86. स्नेह के कारण अपने मन को उलझन में मत डालो

शिन जिंग, चीन

जून 2015 में, मैं एक कलीसिया में सुसमाचार उपयाजक के तौर पर काम करने गई। उस वक्त ली जी नए सदस्यों के सिंचन कार्य की प्रभारी थी, और काम की जरूरतों के कारण हमने कई बार साथ मिलकर काम किया। हम दोनों करीब एक ही उम्र की थीं, हमारा व्यक्तित्व एक जैसा था और हम एक जैसा ही जीवन जीते थे। सबसे बड़ी बात, हम दोनों के पति विश्वासियों पर सीसीपी के दमन के कारण हमारी आस्था का विरोध करते थे। हम दोनों के अनुभव एक समान थे और भाषा भी काफी मिलती-जुलती थी, इसलिए हमारी खास तौर पर अच्छी बनती थी। उस वक्त, मैं उस कलीसिया में पहुँची ही थी और दूसरे भाई-बहनों से परिचित नहीं थी, मुझे अपना कर्तव्य निभाने में बहुत-सी समस्याएँ भी आ रही थीं। ली जी काफी उत्साह से मेरे साथ संगति करती और मेरी मदद करती, मैं भी उसके जीवन की किसी भी समस्या में अक्सर उसकी मदद करती। धीरे-धीरे हम अपने आंतरिक विचारों और भावनाओं को एक दूसरे से साझा करने लगे और हमारे बीच एक अच्छा तालमेल बन गया।

बाद में, मुझे कलीसिया अगुआ चुना गया और हम पहले की तरह अक्सर एक दूसरे से बात नहीं कर पाते थे। कुछ महीने बाद, बहुत-से भाई-बहनों ने ली जी के बारे में मुझसे बात की। उन्होंने कहा कि वह बहुत अहंकारी है, दूसरों को कोई समस्या होने पर वह न सिर्फ धैर्य से मदद करने में विफल रहती है, बल्कि उन्हें फटकारती और नीचा दिखाती है। इसी वजह से सभी लोग उसके आगे बेबस महसूस करते हैं। सुपरवाइजर ने उसकी यह समस्या बताई, पर उसने मानने से इनकार कर दिया और बेरुखी से जवाब दिया। वह इस कदर बाधक बन गई है कि सभाओं में कोई प्रगति नहीं हो पाती है। जब भाई-बहन उसके साथ संगति करते हैं, तो वह अड़ियल बन जाती है और दूसरों पर दोष मढ़ देती है। सत्य पर उसकी संगति स्पष्ट नहीं होती है और नए सदस्य उसकी बात समझ ही नहीं पाते, कभी-कभी तो वह बहुत नकारात्मक बातें करती है। उन दो महीनों में नए सदस्यों के सिंचन कार्य में उसने कोई प्रगति नहीं की थी। जब मैंने ऐसे हालत के बारे में सुना, तो एहसास हुआ कि ली जी सिंचन कार्य के लिए उपयुक्त नहीं थी। मेरे सहकर्मियों ने उसे बर्खास्त कर देने का सुझाव दिया, कहा कि अगर वह अपने पद पर बनी रही तो कलीसिया के काम में देरी हो जाएगी। यह सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगा, क्योंकि उसने मेरी काफी मदद की थी और हम बहुत अच्छे दोस्त थे। मैंने सोचा, अगर मैंने उसकी बर्खास्तगी पर सहमति दे दी, तो वह मेरे बारे में क्या सोचेगी? क्या वह कहेगी कि मैं निष्ठुर हूँ? इसके अलावा, उसके लिए आत्म-सम्मान काफी मायने रखता है, बर्खास्त होने पर वह टूट जाएगी। इन सारी बातों पर विचार करने पर, उसे बर्खास्त करने का मन नहीं हुआ। मैंने बहाना बनाया कि ली जी इन दिनों भले ही अपना काम अच्छे से नहीं कर पा रही थी, पर यह पूरी तरह से उसकी गलती नहीं थी। जिन नए सदस्यों का उसने सिंचन किया था उनमें बहुत-सी धार्मिक धारणाएं थीं, वे सीखने में काफी धीमे थे, तो खराब नतीजों के लिए उसे माफ किया जा सकता है। इसके अलावा, उसने कड़ी मेहनत की थी और काफी समय भी दिया था। अगर हम उसे बर्खास्त कर देंगे, तो उसकी जगह कोई और उपयुक्त व्यक्ति ढूँढने में समय लगेगा, इसलिए बेहतर होगा कि फिलहाल हम उसे अपने पद पर बनाए रखें। मेरी बात सुनकर सहकर्मियों को थोड़ी झिझक हुई, मगर फिर सभी लोग बेमन से फिलहाल उसे अपना कर्तव्य निभाने देने और जल्द से जल्द उसकी जगह किसी और को रखने की व्यवस्था करने पर सहमत हो गए। थोड़ी राहत तो मिली, पर मैं अब भी थोड़ी बेचैन थी, यह सोचकर कि भले ही उसे फिलहाल बर्खास्त न किया गया हो, पर कोई उपयुक्त विकल्प मिलते ही ऐसा करना जरूरी होगा। शायद मेरी थोड़ी अतिरिक्त मदद से उसका प्रदर्शन बेहतर हो जाये और उसे बर्खास्त करने की जरूरत न पड़े। इसलिए, उस दिन शाम की सभा के बाद मैं सीधी ली जी के घर पहुँची, मैंने उसके काम के प्रभावहीन प्रदर्शन की वजहों के बारे में उससे बात की और उसके काम की कुछ समस्याओं के बारे में भी बताया। मगर उसे खुद की समझ नहीं थी और वह लगातार तर्क देती रही। उसके ऐसे व्यवहार से मैं काफी परेशान हो गई। उसके बाद भी मैंने कई बार उसके साथ संगति की, ताकि उसके काम के नतीजों में सुधार लाने में उसकी मदद कर सकूं, पर उसके प्रदर्शन में कोई सुधार नहीं हुआ, जिससे मुझे काफी चिंता हुई। कुछ समय बाद, एक वरिष्ठ अगुआ ने मुझसे कई बार संपर्क करके ली जी की बर्खास्तगी के मामले पर मेरी राय पूछी। मैंने यह कहकर टाल दिया कि मुझे अभी तक कोई उपयुक्त विकल्प नहीं मिला है। बाद में, ली जी ने एक ऐसी बहन से संपर्क किया जो शायद पुलिस की निगरानी में थी, ली जी को सुरक्षा कारणों से उससे संपर्क रखने से मना किया गया था। इसके बाद मेरे पास उसे अपना कर्तव्य निभाने से रोकने के अलावा कोई चारा नहीं बचा।

