अध्याय 4

सभी लोगों को, उनके नकारात्मकता से सकारात्मकता में आने के बाद, उनका ध्यान आकृष्ट होने और उन्हें आवेश में बह जाने से रोकने के लिए, परमेश्वर के कथन के अंतिम अध्याय में, एक बार जब परमेश्वर अपने लोगों को अपनी उच्चतम अपेक्षाएँ बता देता है—जब वह अपनी प्रबंधन योजना के इस चरण में अपनी इच्छा के बारे में लोगों को बता देता है, तो वह उन्हें अपने वचनों पर विचार करने और अंत में परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए, उन्हें अपना मन बनाने में उनकी सहायता करने का अवसर प्रदान करता है। जब लोगों की स्थिति सकारात्मक होती है, तो परमेश्वर तुरंत लोगों से इस मुद्दे के दूसरे पक्ष के बारे में प्रश्न पूछना शुरू कर देता है। वह ढेरों प्रश्न पूछता है जिन्हें समझना लोगों के लिए मुश्किल होता है : “क्या मेरे लिए तुम्हारे प्रेम में अशुद्धता थी? क्या मेरे प्रति तुम्हारी निष्ठा शुद्ध और सम्पूर्ण थी? क्या मेरे बारे में तुम लोगों का ज्ञान सच्चा था? तुम लोगों के हृदय में मेरा स्थान कितना था?” आदि। इस परिच्छेद के पूर्वार्द्ध में, दो फटकारों के अपवाद के अलावा, शेष सभी प्रश्न हैं। विशेष रूप से एक प्रश्न, “क्या मेरे कथनों ने तुम लोगों के मर्मस्थल पर चोट की है?” बहुत ही उपयुक्त प्रश्न है। यह दरसल लोगों के हृदय की गहराई में सबसे गुप्त चीजों पर चोट करता है, जिसके कारण अनजाने में वे स्वयं से पूछते हैं : “क्या मैं सचमुच परमेश्वर के लिए अपने प्रेम में वफादार हूँ?” अपने हृदय में, लोग अनजाने में सेवा के दौरान अपने पिछले अनुभवों को याद करते हैं : वे आत्म-क्षमा, आत्म-तुष्टि, दंभ, आत्म-संतुष्टि, आत्म-संतोष और गर्व से बर्बाद हो गए थे। वे जाल में पकड़ी गई एक बड़ी मछली की तरह थे—और जाल में फँसने के बाद, उनके लिए उससे निकलना आसान नहीं था। इसके अतिरिक्त, वे प्रायः अनियंत्रित हो गए थे, परमेश्वर की सामान्य मानवता को धोखा देते थे, और जो कुछ भी करते थे, उसमें अपने आपको सबसे पहले रखते थे। “सेवाकर्मी” कहलाए जाने से पहले, वे ऊर्जावान नवजात बाघ शावक के समान थे। हालाँकि कुछ हद तक वे जीवन पर ध्यान देते थे, लेकिन कभी-कभी वे लापरवाही से काम किया करते थे; गुलामों की तरह, परमेश्वर के प्रति बेपरवाह हो गए थे। सेवाकर्मियों के रूप में उजागर होने के दौरान, वे नकारात्मक हो गए थे, पिछड़ गए थे, दुःख से भर गए थे, परमेश्वर के बारे में शिकायत करते थे, निराशा में उनके सिर लटक गए थे, आदि। उनकी स्वयं की अद्भुत, मर्मस्पर्शी कहानियों का प्रत्येक चरण उनके मन में गूँजता रहता है। उनके लिए सोना भी मुश्किल हो जाता है, वे सारा दिन भाव-शून्यता में बिताते हैं। लगता है, अधोलोक में पतित होने के लिए वे परमेश्वर द्वारा दूसरी बार हटा दिए गए हैं, जहाँ से निकलना संभव नहीं है। यद्यपि परमेश्वर ने पहले परिच्छेद में कुछ कठिन प्रश्न खड़े करने से अधिक कुछ नहीं किया, लेकिन ध्यानपूर्वक पढ़े जाएँ तो, वे दर्शाते हैं कि परमेश्वर का उद्देश्य केवल इन प्रश्नों को पूछने से कहीं अधिक बड़ा है; उनमें बहुत गहरा अर्थ छिपा है, जिसे अधिक विस्तार से समझाया जाना चाहिए।

