देहधारण के अर्थ का दूसरा पहलू

देहधारी परमेश्वर की साधारणता और सामान्यता का अर्थ क्या है? क्या वे ऐसी चीजें हैं जो सिर्फ इसलिए मौजूद हैं कि वह काम कर सके? क्या यह ये साबित करने के लिए है कि वह मसीह है? कुछ लोग कहते हैं, “देहधारी परमेश्वर निश्चित रूप से साधारण और सामान्य देह का होना चाहिए।” क्या इसका मतलब केवल यही है? यह कहना कि “यदि वह मसीह है, तो उसे निश्चित रूप से साधारण और सामान्य देह का होना चाहिए” क्या परमेश्वर को सीमित नहीं करता है? “निश्चित” का क्या मतलब है? कुछ लोग कहते हैं, “यह परमेश्वर के वचनों को व्यक्त करने के लिए है, ताकि मनुष्य आसानी से उनके संपर्क में आ सके।” क्या यह एकमात्र उद्देश्य है? इसे मसीह के सार के संबंध में देखा जाए तो, मसीह का सार स्वयं परमेश्वर है, पूर्ण रूप से और पूरी तरह। परमेश्वर जो भी करता है उसमें अर्थ होता है। विशेष रूप से नियुक्त देह की काया, जिसका विशेष रूप से नियुक्त एक रूप है, विशेष रूप से नियुक्त एक परिवार, विशेष रूप से नियुक्त एक जीने का परिवेश है—ये चीजें जिन्हें परमेश्वर करता है उन सभी में अर्थ होता है। कुछ लोग पूछते हैं : “यह कैसे हो सकता है कि मैं परमेश्वर के द्वारा साधारण और सामान्य देह को धारण करने के पीछे के उस बड़े अर्थ को नहीं देख सकता हूँ? क्या उसका देह सिर्फ एक बाहरी आवरण नहीं है? जब परमेश्वर अपना काम पूरा कर लेगा, तो क्या यह बाहरी आवरण बेकार नहीं हो जाएगा?” लोगों की कल्पनाओं में और उनकी अभिज्ञता में, उन्हें लगता है कि इस साधारण और सामान्य देह के बाहरी आवरण का कोई बड़ा उपयोग नहीं है, कि परमेश्वर के काम में या उसकी प्रबंधन योजना में इसका कोई बड़ा उपयोग नहीं है और यह केवल कार्य के इस चरण को पूरा करने के लिए अस्तित्व में है। लोग मानते हैं कि यह सिर्फ इसलिए अस्तित्व में है ताकि वे आसानी से उसके संपर्क में आएँ और उसके वचनों को सुन सकें, ताकि वे उसे देखें और महसूस करें और इसका कोई अन्य उपयोग नहीं है। अतीत में, लोग इसे ही देहधारण का अर्थ समझा करते थे। लेकिन असल में, साधारण और सामान्य देह के काम के दौरान और देहधारण के समय के दौरान, अपने कार्य का बीड़ा उठाने के साथ, वह ऐसे काम का बीड़ा भी उठाता है जिसके बारे में किसी ने अभी तक विचार नहीं किया है। यह किस तरह का कार्य है? स्वयं परमेश्वर का काम करने के साथ ही, वह मनुष्य की पीड़ा का अनुभव करने के लिए भी आता है। अतीत में, लोगों को यह पता नहीं था।

पहले, लोग नहीं समझते थे कि देहधारी परमेश्वर हमेशा बीमारी से पीड़ित क्यों रहता है, या यह पीड़ा किस लिए है। कुछ लोग कहते, “परमेश्वर विनम्र और छिपा हुआ है, परमेश्वर मनुष्य को बचाने के लिए इस पीड़ा को सहता है, परमेश्वर मनुष्य से प्रेम करता है।...” वे ऐसे भ्रमित स्पष्टीकरण देते हैं। क्या यह बिलकुल आवश्यक है कि इंसान को बचाने के लिए वह इन चीजों को सहे? यदि देहधारी परमेश्वर खुद यह पीड़ा न उठाए, तो क्या स्वयं परमेश्वर इसे पूरा कर सकता था? वह पूरा कर सकता था। कुछ लोग कहते हैं, “अनुग्रह के युग में हमें सिर्फ परमेश्वर से प्रार्थना करने की आवश्यकता थी, फिर कोई भी बीमारी फौरन ही ठीक हो जाती थी। हमने कभी दवा नहीं ली, और कुछ लोगों ने तो प्रार्थना करके कैंसर का भी इलाज कर लिया। तो देहधारी परमेश्वर हमेशा बीमारी से पीड़ित क्यों रहता है? उसकी सेहत कभी अच्छी क्यों नहीं रहती? क्यों देहधारी परमेश्वर ने मनुष्य के जितना अनुग्रह प्राप्त नहीं किया है?” मानवजाति के लिए यह हमेशा ही एक पहेली रही है। यह मनुष्य के दिल में एक गाँठ है, लेकिन फिर भी लोग इससे अधिक गंभीरता से पेश नहीं आते। इसके बजाय, वे