68. माता-पिता की दयालुता के साथ कैसे पेश आएँ
बचपन में मैं काफी कमजोर थी और अक्सर बीमार पड़ जाती थी। कभी-कभी, मेरे माँ-बाप को आधी रात मुझे क्लिनिक ले जाना पड़ता था। वो देर रात डॉक्टर के घर का दरवाजा पीटते, और चाहे उस डॉक्टर का लहजा या रवैया कितना भी खराब हो, मेरे माँ-बाप हमेशा उसे सहने के लिए तैयार रहते थे। ये सब बस इसलिए ताकि मेरा फौरन इलाज हो सके। उन्हें डर था कि मेरी हालत और खराब हो जाएगी, तो वो रात भर मेरे साथ रहते थे। बाद में, जब मैं थोड़ी बड़ी हुई, और देखा कि मेरे माँ-बाप हर दिन काम से थककर घर आते थे, तो मुझे उनके लिए बुरा लगता। मगर वे हमेशा मुझसे कहते : “हमें तुम्हें बेहतर जीवन देने और तुम्हारी पसंद की चीजें खरीदने के लिए ज्यादा पैसे कमाने होंगे।” मैंने सोचा कि मेरे माँ-बाप ने मेरे लिए इतना सब किया है, तो मैंने उनकी संतानोचित सेवा करने और उन्हें आराम देने का मन बना लिया। जब मेरे माँ-बाप काम पर जाते, तो मैं घर की सफाई करती, मैंने कपड़े धोना और खाना बनाना भी सीख लिया। जब भी मेरे माँ-बाप घर आते और देखते कि सब कुछ जगह पर है, तो बड़ी खुशी से कहते : “हमारी परवरिश बेकार नहीं गई!” ये बातें सुनकर मुझे बहुत खुशी होती। मुझे लगता था कि अपने माँ-बाप के लिए चीजों को थोड़ा आसान बनाकर उन्हें आराम के लिए थोड़ा और समय देना काफी सार्थक है।
फिर, हम तीनों परमेश्वर में विश्वास करने लगे, और मैं कर्तव्य निभाने के लिए दूसरी जगह चली गई। मेरी माँ मेरे कर्तव्य निभाने का बहुत समर्थन करती थी, भले ही मेरे डैड इससे खुश नहीं थे, फिर भी उन्होंने मेरे फैसले का सम्मान किया। बाद में, हालात और खराब होते चले गए, कई भाई-बहनों को अपना कर्तव्य निभाते समय गिरफ्तार कर लिया गया। एक बार, जब मैं घर गई, तो मेरे डैड ने घबराहट में कहा : “हमनें सालों से तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया है, और कभी तुमसे यह नहीं कहा कि तुम बहुत कामयाबी हासिल करो; हम बस चाहते हैं कि तुम हमारे साथ रहो। मगर तुमने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ दिया, और हम जब चाहें तुमसे नहीं मिल पाते हैं। अब हालात बहुत खराब हो गए हैं; अगर कहीं तुम गिरफ्तार हो गई, तो मैं क्या करूँगा? तुम्हारे भविष्य का क्या होगा?” अपने डैड की बातों से मुझे बड़ी हैरानी हुई। वो ऐसा कैसे कह सकते थे? अगर मैंने गिरफ्तारी के डर से अपने कर्तव्य निभाने छोड़ दिए, तो क्या यह परमेश्वर को धोखा देकर भगोड़ा बनना नहीं होगा? मैंने डैड से गंभीरता से कहा : “डैड, आपको मुझे कर्तव्य निभाने से नहीं रोकना चाहिए। अब मैं बड़ी हो चुकी हूँ, और अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ने का फैसला मैंने बहुत सोच-समझकर लिया है। आपको मेरा सहयोग करना चाहिए!” वो बहुत गुस्सा हुए, और कहा : “मैंने इतने सालों से तुम्हें पाला-पोसा, और तुम हमें यूँ ही छोड़ रही हो। अब मुझे सब साफ दिख रहा है। मैंने एक एहसान-फरामोश कमबख्त को पाला है!” ये बातें सुनकर, मैं बहुत परेशान हो गई, और अपने आँसू बहने से नहीं रोक सकी। मुझे याद आया कि बचपन में जब मैं बीमार पड़ी थी, तो कैसे मेरे डैड सारी रात जागकर मुझे पकड़े रहते थे, मेरा ध्यान रखते थे, और कैसे मेरे माँ-बाप मुझे अच्छा जीवन देने के लिए कड़ी मेहनत करके पैसे कमाते थे। मगर अब, न सिर्फ मैं उनकी सेवा नहीं कर रही थी, बल्कि उनके साथ भी नहीं रह रही थी। उनकी बेटी होने के नाते मैंने अपनी जिम्मेदारी बिलकुल नहीं निभाई। अपने डैड को गुस्से में जाते देख, मैंने खुद को कसूरवार महसूस किया; मैं अपने माँ-बाप के साथ रहकर उनके साथ अधिक समय बिताना चाहती थी। मगर तब, मैंने परमेश्वर के बारे में सोचा। पहले जब मैं परमेश्वर में विश्वास नहीं करती थी, तो अक्सर अंदर से खोखली महसूस करती थी, और मुझे इस दुनिया में अपने अस्तित्व का मतलब नहीं पता था। परमेश्वर में विश्वास करने के बाद, उसके वचन पढ़कर मैंने समझा कि मनुष्यों को परमेश्वर ने बनाया है, और परमेश्वर ने मुझे यह साँस दी है। इस दुनिया में मेरा अपना मकसद है। तब जाकर मुझे अपने अस्तित्व का मूल्य पता लगा, और अब मैं खोखली और हताश नहीं थी। परमेश्वर से इतना सारा प्रेम पाने के बाद, मैं अंतरात्मा से विहीन होकर अपना कर्तव्य निभाना नहीं छोड़ सकती थी। तब, मुझे अपने देह-सुख के खिलाफ विद्रोह करने की शक्ति मिली, और मैं अपना कर्तव्य निभाने चली गई।
2019 में, एक बार अपना कर्तव्य निभाते हुए मुझे गिरफ्तार कर लिया गया। पूछताछ के दौरान, पुलिस मेरे चाचा को नजरबंदी केंद्र लेकर आई, और बताया कि वो मेरे असली डैड हैं। उन्होंने मुझे फौरन कलीसिया के हालात के बारे में बताने को कहा, ताकि मैं घर जाकर अपने असली माँ-बाप से मिल सकूँ। मैंने कुछ नहीं कहा। आखिर में, मेरे चाचा ने पैसे देकर मुझे पुलिस की हिरासत से छुड़ाया। पुलिस को लगा कि मैं अपने माँ-बाप को देखकर परमेश्वर में विश्वास कर रही थी, तो उन्होंने मुझे घर जाने या उनसे संपर्क करने नहीं दिया। उन्होंने मेरे चाचा को मुझे दूसरी जगह ले जाने दिया। क्योंकि मेरे चाचा ने मेरी जमानत करवाई, तो पुलिस लगभग हर दिन फोन करके उन्हें डराती। मेरे चाचा ने कम्युनिस्ट पार्टी से सुनी अफवाहों पर विश्वास करके मुझे परमेश्वर में विश्वास करने से रोकने की कोशिश