फिर कलीसिया ने मुझे सुसमाचार कार्य की प्रभारी बना दिया, तब मैंने फौरन ली जी के बारे में सोचा। वह घर पर उदास बैठी थी, उसके पास निभाने को कोई कर्तव्य नहीं था। उसे सुसमाचार का प्रचार करना काफी पसंद था, तो यह एक शानदार अवसर लगा। मैंने सहकर्मियों की बैठक में यह विचार रखा। मैंने कहा, “ली जी काफी समय से सुसमाचार का प्रचार करती रही है; इसमें उसे महारत है। उसे पता है कि उसने गलतियां की हैं और उनका उसे बहुत पछतावा है। क्यों न उसे सुसमाचार के प्रचार का एक अवसर दिया जाए।” यह सुनकर कई सहकर्मियों ने अपनी सहमति दी। मुझे हैरानी हुई, कुछ समय बाद ही भाई-बहनों ने मुझे बताया कि ली जी सुसमाचार उपयाजक के खिलाफ पूर्वाग्रह रखती थी और सभाओं में यह बात फैलाती थी कि उपयाजक पहले उसके खिलाफ था। वह बार-बार ऐसा कहती रही। इसी वजह से भाई-बहन सुसमाचार उपयाजक के खिलाफ पूर्वाग्रह रखने लगे और उसे बहिष्कृत करने लगे। ली जी काम के दौरान उपयाजक से मतभेद रखती थी और उससे झगड़ती रहती थी, और कुछ बहनों ने ली जी का पक्ष भी लिया। इस कारण सुसमाचार उपयाजक अपना काम नहीं कर पा रही थी, जिससे सुसमाचार कार्य में काफी बाधा आई। यह सुनकर मैं अवाक रह गई। उपयाजक ने पहले हुई घटना के बारे में बहुत पहले ली जी से माफी माँग ली थी। इसके अलावा, मैंने उसके साथ संगति की थी, आलोचना करने के बजाय उसे खुद को जानने और अनुभव से सीखने को कहा था। मैंने कभी उम्मीद नहीं की थी कि वह अभी भी मन में दुश्मनी पाले हुए है। कलीसिया में उसका व्यवहार पहले से ही काफी बाधक बना हुआ था। अगर उसने पश्चात्ताप नहीं किया और सब कुछ ऐसे ही चलता रहा, तो उसे आत्मचिंतन के लिए अलग करना होगा। इस बारे में मैंने जितना सोचा उतनी ही चिंता हुई। बाद में मैंने कई बार उसके साथ संगति की। उसने मेरे सामने तो सही बातें कहीं, पर सभाओं में पहले की तरह बर्ताव करती रही। कुछ अन्य उपयाजकों ने भी उसके साथ संगति कर उसकी मदद की, पर उसे खुद की कोई समझ नहीं थी और वह बदलना ही नहीं चाहती थी।

जल्दी ही, वरिष्ठ अगुआ को ली जी के व्यवहार के बारे में पता चला। उन्होंने कहा कि ली जी कलीसिया के काम में बाधा डाल रही थी, बार-बार संगति करने के बाद भी पश्चात्ताप नहीं करती थी और उसका प्रभाव बुरा था। सिद्धांतों के अनुसार, अगर उसने पश्चात्ताप नहीं किया, तो उसे काम से बर्खास्त कर कलीसिया से निकालना होगा। यह सुनकर मेरा दिल बैठ गया। मैंने सोचा कि कैसे ली जी ने अपना घर और अपना काम छोड़ दिया था और काफी तकलीफ उठाई थी। अगर उसे निकाल दिया गया तो बहुत शर्मिंदगी की बात होगी। पहले जब मैंने समस्याओं का सामना किया था, तो उसने मेरी काफी मदद की थी, मैं ही वह इंसान थी जिससे वह कलीसिया में सबसे करीब थी। मुझे लगा अगर मैंने अभी उसका साथ नहीं दिया और उसके पक्ष में नहीं बोली, और उसे पता चल गया, तो क्या वह यह नहीं कहेगी कि मैं बहुत निष्ठुर हूँ? अगर उसे सच में निकाल दिया गया तो मैं दोबारा उसका सामना कैसे कर पाऊँगी? वह यकीनन मुझसे नाराज होगी और उसे काफी दुःख पहुँचेगा। इस बारे में सोचकर मैंने अपने सहकर्मियों से कहा : “ली जी में कुछ समस्याएं तो हैं, पर वह हमेशा से कलीसिया में अपना कर्तव्य निभाती आई है और सुसमाचार के प्रचार में असरदार रही है, तो शायद उसके साथ ऐसा बर्ताव करना बहुत कठोरता होगी। क्यों न हम उसे एक और मौका दें, उसकी अधिक मदद करें, हो सकता है वह चीजों को समझे और बदल जाए?” फिर एक सहकर्मी ने बड़ी गंभीरता से कहा, “बहन, तुम सिद्धांतों के अनुसार काम करने के बजाय भावनाओं में बह रही हो। ली जी पहले सुसमाचार के प्रचार में काफी असरदार रही है, उसने कड़ी मेहनत की है और काफी तकलीफ भी उठाई है, पर वह सत्य को नहीं स्वीकारती। वह सत्य से नफरत करती है, और कलीसिया में सकारात्मक भूमिका नहीं निभा रही है। उसने पहले ही कलीसिया के काम को काफी नुकसान पहुँचाया है। तुम अपनी भावनाओं में बहकर हमेशा उसका बचाव नहीं कर सकती। खुद को देखो; क्या ऐसा नहीं है?” उसके ऐसा कहने पर मुझे एहसास हुआ कि मैं वाकई ली जी के मामले में सिद्धांतों का अनुसरण नहीं कर रही थी, पर मैं अभी भी बेचैन थी। मैं अभी भी उसे एक और मौका देना चाहती थी। घर