19. मैंने लोगों के साथ सही बर्ताव करना सीख लिया है

सी यूआन, फ्रांस

कुछ साल पहले, मैं कलीसिया की अगुआ का कर्तव्य निभा रही थी। कलीसिया में एक भाई थे, जिनका नाम चेन था। वे काफ़ी काबिल थे। लेकिन उनका स्वभाव बहुत घमंडी था, और वे दूसरों को बहुत दबाया करते थे। उन्हें दिखावा करना बहुत पसंद था, तो मैं उनके प्रति पक्षपातपूर्ण नजरिया रखने लगी और उनके बारे में राय बनाने लगी। एक दिन, भाई चेन मेरे पास आए और कहा कि वे नए विश्वासियों का सिंचन करना चाहते हैं। उन्हें विश्वासी बने बहुत समय नहीं हुआ था और सत्य के बारे में उनकी समझ बहुत उथली थी, तो मैंने उन्हें मना कर दिया। यह देखकर कि मैं अपनी सहमति नहीं देने वाली हूँ, वे कहने लगे, "मैं इतना योग्य हूँ, तो मुझे सिंचन का काम क्यों नहीं मिल सकता? अगर मैं ऐसा नहीं करूँगा, तो मेरा हुनर बेकार हो जाएगा।" मुझे यह सुनकर अच्छा नहीं लगा, और मैंने सोचा, "तुम्हें लगता है कि सिंचन का काम बहुत आसान है? क्या तुम सत्य को समझे बिना, सिर्फ़ अपने गुणों और काबिलियत का इस्तेमाल करके यह काम ठीक से कर पाओगे? अपने बारे में इतनी गलतफहमियाँ न पालो!" मैंने भाई चेन के अनुरोध को नामंज़ूर कर दिया और बाकी भाई-बहनों से कहा कि वे बहुत अहंकारी हैं, और उदाहरणों के साथ बताया कि उनकी भ्रष्टता किस तरह नज़र आती है। कुछ लोग मुझसे सहमत भी हुए।

दो हफ़्तों बाद, कलीसिया ने कुछ ऐसा इंतज़ाम किया ताकि हम भविष्य की सभाओं में कलीसिया की फ़िल्में देख सकें और साथ ही सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों को पढ़ सकें। ये सभी फ़िल्में सत्य पर सहभागिता करती हैं और परमेश्वर की गवाही देती हैं, इसलिए इन्हें देखने से हमें सत्य को समझने में मदद मिल सकती है। अगली सभा में, भाई चेन ने कहा, "यह बहुत अच्छी योजना है। कुछ अगुआ और सहकर्मी सभाओं में सिर्फ़ मामूली बातें साझा करते हैं, इसलिए फ़िल्में देखना बेहतर होगा। शुरू में मुझे अपने कर्तव्य को निभाने में बहुत मुश्किल होती थी क्योंकि मुझे सत्य की समझ नहीं थी। लेकिन फिर मैंने प्रार्थना की, परमेश्वर के सामने झुककर उसके वचनों को ज़्यादा पढ़ना शुरू किया, और कलीसिया की इन फ़िल्मों ने भी मेरी बहुत मदद की। मुझे कुछ सत्य इन फ़िल्मों से समझ आए। अब मैं अपने काम में काफ़ी कुशल हूँ और मुझे सिद्धांतों की बुनियादी समझ भी है। मैं अपने काम में काफ़ी कुछ हासिल कर पाती हूँ।" मुझे उनकी सहभागिता घृणित और नीरस लगी, मैंने सोचा, "तुम दिखावा करने का कोई भी मौक़ा अपने हाथ से नहीं जाने देते, क्यों? तुम कितने अहंकारी हो!" बाद में, हमने अगली सभा के लिए कुछ मुद्दे सामने रखे और भाई चेन उनमें से तीन पर अपनी काबिलियत झाड़ने लगे। उन्होंने बाकी मुद्दों पर सहभागिता करने का जिम्मा भी दूसरों को सौंप दिया। सभा की मेज़बानी का काम मैं एक समूह अगुआ को सौंपने ही वाली थी कि भाई चेन ने उनसे संदेह भरे लहज़े में पूछा, "क्या आपको यक़ीन है कि आप इसे कर पाएंगे?" वे ऐसे बात