परमेश्वर ने एक बार ऐसा क्यों कहा कि आज आख़िरकार आज है, और चूँकि कल गुज़र चुका है, इसलिए उसे याद करने का कोई मतलब नहीं है—फिर भी यहाँ वह पहले वाक्य में लोगों से प्रश्न पूछता है, और उन्हें अतीत के बारे में विचार करने के लिए कहता है। इस पर विचार करो : परमेश्वर अतीत को याद करने से मना क्यों करता है, लेकिन यह भी कहता है कि लोग अतीत पर विचार भी करें? कहीं परमेश्वर के वचनों में कोई गलती तो नहीं है? कहीं इन वचनों का स्रोत गलत तो नहीं है? स्वाभाविक रूप से, जो लोग परमेश्वर के वचनों पर ध्यान नहीं देते, वे इस तरह के गहन प्रश्न नहीं पूछेंगे। लेकिन फिलहाल, इस बारे में बात करने की कोई आवश्यकता नहीं है। सबसे पहले, मैं ऊपर दिए “क्यों” को समझाता हूँ। निस्संदेह, हर कोई परमेश्वर की कही इस बात से अवगत है कि वह खोखले वचन नहीं बोलता। यदि ये वचन परमेश्वर ने बोले हैं, तो उनका एक उद्देश्य और मायने हैं—यह प्रश्न के मर्म को स्पर्श करता है। लोगों की सबसे बड़ी असफलता अपने दुष्ट तौर-तरीके न बदल पाना और अपनी पुरानी प्रकृति को जकड़े रहना है। लोगों को अपने आप को पूरी तरह से और वास्तविक रूप से जानने देने के लिए, परमेश्वर पहले अतीत पर फिर से विचार करने में उनकी अगुआई करता है, ताकि वे अधिक गहराई से आत्म-मंथन कर सकें, और इस तरह ये जान जाएँ कि परमेश्वर का एक भी वचन खोखला नहीं है, परमेश्वर के सभी वचन भिन्न-भिन्न लोगों में भिन्न-भिन्न स्तरों तक समाए हुए हैं। अतीत में, परमेश्वर जिस तरह से लोगों से निपटता था, उससे उन्हें परमेश्वर के बारे में थोड़ा-बहुत ज्ञान प्रदान हो जाता था और परमेश्वर के प्रति उनकी ईमानदारी थोड़ी और मर्मस्पर्शी हो जाती थी। “परमेश्वर” शब्द लोगों और उनके हृदय में केवल 0.1 प्रतिशत तक ही है। इतना ही प्राप्त करना यह दर्शाता है कि परमेश्वर ने बहुत बड़ी मात्रा में उद्धार कार्यान्वित किया है। यह कहना उचित होगा कि लोगों के इस समूह—एक ऐसा समूह है जिसका बड़े लाल अजगर द्वारा शोषण किया जाता है और जो शैतान के कब्जे में है—में परमेश्वर की इतनी ही उपलब्धि ऐसी है जिससे वे अपना मन चाहा करने का साहस नहीं करते। क्योंकि जो लोग शैतान के कब्जे में चले गए हैं उनके सौ प्रतिशत हृदय को अधिकार में करना परमेश्वर के लिए असंभव है। अगले चरण के दौरान परमेश्वर के बारे में लोगों के ज्ञान को बढ़ाने के लिए, परमेश्वर अतीत के सेवाकर्मियों की स्थितियों की तुलना आज के परमेश्वर के लोगों के साथ करता है, और इस प्रकार एक स्पष्ट अंतर बनाता है जिससे लोग और भी ज़्यादा शर्मिंदा होते हैं। जैसा परमेश्वर ने कहा, “अपनी लज्जा को छिपाने के लिए कोई स्थान नहीं है।”

तो, मैंने क्यों कहा कि परमेश्वर केवल प्रश्नों के वास्ते ही प्रश्न नहीं पूछ रहा है? आरंभ से अंत तक का ध्यानपूर्वक पठन दर्शाता है कि यद्यपि परमेश्वर द्वारा खड़े किए गए प्रश्नों को पूरी तरह से नहीं समझाया गया है, लेकिन ये सभी प्रश्न लोगों की परमेश्वर के प्रति वफादारी और परमेश्वर के बारे में उनके ज्ञान की सीमा का संकेत करते हैं; दूसरे शब्दों में, वे लोगों की वास्तविक स्थितियों का संकेत करते हैं, जो दयनीय हैं, और जिनके बारे में खुल कर बोलना उनके लिए मुश्किल