भ्रमित-से स्पष्टीकरण देते हैं, यह कहते हुए कि परमेश्वर मनुष्य से प्यार करता है, परमेश्वर मानवजाति के लिए कष्ट सहता है। अब भी, लोग इसे सही ढंग से नहीं समझते। संसार की पीड़ा का अनुभव करना देहधारी परमेश्वर की एक जिम्मेदारी है। संसार के दुःखों को अनुभव करना किस उद्देश्य की पूर्ति करता है? यह एक और मुद्दा है। परमेश्वर संसार की पीड़ा का अनुभव करने के लिए आता है, जो कुछ ऐसा है जिसे आत्मा पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सकता है। सिर्फ देहधारी परमेश्वर, जो साधारण, सामान्य और सम्पूर्ण देह का है और जो पूरी तरह से मानव बन गया है, वही पूरी तरह से संसार की पीड़ा का अनुभव कर सकता है। यदि आत्मा को यह काम करना होता, तो वह किसी भी पीड़ा का अनुभव करने में पूरी तरह असमर्थ होता। वह केवल देख और समझ सकता था। क्या देखना, समझना और अनुभव करना सब एक ही बात है? नहीं, ऐसा नहीं है। पहले, परमेश्वर ने कहा था, “मैं संसार के खालीपन को जानता हूँ और उन कठिनाइयों को जानता हूँ जो मनुष्य के जीवन में मौजूद हैं। मैं संसार में यहाँ-वहाँ चला-फिरा हूँ और अतिशय दयनीयता देखी है। मैंने संसार में जीवन की कठिनाइयों, विपन्नता और मनुष्य के जीवन के खालीपन को देखा है।” लेकिन जहाँ तक इसे अनुभव करने का सवाल है, यह पूरी तरह से दूसरा ही मामला है। उदाहरण के लिए, सोचो कि एक परिवार है, जो मुश्किल से अपना गुजारा चला रहा है। तुम यह देखते हो और तुम्हें इसकी कुछ समझ है, लेकिन क्या तुमने खुद उनकी परिस्थिति का अनुभव किया है? क्या तुमने उनकी कठिनाइयों, और उनकी पीड़ा को महसूस किया है और क्या तुम्हारे पास ये भावनाएँ या यह अनुभव है? नहीं, तुम्हारे पास नहीं हैं। अर्थात, देखना और अनुभव करना दो अलग चीजें हैं। यह कहा जा सकता है कि यह आवश्यक है कि इस चीज, इस काम को देहधारी परमेश्वर करे। ऐसे मामलों में, आत्मा पूरी तरह से असमर्थ है। यह देहधारण के अर्थ का एक और पहलू है : परमेश्वर संसार की पीड़ा का अनुभव करने और उस पीड़ा का अनुभव करने आया है जिसे मनुष्य सहता है। वह कैसी पीड़ा का अनुभव करता है? वह मनुष्य के जीवन में मौजूद कठिनाइयों का अनुभव करता है, परिवार के दुर्भाग्य, मनुष्य के धोखे, परित्याग और उत्पीड़न, और साथ ही शरीर की बीमारी—ये सभी संसार के कष्ट के बराबर हैं। बीमारी के कष्ट, आसपास के लोगों, और चीजों के हमले, परिवार में दुर्भाग्य, लोगों द्वारा परित्याग, लोगों की ईशनिन्दा, बदनामी, प्रतिरोध, विद्रोह, अपमान और गलतफहमियाँ इत्यादि—देहधारी परमेश्वर हमले के रूप में इन सबका अनुभव करता है। जो यह सब सहते हैं, उनके लिए भी यह हमला है। चाहे वे बड़े अच्छे व्यक्ति हों, असाधारण व्यक्ति हों, या बहुत उदार मन के व्यक्ति हों, यह पीड़ा, ये चीजें, उन सभी पर हमला हैं। परमेश्वर संसार के उत्पीड़न से गुजरता है, उसे अपना सिर टिकाने और रहने के लिए कोई जगह नहीं है, और कोई विश्वासपात्र नहीं है...। ये सभी चीजें दर्दनाक हैं। भले ही ये चीजें पीड़ा के चरम तक नहीं पहुँचतीं, फिर भी वह इन सभी का अनुभव करता है। कुछ लोग आश्चर्य किया करते थे, “देहधारी परमेश्वर के कार्य में, क्या परमेश्वर इन बीमारियों को दूर नहीं कर सकता है? उसे आसानी से अपना काम करने देना, और लोगों को उनके खिलाफ विद्रोह करने या उसका प्रतिरोध करने इजाजत नहीं देना—क्या परमेश्वर ये चीजें नहीं कर सकता? यदि वह लोगों को दण्ड देता, तो वे उसका विरोध करने की हिम्मत नहीं करते। परमेश्वर के पास अधिकार है, तो वह खुद को बीमार कैसे होने दे सकता है? यदि किसी को कोई बीमारी है तो उसे सिर्फ प्रार्थना करने की आवश्यकता है और वह ठीक हो जाएगा, तो