कर रहे थे जैसे उनके अलावा कोई दूसरा इंसान सभा की मेज़बनी नहीं कर सकता। यह सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया, मैं सोचने लगी, "तुम कितने खुदगर्ज़ हो। तुम बस इसलिए दिखावा कर रहे हो ताकि बाकी लोग तुम्हारी इज़्ज़त करें। अगर तुम्हें यही चाहिए, तो तुम भूल जाओ।" फिर मैंने हर चीज़ का इंतज़ाम ऐसे किया कि वे सभा की मेज़बानी न कर पाएं। उस दौरान, मैं जब भी भाई चेन के बर्ताव के बारे में सोचती, तो मुझे उनसे नफ़रत होने लगती, ख़ासतौर पर इसलिए, क्योंकि मैंने एक-दो बार उनके अहंकारी बर्ताव के बारे में उनसे बात की थी, लेकिन वे फिर भी नहीं बदले। मुझे लगता था कि उनका अहंकार हर हद पार कर चुका है। फिर मैंने अपने मन में बिठा लिया कि वे बदल नहीं सकते और उन जैसा अहंकारी इंसान किसी भी काम के लिए सही नहीं है। मैंने सोचा कि उनकी जगह किसी दूसरे को लाना पड़ेगा, बस मुझे यही करना होगा।

सभा ख़त्म होने के बाद, मैंने अपनी स्थिति और बर्ताव के बारे में सोचा, तो मुझे थोड़ा बुरा लगा। मुझे लगा मैं भाई चेन के साथ कुछ ज़्यादा ही निष्ठुर हो रही हूँ, तो मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की, "हे परमेश्वर, मैं जानती हूँ मेरी स्थिति गलत है, लेकिन मुझे नहीं मालूम मेरी समस्या क्या है या मुझे सत्य के किन सिद्धांतों में प्रवेश करना चाहिए। कृपया मुझे प्रबुद्ध करो और रास्ता दिखाओ।" अगले दिन धार्मिक कार्यों के दौरान, मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "तुम्हें परमेश्वर के परिवार के लोगों के साथ किस सिद्धांत के अनुसार व्यवहार करना चाहिए? (हर एक भाई-बहन के साथ निष्पक्ष व्यवहार करना चाहिए।) तुम उनके साथ निष्पक्ष व्यवहार कैसे करोगे? हर किसी में छोटे-मोटे दोष और कमियां होती हैं, साथ ही उनमें कुछ विलक्षणताएं भी होती हैं; सभी लोगों में दंभ, कमज़ोरी और ऐसी बातें होती हैं जिनकी उनमें कमी होती है। तुम्हें प्यार से उनकी सहायता करनी चाहिए, सहनशील और धैर्यवान होना चाहिए, तुम्हें बहुत कठोर नहीं बनना चाहिए या हर छोटी सी बात का बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहिए। ऐसे लोगों के साथ, जिनकी उम्र कम है या जिन लोगों ने ज़्यादा समय से परमेश्वर पर विश्वास नहीं किया है, या जिन लोगों ने हाल ही में अपना कर्तव्य निभाना शुरू किया है, उन लोगों के कुछ ख़ास अनुरोध हैं, अगर तुम इन चीज़ों पर कब्ज़ा करके इन्हें उनके विरुद्ध इस्तेमाल करो, तो फिर तुम कठोर हो रहे हो। तुम उन झूठे अगुवाओं और मसीह विरोधियों द्वारा किये गये बुरे कर्मों को अनदेखा कर देते हो, और फिर भी अपने भाई-बहनों में छोटी-मोटी कमियां देखने पर उनकी मदद करने से इनकार कर देते हो, इसके बजाय उन बातों का बखेड़ा खड़ा करने की कोशिश करते हो और पीठ पीछे उनकी आलोचना करते हो, जिसके कारण और भी लोग उनका विरोध करने लगते हैं, उनका बहिष्कार करके निष्कासित कर देते हैं। यह किस तरह का व्यवहार है? यह सिर्फ़ अपनी निजी प्राथमिकताओं के आधार पर काम करना, और लोगों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करने में सक्षम नहीं होना है; यह एक भ्रष्ट शैतानी स्वभाव को दर्शाता है! यह एक उल्लंघन है! जब लोग कोई काम करते हैं, तो परमेश्वर उन्हें देख रहा होता है; तुम जो भी करते हो और जैसा भी सोचते हो, वह सब देखता है!"