सामंजस्‍यपूर्ण सहयोग के बारे में

जिस तरह से लोग परमेश्वर के घर में अपना कर्तव्य करते हैं, वह अविश्वासियों के बीच काम किए जाने के ढंग से पूरी तरह अलग है। उनमें क्या अंतर है? भाई-बहन मिलकर परमेश्वर के वचन पढ़ते हैं और आत्मा में जुड़े होते हैं। वे एक-दूसरे के साथ सामंजस्यपूर्वक रहने में सक्षम होते हैं और एक-दूसरे को अपने मन की सच्ची बात बताते हैं। वे सरलता से और खुलकर एक-दूसरे के साथ सत्य की संगति करने, परमेश्वर के वचनों का आनंद लेने और एक-दूसरे की मदद करने में सक्षम होते हैं। जिस किसी को भी कठिनाइयाँ होती हैं, वे मामला हल करने के लिए एक-साथ सत्य खोजते हैं, आत्मा में एकता प्राप्त कर सकते हैं, और सत्य और परमेश्वर के सामने समर्पित हो सकते हैं। अविश्वासी अलग होते हैं। उन सभी के अपने रहस्य होते हैं, वे खुलकर बातचीत नहीं करते, एक-दूसरे से सतर्क रहते हैं, यहाँ तक कि एक-दूसरे के खिलाफ साजिश भी रचते हैं और एक-दूसरे से होड़ भी लगाते हैं। अंततः, वे नाराज होकर संबंध तोड़ लेते हैं और अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। कलीसिया में होने और अविश्वासी दुनिया में होने के बीच सबसे बड़ा अंतर यह है कि जो लोग सच्चे दिल से परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे सत्य स्वीकार सकते हैं। चाहे जिसे भी समस्याएँ या कठिनाइयाँ हों, सभी खुलकर सहभागिता और एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं, और अगर कोई भ्रष्टता प्रकट करता है, तो उसकी आलोचना और काट-छाँट की जा सकती है, ताकि वह व्यक्ति पश्चात्ताप कर सके। एक-दूसरे से प्रेम करने का यही मतलब है। सभी लोग एक-दूसरे के साथ समानता का संबंध रखते हैं, और जिन सिद्धांतों से लोग एक-दूसरे से निभाते हैं, वे परमेश्वर के वचनों की नींव पर निर्मित होते हैं। अगर कोई भ्रष्टता दिखाता है, गलत बोलता है या कोई गलती करता है, तो वह खुले तौर पर संगति कर सकता है। जब सभी सत्य खोजते हैं, एक-दूसरे की मदद करते हैं और सत्य की समझ प्राप्त करते हैं, तो पूर्ण मुक्ति और स्वतंत्रता प्राप्त होती है। इस तरह, अब लोग एक-दूसरे से अलगाव महसूस नहीं करते, एक-दूसरे से होड़ नहीं करते, या एक-दूसरे से सतर्क नहीं रहते। वे एक-दूसरे को प्रोत्साहित करने और एक मन होकर एक-दूसरे से प्रेम करने में भी सक्षम रहते हैं। ये चीजें परमेश्वर के वचनों का परिणाम होती हैं। कलीसियाई जीवन के जरिये, परमेश्वर में वास्तव में विश्वास करने वाले सभी लोग सत्य समझ जाते हैं, अपनी भ्रष्टता त्याग देते हैं, अपने भाई-बहनों के साथ सामंजस्यपूर्वक सहयोग करते हैं, अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाते हैं, एक-दूसरे के साथ सामंजस्यपूर्वक रहते हैं और परमेश्वर के सामने जीते हैं।

अगर तुम अच्छी तरह से अपने कर्तव्य निभाना और परमेश्वर के इरादे पूरे करना चाहते हो तो तुम्हें पहले दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्वक ढंग से सहयोग करना सीखना होगा। अपने भाई-बहनों के साथ सहयोग करते समय तुम्हें निम्नलिखित बातों पर विचार करना चाहिए : “सामंजस्य क्या है? क्या मेरी वाणी उनके साथ सामंजस्यपूर्ण है? क्या मेरे विचार उनके साथ सामंजस्यपूर्ण हैं? मैं जिस तरह से काम करता हूँ, क्या वह उनके साथ सामंजस्यपूर्ण है?” विचार करो कि सामंजस्यपूर्वक कैसे सहयोग करें। कई बार सामंजस्य का अर्थ धैर्य और सहनशीलता होता है, किंतु इसका अर्थ अपने विचारों पर दृढ़ और सिद्धांतों पर अडिग रहना भी होता है। सामंजस्य का अर्थ चीजें आसान बनाने के लिए सिद्धांतों से समझौता करना, या “खुशामदी” बनने की कोशिश करना, या संतुलन के मार्ग पर टिके रहना नहीं है—और किसी की ठकुरसुहाती करना तो इसका अर्थ निश्चित रूप से नहीं है। ये सिद्धांत हैं। एक बार तुमने इन सिद्धांतों को अपना लिया, तो तुम अनजाने ही परमेश्वर