लौटते वक्त रास्ते में अचानक मुझे चक्कर आ गया, लगा जैसे पूरी दुनिया घूम रही हो, डर के मारे आँखें भी नहीं खोल पा रही थी, न ही ठीक से चल नहीं पा रही थी। मुझे एहसास हुआ कि संभवतः परमेश्वर मुझे अनुशासित कर रहा है। मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की। तभी, परमेश्वर के कुछ वचन स्पष्टता से मेरे मन में कौंधे। परमेश्वर कहता है : “जब लोग परमेश्वर को ठेस पहुँचाते हैं, तो हो सकता है, ऐसा किसी एक घटना या किसी एक बात की वजह से न होकर उनके रवैये और उस स्थिति के कारण हो, जिसमें वे हैं। यह एक बहुत ही भयावह बात है(वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है VII)। परमेश्वर के इन वचनों पर विचार करते हुए मुझे थोड़ा डर लगा। मैं जानती थी कि मैंने किसी न किसी तरह परमेश्वर को नाराज किया होगा। मैं आत्मचिंतन करने लगी, तब एहसास हुआ कि मैंने अड़ियल बनकर हर बार ली जी का साथ दिया था। मुझे पता था कि वह कलीसिया में कोई अच्छी भूमिका नहीं निभा रही थी, फिर भी मैंने बाधक बनने में उसका साथ दिया। जब वरिष्ठ अगुआ और मेरे सहकर्मियों ने उसे कर्तव्य निभाने से रोकने का सुझाव दिया, तो मैंने बार-बार उसका पक्ष लिया और कलीसिया के काम की रक्षा करने के लिए कुछ नहीं किया। मैं वाकई अनुशासित किए जाने लायक थी। इस बारे में विचार कर, मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा कि मैं इस मामले में आत्मचिंतन करने को तैयार हूँ। प्रार्थना के बाद, मैंने बड़ी मुश्किल से खड़ी हुई और लड़खड़ाते कदमों से घर पहुँची।

घर पहुँचकर मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा। परमेश्वर कहता है : “कुछ लोग बेहद भावुक होते हैं। रोजाना वे जो कुछ भी कहते हैं और जिस भी तरह से दूसरों के प्रति व्यवहार करते हैं, उसमें वे अपनी भावनाओं से जीते हैं। वे इस या उस व्यक्ति के प्रति स्नेह महसूस करते हैं और स्नेह की बारीकियों में संलग्न रहते हुए दिन बिताते हैं। अपने सामने आने वाली सभी चीजों में वे भावनाओं के दायरे में रहते हैं। ... तुम कह सकते हो कि भावनाएं इस व्यक्ति का घातक दोष है। वह सभी मामलों में अपनी भावनाओं से विवश होता है, वह सत्य का अभ्यास करने या सिद्धांत के अनुसार कार्य करने में अक्षम होता है, और उसमें अक्सर परमेश्वर के खिलाफ विद्रोह करने की प्रवृत्ति होती है। भावनाएँ उसकी सबसे बड़ी कमजोरी, उसका घातक दोष होती हैं, और उसकी भावनाएँ उसे तबाहो-बरबाद करने में पूरी तरह से सक्षम होती हैं। जो लोग अत्यधिक भावुक होते हैं, वे सत्य को अभ्यास में लाने या परमेश्वर के प्रति समर्पित होने में असमर्थ होते हैं। वे देह-सुख में लिप्त रहते हैं, और मूर्ख और भ्रमित होते हैं। इस तरह के व्यक्ति की प्रकृति अत्यधिक भावुक होने की होती है और वह भावनाओं से जीता है(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, मनुष्य का स्वभाव कैसे जानें)। इस अंश को पढ़कर मेरा दिल भर आया और आँखों से लगातार आंसू बहते रहे। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि मैं वाकई इस मामले में भावनाओं में बहकर काम कर रही थी। ली जी के मामले में, मैंने अपनी भावनाओं के आधार पर बात की, हमेशा उसकी भावनाओं की परवाह की और सिर्फ इस वजह से उसका साथ दिया क्योंकि उसने मेरी मदद की थी और उसके साथ मेरे अच्छे संबंध थे। मैंने इस मामले को सिद्धांतों के अनुसार निष्पक्ष और उचित तरीके से नहीं संभाला। दरअसल, मैं जानती थी कि वह अपने काम में अच्छा नहीं कर रही है, वह बाधक बन रही है, उसे काम करते रहने देना असल में उसकी मदद करना नहीं अड़चन पैदा करना था, और उसे फौरन बदल दिया जाना चाहिए था। मगर हमारे अच्छे संबंध के कारण, मैंने अपनी भावनाओं के आधार पर बात की, सभी तरह के तर्क और बहाने ढूंढें, ताकि अपने सहकर्मियों को उसे नहीं बदलने के लिए मना सकूं। मैं तो उसके प्रदर्शन में सुधार लाने के लिए उसकी मदद करना चाहती थी, ताकि वह अपना काम करती रहे। अगर हमारे अच्छे संबंध की बात न होती, तो मैं उसका साथ देने की हर मुमकिन कोशिश नहीं करती। कोई और बहन या भाई होता, तो मैंने इस मामले को सिद्धांतों के अनुसार संभाला होता। आखिरकार मैंने देखा कि भावनाएं मेरे लिए सबसे बड़ी बाधक थीं, मैं अपनी कथनी और करनी में अपनी भावनाओं के अनुसार चल रही थी, सत्य सिद्धांतों की कोई परवाह किए बिना हर मोड़ पर ली जी को बचा रही थी। मैंने बुनियादी तौर पर कलीसिया के काम या हितों पर बिल्कुल भी विचार नहीं किया। मैं बहुत स्वार्थी और घिनौनी थी!

