगों को मजदूर करार दिया जाता है और उन्हें यह अन्याय लगता है। क्या कारण है कि उन्हें यह अन्याय लगता है? ऐसा इसलिए है क्योंकि वे सोचते हैं कि उनका कष्ट सहना पीड़ा और कीमत चुकाना सत्य का अभ्यास करने के बराबर है। दरअसल, उनका कष्ट सहना और कीमत चुकाना बस थोड़ी कठिनाई का सामना करना है। यह सत्य का अभ्यास करना या परमेश्वर के मार्ग का अनुसरण करना नहीं है। अधिक सटीक रूप से कहें, तो इसका सत्य का अभ्यास करने से कोई लेना-देना नहीं है; यह केवल कड़ी मेहनत और कार्य करना है। क्या केवल कड़ी मेहनत और कार्य करना ही अपने कर्तव्यों को मानकों के अनुसार अच्छे से निभाना है? क्या यह एक योग्य सृजित प्राणी होना है? (नहीं।) इन दोनों के बीच जमीन-आसमान का अंतर है।

दमन की नकारात्मक भावनाओं को त्यागने के विषय के संबंध में, आज के लिए हम अपनी संगति यहीं पर रोकते हैं। क्या तुम उन समस्याओं को स्पष्ट रूप से देख सकते हो जो उन लोगों के लिए उत्पन्न होती हैं जो अपने आदर्शों और इच्छाओं को साकार नहीं कर पाने के कारण दमित महसूस करते हैं? (हाँ, यह स्पष्ट है।) क्या स्पष्ट है? आओ इसका सार निकालें। सबसे पहले, बात करते हैं कि आदर्श क्या हैं। यहाँ जिन आदर्शों का विश्लेषण किया जा रहा है वे नकारात्मक हैं, वे न्यायसंगत या सकारात्मक चीजें नहीं हैं। आदर्श क्या हैं? “आदर्शों” की परिभाषा देने के लिए सटीक भाषा का उपयोग करो। (वे खोखले विचार हैं जो सामान्य मानवीय अंतरात्मा और विवेक से भटके हुए हैं, जिनकी कल्पना मनुष्य खुद करते हैं, लेकिन वे वास्तविकता के साथ मेल नहीं खाते। वे वास्तविक नहीं हैं।) तुमने जिनका जिक्र किया है वे आदर्शवादियों के आदर्श हैं। तुम आम तौर पर आदर्शों को कैसे परिभाषित करोगे? क्या तुम लोग उन्हें परिभाषित कर सकते हो? क्या उन्हें परिभाषित करना कठिन है? वे कौन से लक्ष्य हैं जिन्हें लोग अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और संभावनाओं के लिए निर्धारित करते हैं? (लोगों द्वारा अपने रुतबे, प्रतिष्ठा और संभावनाओं के लिए निर्धारित किए गए और अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य आदर्श हैं।) क्या यह परिभाषा सही है? (हाँ।) अपने रुतबे, प्रतिष्ठा, संभावनाओं और हितों के लिए लोगों के निर्धारित लक्ष्य आदर्श और इच्छाएँ हैं। क्या यह अविश्वासियों द्वारा बताई गई आदर्शों की व्यापक परिभाषा है? हम इसे इसके अंतर्निहित सार के आधार पर परिभाषित कर रहे हैं, है ना? (हाँ।) आदर्शों का विशिष्ट प्रकार चाहे जो हो, चाहे वे बहुत उच्च, निम्न या औसत दर्जे के हों, वे लोगों द्वारा अपने हितों के लिए निर्धारित किए गए और अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य हैं। ये लक्ष्य उनके आदर्श या इच्छाएँ हैं। क्या यह उन लोगों का आदर्श नहीं है जिनके बारे में हमने पिछले उदाहरणों में संगति की और जिनका विश्लेषण किया था? लोगों द्वारा अपने रुतबे, प्रतिष्ठा, संभावनाओं, हितों