की। उन्होंने कहा : “तुम अब बड़ी हो चुकी हो, थोड़ी तो समझ रखो। तुम्हारी माँ और मैं, और तुम्हें गोद लेने वाले माँ-बाप इस तरह कष्ट में नहीं जी सकते। तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने के कारण, पुलिस रोज हमें फोन करके धमकाती है। मैं बूढ़ा हो चुका हूँ। पुलिस ने मुझे फटकार लगाई, फिर भी मैंने बेशर्मों की तरह तुम्हारा साथ दिया। जानती हो ये सब मेरे लिए कितना मुश्किल है?” अपने असली डैड और गोद लेने वाले मॉम-डैड को मेरे झमेले में ऐसे फँसते देखकर, मुझे बहुत पीड़ा हुई। पुराने जमाने में लोग कहा करते थे : “संतानोचित धर्मनिष्ठ ऐसा गुण है जिसे सबसे ऊपर रखना चाहिए।” हर बच्चे को अपने माँ-बाप की सेवा करना और उनकी चिंताओं को कम करना चाहिए। मेरे गोद लेने वाले माँ-बाप ने इतने सालों से मुझे पाला-पोसा, और मेरे असली माँ-बाप को मेरी जमानत कराने के लिए पुलिस को 140,000 युआन देने पड़े। मैं बहुत कसूरवार महसूस कर रही थी। पहले, अपने कर्तव्य निभाने के कारण मैं अपने माँ-बाप के साथ रहकर उनकी देखभाल नहीं कर पाई, और अब परमेश्वर में विश्वास करने के कारण गिरफ्तार हो गई, जिससे वो भी मेरे कष्ट में भागीदार बन गए। मैंने संतान होने की एक भी जिम्मेदारी नहीं निभाई; मैंने उन पर सिर्फ बोझ लादे। इस बारे में जितना सोचती, मुझे उतना ही बुरा लगता, मैंने तो यह भी सोचा : “क्या यह सच है कि परमेश्वर में विश्वास करना छोड़ देने से ही मेरी पारिवारिक समस्याएँ दूर हो जाएँगी? क्या यह सच है कि मेरे मरने के बाद ही पुलिस मेरे परिवार पर कड़ी नजर रखना बंद करेगी, और तब मेरे माँ-बाप को प्रताड़ित और अपमानित नहीं किया जाएगा?” उस वक्त मुझ पर बहुत दबाव था। मैं जानती थी कि मेरे मन में परमेश्वर को धोखा देने के खयाल आ रहे थे, और लगा कि मैं उसकी ऋणी हूँ, पर जैसे ही मैं सोचती कि कैसे मेरे गोद लेने वाले और असली माँ-बाप मेरे झमेले में फँस गए हैं, तो बहुत कसूरवार महसूस करती। दोनों तरफ से खिंचाव था और मैं शांत नहीं हो पा रही थी।
उस दौरान, परमेश्वर में विश्वास करने से रोकने के लिए मेरे चाचा-चाची ने मुझे काम करने के लिए मजबूर किया। उन्होंने मेरे सहकर्मियों को मुझ पर नजर रखने को भी कहा, और अगर मैं कभी देर से घर आती, तो वो मेरे साथ पूछताछ करते : “कहाँ थी तुम? किसके साथ थी?” मेरी चाची ने परमेश्वर में विश्वास करना छोड़ने का दबाव बनाने के लिए घुटने टेककर मुझसे भीख तक माँगी, और खाना खाने से भी इनकार किया। ऐसी परिस्थितियों का सामना करते हुए, मैं मानसिक रूप से टूटने लगी थी। मुझे लगा कि इस घर में मुझे कोई आजादी नहीं है और खासकर कोई निजी अधिकार नहीं है। लगा जैसे कोई मेरा गला घोंट रहा हो और मैं साँस लेने के लिए तड़प रही हूँ। मैं विरोध करना, और उनसे बहस करना चाहती थी : “सिर्फ परमेश्वर में विश्वास के कारण आप लोग मेरे साथ ऐसा बर्ताव क्यों करते हैं?” मगर जैसे ही ख्याल आता कि कैसे वो मेरे कारण ही इस मुसीबत में फँसे हैं और उन पर इतना बड़ा जुर्माना लगा है, तो मेरे दिल में प्रतिरोध गायब हो जाता। लगा कि मैं ही संतानोचित दायित्व नहीं निभा रही थी, उनके पास मेरे साथ ऐसा बर्ताव करने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था, और माँ-बाप हमेशा सही होते हैं। खासकर जब मैंने सोचा कि कैसे पिछले कुछ सालों में अपने माँ-बाप का साथ देकर संतानोचित दायित्व निभाने के लिए मैं उनके साथ नहीं रह सकी, तो मुझे और अधिक लगा कि मैंने उन्हें निराश किया है। उस दौरान, अपने माँ-बाप का ऋण चुकाने के लिए मैंने ऐड़ी-चोटी का दम लगा दिया। मैंने उनके लिए हेल्थकेयर प्रोडक्ट खरीदे, घर का सारा काम संभाला, और काम करके पैसे कमाने की भरसक कोशिश की। मैं रोज देर रात ओवरटाइम काम करने की कठिनाई को खुशी-खुशी सहती रही। मैं ज्यादा पैसे कमाकर उन्हें थोड़ी और खुशी देना चाहती थी। मुझे पता ही नहीं चला कि कब परमेश्वर और मेरे बीच दूरियाँ बढ़ती गईं।
कुछ समय बाद, पुलिस ने फोन करके कहा कि वो मुझे अपने साथ लेकर जाएँगे, वे कलीसिया के हालात के बारे में मुझसे पूछताछ करना चाहते थे। मैं जानती थी कि अगर मैं घर पर ही रही, तो गिरफ्तार की जा सकती हूँ, मगर यह भी सोचा कि अगर मैं चली गई, तो पता नहीं फिर कब वापस आ पाऊँगी। और फिर, अगर पुलिस को मैं नहीं मिली, तो क्या वो मेरी जगह मेरे माँ-बाप और चाचा-चाची को ले जाएँगे? अगर सच में ऐसा हुआ, तो मैं कितनी कृतघ्न कहलाऊँगी। मेरे मन में सिर्फ मेरे माँ-बाप की बातें चल रही थीं : मेरी चाची चाहती थी मैं उनके साथ रहूँ और मेरा एक अच्छा परिवार हो। मेरे चाचा ने कहा कि मैं बड़ी और समझदार हूँ, और मुझे उनके बारे में सोचना होगा। मेरे डैड चाहते थे कि मैं उनके प्रति संतानोचित दायित्व निभाऊँ और एहसान-फरामोश संतान न बनूँ। उस पल, मुझे लगा जैसे सब कुछ खत्म हो रहा है। तब मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर, पुलिस मुझे गिरफ्तार करने वाली है, तो मैं घर पर नहीं रह सकती। मगर लगता है अगर मैं चली गई, तो एहसान-फरामोश और बिना जमीर वाली कहलाऊँगी। मैं बेहद पीड़ा में हूँ। परमेश्वर, मुझे क्या करना चाहिए? मेरा मार्गदर्शन करो!” प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश याद किया। “यदि यह सृजनकर्ता द्वारा पूर्वनिर्धारित और