है। इससे देखा जा सकता है कि लोगों का आध्यात्मिक कद बहुत तुच्छ है, परमेश्वर के बारे में उनका ज्ञान बहुत सतही है, और उसके प्रति उनकी निष्ठा भी बहुत दूषित और अशुद्ध है। जैसा कि परमेश्वर ने कहा, लगभग सभी लोग मुसीबत में हैं और केवल संख्या पूरी करने के लिए ही हैं। जब परमेश्वर कहता है, “क्या तुम्हें सचमुच लगता है कि तुम मेरे जन होने के योग्य नहीं हो?” इन वचनों का सही अर्थ यह है कि कोई भी परमेश्वर-जन होने के योग्य नहीं है। किन्तु एक अधिक बड़ा प्रभाव प्राप्त करने के लिए, परमेश्वर प्रश्न पूछने की विधि का उपयोग करता है। यह पद्धति अतीत के उन वचनों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रभावी है, जिन्होंने लोगों पर उनके दिलों को भेदने की स्थिति तक बेरहमी से हमला किया, उन पर हथियार से प्रहार किया और मार डाला। मान लो परमेश्वर ने प्रत्यक्ष रूप से कुछ अरुचिकर और नीरस कहा होता, जैसे “तुम लोग मेरे प्रति वफादार नहीं हो, और तुम लोगों की निष्ठा दूषित है, मैं तुम लोगों के हृदयों में संपूर्ण स्थान नहीं रखता...। मैं तुम लोगों के छिपने के लिए कोई स्थान नहीं छोड़ूँगा, क्योंकि तुम लोगों में से कोई भी मेरा जन होने लायक नहीं है।” तुम लोग दोनों की तुलना कर सकते हो, हालाँकि उनकी सामग्री एक जैसी है, किन्तु प्रत्येक का लहजा भिन्न है। प्रश्न का उपयोग करना कहीं अधिक प्रभावी है। इसलिए, बुद्धिमान परमेश्वर पहले वाले लहजे को काम में लाता है, जो उसके बोलने के कला-कौशल को दर्शाता है। इंसान ऐसा नहीं कर सकता, इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि परमेश्वर ने कहा, “लोग तो बस मेरे द्वारा उपयोग किए जाने वाले बर्तन-मात्र हैं। उनके बीच एकमात्र अंतर केवल यह है कि कुछ अधम हैं, और कुछ अनमोल हैं।”

जब लोग पढ़ते रहते हैं तो, परमेश्वर के वचन बहुत अधिक संख्या में और तेजी से आते हैं, लोगों को साँस लेने का मौका भी मुश्किल से ही देते हैं, क्योंकि परमेश्वर किसी भी हाल में मनुष्य पर दया नहीं करता। जब लोग बेहद पछताते हैं, तो परमेश्वर एक बार उन्हें पुनः चेतावनी देता है : “यदि तुम उपरोक्त प्रश्नों के प्रति पूर्णतः अनजान हो, तो यह दिखाता है कि तुम मुसीबत में हो, तुम केवल संख्या बढ़ाने के लिए हो, मेरे द्वारा पूर्वनियत समय पर, तुम्हें निश्चित रूप से बाहर निकाल दिया जाएगा और दूसरी बार अथाह कुंड में डाल दिया जाएगा। ये मेरे चेतावनी भरे वचन हैं, और जो कोई भी इन्हें हल्के में लेगा, उस पर मेरे न्याय की चोट पड़ेगी, और, नियत समय पर उस पर आपदा टूट पड़ेगी।” ऐसे वचनों को पढ़कर, लोग उस समय के बारे में सोचने पर मजबूर हो जाते हैं जब उन्हें अथाह गड्ढे में डाल दिया गया था : परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं के द्वारा नियंत्रित, तबाही से भयभीत उनका अंत उनकी प्रतीक्षा कर रहा था, वे लंबे समय से परेशान, उदास, बेचैन, अपने हृदय की उदासी के बारे में किसी को बता नहीं पा रहे थे—इसके बदले, अपनी देह को शुद्ध करवाना उनके लिए बेहतर स्थिति होती...। यह सोचकर, वे बेहद परेशान हो गए। यह सोचकर कि वे पहले कैसे थे, आज कैसे हैं, और कल कैसे होंगे, उनके