भ्रष्‍ट स्‍वभाव दूर करने का मार्ग

तुम चाहे जो कुछ कर रहे हो, तुम्हें यह सीखना चाहिए कि सत्य को कैसे खोजें और उसके प्रति समर्पण कैसे करें; तुम्हें चाहे कोई भी सलाह दे रहा है, अगर यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप है तो फिर चाहे कोई छोटा बच्चा भी बताए, इसे स्वीकार कर मान लेना चाहिए। किसी व्यक्ति में चाहे कोई समस्या हो, अगर उसकी बातें और सलाह पूरी तरह सत्य के अनुरूप हैं तो फिर तुम्हें इन्हें स्वीकार कर मान लेनी चाहिए। इस ढंग से कार्य करने के परिणाम सुखद और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप होंगे। महत्वपूर्ण यह देखना है कि तुम्हारे प्रयोजन क्या हैं और चीजें सँभालने के तुम्हारे सिद्धांत और तरीके क्या हैं। अगर चीजें सँभालने के तुम्हारे सिद्धांत और तरीके मनुष्य की इच्छा से, मनुष्य के विचारों और धारणाओं से, या शैतान के फलसफों से उपजे हैं, तो तुम्हारे सिद्धांत और तरीके अव्यावहारिक हैं, और उनका अप्रभावी होना तय है। ऐसा इसलिए है कि तुम्हारे सिद्धांतों और तरीकों का मूल गलत है, यह सत्य के सिद्धांतों के अनुसार नहीं हैं। अगर तुम्हारे विचार सत्य के सिद्धांतों पर आधारित हैं, और तुम सत्य के सिद्धांतों के अनुसार चीजें सँभालते हो, तो तुम निस्संदेह उन्हें सही तरीके से सँभालोगे। भले ही उस समय कुछ लोग तुम्हारे चीजें सँभालने के तरीकों को न स्वीकारें, या फिर इनके बारे में धारणाएँ पालें या इनका विरोध करें, कुछ समय बाद इन्हें स्वीकारा जाएगा। जो चीजें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार होती हैं, उनके उत्तरोत्तर सकारात्मक नतीजे निकलते जाते हैं, जबकि जो चीजें सत्य के सिद्धांतों के अनुसार नहीं होतीं, उनके उत्तरोत्तर नकारात्मक नतीजे निकलते हैं, भले ही वे उस समय लोगों की धारणाओं के अनुरूप हों। तमाम लोग इसकी पुष्टि करेंगे। तुम जो कुछ भी करते हो, वह मानवीय विवशताओं के अधीन नहीं करना चाहिए, और तुम्हें अपने हिसाब से निर्णय नहीं करना चाहिए; पहले तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना कर सत्य खोजना चाहिए, और फिर इस विषय में सबके साथ खोजबीन और संगति करनी चाहिए। संगति का उद्देश्य क्या है? उद्देश्य यह है कि तुम ठीक परमेश्वर की इच्छा के अनुसार चीजें कर सको और परमेश्वर की इच्छा के अनुरूप कार्य कर सको। यह बात कहने का कुछ-कुछ भव्य तरीका है और लोग इसे पूरी तरह समझ नहीं पाएंगे। इसे और अधिक ठोस शब्दों में कहें तो, इसका उद्देश्य यह है कि तुम चीजें ठीक सत्य के सिद्धांतों के अनुसार कर सको। यह कुछ अधिक स्पष्ट है। जब कोई व्यक्ति इस मानक को पूरा करता है, तो वह सत्य का अभ्यास और परमेश्वर की इच्छा का अनुपालन कर रहा होता है; उसके पास सत्य की वास्तविकता होती है और इसमें किसी को कोई आपत्ति भी नहीं होगी।

जब तुम्हारे सामने कोई मामला आए तो बहस करने के बजाय पहले तुम्हें अपनी धारणाएँ, कल्पनाएँ और फैसले परे रखने चाहिए—किसी व्यक्ति में यही तार्किकता होनी चाहिए। अगर कोई ऐसी चीज है जिसे मैं समझता नहीं हूँ और मैं इसका विशेषज्ञ नहीं हूँ तो किसी ऐसे व्यक्ति से राय लूँगा जो इस विषय से परिचित हो। उससे सलाह लेने के बाद मुझे इस मामले की बुनियादी समझ मिल जाएगी। लेकिन, मुझे मामला खुद सँभालने के तरीके खोजते रहने चाहिए, न तो मैं पूरी तरह दूसरे लोगों की राय पर निर्भर रह सकता हूँ, न मुझे पूरी तरह अपनी कल्पनाओं के आधार पर मामला सँभालना चाहिए। मुझे काम करने के ऐसे तरीके खोजते रहने चाहिए जिससे कलीसिया के कार्य को फायदा हो और यह सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप भी रहे। क्या यह चीजों से निपटने का तार्किक तरीका नहीं है? क्या यही बुद्धि सामान्य व्यक्ति में नहीं होनी चाहिए? इस तरह सलाह करना और माँगना सही है। मान लो कि तुम किसी एक क्षेत्र के जानकार हो और मैं इसके बारे में तुमसे सलाह लेता हूँ, लेकिन बाद में, तुम माँग करने लगो कि तुमने जो कहा, मैं उसी का पालन करूँ और तुम्हारी कार्ययोजना पर चलूँ—तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? यह अहंकारी स्वभाव है। ऐसे में तुम्हारे लिए कार्य करने का उचित तरीका क्या होगा? तुम्हें कहना चाहिए : “मुझे इस क्षेत्र में थोड़ा-सा ही ज्ञान है, लेकिन यह सत्य से संबंधित नहीं है। आप इसे केवल सुझाव के तौर पर ले सकते हैं, लेकिन कार्य कैसे करना है इसकी विशिष्ट जानकारी के लिए आपको परमेश्वर की इच्छा के बारे में और अधिक जानकारी लेनी होगी।” अगर मैं तुमसे सलाह माँगता हूँ और तुम वास्तव में यह सोचते हो कि तुम इस मामले को समझते हो, और खुद को असाधारण मानते हो, तो यह अहंकारी स्वभाव है। अहंकारी प्रकृति तुममें इस प्रकार की प्रतिक्रिया और अभिव्यक्ति ला सकती है—जब कोई व्यक्ति तुमसे सलाह माँगता है तो तुम फौरन अपनी तार्किकता खो बैठते हो; तुम सामान्य व्यक्ति की बुद्धि खो देते हो और सही निर्णय नहीं ले पाते हो। जब किसी का भ्रष्ट स्वभाव छलक रहा हो तो इसका कारण सामान्य नहीं होता है। इसलिए तुम्हारे साथ चाहे जो हो, भले ही दूसरे लोग तुमसे सलाह लें, तुम्हें धृष्ट बनने की बजाय सामान्य बुद्धि अपनानी चाहिए। कार्य करने का सामान्य तरीका क्या है? इस सवाल पर तुम्हें यह सोचना चाहिए : “यद्यपि मैं यह मामला समझता हूँ लेकिन मैं धृष्टता नहीं दिखा सकता हूँ। मुझे इसे सामान्य मानवता की बुद्धि से सुलझाना चाहिए।” परमेश्वर के समक्ष लौटने पर तुम्हें सामान्य मानवता की बुद्धि मिलेगी। यद्यपि यदा-कदा तुम आत्म-संतुष्टि का कोई भाव प्रकट करोगे लेकिन तुम्हारे दिल में संयम होगा—तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव के खुलासे घटकर आधे रह जाएँगे, और दूसरों पर तुम्हारा बहुत ही कम नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। लेकिन, अगर तुम अपने अहंकारी स्वभाव के अनुसार कार्य करते हो, हमेशा खुद को ही सही मानते हो और लिहाजा दूसरों को अपनी बात सुनने के लिए मजबूर करते हो तो यह बुद्धि का भारी अभाव दिखाता है। अगर लोगों को बताया गया तुम्हारा रास्ता सही है तो चीजें ठीक हो सकती हैं, लेकिन यदि यह रास्ता गलत है तो उन्हें नुकसान होगा। अगर कोई तुमसे निजी मामले में सलाह मांगे और तुम उसे गलत रास्ता पकड़ा दो तो तुम केवल एक व्यक्ति को नुकसान पहुँचाओगे। लेकिन, अगर वह तुमसे कलीसिया के कार्य से जुड़े किसी महत्वपूर्ण मामले में राय लेता है और तुम उन्हें गलत रास्ता बताते हो तो तुम कलीसिया के कार्य को नुकसान पहुँचा चुके होगे, और परमेश्वर के घर के हितों को क्षति पहुँचेगी। अगर समस्या गंभीर प्रकृति की है और यह परमेश्वर के स्वभाव को ठेस पहुँचाती है तो नतीजे अकल्पनीय होंगे।

परिस्थिति चाहे जो भी हो, जैसे ही किसी के मन में भ्रष्ट विचार और ख्याल उठने लगते हैं, और उसका भ्रष्ट स्वभाव छलकने लगता है तो यह मामूली बात नहीं रह जाती है। अगर वह अपनी भ्रष्टता दूर करने के लिए सत्य न खोजे तो इसके शोधन का कोई उपाय नहीं होगा। लेकिन, अगर वह परमेश्वर के वचनों का प्रयोग कर तार्किक रूप से सत्य को खोजने और अपनी भ्रष्टता प्रकट होने के मूल कारण को पहचानने में सक्षम है तो उसके लिए अपने भ्रष्ट स्वभाव की समस्या दूर करना आसान होगा। तुम प्रतीक्षा करने और खोजने के लिए अपनी आत्मा में जितना अधिक आश्रय लोगे, तुम्हारे लिए समस्या का सार समझने के लिए परमेश्वर के प्रासंगिक शब्दों को ढूंढ़ना उतना ही आसान होगा। इस तरह तुमसे भ्रष्टता का प्रवाह कम से कम होता जाएगा, तुम परमेश्वर के प्रति समर्पण कर सकोगे, तुम फिर कभी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर नहीं बोलोगे या कार्य नहीं करोगे, और तुम्हारी मानवता अधिक से अधिक सामान्य होती जाएगी। सामान्य मानवता क्या होती है? यह ऐसी कथनी-करनी है जो सामान्य मानवता और बुद्धि-विवेक के मानकों, सत्य के सिद्धांतों और परमेश्वर-अपेक्षित मानकों के अनुरूप हो—यही सामान्य मानवता की अभिव्यक्ति है। इसलिए तुम्हारे साथ चाहे जो हो, तुम्हें सबसे पहले शांत होना चाहिए, परमेश्वर के सामने चुपचाप प्रार्थना करनी चाहिए और यह जानना चाहिए कि इस मामले में उसकी इच्छा के अनुरूप कैसे कार्य किया जाए। सामान्य मानवता वाले लोगों में यह तार्किकता होती है—वे खुद को नियंत्रित कर सकते हैं और इसमें सफल हो सकते हैं, यह सिर्फ इस पर निर्भर करता है कि तुम इस तरह अभ्यास करने के लिए तैयार हो या नहीं। अगर तुम हमेशा दिखावा करने, अपनी शेखी बघारने, खुद को ऊँचा रखकर दूसरों के दिलों में आदर्श बनने की कोशिश कर रहे हो तो तुम पहले ही परमेश्वर से दूर भटक चुके हो। तुम उसके समक्ष लौटने में असमर्थ रहोगे और अपने मन में तो तुम पहले ही उसके विरुद्ध खड़े हो चुके हो। तुम हमेशा अपने ख्यालों के आधार पर काम करना चाहते हो, और कोई कार्य पूर्ण करने के बाद तो तुम्हें ऐसा लगता है मानो तुमने कोई बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर ली है, मानो कि तुम किसी महान उद्यम में लगे हुए हो, कि तुम काबिल हो, कोई मामूली इंसान नहीं हो, और तुम अतिमानव और कोई महान व्यक्ति बनने की कोशिश करते हो। इस तरह काम करना मुसीबतों से भरा है और यह सही राह पर चलना नहीं है। सत्य का अनुसरण न करने वाले लोग ऐसे ही होते हैं; उनमें जरा-सी भी सामान्य मानवता नहीं होती और वे राक्षसी प्रकृति से भरे हुए हैं। जो लोग सचमुच परमेश्वर में विश्वास करते हैं वे सत्य को स्वीकारने में सक्षम होते हैं, वे इसके लिए प्रयासरत रहने के इच्छुक होते हैं, और वे सामान्य मानव की तरह जीने का आनंद उठाते हैं। इसके लिए सत्य के लिए प्रयास करने, अक्सर परमेश्वर के वचन पढ़ने, और इन्हें बारम्बार पढ़ने, इन्हें अपने दिल में उतारने और सत्य की समझ हासिल करने की जरूरत होती है। तुम्हारा चित्त निरंतर शांत स्थिति में रहना चाहिए, और जब तुम्हारे साथ कुछ बीते तो तुम्हें उतावला, पूर्वाग्रही, जिद्दी, कट्टर, कृत्रिम या नकली नहीं होना चाहिए, ताकि तुम बुद्धि के साथ कार्य करने में सक्षम हो सको। यही सामान्य मानवता की उचित अभिव्यक्ति है।