वगैरह के लिए निर्धारित किए गए और अनुसरण किए जाने वाले लक्ष्य आदर्श और इच्छाएँ हैं। जो लोग आदर्शों और इच्छाओं का अनुसरण करते हैं लेकिन उन्हें साकार नहीं कर पाते, वे अक्सर कलीसिया के भीतर दमित महसूस करते हैं। ये लोग खुद को दमित महसूस करते हैं। एक मिनट के लिए सोचो, क्या तुम भी ऐसी दशा और स्थिति में हो? क्या तुम भी अक्सर ऐसी स्थिति में, ऐसी भावनाओं के साथ जीते हो? यदि तुममें ये भावनाएँ हैं, तो तुम क्या हासिल करने की कोशिश कर रहे हो? यह सब तुम्हारे अपने रुतबे, प्रतिष्ठा, संभावनाओं और हितों के लिए है। तुम्हारे द्वारा निर्धारित किए गए आदर्श और लक्ष्य अक्सर सत्य और सकारात्मक चीजों से प्रतिबंधित और बाधित होते हैं—उन्हें साकार नहीं किया जा सकता है। इस वजह से, तुम दुखी महसूस करते हो और दमन की भावनाओं के साथ जीते हो। यही बात है न? (हाँ।) यही मानवीय आदर्शों की समस्या है। पहले, हमने मानवीय आदर्शों का विश्लेषण किया, उसके बाद हमने किस बारे में संगति की? हमने संगति की कि कलीसिया यानी परमेश्वर का घर, लोगों के लिए अपने आदर्शों को पूरा करने की जगह नहीं है। फिर हमने उन सही लक्ष्यों के बारे में संगति की जिनका अनुसरण लोगों को परमेश्वर में अपनी आस्था में करना चाहिए, जैसे एक योग्य सृजित प्राणी कैसे बनें और एक सृजित प्राणी के कर्तव्यों को कैसे अच्छे से निभाएँ। सही कहा न? (हाँ।) इन चीजों के बारे में संगति करने का मुख्य उद्देश्य लोगों को यह बताना है कि उन्हें अपने आदर्शों और कर्तव्यों को कैसे चुनना चाहिए और उनके साथ कैसे पेश आना चाहिए। लोगों को अपने अनुचित आदर्शों को त्याग देना चाहिए, जबकि इस जीवन में उनके कर्तव्य ही वे हैं जिनके लिए उन्हें कीमत चुकानी चाहिए और अपना पूरा जीवन समर्पित करना चाहिए। एक सृजित प्राणी के कर्तव्य सकारात्मक चीजें हैं, जबकि मानवीय आदर्श ऐसे नहीं हैं और उन पर कायम रहने के बजाए उन्हें त्याग देना चाहिए। लोगों को एक योग्य सृजित प्राणी बनने का अनुसरण करना चाहिए, उस पर कायम रहना चाहिए और इसी तरह अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। तो, जब लोगों के आदर्श उनके कर्तव्यों से टकराते हों, तो उन्हें क्या करना चाहिए? (उन्हें अपने आदर्शों को त्याग देना चाहिए और उनसे दूर हो जाना चाहिए।) उन्हें अपने आदर्शों को त्याग देना चाहिए और अपने कर्तव्यों पर कायम रहना चाहिए। चाहे जब भी हो या लोग जिस उम्र तक भी जिएँ, उन्हें जो करना चाहिए और जिस चीज का अनुसरण करना चाहिए, वह इसी बात के इर्द-गिर्द घूमनी चाहिए कि एक सृजित प्राणी के कर्तव्य कैसे निभाएँ और परमेश्वर, उसके वचनों, और सत्य के प्रति समर्पण कैसे करें। केवल ऐसे अभ्यास से ही व्यक्ति सार्थक और मूल्यवान जीवन जी सकता है, है न? (हाँ।) ठीक है, आओ आज की हमारी संगति यहीं समाप्त कते हैं। अलविदा!

10 दिसंबर 2022

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