12. केवल ईमानदारी हमें इंसान बनाती है

शिज़ायी, चीन

मैं और मेरे पति ऑफिस फ़र्नीचर का कारोबार करते हैं। शुरूआत में हम बहुत ईमानदारी से कारोबार करते थे, ग्राहक जैसा कहते थे बिल्कुल वैसा करते थे, कोई नकली सामान नहीं बेचते थे। लेकिन एक साल बीत गया, सारे शुल्क देने के बाद हमारे पास केवल गुजारे लायक पैसे ही बचे। पड़ोस वाले दुकानदार भी यही कारोबार करते थे, लेकिन उन्होंने हमसे कहीं अधिक पैसे कमाए। मैं इस उलझन में थी कि हम कभी उनके जितना क्यों नहीं कमा पाए? मैं जाकर देखना और सीखना चाहती थी कि वे कैसे कमा रहे हैं। एक दिन उनकी दुकान पर एक ग्राहक आया उसने एक सोफ़ा, स्वागत डेस्क और मेज़ माँगी। उसे सब कुछ उत्तम दर्जे का चाहिए था। मैंने देखा कि दुकानदार ने उससे वादा किया कि सब कुछ बेहतरीन गुणवत्ता का होगा, लेकिन ग्राहक के जाते ही, दुकानदार ने अपने कारखाने से घटिया दर्जे के उत्पाद लिए और उन्हें उत्तम दर्जे के उत्पादों की जगह रखकर ग्राहक के पास भेज दिया। उन्होंने चुटकियों में 10,000 युआन से अधिक कमा लिए। उन्हें इस तरह की तरकीबें अपनाते हुए देखकर मैं वाकई चौंक गई। मैंने सोचा, "तो वे ऐसे अधिक कमाते हैं! यह तो ग्राहक के साथ धोखाधड़ी हुई ना? यह कारोबार करने का ईमानदार तरीका नहीं है।" लेकिन फिर मैंने सोचा, "हम एक ही कारोबार करते हैं, मगर वे अधिक कमा रहे हैं और बेहतर जीवन जी रहे हैं जबकि हम बस गुज़र-बसर कर रहे हैं। हमारे बीच बहुत बड़ा फ़र्क है।" मुझे लगा कि मैं उनसे कुछ बातें सीख सकती हूँ। इसलिए, अधिक पैसे कमाने के लिए मैंने अपनी अंतरात्मा को अनसुना करके पड़ोसियों की तरह सामान बेचना शुरू कर दिया।

एक बार एक ग्राहक ऑफिस के लिए थोक में लेखन सामग्री लेने आया और उसने कहा कि सब कुछ उच्च गुणवत्ता का होना चाहिए। मैंने उसे बार-बार विश्वास दिलाया कि उसे केवल सबसे अच्छा और जीवन भर की गारंटी वाला सामान मिलेगा, ताकि वह निश्चिन्त होकर हमसे सामान खरीदे। उसके जाने के बाद, मैंने उसके चुने हुए उत्पादों की जगह घटिया दर्जे के उत्पाद रख दिए जो बिल्कुल अच्छे उत्पादों की तरह दिखते थे, क्योंकि वे कहीं अधिक सस्ते पड़ते हैं। सामान भिजवाते समय मुझे बहुत घबराहट महसूस हुई। मैंने सोचा, "अगर उसे पता चल गया और उसने पैसे वापस माँगे, तो मुझे केवल पैसों का नुकसान नहीं होगा। वह सीधे मुझ पर ठग होने का आरोप लगाएगा।" यह सोचकर मुझे और भी घबराहट होने लगी। मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा और मैं उससे आँख भी नहीं मिला पाई। मुझे हैरानी हुई जब उसने सामान की जाँच की और उसे कुछ पता नहीं चला, आख़िरकार मैंने चैन की साँस ली। जब उस बिल का भुगतान हो गया, तो मैंने कई हज़ार युआन अधिक कमाए, हालाँकि मुझे अपराधबोध महसूस हो रहा था, मुझे पता था कि यह बेईमानी और अनैतिकता है, मगर मैं इतनी जल्दी इतने पैसे कमाने पर मन-ही-मन खुश होने से खुद को रोक नहीं पाई। कुछ समय बाद, लगातार झूठ बोलने और धोखा देने से मेरे लिए कई मुश्किलें खड़ी हो गईं। कभी-कभी जब मैं कोई नकली सामान बेचती थी, तो ग्राहक बाद में उसे ठीक करवाने के लिए मुझे फ़ोन करता था। लेकिन उस नकली सामान के लिए बिक्री के बाद कोई सेवा नहीं मिलती थी, इसलिए मुझे उन्हें टालने के लिए हर तरह के बहाने ढूँढने पड़ते थे। कभी-कभी कोई गुस्से से कह देता, "आप कारोबारी कुछ बेचने के बाद कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते। आप बिल्कुल भी भरोसेमंद नहीं हैं!" किसी ग्राहक के मुँह से ऐसी बात सुनना मेरे लिए आसान नहीं था, लेकिन फिर मैं सोचती थी कि बाकी सब भी तो ऐसे ही कारोबार करते हैं; तो यह एकदम आम बात हुई ना? वह अपराधबोध धीरे-धीरे गायब हो गया।