के इरादे के अनुसार बोलोगे, कार्य करोगे और सत्य की वास्तविकता जियोगे, और इस तरह एकता प्राप्त करना आसान है। अगर परमेश्वर के घर में लोग सांसारिक आचरण के फलसफों के अनुसार जीते हैं, या एक-दूसरे के साथ मिलकर रहने में अपनी खुद की धारणाओं, रुझानों, इच्छाओं, स्वार्थी मकसदों, खूबियों और होशियारी पर निर्भर करते हैं, तो यह परमेश्वर के सामने जीने का ढंग नहीं है, और वे आपसी एकता हासिल करने में अक्षम हैं। ऐसा क्यों है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जब लोग शैतानी स्वभाव से जीते हैं तो वे एकता हासिल नहीं कर सकते। तो, इसका अंतिम परिणाम क्या होता है? परमेश्वर उन पर काम नहीं करता। परमेश्वर के कार्य के बिना, अगर लोग अपनी खुद की मामूली-सी योग्यताओं और होशियारी पर, थोड़ी-सी महारत और हासिल की गई थोड़ी-सी जानकारी और हुनर पर निर्भर करते हैं तो परमेश्वर के घर में इस्तेमाल किए जाने में उन्हें बहुत मुश्किल होगी, और वे परमेश्वर के इरादों के अनुसार चलने में परेशानियाँ महसूस करेंगे। परमेश्वर के कार्य के बिना तुम कभी भी परमेश्वर के इरादों, परमेश्वर की अपेक्षाओं या अभ्यास के सिद्धांतों को नहीं समझ सकते। तुम्हें अपने कर्तव्य निभाने का मार्ग या उसके सिद्धांत पता नहीं होंगे, और तुम कभी भी नहीं जान पाओगे कि परमेश्वर के इरादों के अनुसार कैसे चलें, और कौन-से काम सत्य सिद्धांतों का उल्लंघन और परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। अगर इनमें से कोई भी चीज तुम्हें स्पष्ट नहीं है तो तुम बस विनियमों का पालन कर रहे होगे और इन्हें आँख मूँदकर लागू कर रहे होगे। जब तुम अपने कर्तव्य ऐसे भ्रम के बीच निभाते हो तो तुम्हारा असफल होना निश्चित है। तुम कभी भी परमेश्वर की स्वीकृति हासिल नहीं करोगे और निश्चित रूप से परमेश्वर तुम्हें ठुकरा देगा और तुम हटा दिए जाओगे।

जब कोई कर्तव्य निभाने के लिए दो लोग सहयोग करते हैं तो कभी-कभी उनमें सिद्धांत के मामले पर विवाद हो जाएगा। उनके दृष्टिकोण अलग-अलग होंगे और उनकी राय भी अलग-अलग होगी। ऐसी स्थिति में क्या किया जा सकता है? क्या यह एक ऐसा मुद्दा नहीं है, जो अक्सर सामने आता है? यह एक सामान्य घटना है। सभी के दिमाग, काबिलियत, अंतर्दृष्टियाँ, आयु और अनुभव अलग-अलग होते हैं, और दो लोगों के बिल्कुल एक-जैसे विचार और दृष्टिकोण होना असंभव है, और इसलिए दो लोगों का अपनी राय और दृष्टिकोण में भिन्न हो सकना बहुत सामान्य घटना है। इससे ज्यादा सामान्य घटना नहीं हो सकती। इसमें हंगामा करने की कोई बात नहीं। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जब ऐसी समस्या पैदा हो, तब परमेश्वर के समक्ष सहयोग और एकता की खोज कैसे करें और विचारों और मतों में एकात्मकता कैसे लाएँ। विचारों और मतों की एकता प्राप्त करने का मार्ग क्या है? वह मार्ग है सत्य सिद्धांतों के प्रासंगिक पहलू खोजना, अपने या किसी अन्य के इरादों के अनुसार कार्य न करना, बल्कि परमेश्वर के इरादों का पता लगाना। सामंजस्यपूर्ण सहयोग का यही मार्ग है। जब तुम परमेश्वर के इरादों और उसके द्वारा अपेक्षित सिद्धांतों की खोज करोगे, केवल तभी तुम एकता प्राप्त कर पाओगे। वरना, अगर चीजें तुम्हारे हिसाब से हुईं, तो दूसरा व्यक्ति असंतुष्ट हो जाएगा, और अगर चीजें उसके हिसाब से हुईं, तो तुम नाखुश और असहज महसूस करोगे। तुम चीजों को स्पष्ट रूप से देखने में असमर्थ होगे, चीजों को छोड़ने में असमर्थ होगे, और तुम हमेशा सोचोगे, “क्या यह काम करने का सही तरीका है?” तुम यह देखने में असमर्थ होगे कि किसके पास वास्तव में सोचने का सही तरीका है, पर साथ ही, तुम अपने विचारों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होगे। ऐसी स्थिति में, तुम्हें सत्य खोजना चाहिए, और तुम्हें यह खोजना चाहिए कि सिद्धांत क्या हैं और परमेश्वर किन मानकों