स्वयं परमेश्वर बीमार क्यों होता है?” वह ऐसा इसलिए करता है ताकि वह संसार की पीड़ा का अनुभव कर सके। वह उस देह से जिसे उसने देहधारण के रूप में ग्रहण किया है, इन विपत्तियों या बीमारियों के कष्ट को दूर नहीं करता है, और न ही वह मनुष्य के हाथों त्यागे जाने की पीड़ा दूर करता है। वह सिर्फ इस कठिन परिवेश में प्राकृतिक रूप से बढ़ता है और काम करता है। इस तरह परमेश्वर इस संसार की पीड़ा का अनुभव कर सकता है। यदि इन चीजों में से कोई भी अस्तित्व में नहीं होती, तो वह इस दुःख का स्वाद नहीं चखता। यदि उसे बीमारियाँ न होतीं, या वह ऐसे किसी रोग से पीड़ित न होता जो सामान्य लोगों को कष्ट देता है, तो क्या तब उसकी पीड़ा कम नहीं होती? क्या इसकी व्यवस्था की जा सकती है कि उसे कोई सिरदर्द न हो, अपने दिमाग का बहुत अधिक उपयोग करने के बाद से कोई थकान महसूस न हो, जबकि अन्य लोगों को ऐसा हो? हाँ, इसकी व्यवस्था की जा सकती है; लेकिन इस बार चीजें अलग तरीके से की जा रही हैं। जिस युग में यीशु कार्य कर रहा था, वह भोजन या पानी के बिना 40 दिन और रात तक रह सका था और उसे भूख नहीं लगी। लेकिन वर्तमान युग में, यदि एक बार भी भोजन छूट जाता है तो देहधारी परमेश्वर को भूख लगती है। कुछ लोग कहते हैं, “क्या परमेश्वर सर्वशक्तिमान नहीं है? मेरी नजर में तो वह नहीं है। वह इस तरह की छोटी-सी चीज भी नहीं कर सकता। वह जिसे बातें करता है, उससे हम देखते हैं कि वह परमेश्वर है; तो वह इन चीजों को क्यों प्राप्त नहीं कर सकता?” ऐसा नहीं है कि परमेश्वर इन चीजों को प्राप्त नहीं कर सकता, बल्कि वह उन्हें उस तरह से करता नहीं है। उसके देहधारण का उद्देश्य उन चीजों को करना नहीं है जो लोग सोचते हैं कि परमेश्वर कर सकता है। वह संसार की पीड़ा का अनुभव करता है और उसके ऐसा करने का अर्थ है। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो पूछते हैं : “हे परमेश्वर, तुम्हारे संसार की पीड़ा का अनुभव करने का क्या उपयोग है? क्या तुम मनुष्य के स्थान पर दुःख सह सकते हो? क्या लोग इस समय भी दुःख नहीं सह रहे हैं?” परमेश्वर ऐसा कुछ भी नहीं करता है जो बस यूँ ही किया जाता है। एक बार संसार की पीड़ा सह लेने, एक बार नजर डालकर संसार कैसा है यह देख लेने के बाद वह छोड़कर नहीं जाता। इसके बजाए वह उन सभी कामों को पूर्ण रूप से पूरा करने के लिए आता है जिसकी अपेक्षा उसके देहधारण से की जाती है। कुछ लोग सोचते हैं कि हो सकता है कि परमेश्वर आरामदेह और सुकून की जिन्दगी का आनन्द लेने का इतना आदी हो गया है कि वह बस थोड़ा-सा ही दुःख उठाना चाहता है, कि वह परम आनन्द में रहता है और दुःख का स्वाद नहीं जानता है, इसलिए वह सिर्फ पीड़ा का स्वाद जानना चाहता है। यह केवल लोगों की कल्पनाओं का उत्पाद ही। संसार की पीड़ा का अनुभव करना कुछ ऐसा है जिसे केवल देहधारण के समय के दौरान ही किया जा सकता है। यदि देहधारी परमेश्वर का काम पहले ही पूर्ण रूप से पूरा कर लिया गया है और काम का अगला चरण पहले ही शुरू हो गया है, तो “संसार की पीड़ा का अनुभव” अब और नहीं होना चाहिए। तो वास्तव में किस कारण परमेश्वर संसार की पीड़ा का अनुभव करता है? क्या कोई जानता है? यह भविष्यवाणी की गई है कि मनुष्य के पास कोई आँसू, कोई रुदन, और कोई दुःख नहीं होगा और यह कि संसार में कोई बीमारी नहीं होगी। देहधारी परमेश्वर अब इस पीड़ा का अनुभव कर रहा है और जब वह पूरा कर लेगा तब वह मानवजाति को खूबसूरत मंजिल तक ले जाएगा, और पहले की सभी पीड़ाएँ अब और नहीं होंगी। यह आगे और क्यों नहीं होगा? यह और नहीं होगा क्योंकि स्वयं देहधारी परमेश्वर पहले ही इन सभी दुःखों का अनुभव कर चुका होगा और वह मानवता से इस पीड़ा को हटा चुका होगा। इसी उद्देश्य के लिए परमेश्वर मनुष्य की पीड़ा का अनुभव करता है।