मैंने परमेश्वर के वचनों के कुछ और अंश पढ़े जिनसे भावनाओं के आधार पर काम करना क्या होता है, इसे लेकर मुझे गहरी समझ हासिल हुई। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहता है : “कौन से मसले भावनाओं से संबंधित हैं? पहला यह है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन कैसे करते हो और उनके कार्यकलापों को कैसे देखते हो। यहाँ ‘उनके कार्यकलापों’ में कलीसिया के काम में विघ्न-बाधा डालना, पीठ पीछे लोगों की आलोचना करना, छद्म-विश्वासियों जैसी कुछ कार्य-पद्यतियाँ अपनाना, इत्यादि स्वाभाविक रूप से शामिल हैं। क्या तुम इन चीजों को निष्पक्ष रूप से देख सकते हो? जब तुम्हारे लिए अपने परिवार के सदस्यों का मूल्यांकन लिखना आवश्यक हो तो क्या तुम अपनी भावनाओं को एक तरफ रखकर वस्तुपरक और निष्पक्ष रूप से ऐसा कर सकते हो? इसका संबंध इस बात से है कि तुम अपने परिवार के सदस्यों के प्रति कैसा रवैया रखते हो। इसके अलावा, क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जिनके साथ तुम्हारी निभती है या जिन्होंने तुम्हारी पहले कभी मदद की है? क्या तुम उनके कार्यकलापों और आचरण को वस्तुनिष्ठ, निष्पक्ष और सटीक तरीके से देख पाते हो? अगर वे कलीसिया के काम में गड़बड़ी पैदा करते हैं और बाधा डालते हैं तो क्या तुम इसके बारे में पता चलने के बाद तुरंत रिपोर्ट कर पाओगे या उन्हें उजागर कर सकोगे? यह भी कि क्या तुम उन लोगों के प्रति भावनाएँ रखते हो जो अपेक्षाकृत तुम्हारे करीब हैं या जिनकी रुचियाँ तुम्हारे ही जैसी हैं? क्या तुम्हारे पास उनके कार्यकलापों और व्यवहार का निष्पक्ष और वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने, इन्हें परिभाषित करने और इनसे निपटने का तरीका है? मान लो कि जिन लोगों के साथ तुम्हारा भावात्मक संबंध है उनसे कलीसिया सिद्धांतों के अनुसार निपटती है और इसके परिणाम तुम्हारी अपनी धारणाओं के अनुरूप नहीं होते हैं—तो तुम इसे कैसे देखोगे? क्या तुम आज्ञापालन कर पाओगे? क्या तुम उनसे गुपचुप जुड़े रहोगे, क्या तुम उनसे गुमराह होते जाओगे और यहाँ तक कि उनके लिए बहाने बनाने, उन्हें सही ठहराने और उनका बचाव करने के लिए उनके उकसावे में आते जाओगे? क्या तुम सत्य सिद्धांतों की अवहेलना और परमेश्वर के घर के हितों की अनदेखी करते हुए अपनी मदद करने वाले लोगों का सहयोग करोगे और उनके दोष अपने सिर पर लोगे? क्या ऐसे विभिन्न मुद्दे भावनाओं से संबंधित नहीं हैं? कुछ लोग कहते हैं, ‘क्या भावनाओं का संबंध केवल रिश्तेदारों और परिवार के सदस्यों से नहीं होता है? क्या भावनाओं का दायरा सिर्फ तुम्हारे माता-पिता, भाई-बहन और परिवार के दूसरे सदस्यों तक सीमित नहीं है?’ नहीं, भावनाओं में लोगों का एक व्यापक दायरा शामिल होता है। अपने परिवार के सदस्यों का निष्पक्ष मूल्यांकन करने की बात तो भूल ही जाओ—कुछ लोग तो अपने अच्छे दोस्तों और साथियों का भी निष्पक्ष मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं होते हैं और इन लोगों के बारे में बोलते हुए वे तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर उनका दोस्त अपने कर्तव्य के दौरान उचित कार्य पर ध्यान न देकर हमेशा कुटिल और दुष्ट चलनों में लिप्त रहता है तो वे उसे काफी चंचल बताकर कहेंगे कि अभी उसकी मानवता अपरिपक्व और अस्थिर है। क्या इन शब्दों में भावनाएँ नहीं छिपी हैं? यह भावनाओं से भरे हुए शब्द बोलना है। अगर कोई ऐसा व्यक्ति जिसका उनसे कोई संबंध नहीं है, अपने उचित काम पर ध्यान नहीं देता और कुटिल और दुष्ट चलनों में लिप्त रहता है, तो उसके बारे में कहने के लिए उनके पास और कठोर बातें होंगी और वे उनकी निंदा भी कर सकते हैं। क्या यह भावनाओं के आधार पर बोलने और कार्य करने की अभिव्यक्ति नहीं है? क्या अपनी भावनाओं के अनुसार जीने वाले लोग निष्पक्ष होते हैं? क्या वे ईमानदार होते हैं? (नहीं।) जो लोग अपनी भावनाओं के अनुसार बोलते हैं, उनमें क्या गड़बड़ है? वे दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार क्यों नहीं कर सकते? वे सत्य सिद्धांतों के आधार पर क्यों नहीं बोल सकते? दोगली बातें करने वाले और तथ्यों के आधार पर न बोलने वाले लोग दुष्ट होते हैं। बोलते