हृदय का दुःख बढ़ता जाता है, वे अनजाने में थरथराने लगते हैं, और इस प्रकार वे परमेश्वर की प्रशासनिक आज्ञाओं से और भी अधिक भयभीत हो जाते हैं। जैसे ही उनके दिमाग में आता है कि “परमेश्वर-जन” शब्द भी बोलने का साधन-मात्र हो सकता है, तो उनके दिलों का उत्साह तुरंत परेशानी में बदल जाता है। परमेश्वर उन पर प्रहार करने के लिए उनकी घातक कमजोरी का उपयोग कर रहा है, और इस मुकाम पर, वह अपने कार्य के अगले चरण की शुरुआत कर रहा है, लोगों के जोश को लगातार उत्तेजित कर रहा है, और उनकी समझ को बढ़ा रहा है कि परमेश्वर के कर्म अथाह हैं, परमेश्वर अगम्य है, परमेश्वर पवित्र और शुद्ध है, और वे परमेश्वर-जन होने के योग्य नहीं हैं। परिणामस्वरूप, यह सोचकर कि कहीं वे पिछड़ न जाएँ, वे स्वयं को सुधारने के अपने प्रयासों को दोगुना कर देते हैं।

इसके बाद, लोगों को एक सबक सिखाने के लिए, उन्हें स्वयं का ज्ञान करवाने, परमेश्वर का सम्मान करवाने, और परमेश्वर का भय मनवाने के लिए, परमेश्वर अपनी नई योजना शुरू करता है : “सृष्टि के सृजन से लेकर आज तक, बहुत से लोगों ने मेरे वचनों की अवज्ञा की है और इस तरह उन्हें प्रतिलाभ की मेरी धारा से हटाकर बाहर निकाल दिया गया है; अंततः उनके शरीर नष्ट हो जाते हैं और उनकी आत्माएँ अधोलोक में डाल दी जाती हैं, आज भी वे भयंकर सज़ा भुगत रहे हैं। बहुत से लोगों ने मेरे वचनों का अनुसरण किया है, परंतु वे मेरी प्रबुद्धता और रोशनी के विरोध में चले गए हैं ... और कुछ...।” ये वास्तविक उदाहरण हैं। इन वचनों में, परमेश्वर न केवल परमेश्वर के सभी लोगों को तमाम युगों में परमेश्वर के कर्मों का ज्ञान करवाने के लिए एक वास्तविक चेतावनी देता है, बल्कि आध्यात्मिक जगत में जो कुछ भी हो रहा है, उसके एक हिस्से का अप्रत्यक्ष चित्रण भी प्रदान करता है। इससे लोग यह जान पाते हैं कि परमेश्वर के प्रति उनकी अवज्ञा से कुछ भी अच्छा हासिल नहीं किया जा सकता। वे शर्म का एक चिरस्थायी दाग़ बन जाएँगे, वे शैतान का मूर्त रूप, और शैतान की एक प्रतिलिपि बन जाएँगे। परमेश्वर के हृदय में, अर्थ का यह पहलू कम महत्त्व का है, क्योंकि इन वचनों से लोग पहले ही काँप रहे हैं और उलझन में हैं कि क्या किया जाए। इसका सकारात्मक पक्ष यह है कि लोग डर से काँपने के साथ-साथ, आध्यात्मिक जगत का कुछ विवरण भी प्राप्त करते हैं—लेकिन केवल थोड़ा ही प्राप्त करते हैं, इसलिए आवश्यक है कि मैं थोड़ा स्पष्टीकरण दे दूँ। आध्यात्मिक जगत के द्वार से यह देखा जा सकता है कि यहाँ सभी प्रकार की आत्माएँ हैं। लेकिन कुछ अधोलोक में हैं, कुछ नरक में हैं, कुछ आग की झील में हैं, और कुछ अथाह गड्ढे में हैं। इसमें मैं भी कुछ जोड़ दूँ। सतही तौर पर कहें तो, इन आत्माओं को स्थान के अनुसार विभाजित किया जा सकता है; विशिष्ट रूप से कहें तो, कुछ के साथ प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर की ताड़ना द्वारा निपटा जाता है, और कुछ शैतान की कैद में हैं, जिनका उपयोग परमेश्वर द्वारा किया जाता है। अधिक विशिष्ट रूप से, उनकी परिस्थितियों की गंभीरता के अनुसार उनकी ताड़ना भिन्न होती है। यहाँ मैं थोड़ा और समझा