मानवजाति के भविष्य की मंजिल को बेहतर ढंग से तैयार करने के लिए, इसे और सुन्दर, तथा और पूर्ण बनाने के लिए, देहधारी परमेश्वर संसार की पीड़ा का अनुभव करते हैं। यह देहधारण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, और यह देहधारण के कार्य का एक हिस्सा है। यहाँ एक और मुद्दा है। देह बनने और इस पीड़ा का अनुभव करने में, परमेश्वर बाद में मानवता से इस पीड़ा को दूर कर देगा। लेकिन यदि कोई देहधारण नहीं होता और कोई अनुभव लेना नहीं होता, तो क्या इस कष्ट को हटाया जा सकता था? हाँ, इसे अभी भी हटाया जा सकता था। अनुग्रह के युग में, जब यीशु को क्रूस पर चढ़ाया गया, तो वह एक धार्मिक मनुष्य था जो पापी शरीर के सदृश बन गया और अपने आप को पापबलि बना दिया, इस प्रकार पूरी मानवजाति को छुटकारा दिलाया और उन्हें शैतान के चंगुल से छुड़ाया। यह यीशु के क्रूस पर चढ़ाए जाने का उद्देश्य और अर्थ था : वह मानवजाति को अपने अनमोल रक्त के माध्यम से छुटकारा दिला रहा था, ताकि मानवजाति के पाप क्षमा किए जाएँ। अब परमेश्वर इंसानी पीड़ा का अनुभव करता है, जिसका अर्थ है कि वह मनुष्य के स्थान पर इन सबका अनुभव करता है, और इसके बाद मनुष्य को कभी दोबारा इसे सहने की आवश्यकता नहीं होगी। तुम इन वचनों को नहीं भूल सकते : परमेश्वर के कार्य के प्रत्येक चरण में, वह शैतान के साथ युद्ध कर रहा है, और उसके कार्य का प्रत्येक चरण किसी न किसी तरीके से शैतान के साथ इस युद्ध से संबंधित है। अनुग्रह के युग में किए गए कार्य के चरण में, संपूर्ण मानवजाति के पापों को क्षमा किया गया—उसे क्रूसीकरण द्वारा छुटकारा मिला। अगर क्रूसीकरण का यह तथ्य न होता, और इसके बजाय मनुष्यों के पापों की क्षमा सिर्फ वचनों पर निर्भर होती, तो शैतान को आश्वस्त न होता। उसने कहा होता : “तुमने कुछ नहीं सहा है, न ही तुमने मनुष्य के पाप खुद पर लिए हैं। क्या एक वचन से मानवजाति के पाप क्षमा हो गए? यह अस्वीकार्य है! मानवजाति को तुम्हारे द्वारा बनाया गया था, इसलिए मानवजाति की जगह अगर तुम पापों को खुद पर नहीं लेते, तो तुम उनके पाप क्षमा नहीं कर सकते।” अब, कार्य के वर्तमान चरण में, सभी बचाए गए लोगों को खूबसूरत मंजिल पर लाया जाना है, उन्हें अगले युग में लाया जाना है। मानवजाति को अब आगे से दुःख नहीं सहना है, अब और बीमारी से पीड़ित नहीं होना है। लेकिन किस आधार पर मनुष्य को आगे से बीमारी का कष्ट और नहीं सहना? किस आधार पर संसार में अब और पीड़ा नहीं होगी? यह कहना उचित है कि चूँकि लोगों में भ्रष्ट स्वभाव होते हैं और वे परमेश्वर का प्रतिरोध करने में सक्षम हैं, उन्हें इस दुःख से गुजरना चाहिए। इस समस्या का समाधान कैसे किया जा सकता है? अतः, देहधारी परमेश्वर इस बार भी कुछ अति महत्वपूर्ण काम करता है, और वह है मानवजाति की जगह लेना और उसके सभी दर्द सहना। परमेश्वर के देह बनने और इंसानी पीड़ा सहने का यह “अनुभव” मानवजाति के स्थान पर उसके पीड़ा सहने के बारे में है। कुछ लोग कहते हैं : “अब जबकि परमेश्वर मानवजाति के स्थान पर दुःख सहता है, तो हम अब भी दुःख क्यों सहते हैं?” तुम अभी परमेश्वर के काम का अनुभव कर रहे हो। तुम्हें अभी तक पूरी तरह पूर्ण नहीं किया गया है, तुमने अभी तक अगले युग में पूरी तरह से प्रवेश नहीं किया है और तुम्हारा स्वभाव अभी भी भ्रष्ट है। परमेश्वर का काम अभी तक अपनी उत्कृष्टता तक नहीं पहुँचा है और यह अभी भी चल रहा है। अतः लोगों को अपने दुःखों के बारे में शिकायत नहीं करनी चाहिए; देहधारी परमेश्वर अभी भी