समय निष्पक्ष न होना, हमेशा सत्य सिद्धांतों के अनुसार नहीं बल्कि अपनी भावनाओं के अनुसार और अपने हित के लिए बोलना, परमेश्वर के घर के कार्य के बारे में न सोचना और केवल अपनी व्यक्तिगत भावनाओं, प्रसिद्धि, लाभ और रुतबे की रक्षा करना—यही मसीह-विरोधियों का चरित्र है। मसीह-विरोधी इसी तरह बोलते हैं; वे जो कुछ भी कहते हैं वह दुष्टतापूर्ण, परेशान करने वाला और विघटनकारी होता है। जो लोग देह की प्राथमिकताओं और हितों के बीच जीते हैं, वे अपनी भावनाओं में जीते हैं। जो लोग अपनी भावनाओं के अनुसार जीते हैं, वे वही लोग हैं जो सत्य को बिल्कुल भी स्वीकार नहीं करते या उसका अभ्यास नहीं करते हैं(वचन, खंड 5, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ, अगुआओं और कार्यकर्ताओं की जिम्मेदारियाँ (2))। “मैं लोगों को अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त करने का अवसर नहीं देता, क्योंकि मैं दैहिक भावनाओं से रहित हूँ, और चरम सीमा तक लोगों की भावनाओं से घृणा करने लगा हूँ। लोगों के बीच की भावनाओं के कारण ही मुझे एक तरफ कर दिया गया है, और इस तरह मैं उनकी नजरों में ‘दूसरा’ बन गया हूँ; यह लोगों के बीच की भावनाओं के कारण ही है कि मैं भुला दिया गया हूँ; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह अपने ‘विवेक’ को पाने के अवसर का लाभ उठता है; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह हमेशा मेरी ताड़नाओं से विमुख रहता है; यह मनुष्य की भावनाओं के कारण ही है कि वह मुझे गलत और अन्यायी कहता है, और कहता है कि मैं चीजें सँभालने में मनुष्य की भावनाओं से बेपरवाह रहता हूँ। क्या पृथ्वी पर मेरे भी सगे-संबंधी हैं? किसने कभी, मेरी तरह, अपनी पूरी प्रबंधन-योजना के लिए बिना खाने या सोने के बारे में सोछे, दिन-रात काम किया है? मनुष्य की तुलना परमेश्वर से कैसे हो सकती है? मनुष्य परमेश्वर के साथ सुसंगत कैसे हो सकता है?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, संपूर्ण ब्रह्मांड के लिए परमेश्वर के वचन, अध्याय 28)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मुझे यह बात और स्पष्ट हो गई कि भावनाओं के आधार पर काम करने का क्या अर्थ होता है, और मैंने देखा कि परमेश्वर को लोगों की भावनाओं से नफरत है। भावनाओं के आधार पर काम करने से हम सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन कर सकते हैं, कुकर्म कर सकते हैं और परमेश्वर का विरोध कर सकते हैं। कलीसिया अगुआ के तौर पर, मैं सत्य पर अमल नहीं कर रही थी या लोगों के साथ निष्पक्ष रूप से और सिद्धांतों के अनुसार पेश नहीं आ रही थी। इसके बजाय, मैं अपनी भावनाओं के आधार पर एक निजी संबंध का बचाव कर रही थी, जिस इंसान को बदल दिया जाना चाहिए था उसे बदल नहीं रही थी, किसी की तरफदारी करने और अपनी छवि बचाने के लिए कलीसिया के काम का इस्तेमाल कर रही थी जो कलीसिया के हितों के लिए हानिकारक था। इससे भाई-बहनों के जीवन को नुकसान पहुंचा और कलीसिया के काम में बाधा आई। मैं जिस थाली में खा रही थी उसी में छेद कर रही थी—मैं विश्वासघाती थी। क्या यह परमेश्वर का अपमान और विरोध करने का मामला नहीं था? इन बातों का एहसास होने पर मेरा मन पछतावे से भर गया, मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की और पश्चात्ताप किया। बाद में, एक सभा में, मैंने खुलकर इस बारे में संगति करते हुए बताया कि कैसे मैंने ली जी के मामले में भावनाओं के आधार पर काम किया था। इसके अलावा, उसके व्यवहार के आधार पर, मैंने उसे काम से हटाकर आत्मचिंतन करने को कहा।