आजकल ज्यादातर लोग तर्कसंगत नहीं रह पाते। कुछ लोग उनकी तारीफ में दो शब्द भी बोलते हैं तो वे फूले नहीं समाते और खुद को असाधारण मानने लगते हैं। वे कैसा स्वभाव प्रकट कर रहे हैं? क्या यह अहंकारी स्वभाव नहीं है? अगर कोई तुम्हारा थोड़ा-सा भी निपटान या काट-छाँट करता है और तुम सहज नहीं रह पाते, उसके साथ बहस करके उनकी बात नकारना चाहते हो तो तुम किस प्रकार का स्वभाव दिखा रहे हो? यह भी अहंकारी स्वभाव है। मान लो कि जब तुम कुछ करते हो और यह कुछ समय सुचारु रूप से चलता रहे और लोग तुम्हारी प्रशंसा करने लगें, तुमसे कहें कि तुमने अच्छा काम किया है और तुम्हें सराहना भरी निगाह से देखें तो तुम मानने लगते हो कि तुम कुछ भी कर सकते हो और दूसरों से श्रेष्ठ हो। तुम मुदित होते हो और राह चलते हुए भी तुम्हें लगता है कि मानो तुम्हें पालकी पर बैठाकर ले जाया जा रहा है। लेकिन जब अपना काम करते हुए नाकामी हाथ लगती है तो तुम्हारी मन:स्थिति बिगड़ जाती है और तुम दूसरे लोगों के साथ बातचीत करते हुए जरा-सा भी उत्साह नहीं जुटा पाते हो। इस किस्म के लोग बहुत ही दुराग्रही और अपरिपक्व होते हैं, और उनमें सामान्य मानवता का अभाव होता है। सामान्य मानवता वाले लोग किस प्रकार की अभिव्यक्तियाँ प्रकट करते हैं? जब उन्हें असफलता हाथ लगती है या उनसे निपटा जाता है तो वे निराश नहीं होते और अपने कर्तव्यों पर असर नहीं पड़ने देते हैं। भले ही वे अपने कर्तव्य निभाते हुए बहुत कष्ट उठाएँ या महत्वपूर्ण नतीजे हासिल करें, वे खुद को प्रशंसा के योग्य नहीं मानते या किसी पुरस्कार की उम्मीद नहीं करते हैं, न वे किसी से कोई मान-सम्मान की माँग करते हैं। वे अपने अंदर ऐसी भावनाएँ नहीं आने देते हैं। वे ऐसे मामलों को सही तरीके से संभालने में सक्षम रहते हैं और उनके पास सामान्य व्यक्ति की बुद्धि होती है। सामान्य मानवता होने का यही अर्थ है। जब लोग अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार जीते हैं तो वे कभी-कभी अहंकारी और दंभी बन जाएँगे, घमंड में चूर हो जाएँगे, और जब उन्हें असफलताएँ या झटके लगते हैं तो वे निराशा में डूब जाते हैं और उनकी बुद्धि असामान्य हो जाती है। किसी व्यक्ति की मानवता केवल सत्य को समझकर, अपना भ्रष्ट स्वभाव त्याग कर और जीवन में संवृद्धि करके परिपक्व हो सकती है। अपनी मानवता को परिपक्व बनाने के लिए सत्य को समझना और सिद्धांतों के अनुसार कार्य संचालित करना ऐसी अनिवार्य शर्तें हैं जिन्हें पूरी करना जरूरी है। अगर कोई व्यक्ति सत्य को नहीं समझता और सिद्धांतों के अनुसार कार्य नहीं करता है तो फिर उनमें उतार-चढ़ाव आने और उनके चरम स्थितियों के बीच डोलने की बड़ी संभावना है। जब कोई उनकी प्रशंसा करता है तो उनमें अहंकार आ जाता है, और अगर कोई उनका निपटान और काट-छाँट करता है तो वे निराश हो जाते हैं। यह अपरिपक्व मानवता का प्रकटन है। क्या तुम लोग इसी स्थिति में नहीं हो? तुम लोगों में हमेशा उतार-चढ़ाव आता रहता है, थोड़ी-सी भी स्थिरता नहीं होती, तुम कभी भी सामान्य दशा कायम नहीं रख पाते हो। जब तुम अच्छी मन:स्थिति में होते हो और खुशी महसूस करते हो तो उत्साह से भरे रहते हो, और परमेश्वर के लिए अपना जीवन न्योछावर करने तक तैयार रहते हो। लेकिन, जब झटकों, असफलताओं का सामना करना पड़ता है या तुम्हारी काट-छाँट या निपटान होता है तो तुम फौरन नकारात्मक हो जाते हो। तुम खुद को निराशा में डुबो देते हो, तुम्हें लगता है कि तुम चुक चुके हो, और तुम्हारे उद्धार की उम्मीद नहीं बची है, और तुम्हारे बुद्धि-विवेक और न्याय बिल्कुल भी तुम्हारे किसी काम के नहीं हैं। जब लोगों के पास सत्य नहीं होता है तो ऐसा ही होता है—वे केवल अपने शैतानी स्वभाव के अनुसार जी सकते हैं और न चाहते हुए भी पाप में जीने लगते हैं। अपने ही ज्ञान और बुद्धि पर निर्भर रहकर लोग खुद को बचा नहीं सकते; जब लोगों के पास सत्य नहीं होता तो उनके पास जीवन नहीं होता है—यह ऐसा ही है मानो वे आत्मा विहीन हैं। इसलिए, सत्य को हासिल करना परम आवश्यक है। अब जब तुम लोगों को शैतान के लालच का सामना करना पड़े, झटकों और असफलताओं का अनुभव करना पड़े, या विषमता का मुकाबला करना पड़े तो तुम लोगों को कौन-से सबक सीखने चाहिए? परमेश्वर की इच्छा क्या है? वह तुमसे क्या समझने की अपेक्षा करता है? वह चाहता है कि तुम सत्य को समझो और जीवन हासिल करो जिससे तुम्हारी सारी समस्याएँ मूल रूप से हल हो जाएँ। अभी, तुम लोगों की सत्य की समझ बहुत उथली है और तुम्हारा आध्यात्मिक कद बहुत ही छोटा है। इसके परिणामस्वरूप तुम निरंतर असामान्य दशा में रहते हो और तुम्हारा स्वभाव अस्थिर रहता है। जब तुम अच्छी दशा में रहते हो तो तुम आगे बढ़कर एक कदम और प्रगति कर सकते हो, लेकिन जब तुम बुरी स्थिति में रहते हो तो तुम दो कदम पीछे चले जाते हो और कई दिनों तक निराश रहते हो। यह तुम्हारी मौजूदा स्थिति है जिसके कारण ही तुम धीरे-धीरे प्रगति कर पा रहे हो। अक्सर कमजोर पड़ना और निराश बने रहना जीवन-प्रवेश के लिए सबसे बड़ी बाधा है, और अपने जीवन में प्रगति करने के लिए किसी के लिए भी इस समस्या का निराकरण करना जरूरी है। कुछ लोग अपने कर्तव्य निर्वाह में सिर्फ चंद नतीजे मिलने के बाद आत्म-प्रसन्न हो जाते हैं, तारीफें पाकर उनमें अहंकार आ जाता है और वे दूसरों को हेय समझने लगते हैं। इन लोगों में बुद्धि का सर्वाधिक अभाव होता है और उनमें सत्य की लेशमात्र वास्तविकता भी नहीं होती है। कुछ लोग थोड़ा-सा काम पूरा करते ही रुतबे में फँसकर मजा लेने लगते हैं। वे चाहे कुछ भी करें, हमेशा तारीफ बटोरना चाहते हैं और अगर उन्हें दूसरों से कोई प्रशंसा नहीं मिलती तो अपना कर्तव्य निभाने के लिए उनमें कोई उत्साह नहीं रहता है। वे इन चीजों से लगातार विवश रहते हैं, और उन्हें संतोष तभी होता है जब वे दूसरों से अलग नजर आएँ और उनकी तारीफों के पुल बाँधे जाएँ। अगर वे कुछ अच्छा नहीं कर पाते, या उन्हें नाकामी और ठोकर मिलती है तो वे खुद को बहुत भ्रष्ट और उद्धार से परे मानते हैं। वे हमेशा इन अतियों के बीच जीते हैं। तुम लोग चाहे जो भी कर्तव्य निभाओ या तुम पर चाहे जो बीते, अगर तुम हमेशा सबक ले सकते हो, अभ्यास के सिद्धांत पाने के लिए सत्य खोजते हो और सत्य को अभ्यास में लाते हो तो फिर तुम वयस्क हो चुके हो और तुम्हें दूसरों से मार्गदर्शन लेने और उन्हें अपनी कमान सौंपने की अब और जरूरत नहीं है। अगर तुम परमेश्वर के वचन खा-पीकर, सत्य पर संगति कर, और परमेश्वर ने तुम्हारे लिए जो चीजें और माहौल आयोजित किया है उनका अनुभव कर यह देख सको कि परमेश्वर का हाथ तुम्हें कहाँ ले जा रहा है, परमेश्वर तुमसे क्या सीखने की अपेक्षा कर रहा है, वह तुमसे किन क्षेत्रों में विवेक हासिल करवाना चाहता है, और वह इन चीजों और माहौल से कौन-सा प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करवाना चाहता है, और तुम इनमें से हर अनुभव से कुछ हासिल करने में सक्षम हो तो फिर तुम वयस्क हो चुके हो। अगर तुम्हें आगे बढ़ने के लिए हमेशा दूसरों का सहारा और मदद लेने की दरकार है, अगर तुम पंगु और गतिहीन हो चुके हो, या अतियों के बीच डोलते हो, और किसी भी क्षण तुम्हारे गिरने और तब तक खुद न उठ पाने की संभावना है जब तक कि वहाँ ऐसा कोई नहीं है जो तुम्हारा हौसला बढ़ा सके, तुम्हारा मार्गदर्शन कर सके या सहारा दे सके, तो ये सारी निशानियाँ अपरिपक्व आध्यात्मिक कद होने की हैं। अपरिपक्व आध्यात्मिक कद वाले लोग अपने दम पर परमेश्वर के वचन खाने-पीने में सक्षम नहीं रहते, और वे उपदेश या संगति सुनकर सत्य को नहीं समझ सकते हैं। वे सिर्फ नियमों का अनुपालन करने पर ध्यान केंद्रित करते हैं और यह विश्वास करते हैं कि जब तक वे नियम पालन कर रहे हैं तब तक वे अच्छा कर रहे हैं। उन्हें हमेशा किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत होती है जो उन्हें हर मामले में राह दिखा सके, उंगली पकड़कर उन्हें सिखा सके और उनका मार्गदर्शन कर सके ताकि वे अनुसरण कर सकें, और दूसरों की मदद और सहारे के बिना वे पंगु, निराश और कमजोर हो जाते हैं। वे बिल्कुल बेकार हैं और देर-सबेर मर चुके होंगे; वे कचरा हैं और परमेश्वर का उद्धार पाने के काबिल नहीं हैं। कुछ लोग पूछते हैं : “क्या मेरे छोटे आध्यात्मिक कद की समस्या हल करने का कोई उपाय है?” इसे हल करने का एक उपाय है। तुम पर चाहे जो कुछ बीते, चाहे यह गंभीर मसला हो या तुच्छ, या अगर यह ऐसा कोई कर्तव्य हो जिसे तुम निभा रहे हो, तुम्हें एक चीज याद रखनी चाहिए : देह की भावनाओं, अपनी धारणाओं और कल्पनाओं, या अपनी उग्रता पर निर्भर मत रहो, बल्कि तत्परता से सत्य खोजो और पता लगाओ कि परमेश्वर ने मनुष्य से क्या अपेक्षाएँ की हैं। परमेश्वर के इरादे समझकर ही तुम्हें आगे का रास्ता मिलेगा।