की अपेक्षा करता है। जब तुम उन मानकों की खोज कर लो, जिनकी परमेश्वर अपेक्षा करता है, तो उस दूसरे व्यक्ति के साथ संगति करो। अगर फिर वह अपने विचारों और ज्ञान पर थोड़ी संगति करता है, तो तुम्हारा हृदय स्पष्ट और उज्ज्वल हो जाएगा। तुम मन ही मन सोचोगे, “मेरे सोचने का तरीका थोड़ा टेढ़ा, थोड़ा उथला है—उसका सोचने का तरीका बेहतर है, उन मानकों के करीब है जिनकी परमेश्वर अपेक्षा करता है, इसलिए मैं अपने सोचने का तरीका दरकिनार कर उसका सोचने का तरीका स्वीकार लूँगा और उसकी ही आज्ञा मानूँगा। चलो, इसे उसके तरीके से करते हैं।” और, उससे कुछ सीखने के द्वारा, क्या तुम पर कृपा नहीं की गई है? उसने थोड़ा-सा दिया, और तुमने एक बनी-बनाई चीज का आनंद ले लिया। इसे ही परमेश्वर का अनुग्रह कहा जाता है, और तुम पर कृपा की गई है। क्या तुम्हें लगता है कि असल में तुम पर कृपा तभी की जाती है, जब पवित्र आत्मा तुम्हें प्रबुद्ध करता है? जब किसी के पास कोई राय या कुछ प्रबुद्धता होती है और वह संगति में उसे तुम्हारे साथ साझा करता है, या उसके सिद्धांतों के अनुसार कोई चीज अभ्यास में लाई जाती है, और तुम देखते हो कि परिणाम बुरा नहीं है, तो क्या यह कुछ हासिल करना नहीं है? यह कृपा प्राप्त होना ही है। भाई-बहनों के बीच सहयोग एक की कमजोरियों की भरपाई दूसरे की खूबियों से करने की प्रक्रिया है। तुम दूसरों की कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हो और दूसरे तुम्हारी कमियों की भरपाई करने के लिए अपनी खूबियों का उपयोग करते हैं। दूसरों की खूबियों से अपनी कमजोरियों की भरपाई करने और सामंजस्यपूर्वक सहयोग करने का यही अर्थ है। अगर लोग सामंजस्यपूर्वक सहयोग करेंगे, केवल तभी वे परमेश्वर के समक्ष धन्य हो सकते हैं, और वे चीजों का जितना अधिक अनुभव करते हैं उनके पास उतनी ही अधिक वास्तविकता होती है, और वे अपने मार्ग पर जितना अधिक चलते हैं यह उतना ही अधिक रोशन होता जाता है और वे और भी अधिक सहज महसूस करते हैं। अगर तुम सामंजस्यपूर्वक सहयोग नहीं करते, दूसरों के साथ तुम्हारी हमेशा ठनी रहती है, और दूसरे जो कहते हैं तुम कभी उसके कायल नहीं होते, और वे तुम्हारी बात नहीं सुनना चाहते; अगर तुम दूसरों की गरिमा की रक्षा करने की कोशिश करते हो, पर वे तुम्हारी गरिमा की रक्षा नहीं करते, और यह तुम्हें असहज लगता है; अगर तुम उनकी कही बात पर उन्हें मुश्किल स्थिति में डाल देते हो, और वे इसे याद रखते हैं, और अगली बार जब कोई मुद्दा उठता है, तो वे भी तुम्हारे साथ वही सुलूक करते हैं—तो यह क्या समस्या है? क्या यह गुस्सैल मिजाज से जीना और एक-दूसरे से होड़ करना नहीं है? क्या यह भ्रष्ट स्वभाव से जीना नहीं है? इस तरह से अपना कर्तव्य निभाने से परमेश्वर की स्वीकृति या उसके आशीष बिल्कुल नहीं मिलेंगे। इससे परमेश्वर सिर्फ तुम्हें ठुकराएगा।

तुम्हें अपने कर्तव्यों के पालन में सामंजस्यपूर्वक सहयोग करना चाहिए। तभी तुम अच्छे परिणाम पाओगे और परमेश्वर की अपेक्षाएँ पूरी कर पाओगे। सामंजस्यपूर्ण सहयोग क्या है? कौन-से व्यवहार सामंजस्यपूर्ण सहयोग कहे जाने योग्य नहीं हैं? मान लो, तुमने अपना कर्तव्य निभाया और मैंने अपना। हममें से प्रत्येक ने अपने कर्तव्य निभाए, लेकिन हमारे बीच कोई अनकहा समझौता नहीं था, कोई संवाद या संगति नहीं थी। हम किसी तरह के आपसी समझौते पर नहीं पहुँच पाए। हम बस मन की गहराई में यह जानते थे, “मैं अपना कर्तव्य निभा रहा हूँ और तुम अपना कर्तव्य निभा रहे हो। चलो, एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप न करें।” क्या यह सामंजस्यपूर्ण सहयोग है? सतही तौर पर, ऐसा लग सकता है कि ऐसे दो लोगों के बीच कोई विवाद या मतभेद नहीं है और वे एक-दूसरे के मामले में हस्तक्षेप या एक-दूसरे को प्रतिबंधित नहीं करते। लेकिन, आध्यात्मिक रूप से, उनके बीच कोई सामंजस्यपूर्ण