उसका मार्गदर्शन न होता, तो इस संसार में जन्मा प्राणी कभी न जान पाता कि कहाँ जाना है या कहाँ रहना है, किसी से उसका कोई रिश्ता न होता, वह किसी का अपना न होता, और उसका कोई असली घर न होता। किन्तु सृजनकर्ता की अत्यंत कुशल व्यवस्थाओं की वजह से, इस नवजीवन के पास रहने के लिए एक जगह, माता-पिता, एक स्थान जो उसका अपना होता है, और रिश्तेदार मिलते हैं, और इसलिए वह नवजीवन अपनी ज़िंदगी की यात्रा शुरू करता है। इस पूरी प्रक्रिया में, इस नवजीवन को कैसे मूर्त रूप देना है, यह सृजनकर्ता की योजनाओं द्वारा निर्धारित किया जाता है, हर एक चीज़ जो उसे प्राप्त होती है, वह उसे सृजनकर्ता द्वारा प्रदान की जाती है। मुक्त ढंग से बहती एक देह, जिसका कोई अस्तित्व न था, धीरे-धीरे मांस-और-रक्त का रूप ले लेती है, एक दृश्यमान, साकार मनुष्य का रूप धारण कर लेती है, परमेश्वर की एक रचना बन जाती है, जो सोचती है, साँस लेती है, जिसे सर्दी-गर्मी का एहसास होता है, जो भौतिक संसार में सृजित प्राणियों के सभी सामान्य क्रियाकलापों में शामिल हो सकती है; और जो उन सभी स्थितियों का सामना करती है जिनका अनुभव उन सभी लोगों को करना होता है जिनका जन्म हुआ है। सृजनकर्ता द्वारा किसी व्यक्ति के जन्म के पूर्व निर्धारण का अर्थ है कि वह उस व्यक्ति को वो सभी आवश्यक चीज़ें प्रदान करेगा जो जीवित रहने के लिए चाहिए; और उसी प्रकार किसी व्यक्ति के जन्म लेने का अर्थ है कि जीवित रहने के लिए आवश्यक सभी चीज़ें उसे सृजनकर्ता द्वारा प्राप्त होंगी, और उसके बाद से, वह सृजनकर्ता द्वारा प्रदान किए गए और उसकी संप्रभुता के अधीन, किसी अन्य रूप में जीवन बिताएगा” (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है III)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने समझा कि मैं बस अकेली और आजाद इंसान हूँ। परमेश्वर ने मेरे लिए एक परिवार और माँ-बाप की व्यवस्था की; इस पर परमेश्वर की सत्ता थी। मगर इस संसार में मेरा जन्म सिर्फ पारिवारिक सुख का आनंद लेने और माँ-बाप के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाने के लिए नहीं हुआ, बल्कि मेरे लिए सृजित प्राणियों से अपेक्षित जिम्मेदारी और मकसद को पूरा करना ज्यादा जरूरी है। अब, मैं अपने माँ-बाप को संतुष्ट करने के लिए अपना कर्तव्य त्यागने की सोच रही थी। परमेश्वर ये सब नहीं देखना चाहता था। परमेश्वर ने मुझे सब कुछ दिया है; मैं अपना कर्तव्य त्यागकर उसे धोखा नहीं दे सकती थी। उसके बाद, मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ दिया।
जल्द ही, मुझे पता चला कि पुलिस मुझे गिरफ्तार नहीं कर पाई, तो वह मेरे चाचा को साथ ले गई। उन्होंने कहा कि वो उन्हें तभी छोड़ेंगे जब मैं वापस आऊँगी। उस वक्त, मेरा सिर चकराने लगा, और लगा जैसे मैं अपने चाचा की ऋणी हूँ। मैं हर हाल में उन्हें पुलिस की हिरासत से छुड़वाना चाहती थी। मेरा अपना कर्तव्य निभाने का मन नहीं था, मैं बस अपने परिवार वालों की बातों और चेहरों को याद कर रही थी। मुझे लगा कि उनके साथ ये सब मेरे कारण हुआ था, खासकर जब मेरे चाचा को गिरफ्तार किया गया; मैं नहीं जानती थी कि पुलिस उनके साथ कैसा बर्ताव करेगी। क्या वो उन्हें पीटेगी? इस बारे में जितना सोचती, मुझे उतनी ही पीड़ा होती, मैंने मन-ही-मन प्रार्थना की : “परमेश्वर, आज मैं ऐसे हालात का सामना कर रही हूँ, और नहीं जानती कि इन्हें कैसे अनुभव करूँ। मेरा दिल पीड़ा में है, और कर्तव्य निभाने का बिलकुल भी मन नहीं कर रहा। मैं इस मनोदशा में नहीं जीना चाहती। परमेश्वर, मुझे क्या करना चाहिए? इस मनोदशा को बदलने के लिए मैं तुमसे रास्ता दिखाने की विनती करती हूँ।” प्रार्थना के बाद, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा : “कुछ लोग अपने परिवारों को त्याग देते हैं क्योंकि वे परमेश्वर में विश्वास करते हैं और अपने कर्तव्यों का पालन करते हैं। वे इस वजह से प्रसिद्ध हो जाते हैं और सरकार अक्सर उनके घर की तलाशी लेती है, उनके माता-पिता को परेशान करती है और यहाँ तक कि उनके माता-पिता को उन्हें सौंपने के लिए धमकाती भी है। उनके सभी पड़ोसी उनके बारे में बात करते हुए कहते हैं, ‘इस आदमी में जरा भी अंतरात्मा नहीं है। वह अपने बुजुर्ग माता-पिता की परवाह नहीं करता। न केवल वह संतानोचित आचरण नहीं करता, बल्कि वह अपने माता-पिता के लिए बहुत परेशानी का कारण भी है। वह माता-पिता के प्रति अनुचित आचरण करने वाली संतान है!’ क्या इनमें से एक भी शब्द सत्य के अनुरूप है? (नहीं।) लेकिन क्या ये सभी शब्द गैर-विश्वासियों की नजर में सही नहीं माने जाते? गैर-विश्वासियों के बीच उन्हें लगता है कि इसे देखने का यह सबसे वैध और तर्कसंगत तरीका है, और यह मानवीय नैतिकता के अनुरूप है, और मानव आचरण के मानकों के अनुरूप है। इन मानकों में चाहे कितनी ही चीजें शामिल हों, जैसे माता-पिता के प्रति संतानवत सम्मान कैसे दिखाया जाए, बुढ़ापे में उनकी देखभाल कैसे की जाए और उनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था कैसे की जाए, या उनकी कितनी देखभाल की जाए, और बेशक ये मानक सत्य के अनुरूप हों या नहीं, गैर-विश्वासियों की नजर में वे सकारात्मक चीजें होती हैं, वे सकारात्मक ऊर्जा हैं, वे सही चीजें हैं, और लोगों के सभी