अपनी भावनाओं के आधार पर कार्य करना कैसे प्रकट होता है? इसकी सबसे आम निशानी यह है जब लोग हमेशा किसी ऐसे व्यक्ति का बचाव और समर्थन करते हैं जो उन पर मेहरबान रहा है या जो उनका करीबी है। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम्हारे दोस्त को कोई खराब कार्य करने के कारण उजागर किया गया है और तुम यह कहकर उसका बचाव करते हो : “वह ऐसा कुछ नहीं कर सकता, वह अच्छा व्यक्ति है! उसे फँसाया गया होगा।” क्या यह उचित कथन है? (नहीं।) यह अपनी भावनाओं के आधार पर बोलना और कार्य करना है। एक और उदाहरण, मान लो कि तुम्हारा किसी के साथ हल्का-फुलका झगड़ा हो जाता है और तुम उसे नापसंद करने लगते हो, और जब वह कुछ ऐसा कहता है जो सही और सिद्धांतों के अनुरूप है तो तुम उसे सुनना नहीं चाहते—यह किस बात की अभिव्यक्ति है? (सत्य को स्वीकार न करना।) तुम सत्य को क्यों नहीं स्वीकार कर पाते? तुम दिल ही दिल में जानते हो कि उसने जो कुछ कहा वह सही और उचित था, लेकिन क्योंकि तुम्हारे मन में उसके प्रति पूर्वाग्रह है, तुम सुनना ही नहीं चाहते। यह कौन-सी समस्या है? (अपनी भावनाओं के अधीन होना।) यह भावनाओं से भरी पड़ी है। कुछ लोग अपनी निजी पसंद-नापसंद और भावनाओं से आसानी से प्रभावित हो जाते हैं। अगर उनकी किसी के साथ बनती नहीं है तो वह व्यक्ति चाहे कितना भी अच्छा या सही बोले, वे सुनेंगे नहीं। और अगर उनकी किसी के साथ गाढ़ी छनती है तो वह जो कुछ भी कहना चाहे, वे उसे सुनने के लिए तैयार रहते हैं, भले ही यह सही-गलत हो, या यह सत्य के अनुरूप हो या न हो। क्या यह अपनी निजी पसंद-नापसंद और भावनाओं से आसानी से प्रभावित हो जाना नहीं है? क्या ऐसे स्वभाव के साथ कोई व्यक्ति तार्किक रूप से बोल और कार्य कर सकता है? क्या वह सत्य को स्वीकार कर उसके प्रति समर्पण कर सकता है? (नहीं।) क्योंकि वह भावनाओं के सामने विवश होता है और आसानी से अपनी भावनाओं से प्रभावित हो जाता है, यह उसके कार्यकलापों में सत्य के सिद्धांतों के पालन पर असर डालता है। यह सत्य को स्वीकारने और उसके प्रति समर्पण के मामले में भी उन्हें प्रभावित करता है। तो, सत्य का अभ्यास करने और उसके प्रति समर्पण करने की उनकी क्षमता को कौन-सी चीज प्रभावित कर रही है? वे किस चीज से विवश होते हैं? उनकी भावनाएँ और आवेग। यही चीजें उन्हें विवश करती और बाँधती हैं। अगर तुम सत्य के बजाय निजी संबंधों और स्वार्थ को सर्वोपरि रखते हो तो फिर भावनाएँ तुम्हें सत्य स्वीकारने से रोक रही हैं। इसीलिए तुम्हें भावनाओं के आधार पर बोलना या कार्य नहीं करना चाहिए। किसी के साथ तुम्हारा रिश्ता चाहे अच्छा हो या बुरा, या उसके बोल कोमल हों या कठोर, जब तक उसकी कही बातें सत्य से मेल खाती हैं, उसे सुनना और स्वीकार करना चाहिए। यही सत्य को स्वीकार करने का दृष्टिकोण है। अगर तुम यह कहते हो कि “उसकी संगति सत्य के अनुरूप है और उसके पास अनुभव भी है, लेकिन वह बहुत ढीठ और अहंकारी है, और यह देखना अप्रिय और असुविधाजनक है। इसलिए भले ही वह सही हो, मैं इसे स्वीकार नहीं करूँगा,” तो यह किस प्रकार का स्वभाव है? विशेष रूप से कहें तो यह भावना है। जब तुम अपनी पसंद-नापसंद और आवेगों के आधार पर लोगों और चीजों से पेश आते हो तो यह एक भावना है, और यह सब भावनाओं की श्रेणी में आता है। भावनाओं से जुड़ी चीजें भ्रष्ट स्वभाव से संबंधित होती हैं। सभी भ्रष्ट मनुष्यों में भावनाएँ होती हैं, और वे अपनी भावनाओं से विभिन्न पैमाने पर विवश होते हैं। अगर कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता, तो उसके लिए भावनाओं की समस्या का समाधान करना कठिन होगा। कुछ लोग झूठे अगुआओं का कवच बनते हैं, मसीह-विरोधियों की रक्षा करते हैं और दुष्टों के पक्ष में बोलकर उनका बचाव करते हैं। इन सभी मामलों में भावनाएँ शामिल हैं। बेशक कुछ मामलों में, वे लोग अपनी दुष्ट प्रकृति के कारण ही ऐसा कर रहे हैं। इन समस्याओं पर स्पष्ट जानकारी हासिल करने के लिए तुम्हें बार-बार संगति करने की आवश्यकता है। कुछ लोग कह सकते हैं, “मेरे मन में तो बस अपने परिवार और दोस्तों के लिए कुछ भावनाएँ हैं, किसी और के लिए नहीं।” यह कथन सही नहीं है। अगर दूसरे लोग तुम पर थोड़ा-सा भी उपकार करते हैं तो तुममें उनके लिए भावनाएँ विकसित हो जाएँगी। इनमें निकटता और गहराई अलग-अलग पैमाने पर हो सकती है लेकिन फिर भी वे हैं तो भावनाएँ ही। अगर लोग अपनी भावनाओं का समाधान नहीं करते तो उनके लिए सत्य का अभ्यास करना और परमेश्वर के प्रति समर्पण हासिल करना कठिन हो जाएगा।

अब हमें धारणाओं और कल्पनाओं के बारे में बात करनी चाहिए। कुछ धारणाएँ और कल्पनाएँ हमारी पारिवारिक परवरिश से उपजती हैं, कुछ सामाजिक अनुकूलन से तो बाकी स्कूल में शिक्षा-दीक्षा से। अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के अनुसार लोगों से पेश आने और कार्य करने की अभिव्यक्तियाँ क्या हैं? मैं एक उदाहरण देता हूँ। एक ऐसे व्यक्ति का मामला लो जो कई साल तक परमेश्वर में विश्वास करने के बाद चीजों को त्यागने और अपना कार्य उत्साह के साथ करने में सक्षम है, और बाद में अगुआ के रूप में चुन लिया गया है। नया रुतबा हासिल करने के बाद वह अपने कर्तव्य पालन में और ज्यादा मेहनत करता है और अक्सर लोगों के साथ सत्य पर संगति करने के लिए सभाएँ करता है। जब भाई-बहनों को समस्याएँ होती हैं, वह इन्हें तुरंत दूर करता है और हर किसी पर अपनी छाप छोड़ देता है। लेकिन कुछ समय तक अगुआ के रूप में सेवा करने के बाद यह व्यक्ति अपना रुतबा और सत्ता बचाने में जुट जाता है और हर मोड़ पर दिखावा करते हुए शान झाड़ता है। सबसे गंभीर बात तो यह है कि वह अगुआ और कार्यकर्ता के रूप में सेवा करने के लिए बुरे लोगों को तरक्की देकर उनका विकास करता है। सबसे घिनौनी बात, वह सत्य का अनुसरण करने वाले भाई-बहनों को दबाता और अलग-थलग करता है। अंत में, चूँकि वह कई बुरे कर्म करके कलीसिया के कार्य को अस्त-व्यस्त कर चुका होता है, वह मसीह-विरोधी का दाग लगाकर निकाल दिया जाता है। यह समाचार सुनकर कुछ लोग बिना सोचे ही कह उठते हैं : “ऐसा नहीं हो सकता! हममें अच्छी बनती थी। हमने एक साथ मिलकर कई लोगों के बीच सुसमाचार प्रचार किया। वह मसीह-विरोधी कैसे हो सकता है?” वे स्थिति सँभालने के लिए परमेश्वर के घर के इस तरीके के प्रति कुछ धारणाएँ बना लेते हैं और मान लेते हैं कि एक अच्छे व्यक्ति के साथ अनुचित व्यवहार किया गया। तो बताओ, वे इस मसीह-विरोधी का बचाव क्यों करते हैं और उसके साथ कथित अन्याय की शिकायत क्यों करते हैं? क्योंकि वे उससे परिचित हैं—वे साथ-साथ सुसमाचार प्रचार किया करते थे। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि अगुआ बनने के बाद वह अपने असली रंग दिखाएगा, हर किस्म की बुराई करेगा और मसीह-विरोधी बन जाएगा। जिस चीज को उन्होंने सोचा नहीं था, वह उनके गले नहीं उतरती। इसलिए, बताओ न, क्या वे इस व्यक्ति को अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर नहीं देख रहे हैं? उसके बारे में विगत धुँधली छवि के आधार पर वे इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि वह शायद मसीह-विरोधी नहीं बन सकता। क्या यह सही दृष्टिकोण है? क्यों वे इस तरह सोचते हैं और ऐसा निष्कर्ष निकालते हैं? जब वे स्थिति की वास्तविकता को नहीं समझते तो ऐसी गैर-जिम्मेदार टिप्पणियाँ और लापरवाह निर्णय क्यों करते हैं? यह एक प्रकार का स्वभाव है। लोग अपनी धारणाओं के अनुसार लोगों, घटनाओं और चीजों को समझते-बूझते और संभालते हैं—यह कैसा स्वभाव है? यह आंशिक रूप से अहंकार और आंशिक रूप से दुराग्रह है। तुम अपने दैनिक जीवन में जो प्रकट करते हो, ये चाहे तुम्हारे विचार और विश्वास हों, तुम्हारे कार्यकलाप या दूसरे लोगों से निपटने के पक्के सिद्धांत हों, ये सभी तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से निकलते हैं और तुम्हें इन्हें सत्य की कसौटी पर कसना चाहिए। जब तुमसे ऐसा करने को कहा जाता है, तब अगर तुम भ्रम में पड़ जाते हो तो यह समस्याजनक है; इसका अर्थ है कि तुम्हें सत्य का कोई ज्ञान नहीं है। सत्य का क्या प्रभाव पड़ता है? (यह किसी के भ्रष्ट स्वभाव को दूर कर सकता है।) यह इसे कैसे दूर करता है? तुम्हें अपने रोजमर्रा के विचारों, विश्वासों, कथनी-करनी को सत्य की कसौटी पर कसना होगा; जैसे ही तुम यह जान लोगे कि ये सत्य से मेल खाते हैं तो पता चल जाएगा कि तुम्हारी समस्याएँ कहाँ हैं। अगर तुम अपनी समस्याएँ पहचानने में असमर्थ हो या अगर तुम परमेश्वर के वचनों और सत्य को स्वीकार नहीं करते, और अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर गैरजिम्मेदार टिप्पणियाँ करते हो तो तुम्हारी समस्या किस प्रकार की है? यह अहंकार और अतार्किकता की समस्या है, और इसका संबंध तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से है। तथ्यों को जाने बिना ही तुम अपनी कल्पनाओं के आधार बस लापरवाही से बोलते हो और यहाँ तक सोचने लगते हो, “तुम लोग उसे नहीं जानते, लेकिन मैं जानता हूँ—मैं उसे समझता हूँ।” वास्तव में तुम्हारा आशय यह है कि तुम किसी भी दूसरे व्यक्ति से ज्यादा स्पष्टता से और ज्यादा सटीक ढंग से देख सकते हो। क्या यह अहंकार नहीं है? क्या यह आत्म-तुष्टता नहीं है? इस प्रकार का स्वभाव तुममें गहरे पैठा हुआ है, इसलिए तुम हमेशा अपनी धारणाओं और कल्पनाओं के आधार पर बोलते और कार्य करते हो। उदाहरण के लिए, मान लो कि कलीसिया कोई प्रोजेक्ट चलाना चाहता है और तुमसे पूछता है कि इसकी लागत क्या आएगी, और स्थिति की कोई वास्तविक समझ प्राप्त किए बिना तुम बिना सोचे-समझे फौरन कह दो, “इसकी लागत कम से कम एक लाख आएगी!” यह सुनकर हर कोई दंग होकर सोचता है कि इसकी लागत शायद इतनी न हो और तुम जरूर बढ़ा-चढ़ाकर बोल रहे हो। तुम्हारे लापरवाही से बोलने और गैर-जिम्मेदार टिप्पणी के स्वभाव के फलस्वरूप कलीसिया के कार्य को क्या दुष्परिणाम झेलने पड़ सकते हैं? वास्तव में, यह कार्य कराने के लिए इतना ज्यादा खर्च नहीं आएगा, फिर भी तुम दावा करते हो कि एक लाख लागत आएगी—क्या यह गैरजिम्मेदारी से बोलना नहीं हुआ? क्या इससे कलीसिया को नुकसान नहीं पहुँचेगा? क्या यह बोलने और कार्य संभालने का विश्वसनीय तरीका है? नहीं, यह निहायत अविश्वसनीय तरीका है। परमेश्वर का घर अपने कार्य में इस प्रकार के व्यक्ति का कतई भी उपयोग नहीं कर सकता है। क्या इस स्थिति से सीखने के लिए कोई सबक है? हमें ईमानदार होना और सच्चे वचन बोलना सीखना चाहिए—अपना कर्तव्य ठीक से निभाने के लिए यह महत्वपूर्ण है। अगर कोई बेईमान है और गैर-जिम्मेदार टिप्पणियाँ करता है तो वह न तो कर्तव्य निभाने के लिए उपयुक्त है, न परमेश्वर के घर में कर्तव्य निभाने के योग्य है। इस प्रकार, ठीक से कर्तव्य निभाने के लिए, किसी व्यक्ति को ईमानदार व्यक्ति होना, जो कुछ कहे उसकी पूरी जिम्मेदारी लेना, गैरजिम्मेदारी से, बिना सोचे-समझे और अपनी ही कल्पनाओं के आधार पर बोलने से बचना सीखना चाहिए। व्यक्ति को बोलने का सटीक तरीका अपनाना चाहिए और उसके शब्द तथ्यों के अनुरूप होने चाहिए। यह ईमानदार व्यक्ति होने की वास्तविकता का एक पहलू है।