कुछ साल बीत गए, मैंने कुछ पैसे भी कमा लिए थे और आराम से रह रही थी, मगर मैं दिल से खुश नहीं थी। बल्कि मुझे हर समय बस घबराहट महसूस होती थी क्योंकि मैंने बहुत सारा नकली सामान बेचा था, मुझे डर था कि किसी दिन किसी ग्राहक को खराब गुणवत्ता का पता चल जाएगा और वह फ़ोन करके पैसे वापस माँगेगा या मेरी शिकायत कर देगा। ऐसे में मुझे बहुत भारी रकम चुकानी पड़ेगी। उससे मेरा नाम भी मिट्टी में मिल जाएगा और हो सकता है लोग मेरी पीठ पीछे बुराई करें। इससे बचने की उम्मीद में मैं लगातार सोच रही थी कि अगर मुझे कभी इस तरह का फ़ोन आया, तो उससे कैसे निपटना चाहिए। ऐसे जीना मेरे लिए बड़ा बोझिल था। मैं अक्सर सोचती थी, "अगर मैं ईमानदारी से कारोबार करूँ और ग्राहक को घटिया सामान देने की बजाय वही दूँ जो उसने माँगा है, तो मुझे हर समय इस बात की चिंता करने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। लेकिन मेरे कारोबार और घर का ऊपरी खर्च बहुत अधिक है। अगर मैं ईमानदारी से कारोबार करूँ, वही सामान लाऊँ जो ग्राहकों ने माँगा है, तो ज़्यादा पैसे नहीं कमा पाऊँगी। लोग कहते हैं ना, 'ऐसा कोई कारोबारी नहीं जो ईमानदार हो'? आजकल तो ऐसा ही चलता है ना? मैं धोखा दिए बिना ज़्यादा पैसे नहीं कमा सकती, इसलिए मैं केवल पैसों पर ध्यान दूँगी।" इसलिए, कभी-कभी अंतरात्मा बेचैन होने के बावजूद, मैं ज़्यादा पैसे कमाने के लिए बेईमान कारोबारी तरकीबें इस्तेमाल करती रही।

2004 में, मेरी भाभी ने अंत के दिनों में सर्वशक्तिमान परमेश्वर के कार्य को मेरे साथ साझा किया। परमेश्वर के वचनों को पढ़कर मुझे विश्वास हो गया कि यह अंत के दिनों में परमेश्वर का कार्य है और मैंने कलीसिया का जीवन जीना शुरू कर दिया। एक दिन मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "मेरे राज्य को उन लोगों की ज़रूरत है जो ईमानदार हैं, उन लोगों की जो पाखंडी और धोखेबाज़ नहीं हैं। क्या सच्चे और ईमानदार लोग दुनिया में अलोकप्रिय नहीं हैं? मैं ठीक विपरीत हूँ। ईमानदार लोगों का मेरे पास आना स्वीकार्य है; इस तरह के व्यक्ति से मुझे प्रसन्नता होती है, और मुझे इस तरह के व्यक्ति की ज़रूरत भी है। ठीक यही तो मेरी धार्मिकता है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 33)। "तुम लोगों को पता होना चाहिए कि परमेश्वर ईमानदार इंसान को पसंद करता है। मूल बात यह है कि परमेश्वर निष्ठावान है, अत: उसके वचनों पर हमेशा भरोसा किया जा सकता है; इसके अतिरिक्त, उसका कार्य दोषरहित और निर्विवाद है, यही कारण है कि परमेश्वर उन लोगों को पसंद करता है जो उसके साथ पूरी तरह से ईमानदार होते हैं" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। इसे पढ़कर मुझे पता चला कि परमेश्वर को ईमानदार लोग पसंद हैं, वह चाहता है कि हम ईमानदारी और सच्चाई से बोलें और कर्म करें। हमें परमेश्वर या मनुष्य के साथ छल या धोखा नहीं करना चाहिए। मैंने सोचा, "ईमानदार होना अच्छा है, जीने का यह तरीका शांति और सुकून देता है। लेकिन पैसों के पीछे भागने वाले इस समाज में दूसरे लोगों को ईमानदार लोग बस बेवकूफ लगते हैं। ख़ासकर कारोबार करने वाले लोगों के लिए ग्राहकों को धोखा देना कोई राज़ की बात नहीं है। अगर मैं पूरी तरह ईमानदार हूँ, तो मैं बिल्कुल पैसे नहीं कमा पाऊँगी और ठीक