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अपने आसपास के लोगों, विषयों और चीज़ों से सीखना ही चाहिए')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अपनी स्थिति दिखा दी और मुझे शर्म आने लगी। मुझे समझ आया कि मैं अपने भ्रष्ट स्वभाव की नज़र से भाई चेन को देख रही थी। मैं उस समय के बारे में सोचने लगी जब मैं उनसे पहली बार मिली थी। मुझे याद आया कि उनकी बातों और कामों में उनका अहंकार अक्सर नज़र आता था, मुझे लगता था कि वे कमउम्र और गुस्ताख़ हैं, और अपने-आपको जानते नहीं हैं। जब भी उनकी बात होती, तो मुझे सिर्फ़ उनकी गलतियों का ख़्याल आता। मैं उनकी भ्रष्टता की अभिव्यक्तियों को पकड़कर बैठ गई, यह फ़ैसला कर लिया कि वे हद से ज़्यादा अहंकारी हैं, और उनके जैसे लोग कभी भी बदल नहीं सकते। मैं कभी भी उनके साथ निष्पक्षता से बर्ताव नहीं कर पाई। उनकी व्यक्त की गई हर राय का मैं विरोध करती और उनसे मुँह मोड़ लेती। मैंने दूसरों के सामने उनकी आलोचना की, उन्हें नीचा दिखाया, उनके बारे में अपने पूर्वाग्रहों को फैलाया, और कोशिश की कि मेरे साथ बाकी लोग भी उन्हें बाहर करें, उनका बहिष्कार करें। मैं उन्हें उनके काम से भी हटा देना चाहती थी। क्या मैं अगुआ के अपने पद का इस्तेमाल उन्हें दबाने और नीचा दिखाने के लिए नहीं कर रही थी? मैं अपनी राय और सोच को सच मानने लगी, उन्हें दूसरों के बारे में राय बनाने का मानदंड मानने लगी, मानो मुझे एक ही झलक में हर इंसान के बारे में सब कुछ पता चल जाता है, उनका पूरा सार पता चल जाता है। मैं बहुत अहंकारी और दंभी थी। शैतान ने मुझे गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था, मैं बिना सत्य के सिद्धांतों के जी रही थी, ज़्यादातर मेरी राय बेतुकी होती थी, लेकिन फिर भी मैं मनमाने तरीके से लोगों की आलोचना करती थी, उनकी निंदा करती थी। मुझमें बिल्कुल भी समझ नहीं थी! मुझमेंपरमेश्वर के प्रति बिल्कुल भी श्रद्धा नहीं थी। मैं जैसे चाहे वैसे भाई-बहनों के साथ बर्ताव करती थी और एक शैतानी प्रकृति के साथ जी रही थी। यह परमेश्वर के लिए नफ़रत के लायक और दूसरों के लिए घिनौनी चीज़ थी। यह सब सोचकर मैं मन-ही-मन ख़ुद को कसूरवार मानने लगी।