दूँ। जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से परमेश्वर के हाथ से ताड़ना दी जाती है, उनकी पृथ्वी पर कोई आत्मा नहीं होती है, जिसका अर्थ है कि उनके पास पुनर्जन्म लेने का कोई अवसर नहीं होता। जो आत्माएँ शैतान के अधीन हैं—वे दुश्मन जिनके बारे में परमेश्वर कहता है “मेरे शत्रु बन गए हैं”—वे पार्थिव पदार्थों से जुड़ी होती हैं। पृथ्वी पर विभिन्न बुरी आत्माएँ सभी परमेश्वर की शत्रु, शैतान की सेवक हैं, और उनके अस्तित्व का कारण है सेवा देना ताकि वे परमेश्वर के कर्मों के लिए विषमताएँ हो सकें। इस प्रकार, परमेश्वर कहता है, “ये लोग न केवल शैतान के द्वारा बंदी बना लिए गए हैं, बल्कि अनंतकाल के लिए पापी और मेरे शत्रु भी बन गए हैं, और सीधे तौर पर मेरा विरोध करते हैं।” इसके बाद, परमेश्वर बताता है कि इस प्रकार की आत्मा का अंत क्या होता है : “वे मेरे क्रोध की पराकाष्ठा पर मेरे दण्ड के भागी होते हैं।” परमेश्वर उनकी वर्तमान स्थितियाँ भी स्पष्ट करता है : “वे अभी तक भी अंधे बने हुए हैं, आज भी अँधेरी कालकोठरियों में हैं।”

लोगों को परमेश्वर के वचनों की सच्चाई दिखाने के लिए, परमेश्वर एक साक्ष्य के रूप में एक वास्तविक उदाहरण का उपयोग करता है (पौलुस का मामला जिसके बारे में वह बोलता है) ताकि उसकी चेतावनी लोगों पर एक गहरी छाप छोड़े। पौलुस के बारे में जो कुछ कहा जाता है उसे लोगों को एक कहानी के रूप में मानने से रोकने, और उन्हें स्वयं को तमाशाइयों के रूप में सोचने से रोकने के लिए—और, इसके अलावा, उन चीजों के बारे में शेखी बघारने से रोकने के लिए जो हजारों साल पहले हुई थीं जिसे उन्होंने परमेश्वर से जाना था, परमेश्वर पौलुस के जीवन भर के अनुभवों पर ध्यान केंद्रित नहीं करता। बल्कि, परमेश्वर पौलुस के परिणामों और अंत पर और उन कारणों पर ध्यान देता है कि क्यों पौलुस ने परमेश्वर का विरोध किया, और जैसा पौलुस का अंत हुआ वह कैसे हुआ। परमेश्वर इस बात पर ज़ोर देने के लिए ध्यान देता है कि आखिरकार कैसे उसने पौलुस को उसकी मनचाही उम्मीदों से वंचित रखा, और प्रत्यक्ष रूप से आध्यात्मिक क्षेत्र में उसकी स्थिति को सामने लाना : “पौलुस को सीधे परमेश्वर द्वारा ताड़ना दी गयी है।” चूँकि लोग सुन्न हैं और वे परमेश्वर के वचनों के बारे में कुछ भी समझने में अक्षम हैं, इसलिए परमेश्वर एक व्याख्या (कथन का अगला भाग) देता है, और एक अन्य पहलू से संबंधित मुद्दे की बात करना शुरू करता है : “जो कोई भी मेरा विरोध करता है (न केवल मेरे देह रूप का बल्कि उससे भी अधिक अहम, मेरे वचनों और मेरे आत्मा का—कहने का अर्थ है, मेरी दिव्यता का विरोध करता है), वह अपनी देह में मेरा न्याय प्राप्त करता है।” यद्यपि, सतही तौर पर बोलें तो, ये वचन उपरोक्त वचनों से संबंधित प्रतीत नहीं होते, और दोनों के बीच कोई संबंध नज़र नहीं आता, घबराओ नहीं : परमेश्वर का अपना लक्ष्य है; “उपरोक्त उदाहरण साबित करता है कि” के सरल वचन दो असंबंधित प्रतीत होने वाले मुद्दों को जैविक रूप से जोड़ते हैं—यही परमेश्वर के वचनों की निपुणता है। इस प्रकार, लोग पौलुस के वृत्तांत से प्रबुद्ध किए जाते हैं, और इसलिए, पिछले और आगे के पाठ के बीच