क्या तुम सब लोगों को यह एहसास हो चुका है कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव है? (हाँ, कभी-कभी मैं अतिशयोक्ति करता हूँ और ऐसी बातें कह देता हूँ जिनमें बुद्धि का अभाव होता है। मुझे लगता है कि मैं बहुत अहंकारी हूँ और यह मेरी प्रकृति और सार का एक पहलू है।) एक बार जब यह जान लिया कि तुम्हारा अहंकारी स्वभाव है तो इसे कैसे दूर करना चाहिए? तुम अपने अहंकारी स्वभाव को सिर्फ इतने भर से दूर नहीं कर सकोगे कि तुमने इसे पहचान और स्वीकार लिया है। इसे दूर करने के लिए तुम्हें पहले सत्य को स्वीकार करना पड़ेगा, परमेश्वर के वचनों के न्याय और प्रताड़ना को स्वीकार करना पड़ेगा, परमेश्वर के वचनों के प्रकाश के अनुसार उन रूपों को समझना होगा जिनमें तुम्हारा अहंकारी स्वभाव अभिव्यक्त होता है, और जाना होगा कि कौन-से शैतानी जहर इसका कारण हैं और कौन-सी भ्रांतियों के भुलावे में आकर तुममें अहंकारी स्वभाव उपजा है। ये ऐसी बातें हैं जिन्हें तुम्हें समझना होगा। अपना अहंकारी स्वभाव दूर करते हुए, तुम्हें एक बार में एक चीज हाथ में लेनी चाहिए, प्रकट होते ही उस चीज को दूर करना चाहिए—इस तरीके से तुम्हारा अहंकारी स्वभाव धीरे-धीरे दूर हो जाएगा। अहंकारी स्वभाव के दायरे में जीने वाले लोगों की सबसे आम दशा यह है कि उनमें अपनी ही कल्पनाओं के आधार पर बोलने और अतिशयोक्ति करने की प्रवृत्ति होती है—बढ़ा-चढ़ाकर दावे करने की इसी दशा को सबसे पहले दूर कर वे अपने अहंकारी स्वभाव को कुछ-कुछ घटा सकते हैं। तो अब, अपनी कल्पनाओं के आधार पर बढ़ा-चढ़ाकर दावे करने की समस्या कैसे दूर की जा सकती है? इसके लिए सबसे पहले स्पष्ट रूप से यह जानना होगा कि अपनी कल्पनाओं के आधार पर बढ़ा-चढ़ाकर दावे करने का क्या तात्पर्य है? पहले, यह जानना पड़ेगा : “कल्पनाएँ कैसे उपजती हैं? लोग निरंतर कल्पनाएँ क्यों करते हैं? उनकी कल्पनाएँ किस चीज पर टिकी होती हैं? क्या ये कल्पनाएँ वास्तविकता का निरूपण करती हैं? क्या ये कल्पनाएँ सत्य के अनुरूप हैं?” फिर, बढ़ा-चढ़ाकर दावे करने की अपनी समस्या को स्पष्ट पहचानना चाहिए—यह समझना चाहिए कि वे क्यों और किस हैसियत से ये बढ़े-चढ़े दावे करते हैं, और वे कौन-सा लक्ष्य पाना चाहते हैं। एक बार इन प्रश्नों के उत्तर खोज लें तो फिर अपनी कल्पनाओं के आधार पर बढ़ा-चढ़ाकर दावे करने की दशा को थोड़ा-बहुत दूर किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, मान लें कि कोई अगुआ तुम्हें किसी चीज पर विचार करने के लिए कहता है, लेकिन तुम किसी और काम में व्यस्त होने के कारण ऐसा करना भूल जाते हो। बाद में जब अगुआ तुमसे इस बारे में पूछता है तो तुम निपटे जाने के डर से यूँ ही कोई झूठ गढ़ देते हो। यह किस प्रकार का स्वभाव प्रकट करता है? यहाँ दो तरह की दशाएँ काम कर रही हैं : अपनी कल्पनाओं के आधार पर लापरवाही से बात करना एक दशा है; कोई जवाब न होने के कारण निपटे जाने के डर से झूठ गढ़ना दूसरी दशा है। अगर तुम लापरवाही से नहीं बोल रहे हो तो झूठ बोल रहे हो, और अगर तुम अहंकारी और घमंडी नहीं हो तो तुम कपटी बन रहे हो—ये सारी चीजें मुसीबत लाती हैं और इनकी जाँच की जानी चाहिए। बोलते और कार्य करते हुए जैसे ही लगे कि तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करने वाले हो तो तुम्हें आत्म-संयम बरतकर मन ही मन परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। तो सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप होने के लिए तुम्हें कैसे कार्य करना चाहिए? इसका संबंध अपने अभ्यास से है। (ईमानदारी से बोलें और वही चीज कहें जो हम जानते हैं।) यह सही है। अगर तुम उत्तर नहीं जानते तो कहना चाहिए, “मुझे इस मामले का ज्ञान नहीं है, मैंने अभी तक इस पर गौर नहीं किया है।” मान लो कि तुम अपने मन में सोचते हो कि “अगर अगुआ मुझसे पूछ ले कि मैंने अभी तक इस मसले पर ध्यान क्यों नहीं दिया और वह मुझसे निपटता है, तो फिर मुझे क्या करना चाहिए?” बताओ, तुम लोगों को इस स्थिति में कैसे अभ्यास करना चाहिए? (अगर हमने इस मसले पर गौर नहीं किया है, तो हमें बस यही बात कह देनी चाहिए। हम केवल इसलिए झूठ न बोलें कि हमें निपटे जाने का डर है।) यह सही है। अगर तुम सिर्फ निपटे जाने के डर से झूठ बोलना चाहते हो, लोगों को चकमा देना चाहते हो या तथ्य विरुद्ध बात करना चाहते हो तो तुम्हें परमेश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए, आत्म-चिंतन करना चाहिए और ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करना चाहिए। इस तरह कल्पनाओं के आधार पर बोलने की तुम्हारी समस्या जाती रहेगी। लेकिन, अपनी कल्पनाओं के आधार पर बोलने की इस समस्या को हल करना ही पर्याप्त नहीं है—तुम्हें अपने बारे में और भी गहरी समझ हासिल करनी चाहिए। तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों को ही नहीं पहचानना चाहिए, बल्कि अपनी शैतानी प्रकृति और अपने अहंकार के स्रोत को भी समझना चाहिए। अगर तुम ऐसा करने में सफल हो गए तो अपना अहंकारी स्वभाव दूर करने का आधे से ज्यादा रास्ता पार कर चुके होगे। कम से कम तुम अहंकारी नहीं बनोगे और तुम्हारे कार्य करने के तरीके में अधिक विनम्रता आएगी। अगर तुम एक कदम आगे बढ़कर झूठ बोलने और दूसरों को चकमा देने की अपनी समस्या दूर कर सको, अगर तुम सत्य और तथ्यों के अनुरूप बोल सको, और ईमानदार व्यक्ति बनकर जो तुम्हारे मन में है वही कह सको तो तुम कमोबेश मनुष्य की तरह जी रहे होगे। कम से कम तुम अधिक तार्किक ढंग से बोलोगे और कार्य करोगे। यह दर्शाता है कि जब तक लोग सत्य का अनुसरण करते हैं, परमेश्वर के कार्य के प्रति समर्पित होते हैं, उससे प्रार्थना और उस पर भरोसा करते हैं, तब तक वे अपना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने में पूरी तरह सक्षम रहेंगे। अहंकारी स्वभाव वाले लोग अक्सर बढ़ा-चढ़ाकर दावे करते हैं, हमेशा सोचते हैं कि वे दूसरों से बेहतर हैं; वे खुद को उच्च और प्रभावशाली व्यक्ति और बाकी सबको अपने से कमतर मानते हैं, और वे जो जी में आए वही बोलते और करते हैं। अगर वे अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए आवश्यक किसी भी साधन का उपयोग करने में भी सक्षम हैं, अक्सर झूठ का सहारा लेकर दूसरों को धोखा देते हैं तो ये फिर ये व्यक्ति अहंकारी और दंभी ही नहीं होते, बल्कि उनका कपटी स्वभाव भी होता है। अहंकारी और दंभी स्वभाव का निराकरण मुख्य रूप से अपनी ही प्रकृति और सार को जानने और यह समझने पर निर्भर करता है कि तुम पूरी तरह बहुत ही भ्रष्ट होकर दुष्ट शैतान की तरह जी रहे हो, इसी कारण अहंकारी और दंभी बने हो। जब तुम इस मामले को स्पष्ट रूप से समझ लोगे तो तुम्हें एहसास होगा कि जो जितना अधिक अहंकारी होता है, वह उतना ही अधिक शैतान होता है। प्रकारांतर रूप में, असफलताएँ और झटके झेलने के बाद तुम कहीं अधिक शिष्ट बन जाओगे। अहंकारी स्वभाव दूर करना ज्यादा आसान है या कपटी स्वभाव? वास्तव में, इनमें से किसी को भी दूर करना सरल नहीं है, लेकिन कपटी स्वभाव की तुलना में अहंकारी स्वभाव दूर करना थोड़ा-सा अधिक सरल है। कपटी स्वभाव को दूर करना कहीं ज्यादा कठिन होगा। इसका कारण यह है कि कपटी व्यक्तियों के मन में बुरे उद्देश्य और इरादे इतने भरे होते हैं कि उनका बुद्धि-विवेक उन्हें नियंत्रित करने में नाकाम रहता है। यह उनकी प्रकृति और सार के साथ समस्या है। फिर भी, यह चाहे कितना ही कठिन हो, अगर कोई अपना कपटी स्वभाव दूर करना चाहता है तो उसे ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करके शुरुआत करनी चाहिए। अंततः ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास करने का सबसे सरल तरीका बस यही है कि चीजों को वैसा ही बताया जाए जैसी वे हैं, ईमानदार बात की जाए और तथ्यों के अनुसार बोला जाए। जैसा प्रभु यीशु ने कहा था, “परन्तु तुम्हारी बात ‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’ हो” (मत्ती 5:37)। ईमानदार व्यक्ति होने के लिए इस सिद्धांत के अनुसार अभ्यास करना जरूरी है—कुछ साल यह अभ्यास करने के बाद तुम्हें नतीजे जरूर दिखेंगे। अभी तुम ईमानदार व्यक्ति बनने का अभ्यास किस तरह करते हो? (मैं जो कहता हूँ उसमें घालमेल नहीं करता और दूसरों को चकमा भी नहीं देता।) “घालमेल न करने” का क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि तुम्हारी कही बातों में झूठ या कोई व्यक्तिगत इरादा या उद्देश्य नहीं होता है। अगर तुम अपने मन में चालबाजी या व्यक्तिगत इरादे और उद्देश्य पालते हो तो फिर तुमसे स्वाभाविक रूप से झूठ छलकेगा। अगर तुम्हारे मन में कोई चालबाजी या व्यक्तिगत इरादे या उद्देश्य नहीं हैं, तो तुम जो कहोगे वह खरा होगा और उसमें झूठ नहीं होगा—इस तरह तुम्हारी बातें होंगी : “‘हाँ’ की ‘हाँ,’ या ‘नहीं’ की ‘नहीं’।” पहले अपने मन को शुद्ध करना सबसे महत्वपूर्ण है। एक बार किसी का मन शुद्ध हो गया तो उसका अहंकार और कपट दूर हो जाएगा। ईमानदार व्यक्ति बनने के लिए इन मिलावटों को दूर करना ही होगा। ऐसा कर चुकने के बाद ईमानदार व्यक्ति बनना आसान हो जाएगा। क्या ईमानदार व्यक्ति बनना जटिल है? नहीं, यह जटिल नहीं है। तुम्हारी आंतरिक दशा चाहे जैसी हो या तुममें चाहे जैसा भ्रष्ट स्वभाव हो, तुम्हें ईमानदार व्यक्ति होने के सत्य का अभ्यास करना चाहिए। तुम्हें सबसे पहले झूठ बोलने की समस्या दूर करनी होगी—यह सबसे महत्वपूर्ण है। सबसे पहले, बोलचाल में, जो तुम्हारे मन में है वह कहने का अभ्यास करना चाहिए, सच्चे शब्द बोलने चाहिए, जैसा है वैसा ही कहना चाहिए, और झूठ बोलने से पूरी तरह बचना चाहिए; तुम्हें ऐसे शब्द भी जुबान पर नहीं लाने चाहिए जो मिलावटी हों, और यह पक्का कर लेना चाहिए कि तुम दिन भर जो कुछ बोलो, वह सच्चाई युक्त और ईमानदार हो। ऐसा करके तुम सत्य का अभ्यास और ईमानदार होने का अभ्यास कर रहे होते हो। अगर तुम यह देखते हो कि तुम्हारी जुबान से झूठ या मिलावटी शब्द निकल रहे हैं तो फौरन आत्म-चिंतन करके यह जानो और विश्लेषण करो कि तुम झूठ क्यों बोलते हो और कौन-सी चीज तुम्हें झूठ बोलने के लिए उकसाती है। उसके बाद परमेश्वर के वचनों के आधार पर इस बुनियादी और महत्वपूर्ण समस्या का विश्लेषण करो। एक बार तुम अपने झूठ के मूल कारणों का स्पष्ट ज्ञान हासिल कर लेते हो तो तुम अपनी कथनी-करनी में इस शैतानी स्वभाव के खिलाफ विद्रोह करने में सक्षम हो जाओगे। ऐसी ही स्थितियाँ पेश आने पर तुम फिर कभी झूठ का सहारा नहीं लोगे, तथ्यों के अनुसार बोल सकोगे और भ्रामक बातें नहीं करोगे। इस तरह तुम्हारी आत्मा मुक्त और स्वतंत्र हो जाएगी और तुम परमेश्वर के समक्ष रहने में सक्षम रहोगे। अगर तुम परमेश्वर के वचनों के अनुसार जीने में सक्षम हो तो तुम प्रकाश में जी रहे हो। लेकिन, अगर तुम निरंतर छल-कपट और प्रपंच में लगे रहते हो, हमेशा चोरों की तरह अंधेरे कोनों में छिपे फिरते हो, और अपने कार्य गुपचुप संचालित करते हो तो फिर तुममें परमेश्वर के सामने रहने की हिम्मत नहीं होगी। चूँकि तुम्हारे गुप्त इरादे होते हैं, तुम हमेशा अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए दूसरों को चकमा देना चाहते हो, और अपने मन में बहुत सारी शर्मनाक और अकथनीय चीजें पालते हो, इसलिए तुम लगातार उन्हें लुकाने-छिपाने, आवरण पहनाकर उन्हें ढकने की कोशिश करते हो, लेकिन तुम ये चीजें हमेशा छिपाकर नहीं रख सकते। देर-सबेर वे प्रकाश में आ जाएंगी। जिस व्यक्ति के गुप्त उद्देश्य होते हैं, वह रोशनी में रहने में असमर्थ होता है। अगर वह आत्म-चिंतन, आत्म-विश्लेषण और खुद को अनावृत करने का अभ्यास नहीं करता तो वह अपने भ्रष्ट स्वभाव के नियंत्रण और बंधन से मुक्त होने में असमर्थ रहेगा। वह पापमय जीवन की कैद में फँसा रहेगा और खुद को छुड़ा नहीं पाएगा। अंततः तुम्हें किसी भी स्थिति में झूठ नहीं बोलना चाहिए। अगर तुम यह जानते हो कि झूठ बोलना गलत है और सत्य के अनुरूप नहीं है, फिर भी तुम झूठ बोलने और दूसरों को चकमा देने में उद्धत रहते हो, यहाँ तक कि लोगों को गुमराह करने के लिए तुम तथ्यों को और स्थिति की वास्तविकता को छिपाने के लिए झूठ गढ़ते हो तो फिर तुम जानबूझकर गलत काम करने में शामिल हो। ऐसा व्यक्ति उद्धार प्राप्त नहीं कर सकता। परमेश्वर लोगों को सत्य प्रदान करता है लेकिन क्या कोई व्यक्ति सत्य को स्वीकार कर इसका अभ्यास कर सकता है या नहीं, यह अंततः उसका अपना मामला है। जो लोग सत्य को स्वीकारने में सक्षम हैं वे उद्धार पा सकते हैं, जबकि जो लोग सत्य को स्वीकारने में सक्षम नहीं हैं और सत्य का अभ्यास नहीं करते हैं, वे उद्धार प्राप्त नहीं कर सकते हैं। बहुतेरे लोगों को पता है कि वे अपने भ्रष्ट स्वभाव में जीते हैं और मानते हैं कि जो लोग शैतानी स्वभाव के अनुसार जीते हैं, वे न तो इंसान जैसे हैं और न शैतान जैसे, और वे सामान्य मनुष्य की तरह जीने में नाकाम रहते हैं। वे सत्य का अभ्यास तो करना चाहते हैं लेकिन ऐसा करने में खुद को असहाय और अशक्त पाते हैं। ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति केवल परमेश्वर से प्रार्थना और उस पर भरोसा कर सकता है। अगर कोई व्यक्ति बिल्कुल भी सहयोग नहीं करता है तो परमेश्वर उसके भीतर कार्य नहीं करेगा। जो लोग वास्तव में सत्य से प्रेम करते हैं, वे अपने कपटी स्वभाव, तमाम किस्म के व्यक्तिगत इरादों के साथ ही झूठ और चालबाजी से घृणा करेंगे। वे झूठ का सहारा लेने के बजाय ईमानदारी से बोलकर नुकसान झेलना पसंद करेंगे। वे झूठ बोलकर अपने निकृष्ट जीवन को घसीटने की बजाय सच बोलना पसंद करेंगे, भले ही इसके लिए न्याय और निंदा झेलनी पड़े। जो लोग शैतानी स्वभाव से इस तरह घृणा कर सकते हैं, वे स्वाभाविक रूप से देह की इच्छाओं को त्यागने और सत्य का अभ्यास करने में सक्षम होकर ईमानदार व्यक्ति बनने में सफल रहते हैं।

तुम लोगों का ईमानदार व्यक्ति बनने का अनुभव कैसा चल रहा है? क्या तुम लोगों को कुछ नतीजे मिले हैं? (कभी-कभी मैं ईमानदार होने का अभ्यास करता हूँ, लेकिन कभी-कभी भूल जाता हूँ।) क्या तुम सत्य का अभ्यास करना भूल सकते हो? अगर तुम इसे भूल सकते हो तो यह किस प्रकार की समस्या दिखाता है? तुम लोग सत्य से प्रेम करते हो या नहीं? अगर तुम सत्य से प्रेम नहीं करते तो तुम्हारे लिए सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करना मुश्किल होगा। तुम लोगों को सत्य के अभ्यास और ईमानदार व्यक्ति बनने के अभ्यास को गंभीरता से लेना होगा। तुम्हें बार-बार इस बारे में चिंतन करना होगा कि ईमानदार व्यक्ति कैसे बनें और तुममें क्या समझ होनी चाहिए। परमेश्वर लोगों से ईमानदार होने की अपेक्षा करता है, और उन्हें सबसे महत्वपूर्ण विषय के रूप में ईमानदारी का अनुसरण करना चाहिए। उन्हें यह स्पष्टता और समझ होनी चाहिए कि उनके पास कौन-से सत्य होने चाहिए और उन्हें कौन-सी वास्तविकताओं में प्रवेश करने की जरूरत है ताकि वे ईमानदार व्यक्ति बन सकें और पतरस की तरह जी सकें, और उन्हें अभ्यास का मार्ग खोजना चाहिए। तभी उनके पास ईमानदार बनने और ऐसा व्यक्ति बनने की कोई उम्मीद बचेगी जिसे परमेश्वर प्रेम करता है। अगर तुम ईमानदार लोगों से, खरी बात करने वालों से, विशेष कर सत्य स्वीकारने और इसका अनुसरण कर सकने वाले लोगों से घृणा करते हो, अगर तुम्हारे मन में ऐसे लोगों के लिए सदैव तिरस्कार है, तो तुम सकारात्मक चरित्र नहीं हो और तुम दुष्ट व्यक्तियों की श्रेणी से हो। अगर तुम उन लोगों को हेय दृष्टि से देखते हो जो निष्ठापूर्वक अपना कर्तव्य पालन करते हैं और सत्य का अभ्यास करने के लिए कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं, तो तुम नकारात्मक चरित्र बन चुके हो, और तुम सकारात्मक चरित्र तो कतई नहीं हो। क्या कोई व्यक्ति उद्धार पा सकता है, इसका संबंध इस बात से है कि वह सकारात्मक चरित्र वाला है या नहीं। कोई व्यक्ति सकारात्मक चरित्र वाला है या नहीं, इसके निर्धारण का सबसे महत्वपूर्ण कारक उसकी आकांक्षाओं और उसके दिल की प्राथमिकताओं में निहित होता हैं। तुम्हें सकारात्मक और नकारात्मक चीजों के बीच अंतर करना चाहिए, स्पष्ट सीमारेखा खींचने में सक्षम होना चाहिए, सही रुख अपनाना चाहिए, और परमेश्वर और सत्य के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। अगर तुम ऐसा कर सकते हो तो तुम्हारी मानसिकता पूरी तरह सामान्य हो जाएगी और तुम बुद्धि-विवेक संपन्न व्यक्ति बन जाओगे। अगर तुम हमेशा उन लोगों को हेय दृष्टि से देखते हो जो सत्य का अनुसरण करते हैं, जो कीमत चुकाने को तैयार हैं और ईमानदारी से खुद को परमेश्वर के लिए खपाते हैं तो फिर तुम शैतान के पाले में खड़े हो और नकारात्मक चरित्र हो। कुछ लोग ईमानदार व्यक्तियों से घृणा कर उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। वे उन लोगों को हमेशा बहुत सम्मान देते हैं जो वाक्पटु और चालाक हैं, जो लुभावनी बातें कर दूसरों को धोखा देने में पारंगत हैं और ऊँचे आसन से बड़े-बड़े उपदेश देते हैं। अगर तुम्हारा मामला ऐसा ही है तो फिर तुम ईमानदार व्यक्ति नहीं बन पाओगे। इसके बजाय तुम फरीसियों की नकल कर रहे होगे और सत्य के अनुसरण के सही मार्ग पर चलने में असमर्थ रहोगे। तुम पाखंडी फरीसियों की श्रेणी में आओगे। लोग उसी चीज का अनुसरण करते हैं जिसे वे पसंद करते हैं और जिसकी इच्छा रखते हैं। वह क्या है जो तुम लोग अभी मन ही मन चाहते हो? मुझे डर है कि तुम लोग भी इस बारे में स्पष्ट नहीं हो कि तुम क्या चाहते हो। तुम्हारे प्रेम और घृणा की चीजें स्पष्ट रूप से अलग नहीं हैं और तुम नहीं जानते कि किन मामलों में तुम शैतान के साथ मिल चुके हो। कभी-कभी तुम्हारे शब्द सत्य के अनुरूप हो सकते हैं, लेकिन जैसे ही तुम कार्य करने लगते हो तुम सत्य से भटक जाते हैं। यह दर्शाता है कि तुम सत्य के बिना दृढ़ नहीं रह सकते और लगातार डाँवाडोल रहते हो, कभी दाएँ झुक जाते हो तो कभी बाएँ। उपदेश सुनने के तुरंत बाद ऐसा लगता है कि तुम सत्य को समझते हो और सही रास्ते पर चलने को राजी हो। लेकिन, कुछ समय बाद ही तुम्हारे भीतर अँधेरा छाने लगता है और तुम फिर से अपने रास्ते से भटक जाते हो। क्या ऐसे लोग सही रास्ता चुन सकते हैं? भले ही वे इसे चुन सकते हों, वे इस पर कदम नहीं रख सकते क्योंकि वे असामान्य दशा में हैं। वे किसी भी सत्य को बिल्कुल नहीं समझते और ऐसे भ्रमित व्यक्ति हैं जो दिन भर अचकचाए घूमते फिरते हैं। वे कह सकते हैं कि उन्हें अच्छे लोग पसंद हैं, लेकिन जब भी वे किसी मसले से दो-चार होते हैं, तो वे उन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। हो सकता है कि वे ईमानदार होने की चाहत का दावा करें, लेकिन जब उन पर कोई मुसीबत आती है, तो वे कपटपूर्ण व्यवहार करते हैं। जो भी उनकी अगुआई करते हैं, वे उनका अनुसरण करते हैं, चाहे वे अच्छे हों या बुरे—क्या परमेश्वर ऐसे लोगों को पूर्ण बना सकता है? बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि वे आवश्यक अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते हैं। जो कोई अच्छे लोगों, ईमानदार व्यक्तियों, परिश्रमपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करने वालों, और जो सत्य का अनुसरण करते हैं और इसके लिए कीमत चुकाने और कष्ट सहने को तैयार हैं, को हेय दृष्टि से देखते हैं, वे स्वयं अच्छे लोग नहीं हैं। उनमें लेशमात्र भी बुद्धि-विवेक नहीं होता और वे उद्धार पाने में असमर्थ हैं। दयावान और सत्य से प्रेम करने वाले लोग सकारात्मक चीजें पसंद करते हैं और सकारात्मक व्यक्तियों के साथ बातचीत का आनंद लेते हैं, जिससे उन्हें कई लाभ मिलते हैं। दूसरी ओर, जिन्हें सकारात्मक चीजों या सकारात्मक व्यक्तियों से प्रेम नहीं है, वे भले ही परमेश्वर में विश्वास करते हों मगर सत्य को प्राप्त नहीं करेंगे। इसका कारण यह है कि उनके दिल में न तो सत्य के लिए प्रेम है, और न वे इसका अनुसरण करेंगे। वे चाहकर भी सत्य को प्राप्त करने में सक्षम नहीं होंगे।