करीब छः महीने बीत गए, मगर ली जी आत्मचिंतन करने और अपने बुरे व्यवहार की समझ हासिल करने के बजाय अभी भी इस बार पर जोर देती रही कि उसके साथ अन्याय हुआ है और उसके मामले में अगुआ और उपयाजक निष्पक्ष नहीं रहे। उनके पीठ पीछे उसने आरोप लगाया कि उसे दंडित करने के लिए उन्होंने हदें पार दी थीं। मेरे साथ भागीदारी कर रही बहन ने उसके साथ सत्य पर संगति की और उसके व्यवहार का विश्लेषण किया, मगर वह उसकी उपेक्षा करते हुए बहाने बनाती रही। यहाँ तक कि ली जी ने उस बहन से बात करना भी बंद कर दिया, उसके विरोध में सीधे उससे मुँह मोड़ लिया। वह दूसरों में नकारात्मकता फैला रही थी, कहती कि उसने बदले में कोई आशीष पाए बिना काफी कष्ट उठाया, जबकि नाकाबिल लोगों को आशीष मिली। उसके संपर्क में रहने वाले कुछ लोगों ने गुमराह होकर उसका पक्ष लिया और उसका बचाव किया। इन सारी बातों ने मुझे परमेश्वर के वचनों के इस अंश की याद दिलाई : “जो लोग कलीसिया के भीतर विषैली, दुर्भावनापूर्ण बातों का गुबार निकालते हैं, भाई-बहनों के बीच अफवाहें व अशांति फैलाते हैं और गुटबाजी करते हैं, तो ऐसे सभी लोगों को कलीसिया से निकाल दिया जाना चाहिए था। अब चूँकि यह परमेश्वर के कार्य का एक भिन्न युग है, इसलिए ऐसे लोग नियंत्रित हैं, क्योंकि उन्हें निश्चित रूप से निकाला जाना है। शैतान द्वारा भ्रष्ट ऐसे सभी लोगों के स्वभाव भ्रष्ट हैं। कुछ के स्वभाव पूरी तरह से भ्रष्ट हैं, जबकि अन्य लोग इनसे भिन्न हैं : न केवल उनके स्वभाव शैतानी हैं, बल्कि उनकी प्रकृति भी बेहद विद्वेषपूर्ण है। उनके शब्द और कृत्य न केवल उनके भ्रष्ट, शैतानी स्वभाव को प्रकट करते हैं, बल्कि ये लोग असली दानव और शैतान हैं। उनके आचरण से परमेश्वर के कार्य में गड़बड़ी और विघ्न पैदा होता है; इससे भाई-बहनों के जीवन प्रवेश में विघ्न पड़ता है और कलीसिया के सामान्य कार्यकलापों को क्षति पहुंचती है। आज नहीं तो कल, भेड़ की खाल में छिपे इन भेड़ियों का सफाया किया जाना चाहिए, और शैतान के इन अनुचरों के प्रति एक सख्त और अस्वीकृति का रवैया अपनाया जाना चाहिए। केवल ऐसा करना ही परमेश्वर के पक्ष में खड़ा होना है; और जो ऐसा करने में विफल हैं वे शैतान के साथ कीचड़ में लोट रहे हैं(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, जो सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं उनके लिए एक चेतावनी)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मुझे ली जी की और अधिक पहचान हुई। वह बिल्कुल भी सत्य नहीं स्वीकारती थी, कलीसिया में अक्सर नकारात्मकता फैलाती थी, कलीसियाई जीवन में बाधक बन रही थी और सकारात्मक भूमिका नहीं निभा रही थी। वह एक बुरी इंसान थी और उसने कलीसिया में खराब माहौल बना दिया था। काट-छाँट के बाद काम से हटाए जाने पर भी वह अवज्ञाकारी बनी रही, अगुआओं और कर्मियों में दोष ढूँढने की कोशिश की, उनकी आलोचना की और उन पर हमले किए। इस तरह सत्य से नफरत करने वाली, प्रतिशोधी, आक्रामक और दुष्ट इंसान को कभी नहीं बचाया जा सकता, भले ही उसे कलीसिया में बने रहने दिया जाए। ऐसे लोग कुकर्म ही करेंगे और कलीसिया के काम में बाधक बनेंगे, जैसे अंगूर के बाग में रहने वाली लोमड़ी अंगूर तो चुराती ही है, बाग को भी तहस-नहस भी कर देती है। कुकर्मी लोगों शुद्धिकरण करके ही कलीसिया के काम को निर्बाध तरीके से आगे बढ़ाया जा सकता है और भाई-बहनों के कलीसियाई जीवन को सामान्य रूप से चलाया जा सकता है। परमेश्वर धार्मिक और पवित्र है। परमेश्वर द्वारा बचाए गए सभी लोगों में अच्छी मानवता होती है और वे सत्य से प्रेम करते हैं; परमेश्वर कुकर्मी लोगों को नहीं बचाता। कुकर्मी लोगों की प्रकृति सत्य से विमुख होने और उससे नफरत करने वाली होती है; उन्हें कितने भी मौके क्यों न दिए जाएं, वे सच्चा पश्चात्ताप नहीं करेंगे। सत्य से प्रेम करने वाले भ्रष्ट स्वभाव दिखा सकते हैं, कुछ हद तक बाधक हो सकते हैं और आलोचना भी कर सकते हैं, पर बाद में वे आत्मचिंतन और पश्चात्ताप कर बदल भी सकते हैं। कलीसिया ने ली जी को पहले बहुत-से मौके दिए, मगर उसने कभी पश्चात्ताप नहीं किया। वास्तव में, उसने अगुआओं और उपयाजकों पर अपने हमले अधिक तेज कर दिए और कलीसियाई जीवन में बाधक बनती रही। वह प्रकृति सार से बुरी इंसान थी। कलीसिया के सिद्धांतों के आधार पर उसे हटा दिया जाना चाहिए था। कलीसिया अगुआ के तौर पर, मैं जानती थी कि उसके कुकर्म को उजागर करने और उसके निष्कासन के कागजात पर हस्ताक्षर कराने के लिए मुझे भाई-बहनों के साथ संगति करनी होगी। हालांकि, इस बारे में सोचकर मुझे अब भी झिझक महसूस हुई। मुझे फिक्र थी कि अगर उसे सच में कलीसिया से हटा दिया गया, तो उसके लिए सब खत्म हो जाएगा। ऐसे विचार मन में आते ही मैंने फौरन परमेश्वर से प्रार्थना की और उससे मुझे राह दिखाने की विनती की, ताकि मैं अपनी भावनाओं के आगे बेबस न रहूँ।