से गुज़ारा नहीं कर पाऊँगी। कोई मुझे बेवकूफ़ समझकर धोखा भी दे सकता है। लेकिन परमेश्वर चाहता है कि हम लोग ईमानदार बनें, तो मुझे क्या करना चाहिए?" मैंने बीच का रास्ता निकालने की सोची। मैं कलीसिया में भाई-बहनों के साथ पूरी ईमानदारी से बात और व्यवहार करूँगी। मुझे होशियार रहने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी और कोई मुझ पर नहीं हँसेगा। लेकिन मैं कारोबार में एक ईमानदार इंसान नहीं बन सकती। तो मैंने इसे अभ्यास में लाना शुरू कर दिया।

एक दिन एक ग्राहक आया और उसने 120 मेजें और कुर्सियाँ माँगी। उसने जो भी नमूने चुने थे वे सभी अच्छी गुणवत्ता के थे और उनसे फ़ॉर्मेल्डीहाइड जैसी गंध नहीं आती थी। मैं सोच रही थी, "उसके माँगे हुए उत्पादों की जगह मैं किसी दूसरे कारखाने के उत्पाद रख दूँगी, जो बिल्कुल उसकी पसंद के उत्पादों जैसे दिखते हैं, हालाँकि उनकी गुणवत्ता कम है और उनसे फ़ॉर्मेल्डीहाइड की गंध आती है। इस तरह मैं 1,200 युआन ज़्यादा कमाऊँगी।" मैंने तय किया कि मैं उसे कम गुणवत्ता वाला फ़र्नीचर बेचूँगी। लेकिन फिर मैंने सोचा कि फ़ॉर्मेल्डीहाइड हानिकारक है और मुझे बेचैनी महसूस हुई। लेकिन फिर, मुझे पता था कि दूसरी सभी दुकानें इसी तरह कारोबार करती हैं। अगर मैंने उसे धोखा नहीं दिया, तो वह बस कहीं और जाकर धोखा खाएगा। मैंने सोचा कि मैं ही वे पैसे कमा लूँ। इसलिए शांत मन के साथ, मैंने उसकी बताई हुई संख्या में नकली उत्पाद मँगवा लिए। जब मैंने कुछ दिन बाद सामान भिजवाया, तो ग्राहक को गुणवत्ता और गंध पर संदेह हुआ। उसने मुझसे पूछा, "यह चीज़ तो खतरनाक है न? आप इस तरह कारोबार कैसे कर सकती हैं? अब मुझे ये सामान नहीं चाहिए!" मैं उसके साथ मोल-भाव करके उसे बेहतर प्रस्ताव देना चाहती थी, बशर्ते वह पूरा सामान रख ले। लेकिन उसने मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया, बल्कि बहुत मज़बूत और पक्के इरादे से कहा कि उसे सारा सामान वापस करना है। मेरे पास उन सभी 120 मेजों और कुर्सियों को वापस लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। घर लौटने के बाद मैं बहुत दुखी थी। मैं सोच रही थी कि बेईमानी से काम करने में कड़ी मेहनत और बहुत सारे संसाधन लगे। बात केवल पैसों की नहीं थी, बल्कि मेरे नाम और मान-सम्मान को नुकसान पहुँचा था। मैंने जो बोया था वही काट रही थी। अगर मैं परमेश्वर की इच्छा के मुताबिक काम करती, और नकली सामान न बेचती तो भले ही मैं उतने पैसे नहीं कमाती, लेकिन कोई भी मुझसे नाराज़ नहीं होता और मैं चिंता में नहीं घुलती या घबराहट महसूस नहीं करती। बेईमान बनकर मैं अपने साथ-साथ दूसरों को भी चोट पहुँचा रही थी! मैं प्रार्थना करने के लिए परमेश्वर के सामने आई और मैंने कहा, "हे परमेश्वर! तू चाहता है कि हम लोग ईमानदार बनें लेकिन मैं अभी भी बेईमानी से कारोबार करती हूँ। आज जो हुआ वह तेरा अनुशासन था और मैं इस तरह जीने की कड़वाहट को और सहन नहीं कर सकती। अब मैं लोगों को धोखा नहीं देना चाहती। मैं चाहती हूँ कि तू ईमानदार बनने में मेरा मार्गदर्शन करे। मैं तेरी अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश करने के लिए तैयार हूँ।"