मैंने अभी-अभी दो बिंदुओं पर संगति की है : भावनाएँ, और धारणाएँ और कल्पनाएँ। एक और बिंदु है—उग्रता—यह भी मनुष्य के भ्रष्ट स्वभाव की अभिव्यक्ति है। सभी भ्रष्ट मनुष्य उग्र होते हैं। कौन-से बर्ताव उग्रता प्रकट करते हैं? क्या उग्रता के अंतर्गत भावनाओं और भावावेगों के तत्त्व होते हैं? अहंकार और आत्म-तुष्टता के बारे में क्या कहेंगे? उग्रता में ये सारे तत्त्व आते हैं—ये सभी किसी के स्वभाव से संबंधित होते हैं। “आँख के बदले आँख और दाँत के बदले दाँत” के बारे में क्या कहेंगे—क्या यह उग्रता का उदाहरण है? “अगर तुम मेरे प्रति निष्ठुर रहोगे तो मैं तुम्हारा बुरा करूँगा” और “अपनी ही दवा का स्वाद चखो”—क्या ये उग्रता के उदाहरण हैं? (बिल्कुल।) तुम और कौन-से उदाहरण बता सकते हो? (“मैं तब तक हमला नहीं करूँगा जब तक मुझ पर हमला नहीं किया जाता; अगर मुझ पर हमला किया जाता है, तो मैं निश्चित रूप से जवाबी हमला करूँगा।”) ये सारे के सारे उग्रता के उदाहरण हैं। लोग गुस्सा आने पर ही उग्र नहीं होते, वे अक्सर तब भी उग्रता दिखाते हैं जब गुस्सा नहीं होते हैं। उदाहरण के लिए, लोग अपने शैतानी स्वभाव के साथ जीते हैं, और अक्सर उन लोगों को झिड़क देते हैं जिनके बोलने का तरीका उन्हें सुहाता नहीं या जिनके कार्य करने का तरीका उन्हें मंजूर नहीं है, और वे उन लोगों से बदला लेना चाहते हैं जिनके तौर-तरीके उन्हें असुविधाजनक लगते हैं। क्या यह उग्रता नहीं है? (है।) तुम उग्रता के और कौन-से उदाहरण सोच सकते हो? (रुतबा झाड़कर दूसरों से बात करना या झिड़कना।) जब कोई व्यक्ति अपने रुतबे से मिले लाभ का प्रयोग मनचाहे काम करने में करता है या दूसरों को झिड़ककर अपना गुस्सा निकालता है तो ये भी उग्रता के रूप हैं। वास्तव में, लोग अक्सर उग्रता प्रकट करते हैं। ऐसे अधिकतर मामले जिनमें लोगों की कथनी-करनी सत्य से मेल नहीं खाती, वे उनके स्वार्थ, इच्छाओं, रोष, घृणा और क्रोध के कारण उपजते हैं—ये सारी चीजें उग्रता से निकलती हैं। उग्रता केवल घृणा, क्रोध या प्रतिशोध से ही प्रकट नहीं होती है, बल्कि अनेक प्रकार की चीजें इससे जुड़ी हैं, लेकिन हम आज इसकी गहराई में नहीं जाएँगे। सभी भ्रष्ट मनुष्य उग्र होते हैं और यह उग्रता उनके शैतानी स्वभाव से उत्पन्न होती है; उग्रता सामान्य मानवता की बुद्धि से मेल नहीं खाती है, यह सत्य के साथ तो बिल्कुल भी मेल नहीं खाती है, इसलिए अपने भ्रष्ट स्वभाव के अनुसार पेश आना उग्रता है। क्या बुराई के बदले बुराई करना उग्रता का ही एक रूप नहीं है? (बिल्कुल है।) अच्छाई का बदला बुराई से देने के बारे में क्या करोगे? यह भी उग्रता है। इतना गुस्सा आना कि तुम्हारे रोम खड़े होने लगें, यह क्या है? यह भी उग्रता है। उग्रता अपने सामने उठने वाले मुद्दों पर अतार्किक रूप से प्रतिक्रिया जताना और यह सोचना है, “स्थिति चाहे जो भी हो, मैं तो अब अपना गुबार निकाल कर रहूँगा। मुझे न तो नतीजों की परवाह है, न सिद्धांतों की, न इस बात की कि मेरा गुस्सा किस पर निकलेगा, मुझे तो पहले अपनी भड़ास निकालनी है”—यह उग्रता है। अंतिम विश्लेषण में, उग्रता वास्तव में है क्या? यह भ्रष्ट स्वभाव है, शैतानी स्वभाव है, और तार्किकता का घोर अभाव है। उग्रता एक प्रकार का जंगलीपन है, पाशविक प्रकृति फूटना इसका सार है, और इसमें सामान्य मानवता की लेशमात्र समझ नहीं होती है। अतार्किकता दिखने का मतलब है कि हम अपना विवेक और आत्मसंयम खोकर खुद को रोकने और नियंत्रित करने में असमर्थ हैं। यही उग्रता है।