सहयोग नहीं है। उनके बीच कोई अनकहा समझौता या एक-दूसरे के लिए परवाह नहीं है। बस यही हो रहा है कि उनमें से प्रत्येक बिना किसी सहयोग के अपना काम और व्यक्तिगत प्रयास कर रहा है। क्या यह काम करने का अच्छा तरीका है? ऐसा लग सकता है कि कोई किसी पर नजर नहीं रख रहा, किसी को बाध्य नहीं कर रहा, आदेश नहीं दे रहा, या आँख मूँदकर किसी दूसरे का आज्ञापालन नहीं कर रहा, और यह तर्कसंगत भी लग सकता है, लेकिन उनके भीतर एक तरह का भ्रष्ट स्वभाव है। उनमें से प्रत्येक नायक बनने, श्रेष्ठ होने या दूसरे से बेहतर प्रदर्शन करने के लिए प्रतिस्पर्धा करता है, इसलिए वे सभी अन्य किसी से प्रेम नहीं करते, उसकी परवाह नहीं करते, या उसकी मदद नहीं करते। क्या यहाँ कोई सामंजस्यपूर्ण सहयोग है? (नहीं।) बिना सहयोग के, तुम एक अकेली लड़ाई लड़ रहे हो, और तुम बहुत-सी चीजें कम पूर्णता या गहराई से करोगे। यह ऐसी अवस्था नहीं है, जिसे परमेश्वर मनुष्यों में देखना चाहता है। यह उसे प्रसन्न नहीं करती।

कुछ लोग बिना किसी से बात किए या बिना किसी को बताए, चीजें अकेले करना पसंद करते हैं। वे बस चीजें उसी तरह करते हैं, जैसे करना चाहते हैं, चाहे दूसरे उन्हें कैसे भी देखें। वे सोचते हैं, “मैं अगुआ हूँ और तुम परमेश्वर के चुने हुए लोग हो, इसलिए मैं जो करता हूँ तुम्हें उसका अनुसरण करने की आवश्यकता है। जैसा मैं कहता हूँ, ठीक वैसा ही करो—यह ऐसे ही होना चाहिए।” जब वे कार्य करते हैं, तो दूसरों को सूचित नहीं करते और उनके कार्यों में पारदर्शिता नहीं होती। वे हमेशा निजी तौर पर मेहनत करते रहते हैं और गुप्त रूप से कार्य करते हैं। बड़े लाल अजगर की तरह ही, जो सत्ता पर अपना एक-पक्षीय एकाधिकार बनाए रखता है, वे हमेशा दूसरों को धोखा देकर नियंत्रित करना चाहते हैं, जिन्हें वे महत्वहीन और बेकार समझते हैं। वे हमेशा दूसरों से चर्चा या संवाद किए बिना मामलों में अपनी ही चलाना चाहते हैं, और वे कभी दूसरे लोगों की राय नहीं माँगते। तुम इस दृष्टिकोण के बारे में क्या सोचते हो? क्या इसमें सामान्य मानवता है? (नहीं है।) क्या यह बड़े लाल अजगर की प्रकृति नहीं है? बड़ा लाल अजगर तानाशाह है और मनमाने ढंग से कार्य करना पसंद करता है। क्या इस तरह के भ्रष्ट स्वभाव वाले लोग बड़े लाल अजगर की संतान नहीं हैं? लोगों को खुद को इसी तरह जानना चाहिए। क्या तुम लोग इस तरह कार्य करने में सक्षम हो? (हाँ।) जब तुम इस तरह से व्यवहार करते हो, तो क्या तुम लोग इसके बारे में जानते हो? अगर जानते हो, तो तुम्हारे लिए अभी भी आशा है, लेकिन अगर तुम नहीं जानते, तो निश्चित ही तुम संकट में हो, और ऐसा है तो, क्या तुम नाश के भागी नहीं हो? जब तुम अपने कार्य करने के इस ढंग से अनजान रहते हो, तो क्या किया जाना चाहिए? (हमें आवश्यकता है कि हमारे भाई-बहन इस बारे में बताएं और हमारी काट-छाँट करें।) अगर तुम पहले दूसरों से कहते हो, “मैं ऐसा व्यक्ति हूँ जो स्वाभाविक रूप से दूसरों की अगुआई करना पसंद करता है, और मैं तुम लोगों को पहले ही बता दे रहा हूँ, इसलिए अगर कभी ऐसा हो, तो इसे लेकर शिकायत मत करना। तुम्हें मुझे झेलना होगा। मुझे पता है कि यह अच्छा नहीं है, और मैं धीरे-धीरे इसे बदलने की कोशिश कर रहा हूँ, इसलिए मुझे आशा है कि तुम लोग मेरे प्रति सहनशील होगे। जब ये चीजें हों तो मेरे साथ निभाओ, मेरे साथ सहयोग करो, और आओ मिलकर सामंजस्यपूर्वक सहयोग करने का प्रयास करें।” क्या इस तरह से काम करना स्वीकार्य है? (नहीं। यह विवेकहीन है।) तुम ऐसा क्यों कहते हो कि यह विवेकहीन है? ऐसा कहने वाला सत्य खोजने का इरादा नहीं रखता। वह अच्छी तरह जानता है कि इस तरह से काम करना गलत है, पर वह इसे करने में लगा रहता है और साथ ही दूसरों को विवश भी करता रहता है, उनके सहयोग और समर्थन की माँग भी करता रहता है। उसका सत्य का अभ्यास करने का कोई इरादा