इसके बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों में लोगों के साथ निष्पक्ष बर्ताव करने के सिद्धांतों की तलाश की। मुझे परमेश्वर के वचनों के दो अंश मिले। "तुम्हें दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करना चाहिए, यह परमेश्वर के वचनों में साफ़ तौर पर दिखाया और बताया गया है। परमेश्वर मनुष्यों के साथ जिस रवैये से व्यवहार करता है, वही रवैया लोगों को एक-दूसरे के साथ अपने व्यवहार में अपनाना चाहिए। परमेश्वर हर एक व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करता है? कुछ लोग अपरिपक्व अवस्था वाले या कम उम्र के होते हैं, या उन्होंने सिर्फ़ कुछ समय के लिए परमेश्वर में विश्वास किया होता है। परमेश्वरउन्हें इस ढंग से देख सकता है कि उनका प्रकृति-सार न तो बुरा है और न ही दुर्भावनापूर्ण है; बात बस इतनी है कि वे लोग कुछ हद तक अज्ञानी होते हैं या उनमें क्षमता की कमी होती है, या वे लोग समाज के द्वारा बहुत अधिक संदूषित किए गए हैं। उन लोगों ने सत्य की वास्तविकता में प्रवेश नहीं किया है, इसी वजह से उनके लिए कुछ मूर्खतापूर्ण चीज़ें करने या कुछ नादानी वाले काम करने से खुद को रोक पाना मुश्किल है। हालांकि, परमेश्वर के परिप्रेक्ष्य से, ऐसी बातें महत्वपूर्ण नहीं हैं; वह सिर्फ़ लोगों के दिलों को देखता है। अगर वे सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए कृतसंकल्प हैं, तो वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, और यही उनका उद्देश्य है, फिर परमेश्वर उन्हें देख रहा है, उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, परमेश्वर उन्हें वह समय और अवसर दे रहा है जो उन्हें प्रवेश करने की अनुमति देता है। ऐसा नहीं है कि परमेश्वर उन्हें एक ही झटके में मार गिराता है, न ही ऐसा है कि किसी समय उन्होंने जो अपराध किया था, वह उसे पकड़ कर बैठ जाता है और उसे छोड़ता नहीं है; परमेश्वर ने कभी भी लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया है। इसे देखते हुए, अगर लोग एक दूसरे के साथ इस तरह का व्यवहार करते हैं, तो क्या यह उनके भ्रष्ट स्वभाव को नहीं दर्शाता है? यह निश्चित तौर पर उनका भ्रष्ट स्वभाव है। तुम्हें यह देखना होगा कि परमेश्वर अज्ञानी और मूर्ख लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है, वह अपरिपक्व अवस्था वाले लोगों के साथ कैसे पेश आता है, वह मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव के सामान्य प्रकटीकरण से कैसे पेश आता है, और वह दुर्भावनापूर्ण लोगों के साथ किस तरह का व्यवहार करता है। परमेश्वर के पास अलग-अलग तरह के लोगों के साथ व्यवहार करने के कई तरीके हैं, और उसके पास विभिन्न लोगों की बहुत सी परिस्थितियों को प्रबंधित करने के भी कई तरीके हैं। तुम्हें इन सत्यों को समझना होगा। एक बार जब तुम इन सत्यों को समझ जाओगे, तब तुम उन्हें अनुभव करने का तरीका जान जाओगे"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'सत्य प्राप्त करने के लिए तुम्हें अपने आसपास के लोगों, विषयों और चीज़ों से सीखना ही चाहिए')। "हो सकता है कि तुम किसी के व्यक्तित्व के साथ तालमेल नहीं बिठा पाओ और तुम उसे नापसंद भी कर सकते हो, लेकिन जब तुम उसके साथ मिलकर काम करते हो, तो तुम निष्पक्ष रहते हो और अपना कर्तव्य निभाने में अपनी भड़ास नहीं निकालते, अपने कर्तव्य का त्याग