लोगों के समूहों में उन्हें अनिंद्य माना जाता है। गैर-विश्वासियों में लोगों के लिए जीवन का यही मानक हैं, और तुम्हें उनके दिलों में ठीक-ठाक अच्छा इंसान बनने के लिए ये चीजें करनी होंगी। तुम्हारे परमेश्वर में विश्वास करने तथा सत्य को समझने के पहले क्या तुम्हारा भी दृढ़ विश्वास नहीं था कि इस तरह का आचरण करना ही अच्छा इंसान होना है? (हाँ।) इसके अलावा तुम स्वयं अपना मूल्यांकन करने और स्वयं को सीमित करने के लिए भी इन चीजों का उपयोग करते थे और तुम खुद को इसी प्रकार का व्यक्ति बनाना चाहते थे। यदि तुम अच्छा इंसान बनना चाहते थे तो तुमने निश्चित रूप से इन चीजों को अपने आचरण के मानकों में शामिल किया होगा : अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित आचरण कैसे करें, उनकी चिंताएँ कम कैसे करें, उन्हें सम्मान और श्रेय कैसे दिलाएँ, और अपने पूर्वजों को गौरवान्वित कैसे करें। तुम्हारे दिल में आचरण के यही मानक थे और तुम्हारे आचरण की दिशा यही थी। हालाँकि जब तुम लोगों ने परमेश्वर के वचनों और उसके उपदेशों को सुना तो तुम्हारा दृष्टिकोण बदलना शुरू हो गया, और तुम समझ गए कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपने कर्तव्य को निभाने के लिए तुम्हें सब कुछ त्यागना होगा, और कि परमेश्वर चाहता है कि लोग इस तरह का आचरण करें। यह निश्चित करने से पहले कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना सत्य है, तुम सोचते थे कि तुम्हें अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित व्यवहार करना चाहिए, लेकिन तुम्हें यह भी लगता था कि एक सृजित प्राणी के रूप में तुम्हें अपना कर्तव्य निभाना चाहिए, और तुम्हें अपने अंदर इनके बीच संघर्ष की स्थिति महसूस होती थी। परमेश्वर के वचनों के निरंतर सिंचन और मार्गदर्शन के माध्यम से तुम धीरे-धीरे सत्य को समझने लगे, और तब तुम्हें एहसास हुआ कि एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाना पूरी तरह से प्राकृतिक और उचित है। आज तक बहुत से लोग सत्य को स्वीकार करने और मनुष्य की पारंपरिक धारणाओं और कल्पनाओं से आचरण के मानकों को पूरी तरह से त्यागने में सक्षम हुए हैं। जब तुम इन चीजों को पूरी तरह से छोड़ देते हो, तो जब तुम परमेश्वर का अनुसरण करते हो और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाते हों, तो तुम गैर-विश्वासियों की आलोचना और उनकी निंदा से सीमित नहीं रह जाते, और तुम उन्हें आसानी से त्याग सकते हो” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, सत्य वास्तविकता क्या है?)। परमेश्वर के वचन पढ़कर, मैं बहुत प्रेरित हुई। अधिकतर, मैं जमीर के मानक के आधार पर सही-गलत में अंतर करती थी, पर यह सत्य के अनुरूप नहीं है। मेरा जीवन परमेश्वर से शुरू होता है; परमेश्वर ने मेरी आत्मा को इस संसार में उतारा और मेरे लिए एक परिवार और माँ-बाप की व्यवस्था की, अंत के दिनों में परमेश्वर का उद्धार स्वीकारने के लिए मुझे चुना, और एक सृजित प्राणी के रूप में अपना कर्तव्य निभाने का अवसर दिया। यह परमेश्वर का प्रेम और अनुग्रह है। मगर क्योंकि मेरे चाचा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया, तो लगा कि मेरे परिवार पर यह मुसीबत परमेश्वर में मेरे विश्वास के कारण आई है, और मैं अपना कर्तव्य निभाना छोड़कर परमेश्वर को धोखा देना चाहती थी। मैं कितनी बेवकूफ थी! आज तक, मेरे परिवार ने जो कुछ भी झेला है वो उस दानव, कम्युनिस्ट पार्टी का किया-कराया है। उन्होंने परमेश्वर का विरोध किया और ईसाइयों को सताया, मेरे परिवार को परेशान किया और चाचा को गिरफ्तार किया, और ऐसी हालत कर दी कि मेरे माँ-बाप एक दिन भी चैन से न बिता सकें। असली गुनाहगार तो कम्युनिस्ट पार्टी थी! मगर मैंने कम्युनिस्ट पार्टी से नफरत नहीं की, बल्कि सोचा कि परमेश्वर में मेरे विश्वास के कारण ही मेरा परिवार मुसीबत में है। मैं वाकई सही-गलत में अंतर नहीं कर पाई। अब, मैं जानती हूँ कि मेरे लिए परमेश्वर का अनुसरण करना और अपना कर्तव्य निभाना बिलकुल स्वाभाविक और उचित था। लोगों के पास यही जमीर और विवेक होना चाहिए! मैंने परमेश्वर के वचनों का एक और अंश याद किया : “किसी व्यक्ति को जितना भी दुख भोगना है और अपने मार्ग पर जितनी दूर तक चलना है, वह सब परमेश्वर ने पहले से ही तय किया होता है, और इसमें सचमुच कोई किसी की मदद नहीं कर सकता” (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, मार्ग ... (6))। चाहे कोई परमेश्वर में विश्वास करता हो या नहीं, हरेक व्यक्ति का जीवन परमेश्वर के हाथों में है, उस पर परमेश्वर का नियंत्रण और शासन है। परमेश्वर पहले से तय कर चुका है कि कौन कितना कष्ट सहेगा, और हम उसे बदल नहीं सकते। मेरे असली माँ-बाप और गोद लेने वाले माँ-बाप का जीवन भी परमेश्वर के हाथों में है; मुझे उन्हें परमेश्वर के भरोसे छोड़ देना चाहिए। और फिर, मैंने मन-ही-मन परमेश्वर से प्रार्थना की, मैं सब कुछ परमेश्वर के भरोसे छोड़कर उसकी व्यवस्था के प्रति समर्पित होने को तैयार थी। उसके बाद, मैंने खुद को कर्तव्य निभाने में झोंक दिया।