फिर एक दिन अपने धार्मिक पाठ में मैंने परमेश्वर के वचनों में यह पढ़ा : "मैं ऐसा परमेश्वर जो मनुष्यों के अंतरतम हृदय की जाँच करता है। लोगों के सामने एक तरह से और उनकी पीठ पीछे दूसरी तरह से काम न करो; तुम जो कुछ भी करते हो, उसे मैं स्पष्ट रूप से देखता हूँ, तुम दूसरों को भले ही मूर्ख बना लो, लेकिन तुम मुझे मूर्ख नहीं बना सकते। मैं यह सब स्पष्ट रूप से देखता हूँ। तुम्हारे लिए कुछ भी छिपाना संभव नहीं है; सबकुछ मेरे हाथों में है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, आरंभ में मसीह के कथन, अध्याय 44)। "क्या तुम्हें लगता है कि तुम्हारे किसी के साथ पैसे की धोखाधड़ी करने के बाद तुम्हें कुछ नहीं होगा? क्या तुम्हें लगता है कि उस पैसे की ठगी करने के पश्चात्, तुम्हें कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ेगा? यह तो असंभव होगा; और निश्चित रूप से इसके परिणाम होंगे! इस बात की परवाह किए बिना कि वे कौन हैं, या वे यह विश्वास करते हैं अथवा नहीं कि परमेश्वर है, सभी व्यक्तियों को अपने व्यवहार का उत्तरदायित्व लेना होगा और अपनी करतूतों के परिणामों को भुगतना होगा" (वचन, खंड 2, परमेश्वर को जानने के बारे में, स्वयं परमेश्वर, जो अद्वितीय है X)। "यह कि परमेश्वर लोगों से ईमानदार बनने का आग्रह करता है यह साबित करता है कि वो वास्तव में उन लोगों से घृणा करता है जो बेईमान हैं और परमेश्वर बेईमान लोगों को पसंद नहीं करता। परमेश्वर कपटी लोगों को पसंद नहीं करता है, इस तथ्य का अर्थ है कि वो उनके कार्यों, स्वभाव, और मंशाओं से नफ़रत करता है; अर्थात, परमेश्वर उनके कार्य करने के तरीके को पसंद नहीं करता। इसलिए, अगर हमें परमेश्वर को प्रसन्न करना है, तो हमें सबसे पहले अपने कार्यों और अपने मौजूदा अस्तित्व को बदलना होगा। इससे पहले, हमने लोगों के बीच रहने के लिए झूठ, दिखावे, और बेईमानी को अपनी पूँजी के रूप में और अस्तित्व संबंधी आधार, जीवन, और बुनियाद जिसके अनुसार हम आचरण करते थे, के रूप में उपयोग करते हुए इन पर पर भरोसा किया। यह कुछ ऐसा है जिससे परमेश्वर घृणा करता था"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'एक ईमानदार व्यक्ति होने का सबसे बुनियादी अभ्यास')

मैं परमेश्वर के वचनों से महसूस कर सकती थी कि परमेश्वर का स्वभाव धार्मिक और पवित्र है और वह कोई अपमान सहन नहीं करता। वह हमारे हर शब्द और कर्म की जाँच करता है और अंत में हम सभी को अपने कर्म के मुताबिक वही मिलता है जिसके हम हकदार हैं। मैं ज़्यादा पैसा कमाने के लिए धोखाधड़ी करके कुछ समय तक बच सकती हूँ, लेकिन बाद में मुझे बुरे परिणाम भुगतने होंगे। मैं नर्क में जाऊँगी और मरने के बाद दण्ड पाऊँगी। यह एक स्वर्गिक नियम है। मैंने देखा कि मैं कितनी मूर्खता कर रही थी। मैंने सोचा था, मैं भाई-बहनों के साथ ईमानदार लेकिन अपने कारोबार में धोखेबाज़ बनकर परमेश्वर की कृपा और बाद में आशीर्वाद पा सकती हूँ और इस दौरान मेरे हितों को कोई नुकसान नहीं पहुँचेगा। मैं अपनी चालों से लोगों को मूर्ख बना सकती थी, लेकिन परमेश्वर को नहीं। मैंने उन मेजों और कुर्सियों के लिए काफ़ी पैसे दिए थे। वह परमेश्वर का अनुशासन था, लेकिन वह मुझे चेतावनी देकर बचा भी रहा था। वरना मैं बेईमान होने के लाभों का आनंद लेती रहती और अंत में निश्चित रूप से मुझे अपने कर्मों का फल मिलता। इस ख्याल ने मुझे थोड़ा डरा दिया और मैं खुद पर विचार करने लगी। कारोबार में बिताए सालों के बारे में सोचूँ, तो मैंने अधिक पैसा कमाने के लिए अपनी अंतरात्मा को अनदेखा किया, ग्राहकों के माँगे हुए अच्छी गुणवत्ता वाले उत्पादों की जगह घटिया उत्पाद दिए। मैंने झूठ बोला, धोखा दिया और लगातार घटिया गुणवत्ता वाले सामान को उच्च गुणवत्ता वाला बताकर गलत तरीके से पेश किया। आस्था रखने और यह