संबंध के कारण, पौलुस के सबक के माध्यम से वे परमेश्वर को और भी अधिक जानना चाहते हैं, जो कि वास्तव में वह प्रभाव है जिसे परमेश्वर उन वचनों को बोलकर प्राप्त करना चाहता था। इसके बाद, परमेश्वर कुछ वचन ऐसे बोलता है जो जीवन में लोगों के प्रवेश के लिए सहायता और उन्हें प्रबुद्धता प्रदान करते हैं। मुझे इस बारे में बोलने की कोई आवश्यकता नहीं है; तुम्हें महसूस होगा कि इन चीज़ों को समझना आसान है। लेकिन मैं एक बात अवश्य समझा दूँ, जब परमेश्वर कहता है, “जब मैंने सामान्य मानवता में कार्य किया, तो अधिकांश लोग मेरे कोप और प्रताप के विरूद्ध अपना आकलन पहले ही कर चुके थे, और मेरी बुद्धि व स्वभाव की थोड़ी समझ रखते थे। आज, मैं सीधे तौर पर दिव्यता में बोलता और कार्य करता हूँ, और अभी भी कुछ लोग हैं जो अपनी आँखों से मेरे कोप और न्याय को देखेंगे; इसके अतिरिक्त, न्याय के युग के दूसरे भाग का मेरा मुख्य कार्य अपने सभी लोगों को सीधे तौर पर देह में मेरे कर्मों का ज्ञान करवाना, और तुम लोगों को मेरे स्वभाव का अवलोकन करवाना है।” ये कुछ वचन सामान्य मानवता में परमेश्वर के कार्य का समापन करते हैं और आधिकारिक रूप से परमेश्वर के न्याय के युग के कार्य के दूसरे भाग को शुरू करते हैं, जो दिव्यता में किया जाता है, और लोगों के एक हिस्से के अंत की भविष्यवाणी करता है। इस बिंदु पर, यह समझाना उचित है कि जब लोग परमेश्वर-जन बन गए तो परमेश्वर ने उन्हें नहीं बताया कि यह न्याय के युग का दूसरा भाग है। इसके बजाय, वह लोगों को परमेश्वर की इच्छा और इस युग के दौरान हासिल किए जाने वाले लक्ष्यों और पृथ्वी पर परमेश्वर के कार्य के अंतिम चरण के बारे में बताने के बाद, केवल इतना बताता है कि यह न्याय के युग का दूसरा भाग है, कहने की आवश्यकता नहीं कि इसमें भी परमेश्वर की बुद्धि है। लोग जब रोगशैया से उठते हैं, तो उन्हें एकमात्र इस बात चिंता होती है कि वे कहीं मर तो नहीं जाएँगे, अथवा उनकी बीमारी ठीक होगी या नहीं। वे इस बात पर ध्यान नहीं देते कि कहीं वे मोटे तो नहीं हो जाएँगे या उन पर कौन से कपड़े सही लगेंगे। इस प्रकार, जब लोग पूरी तरह मानते हैं कि वे परमेश्वर के लोगों में से एक हैं, तो परमेश्वर अपनी अपेक्षाओं के बारे में चरण्बद्ध तरीके से बताता है, और बताता है कि आज कौन-सा युग है। इसका कारण यह है कि लोगों में स्वस्थ होने के कुछ दिनों बाद ही परमेश्वर के प्रबंधन के कदमों पर ध्यान एकाग्र करने की ऊर्जा होती है, और इसलिए उन्हें बताने का यह सबसे उपयुक्त समय होता है। लोग समझ लेने के बाद ही विश्लेषण करना शुरू करते हैं : चूँकि यह न्याय के युग का दूसरा हिस्सा है, इसलिए परमेश्वर की अपेक्षाएँ अधिक कठोर हो गई हैं, और मैं परमेश्वर के लोगों में से एक बन गया हूँ। इस तरह विश्लेषण करना सही है और इंसान इस प्रकार से विश्लेषण कर सकता है, इसलिए परमेश्वर बोलने की इस पद्धति को काम में लाता है।