फिर, मैंने परमेश्वर के वचनों का एक अंश पढ़ा जिससे मुझे मेरी मनोदशा के बारे में थोड़ी और समझ मिली। सर्वशक्तिमान परमेश्वर कहते हैं : “चीनी परंपरागत संस्कृति के अनुकूलन के कारण चीनी लोगों की परंपरागत धारणाओं में यह माना जाता है कि लोगों को अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा रखनी चाहिए। जो भी संतानोचित निष्ठा का पालन नहीं करता, वह कपूत होता है। ये विचार बचपन से ही लोगों के मन में बिठाए गए हैं, और ये लगभग हर घर में, साथ ही हर स्कूल में और बड़े पैमाने पर पूरे समाज में सिखाए जाते हैं। जब किसी व्यक्ति का दिमाग इस तरह की चीजों से भर जाता है, तो वह सोचता है, ‘संतानोचित निष्ठा किसी भी चीज से ज्यादा महत्वपूर्ण है। अगर मैं इसका पालन नहीं करता, तो मैं एक अच्छा इंसान नहीं हूँ—मैं कपूत हूँ और समाज मेरी निंदा करेगा। मैं ऐसा व्यक्ति हूँगा, जिसमें जमीर नहीं है।’ क्या यह नजरिया सही है? लोगों ने परमेश्वर द्वारा व्यक्त इतने अधिक सत्य देखे हैं—क्या परमेश्वर ने अपेक्षा की है कि व्यक्ति अपने माता-पिता के प्रति संतानोचित निष्ठा दिखाए? क्या यह कोई ऐसा सत्य है, जिसे परमेश्वर के विश्वासियों को समझना ही चाहिए? नहीं, यह ऐसा सत्य नहीं है। परमेश्वर ने केवल कुछ सिद्धांतों पर संगति की है। परमेश्वर के वचन किस सिद्धांत द्वारा लोगों से दूसरों के साथ व्यवहार किए जाने की अपेक्षा करते हैं? परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो : यही वह सिद्धांत है, जिसका पालन किया जाना चाहिए। परमेश्वर सत्य का अनुसरण करने और उसकी इच्छा का पालन कर सकने वालों से प्रेम करता है; हमें भी ऐसे लोगों से प्रेम करना चाहिए। जो लोग परमेश्वर की इच्छा का पालन नहीं कर सकते, जो परमेश्वर से नफरत और विद्रोह करते हैं—परमेश्वर ऐसे लोगों का तिरस्कार करता है, और हमें भी उनका तिरस्कार करना चाहिए। परमेश्वर इंसान से यही अपेक्षा करता है। अगर तुम्हारे माता-पिता परमेश्वर में विश्वास नहीं रखते, यदि वे अच्छी तरह जानते हैं कि परमेश्वर में विश्वास सही मार्ग है और यह उनका उद्धार कर सकता है, फिर भी ग्रहणशील नहीं होते, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे सत्य से विमुख रहने वाले और नफरत करने वाले लोग हैं और वे परमेश्वर का विरोध और उससे नफरत करते हैं—और स्वाभाविक तौर पर परमेश्वर उनसे अत्यंत घृणा और नफरत करता है। क्या तुम ऐसे माता-पिता से अत्यंत घृणा कर सकते हो? वे परमेश्वर का विरोध और उसकी आलोचना करते हैं—ऐसे में वे निश्चित रूप से दानव और शैतान हैं। क्या तुम उनसे नफरत कर उन्हें धिक्कार सकते हो? ये सब वास्तविक प्रश्न हैं। यदि तुम्हारे माता-पिता तुम्हें परमेश्वर में विश्वास रखने से रोकें, तो तुम्हें उनके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? जैसा कि परमेश्वर चाहता है, परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो। अनुग्रह के युग के दौरान, प्रभु यीशु ने कहा : ‘कौन है मेरी माता? और कौन हैं मेरे भाई?’ ‘क्योंकि जो भी मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा के अनुसार चलेगा, वही मेरा भाई, मेरी बहिन और मेरी माँ है।’ ये वचन अनुग्रह के युग में पहले से मौजूद थे, और अब परमेश्वर के वचन और भी अधिक स्पष्ट हैं : ‘परमेश्वर जिससे प्रेम करता है उससे प्रेम करो, और जिससे वह घृणा करता है उससे घृणा करो।’ ये वचन बिलकुल सीधे हैं, फिर भी लोग अकसर इनका वास्तविक अर्थ नहीं समझ पाते। अगर कोई व्यक्ति ऐसा है, जो परमेश्वर को नकारता और उसका विरोध करता है, जो परमेश्वर द्वारा शापित है, लेकिन वह तुम्हारी माता या पिता या कोई संबंधी है, और जहाँ तक तुम जानते हो वह कोई दुष्ट व्यक्ति प्रतीत नहीं होता है और तुम्हारे साथ अच्छा व्यवहार करता है, तो संभवतः तुम उस व्यक्ति से घृणा न कर पाओ, यहाँ तक कि उसके निकट संपर्क में बने रहो, तुम्हारे संबंध अपरिवर्तित रहें। यह सुनना कि परमेश्वर ऐसे लोगों से नफरत करता है, तुम्हें परेशान करेगा, और तुम परमेश्वर के पक्ष में खड़े नहीं हो पाओगे और उन लोगों को निर्ममता से नकार नहीं पाओगे। तुम हमेशा भावनाओं से बेबस रहते हो, और तुम उन्हें पूरी तरह छोड़ नहीं सकते। इसका क्या कारण है? ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि तुम्हारी भावनाएँ बहुत तीव्र हैं और ये तुम्हें सत्य का अभ्यास करने से रोकती हैं। वह व्यक्ति तुम्हारे लिए अच्छा है, इसलिए तुम उससे नफरत नहीं कर पाते। तुम उससे तभी नफरत कर पाते हो, जब उसने तुम्हें चोट पहुँचाई हो। क्या यह नफरत सत्य सिद्धांतों के अनुरूप होगी? साथ ही, तुम परंपरागत धारणाओं से भी बँधे हो, तुम सोचते हो कि वे माता-पिता या रिश्तेदार हैं, इसलिए अगर तुम उनसे नफरत करोगे, तो समाज तुम्हारा तिरस्कार करेगा और जनमत तुम्हें धिक्कारेगा, कपूत, अंतरात्मा से विहीन, यहाँ तक कि अमानुष कहकर तुम्हारी निंदा करेगा। तुम्हें लगता है कि तुम्हें इसके लिए दैवीय निंदा और दंड भुगतना होगा। भले ही तुम उनसे नफरत करना चाहो, लेकिन तुम्हारी अंतरात्मा तुम्हें ऐसा नहीं करने देगी। तुम्हारी अंतरात्मा इस तरह काम क्यों करती है? इसका कारण यह है कि अपनी पारिवारिक विरासत, माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा और परंपरागत संस्कृति की समझ के जरिए तुम्हारे मन में बचपन से ही सोचने का एक ढर्रा बैठा दिया गया है। सोचने का यह ढर्रा तुम्हारे मन में बहुत गहरे पैठा हुआ है, और इसके कारण तुम गलती से यह विश्वास करते हो कि संतानोचित निष्ठा पूरी तरह स्वाभाविक और उचित है, और अपने पुरखों से विरासत में मिली हर चीज हमेशा अच्छी होती है। पहले तुमने इसे सीखा और फिर यह तुम पर हावी हो जाता है, तुम्हारी आस्था में और सत्य स्वीकारने में आड़े आकर व्यवधान डालता है, और तुम्हें इस लायक नहीं छोड़ता कि तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में ला सको, तुम उससे प्रेम कर सको जिससे परमेश्वर प्रेम करता है और उससे घृणा कर सको जिससे परमेश्वर घृणा करता है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। परमेश्वर के वचनों से, मैंने समझा कि शैतान लोगों को भ्रष्ट करने के लिए सभी तरह के साधन इस्तेमाल करता है। जैसे कि हमारे माँ-बाप का मार्गदर्शन, स्कूल की पढ़ाई, और हमारे आस-पास के लोगों की राय ने हमें यह मानने पर मजबूर किया कि हमारे माँ-बाप ने हमें पाला है, तो हमें उनकी दयालुता का ऋण चुकाना चाहिए, और यही मानवता और जमीर वाला इंसान होने का अर्थ है। वरना, हम बिना जमीर वाले, एहसान-फरामोश कहलाएँगे और दूसरों द्वारा ठुकराए जाएँगे। बचपन से ही, मेरे मन में ये विचार और दृष्टिकोण डाले गए थे, जैसे कि “संतानोचित धर्मनिष्ठा ऐसा गुण है जिसे सबसे ऊपर रखना चाहिए,” “माँ-बाप हमेशा सही होते हैं,” “माँ-बाप के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाना बिलकुल स्वाभाविक और उचित है।” क्योंकि मुझमें ये पारंपरिक विचार और दृष्टिकोण मौजूद थे, तो जब मैंने अपना कर्तव्य निभाने के लिए घर छोड़ा और अपने माँ-बाप की देखभाल नहीं कर पाई, तो खुद को कसूरवार माना। मेरा कर्तव्य निभाने का मन नहीं करता था, और मुझे इसके लिए घर छोड़ने का पछतावा होता था। जब मैंने चाचा को मेरी जमानत कराने के लिए 140,000 युआन देते देखा, और मुझे पता चला कि पुलिस ने उन्हें परेशान किया और गिरफ्तार भी किया, तो मैं यह मान बैठी कि मेरा परिवार आज इस मुसीबत में इसलिए है क्योंकि मैंने परमेश्वर में विश्वास किया, और मैं अपना कर्तव्य छोड़कर परमेश्वर को धोखा देना और यहाँ तक कि खुदखुशी भी करना चाहती थी। मेरे चाचा-चाची ने मेरी आजादी छीन ली और नजर रखने लगे कि मैं कहाँ आती-जाती हूँ, ताकि मुझे परमेश्वर में विश्वास करने से रोक सकें। मेरी चाची ने घुटने टेक दिए और खाना भी छोड़ दिया ताकि मुझे परमेश्वर में विश्वास करना छोड़ने पर मजबूर कर सके। मैं बेहद पीड़ा में थी और बहुत दबाव महसूस कर रही थी। मगर मुझमें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं थी, न ही मैं ऐसा करना चाहती थी। मैं मानती थी कि “माँ-बाप हमेशा सही होते हैं” और उनकी संतान होकर, उन्हें इतनी कठिनाई झेलने देना, इस हद तक कि मेरी चाची ने घुटने टेककर मुझसे भीख तक माँगी, इसका मतलब था मैं बहुत एहसान-फरामोश थी। भले ही उस वक्त मैं जानती थी कि उनकी बात मानकर अपना कर्तव्य न निभाना परमेश्वर को धोखा देने के बराबर होगा, और मैं सत्य को पाने का अपना मौका खो दूँगी, मगर मुझमें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं थी। भले ही मैंने कभी नहीं कहा कि मैं परमेश्वर में विश्वास करना बंद कर दूँगी, मगर पूरे साल मेरे बर्ताव से यह दिख रहा था कि मैंने शैतान और पारंपरिक सोच के आगे हार मान ली थी। सिर्फ अपराध और कलंक बाकी रह गए थे; मैंने बार-बार परमेश्वर को धोखा दिया। अब, यह स्पष्ट था कि भले ही अपने माँ-बाप की संतानोचित सेवा करना सकारात्मक है, पर यह सत्य नहीं था, क्योंकि ऐसे दृष्टिकोण से मुझमें सिद्धांतों की कमी होगी, और मैं अच्छे-बुरे या सही-गलत में अंतर नहीं कर पाऊँगी। मेरे चाचा-चाची ने मुझे परमेश्वर में विश्वास करने से रोकने की कोशिश की, चोरी-छिपे किसी बंदी की तरह रखा, और परमेश्वर के बारे में तिरस्कारपूर्ण शब्द कहे। उन्होंने यहाँ तक कहा कि जब तक वो जिंदा हैं, मरते दम तक मुझे परमेश्वर में विश्वास करने की इजाजत नहीं देंगे, अगर मैंने परमेश्वर को चुना, तो अपना परिवार खो दूँगी, और अगर परिवार को चुना, तो परमेश्वर को खो दूँगी। उनका सार सत्य और परमेश्वर के प्रति शत्रुता वाला था। फिर, मेरे गोद लेने वाले डैड मुझे कभी आगे न बढ़ने देकर शैतान के नौकर की नकारात्मक भूमिका निभा रहे थे। मुझे उन्हें पहचान लेना चाहिए था, परमेश्वर जिससे प्यार करता है उससे प्यार करना और जिससे नफरत करता है उससे नफरत करनी चाहिए थी। मगर मैं मानती थी कि “संतानोचित धर्मनिष्ठा ऐसा गुण है जिसे सबसे ऊपर रखना चाहिए,” और ऐसी पारंपरिक सोच मुझसे परमेश्वर का विरोध करवा रही थी। मैं अपना कर्तव्य निभाना छोड़कर परमेश्वर को धोखा देने ही वाली थी। अब मैं जान गई कि शैतान लोगों में जो विचार और दृष्टिकोण डालता है, उनमें उसकी कुटिल साजिशें होती हैं। वो लोगों को गुमराह करते और नुकसान पहुँचाते हैं।