या इच्छा नहीं होती। वह जानबूझकर सत्य के खिलाफ जा रहा होता है। जानबूझकर किया गया उल्लंघन—परमेश्वर इसी से सबसे ज्यादा घृणा करता है। दुष्ट लोगों और मसीह-विरोधियों के अलावा कोई ऐसा काम करने में सक्षम नहीं है, और ऐसा करना ठीक वैसा ही है जैसे मसीह-विरोधी करते हैं। जब व्यक्ति जानबूझकर सत्य के विरुद्ध जाता और परमेश्वर का विरोध करता है, तो वह खतरे में होता है। यह मसीह-विरोधियों के मार्ग पर चलना है। ये व्यक्ति खुद तो सत्य का अभ्यास नहीं ही करते, दूसरों को भी विवश करके और फँसाकर यह कोशिश करते हैं कि वे उनके पीछे चलते हुए सत्य के खिलाफ जाएँ और परमेश्वर का विरोध करें। क्या वे जानबूझकर खुद को परमेश्वर के खिलाफ खड़ा नहीं कर रहे? खासकर जब वे इस तरह से कार्य करते हैं, तो पहले से ही समूह को सूचित कर देते हैं और लोगों से अपने साथ नरमी बरतने के लिए कहते हैं, और फिर सभी से अपना समर्थन करवाते हैं। ऐसा करने में वे और भी धूर्त होते हैं। यह कहना विशुद्ध रूप से शक्ति-प्रदर्शन होता है, अंतिम चेतावनी होती है। उनका यह मतलब होता है, “सुनो, मुझसे उलझना ठीक नहीं। आम आदमी मेरे लिए कुछ नहीं है। मैं बस प्रभारी होना चाहता हूँ। बेहतर है, कोई मेरे साथ चीजों पर चर्चा करने का प्रयास न करे—चर्चा की कोई गुंजाइश नहीं है! मेरे साथ यह एक समस्या है : अगर तुम मुझसे कुछ करवाना चाहते हो, तो अंतिम निर्णय मेरा होना जरूरी है, और बेहतर है, कोई मेरे साथ सहयोग करने का प्रयास न करे—चाहकर भी तुम कर नहीं पाओगे!” क्या यह खुद को प्रकट करना है? नहीं। यह शैतान की ओर से काम करने का एक तरीका है, न कि सिर्फ एक भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने की समस्या। वह सीधे शासन करना चाहता है, अपना कहा मनवाना चाहता है, ताकि सभी वही करें जो वह कहता है, फिर उसका अनुसरण करें और उसकी आज्ञा मानें। क्या यह दानव द्वारा की गई अभिव्यक्ति नहीं है? यह भ्रष्ट स्वभाव का सिर्फ एक बार दिखना नहीं है। मसीह-विरोधी के क्रियाकलाप उसकी शैतानी प्रकृति से निर्देशित होते हैं। वे सत्ता पर काबिज होने के इरादे से परमेश्वर में विश्वास करते और कलीसिया में आते हैं। वे परमेश्वर के विरोध में खड़े होने, परमेश्वर के चुने हुए लोगों को उसके प्रतिरोध के मार्ग पर ले जाने का इरादा रखते हैं। वे बाहर के तमाम धार्मिक संप्रदायों के प्रमुखों जैसे ही होते हैं। उन सबमें मसीह-विरोधी का सार होता है, और शैतान की तरह, वे सभी खुद को परमेश्वर के बराबर रखना चाहते हैं। अगर परमेश्वर के चुने हुए लोगों में से कोई मसीह-विरोधी की अभिव्यक्ति देखता है, तो उसे इसे कैसे लेना चाहिए? क्या उसे प्रेम से उसकी मदद करनी चाहिए? उन्हें उनका भेद पहचानना और उजागर करना चाहिए, और दूसरों को उनका शैतानी चेहरा दिखाना चाहिए, जिसके बाद उन्हें उनका त्याग करना चाहिए। यह वह सिद्धांत है, जिसे परमेश्वर के चुने हुए लोगों को समझना चाहिए और इस पर पकड़ बनानी चाहिए। अगर कोई व्यक्ति किसी मसीह-विरोधी की अभिव्यक्ति को भ्रष्टता प्रकट करना, एक क्षणिक अपराध के रूप में लेता है, और मसीह-विरोधी के तथाकथित “आत्मज्ञान” और अपने बारे में खुलकर बताने और खुद को उजागर करने के कथित क्रियाकलापों से गुमराह होता है, और फिर भी उसके साथ सत्य के बारे में संगति करता है, तो वह पूर्ण रूप से मूर्ख होगा और स्पष्ट होगा कि उसमें बिल्कुल भी भेद पहचानने की क्षमता नहीं है। मुझे बताओ, क्या अपना भ्रष्ट स्वभाव दिखाने वाला मसीह-विरोधी जैसा व्यक्ति दूसरों के सामने खुल सकता है और खुद को प्रकट कर सकता है? कुछ गलत करने पर वह कभी आत्मचिंतन नहीं करता या खुद को नहीं जानता, और अपना सब कुछ प्रकट करना लोगों को गुमराह करना है, यह खुद को सही ठहराने से ज्यादा कुछ नहीं है। यह भेद पहचानना आवश्यक है कि वास्तव में खुलने और खुद को उजागर करने का असल में क्या