अच्छी तरह जानने के बाद भी कि परमेश्वर चाहता है हम ईमानदार बनें, मनुष्य या परमेश्वर को धोखा न दें, मैंने धोखा देकर और ग्राहकों से झूठ बोलकर बेईमानी से पैसे कमाए। मैं पैसों के लिए कुछ भी कर सकती थी। मैं बेईमानी से कारोबार कर रही थी, लोगों को धोखा दे रही थी, मैं शैतान द्वारा भ्रष्ट और विवेक या तर्क से विहीन हो गई थी। मैं चालाक, स्वार्थी और नीच थी, बिना इंसानियत के एक दुष्टात्मा की तरह जी रही थी। यह वैसा ही था जैसा प्रभु यीशु ने कहा : "तुम अपने पिता शैतान से हो और अपने पिता की लालसाओं को पूरा करना चाहते हो। वह तो आरम्भ से हत्यारा है और सत्य पर स्थिर न रहा, क्योंकि सत्य उसमें है ही नहीं। जब वह झूठ बोलता, तो अपने स्वभाव ही से बोलता है; क्योंकि वह झूठा है वरन् झूठ का पिता है" (यूहन्ना 8:44)। "परन्तु तुम्हारी बात 'हाँ' की 'हाँ,' या 'नहीं' की 'नहीं' हो; क्योंकि जो कुछ इस से अधिक होता है वह बुराई से होता है" (मत्ती 5:37)। केवल शैतान हमेशा झूठ बोलता और धोखा देता है और यही मैं कर रही थी। क्या मैं शैतान के समान नहीं थी? मेरी इंसानियत कहाँ थी? यह सोचकर मुझे खुद से बहुत घृणा हुई। मैं अब अपने फ़ायदे के लिए झूठ नहीं बोलना चाहती थी। फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "ईमानदार व्यक्ति बनो; अपने हृदय में व्याप्त धोखे से छुटकारा दिलाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करो। हर समय प्रार्थना के माध्यम से अपने आपको शुद्ध करो, प्रार्थना के माध्यम से परमेश्वर के आत्मा द्वारा प्रेरित किए जाओ, और तुम्हारा स्वभाव धीरे-धीरे बदल जाएगा" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, प्रार्थना के अभ्यास के बारे में)। "ईमानदारी का अर्थ है अपना हृदय परमेश्वर को अर्पित करना; हर बात में उसके साथ सच्चाई से पेश आना; हर बात में उसके साथ खुलापन रखना, कभी तथ्यों को न छुपाना; अपने से ऊपर और नीचे वालों को कभी भी धोखा न देना, और परमेश्वर से लाभ उठाने मात्र के लिए काम न करना। संक्षेप में, ईमानदार होने का अर्थ है अपने कार्यों और शब्दों में शुद्धता रखना, न तो परमेश्वर को और न ही इंसान को धोखा देना" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, तीन चेतावनियाँ)। परमेश्वर के वचनों ने मुझे अभ्यास का मार्ग दिया। मुझे पता था कि ईमानदार इंसान बनने की कोशिश में मुझे परमेश्वर पर भरोसा करना होगा, अपने भ्रष्ट स्वभाव से मुक्त होने के लिए मुश्किलें आने पर परमेश्वर से प्रार्थना करनी होगी। कारोबार में पैसों या मेरे हितों की बात आने पर भी मुझे प्रार्थना करनी थी, परमेश्वर की जाँच-परख को स्वीकार करना था और एक सच्चा इंसान बनना था। मुझे खरी बात बोलनी थी, शब्द और कर्म में तथ्यों से सत्य की खोज करनी थी। इन सबका एहसास होने पर मैंने प्रार्थना की, मैं परमेश्वर की जाँच-परख को स्वीकार करने और उसके वचनों को अभ्यास में लाने को तैयार थी।

कुछ ही समय बाद, एक ग्राहक मेटल की कुछ अलमारियाँ लेने आया। उसने मज़बूत ढाँचे वाली औसत से ऊँची गुणवत्ता की अलमारियाँ माँगी। उस समय मैंने सोचा, "अगर मैंने वैसा ही सामान मँगवाया जैसा वह चाहता है, तो ऊपरी खर्चे और लागत निकालने के बाद मुझे कुछ विशेष कमाई नहीं होगी। अगर मैं इसे थोड़ा हल्का सामान ढूँढकर दे दूँ और इसका ध्यान न जाए, तो इससे मैं 10,000 युआन या इससे अधिक कमा सकती हूँ। क्यों न मैं कोई कम मज़बूत सामान मँगवा लूँ?" इस सोच में उलझते हुए मैंने याद किया कि लोगों को धोखा देने