दुःख सहता है, मनुष्य की तो बात ही छोड़ो। क्या इसका अत्यधिक महत्व नहीं है कि परमेश्वर इंसानी पीड़ा का अनुभव करता है? देहधारी परमेश्वर छोटे-छोटे काम करने और फिर चले जाने के लिए नहीं आया है। लोगों की समझ बहुत उथली है—वे मानते हैं कि देहधारी परमेश्वर स्वयं परमेश्वर का काम करने के लिए आया है, कि यह देह परमेश्वर की ओर से बस परमेश्वर के वचन और कार्य को व्यक्त करने के लिए आया है। कुछ लोग हैं जो यहाँ तक सोचते हैं कि यह देह सिर्फ एक बाहरी रूप है, लेकिन यह पूरी तरह से गलत नजरिया है, और देहधारी परमेश्वर के विरुद्ध विशुद्ध ईश निन्दा है। देह के कार्य का अर्थ है कि स्वयं परमेश्वर आया है और इंसानी दुख का अनुभव करने के लिए देह बन गया है। क्या लोगों का यह मानना सही है कि परमेश्वर की देह का बाहरी रूप इस दुःख का अनुभव करने के लिए आया है, और भीतर उसका आत्मा कष्ट नहीं सह रहा है? जब देह दुःख सहता है तो परमेश्वर का आत्मा भी दुःख सहता है। जब यीशु को क्रूस पर चढ़ाया जाना था, उसने प्रार्थना की : “हे मेरे पिता, यदि हो सके तो यह कटोरा मुझ से टल जाए, तौभी जैसा मैं चाहता हूँ वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो” (मत्ती 26:39)। उसने यह इच्छा जाहिर की थी क्योंकि जैसे उसके देह ने कष्ट सहा, वैसे ही भीतर उसके आत्मा ने भी कष्ट सहा। यदि तुम कहते हो कि यह केवल देह का बाहरी आवरण है जो दुःख सहता है, कि परमेश्वर अपनी दिव्यता में बिल्कुल भी दुःख नहीं सहता है, वह कोई यातना नहीं सहता है, तो तुम गलत हो। यदि तुम इसे इस तरह समझते हो तो यह साबित करता है कि तुमने देहधारी परमेश्वर के सार के पहलू को नहीं देखा है। ऐसा क्यों कहा जाता है कि अब परमेश्वर एक देह की काया के भीतर मूर्त रूप में प्रकट हो गया है? परमेश्वर जब भी चाहे आ-जा सकता है, लेकिन वह ऐसा नहीं करता है। वह इस असल, यथार्थ दुःख का अनुभव करने के लिए मानव बन गया है, ताकि जब यह होता है तो लोग इसे देखें और महसूस करें। वह उस पीड़ा को महसूस कर सकता जिससे वह गुजरता है, वह स्वयं उसे अनुभव करता है। ऐसा कभी नहीं होता कि उसका देह कष्ट या यातना का कोई हिस्सा सहे और उसका आत्मा इसे महसूस न करे—उसका देह और आत्मा समान रूप से कष्ट महसूस करते और सहते। क्या यह समझने में आसान है? यह आसान नहीं है। यह आसान नहीं है क्योंकि मनुष्य सिर्फ देह को देख सकता है, और वह नहीं देख सकता है कि जब देह कष्ट सहता है तो आत्मा भी कष्ट सहता है। क्या तुम विश्वास करते हो कि जब कोई कष्ट सहता है, तब उसकी आत्मा भी कष्ट सहती है? लोग ऐसा क्यों कहते हैं कि वे अपने दिल की गहराई में फलां-फलां बात महसूस करते हैं? ऐसा इसलिए है क्योंकि मनुष्य की देह और आत्मा एक हैं। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा और देह एक ही है; वे एक जैसा कष्ट सहते हैं और एक जैसी खुशी महसूस करते हैं। ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है जो, वास्तविक दर्द सहते समय, इसे केवल अपनी देह में ही महसूस करता हो जबकि उसका हृदय आनंदित हो; और न ही कोई ऐसा है जो कहेगा कि जब उसका हृदय पीड़ा में होता है तो उसकी बाहरी देह बिलकुल भी कष्ट नहीं सहती है। हृदय की वे चीजें जो भावनाएँ या दर्द को जन्म देती हैं, या जिन चीजों का हृदय में अनुभव किया जा सकता है—इन चीजों को देह भी महसूस कर सकती है।