नहीं करते या परमेश्वर के परिवार के हितों पर अपनी चिढ़ नहीं दिखाते। तुम सिद्धांत के अनुसार चीजें कर सकते हो; क्योंकि, तुम परमेश्वर के प्रति बुनियादी श्रद्धा रखते हो। अगर तुम्हारे पास इससे थोड़ा अधिक है, तो जब तुम देखते हो कि किसी व्यक्ति में कोई दोष या कमज़ोरी है—भले ही उसने तुम्हें नाराज़ किया हो या तुम्हारे हितों को नुकसान पहुँचाया हो—फिर भी तुम्हारे भीतर उसकी मदद करने की इच्छा होती है। ऐसा करना और भी बेहतर होगा; इसका अर्थ यह होगा कि तुम एक ऐसे व्यक्ति हो जिसमें इंसानियत, सत्य की वास्तविकता और परमेश्वर के प्रति श्रद्धा है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')

लोगों के साथ अच्छा बर्ताव करने के सिद्धांतों और तरीकों के साथ-साथ लोगों के प्रति अपने रवैये के बारे में भी परमेश्वर के वचन बिल्कुल स्पष्ट हैं। मसीह-विरोधियों और बुरे लोगों के प्रति उसका रवैया नफ़रत, अभिशाप और सज़ा का है। जहाँ तक उन लोगों का सवाल है जिनका आध्यात्मिक कद छोटा है, काबिलियत कम है, जिनमें कई भ्रष्ट स्वभाव और खामियां हैं, जब तक वे सचमुच परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, सत्य को खोजने की इच्छा रखते हैं, सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, तब तक उनके प्रति परमेश्वर का रवैया स्नेह, दया और उद्धार का रहता है। हम देख सकते हैं कि हर इंसान के प्रति परमेश्वर के रवैये की बुनियाद उसके सिद्धांत हैं, और वह चाहता है कि हम भी दूसरों के साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुसार बर्ताव करें। जैसेकि, जो लोग सच में परमेश्वर में विश्वास रखते हैं, उनकी तरफ़ हमें सहनशील और क्षमाशील होना चाहिए। हमें उनकी प्रेम से मदद करनी चाहिए, उन्हें पश्चाताप करने और बदलने का मौक़ा देना चाहिए। हम दूसरों को सिर्फ़ इसलिए नीचा नहीं दिखा सकते क्योंकि वे किसी तरह की भ्रष्टता दिखाते हैं। परमेश्वर की यह इच्छा नहीं है। अब भाई चेन को ही लीजिए—वे काबिल थे और अपने काम में ज़िम्मेदार थे। वे सत्य की खोज में मेहनत करने के लिए तैयार भी थे। बात सिर्फ यह थी कि वे नए विश्वासी थे, उनका अनुभव उथला था, और वे दूसरों से थोड़े ज्यादा अहंकारी थे, लेकिन मुझे सत्य के सिद्धांतों के मुताबिक उनके साथ निष्पक्षता से बर्ताव करना चाहिए था और उनकी मदद करने के लिए सत्य पर उनके साथ प्रेम से सहभागिता करनी चाहिए थी। लेकिन, मैं उनकी मदद तो नहीं ही कर रही थी, उनकी खूबियों और अच्छे गुणों को भी देखने से इनकार कर रही थी। यही नहीं, मैं उनकी आलोचना करते हुए उन्हें नज़रअंदाज़ कर रही थी, उनकी कमियां देखने के बाद चाहती थी कि वे चले जाएं। मेरी प्रकृति कितनी दुष्ट थी! मैं सोचने लगी कि अगुआ की भूमिका में मैं कैसी हूँ। मैं हमेशा ख़ुद को दूसरों से बेहतर मानती हूँ। अपनी बात मनवाना चाहती हूँ। हर चीज़ अपनी मर्ज़ी से करना चाहती हूँ और मैं दूसरों की राय नहीं सुनती हूँ। नतीजतन, मैं कुछ ऐसी चीज़ें कर रही थी जो