खोज करते हुए, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “परमेश्वर पर विश्वास न रखने वाले प्रतिरोधियों के सिवाय भला शैतान कौन है, दुष्टात्माएँ कौन हैं और परमेश्वर के शत्रु कौन हैं? क्या ये वे लोग नहीं, जो परमेश्वर के प्रति विद्रोही हैं? क्या ये वे नहीं, जो विश्वास करने का दावा तो करते हैं, परंतु उनमें सत्य नहीं है? क्या ये वे लोग नहीं, जो सिर्फ़ आशीष पाने की फ़िराक में रहते हैं जबकि परमेश्वर के लिए गवाही देने में असमर्थ हैं? तुम अभी भी इन दुष्टात्माओं के साथ घुलते-मिलते हो और उनसे अंतःकरण और प्रेम से पेश आते हो, लेकिन क्या इस मामले में तुम शैतान के प्रति सदिच्छाओं को प्रकट नहीं कर रहे? क्या तुम दानवों के साथ मिलकर षड्यंत्र नहीं कर रहे? यदि लोग इस बिंदु तक आ गए हैं और अच्छाई-बुराई में भेद नहीं कर पाते और परमेश्वर के इरादों को खोजने की कोई इच्छा किए बिना या परमेश्वर के इरादों को अपने इरादे मानने में असमर्थ रहते हुए आँख मूँदकर प्रेम और दया दर्शाते रहते हैं तो उनका अंत और भी अधिक खराब होगा। जो भी व्यक्ति देहधारी परमेश्वर पर विश्वास नहीं करता, वह परमेश्वर का शत्रु है। यदि तुम शत्रु के प्रति साफ़ अंतःकरण और प्रेम रख सकते हो, तो क्या तुममें न्यायबोध की कमी नहीं है? यदि तुम उनके साथ सहज हो, जिनसे मैं घृणा करता हूँ, और जिनसे मैं असहमत हूँ और तुम तब भी उनके प्रति प्रेम और निजी भावनाएँ रखते हो, तब क्या तुम विद्रोही नहीं हो? क्या तुम जानबूझकर परमेश्वर का प्रतिरोध नहीं कर रहे हो? क्या ऐसे व्यक्ति में सत्य होता है? यदि लोग शत्रुओं के प्रति साफ़ अंतःकरण रखते हैं, दुष्टात्माओं से प्रेम करते हैं और शैतान पर दया दिखाते हैं, तो क्या वे जानबूझकर परमेश्वर के कार्य में रुकावट नहीं डाल रहे हैं?(वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, परमेश्वर और मनुष्य साथ-साथ विश्राम में प्रवेश करेंगे)। परमेश्वर के वचन पढ़कर मैंने खुद को बहुत दोषी पाया। मैं अच्छी तरह जानती थी कि ली जी परेशानी खड़ी करने वाली इंसान थी जो कलीसिया के काम में बाधा डालती थी, वह कभी पश्चात्ताप नहीं करने वाली थी, वह एक बुरी इंसान थी जो सत्य से विमुख थी और उसकी प्रकृति सत्य से नफरत करने वाली थी, मगर फिर भी मैंने ढाल बनकर उसका बचाव किया, हमेशा उसे कलीसिया में बनाए रखना चाहा। इसका मतलब था कि मैं एक कुकर्मी इंसान को कलीसिया के काम में बाधा डालने दे रही थी, शैतान के पक्ष में खड़ी होकर परमेश्वर की दुश्मन बन गई थी। मैं इस शैतानी फलसफे के अनुसार जी रही थी कि “मनुष्य निर्जीव नहीं है; वह भावनाओं से मुक्त कैसे हो सकता है?” मैंने हमेशा यही सोचा कि निजी संबंध पहले आते हैं और अगर व्यक्ति इसे प्राथमिकता देता है तो केवल तभी यह दिखेगा कि उसमें सामान्य मानवता है और वह अच्छा इंसान है। अगर मैं ऐसा नहीं करता तो इसे निष्ठुरता माना जाएगा और दूसरे इसे अस्वीकार कर देंगे। लेकिन ऐसी सोच हास्यास्पद थी! सांसारिक आचरण के ऐसे फलसफे भले ही सही लगते हों और मानवीय धारणाओं के अनुरूप हों, पर वे सत्य और सिद्धांतों के खिलाफ होते हैं। भावनात्मक जुड़ाव होना और हर किसी के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करना बेवकूफी और भटकाव है, यह सिद्धांतों के अनुरूप बिल्कुल नहीं है। परमेश्वर हमसे दूसरों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार पेश आने, भाई-बहनों के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करने और परमेश्वर के संबंध में अंतरात्मा की बात सुनने को कहता है। वह कहता है कि हम बुरे लोगों, छद्म-विश्वासियों, राक्षसों और शैतानों को ठुकरा दें। क्या ऐसे लोगों के साथ भावनात्मक जुड़ाव बेवकूफी और गुमराह होना नहीं है? इस तरह के जुड़ाव में विवेक और सिद्धांत अभाव होता है—यह मूर्खता से उपजता है। यह न सिर्फ हमें भटकाता है, बल्कि इसकी वजह से हम एक बुरे व्यक्ति का अनुसरण कर कलीसिया के काम को नुकसान भी पहुँचा सकते हैं। हम यूं ही अपनी भावनाओं में नहीं बह सकते। किसके प्रति प्रेम दिखाएं और किसे ठुकरा दें, इसकी हमें समझ होनी चाहिए। हमें अपने भावनात्मक जुड़ाव में सिद्धांतों