देहधारी परमेश्वर अपना काम करने के लिए आया है—संसार की पीड़ा का अनुभव करने आया है—ताकि वह मनुष्य की सारी पीड़ा अपने ऊपर ले ले। जब वह इन सभी दुःखों को खत्म हो जाने तक सह लेता है, तो इस तरह का काम अगले चरण में दोहराने की आवश्यकता नहीं होती। इसके बजाय, मानवजाति को खूबसूरत मंजिल पर लाया जा सकता है। क्योंकि उसने मनुष्य के स्थान पर इस दर्द को सहा है, इसलिए वह मनुष्य को उस खूबसूरत मंजिल पर लाने के योग्य है—यह उसकी योजना है। कुछ बेतुके लोग कहते हैं : “मैंने देहधारी परमेश्वर को यह सब पीड़ा सहते क्यों नहीं देखा? यह सब का सब, अपनी पूरी समग्रता में सहा नहीं गया है। सभी प्रकार के दुःखों को सहा जाना चाहिए, और उसे कम से कम क्रूसीकरण की पीड़ा तो सहनी ही चाहिए।” क्रूसीकरण की से पीड़ा पहले सहन की जा चुकी है और फिर से सहने की आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा, लोगों को ऐसी बातें नहीं कहनी चाहिए। क्या इन वर्षों के दौरान देहधारी परमेश्वर ने बहुत कुछ नहीं सहा है? केवल बेतुके लोग ही इस तरह सोचते हैं। उस कष्ट के दायरे के भीतर जिसे देहधारी परमेश्वर द्वारा सहन किया जा सकता है, मूल रूप से मनुष्य को कष्ट देने वाली सभी पीड़ाएँ उस पर पड़ सकती हैं। जहाँ तक ऐसे दुःख की बात है जो बहुत बड़ा है, ऐसा दुःख जिसे हजार में से सिर्फ एक मनुष्य सह सकता है, तो परमेश्वर को इसे सहने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इन सभी दुःखों का पहले ही प्रतिनिधि रह चुका है। परमेश्वर ऐसे दुःख का अनुभव कर सकता है, और इससे साबित होता है कि वह सामान्य लोगों से अलग नहीं है, उसमें और लोगों में कोई अंतर नहीं है, उसके और लोगों के बीच में कोई विभाजन नहीं है, और वह लोगों के समान ही कष्ट सहता है। जब लोग कष्ट सहते हैं, तो परमेश्वर भी कष्ट सहता है। समय-समय पर, लोग बीमार होते हैं और कष्ट सहते हैं, और परमेश्वर इसे व्यक्तिगत रूप से अनुभव करता है—उसने इन सारे दुःखों का स्वाद चखा है। इस बार, देहधारी परमेश्‍वर का कष्ट पिछली बार के समान नहीं है, जब उसे क्रूस पर मृत्यु का स्वाद चखना पड़ा था। यह जरूरी नहीं है, क्योंकि यह पहले ही अनुभव किया जा चुका है। इस बार इंसानी पीड़ा का अनुभव करना है और मनुष्य की पीड़ा अपने ऊपर लेना है। इससे पहले, यहोवा ने आत्मा के माध्यम से काम किया था और इससे मनुष्य कुछ चीजें प्राप्त कर सका। हालाँकि, देहधारी परमेश्वर का कार्य लोगों के द्वारा देखा और महसूस किया जा सकता है, जो इसे लोगों के लिए आत्मा के कार्य की अपेक्षा अधिक सुविधाजनक और अधिक सुगम बनाता है। यह एक पहलू है। दूसरा पहलू है कि देहधारी परमेश्वर संसार के कष्टों का अनुभव कर सकता है। इसे आत्मा के कार्य के द्वारा बिल्कुल भी प्राप्त नहीं किया जा सकता है; बल्कि इसे आवश्यक रूप से सिर्फ उसके देहधारण के द्वारा ही प्राप्त अवश्य किया जा सकता है। अगर आत्मा कार्य कर रहा होता, तो आत्मा को जो कहना होता वह कहता और फिर चला जाता। जब वह लोगों के संपर्क में होता है तब भी, वह संसार की पीड़ा का अनुभव नहीं कर सकता है। शायद कुछ लोग पूछना चाहें : “यदि देहधारी परमेश्वर कष्ट सहता है, तो क्या आत्मा भी कष्ट नहीं सहता? क्या आत्मा भी इसका अनुभव नहीं कर सकता?” क्या इसका ख्याल बेतुका नहीं है? आत्मा तभी पीड़ा का अनुभव कर सकता है जब उसने देह को धारण किया हो। आत्मा और देह अविभाज्य हैं; आत्मा भी देह की पीड़ा का अनुभव करता है। अगर आत्मा ने देह का चोगा न पहना हो, तो वह इसे महसूस करने में सक्षम नहीं होगा। देह की पीड़ा की भावनाएँ कहीं अधिक विस्तृत होती हैं, अधिक असल और अधिक ठोस होती हैं। ये ऐसी चीजें हैं जिन तक आत्मा नहीं पहुँच सकता। भौतिक संसार में कुछ ऐसी चीजें हैं जिसका स्थान आत्मा का काम नहीं ले सकता। यह देहधारण का सबसे व्यापक अर्थ है।