कलीसिया के काम में रुकावट पैदा करती थीं। फिर भी, परमेश्वर ने मुझे नहीं हटाया, बल्कि अपने वचनों की मदद से मेरा न्याय किया, मुझे अनुशासित किया और मेरा निपटान किया, ताकि मैं ख़ुद पर विचार कर सकूँ। ऐसा करके उसने मुझे पश्चाताप करने और बदलने में मदद की। मुझे समझ आया कि परमेश्वर कभी भी हमें इसलिए नहीं छोड़ या हटा देता है क्योंकि हम अपनी भ्रष्टता दिखाते हैं, बल्कि वह हमें बचाने के लिए सब कुछ करता है। परमेश्वर का दिल कितना अच्छा है! फिर, जब मैंने अपने बर्ताव पर विचार किया और जिस तरह से मैं भाई चेन से पेश आ रही थी, उस बारे में सोचा, तो मुझे इतनी शर्म आई कि मैं ज़मीन में धंस जाना चाहती थी।

फिर, मैंने परमेश्वर के ये वचन पढ़े : "कोई व्यक्ति अच्छा है या बुरा, और उसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए, इसके लिए लोगों के पास व्यवहार के अपने सिद्धांत होने चाहिए; हालाँकि, उस व्यक्ति का परिणाम क्या होगा—वह परमेश्वर द्वारा दंडित किया जाएगा या फ़िर उसे न्याय और ताड़ना का सामना करना होगा—यह सब देखना परमेश्वर का कार्य है। इसमें इंसान को टांग नहीं अड़ानी चाहिए; परमेश्वर तुम्हें अपनी ओर से पहल करने की अनुमति नहीं देगा। उस व्यक्ति के साथ कैसा व्यवहार करना है यह देखना परमेश्वर का कार्य है। अगर परमेश्वर ने यह फ़ैसला नहीं किया है कि इस तरह के लोगों का परिणाम कैसा होगा, उन्हें निकाला नहीं है और उन्हें दंडित नहीं किया है और ऐसे लोगों को बचाया जा रहा है, तब तुमको धैर्य रखकर, प्यार से उनकी मदद करनी चाहिए; तुम्हें ऐसे लोगों के परिणाम निर्धारित करने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, न ही उन पर नकेल कसने या दंडित करने के लिए मानवीय साधनों का उपयोग करना चाहिए। तुम या तो ऐसे लोगों के साथ निपट सकते हो और कांट-छांट कर सकते हो या फ़िर दिल खोलकर तुम इनके साथ तहेदिल से सहभागिता करके इनकी मदद कर सकते हो। लेकिन अगर तुम इन लोगों को दंडित करने, उनका बहिष्कार करने और उन्हें दोषी ठहराने पर विचार करते हो, तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे। क्या ऐसा करना सत्य के अनुरूप होगा? ऐसे ख्याल अत्यधिक आवेशपूर्ण होने के परिणामस्वरूप आएंगे; ऐसे विचार शैतान से आते हैं और मनुष्य के आक्रोश के साथ ही मानवीय ईर्ष्या और घृणा से उत्पन्न होते हैं। ऐसा आचरण सत्य के अनुरूप नहीं है। यह कुछ ऐसा है जिसके कारण तुम्हें दंड मिल सकता है, यह परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप बिल्कुल भी नहीं है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'अपनी आस्था में सही पथ पर होने के लिए आवश्यक पाँच अवस्थाएँ')। परमेश्वर के वचनों ने मुझे सिखाया कि दूसरों के साथ बर्ताव में मुझे सिद्धांतों पर चलना चाहिए। मैं सिर्फ अपनी धारणाओं और कल्पनाओं की बुनियाद पर दूसरों को खास श्रेणी में नहीं रख सकती या उनके उल्लंघनों पर ध्यान देकर उन्हें अपराधी नहीं ठहरा सकती। इसके बजाय, मुझे