एक बार जब लोग थोड़ा समझ जाते हैं, तो परमेश्वर बोलने के लिए एक बार और आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश करता है, और इसलिए वे एक बार पुनः घात में पड़ जाते हैं। प्रश्नों की इस श्रृंखला के दौरान, हर कोई सोच में पड़ जाता है, भ्रमित होता है, नहीं जानता कि परमेश्वर की इच्छा कहाँ निहित है, नहीं जानता कि परमेश्वर के किन प्रश्नों का उत्तर दे, और इसके अलावा, नहीं जानता कि परमेश्वर के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए किस भाषा का प्रयोग करे। समझ में नहीं आता कि हँसे या रोए। लोगों के लिए, ये वचन ऐसे प्रतीत होते हैं मानो उनमें गहन रहस्य समाविष्ट हों—किन्तु तथ्य ठीक विपरीत है। मैं यहाँ तुम्हारे लिए थोड़ा स्पष्टीकरण भी जोड़ देता हूँ। यह तुम्हारे मस्तिष्क को आराम देगा, तुम्हें महसूस होगा कि यह आसान चीज़ है जिसके लिए बहुत विचार की आवश्यकता नहीं है। वास्तव में, यद्यपि कई वचन हैं, लेकिन उनमें परमेश्वर का केवल एक ही उद्देश्य समाविष्ट है : इन प्रश्नों के माध्यम से लोगों की निष्ठा प्राप्त करना। लेकिन इसे प्रत्यक्ष रूप से कहना उचित नहीं है, इसलिए परमेश्वर एक बार पुनः प्रश्नों का उपयोग करता है। हालाँकि, उसका स्वर विशेष रूप से नरम होता है, जो शुरुआत में था उससे बहुत भिन्न। यद्यपि उनसे परमेश्वर के द्वारा प्रश्न किए जा रहे हैं, इस तरह का अंतर लोगों के लिए थोड़ी राहत लाता है। तुम भी प्रत्येक प्रश्न को एक-एक करके पढ़ सकते हो; क्या इन बातों पर पहले प्रायः चर्चा नहीं होती थी? इन कुछ सरल प्रश्नों में, समृद्ध सामग्री है, कुछ में लोगों की मानसिकता का वर्णन है : “क्या तुम लोग पृथ्वी पर ऐसे जीवन का आनंद लेने के इच्छुक हो, जो स्वर्ग में जीवन के सदृश है?” कुछ लोगों की “योद्धा की शपथ” है जो वे परमेश्वर के सामने लेते हैं : “क्या तुम लोग सचमुच अपना जीवन-मरण मेरे अधीन करके एक भेड़ के समान मेरी अगुआई में चलने को राज़ी हो?” और उनमें से कुछ मनुष्य से परमेश्वर की अपेक्षाएँ हैं : “यदि मैं सीधे तौर पर तुम से न बोलता, तो क्या तुम अपने आसपास की सब चीजों को त्याग कर मुझे अपना उपयोग करने दे सकते थे? क्या मुझे इसी वास्तविकता की अपेक्षा नहीं है? ...” उनमें मनुष्य के लिए परमेश्वर के उपदेश और आश्वासन भी शामिल हैं : “फिर भी मैं कहता हूँ कि तुम लोग अब गलतफहमी में न पड़ना, तुम लोग अपने प्रवेश में सक्रिय बनो और मेरे वचनों की गहनतम गहराइयों को ग्रहण करो। ऐसा करना तुम लोगों को मेरे वचनों के मिथ्याबोध और मेरे अर्थ के विषय में अस्पष्ट होने से और इस प्रकार मेरे प्रशासनिक आदेशों के उल्लंघन से बचाएगा।” अंत में, परमेश्वर मनुष्य के लिए अपनी उम्मीदों की बात करता है : “मैं चाहता हूँ कि तुम लोग मेरे वचनों में तुम्हारे लिए मेरे जो इरादे हैं, उन्हें ग्रहण करो। अब केवल अपनी भविष्य की संभावनाओं पर ही विचार न करो, और तुम लोगों ने मेरे सम्मुख सभी चीज़ों में परमेश्वर के आयोजनों के प्रति समर्पित होने का जो संकल्प लिया है, ठीक उसी के अनुरूप कार्य करो।” अंतिम प्रश्न का गहन अर्थ है। यह विचारोत्तेजक है, यह लोगों के हृदय पर अपनी छाप छोड़ता है और इसे भुलाना कठिन है, उनके कानों में लटकी एक घंटी की तरह निरंतर बजता रहता है ...

उपरोक्त स्पष्टीकरण के कुछ वचन हैं जो तुम्हारे संदर्भ के उपयोग के लिए हैं।

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