पहले यह कहा जा चुका है कि मसीह ने संसार की पारिवारिक खुशियों में कोई हिस्सा नहीं लिया। कुछ कहते हैं : “मसीह जहाँ कहीं गया, सभी उससे अच्छे से पेश आए। कुछ लोगों ने उसके लिए अच्छी चीजें भी खरीदीं और हर जगह उसका बहुत आदर किया गया था। उसके लिए चीजें काफी आनंददायक रही होंगी और उसने बिलकुल भी अधिक कष्ट नहीं सहा, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि उसने इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया?” इस वक्तव्य का क्या? यह कहना कि उसने इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया, इसका मतलब यह नहीं कि उसने इन चीजों का आनन्द नहीं लिया, बल्कि यह है कि इन चीजों की वजह से उसके द्वारा उठाए गए कष्ट कम नहीं हुए। यही है “उसने इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया” का अर्थ। उदाहरण के लिए, मान लो, तुम किसी बीमारी से संक्रमित हो जाते हो और कोई तुम्हें कुछ अच्छे कपड़े देता है। क्या इन कपड़ों के कारण तुम्हें बीमारी के कष्ट से कुछ आराम मिलेगा? नहीं। तुम्हारी पीड़ा में बिल्कुल भी आराम नहीं मिलेगा। तुम्हें तब भी वह कष्ट सहने होंगे जो तुम्हें अवश्य सहने हैं और “उसने इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया” का अर्थ यही है। उदाहरण के लिए, कोई बीमारी, या किसी के परिवेश के अवरोध से होने वाली पीड़ा, देह के सुखों के कारण कम नहीं की जा सकती है, और मसीह ने इन चीजों को अपने आनन्द के लिए नहीं लिया। इसलिए यह कहा जाता है, “उसने इसमें कोई हिस्सा नहीं लिया।” कुछ बेतुके लोग सोचते हैं, “यदि परमेश्वर संसार की पारिवारिक खुशी में कोई हिस्सा नहीं लेता है, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हम कैसे उसका स्वागत करते हैं क्योंकि हम चाहे जो भी करें परमेश्वर कष्ट ही सहेगा।” यह समझ बहुत गहराई से बेतुकी है और यह दिखाती है कि लोगों के दिल में दुर्भावना है। लोगों के हृदयों का सर्वोत्तम उपयोग किया जाना चाहिए; लोगों को अपने कर्तव्यों को अपनी संपूर्ण क्षमता के साथ निभाना चाहिए। फिर ऐसे लोग हैं जो इसे ऐसे समझते हैं : “परमेश्वर परम आनन्द लिया करता था, और अब कुछ भिन्न करने—संसार की पीड़ा सहने—की कोशिश करने के लिए आया है।” क्या यह इतना सरल है? तुम्हें यह समझना चाहिए कि परमेश्वर संसार के कष्ट का अनुभव करने के लिए क्यों आता है। परमेश्वर जो कुछ भी करता है, उसका बड़ा गहरा महत्व होता है। उदाहरण के तौर पर यीशु के क्रूसीकरण को लो। यीशु को क्रूस पर क्यों चढ़ना पड़ा? क्या यह संपूर्ण मानवजाति को छुटकारा दिलाने के लिए नहीं था? वैसे ही, परमेश्वर के वर्तमान देहधारण का, और उसके द्वारा संसार की पीड़ा का अनुभव करने का भी बहुत बड़ा अर्थ है—यह मानवजाति की खूबसूरत मंजिल के लिए है। अपने कार्य में, परमेश्वर हमेशा ठीक वही करता है, जो सबसे अधिक व्यावहारिक है। ऐसा क्यों है कि परमेश्वर देखता है कि मनुष्य पापरहित हो सकता है, और उसके पास परमेश्वर के सामने आने का अच्छा सौभाग्य हो सकता है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि यीशु ने क्रूस पर चढ़कर मनुष्य के पाप अपने ऊपर ले लिए और मानवजाति को छुटकारा दिला दिया। तो फिर क्यों मानवजाति अब और कष्ट नहीं सहेगी, दुःख महसूस नहीं करेगी, आँसू नहीं बहाएगी, और आह नहीं भरेगी? इसका कारण यह है कि परमेश्वर के मौजूदा देहधारण ने यह समस्त कष्ट अपने ऊपर ले लिया है, और यह कष्ट अब मनुष्य की ओर से सहा जा चुका है। यह उस माँ के समान है, जो अपने बच्चे को बीमार होते देखती है और स्वर्ग से प्रार्थना करती है, यह इच्छा करती है कि उसकी अपना जीवन छोटा हो जाए मगर उसका बच्चा ठीक हो जाए। परमेश्वर भी इसी तरह काम करता है, वह मानवजाति को भविष्य में मिलने वाली खूबसूरत मंजिल