मतलब है। अगर वह कहता है, “मैं बदमिजाज हूँ, इसलिए मुझे उकसाओ मत!” तो क्या यह खुद को उजागर करना है? (नहीं।) वह तुम्हें चेतावनी दे रहा है कि उसे उकसाओ मत, कि उसे उकसाना मुसीबत मोल लेना होगा। क्या होगा अगर वह कहे, “मेरे घर में, मैं जो कहता हूँ वह होता है। यहाँ तक कि मेरे माता-पिता को भी वही करना पड़ता है, जो मैं कहता हूँ। मेरा इसी तरह का गुस्सैल मिजाज है, और तुम लोगों को इसके लिए मुझे माफ करना होगा—इसमें मैं कुछ नहीं कर सकता। मेरे माता-पिता कहते हैं कि महान प्रतिभा के साथ एक गुस्सैल मिजाज आता ही है, इसलिए वे मुझे इसके लिए क्षमा कर देते हैं”? क्या यह खुद को उजागर करना होगा? (नहीं।) वह तुमसे कह रहा है कि महान प्रतिभा वाले लोगों का गुस्सैल मिजाज होता है, इसलिए तुम्हें उसे क्षमा कर देना चाहिए। अगर वह कहता है, “मेरा बचपन से ही यह मिजाज रहा है। मैं जो कहता हूँ, वह होता है। मैं पूर्णता का, और जो मैं चाहता हूँ, उसका अनुसरण करता हूँ। अब जबकि मैं परमेश्वर में विश्वास करता हूँ, मैं बहुत बेहतर हूँ और ज्यादातर चीजों में मैं सहनशील हो सकता हूँ और खुद को नियंत्रण में रख सकता हूँ, लेकिन मैं अभी भी पूर्णता का अनुसरण करता हूँ। अगर कोई चीज अत्युत्तम नहीं है, तो यह बिल्कुल नहीं चलेगा और मैं इसे स्वीकार नहीं सकता।” क्या यह खुद को उजागर करना है? (नहीं।) तो यह क्या है? यह अपनी प्रशंसा करना और दूसरों से अपना आदर करवाने के लिए दिखावा करना है, दूसरों को यह बताना है कि वे कितने दुर्जेय हैं, जिस तरह से ठग और बदमाश हिंसकतापूर्ण शेखी बघारते हैं और मिलने पर अपनी ताकत दिखाते हैं, मानो कहते हों, “क्या तुम्हें लगता है कि तुम मुझसे पंगा ले सकते हो? अगर हाँ, तो देखें हमारे मुक्के इसके बारे में क्या कहते हैं!” क्या यह शैतान का ही चेहरा नहीं है? यह शैतान का ही चेहरा है। खुद को उजागर करने के सभी तरीके एक-जैसे नहीं होते। जब मसीह-विरोधी खुद को उजागर करते हैं, तो उनका मतलब दूसरों को धमकाना, आतंकित करना और डराना होता है। वे हमेशा दूसरों को अपने वश में करना चाहते हैं। यह शैतान का चेहरा है। यह खुलने का सामान्य, सरल तरीका नहीं है। सामान्य मानवता को जीने के लिए कैसे खुलकर खुद को प्रकट करना चाहिए? अपने भ्रष्ट स्वभाव के प्रकाशन के बारे में खुलकर, दूसरों को अपने दिल की वास्तविकता देखने देकर, और फिर परमेश्वर के वचनों के आधार पर समस्या के सार का गहन-विश्लेषण करके तथा उसे पहचान कर, अपने दिल की गहराई से स्वयं से घृणा और तिरस्कार करके। जब लोग खुद को उजागर करते हैं, तो उन्हें खुद को सही ठहराने या गलतियों को समझाने का प्रयास नहीं करना चाहिए, बल्कि केवल सत्य का अभ्यास करना चाहिए और एक ईमानदार व्यक्ति बनना चाहिए। कुछ लोगों में स्पष्ट रूप से बुरे स्वभाव होते हैं, पर वे हमेशा खुद को गर्म मिजाज वाला बताते हैं। क्या यह सिर्फ खुद को सही ठहराना नहीं है? बुरा स्वभाव बस बुरा स्वभाव होता है। जब किसी ने कुछ तर्कहीन या ऐसा कुछ किया होता है जो सभी को नुकसान पहुँचाता है, तो समस्या उसके स्वभाव और मानवता के साथ होती है, लेकिन वे हमेशा कहते हैं कि उन्होंने कुछ समय के लिए खुद पर नियंत्रण खो दिया या थोड़ा गुस्सा हो गए। वे समस्या को उसके सार में कभी नहीं समझते। क्या यह वास्तव में अपना गहन-विश्लेषण करना और खुद को प्रकट करना है? पहले, अनिवार्य स्तर पर अपनी समस्याएँ समझने और गहन-विश्लेषण करके खुद को उजागर करने के लिए व्यक्ति के पास एक ईमानदार दिल और ईमानदार रवैया होना चाहिए, और अपने स्वभाव की समस्याओं के बारे में वे जो कुछ भी समझ सकते हैं, उसके बारे में बोलना चाहिए। दूसरे, अगर व्‍यक्ति को यह महसूस हो कि उसका स्‍वभाव बहुत बुरा है, तो उसे सबसे कहना ही चाहिए, “अगर मैं फिर से इस तरह का भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करूँ, तो