उनकी प्रकृति और सार की बुनियाद पर बर्ताव करना चाहिए, उनकी अलग-अलग स्थितियों और खामियों के मुताबिक उन्हें व्यावहारिक मदद देनी चाहिए। दूसरे लोगों की स्थिति के आधार पर, सत्य की वास्तविकता वाले इंसान को पता होता है कि उसे कब सब्र से काम लेना चाहिए और कब मदद करनी चाहिए, कब कठोरता से काँट-छाँट और निपटान करना चाहिए, और कब उन्हें फटकारना चाहिए। ऐसे लोग हमेशा सही तरीके से और सिद्धांतों के आधार पर काम करते हैं। वे अपनी मनमर्ज़ी से किसी को रोकते नहीं हैं, या अगर कोई भाई-बहन भ्रष्टता दिखाता है, तो उसे अपना दुश्मन नहीं मानते हैं। लेकिन मैं भाई चेन के साथ कैसा बर्ताव कर रही थी? जब मैंने उन्हें अपना अहंकारी स्वभाव दिखाते हुए देखा, तो मैंने बस इस बारे में थोड़ा-सा इशारा कर दिया और जब उसका असर नहीं हुआ, तो मैंने उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया, उनकी आलोचना की, उन्हें अपराधी ठहरा दिया, और पीठ पीछे उनकी बुराई की। मुझमें न तो सहनशीलता थी और न ही सब्र। इसे स्नेही दिल से मदद करना नहीं कह सकते। फिर इस इच्छा के साथ कि मैं सत्य के सिद्धांतों का अभ्यास कर पाऊँ और एक स्नेही दिल से भाई चेन की मदद कर पाऊँ, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चाताप किया।

फिर मैं भाई चेन के पास गई और उनके साथ परमेश्वर के वचनों के कुछ अंशों पर सहभागिता की और उन्हें उनकी खामियां बताईं। उन्हें अपना अहंकारी स्वभाव समझ आने लगा और वे यह भी समझ गए कि इसे ठीक न करने के क्या ख़तरे हैं। उन्होंने कहा कि मेरी सहभागिता और चेतावनी बहुत मददगार थी, अब वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को ठीक करने के लिए आत्म-चिंतन करना और सत्य की खोज करना चाहेंगे। जब उन्होंने ऐसा कहा, तो मेरा दिल भर आया, लेकिन मुझे अपने बारे में सोचकर बुरा भी लगा। मैं सोच रही थी कि वे नहीं बदल सकते, लेकिन ऐसा नहीं था। मैं ही थी जो अपना काम ठीक से नहीं कर रही थी। मैंने वाकई स्नेही दिल से उनकी मदद करने की कोशिश नहीं की। मैं बहुत अंहकारी थी और मुझमें बिल्कुल भी इंसानियत नहीं थी!

बाद में, एक सभा के दौरान, मैंने एक उच्च-भ्राता का धर्मोपदेश सुना : "सारी भ्रष्ट मानवजाति का स्वभाव अहंकारी है। यहाँ तक कि जो सत्य से प्रेम करते हैं और जो पूर्ण होने की कोशिश में हैं, उन सबका स्वभाव भी अंहकारी और पाखंडी है, लेकिन इससे उनके उद्धार हासिल करने और पूर्ण किये जाने की क्षमता पर असर नहीं पड़ता है। अगर इंसान सत्य को और काँट-छाँट और निपटान को स्वीकार कर सकता है, और किसी भी तरह के हालात में सत्य के सामने झुक सकता है, तो वो उद्धार हासिल करने और पूर्ण किये जाने के बिल्कुल काबिल है। सच तो यह है कि योग्य और दृढ़ संकल्प वाले इंसानों में से कोई भी ऐसा नहीं जो अहंकारी नहीं है। यह सच है। परमेश्वर के चुने गए लोगों को दूसरों के साथ ठीक से पेश आना चाहिए। सिर्फ़ इसलिए कि कोई इंसान बहुत ज़्यादा अहंकारी और पाखंडी है, उसे ये मानकर