का क्या नतीजा हुआ था। न केवल मैंने कुछ नहीं कमाया, बल्कि मुझे नुकसान हुआ और बहुत बुरा भी लगा। मैंने यह भी सोचा कि कैसे ईमानदार लोग परमेश्वर को आनंदित करते हैं और उसका आशीर्वाद पाते हैं, वह चाहता है कि हम पूर्ण सत्य बोलें। मैं अपनी अंतरात्मा को अनसुना करके केवल पैसों के लिए बेईमानी नहीं कर सकती थी। मुझे एहसास हुआ कि दोबारा यह स्थिति आने का मतलब है कि परमेश्वर मेरी परीक्षा ले रहा है, वह देखना चाहता है कि मैं परमेश्वर के सामने लिए संकल्प के मुताबिक अभ्यास कर सकती हूँ या नहीं। मैंने परमेश्वर से प्रार्थना करके कहा कि वह मुझे प्रलोभन से बचाए, मुझे सत्य का अभ्यास करने, खुद की इच्छाओं को त्यागने, और परमेश्वर को प्रसन्न करने वाली ईमानदार इंसान बनने की शक्ति दे। प्रार्थना के बाद मैं अधिक सशक्त महसूस कर रही थी। मैंने उसके लिए वैसी ही मेटल की अलमारियाँ मँगवाई जैसी उसने कही थी, भले ही मैंने उतना नहीं कमाया, मगर मेरे दिल में शांति का एहसास था। मैंने यह भी महसूस किया कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार ईमानदारी का अभ्यास करना कितना अद्भुत है। यह बोझिल नहीं था और मुझे चिंता नहीं थी कि क्या होगा।

फिर मैंने परमेश्वर के इन वचनों को पढ़ा : "ऐसी गन्दी जगह में जन्म लेकर, मनुष्य समाज के द्वारा बुरी तरह संक्रमित किया गया है, वह सामंती नैतिकता से प्रभावित किया गया है, और उसे 'उच्च शिक्षा के संस्थानों' में सिखाया गया है। पिछड़ी सोच, भ्रष्ट नैतिकता, जीवन पर मतलबी दृष्टिकोण, जीने के लिए तिरस्कार-योग्य दर्शन, बिल्कुल बेकार अस्तित्व, पतित जीवन शैली और रिवाज—इन सभी चीज़ों ने मनुष्य के हृदय में गंभीर रूप से घुसपैठ कर ली है, और उसकी अंतरात्मा को बुरी तरह खोखला कर दिया है और उस पर गंभीर प्रहार किया है। फलस्वरूप, मनुष्य परमेश्वर से और अधिक दूर हो गया है, और परमेश्वर का और अधिक विरोधी हो गया है। ... सत्य को सुनने के बाद भी, जो लोग अन्धकार में जीते हैं, इसे अभ्यास में लाने का कोई विचार नहीं करते, यदि वे परमेश्वर के प्रकटन को देख लेते हैं तो इसके बावजूद उसे खोजने की ओर उन्मुख नहीं होते हैं। इतनी पथभ्रष्ट मानवजाति को उद्धार का मौका कैसे मिल सकता है? इतनी पतित मानवजाति प्रकाश में कैसे जी सकती है?" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, अपरिवर्तित स्वभाव होना परमेश्वर के साथ शत्रुता रखना है)। "जब तक लोग परमेश्वर के कार्य का अनुभव नहीं कर लेते हैं और सत्य को प्राप्त नहीं कर लेते हैं, तब तक यह शैतान की प्रकृति है जो भीतर से इन पर नियंत्रण कर लेती है और उन पर हावी हो जाती है। वह प्रकृति विशिष्ट रूप से किस चीज़ को अपरिहार्य बनाती है? उदाहरण के लिए, तुम स्वार्थी क्यों हो? तुम अपने पद की रक्षा क्यों करते हो? तुम्हारी भावनाएँ इतनी प्रबल क्यों हैं? तुम उन अधार्मिक चीज़ों से प्यार क्यों करते हो? ऐसी बुरी चीज़ें तुम्हें अच्छी क्यों लगती हैं? ऐसी चीजों को पसंद करने का आधार क्या है? ये चीज़ें कहाँ से आती हैं? तुम इन्हें स्वीकारकर इतने खुश क्यों हो? अब तक, तुम सब लोगों ने समझ लिया है कि इन सभी चीजों के पीछे मुख्य कारण यह है कि वे शैतान के जहर से युक्त हैं। जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि शैतान का जहर क्या है, इसे वचनों के माध्यम से पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि तुम कुछ कुकर्मियों से पूछते हो उन्होंने बुरे कर्म क्यों किए, तो वे जवाब देंगे: 