बेझिझक मुझे इसके प्रति सचेत करो, और मेरी काट-छाँट करो। अगर मैं इसे स्वीकार न कर पाऊँ, तो मुझसे आशा रखना मत छोड़ना। मेरे भ्रष्ट स्वभाव का यह पक्ष बहुत गंभीर है, और मुझे उजागर करने के लिए सत्य की कई बार संगति करनी आवश्यक है। मैं हरेक के हाथों काट-छाँट को सहर्ष स्वीकारता हूँ और आशा करता हूँ कि हरेक मेरी निगरानी करेगा, मेरी मदद करेगा और मुझे भटकने से बचाएगा।” यह कैसा रवैया है? यह सत्य को स्वीकारने का रवैया है। कुछ लोग ये बातें कहने के बाद थोड़ा असहज महसूस करते हैं। वे मन ही मन सोचते हैं, “अगर सब उठकर मुझे उजागर कर देंगे, तो मैं क्या करूँगा? क्या मैं इसे सह पाऊँगा?” क्या तुम लोग दूसरों के द्वारा उजागर किए जाने से डरोगे? (नहीं।) तुम्हें इसका बहादुरी से सामना करना चाहिए। उजागर होने से डरना शर्म की बात है। अगर तुम वास्तव में सत्य से प्रेम करते हो, तो क्या तुम इस तरह से अपमानित होने से डरोगे? क्या तुम सबके द्वारा काट-छाँट किए जाने से डरोगे? यह डर कमजोरी, नकारात्मकता और भ्रष्टता की चीज है। सभी भ्रष्टता प्रकट करते हैं, लेकिन सबका उसे प्रकट करने का सार अलग है। अगर कोई व्यक्ति जानबूझकर अपराध नहीं करता या विघ्न-बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा नहीं करता, तो वह सामान्य प्रकार की भ्रष्टता प्रकट करता है, और सब उसे उचित तरीके से सँभाल पाएँगे। अगर किसी का अभीष्ट लक्ष्य विघ्न-बाधाएँ और गड़बड़ियाँ पैदा करना है, या कलीसिया के काम को जानबूझकर नुकसान पहुँचाना है, तो वे लोग हैं जो दूसरों द्वारा उजागर किए जाने से सबसे अधिक डरते हैं, क्योंकि इस समस्या का सार बहुत गंभीर है, और जिस क्षण वे उजागर किए जाएँगे, उन्हें प्रकट कर हटा दिया जाएगा। उनका यह डर उनके अपराधबोध से आता है। चाहे आज परमेश्वर कैसे भी कार्य करता हो, यह सब, लोगों को उनकी भ्रष्टता से शुद्ध कर उन्हें बचाने के उद्देश्य से है। अगर तुम एक सही व्यक्ति हो और अपना कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने और परमेश्वर का आदेश पूरी करने का प्रयास करते हो तो अधिकतर लोग इसे स्पष्ट रूप से देखेंगे। वे तुम्हारे बारे में यह भेद पहचान सकते हैं। साथ ही, लोगों को उजागर करना और उनकी काट-छाँट करना उनके लिए परेशानी का सबब बनना नहीं होता। बल्कि, यह उनकी समस्याएँ हल करने में मदद करने के लिए किया जाता है, ताकि वे अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभा सकें और कलीसिया के काम की रक्षा कर सकें। यह जायज बात है। कोई व्यक्ति काट-छाँट को इसलिए स्वीकारता है, ताकि उसका भ्रष्ट स्वभाव शुद्ध किया जा सके। स्वभावगत बदलाव प्राप्त करने के लिए भी यही रवैया होना चाहिए। जब व्यक्ति का यह रवैया हो जाता है, तो उसे अभ्यास का एक उपयुक्त मार्ग खोजने की भी आवश्यकता होती है, और जब ऐसा करने का समय आता है, तो कष्ट उठाना आवश्यक होता है। जब कोई लड़ाई होती है तो उन्हें देह के खिलाफ विद्रोह जरूर करना चाहिए और अपने घमंड, अहंकार और भावनाओं की बेड़ियाँ त्याग देनी चाहिए। देह की कठिनाइयाँ पार कर लेने पर चीजें बहुत आसान हो जाती हैं। इसे स्वतंत्रता और मुक्ति कहा जा सकता है। यह सत्य का अभ्यास करने की प्रक्रिया है। कोई न कोई पीड़ा हमेशा होती है। बिल्कुल भी पीड़ित न होना असंभव है, क्योंकि देह भ्रष्ट है, और लोगों में घमंड और अहंकार है, और वे हमेशा अपने हितों के बारे में सोचते हैं। ये चीजें सत्य का अभ्यास करने में लोगों की सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। इसलिए, थोड़ा कष्ट सहे बिना सत्य का अभ्यास करना असंभव है। जब लोग सत्य के अभ्यास की मिठास चखते हैं और वास्तविक शांति और आनंद अनुभव करते हैं, तो वे सत्य का अभ्यास करने के लिए तैयार हो जाते हैं, और उनके लिए खुद को नकारना, देह के खिलाफ विद्रोह करना और शैतान पर विजय प्राप्त करना आसान हो जाता है। इस प्रकार वे पूरी तरह मुक्त और स्वतंत्र हो जाते हैं।