अपना स्वभाव बदलने के लिए तुम्हारे के लिए सबसे बुनियादी चीज उन तरीकों को पहचानने योग्य बनना है जिनसे परमेश्वर के वचनों के प्रकाश में तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव मुख्य रूप से प्रकट होता है, और इस बात के प्रति सचेत होना है कि जब तुम अपना भ्रष्ट स्वभाव प्रकट कर रहे हो तो उस समय तुम क्या सोच रहे होते हो और किस दशा में होते हो। अनेक मामलों में किसी व्यक्ति में हर दशा उसके भ्रष्ट स्वभाव के कारण उत्पन्न होती है—कुछ मामलों में एक भ्रष्ट स्वभाव के कारण विभिन्न परिस्थिति में अलग-अलग दशाएँ उत्पन्न हो सकती हैं। तुम्हें इन सबको पहचानने में सक्षम होना चाहिए। अपने विवेक से थोड़ी-सी समझ हासिल कर लेना ही काफी नहीं है, तुम्हें विश्लेषण करने और यह जानने में भी सक्षम होना चाहिए कि तुम्हारी समस्या की जड़ कहाँ है, तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव किस परिस्थिति में प्रकट होते हैं, और यह किस प्रकार की समस्या है। यह सब स्पष्ट रूप से समझने के बाद तुम अभ्यास करने का उचित तरीका जान लोगे। क्या तुम किसी चीज का अभ्यास करने में सिर्फ इसलिए सक्षम हो सकते हो क्योंकि तुम जानते हो कि इसका अभ्यास कैसे किया जाना चाहिए? (नहीं) ऐसा क्यों? क्योंकि तुममें भ्रष्ट स्वभाव है। अगर कोई भ्रष्ट स्वभाव किसी को सत्य का अभ्यास करने से रोक रहा है तो उसे सत्य खोजना चाहिए, परमेश्वर के हाथों निपटान और काट-छाँट स्वीकारना चाहिए, उसके न्याय और ताड़ना को स्वीकारना चाहिए, और अपने भ्रष्ट स्वभाव का निराकरण करना चाहिए। अगर वह यह काम करता है तो उसके लिए सत्य का अभ्यास आसान हो जाएगा। क्या सत्य का अभ्यास करने की क्षमता का यह अर्थ है कि किसी ने परिवर्तन हासिल कर लिया है? यह अर्थ नहीं है। सिर्फ इसलिए कि किसी ने एक मामले में भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर लिया है, इसका यह मतलब नहीं है कि यह दुबारा उत्पन्न नहीं होगा। यह प्रकट होता रहेगा, उस व्यक्ति के सत्य के अभ्यास में विघ्न-बाधा डालता करेगा, और ऐसी परिस्थिति में इस भ्रष्ट स्वभाव को हल करने के लिए उसे अभी भी सत्य खोजना होगा। कोई व्यक्ति एक मामले में भ्रष्ट स्वभाव का समाधान कर सकता है, लेकिन कुछ समय बाद संभव है कि किसी भिन्न स्थिति में दूसरा भ्रष्ट स्वभाव उत्पन्न हो जाए और उसे सत्य का अभ्यास करने से रोक दे। यहाँ क्या मसला है? यह संकेत देता है कि भ्रष्ट स्वभाव लोगों में गहरी जड़ें जमा चुका है, और उन्हें अभी भी सत्य खोजना चाहिए और परमेश्वर के वचनों में अपनी समस्याओं का उत्तर ढूँढ़ना चाहिए। केवल बार-बार समाधान करने से ही भ्रष्ट स्वभाव धीरे-धीरे कम होने लगेगा। कोई भी भ्रष्ट स्वभाव एक बार में हल नहीं किया जा सकता है—ऐसा होता नहीं है—तुम्हें पहले सत्य को समझना होगा और पहचानना सीखना होगा। तुम्हें खुद से पूछना चाहिए : “मैं अभी गलत दशा में हूँ, यह दशा कैसे उत्पन्न हुई? मेरे अंदर ऐसी दशा क्यों उत्पन्न होती है? परमेश्वर के वचन इस दशा को कैसे उजागर करते हैं? यह दशा किस भ्रष्ट स्वभाव के कारण उत्पन्न हुई है?” इनके बारे में समझ हासिल करने और इन्हें स्पष्ट रूप से पहचानने के लिए तुम्हें इन प्रश्नों पर सोच-विचार करना चाहिए। एक बार जब तुम्हें अपने भ्रष्ट स्वभावों की समझ हो जाएगी तो तुम इन्हें त्यागने में सक्षम हो जाओगे। इस तरीके से तुम्हारे सत्य के अभ्यास की बाधाएँ धीरे-धीरे दूर होने लगेंगी और सत्य को अमल में लाना आसान हो जाएगा। सत्य के अनुसरण के मार्ग पर चलने का अर्थ इसी तरीके से अपने भ्रष्ट स्वभावों का निरंतर निराकरण करते जाना है। सत्य के अनुसरण का मार्ग धीरे-धीरे विस्तृत होकर खुलता जाएगा, इसकी बाधाएँ घटती जाएँगी; तुम सत्य के तमाम अलग-अलग पहलुओं का अभ्यास करने में सक्षम हो जाओगे, और तुम कम से कम भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करोगे। लेकिन, इसका यह अर्थ नहीं है कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभावों से पूरी और अच्छी तरह उबर चुके हो। संभव है कि तुम विशेष परिस्थिति में अब भी थोड़ा-बहुत भ्रष्ट स्वभाव प्रकट करो, लेकिन यह तुम्हारे सत्य का अभ्यास करने में कभी बाधक नहीं बन सकेगा। यह अच्छी दिशा में परिवर्तन हो रहा है। जीवन-प्रवेश का मार्ग लंबा है, अर्थात, सत्य के अनुसरण का मार्ग लंबा है। अपने वास्तविक जीवन में हम सब देख सकते हैं कि कैसे एक प्रकार का भ्रष्ट स्वभाव अलग-अलग परिस्थिति में नाना प्रकार की दशाएँ उत्पन्न कर सकता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि ये दशाएँ ऊपरी तौर पर सही दिखाई देती हैं या गलत, सकारात्मक दिखती हैं या नकारात्मक और प्रतिकूल, ये सभी कुछ समय तक किसी को नियंत्रित कर सकती हैं, उनके बोलने और कार्य करने की शैली को प्रभावित कर सकती हैं, और चीजों और लोगों के प्रति व्यवहार को लेकर उनके विचारों पर असर डाल सकती हैं। तो, ये दशाएँ कैसे उत्पन्न होती हैं? वास्तव में, ये सारी दशाएँ लोगों की शैतानी प्रकृति और भ्रष्ट स्वभावों के कारण उत्पन्न होती हैं। ऊपरी तौर पर ऐसा प्रतीत होता है कि लोग दशाओं से प्रभावित हो रहे हैं, लेकिन मूलतः उनके भ्रष्ट स्वभाव ही उन्हें नियंत्रित कर रहे हैं। परिणामस्वरूप, लोग अपनी आंतरिक शैतानी प्रकृति और भ्रष्ट स्वभावों के अनुसार जीते हैं जिसके कारण वे सत्य का उल्लंघन और परमेश्वर का प्रतिरोध करते हैं। अगर तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव दूर करने और अपनी गलत दशाएँ बदलने के लिए सत्य का उपयोग नहीं करते हो तो अपने शैतानी स्वभाव की विवशताओं और बेड़ियों से मुक्त में असमर्थ रहोगे। उदाहरण के लिए, मान लो कि तुम एक अगुआ हो, और कलीसिया में एक विशेष कर्तव्य निभाने के लिए कोई अच्छा-सा व्यक्ति है, लेकिन तुम उससे काम नहीं लेना चाहते क्योंकि तुम उसे हेय दृष्टि से देखते हो। तुम जानते हो कि यह लोगों को प्रशिक्षित करने का उचित तरीका नहीं है, तो तुम्हें यह समस्या कैसे हल करनी चाहिए? तुम्हें मनन करना चाहिए : “मैं इस तरह काम क्यों कर रहा हूँ? मैं उससे अनुचित रूप से क्यों पेश आ रहा हूँ? मैं किस चीज के प्रभाव में हूँ?” क्या इसमें विशिष्ट ब्योरे शामिल नहीं हैं? इस व्यक्ति के साथ तुम्हारे उचित व्यवहार न करने के पीछे समस्या क्या है? इसका कारण तुम्हारे पूर्वाग्रह, तुम्हारी पसंद-नापसंद और तुम्हारी प्राथमिकताएँ हैं। लोगों में अहंकारी स्वभाव होता है, लिहाजा ये चीजें उनके भीतर उत्पन्न हो सकती हैं। इसलिए कोई शक नहीं कि इसकी वजह तुम्हारा अहंकारी स्वभाव है। तुम्हारे अहंकारी स्वभाव के कारण ही तुम्हारे भीतर ये दशाएँ उत्पन्न हुई हैं : अपने मन में इस व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखना, उसके बारे में कुछ भी भला न बोलना, या निष्पक्ष और उचित तरीके से उसका मूल्याँकन न करना, और उपयुक्त होने के बावजूद उसे किसी कर्तव्य के लिए न चुनना—ये सभी तुम्हारे अहंकारी स्वभाव से उपजे दुष्परिणाम हैं। लोगों का स्वभाव अहंकारी होता है, इसलिए उनके मन में अंधकार होता है, उनकी दृष्टि विषम होती है, और समस्याओं को लेकर उनके विचार पूर्वाग्रहपूर्ण होते हैं। इन समस्याओं का समाधान आत्मचिंतन करने और खुद को जानने के जरिए किया जाना चाहिए। अगर तुम्हारे पास अपनी भ्रष्ट दशाओं और भ्रष्ट स्वभावों के बारे में स्पष्ट दृष्टिकोण और समझ है, और फिर तुम उन्हें हल करने के लिए सत्य खोज सकते हो और लोगों के साथ सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप व्यवहार कर सकते हो, तो तुम लोगों के प्रति अपने पूर्वाग्रह और गलत विचार बदलने में सक्षम रहोगे, और लोगों के साथ उचित व्यवहार करने लगोगे। तुम इन्हें कैसे बदल सकते हो? तुम्हें प्रार्थना करने और सत्य खोजने के लिए परमेश्वर के सामने आना चाहिए, इन समस्याओं के सार की असलियत समझनी चाहिए और परमेश्वर की इच्छा की समझ हासिल करनी चाहिए। तुममें सहयोग करने और अपनी इच्छाओं को त्यागने की इच्छा होनी चाहिए। तुम्हें खुद से कहना चाहिए : “मैं आगे से इस तरह पेश नहीं आऊँगा। उसकी काबिलियत में थोड़ी कमी हो सकती है, लेकिन मुझे उसके साथ यथोचित व्यवहार करना चाहिए। अगर वह इस कर्तव्य को पूरा करने के लिए उपयुक्त है, तो यह उसे सौंप देना चाहिए। अगर किसी और व्यक्ति के साथ मेरा अच्छा संबंध है लेकिन वह इस कर्तव्य के उपयुक्त नहीं है तो मैं उसका इस्तेमाल नहीं करूँगा। उसकी जगह पहले वाले को काम सौंपूँगा।” क्या यह दशा पलट नहीं गई? क्या यह अभ्यास का एक रूप नहीं है? यह अभ्यास का ही एक रूप है। अब तुम इस तरीके से अभ्यास करने में कैसे सक्षम रहे? अगर तुमने सहयोग न किया होता, अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को न त्यागा होता, तो क्या तुम्हें यह परिणाम प्राप्त हो सकता था? बिल्कुल नहीं। इस तरह, लोगों का सहयोग अति महत्वपूर्ण है। तुम्हें सचमुच सहयोग करना चाहिए—अर्थात, तुम्हें सत्य खोजने और परमेश्वर की माँगें पूरी करने के प्रयास करने चाहिए। अगर तुम तरीके से कार्य करना पसंद नहीं करते, सत्य खोजने का प्रयास नहीं करते तो फिर तुम सहयोग नहीं कर रहे हो। सच्चा सहयोग ही सत्य के प्रति संपूर्ण समर्पण है। सत्य के प्रति समर्पण का दृष्टिकोण और दृढ़ निश्चय अपनाकर ही तुम अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं, पसंद-नापसंद और तर्क-वितर्क को त्याग सकते हो। इस तरीके से तुम्हारी गलत दशाएँ पलट सकती हैं। लोगों के साथ उचित व्यवहार करने का अर्थ यह है कि जब कोई व्यक्ति सही और सत्य के अनुसार बोल रहा है तो तुम इसे स्वीकार करने और समर्पण करने में सक्षम हो, फिर चाहे उस व्यक्ति की स्थिति कुछ भी हो। अगर तुम हमेशा किसी व्यक्ति के प्रति पूर्वाग्रह पालते हो, उसे हेय दृष्टि से देखते हो, उसका उपयोग करने के बावजूद उससे बहुत ज्यादा बात नहीं करना चाहते, अभी भी अपने मन में उसके प्रति हेय भाव रखते हो, तो तुम्हारी दशा पूरी तरह नहीं बदली है और इससे दिखता है कि तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव की सड़ी हुई जड़ अभी भी तुम्हारे अंदर मौजूद है। एक छोटी-सी, तुच्छ दशा भी तुम्हें बहुत ज्यादा कष्ट पहुँचा सकती है—क्या तुम्हारे स्वभाव की यही समस्या है? मनुष्य की प्रकृति और सार के साथ यह समस्या है। तुम्हें इस गलत दशा को पलट देना चाहिए। तुम्हें इस व्यक्ति को सिर्फ इसलिए सीमित नहीं रखना चाहिए क्योंकि तुम्हें उसमें कुछ कमजोरियाँ मिली हैं—उसमें बेशक कुछ गुण और खूबियाँ भी हैं, और तुम्हें उसके साथ अधिक संगति कर उन खूबियों की गहरी समझ हासिल करने का प्रयास करना चाहिए। जब तुम उसकी खूबियाँ देखते हो और इन्हें वास्तव में विचाराधीन कर्तव्य के लिए उपयुक्त पाते हो तो तुम धीरे-धीरे अपने घिनौनेपन और अपनी शर्मिंदगी से अवगत हो सकते हो, और समझ सकते हो कि उसे यह कर्तव्य सौंपना और उसके साथ इस तरह पेश आना उचित और सत्य के अनुरूप है। तब तुम अधिक सहज महसूस करोगे। जब इस व्यक्ति को यह कर्तव्य सौंपा जाएगा तो तुम अपने अंतर्मन में शांति महसूस करोगे, तुम्हें लगेगा कि तुमने परमेश्वर को निराश नहीं किया और सत्य का अभ्यास किया है। समय बीतने के साथ ही इस व्यक्ति के प्रति तुम्हारा नजरिया बदल जाएगा। यह सब कैसे हासिल होता है? परमेश्वर ही ऐसा करता है—सत्य तुम्हारे अंदर धीरे-धीरे काम करता है, और यह तुम्हारी दशा को रद्दोबदल कर देता है। यद्यपि यह केवल शुरुआत है। अगर तुम्हें फिर से उसी समस्या का सामना करना पड़े, तो जरूरी नहीं कि तुम इसे संभालने के लिए वही तरीके अपना सको जो तुमने पिछले व्यक्ति के साथ अपनाए थे। तुम कोई दूसरी, अलग-अलग दशाओं का अनुभवों कर सकते हो, या अलग-अलग परिवेशों, लोगों, मामलों और चीजों से यह परीक्षण कर सकते हो कि तुम सत्य से कितना प्रेम करते हो, और अपने भ्रष्ट स्वभाव और अपनी इच्छा त्यागने के संकल्प का परीक्षण कर सकते हो। ये परमेश्वर के परीक्षण हैं। दूसरे लोग चाहे जो कोई हों, उनसे तुम्हारा रिश्ता चाहे अच्छा हो या बुरा, वे तुम्हारे करीब हों या न हों, वे तुम्हारी खुशामद करते हों या न करते हों, और वे चाहे कितने भी काबिल हों, अगर तुम उनके साथ अपने हर कार्य-व्यवहार में निष्पक्ष और सही ढंग से पेश आने में सक्षम हो जाओगे तो तुम्हारी दशा पूरी तरह बदल चुकी होगी। जब दूसरों के साथ तुम्हारे व्यवहार का तरीका तुम्हारी कल्पनाओं, तुम्हारी भावनाओं या तुम्हारी उग्रता पर आधारित नहीं होगा, तो तुम सत्य के इस पहलू को हासिल कर चुके होगे। तुम अभी वहाँ नहीं पहुँचे हो। तुम्हारे अंदर मौजूद तमाम भ्रष्ट स्वभाव अभी भी तुम्हारे व्यवहार को और तुम्हारे सोचने के तरीके और दिमाग को नियंत्रित कर रहे हैं। तुम्हारे भीतर की ये चीजें पहले ही तुम्हारी प्रकृति बन चुकी हैं जो तुम्हें नियंत्रित करती है, और सत्य अभी तक तुम्हारा जीवन नहीं बन पाया है। तुममें केवल कुछ अच्छा व्यवहार है, लेकिन इस अच्छे व्यवहार के पीछे, वे सभी अलग-अलग दशाएँ और विचार जिन्हें तुम प्रकट करते हो और अपने दिल में बसाए हो, वे तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव से उत्पन्न होते हैं, और सत्य के विरुद्ध हैं। जब तुम्हारी ये सब दशाएँ और विचार तर्कसम्मत बन जाएँगे और सिद्धांतों और सत्य के अनुरूप हो जाएँगे तो तुम्हारे भ्रष्ट स्वभाव कभी भी तुम्हारे विचारों या व्यवहार को नियंत्रित नहीं करेंगे—तब तुम्हारा स्वभाव सचमुच बदल चुका होगा। तुम्हें फिर कभी अपने भ्रष्ट स्वभाव को त्यागने या खुद को नियंत्रित करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम सीधे सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप कार्य कर सकोगे। तुम मानोगे कि तुम्हें यही तो करना चाहिए और सोचोगे कि सत्य का अभ्यास बिल्कुल भी श्रमसाध्य नहीं है। ऐसा होने पर सत्य तुम्हारा जीवन बन चुका होगा। तुम सभी लोग अभी यहाँ तक नहीं पहुँचे हो—तुम्हें अभी भी कुछ अरसे तक अनुसरण जारी रखने की जरूरत है। थोड़ा-सा सिद्धांत समझना और थोड़ा-सा उत्साह होना बहुत प्रभावी नहीं है; तुम्हारा आध्यात्मिक कद अभी भी बहुत छोटा है। तुम्हें परमेश्वर के वचनों का अनुभव करने, सत्य का अभ्यास करने और अपनी अनुभवजन्य गवाही और सच्ची समझ के बारे में बात करने में भी सक्षम होना चाहिए—तब तुम्हारे पास वास्तविकता होगी। सच्चा आध्यात्मिक कद होने का यही अर्थ है। अभी अधिकतर लोग गवाही देने के काबिल नहीं हैं—उनका अनुभव बहुत ही उथला है, उन्हें परमेश्वर के वचन अधिक पढ़ने चाहिए, ज्यादा उपदेश सुनने चाहिए और भजनों का अधिक अध्ययन करना चाहिए। अनेक चीजों का अनुभव लेने के बाद उन्हें परमेश्वर के वचनों की सच्ची समझ हासिल होगी और उन्हें लगेगा कि परमेश्वर के वचन इतने अधिक व्यावहारिक, इतने जीवन उपयोगी हैं कि ये लोगों को सच्चा मानवोचित जीवन जीने देने में पूरी तरह सक्षम हैं, और शैतान के तमाम तरह के प्रलोभनों का जवाब देने में इनका प्रयोग किया सकता है। जिनमें यह समझ आ जाती है, वही लोग आध्यात्मिक कद हासिल कर पाएँगे और सचमुच परमेश्वर के लोग बन पाएँगे। बहुतेरे लोग सत्य पर संगति करने या अपनी अनुभवजन्य गवाही के बारे में बात करने में असमर्थ होते हैं। इसकी वजह यह है कि सत्य अभी तक उनका जीवन नहीं बना है, और इसके फलस्वरूप वे थकाऊ और दयनीय जीवन जीते हैं, हर तरह की कुरूपता में जीते हैं, और उनका जीवन दुःखमय होता है। भ्रष्ट स्वभाव लोगों के लिए क्या लेकर आता है? यह पीड़ा, वैमनस्य, रोष, नकारात्मकता के साथ ही अहंकार, आत्मतुष्टता, झूठ-फरेब, धोखा, कपट और अन्य सबसे श्रेष्ठ होने का विश्वास लेकर आता है। कभी-कभी इसके कारण लोग नाउम्मीदी में डूब जाते हैं, झूठे तर्क-वितर्क देकर बोलते हैं और प्रतिरोध करते हैं। तो कभी इसके कारण लोग यह सोचने लगते हैं कि वे कितने दयनीय हैं, कितने अकेले और बेसहारा हैं, और वे अभागी और बेचारी सूरत बना लेते हैं। लोग बरसों से परमेश्वर में विश्वास के बावजूद अभी तक सत्य को नहीं समझते हैं, अनर्गल बातें करते हैं, और कहते हैं कि वे अकेले और बेसहारा हैं। परमेश्वर ही सत्य है, वह इंसान का सहारा है, लेकिन लोग उसका आसरा नहीं लेते, उससे दूर भटक जाते हैं, वे शैतान का सहारा लेते हैं और शैतानी फलसफों को जीते हैं। क्या ऐसे लोग भ्रमित नहीं हैं? सत्य का अनुसरण न करने वाले सारे लोग ऐसे ही होते हैं। जो सत्य को समझते हैं, वे परमेश्वर के करीब आते जाते हैं—अगर तुमने सत्य का छटाँग भर हिस्सा भी समझा और हासिल नहीं किया है तो फिर तुम परमेश्वर से बहुत ही दूर हो, और शायद परमेश्वर के साथ तुम्हारा सामान्य संबंध भी न हो। अगर तुम सत्य को समझते हो और इसका अभ्यास कर सकते हो, और सत्य तुम्हारा अंतरतम जीवन बन चुका है तो फिर परमेश्वर तुम्हारे दिल में बसता है। अगर तुम सत्य को नहीं समझते और इसे हासिल करने में विफल हो चुके हो, और तुम सत्य का अभ्यास भी नहीं कर सकते हो तो फिर परमेश्वर तुम्हारा परमेश्वर नहीं है और वह तुम्हारे मन में नहीं बसता है। अगर सत्य तुम्हारा स्वामी नहीं है और तुम्हारी हर चीज को निर्देशित नहीं करता तो फिर बात ऐसी है कि परमेश्वर तुम्हारा हर चीज का निर्देशक नहीं है। इसका मतलब है कि तुमने खुद को परमेश्वर को नहीं सौंपा है और तुम अब भी अपने फैसले खुद कर रहे हो। जब तुम खुद अपने फैसले करते हो तो भला फैसले लेने वाला कौन है? तुम्हारा भ्रष्ट स्वभाव; सत्य के पास यह उत्तरदायित्व नहीं है। जब तुम्हें अपनी कथनी-करनी, आचरण, कार्य व्यापार, कर्तव्य निर्वहन, लोगों के साथ व्यवहार, और यहाँ तक कि खान-पान, पहनावे जैसे रोजमर्रा के जीवन से जुड़े मामलों में अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने की जरूरत न पड़े, जब तुम अपने सारे कार्य परमेश्वर के वचनों और सत्य के सिद्धांतों के अनुरूप सँभाल सको तो तब तुम सच्चे मानवोचित ढंग से जी रहे होगे और सत्य को हासिल कर चुके होगे।