रोका नहीं जाना चाहिए कि वो अच्छा इंसान नहीं और उसे बचाया या पूर्ण नहीं किया जा सकता है। ... इस मुद्दे पर, हमें परमेश्वर की इच्छा को समझना चाहिए। ऐसा कोई भी इंसान नहीं जो काबिल हो, दृढ़ संकल्प वाला हो, और जो बिल्कुल भी अहंकारी या पाखंडी न हो। अगर कोई ऐसा है, तो ज़रूर वो एक स्वांग रच रहा है या झूठा दिखावा कर रहा है। हमें जानना चाहिये कि पूरी भ्रष्ट मानवजाति की प्रकृति अंहकारी और दंभी है। इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता" (ऊपर से संगति)। इससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि अहंकारी स्वभाव वाले लोगों के साथ कैसे पेश आना चाहिए। ऐसा नहीं है कि वे बदल नहीं सकते। बड़ी बात यह है कि क्या वे सत्य की खोज कर सकते हैं, उसे स्वीकार कर सकते हैं। अगर वे सत्य को स्वीकार कर सकते हैं, और परमेश्वर के न्याय, ताड़ना, काँट-छाँट और निपटान को स्वीकार कर सकते हैं, तो ऐसी कोई वजह नहीं है कि वे परमेश्वर द्वारा बदले नहीं जा सकते और पूर्ण नहीं किए जा सकते। भाई चेन को विश्वासी बने ज़्यादा समय नहीं हुआ था, इसलिए उन्होंने न्याय और ताड़ना का अधिक अनुभव नहीं किया था। उनका ज़्यादा अहंकारी होना स्वाभाविक था। लेकिन जब मैंने उनका यह स्वभाव सामने आते देखा, तो मैं उनकी बुराई करने लगी, उन्हें बाहर कर दिया, और चाहने लगी कि उन्हें उनके काम से हटा दिया जाए। मैं तो उनसे भी ज़्यादा अहंकारी थी! मैं सोचती थी कि अगर मैं सत्य की खोज करती रहूँगी, तो मेरा अहंकारी स्वभाव बदल जाएगा, तो मैंने ऐसा फ़ैसला क्यों कर लिया कि भाई चेन नहीं बदल सकते? मैं अपने आपसे ज़्यादा उम्मीद नहीं करती थी, तो मैं भाई चेन से इतनी उम्मीद क्यों कर रही थी? किसी के साथ ऐसा बर्ताव बिल्कुल भी सही नहीं है। सच तो यह है कि जिन लोगों में अच्छे गुण, खूबियाँ और काबिलियत होती है, वे काफ़ी अहंकारी होते हैं। लेकिन चूंकि वे काबिल होते हैं, वे सत्य की समझ जल्दी हासिल कर पाते हैं और अपने काम में अच्छे नतीजे हासिल कर पाते हैं। जब इस तरह के लोग सत्य को समझ कर सिद्धांत के अनुसार काम करते हैं, तो इससे परमेश्वर के घर को काफ़ी फ़ायदा होता है। भाई चेन काबिल थे, तो मुझे स्नेह के साथ उनकी ज़्यादा मदद करनी चाहिए, और उनके साथ ज़्यादा सहभागिता करनी चाहिए। सिर्फ़ यही चीज़ परमेश्वर की इच्छा के मुताबिक होगी। इस अनुभव से मैं इस बात का मोल समझ पाई कि सत्य के बिना, अपने शैतानी भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार लोगों के साथ बर्ताव करने से भाई-बहनों को सिर्फ़ नुकसान हो सकता है। इससे उनके जीवन प्रवेश में और कलीसिया के काम में देरी होती है। यह एक अपराध है, दुष्टता है। मैंने यह समझ लिया कि सत्य के सिद्धांत के मुताबिक लोगों के साथ बर्ताव करना कितना ज़रूरी है। परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन से ही मुझे यह थोड़ी सी समझ हासिल हुई है।

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