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये।' यह अकेला वाक्यांश समस्या की जड़ को व्यक्त करता है। शैतान का तर्क लोगों का जीवन बन गया है। भले वे चीज़ों को इस या उस उद्देश्य से करें, वे इसे केवल अपने लिए ही कर रहे होते हैं। सब लोग सोचते हैं चूँकि जीवन का नियम, हर कोई बस अपना सोचे, और बाकियों को शैतान ले जाए, यही है, इसलिए उन्हें बस अपने लिए ही जीना चाहिए, एक अच्छा पद और ज़रूरत के खाने-कपड़े हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए। 'हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये'—यही मनुष्य का जीवन और फ़लसफ़ा है, और इंसानी प्रकृति का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह कथन वास्तव में शैतान का जहर है और जब इसे मनुष्य के द्वारा आत्मसात कर लिया जाता है तो यह उनकी प्रकृति बन जाता है। इन वचनों के माध्यम से शैतान की प्रकृति उजागर होती है; ये पूरी तरह से इसका प्रतिनिधित्व करते हैं। और यही ज़हर मनुष्य के अस्तित्व की नींव बन जाता है और उसका जीवन भी, यह भ्रष्ट मानवजाति पर लगातार हजारों सालों से इस ज़हर के द्वारा हावी रहा है"("अंत के दिनों के मसीह की बातचीत के अभिलेख" में 'पतरस के मार्ग पर कैसे चलें')। परमेश्वर के वचनों से मुझे यह समझने में मदद मिली कि मैं झूठ बोलने और धोखा देने से खुद को रोक क्यों नहीं पा रही थी। ऐसा इसलिए था क्योंकि शैतान ने मुझे बहुत गहराई तक भ्रष्ट कर दिया था। शैतान हमारे समाज और औपचारिक शिक्षा का उपयोग करके हमें इन शैतानी नियमों की ओर धकेलता है, जैसे, "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये," "पैसा ही सब कुछ नहीं है, किन्तु इसके बिना, आप कुछ नहीं कर सकते हैं," "दुनिया पैसों के इशारों पर नाचती है," और "पैसा सबसे पहले है।" यह भी कहते हैं "ऐसा कोई कारोबारी नहीं जो ईमानदार हो।" ये बातें मेरे मन में बैठ गईं और मेरी प्रकृति बन गईं। इसलिए मैं पैसों की पूजा करने लगी और मैंने लाभ कमाने के लिए एक-एक करके अपने सबसे बुनियादी आदर्शों को त्याग दिया। मेरी बुराई, लालच और स्वार्थ बढ़ते चले गए। मैं बेहद स्वार्थी और धोखेबाज़ थी। कारोबार करते हुए, मैंने अच्छे की जगह घटिया सामान दिया और बिना गलती माने खुद को नुकसान पहुँचाया। मैंने पैसों और अपने हितों को सबसे ऊपर रखा, यहाँ तक कि अपनी अंतरात्मा और सत्यनिष्ठा को बेच दिया। मैंने अपनी इंसानियत खो दी थी। उस तरह मैंने बहुत पैसा कमाया, लेकिन मुझे बिल्कुल खुशी नहीं हुई। बल्कि, मुझे हमेशा थकावट और घबराहट रहती थी। जीने का वह तरीका दर्दनाक था। आखिरकार मुझे समझ आया कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि शैतान ने मुझे भ्रष्ट कर दिया था, क्योंकि मैं शैतान के नियमों के मुताबिक जीवन जीती थी। मुझे यह भी समझ आ गया कि आजकल दुनिया में इतना अन्धकार और बुराई क्यों है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी लोग शैतान के इन विषों के मुताबिक जीते हैं, जैसे "हर व्यक्ति अपनी सोचे बाकियों को शैतान ले जाये" और "अमीर बनने के लिए इंसान कुछ भी कर सकता है।" इसलिए लोग पैसे, प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा से प्रेम करते हैं, बुरे सुखों की लालसा रखते हैं और अधिक से अधिक स्वार्थी, लालची, और बुरे बनते जा रहे हैं। लोग पैसे और लाभ के लिए एक-दूसरे से लड़ते हैं, एक-दूसरे को चोट पहुँचाते और धोखा देते हैं, किसी भी हद तक चले जाते हैं। यहाँ तक कि परिवार और दोस्तों