अभी तो सत्य का अभ्यास सबसे महत्वपूर्ण कार्य है और जो कोई भी सत्य का अभ्यास करने में विफल रहता है, वह अज्ञानी और मूर्ख है। जो सत्य का अभ्यास नहीं करते वे परमेश्वर के कार्य का अनुभव करने के काबिल नहीं हैं—उन्हें लगता है कि आशीष पाने के लिए परमेश्वर में विश्वास कर लेना भर ही काफी है और सत्य का अभ्यास करने और कोई भी कीमत चुकाने की जरूरत नहीं है। धार्मिक संसार में इस प्रकार के अनेक लोग हैं। परमेश्वर के घर में ही, अधिकतर लोग यह जानते हैं कि परमेश्वर कैसे अपना कार्य संचालन कर मानवजाति को बचाता है, और परमेश्वर के इरादे और उसकी लोगों से अपेक्षाएँ क्या हैं। परमेश्वर के घर में ऐसे लोग बहुत ही कम हैं जो सत्य का अभ्यास नहीं करते। अभी तुम सभी लोग सिद्धांत रूप में समझते हो कि सत्य का अनुसरण और अभ्यास करके ही तुम स्वभावगत परिवर्तन और उद्धार हासिल कर सकते हो, लेकिन जब यह प्रश्न उठता है कि सत्य का अभ्यास और सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने का मार्ग क्या है तो तुम अब भी थोड़े-से अस्पष्ट होते हो। लिहाजा, तुम्हारा जीवन-प्रवेश धीरे-धीरे होता है। सत्य की वास्तविकता में प्रवेश करने के लिए सत्य का अभ्यास सबसे महत्वपूर्ण है—सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ रहना बहुत बड़ी समस्या है। क्या तुम सभी लोग अभी भी सिद्धांत के वचनों और वाक्यांशों का प्रचार करते हो? (हाँ।) तो फिर जब तुम लोग ऐसा कर चुके होते हो तो क्या सिद्धांतों के इन वचनों और वाक्यांशों को अमल में ला पाते हो? अगर तुम इन्हें अमल में नहीं ला पाते हो तो यह साबित करता है कि तुम अभी भी सत्य को नहीं समझते हो, बल्कि सिर्फ सिद्धांतों को समझते हो, और तुम्हारे पास अभी तक सत्य की वास्तविकता नहीं है। कुछ लोग जानते हैं कि उन्हें ईमानदार होना चाहिए, लेकिन वे झूठ और छल-प्रपंच की बेबसी से मुक्त नहीं हो पाते हैं। कुछ लोग परमेश्वर के प्रति समर्पण के लिए राजी होने का दावा करते हैं, लेकिन जब उनकी काट-छाँट और निपटान किया जाता है तो वे समर्पण करने में असमर्थ होते हैं। अन्य लोग सिद्धांतों के बारे में इस ढंग से बात करते हैं कि मानो वे सही हों और यह आभास देते हैं कि उनके पास सत्य की वास्तविकता है, लेकिन उन्हें अपना ही सच्चा ज्ञान नहीं होता है। आध्यात्मिक सिद्धांत बताने में सक्षम होने के कारण उन्हें दूसरे लोग बहुत ही आध्यात्मिक मान बैठते हैं लेकिन वे सच्चा आत्म-ज्ञान पाने के काबिल नहीं हैं और उनमें सच्चा समर्पण नहीं होता है, फिर बात चाहे उनके अपने कर्तव्यों की हो या मामलों को सँभालने की हो। इन मसलों की जड़ में क्या है? बात यह है कि वे सत्य को स्वीकारने में असमर्थ हैं। अगर परमेश्वर का विश्वासी सत्य को स्वीकार नहीं करता, तो क्या वह वास्तव में उसमें विश्वास करता है? अगर वह सत्य को स्वीकार नहीं कर सकता तो वह अपनी कोई भी समस्या हल नहीं कर सकता है। जो सत्य स्वीकार करता है, केवल वही इसका अभ्यास कर सकता है और खुद को जान सकता है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कोई व्यक्ति सिद्धांतों के कितने वचन और वाक्यांश सुना सकता है, महत्व उस सिद्धांत पर अमल कर सकने का है, यही सबसे महत्वपूर्ण है। कोई व्यक्ति जिन सत्यों को अमल में लाता है, वही वास्तविकता होते हैं—अगर कोई सत्य का अभ्यास करने में असमर्थ है तो फिर उसमें वास्तविकता का अभाव है। कुछ लोग सिद्धांत के वचनों और वाक्यांशों का बहुत ही स्पष्ट रूप से प्रचार कर सकते हैं, लेकिन उनमें वास्तव में कई सत्यों को लेकर स्पष्टता का अभाव होता है, वे कुछ चीजों को पहचान नहीं पाते, वे उनकी असलियत नहीं जान पाते, और वे जितने सत्यों का अभ्यास कर सकते हैं उनकी मात्रा बहुत सीमित है। इसके फलस्वरूप, ऐसे लोगों के लिए अनुभवजन्य गवाहियाँ लिखना बहुत कठिन होता है—वे आम भाषा या व्यावहारिक अनुभव के बगैर सिद्धांतों के चंद वचन और वाक्यांश ही लिख सकते हैं। क्या तुम लोगों के पास अब यह मार्ग है कि सिद्धांत के वचन और वाक्यांश सुनाने संबंधी इस मसले का समाधान कैसे हो? सिद्धांत के वचन और वाक्यांश सुनाने के इस मसले का समाधान करने के लिए तुम्हें सत्य का अभ्यास करना होगा—तुम सत्य का जितना अधिक अभ्यास करोगे, सत्य और इसके अभ्यास के लिए जितने अधिक प्रयास करोगे, तुम्हें अनुभव और अभ्यास के उतने ही अधिक वचन मिलेंगे। तुम्हारे पास अनुभव और अभ्यास के जितने अधिक वचन होंगे, तुम सिद्धांत के वचनों और वाक्यांशों का उतना ही कम पाठ करोगे। कोई भी व्यक्ति वास्तविकता कैसे हासिल करता है? सत्य के अभ्यास की प्रक्रिया में लोगों को कुछ अनुभव प्राप्त होता है और वे कुछ चीजों से अवगत होते हैं, वे भ्रष्ट स्वभाव दिखाते हैं, उनमें तमाम तरह की दशाएँ उत्पन्न होती हैं, फिर वे सत्य खोजते हैं, अपनी विभिन्न दशाओं का विश्लेषण करते हैं, और अभ्यास के सिद्धांत और मार्ग खोजते हैं। वे सत्य को समझने और इसका अभ्यास करने लगते हैं। यह सच्चा जीवन अनुभव है। अगर तुम सत्य का अनुसरण नहीं करते और इसका अभ्यास नहीं करना चाहते तो तुम इस प्रक्रिया से नहीं गुजर पाओगे, और इस प्रक्रिया के बिना तुम जीवन-प्रवेश हासिल करने में विफल रहोगे। अगर इस प्रक्रिया में तुम बहुत ज्यादा अनुभव लेते हो, तो तुम्हें सत्य की स्पष्ट समझ हासिल हो जाएगी, तुम भ्रष्ट स्वभावों को स्पष्ट रूप से पहचाने के काबिल बन जाओगे, और सत्य का अभ्यास करने में जिस मार्ग पर चलना है, वह उत्तरोत्तर साफ होता चला जाएगा। अगर तुम अभ्यास और अनुभव की इस प्रक्रिया से नहीं गुजरे हो, और तुम्हें परमेश्वर के वचनों की महज शाब्दिक, सैद्धांतिक समझ-बूझ है तो फिर तुम जो कुछ प्रचार करोगे वे सिर्फ सिद्धांत होंगे, क्योंकि तुम्हारी शाब्दिक समझ और तुम्हारे प्रत्यक्ष अनुभव के बीच विसंगति जो है। सिद्धांत कैसे उपजते हैं? जब कोई व्यक्ति परमेश्वर के वचनों का अभ्यास नहीं करता, और उसके पास जीवन अनुभव नहीं होता, बल्कि वह परमेश्वर के वचनों के शाब्दिक अर्थ को सिर्फ समझता है, इनका विश्लेषण और व्याख्या करता है, और यही नहीं, इनका उपदेश देने लगता है, तो सिद्धांत उत्पन्न होते हैं। क्या सिद्धांत वास्तविकता बन सकते हैं? अगर तुम सत्य का अभ्यास या अनुभव नहीं करते हो, तो तुम कभी भी इसे समझ नहीं सकते। सत्य की महज शाब्दिक व्याख्या हमेशा एक सिद्धांत रहेगी। लेकिन, अगर तुम सत्य का अभ्यास करते हो तो यह समझोगे और महसूस भी करोगे कि तुम अपने भ्रष्ट स्वभाव का कुछ अंश त्यागते जा रहे हो, अपने उद्धार की ओर कदम बढ़ा रहे हो और परमेश्वर की अपेक्षाओं के निकट आते जा रहे हो। इस तरह उत्पन्न ज्ञान, विचार, ख्याल, भावनाएँ, इत्यादि व्यावहारिक होंगे। वास्तविकता कैसे प्राप्त होती है? यह सत्य के अभ्यास के अनुभव से प्राप्त होती है; अगर कोई सत्य का अभ्यास नहीं करता तो वह कभी भी वास्तविकता को हासिल नहीं कर सकता है। शायद कुछ लोग कहेंगे, “मैं सत्य का अभ्यास नहीं करता, फिर भी व्यावहारिक धर्मोपदेश दे सकता हूँ।” तुम जो उपदेश देते हो, वह उस समय दूसरों को सही और काफी व्यावहारिक प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन बाद में उनके पास अभ्यास का कोई मार्ग नहीं होगा। इससे साबित होता है कि तुम जो कुछ समझते हो, वह अभी भी सिद्धांत है। अगर तुम परमेश्वर के वचनों को अभ्यास में नहीं लाते हो और तुम्हारे पास कोई व्यावहारिक अनुभव या सत्य की कोई समझ नहीं है, तो जब कोई दूसरा ऐसी दशा में होगा जिसके बारे में तुमने पहले कभी सोचा ही नहीं है, तो तुम्हें पता ही नहीं होगा कि इसका समाधान कैसे करें। जब कोई कभी-कभार ही सत्य का अभ्यास करता है, तो वे कभी भी इसे सही अर्थों में नहीं समझ सकता। वह सत्य का अभ्यास बढ़ाकर ही इसे सचमुच समझ सकता है, और तभी सत्य के अभ्यास के सिद्धांतों को आत्मसात कर सकता है। अगर तुम्हें सत्य का कोई अनुभव नहीं है, तो तुम स्वाभाविक रूप से सिर्फ सिद्धांत की सीख दे सकते हो। तुम दूसरों को सिर्फ नियमों का पालन करना सिखा सकते हो, जैसे कि तुम खुद करते हो। सच्चे जीवन अनुभव के बिना तुम सत्य की वास्तविकता की सीख कभी नहीं दे पाओगे। सत्य का अभ्यास करना अध्ययन करने के समान नहीं है। अध्ययन करने का मतलब वचनों और वाक्यांश पर मेहनत करना है; इसमें केवल वचनों के नोट्स लेना, उन्हें याद रखना, उनका विश्लेषण करना और उनकी छानबीन करना काफी है। सत्य का अभ्यास ठीक इसके विपरीत होता है; सत्य को समझने और सिद्धांतों के अनुरूप मामले सँभालने के नतीजे पाने के लिए तुम्हें व्यावहारिक अनुभव पर निर्भर करना होता है। जो भी व्यक्ति सत्य को समझते ही इसका अभ्यास करने के लिए तैयार रहेगा, वह अपने भ्रष्ट स्वभाव को दूर करने में समक्ष रहेगा—वह जितने अधिक सत्यों का अभ्यास करेगा, उतने ही अधिक भ्रष्ट स्वभाव को छोड़ फेंकने में सक्षम होगा। जो सत्य को तो समझते हैं लेकिन इसका अभ्यास नहीं करते, वे अपने भ्रष्ट स्वभाव को कभी नहीं छोड़ सकते। इस प्रकार सत्य को खोजना, समझना और इसका अभ्यास करना भ्रष्ट स्वभाव दूर करने का मार्ग है।

11 दिसंबर, 2017

पिछला: ईमानदार होकर ही व्यक्ति सच्चे मनुष्य की तरह जी सकता है

अगला: धर्म में आस्था रखने या धार्मिक समारोह में शामिल होने मात्र से किसी को नहीं बचाया जा सकता

परमेश्वर के बिना जीवन कठिन है। यदि आप सहमत हैं, तो क्या आप परमेश्वर पर भरोसा करने और उसकी सहायता प्राप्त करने के लिए उनके समक्ष आना चाहते हैं?

परमेश्वर का प्रकटन और कार्य परमेश्वर को जानने के बारे में अंत के दिनों के मसीह के प्रवचन सत्य के अनुसरण के बारे में I न्याय परमेश्वर के घर से शुरू होता है अंत के दिनों के मसीह, सर्वशक्तिमान परमेश्वर के अत्यावश्यक वचन परमेश्वर के दैनिक वचन मेमने का अनुसरण करो और नए गीत गाओ राज्य का सुसमाचार फ़ैलाने के लिए दिशानिर्देश परमेश्वर की भेड़ें परमेश्वर की आवाज को सुनती हैं परमेश्वर की आवाज़ सुनो परमेश्वर के प्रकटन को देखो राज्य के सुसमाचार पर अत्यावश्यक प्रश्न और उत्तर मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ मसीह के न्याय के आसन के समक्ष अनुभवात्मक गवाहियाँ मैं वापस सर्वशक्तिमान परमेश्वर के पास कैसे गया

सेटिंग

  • इबारत
  • कथ्य

ठोस रंग

कथ्य

फ़ॉन्ट

फ़ॉन्ट आकार

लाइन स्पेस

लाइन स्पेस

पृष्ठ की चौड़ाई

विषय-वस्तु

खोज

  • यह पाठ चुनें
  • यह किताब चुनें

WhatsApp पर हमसे संपर्क करें