बाद में, मैंने परमेश्वर के वचनों का यह अंश पढ़ा। “तो लोगों की बात करें, तो तुम्हारे माता-पिता ने सावधानी से तुम्हारी देखभाल की हो या तुम्हारी बहुत परवाह की हो, किसी भी स्थिति में, वे बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे। तुम्हें उन्होंने जिस भी कारण से पाल-पोस कर बड़ा किया हो, यह उनकी जिम्मेदारी थी—चूँकि उन्होंने तुम्हें जन्म दिया, इसलिए उन्हें तुम्हारी जिम्मेदारी उठानी चाहिए। इस आधार पर, जो कुछ भी तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हारे लिए किया, क्या उसे दयालुता कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता, सही है? (सही है।) तुम्हारे माता-पिता का तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करने को दयालुता नहीं माना जा सकता, तो अगर वे किसी फूल या पौधे के प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी करते हैं, उसे सींच कर उसे खाद देते हैं, तो क्या उसे दयालुता कहेंगे? (नहीं।) यह दयालुता से कोसों दूर की बात है। फूल और पौधे बाहर बेहतर ढंग से बढ़ते हैं—अगर उन्हें जमीन में लगाया जाए, उन्हें हवा, धूप और बारिश का पानी मिले, तो वे पनपते हैं। वे घर के अंदर गमलों में बाहर जैसे अच्छे ढंग से नहीं पनपते, लेकिन वे जहाँ भी हों, जीवित रहते हैं, है ना? वे चाहे जहाँ भी हों, इसे परमेश्वर ने नियत किया है। तुम एक जीवित व्यक्ति हो, और परमेश्वर प्रत्येक जीवन की जिम्मेदारी लेता है, उसे इस योग्य बनाता है कि वह जीवित रहे और उस विधि का पालन करे जिसका सभी सृजित प्राणी पालन करते हैं। लेकिन एक इंसान के रूप में, तुम उस माहौल में जीते हो, जिसमें तुम्हारे माता-पिता तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करते हैं, इसलिए तुम्हें उस माहौल में बड़ा होना और टिके रहना पड़ता है। उस माहौल में तुम काफी हद तक परमेश्वर द्वारा नियत होने के कारण जी रहे हो; कुछ हद तक इसका कारण अपने माता-पिता के हाथों पालन-पोषण है, है ना? किसी भी स्थिति में, तुम्हें पाल-पोसकर तुम्हारे माता-पिता एक जिम्मेदारी और एक दायित्व निभा रहे हैं। तुम्हें पाल-पोस कर वयस्क बनाना उनका दायित्व और जिम्मेदारी है, और इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता। अगर इसे दयालुता नहीं कहा जा सकता, तो क्या यह ऐसी चीज नहीं है जिसका तुम्हें मजा लेना चाहिए? (जरूर है।) यह एक प्रकार का अधिकार है जिसका तुम्हें आनंद लेना चाहिए। तुम्हें अपने माता-पिता द्वारा पाल-पोस कर बड़ा किया जाना चाहिए, क्योंकि वयस्क होने से पहले तुम्हारी भूमिका एक पाले-पोसे जा रहे बच्चे की होती है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे प्रति सिर्फ एक जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं, और तुम बस इसे प्राप्त कर रहे हो, लेकिन निश्चित रूप से तुम उनसे अनुग्रह या दया प्राप्त नहीं कर रहे हो। किसी भी जीवित प्राणी के लिए बच्चों को जन्म देकर उनकी देखभाल करना, प्रजनन करना और अगली पीढ़ी को बड़ा करना एक किस्म की जिम्मेदारी है। मिसाल के तौर पर पक्षी, गायें, भेड़ें और यहाँ तक कि बाघिनें भी बच्चे जनने के बाद अपनी संतान की देखभाल करती हैं। ऐसा कोई भी जीवित प्राणी नहीं है जो अपनी संतान को पाल-पोस कर बड़ा न करता हो। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन ये ज्यादा नहीं हैं। जीवित प्राणियों के अस्तित्व में यह एक कुदरती घटना है, जीवित प्राणियों का यह सहज ज्ञान है, और इसे दयालुता का लक्षण नहीं माना जा सकता। वे बस उस विधि का पालन कर रहे हैं जो सृष्टिकर्ता ने जानवरों और मानवजाति के लिए स्थापित की है। इसलिए, तुम्हारे माता-पिता का तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करना किसी प्रकार की दयालुता नहीं है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि तुम्हारे माता-पिता तुम्हारे लेनदार नहीं हैं। वे तुम्हारे प्रति अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रहे हैं। वे तुम पर चाहे जितनी भी मेहनत करें, जितना भी पैसा लगाएँ, उन्हें तुमसे इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए, क्योंकि माता-पिता के रूप में यह उनकी जिम्मेदारी है। चूँकि यह एक जिम्मेदारी और दायित्व है, इसलिए इसे मुफ्त होना चाहिए, और उन्हें इसकी भरपाई करने को नहीं कहना चाहिए। तुम्हें पाल-पोस कर बड़ा करके तुम्हारे माता-पिता बस अपनी जिम्मेदारी और दायित्व निभा रहे थे, और यह निःशुल्क होना चाहिए, इसमें लेनदेन नहीं होना चाहिए। इसलिए तुम्हें भरपाई करने के विचार के अनुसार न तो अपने माता-पिता से पेश आना चाहिए, न उनके साथ अपने रिश्ते को ऐसे संभालना चाहिए” (वचन, खंड 6, सत्य के अनुसरण के बारे में I, सत्य का अनुसरण कैसे करें (17))। परमेश्वर के वचनों से, मैंने समझा कि माँ-बाप का बच्चों को पैदा करना, उन्हें पालना, और अच्छे से उनकी देखभाल करना कोई दयालुता नहीं है, बल्कि माँ-बाप होने के नाते उनकी जिम्मेदारी और दायित्व है। यह वैसा ही है जैसे परमेश्वर ने कहा कि अगर कोई अपने घर बाहर से फूल और घास लाता है, तो यह उस व्यक्ति की जिम्मेदारी है कि वो उनका ध्यान रखे, उन्हें खाद-पानी दे; यह उसकी जिम्मेदारी है। दूसरा उदाहरण यह है कि बिल्लियाँ, कुत्ते, और ऐसे कई जानवर बच्चे पैदा करते और उनका ध्यान रखते हैं, जो उनके लिए स्वाभाविक है। मनुष्यों में भी माँ-बाप ऐसे ही होते हैं। जब तक बच्चा बालिग नहीं होता, उसे पालना और उसकी देखभाल करना ऐसी जिम्मेदारी और दायित्व है जिसे हर माँ-बाप को पूरा करना चाहिए, और यह परमेश्वर द्वारा लोगों को दी गई सहज बुद्धि है। इसलिए बच्चे अपने माँ-बाप के ऋणी नहीं होते हैं। मैं हमेशा मानती थी कि मेरे गोद