के अनुसार चलना चाहिए। मैंने देखा कि मैं शैतानी फलसफे के अनुसार जी रही थी, यह बहुत मूर्खतापूर्ण और अशोभनीय हरकत थी। मैं अच्छी तरह जानती थी कि ली जी सत्य को नहीं स्वीकारेगी, वह सत्य से नफरत करने वाली और कलीसिया के कार्य में बाधा डालने वाली बुरी इंसान थी और उसे निष्कासित करना जरूरी था। मगर मैं भावनाओं के काबू में थी। मैंने बार-बार उसका बचाव किया। यह मेरे लिए पीड़ादायक और थकाऊ था, जिसमें कोई सुकून नहीं था, मगर सबसे बड़ी बात यह थी कि साफ तौर पर पता होने पर भी मैं सत्य पर अमल नहीं कर रही थी। मैं अपनी अंतरात्मा को अनदेखा कर सिद्धांतों के खिलाफ काम कर रही थी, मैंने कलीसिया के काम में बाधा डाल रही एक बुरी इंसान का साथ दिया था। मैं परमेश्वर के खिलाफ लड़कर उसे धोखा दे रही थी! मैं परमेश्वर के अनुग्रह और उद्धार का आनंद उठा रही थी, पर उसे धोखा देकर शैतान का बचाव कर रही थी और एक बुरी इंसान की ढाल बन गई थी। मुझमें वाकई अंतरात्मा और मानवता नहीं थी! आखिरकार मुझे यह स्पष्ट हो गया कि भावनाओं के काबू में आना परमेश्वर और सत्य को धोखा देना है। फिर मैंने सोचा कि कैसे इतने बरसों से परमेश्वर मुझमें इतना सारा काम करता आ रहा था और उसने कितनी बड़ी कीमत चुकाई थी। बदले में मैंने उसे कुछ भी नहीं दिया, इसके बजाय उसके खिलाफ शैतान के पक्ष में खड़ी हो गई। इस तरह से सोचने पर मेरा मन पछतावे और अपराध बोध से भर गया।

उसके बाद अपने भक्ति-कार्य में मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा : “परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। ... अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा : ‘कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?’ ‘क्योंकि जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है।’ ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : ‘परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।’ ये वचन बिल्कुल सीधे हैं, फिर भी लोग अक्सर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते(वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्‍ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से मुझे अभ्यास के इस सिद्धांत की स्पष्ट समझ हुई, “परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।” केवल वे जो परमेश्वर में सच्चा विश्वास रखते हैं, सत्य का अनुसरण करते हैं और अपने कर्तव्य में समर्पित हैं, हमारे लिए भाई-बहन हैं और उनके साथ ही हमें प्रेम दिखाना चाहिए। जो बिल्कुल भी सत्य स्वीकार नहीं करते और लगातार कलीसिया के काम में बाधा डालते हैं, सत्य से नफरत करते हैं और अपनी प्रकृति से परमेश्वर से नफरत करने वाले होते हैं, वे सभी कुकर्मी, छद्म-विश्वासी, राक्षस और शैतान हैं। उनसे नफरत कर उन्हें ठुकरा देना चाहिए। लोगों के साथ ऐसा बर्ताव ही सिद्धांत और परमेश्वर के इरादे के अनुरूप है। बाद में, मैंने सभाओं में भाई-बहनों के साथ संगति करते हुए बताया कि कुकर्मी व्यक्ति कौन है और कुकर्मी की पहचान कैसे करें, मैंने ली जी के सभी बुरे व्यवहारों का भी खुलासा किया। इसके अलावा, मैंने किसी व्यक्ति को कलीसिया से निष्कासित करने और निकाले जाने के लिए प्रासंगिक सिद्धांतों पर भी संगति की; जब भाई-बहनों को सत्य की समझ हो गई, तब उन्होंने भी ली जी के कुकर्मों को उजागर किया। आखिरकार उसे कलीसिया से निकाल दिया गया।

अगर परमेश्वर यह उजागर न किया होता और उसके वचनों का न्याय और प्रकाशन नहीं होता, तो मैं अभी भी शैतान के फलसफों के अनुसार जीती रहती। मैं बिना सोचे-विचारे दूसरों के साथ स्नेह और करुणा दिखाती रहती, भले-बुरे या सही-गलत का भेद नहीं कर पाती और अनजाने में ही शैतान के पक्ष में खड़ी होकर परमेश्वर का विरोध करती रहती। परमेश्वर के वचनों ने ही मुझे अपने कर्मों में निजी स्नेह पर निर्भर रहने के खतरे और परिणामों को साफ तौर पर देखने में सक्षम बनाया; इनसे मुझे भावनाओं से विवश होने से बचने और लोगों के साथ सत्य सिद्धांतों के अनुसार पेश आने में मदद मिली। मैं परमेश्वर के प्रेम और उद्धार के लिए तहेदिल से उसकी आभारी हूँ।

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