के बदले दर्द सहने की पेशकश करता है। अब कोई दुःख नहीं होगा, आँसू नहीं होंगे, आहें नहीं होंगी और कष्ट नहीं होगा। परमेश्वर मानवजाति को मिलने वाली खूबसूरत मंजिल के बदले में व्यक्तिगत रूप से दुनिया की पीड़ा अनुभव करने की कीमत—लागत—चुकाता है। यह कहने का कि यह “खूबसूरत मंजिल के बदले में” किया जाता है, यह अर्थ नहीं कि परमेश्वर के पास मानवजाति को खूबसूरत मंजिल प्रदान करने का सामर्थ्य या अधिकार नहीं है, बल्कि इसके बजाय परमेश्वर लोगों को पूरी तरह से आश्वस्त करने के लिए कहीं अधिक व्यावहारिक और शक्तिशाली प्रमाण ढूँढ़ना चाहता है। परमेश्वर ने पहले ही इस पीड़ा का अनुभव कर लिया है, इसलिए वह योग्य है, उनके पास वह सामर्थ्य है, और इससे भी बढ़कर, उसके पास मानवजाति को उस खूबसूरत मंजिल तक पहुँचाने, उसे वह खूबसूरत मंजिल और वादा प्रदान करने का अधिकार है। शैतान पूरी तरह आश्वस्त हो जाएगा; ब्रह्मांड की सभी रचनाएँ पूरी तरह आश्वस्त हो जाएंगी। अंत में, परमेश्वर मानवजाति को अपना वादा और प्रेम प्राप्त करने देगा। हर चीज जो परमेश्वर करता है वह व्यावहारिक है, वह ऐसा कुछ नहीं करता है जो खोखला हो, और वह सब कुछ स्वयं अनुभव करता है। परमेश्वर मानवजाति के लिए गंतव्य के बदले में दुःख सहन करने के अपने अनुभव को कीमत के रूप में चुकाता है। क्या यह व्यावहारिक कार्य नहीं है? माता-पिता अपने बच्चों के लिए एक सच्ची कीमत चुका सकते हैं और यह अपने बच्चों के लिए उनका प्रेम दर्शाता है। ऐसा करने में, देहधारी परमेश्वर ज़ाहिर तौर पर मानवता के प्रति अत्यधिक ईमानदार और वफादार है। परमेश्वर का सार विश्वसनीय है; जो वह कहता है उसे करता है और जो कुछ भी वह करता है वह पूरा होता है। हर चीज जो वह मनुष्य के लिए करता है वो निष्कपट है। वह मात्र वचनों की उक्ति नहीं करता; जब वह कहता है कि वह मूल्य चुकाएगा, तो वह यथार्थ में मूल्य चुकाता है; जब वह कहता है कि वह मनुष्य के कष्ट अपने ऊपर ले लेगा और उनके स्थान पर कष्ट उठाएगा, तो वह वास्तव में उनके बीच रहने के लिए आता है, व्यक्तिगत रूप से इस कष्ट को महसूस और अनुभव करता है। उसके बाद, ब्रह्मांड की सभी चीजें मानेंगी कि हर चीज जो परमेश्वर करता है वह सही और धर्मी है, कि सब कुछ जो परमेश्वर करता है वह वास्तविक है : यह सामर्थ्यवान प्रमाण है। इसके अलावा, भविष्य में मानवजाति के पास एक खूबसूरत मंजिल होगी और वे सभी जो बचेंगे वे परमेश्वर की प्रशंसा करेंगे; वे बड़ाई करेंगे कि परमेश्वर के कार्य वास्तव में मानवता के लिए उसके प्रेम के कारण किए गए हैं। परमेश्वर मानव के बीच एक साधारण व्यक्ति के रूप में विनम्रतापूर्वक आता है। वह केवल कुछ कार्य करके, कुछ वचनों को बोलकर, चला नहीं जाता है; बल्कि, वह संसार की पीड़ा का अनुभव करते हुए वास्तव में बोलता और कार्य करता है। जब वह इस पीड़ा का अनुभव करना समाप्त कर लेगा, तभी वह जाएगा। परमेश्वर का कार्य इतना वास्तविक और इतना व्यावहारिक होता है; वे सब जो बाकी रहेंगे वे इसके कारण उसकी प्रशंसा करेंगे, और वे मनुष्य के प्रति परमेश्वर की निष्ठा और उसकी दयालुता को देखेंगे। परमेश्वर की सुन्दरता और अच्छाई के सार को देह में उसके देहधारण के महत्व में देखा जा सकता है। जो कुछ भी वह करता है वह सच्चा है; जो कुछ भी वह कहता है वह गंभीर और विश्वसनीय है। वह जो भी चीजें करने का इरादा रखता है, वास्तव में करता है; जब मूल्य चुकाना होता है, वह वास्तव में मूल्य चुकाता है; वह महज वचनों की उक्ति नहीं करता। परमेश्वर एक धर्मी परमेश्वर है; परमेश्वर एक विश्वसनीय परमेश्वर है।

वसंत ऋतु, 1997

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