कलीसियाई जीवन में किस प्रकार का परिवेश विकसित किया जाना चाहिए? ऐसा परिवेश, जिसमें कुछ होने पर मुद्दे पर ध्यान दिया जाता है, व्यक्ति पर नहीं। कभी-कभी असहमति झगड़े का कारण बनेगी और मिजाज गर्म हो जाएँगे, लेकिन दिल में कोई मनमुटाव नहीं होगा। सब कुछ लोगों के स्वभाव बदलने और अपने कर्तव्य अच्छी तरह से निभाने के वास्ते होता है। यह सब परमेश्वर के इरादे पूरे करने हेतु सत्य का अभ्यास करने के लिए होता है। लोगों के बीच कोई नफरत नहीं होती। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि सभी लोग उद्धार प्राप्त करने की कोशिश करने की प्रक्रिया में होते हैं। सभी में वही भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और कभी-कभी शायद कोई शब्द थोड़ा ज्यादा कठोर लगता है या हद से आगे बढ़ जाता है, या किसी का रवैया कुछ खराब होता है। लोगों को ये बातें दिल पर नहीं लेनी चाहिए। अगर तुम अभी भी मामले को नहीं समझ पाते या उसकी असलियत नहीं देख पाते, तो एक अंतिम उपाय है : परमेश्वर के सामने प्रार्थना करो और अपने मन में विचार करो, “हम एक ही परमेश्वर में विश्वास करते हैं और एक ही परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, इसलिए हमारे बीच जो भी विवाद या मतभेद हों, वह जो कुछ भी हो जो हमें विभाजित करता है, परमेश्वर के सामने हम एक हैं। हम एक ही परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं, तो ऐसा क्या है जिससे हम निपट नहीं सकते?” अगर तुम इसके बारे में इस तरह ध्यान से सोचते हो, तो क्या तुम इन बाधाओं पर काबू नहीं पा लोगे? कुल मिलाकर, इसका अंतिम उद्देश्य क्या है? सामंजस्यपूर्ण ढंग से सहयोग करना, सभी चीजों में परमेश्वर के इरादे पूरे करना और एकता प्राप्त करना—एकता सिद्धांत की, एकता उद्देश्य की, और एकता कार्य के इरादे और स्रोत की। यह कहना आसान है, करना मुश्किल। ऐसा क्यों है? (लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं।) यह सही है। यह लोगों के मिजाज, व्यक्तित्व या उम्र में अंतर के कारण नहीं होता, या इसलिए नहीं होता कि लोग अलग-अलग परिवारों से आते हैं, बल्कि इसलिए होता है कि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव हैं। यही मूल कारण है। अगर तुम सब, लोगों के भ्रष्ट स्वभावों के भीतर के मूल कारण को स्पष्ट रूप से देख पाओ, तो तुम चीजों को सही ढंग से सँभाल सकते हो, जिससे समस्या हल करना आसान हो जाएगा। तो, क्या हमें अभी भी यहाँ विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता है कि भ्रष्ट स्वभाव कैसे सुलझाए जाएँ? नहीं। तुम लोगों ने इतने सारे उपदेश सुने हैं कि तुम सभी को उस मार्ग के बारे में कुछ न कुछ पता है जिस पर चलना है, और तुम सभी को इस संबंध में कुछ अनुभव है। अगर लोग मामले सुलझाने के लिए सभी चीजों में सत्य खोजने में जुटे रह सकते हैं, अपने भीतर मौजूद समस्याओं पर चिंतन कर सकते हैं और दूसरों के साथ निष्पक्ष व्यवहार करते रह सकते हैं, तो वे मूल रूप से दूसरों के साथ सामंजस्यपूर्वक सहयोग करने में सक्षम होंगे। अगर लोग सत्य स्वीकार करने में सक्षम होते हैं, अभिमानी या आत्म-तुष्ट नहीं होते, और दूसरों के सुझावों को सही ढंग से ले सकते हैं, तो वे सहयोग करने में सक्षम होते हैं, और अगर समस्याएँ आती हैं, तो उन्हें हल करने के लिए सत्य खोजकर सहयोग करना आसान होता है। अगर व्यक्ति सत्य स्वीकार सकता है और संगति में खुल सकता है, तो उसका सहयोगी आसानी से प्रेरित होगा और सत्य स्वीकारने में सक्षम होगा। तब सामंजस्यपूर्ण सहयोग प्राप्त करना कोई बड़ी समस्या नहीं होती, और दिल और दिमाग में एकता के लक्ष्य तक पहुँचना आसान होता है।

5 सितंबर 2017

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