लेने वाले माँ-बाप का मेरा ख्याल रखना उनकी दयालुता थी जिसका मुझे ऋण चुकाना होगा, और चाचा-चाची ने मुझे जन्म दिया, इसका ऋण भी चुकाना होगा। अब मैं जान गई हूँ कि मुझे यह जीवन परमेश्वर ने दिया है, मेरे माँ-बाप ने नहीं। अगर परमेश्वर मुझे यह जीवन नहीं देता, तो मुझे पैदा करने के बाद भी, मेरे माँ-बाप को मैं मरी हुई मिलती। मेरे माँ-बाप ने मुझे पाला और मेरा ख्याल रखा, मेरे विकास के लिए एक अच्छा माहौल दिया। माँ-बाप होने के नाते यह उनकी जिम्मेदारी है, और यह परमेश्वर ने पहले से निर्धारित और व्यवस्थित किया है। फिर, मेरे विकास की अवधि के दौरान, परमेश्वर ने ही सच में मेरा ख्याल रखा और मेरी रक्षा की। जैसे एक बार स्कूल के बाद, मैं अपनी ई-बाइक बहुत तेज चला रही थी और रुक नहीं पाई, में पत्थर के टुकड़ों और बड़े से ट्रक के बीच जाकर फँस गई थी। उस वक्त ट्रक पूरी रफ्तार से बढ़ रहा था, और मुझे अपनी ई-बाइक भी उतनी ही तेजी से चलानी पड़ रही थी। पूरे समय, मेरा पैर ट्रक और मेरी ई-बाइक के बीच फँसा था, उनके बीच घिसा जा रहा था। जब सड़क चौड़ी हुई, तब जाकर मेरी ई-बाइक रुकी। यह बहुत भयानक था। उस वक्त कई लोगों को देखकर पसीने आ गए, और उन्हें लगा कि मुझे बहुत गंभीर चोट लगी होगी। मुझे भी लगा कि शायद मैं फिर से उस पैर से नहीं चल पाऊँगी। मुझे बड़ी हैरानी हुई जब मैंने देखा कि मेरे शरीर पर एक भी खरोंच नहीं लगी थी। तब मैंने पहली बार अनुभव किया कि कैसे परमेश्वर चुपचाप मेरा ख्याल रखता और मेरी सुरक्षा करता रहा है। फिर, जब मेरे चाचा-चाची ने मुझे पुलिस की हिरासत से छुड़ाने के लिए उन्हें 140,000 युआन दिए, तो मुझे लगा कि यह उनकी सबसे बड़ी दयालुता थी, और मुझे उनका ऋण चुकाना ही होगा। अब मैं समझ गई कि भले ही ऐसा लगा जैसे मेरे चाचा-चाची ने ये पैसे भरे थे, असल में इसके पीछे परमेश्वर की सत्ता और उसकी व्यवस्था थी। उस दौरान, मेरे चाचा-चाची बड़ी आसानी से पैसे कमाते थे, इतना कि वो खुद भी हैरान रहते थे। दरअसल, अब इस बारे में सोचकर लगता है, अगर परमेश्वर ने उन्हें इतने पैसे कमाने की आशीष नहीं दी होती, तो मुझे छुड़ाने के लिए पैसे कहाँ से आते? मुझे याद आया कि परमेश्वर ने कहा था : “अगर कोई हमारा भला करता है, तो हमें उसे परमेश्वर से आया मानकर स्वीकारना चाहिए—खासकर हमारे माता-पिता जिन्होंने हमें जन्म दिया और पाला-पोसा; यह सब परमेश्वर की व्यवस्था है। परमेश्वर की सब पर संप्रभुता है; मनुष्य सिर्फ सेवा का जरिया है” (वचन, खंड 3, अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन, अपने पथभ्रष्ट विचारों को पहचानकर ही खुद को सचमुच बदला जा सकता है)। बाहर से देखें, तो मेरे माँ-बाप ने मुझे पाला, और मेरे चाचा-चाची ने मुझे छुड़ाने के लिए पैसे दिए। मगर सत्य के परिप्रेक्ष्य से देखें तो यह सब परमेश्वर की सत्ता और उसकी व्यवस्था थी। मैं उनकी ऋणी नहीं हूँ। मुझे अपने उद्धार की कीमत पर इस ऋण को चुकाने के लिए अपना जीवन दाँव पर लगाने की जरूरत नहीं है। मैं उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखा सकती हूँ, मगर अपने दायरे में रहकर। उपयुक्त परिस्थितियों और माहौल में, मैं उनका साथ देकर उनके प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखा सकती हूँ। लेकिन अगर ऐसा नहीं होता, तो मुझे खुद को कोसने की कोई जरूरत नहीं है। मुझे बस अपने कर्तव्य अच्छे से निभाने हैं। अगर मैंने अपने माँ-बाप के प्रति संतानोचित धर्मनिष्ठा दिखाने के लिए परमेश्वर और सत्य को त्याग दिया, तो भले ही लोग मुझे धर्मनिष्ठ पुत्री कहें, मगर मैंने सृष्टिकर्ता को धोखा दिया होगा, जो बहुत बड़ा विद्रोह और मानवता की कमी है! असल में, मैं अपने माँ-बाप की नहीं, बल्कि परमेश्वर की ऋणी थी। परमेश्वर की देखरेख और सुरक्षा से ही आज मैं यहाँ तक पहुँच पाई हूँ; मुझे सबसे ज्यादा उसका धन्यवाद करना चाहिए! तो, मैंने परमेश्वर से प्रार्थना की : “परमेश्वर, मेरे माँ-बाप जो भी अनुभव करेंगे और पुलिस उनके साथ जैसा भी बर्ताव करेगी सब तुम्हारे हाथों में है। मैं कुछ नहीं बदल सकती, और मैं उन्हें तुम्हारे हाथों सौंपने को तैयार हूँ। मैं बस एक सृजित प्राणी के रूप में शांति से अपना कर्तव्य निभाकर तुम्हारे कार्य को अनुभव करना चाहती हूँ।”
तब से, मेरा परिवार जिन परिस्थितियों का सामना करता, उनको लेकर मैं थोड़ा कम परेशान रहने लगी, और मैं इस पर विचार करने लगी कि अपना कर्तव्य अच्छी तरह से कैसे निभाऊँ। जल्द ही, मैं अपनी माँ से संपर्क कर पाई। उन्होंने अपना अनुभव साझा करते हुए मुझे एक चिट्ठी लिखी थी। उन्होंने कहा कि इन हालात का सामना करके सत्य के अनुसरण को लेकर उनका संकल्प और दृढ़ हो गया था, उसने मुझे घर की चिंता न करने और सत्य का अनुसरण करते हुए अपना कर्तव्य पूरा करने पर ध्यान देने को कहा। उन्होंने यह भी कहा कि जब पुलिस ने देखा कि मैं अब तक घर नहीं आई हूँ, उन्हें मेरे चाचा को हिरासत में रखना बेकार लगा, तो उन्हें छोड़ दिया। उस पल, मैं बहुत भावुक हो गई। मुझे अच्छी तरह पता चल गया कि अब तक जिन हालात का मैंने सामना किया है उनमें परमेश्वर का इरादा था, और वो चीजों को लेकर मेरे दृष्टिकोण को बदलने और मेरे अंदर की अशुद्धियों को स्वच्छ करने के लिए थे। परमेश्वर मेरे जीवन की जिम्मेदारी ले रहा है!