में भी यही होता है। अब कोई अंतरात्मा या सत्यनिष्ठा की परवाह नहीं करता, लोग इंसान की तरह नहीं लगते। शैतान के चंगुल में कसकर जकड़ा हुआ हमारा समाज रंग भरी एक बाल्टी, मांस पीसने के एक उपकरण जैसा है। परमेश्वर में आस्था के बिना, मानव जाति को भ्रष्ट करने के शैतान के तरीके का सत्य जानना या इसके बुरे प्रभाव से बचना संभव नहीं है। हम केवल अधिक भ्रष्ट और दुष्ट बनते जाते हैं और अंततः शैतान हमें निगल लेता है। यह शैतान द्वारा हमें भ्रष्ट करने और चोट पहुँचाने का परिणाम है। यह एहसास होने पर मैंने वाकई परमेश्वर की सुरक्षा और उद्धार के लिए उसे धन्यवाद दिया। सर्वशक्तिमान परमेश्वर के वचनों के मार्गदर्शन, पोषण और न्याय के बिना, मैं एक ईमानदार इंसान होने का महत्व नहीं जान पाती। मैं लगातार झूठ बोलने के सार और परिणाम को भी नहीं समझ पाती। मैं शैतान के चंगुल में ही फँसी रहती, हमेशा धोखा देती रहती, इंसान की तरह जीवन नहीं जी पाती। चाहे मैं कितना भी पैसा कमा लेती, मगर फिर भी मैं नर्क में दण्ड पाती। उसके बाद से, मैंने सच्चाई और ईमानदारी से कारोबार करने का अभ्यास किया। कभी-कभी मुझे पैसे का बहुत प्रलोभन होता था, मैंने तब भी लोगों के साथ छल और धोखा करने के बारे में सोचा था, लेकिन मुझे पता था कि परमेश्वर को इससे घृणा है और लोगों को भी यह पसंद नहीं है। मैं परमेश्वर से मेरे गलत इरादों को त्यागने की प्रार्थना करती थी और एक ईमानदार इंसान होने का अभ्यास करती थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि जब मैंने ऐसा किया, तो मेरी कमाई कम नहीं हुई। मेरे कारोबार में सुधार हुआ और मेरे ग्राहक लगातार बढ़ने लगे। मैंने लोगों का सम्मान अर्जित किया, बार-बार सामान खरीदने वाले कुछ ग्राहक मुझ पर भरोसा करते थे, इसलिए वे सामान देखने भी नहीं आते थे, बस फ़ोन करके मँगवा लेते थे। मुझे और अधिक एहसास हुआ कि ईमानदार बनकर और परमेश्वर के वचनों का अभ्यास करके कितना सुकून, स्वतंत्र और सुरक्षित महसूस होता है।

एक बार एक ग्राहक आया और उसने मेटल की 500 अलमारियाँ माँगी, उसे 0.7 मिलीमीटर मोटी मेटल चाहिए थी। मैंने बिल्कुल भी संकोच नहीं किया, जैसा उसने कहा था ठीक वैसा ही सामान मँगवा लिया। सारा सामान भिजवाने के बाद, आश्चर्यजनक रूप से उसने मोटाई की जाँच करने के लिए एक माइक्रो कैलिपर निकाल लिया, लेकिन मैं पूरी तरह शांत, निश्चिंत या निर्भय थी। सामान को मापने के बाद उसने कहा, "आप वाकई भरोसेमंद हैं। बहुत-से लोग केवल पैसा कमाना चाहते हैं और वे भरोसेमंद नहीं हैं। अब आप जैसे लोग बहुत कम हैं। मैं आगे आपसे और भी सामान लूँगा।" उसकी यह बात सुनकर मैंने और भी गहराई से महसूस किया कि परमेश्वर के वचनों के अनुसार ईमानदार होना कितना अच्छा है। परमेश्वर के वचनों में भी यही लिखा है : "भविष्य की दिशा इस प्रकार होगी : जो लोग परमेश्वर के मुख से कथनों को प्राप्त करेंगे, उनके पास पृथ्वी पर चलने के लिए मार्ग होगा, और चाहे वे व्यवसायी हों या वैज्ञानिक, या शिक्षक हों या उद्योगपति, जो लोग परमेश्वर के वचनों से रहित हैं, उनके लिए एक कदम चलना भी दूभर होगा, और उन्हें सच्चे मार्ग पर चलने के लिए बाध्य किया जाएगा। 'सत्य के साथ तू संपूर्ण संसार में चलेगा; सत्य के बिना तू कहीं नहीं पहुँचेगा' से यही आशय है" (वचन, खंड 1, परमेश्वर का प्रकटन और कार्य, सहस्राब्दि राज्य आ चुका है)। मैं परमेश्वर के उद्धार के लिए उसे धन्यवाद देती हूँ!

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